महासिंह द्वारा युवराज अभयसिंह के राज्याधिकार की सुरक्षा में भूमिका
1780 ई. में महाराजा अजीतसिंह की हत्या उसी के पुत्र बख्तसिंह ने अपने अग्रज अभयसिंह के बहकावे में आकर कर दी।57 तत्पश्चात् राज्यधिकार के लिए राजकुमारों में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होने लगी क्योंकि बख्तसिंह, आनन्दसिंह, रायसिंह, और किशोर सिंह अपने अग्रज की जगह स्वयं राज्य प्राप्त करने के लिए लालायित थे। इसके विपरीत स्वामिभक्त सरदार अभयसिंह को चाहते थे। दाह संस्कार के समय चंूकि अभयसिंह दिल्ली में था इसलिए महासिंह ने बख्तसिंह से किले की रक्षा करने का समुचित प्रबन्ध किया।58 उसने अभयसिंह को दिल्ली पत्र भेजकर शीघ्र जोधपुर आने के लिए लिखा। पिता की मृत्यु का समाचार पाकर 1724 ई. को वह औपचारिक रूप से जोधपुर की गद्दी पर बैठा। बादशाह मुहम्मदशाह ने उसका टीका किया।59 महाराजा अभयसिंह के जोधपुर पहुँचने तक 7-8 माह तक महासिंह जोधपुर का उचित प्रबन्ध करता रहा। मारवाड़़ के सरदार भण्डारी रघुनाथ और खींवसी से अत्यधिक नाराज थे। सरदारों का पक्का विश्वास था कि भण्डारी रघुनाथ और खींवसी महाराजा अजीतसिंह की हत्या में शामिल थे। सरदारों के दबाव में आकर महाराज ने इन्हंें कैद कर लिया। खींवसी से प्रधान पद छीनकर महासिंह को यह पद 1725 ई. में दिया गया।60जोधपुर पर महाराजा अभयसिंह का अधिकार हो जाने पर उसके अनुज आनन्दसिंह रायसिंह और किशोरसिंह बिलाड़ा पहँुचे। वहाँ से सरकारी घोडे़ और कुछ सरदारों की सहायता पाकर इन्होंने सोजत पर अधिकार कर लिया। अभयसिंह ने प्रधान महासिंह और उसके अनुज दासपों के चाम्पावत प्रतापसिंह को विद्रोहियों के विरूद्ध भेजा। युद्ध में महाराज की सेनाएँ विजयी रहीं। तीनों भाईयांे को सोजत से निकाल दिया गया। अब वे मारवाड़़ मे लूटपाट करने लगे।61
पोकरण के नरावत राठौड़़ सरदारों के उत्पातों का दमन एवं चाम्पावत महासिंह को पोकरण ठिकाणा दिए जाने के कारण
1728 ई. में किशोर सिंह ने अपने मामा जैसलमेर महारावल की सहायता से पोकरण और फलौदी में लूटपाट करना प्रारम्भ किया। इस पर राज्यधिराज बख्तसिंह सेना सहित नागौर से वहां गया। 1728 ई. में किशोर सिंह ने अपने मामा जैसलमेर महारावळ की सहायता से पोकरण और फलौदी में लूटपाट करना प्रारम्भ किया।62 इस पर राज्याधिराज बख्तसिंह सेना सहित नागौर से वहाँ गया।63 बख्तसिंह ने इस क्षेत्र को किशोरसिंह के उपद्रव से मुक्त किया,64 किन्तु जैसे ही बख्तसिंह लौटा किशोरसिंह ने जैसलमेर के भाटियों और पोकरण के नरावतों की सहायता से पुनः उपद्रव करना प्रारम्भ कर दिया। राजाज्ञा मिलने पर महासिंह और प्रतापसिंह ने जवाबी कार्यवाही करते हुए किशोरसिंह को वहाँं से खदेड़ दिया तथा जैसलमेर के गाँवों में लूटपाट करनी प्रारम्भ कर दी। दोनों भाइयों ने आगे बढकर जैसलमेर को जा घेरा और महारावल से अहदनामा करवाया कि वे फिर कभी किशोरसिंह की सहायता नहीं करेगें।65
महासिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर पोकरण का पट्टा उसे दिया गया। किन्तु यह पट्टा किस वर्ष दिया गया, इसे लेकर अलग अलग स्त्रोंतों में हमें भिन्न भिन्न विवरण मिलते है। ठा. मोहनसिंह कानोता ने यह नवम्बर दिसम्बर, 1729 ई. (वि.सं. 1786 मिगसर वदी 1) बताया है।66 जबकि अधिकांश स्त्रोत यथा मारवाड़़ रा ठिकाणां री विगत,67 तवारीख जागीरदारां राज मारवाड़़,68 पं. विश्वेश्वर नाथ रेऊ,69 ठिकाणा पोहकरण का इतिहास70 राठौड़़ां री ख्यात71 इत्यादि में यह फरवरी मार्च, 1729 ई. (वि.सं.1785 फागण सुद 6) वर्णित है। महासिंह को प्रदान किए गए पट्टे का विवरण72
56,443 पोकरण के गाँव 72 व रामदेवरा के मेले 2,
9,640 तफै दुनाड़ा के गाँव
4100 दुनाड़ा
5540 मजल
66083 कुल गाँव 72
ठा. मोहनसिंह ने वर्णित किया है कि 100 गाँव सहित 1,08,802 रू. की जागीर दी गई जो सही नहीं है। महासिंह को पोकरण का पट्टा दिए जाने के बाद उसकी भीनमाल जागीर का पट्टा रद्द करके भीनमाल खालसा कर दिया गया73। महासिंह को पोकरण का पट्टा दिए जाने के कारण निम्नलिखित थे ।
1 चांपावत महासिंह किशोरसिंह के उपद्रव को सदा के लिए शान्त करके जैसलमेर रावल से प्रतिज्ञापत्र लिखवाने में सफल रहे कि भविष्य में किशोरसिंह की कोई मदद नहीं करेगें। महाराजा उससे प्रसन्न थे ।
2. पोकरण फलौदी की तरफ से जैसलमेर वाले सदा उपद्रव करते थे और लूटपाट किया करते थे। महासिंह को पोकरण का पट्टा दिए जाने से इस उपद्रव पर रोक लगती।
3. जैसलमेर रावल इन क्षेत्रों पर पूर्व में अधिकार प्राप्त करने में सफल रहे थे। वे पुनः उन क्षेत्रों पर अधिकार करने के लिए उचित मौके की तलाश में रहते थे। इसलिए महाराजा यह क्षेत्र एक शक्तिशाली सरदार को पट्टे के रूप में देना चाहता था, जिससे जैसलमेर इस ओर आक्रमण करने का दुःसाहस न करे तथा सीमा भी सुरक्षित रहे।
4. भीनमाल की तरफ देवल, देवड़ों का उपद्रव अधिक था, इसलिए वहाँ सरकारी थाना रखकर सरकारी सेना रखी जा सकती थी और महासिंह के भाई प्रतापसिंह जो दासपो का जागीरदार था, को हिदायत दी गई कि जब कभी काम पड़े तब वह सरकारी थानेदार को मदद देता रहे। भीनमाल को खालसा में ले लिया गया, इससे दोनों क्षेत्रों का प्रबन्ध अच्छा हो गया ।74
5. पूर्व में बताया गया है कि महाराजा अजीतसिंह ने पोकरण का पट्टा नरावत चन्द्रसेन के स्थान पर चाम्पावत महासिंह को दिया था।75 चन्द्रसेन जो बादशाह के यहाँ सेवारत था, की सेवाओं को ध्यान में रखते हुए चन्द्रसेन का पट्टा बहाल कर दिया गया। किन्तु जब नरावतों ने महाराज अभयसिंह के विरूद्ध आनन्दसिंह की सहायता की तब उनसे पोकरण का पट्टा जब्त करना उचित था तथा महासिंह को यह पट्टा देना नैतिक रूप से सही था।सन् 1730 ई. में मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ने महाराजा अभयसिंह को गुजरात का सूबेदार नियुक्त किया क्योंकि पूर्व सूबेदार सरबुलन्द खाँ बागी हो गया था। महाराजा ने एक सेना एकत्र करके गुजरात की ओर प्रस्थान किया।76 मार्ग में उन्हें सूचना मिली कि रेवड़ा का देवड़ा लाखा जालौर प्रान्त में लूटपाट करता रहा है। उसका दमन करने के लिए चाम्पावत महासिंह आदि को 4000 सेनिकों की सेना देकर रेवड़ा भेजा गया। एक भीषण लड़ाई के बाद देवड़ों को मार गिराया गया और रेवड़ा में महाराज का थाना स्थापित कर लिया गया। वहाँ से आगे बढ़कर अभय सिंह की सेना ने सिरोही को जा घेरा। तब सिरोही के राव उम्मेदसिंह ने अधीनता स्वीकार कर ली। सिरोही की सेना को साथ लेकर अभयसिंह गुजरात की ओर बढ़ा।77
1730 ई. को साबरमती के तट पर मोजिर गाँव में जाकर डेरा डाला गया। यहाँ से मात्र दो मील की दूरी पर सरबुलन्द खाँ का डेरा था। महाराजा ने अपने पंचोली राजसिंह को भेजकर उसके कहलवाया कि अहमदाबाद की सूबेदारी का शाही परवाना उसको मिल चुका है। अतः अहमदाबाद का अधिकार दे दो । किन्तु सरबुलन्दखाँ इसके लिए तैयार नहीं हुआ।78 महाराज अभयसिंह ने अपने सरदारों में मंत्रणा करके युद्ध करने का निश्चय किया। प्रधान महासिंह ने महाराज से निवेदन किया कि नवाब ने ईटों से किले को चुनवा दिए हंै।79 अतः उन्हें भी मोर्चे लगाना आवश्यक है अभयसिंह ने सुझाव स्वीकार करके पाँच मोर्चे लगाने का आदेश दिया। महासिंह प्रथम मोर्चे में था। घमासान युद्ध के बाद अहमदाबाद पर अधिकार कर लिया गया।80 इस युद्ध में महासिंह को 11 घाव लगे । युद्ध में महासिंह के योगदान से प्रसन्न होकर महाराज ने उसको हाथी सिरोपाव एवं मोतियों की कण्ठी, सिरपेच, दुपट्टा व रूपये इनायत किए।81
सन् 1736 ई. में जयपुर नरेश सवाई जयसिंह के उकसाने के कारण मराठों ने मल्हारराव होल्कर के नेतृत्व में गुजरात की ओर से आकर जालोर और बिलाड़ा में उपद्रव किया और फिर मेड़ता चले गए। महाराजा अभयसिंह ने चाम्पावत महासिंह व अन्य सरदारों को भेजा। इन्होंने मालकोट मेड़ता में युद्ध की तैयारी की। दोनों ओर से मोर्चे लगाए गए। युद्ध प्रारम्भ होने के कुछ ही समय बाद तोपों की मार से घबराकर मराठों ने युद्ध बन्द कर दिया।82 सन् 1740 ई. में महाराजा अभयसिंह ने बीकानेर पर आक्र्रमण किया। महासिंह इस आक्रमण में महाराज के साथ था। अभयसिंह ने उसे जोधपुर लौट कर राजकुमारी सौभाग्य कँवर का विवाह उदयपुर महाराजकुमार प्रताप सिंह के साथ करने के निमित्त जरूरी इन्तजाम करने भेजा। विवाह बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हुआ।83
बीकानेर महाराजा जोरावरसिंह ने अभयसिंह के विरूद्ध जयपुर महाराजा सवाई जयसिंह से सहायता की याचना की। सवाई जयसिंह ने बीस हजार सैनिकों सहित जोधपुर पर चढ़ाई कर दी। महांिसंह जो उस समय जोधपुर में ही मौजूद था ने उसकी सूचना तुरन्त बीकानेर में अभयसिंह के पास पहँुचाई । अभयसिंह सवाई जयसिंह का दामाद था, फिर भी सवाई जयसिंह ने उस पर आक्रमण किया क्योंकि अभयसिंह का बीकानेर पर अधिकार कर लेने से वह काफी शक्तिशाली हो जाता । इससे क्षेत्र का शक्ति संतुलन बिगड़ता जो कि जयपुर राज्य के लिए खतरनाक था। जोधपुर पर आमेर की सेना के घेरा डालने की सूचना मिलते ही अभयसिंह बीकानर के किले का घेरा उठाकर जोधपुर की रक्षार्थ लौट आया।84 भण्डारी रघुनाथ की मध्यस्थता में दोनों पक्षों में वार्ता प्रारम्भ हुई। सवाई जयसिंह फौज खर्च लेकर जयपुर लौट गया। लौटते हुए जयसिंह ने अजमेर पर अधिकार कर लिया।85 इसी बीच राजाधिराज बख्तसिंह ने मौका देखकर मेड़ता पर अधिकार कर लिया, किन्तु दोनों भाईयों में जल्द ही सुलह हो गई।86
उपरोक्त घटना का ‘‘ठिकाणा पोहकरण का इतिहास’’ में भिन्न विवरण मिलता है। इसके अनुसार महाराजा अभयसिंह और राजाधिराज बख्तसिंह के मध्य बीकानेर की चढ़ाई करने के मुद्दे पर परस्पर मनमुटाव हो गया। नाराज बख्तसिंह सेना लेकर मेड़ता पर अधिकार करने के लिए रवाना हुआ। सूचना मिलने पर महासिंह तुरन्त एक सेना लेकर मेड़ता रवाना हुआ। राजाधिराज से संघर्ष हुआ, जिसमें महासिंह के अनेक आदमी मारे गए। चूंकि राजाधिराज के पक्ष में जयपुर महाराजा सवाई जयसिंह भी हो गया था, इसलिए महासिंह ने इस विकट परिस्थिति का हवाला पत्र द्वारा लिखकर बीकानेर भेजा और शीघ्र जोधपुर आने के लिए कहा। राठौड़़ सेना शीघ्र ही जोधपुर लौट आई। इस सेना ने सूरसागर में डेरा किया। उधर जयपुर महाराजा की सेना सहित राजाधिराज ने मण्डोर में डेरा किया। शत्रु सेना लगभग 60,000 थी। राजाधिराज बख्तसिंह बड़ा चतुर और नीतिनिपुण था। वह जानता था कि दोनों भाइयों के परस्पर संघर्ष में दोनों कमजोर हो जाएंगें तथा लाभ केवल सवाई जयसिंह को ही मिलेगा। वैसे भी बीकानेर का घेरा उठा लेेने से उसका प्रयोजन तो सिद्ध हो ही गया था। अतः बख्तसिंह ने संधि का प्रस्ताव किया, जिसे अभयसिंह ने स्वीकार कर लिया। तब राजाधिराज महाराज के पास सूरसागर गया और महाराजा से मिला। अभयसिंह ने बख्तसिंह को कहा कि तुमने ऐसा क्यों किया। तब राजाधिराज ने महाराजा से कहा कि आपने मुझे मारवाड़़ का आधा राज्य देने की प्रतिज्ञा की थी। मैं मेड़ता लेने गया, वह भी आपसे नहीं दिया गया और आपने मुकाबले में सेना देकर महासिंह को भेज दिया। इस प्रकार कई प्रकार की परस्पर उलाहनें हुई। अन्त में जयपुर वालों को कुछ फौज खर्च देकर संधि हो गई तथा युद्ध होना स्थगित रह गया। राजाधिराज वापिस नागौर लौट गया।87
उपरोक्त घटनाक्रम हमें उचित प्रतीत होता है। दोनों विवरणों की तुलना करने पर हमें बोध होता है कि पहले विवरण में सवाई जयसिंह ने स्वयं आक्रमण किया तथा बख्तसिंह ने परिस्थितियों का लाभ उठाकर मेड़ता पर अधिकार करने का प्रयास किया। दूसरे विवरण के अनुसार बख्तसिंह ने मेड़ता पर अधिकार करने का प्रयास किया और जयसिंह को समर्थन प्राप्त करने में भी सफल रहा। दोनों की सेनाएं सम्मिलित रूप से जोधपुर तक पहुँच गई। संभवतः जयसिंह युद्ध करना चाहता था, किन्तु बख्तसिंह द्वारा अभयसिंह से संधि कर लेने के बाद उसे अकेला युद्ध करना अवश्य ही उचित नहीं लगा होगा और वह फौजी खर्च लेकर लौट अवश्य गया, किन्तु अजमेर पर अधिकार करने से नहीं चूका। जोधपुर से इस तरह लौट जाना उसके लिए अप्रतिष्ठाजनक था। अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए उसके अजमेर पर अधिकार किया। इस घटना का परिणाम चाहे जो भी रहा हो किन्तु इससे दोनों भाइयों अभयसिंह और बख्तसिंह के मध्य मनमुटाव समाप्त हो गया। 1743 ई. में सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद महाराजा अभयसिंह ने चाम्पावत महासिंह और उसके भतीजे दौलतसिंह को अजमेर पर अधिकार करने के लिए भेजा। कड़े संघर्ष के बाद मारवाड़़ की सेना का अजमेर पर अधिकार स्थापित हो गया।88 दोनो चाचा भतीजा युद्ध में घायल हुए और इनके 20 मनुष्य मारे गए तथा कई जख्मी हुए। सन् 1744 ई. में ठा.महासिंह का पोकरण में निधन हो गया। ठा.महासिंह की 6 पत्नियाँ, एक पुत्री और एक पुत्र था।
Mujhe dhanla ganv ke bare me jankari chahiye
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