Friday, 6 January 2017

ठिकाणेदारों द्वारा दिए जाने वाले कर एवं सेवाएं

ठिकाणेदारों द्वारा दिए जाने वाले कर एवं सेवाएं -
1. रेख - शासन समय-समय पर अपने भाई-बन्धुओं, पुत्रों और सरदारों को जागीर पट्टे दिया करते थे। प्रारंभ में उनसे चाकरी (सेवा) के अतिरिक्त कोई कर नहीं लिया जाता था। मुगल पद्धति से प्रभावित होकर सर्वप्रथम महाराज शूरसिंह के समय से ठिकाणेदों के पट्टो में अनेक गांवों की रेख दर्ज की जाने लगी। किन्तु मुगल शक्ति के पतन के बाद मराइों के बढते उपद्रवों से निपटने के लिए महाराजा विजयसिंह को नई आर्थिक व्यवस्था करने के लिए मजबूर होना पड़ा। सन् 1755 ई. मे उसने ठिकाणेदारों पर शाही जजिये ओर मारवाड से बाहर के युद्धों में भाग लेने की सेवा के बदले में एक हजार की आमदानी पर तीन सौ रूपए के हिसाब से मतालबा नामक कर लगाया। यह दर आवश्यकतानुसार घटती बढ़ती रही जोकि 150 रु से 300 रु के बीच रही।102 महाराजा मानसिंह के लिए तो एक कहावत प्रचलित हो गई कि ‘‘मान लगाई महीपति रेखां ऊपर रेख’’।103 अधिक रेख लगाने से राजा और सामन्तों के बीच तनाव उत्पन्न हो गया । 1839 ई. में पोलिटिकल एजेण्ट के कहने पर उसकी दर प्रतिवर्ष प्रति हजार की जागीर पर  80 रूप रेख लेना निश्चित किया गया। 1913 ई. में सर प्रताप ने धार्मिक जागीरों से रेख लेने का आदेश दिया।104
2. चाकरी -युद्ध में महाराजा का साथ देने के लिए ठिकाणेदारों द्वारा दी जाने वाली सैनिक सहायता ‘चाकरी’ कहलाती है। ठिकाणे की देख के आधार पर चाकरी (सेवा) करनी होती थी। एक हजार की आय पर एक घुड़सवार साढे सात सौ की आय पर एक शतुर (ऊँट) सवार, पांच सौ की आय पर एक पैदल सैनिक तथा 250 रूपए की आय पर एक पैदल सैनिक 6 माह के लिए भेजा जाता था किन्तु जब ठिकाणेदारों ने अक्षम व अकुशल सैनिक और घटिया उपकरणों के साथ सैनिक व घुड़सवार भेजना प्रारंभ कर दिया, तब महाराजा ने 1894 ई. से नकद भुगतान लेने की योजना प्रारंभ की और आधुनिक ढंग से रसाला स्थापित की गई।106
3. पेशकशी या हुकुमनामा - यह नए उत्त् राधिकारी ठिकाणेदारों के द्वारा दिया जाने वाला उत्त् राधिकारी शुल्क हैं। ठाकुर की मृत्यु होने पर शासक द्वारा उसके ठिकाणे को जब्त कर लिया जाता था तथा पेशकशी की एक बडी रकम वसूल करके नए उत्त् राधिकारी के नाम का पट्टा प्रदान कर दिया जाता था। सर्वप्रथम यह प्रथा मोटा राजा उदयसिंह ने मुगल पद्धति से प्रभावित होकर की। महाराजा सूरसिंह (1595ई. -1619ई.)  ने यह रकम पट्टा के रेख के बराबर निर्धारित की। महाराजा अजीतसिंह के समय इसका नाम हुकुमनामा पड़ गया तथा इसके साथ ठिकाणेदारों से ‘‘तगीरात’’ नामक एक नया कर वसूल किया जाने लगा।107 महाराज विजयसिंह (1751 ई.-1793 ई.) के शासनकाल में मराठो के निरंतर आक्रमण के कारण राज्य की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई। महाराजा ने हुकुमनामा गकी रकम जागीर की आय से दुगुनी तक वसूल की और इसके साथ भुत्सद्यी खर्च के रूप में अतिरिक्त धनराशि भी एकत्रित की। महाराज मानिंसह के समय में तो हुकुमनामा की रकम की दर में और अधिक वृद्धि की गई। इस प्रकार हुकुमनामा की रकम जो स्वेच्छाचारित पूर्वक वसूली जा सकती थी उससे सामन्तों के मन में राजा के प्रति रोष उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था।108
4. अन्य अदायगियाँ-राज्याभिषेक के अवसर पर शासक को 25 रू. नजराना, शासक एवं युवराज की प्रथम शादी के समय भेंट 100 रूपए, राजकुमारी के विवाह पर ‘‘न्योत’’ के रूप में 40 रूपए प्रति हजार की रेख पर दिया जाता था। अलग-अलग शासकों के काल में इन दरों में हेर-फेर भी कर दिया जाता था।109 भोमिया राजपूतों को कुछ सेवा करने के लिए भूमि दी जाती थी जिस पर कभी-कभी भूमि-बाव वसूला जाता था।110
5. ठिकाणेदारों के अन्य कत्त् र्व्य-सामन्तों को इन करों की अदायगी के अलावा कुछ अन्य कत्त् र्व्यों को भी निभाना पड़ता था। इसमें  मुख्य कत्त् र्व्य ठिकाणेदारों की दरबार में उपस्थिति थी। उनको प्रतिवर्ष एक निश्चित अवधि के लिए दरबार में रहना पड़ता था और इस काल में राजा की पूर्व आज्ञा के बिना वे राजधानी को नहीं छोड सकते थे।111 साथ ही कुछ विशिष्ट त्यौहारों जैसे कि अक्षय-तृतीया, दशहरा आदिपर भी उन्हें दरबार में उपस्थित रहना पड़ता था। रनिवास की देखभाल का कार्य भी किसी भी ठिकाणेदार को राजा की राजधानी से गैर हाजिरी की स्थिति में संभालना पड़ता था। साथ ही रनिवास की महिलाओं की यात्रा आदि पर उनकी सुरक्षा का कार्य और यात्रा व्यवस्था आदि का कार्य किसी भी ठिकाणेदार को निभाना पड़ता था।112 ठिकाणेदारों को नया किला बनवाना के लिए शासकों से पूर्व अनुमति लेनी भी आवश्यक होती थी और यहां तक कि उनको अपने पुत्र-पुत्रियों का विवाह करने से पहले शासक का सूचना भेजनी पड़ती थी।


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