अध्याय - 4 : सवाईसिंह की उपलब्धियाँ

 अध्याय - 4 : सवाईसिंह की उपलब्धियाँ

     


सवाईसिंह का जन्म 1755 ई. (वि.सं. 1812 की भाद्रपद वदि 12) को हुआ और 1760 ई. (वि.सं. 1817 की भाद्रपद वदि 5) को वह पोकरण की गद्दी पर बैठा। उस समय उसकी आयु मात्र 5 वर्ष की थी।1 उसकी माता सूरजकँवर भटियाणी डागड़ी के नाहरखोत की पुत्री थी।2 ठिकाणे के फौजदार सूरजमल ने वहाँ अच्छा एवं सुदृढ़ प्रबन्ध किया हुआ था। सन् 1765 ई. (वि.सं. 1823) में कुछ सिंधी सिपाहियों ने पोकरण की सीमा में घुस कर रामदेवरा को लूटा और कई मनुष्यों और मवेशियों को पकड़ लिया। तत्पश्चात् उन्होने पोकरण की ओर रुख किया
, किन्तु पोकरण का सुदृढ़ प्रबन्ध देखकर वे लौट गए।3 सन् 1766 ई. में वैष्णव धर्म स्वीकार करने के बाद महाराजा विजयसिंह की मनोवृŸिा में बदलाव आया। उसने पोकरण, नींबाज, रास के ठाकुरों के साथ सद्व्यवहार करने का विचार किया।4 एक खास रुक्का भिजवाकर ठा. सवाईसिंह को बुलवाया गया। उस समय उसकी आयु मात्र 11 वर्ष की थी। वह अपने घोड़ों और सुभटों के साथ दरबार में उपस्थित हुआ। इस अवसर पर सवाईसिंह के नाम से पोकरण का पट्टा बहाल कर दिया गया। प्रधानगी के दो गाँव मजल और दुनाड़ा जो ठा. देवीसिंह के समय जब्त किए गए थे, बहाल नहीं किए गए।5

मोहनसिंह ने कुछ अलग विवरण दिया है। सबलसिंह के मारे जाने के लगभग 9 माह बाद सवाईसिंह की माता उसे लेकर जोधपुर आई। महाराजा विजयसिंह का रोजाना सुबह गंगश्यामजी के मंदिर में दर्शन हेतु जाना होता था। भटियाणी वहाँ पहुँची। जब महाराजा दर्शन कर बाहर आए, उस समय भटियाणी ने अपने पुत्र सवाईसिंह को पोकरण की चाबियाँ देकर भेजा और कहलवाया कि ’’पोकरण के सबलसिंह के पुत्र चाबियाँ सहित आपकी सेवा में हाजिर है। चाबियाँ आप रख लें और इस बालक को मर्जी आवें तो छोड़े या मारें।’’ महाराजा विजयसिंह ने चाबियाँ वापस भिजवाई और कहलवाया कि पोकरण का समस्त प्रबन्ध राज्य की ओर से कर दिया जाएगा।6 किन्तु मूल स्त्रोत इस घटना का वर्णन नहीं करते हैं। 1774 ई. में महाराजा विजयसिंह के निकटस्थ व्यक्तियों ने आउवा के ठा. जैतसिंह को जोधपुर के किलें में बुलाकर जोधपुर किले में धोखे से मरवा दिया। इस घटना की जानकारी मिलने पर सवाईसिंह ने ठा. जैतसिंह का दाह संस्कार करवाया। ज्ञातव्य है कि ठा. देवीसिंह की षड़यंत्रपूर्ण हत्या के बाद इन्हीं ठा. जैतसिंह ने ठा. देवीसिंह का दाह संस्कार करवाया था। सन् 1775 ई. में महाराजा विजयसिंह के सुपुत्र जालिमसिंह के रुष्ट होकर उदयपुर चले जाने पर उसे मनाकर लाने के लिए ठा. सवाईसिंह, आसोप के महेशदास कूम्पावत और सिंघवी फतैहचन्द को भेजा गया। ये तीनों जालिमसिंह को मनाकर मेड़ता ले आए जहाँ विजयसिंह का पड़ाव था। 7

ठाकुर सवाईसिंह द्वारा टालपुरा मुसलमानो के विरूद्ध शौर्य प्रदर्शन:-

1780 ई. में मारवाड़़ की सीमा पर टालपुरा बालोच मुसलमानों का उपद्रव प्रारम्भ हुआ। इसकी सूचना मिलने पर महाराज ने मांडणोत हरनाथसिंह, पातावत मोहकमसिंह, बारहठ जोगीदास और सेवग थानू8 को प्रतिनिधि बनाकर चौबारी (चौवाबाद) भेजा। जब समझौता होने की आशा नहीं रही तब पहले तीन पुरूषों ने मिलकर टालपुरियों के सरदार बीजड़ को मार डाला। इस पर उसके अनुचरों ने उन तीनों को भी मार डाला। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि यह कार्य नवाब मियाँ अब्दुन्नबी की प्रार्थना पर ही किया गया था। इसी वजह से उसने इस कार्य की एवज में उमरकोट का अधिकार जोधपुर नरेश को सौंप दिया।9 इधर बींजड़ के पुत्रों को नवाब की मिली भगत का अंदेशा हो गया। वे नवाब के खिलाफ हो गए। अतः उसे सिंध छोड़कर कलात जाना पड़ा। कलात के अमीर के सहयोग से उसने 20,000 की सेना तैयार की और 20,000 सैनिक महाराजा विजयसिंह ने दिए। इस सेना में सिंघवी शिवचन्द, बनेचन्द्र, लोढ़ा सहसमल और ठा. सवाईसिंह प्रमुख व्यक्ति थे।10 चौबारी (चौवाबाद) के मोर्चे पर दोनों सेनां मिली। यहाँ पर मारवाड़़ के सरदारों ने नवाब के सरदार ताजखाँ को तुरन्त विद्रोहियों पर आक्रमण करने के लिए कहा, पर उसने यह कहकर मना कर दिया कि विरोधियों की आधी सेना के कल पहुँचने पर हम अगले दिन उन पर आक्रमण कर आर पार की लड़ाई लड़ेंगे। इस पर मारवाड़़ के सरदारों को ताजखाँ पर शक हुआ कि वह विरोधियों से निश्चित रूप से मिला हुआ है। अतः घिर जाने के भय से पुनः मारवाड़़ की ओर कूच करने का विचार करने लगे। उस रात चौवाबाद के बुर्ज पर पोकरण के आदमियों के पहरे की बारी थी। इसलिए पोकरण ठाकुर सवाईसिंह के 72 आदमी पहरे पर गए हुए थे। जब सेना ने रवाना होने का निश्चय किया। तो पोकरण ठाकुर ने अपने आदमियों को बुलाने भेजा। उन्होने यह कहते हुए मना कर दिया कि ’’आप सब को भागना था तो हमको पहरे पर क्यों भेजा ? हम तो पहरा पूरा करके ही आएंगे।मारवाड़़ की सेनाओं के चले जाने पर टालपुरा सेनानायक ने बुर्ज को घेर कर राजपूत सैनिकों से समर्पण कर लौट जाने के लिए कहा। पर उन्हांेने ऐसा नहींे करके 21 दिन युद्ध किया। बुर्ज में रखा सामान राशन, पानी खत्म होने जाने पर ऊँटों को मारकर और कालीमिर्च खाकर लड़ते रहै। गोला बारूद खत्म होने पर वे केसरिया बाना करके अपने तलवारों को लेकर दुश्मन की फौज पर झपट पड़े और सभी मारे गए। कुछ अन्य स्त्रोतों के अनुसार 72 में से 71 सैनिक मारे गए। यह लड़ाई 14 फरवरी, 1781 ई. को  हुई थी।11

      चौबारी के इस उपरोक्त युद्ध में जोधपुर की सेना भाग गई थी। मुसाहिब शिवचन्द ने जोधपुर आकर ठा. सवाईसिंह के विषय में उलटी बात कही कि सवाईसिंह सिंधियों से मिल गया और लड़ाई में सक्रिय हिस्सेदारी नहीं की जिससे यह हार हुई। यह सुनकर महाराजा विजयसिंह ने बिना जाँच किए ठा. सवाईसिंह से नाराज हो गया और आज्ञापत्र लिख भेजा कि तुम वही,ं रहना। ठा. सवाईसिंह को आज्ञानुसार वही,ं रहना पड़ा। फिर सिंधियों से संधि प्रस्ताव होने पर सिंधियों के प्रतिष्ठित पुरुष जोधपुर आये और उनके साथ वार्तालाप हुआ। इस प्रतिनिधिमण्डल के एक व्यक्ति ने महाराजा विजयसिंह से कहा कि पोकरण के ठा. सवाईसिंह ने हमें बहुत हानि पहुँचाई और उसके भी बहुत से आदमी मारे गए। अगर अन्य सरदार भी इसी प्रकार के वीर होते तो ना मालूम हमारी क्या दशा होती। यदि सवाईसिंह नहीं होता तो हम अवश्य ही साँचोर का परगना ले लेते । तब महाराजा विजयसिंह ने अपने विश्वासपात्र व्यक्तियों को, जो उस युद्ध में शामिल थे, शपथ देकर पूछा तो उन्होनें सही बात कह दी।11 विजयसिंह को अपनी गलती का अहसास हुआ। ठा. सवाईसिंह को ससम्मान जोधपुर बुलाया गया। ठा. सवाईसिंह को 1781 ई. में शाही दरबार में प्रधानगी का सिरोपाव हुआ। इस कार्य के लिए वेतन स्वरूप (बधारे में) मजल और दुनाड़ा नामक गाँव दिए और पालकी मोतियों की कण्ठी, सिरपेच, तलवार और कटार आदि इनायत की।12

 

अजमेर पर अधिकारः-

      1787 ई. में माधोजी सिन्धिया ने जयपुर राज्य पर आक्रमण किया। तत्कालीन शासक महाराजा प्रतापसिंह ने जोधपुर शासक महाराजा विजयसिंह से सहायता की प्रार्थना की। दोनों राज्यों की सम्मिलित सेना ने तुंगा नामक स्थान पर माधोजी सिन्धिया की सेना को पराजित कर भगा दिया। मराठा सेना के चले जाने से अजमेर में मराठा सेना की संख्या कम रह गई। इस मौके को देखकर महाराजा विजयसिंह ने ठाकुर सवाईसिंह व सिंघवी धनराज को अजमेर पर अधिकार करने के लिए भेजा। मारवाड़़ की सेना के अजमेर पहुँचने पर मराठे भागकर गढ़ बीठली (तारागढ़) के किले में जा छिपे और अपना एक कासीद रायाजी पटेल व अम्बाजी इंगलिया को भेजा कि हमारे पास युद्ध का सामान नहीं है या तो आप मदद भेंजें, नहीं तो गढ़ को हमें छोड़ना होगा।13 इधर ठा. सवाईसिंह और सिंघवी धनराज को भी अंबाजी की सेना सहित आने की खबर मिली, तो शीघ्र ही उन्होंने एक कासीद जोधपुर मदद प्राप्त करने के लिए भेजा। अंबाजी के अजमेर पहुँचने पर बाहर के मोर्चे वाली सेना शहर में चली गई।14  अंबाजी के आक्रमण कि सूचना मिलने पर अजमेर की रक्षा के लिए ठा. सवाईसिंह ने दो मोर्चे लगवाए। एक गढ़ पर और दूसरा नगर के बाहर शहर पनाह के निकट दोनों पक्षों में जमकर युद्ध हुआ। युद्ध के समय सवाईसिंह ने तोपचियों को पूरा जोर लगाने के लिए कहा और स्वयं घूम-घूम कर सैनिकों को उत्साहित करने लगा ।15 ठा. सवाईसिंह के सुदृढ़ प्रबन्ध के कारण मराठों के तीनों आक्रमण विफल हो गए।16

      तदनन्तर मारवाड़़ की सेना ने किशनगढ़ राज्य के खिरिया नामक गाँव में मुकाम किया। अभी उन्होंने अपने डेरे ठीक से लगवाए भी नहीं थे कि सूचना मिली की अंबाजी की सेना आ गई है। मारवाड़़ की सेना को तुरन्त संगठित किया गया। सेना को तीन भागों (अनियों) में बांटा गया। एक भाग ठा. सवाईसिंह के अधीन था। दूसरा भाग सिंघवी अखैराज और तीसरा सिंघवी सूरजमल के अधीन था। मराठों ने भी अपनी सेना के तीन भाग (तंुगे) किए और प्रत्येक भाग को मारवाड़़ की सेना के भाग के सम्मुख खड़ा किया।

      मराठों ने सिंघवी सूरजमल के भाग पर तीव्र आक्रमण किया किन्तु इसे छिन्न भिन्न करने में विफल रहे। तत्पश्चात् उन्होंने ठा. सवाईसिंह और सिंघवी अखैराज के भाग पर तीव्र आक्रमण कर दिया किन्तु अन्दर घुस नहीं सके। इस युद्ध में ठा. सवाईसिंह के आठ सैनिक मारे गए। अंबाजी की पराजय के बाद तारागढ़ (गढ़ बीठली) का मराठा किलेदार मिंया मिर्जा शेख इमाम अली की मध्यस्थता में संधि करके अजमेर छोड़कर चला गया।17 ये समाचार मिलने पर ठा. सवाईसिंह और दासपां के शिवनाथसिंह ने अजमेर पहुँचकर इस पर अधिकार कर लिया।18

      उस समय केकड़ी का राजा अमरसिंह जोधपुर में था। महाराजा विजयसिंह ने उसे रूपनगर इनायत किया और ठा. सवाईसिंह को लिखा कि अमरसिंह का रूपनगर पर अधिकार करा देना तथा सिंघवी अखैराज और भण्डारी गंगाराम को किशनगढ़ पर अधिकार करने का आदेश भिजवाया। ठा. सवाईसिंह ने रूपनगर को जा घेरा और सिंघवी अखैराज ने किशनगढ़ को घेरकर युद्ध प्रारम्भ किया, किन्तु किशनगढ़ पर अधिकार नहीं किया जा सका। इधर सवाईसिंह ने रूपनगर पर विजय प्राप्त कर सिंघवी अखैराज से जा मिला और किशनगढ़ को तंग किया जाने लगा। अन्त में किशनगढ़ महाराजा प्रतापसिंह ने उन्हें तीन लाख का दण्ड देना स्वीकार कर संधि कर ली। रूपनगर पर अमरसिंह अधिकार स्वीकार करना पड़ा। सिंघवी अखैराज अजमेर चला गया तथा ठा. सवाईसिंह किशनगढ़ महाराजा को अपने साथ लेकर जोधपुर आया। वर्ष 1788 में यह मुलाकात हुई जिसमें दोनों नरेशों ने पुराने मनोमालिन्य को दूर कर फिर मैत्री स्थापित की ।19

      1790 ई. में माधोजी सिन्धिया ने तुकोजी होल्कर को साथ लेकर मारवाड़़ पर चढ़ाई की वह अपनी पुंरानी हार का बदला चाहता था। फ्रेंच जनरल डी. बोइने के नेतृत्व में मराठा सेना ने आक्रमण किया । मारवाड़ की सेना के दो सेनानायकों सिंघवी खूबचन्द और सिंघवी भींवराज के परस्पर वैमनस्य के कारण मेडता के युद्ध में पराजय हूई।20

      मराठा सेना अब जोधपुर पर आक्रमण कर सकती थी। महाराजा विजयसिंह ने अपने सरदारों ठा. सवाईसिंह, गोवर्द्ध्रन खींची इत्यादि को सलाह के लिए बुलवाया। यह निश्चय किया गया कि जनाना और राजकुमारों को नाजर गंगाराम के संरक्षण में जालौर भेज दिया जाए। किन्तु पासवान गुलाबराय ने महाराजा के साथ ही रहने का फैसला किया। सवाईसिंह ने नागौर शहर के बाहर ही अपना डेरा रखा। इस बीच इस्माइल बेग अपने 1000 घोड़ों और 200 पैदल के साथ वहाँ आ पहुँचा। मेड़ता युद्ध में अनेक सरदारों और सैनिकों के मारे जाने तथा घायल होने के कारण सरदार मराठों से संधि करने के पक्षधर थे। ठा. सवाईसिंह ने महाराज को सुझाव दिया कि मराठों को संधि का प्रस्ताव करना चाहिए। सहमति मिलने के पश्चात् सवाईसिंह ने अपने कामदार हरियाढाणा के चांपावत बुद्धसिंह को मराठों से वार्ता करने हेतु भेजा। इधर मराठे भी धान और घास नहीं मिलने से परेशान थे। परस्पर वार्तालाप के पश्चात् दोनों पक्षों में संधि हो गई। संधि में अजमेर प्रान्त और 60 लाख रुपये दिये जाने थे। साथ ही जो कर अब तक दिल्ली के बादशाह को दिया जाता था, वह भी मराठों को देना तय हुआ। इतने रुपये एक साथ नहीं दे सकने के कारण कुछ रकम गहनें और जवाहरात के रूप में महाराज विजयसिंह ने उसी समय दे दी और बाकी रुपयों की एवज में जमानत के तौर पर सांभर, मारोठ, नाँवा, परबतसर, मेड़ता और सोजत की आमदनी उन्हें सौंप दी । यह घटना फरवरी 1791 ई. की है।21

      मराठों के आसन्न खतरे के कारण महाराजा विजयसिंह की सत्ता पर पकड़ ढीली पड़ गई वह अपनी पासवान गुलाबराय के जबरदस्त प्रभाव में आ गया था। ठा. सवाईसिंह के प्रभाव और शक्ति में भी काफी वृद्धि हो गई थी। वृद्ध अवस्था और वैष्णव सम्प्रदाय के प्रति बढ़ती आस्था के कारण महाराजा विजयसिंह की शासन कार्यो के प्रति रुचि घटती जा रही थंी। अतः प्रधान के नाते सब कामकाज ठा. सवाईसिंह ही देख रहा था।22 उसका पासवान के मुख्तियार भैरजी चाबुकदार से भाईचारा था।23 इसलिए पासवान गुलाबराय से भी सम्बन्ध प्रगाढ़ बन गए। गुलाबराय ने सवाईसिंह को राखी बाँध कर भाई बनाया और जब गुलाबराय के पुत्र तेजसिंह के चेचक निकली तो सवाईसिंह ने न तो स्नान किया और न ही हजामत बनाई।24

      अपने इसी बढ़ते प्रभाव का लाभ उठाकर ठा. सवाईसिंह ने सोढ़ा और भाटी राजपूतों की 5-7 हजार सेना के साथ जैसलमेर प्रदेश के नन्दवाणा बोहरों (साहुकारों) से 20-25 हजार रुपयों का अर्थदण्ड लिया। तत्पश्चात् जैसलमेर के सवारों ने सवाईसिंह की पोकरण को लूट लिया तब जोधपुर से रामदत्त खानसामा और शम्भुदान धाभाई को 500 सवारों के साथ रवाना किया गया। ये दोनों पहले गए हुए 5-7 हजार सवारों से जा मिले और जैसलमेर के आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया।25

      राजदरबार में सवाईसिंह, भवानीराम भण्डारी और भैरजी चाबुकदार का वर्चस्व स्थापित हो गया। वे पासवान की सलाह से राजकार्य सम्भाल रहे थे। गुलाबराय के पुत्र तेजसिंह की मृत्यु के बाद वह महाराज की देवड़ी रानी के पुत्रों से विशेष स्नेह रखने लगी। महाराज विजयसिंह का ज्येष्ठ पौत्र भीमसिंह जो शेखावत रानी से था, का तेजसिंह से बचपन में झगड़े हुए थे, इसलिए वह भीमसिंह को नापसंद करती थी। गुलाबराय ने महाराजा को प्रभावित करके भीमसिंह के स्थान पर छोटे पुत्र शेरसिंह को 1790 ई. में युवराज घोषित करवा दिया था।26 अनेक सरदार और मुत्सद्दी गुलाबराय के शासन कार्य में हस्तक्षेप और भवानीराम को सर्वोसर्वा स्थिति से नाखुश थे।27 अनेक सरदार सवाईसिंह से इसलिए खिन्न थे, क्योंकि उसने अपने सम्बन्धियों को उन्नति के अवसर दिए तथा अन्य जो उसके नजदीकी नहीं थे, व युद्ध में काम आते थे, उन्हें चाकरी से हटा कर उनकी जागीरें जब्त (तागीर) करवा दी। असंतुष्टों में 4 सरदार प्रमुख थे - हरिसिंह कूम्पावत, रतनसिंह कूम्पावत, विरदीसिंह मेड़तिया और फतेहसिंह चांपावत। इन चारों ने इस्माइल बेग को साथ लेकर पासवान से कहलवाया कि चारों राठौड़ एक होकर जिसे राज्य देगें वही, राज्य का स्वामी होगा। सवाईसिंह के देने से आपके लड़के को राज्य नहीं मिलेगा। हम अपनी मर्यादा में रहंे, इसलिए आपने हमारी जागीरें तागीर करा दी। हम सब यहाँ से जा रहे हैं। आप, भैरजी, महाराजा, दीवान और सवाईसिंह राजकाज कैसा कर रहे है, हम देख रहे है। महाराजा ने खूबचन्द सिंघवी को उसे समझाने भेजा, पर वह तो पहले से ही उनसे मिला हुआ था। इन सरदारों ने महाराजा से एकान्त में बात की पर महाराजा ने प्रत्येक मामले ंमें अनभिज्ञता जताई।28 राज्य के सरदारों और मुत्सद्दियों से चन्दा लिया जाने लगा ताकि मराठों को संधि में निश्चित रकम दी जा सके। इसी दौरान गुलाबराय किसी बात पर महाराज के प्रधानमंत्री और कृपापात्र गोवर्द्धन खींची से नाराज हो गई। उसने सिंघवी खूबचन्द के गुप्त इशारे से महाराजा को भड़काया कि राज्य का बहुत सा धन गोवर्द्धन खींची ने खाया है, इसलिए उससे अतिरिक्त धन लिया जाए। प्रारम्भ में महाराजा ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया किन्तु अन्त में गुलाबराय गोवर्द्धन खींची को पकड़ने और मारने की आज्ञा लेने में सफल हो गई। महाराजा विजयसिंह गोवर्द्धन की पूर्व सेवाओं के कारण हृदय से उसे मरवाना नहीं चाहते थे। इसलिए उसने उसे गुप्त रूप से सूचित करवाया कि वह सवाईसिंह के डेरे पर जाकर बैठ जाए, अन्यथा मारा जाएगा। तब गोवर्द्धन खींची भाग कर सवाईसिंह के डेरे पर जा बैठा जिससे पासवान उसके विरुद्ध कुछ नहीं कर सकी।29 हालांकि ठा. देवीसिंह को पकड़ने और मरवाने के षड़यंत्र में गोवर्द्धन खींची भी शामिल था। किन्तु सवाईसिंह को पोकरण का पट्टा दिलवाने में उसने भरपूर सहयोग दिया था। अतः सवाईसिंह ने उसे शरण दे दी।30

      गोवर्द्धन खींची को शरण देने पर पासवान गुलाबराय सवाईसिंह से अत्यन्त नाराज हो गई। उसने सवाईसिंह को कहलवाया कि यदि वह जहर खाकर या शó से आत्मघात कर लेता है तो मैं तुमसे ही इसे वापस प्राप्त करूंगी। 20 दिन बाद उसने खींची के पास एक घोड़ा और आदमी इस निमित्त भेजा कि वह देश छोड़ दें और भिक्षाटन करता रहे। गोवर्द्धन खींची के शहर से चार कोस दूर जाने पर सवाईसिंह ने अन्य प्रतिष्ठित सरदारों को कहलाया कि ’’पासवान गोवर्द्धन खींची को बिना अपराध सजा दे रही है। ये हमारे सगे हैं और हमारे भाइयों में इनकी लड़की ब्याही हुई हैं। इन्हें जाने मत देना। आप लोग महाराजा विजयसिंह के पास प्रातः जाकर वार्ता करें।किन्तु सरदारों के पहुँचने से पूर्व ही सवाईसिंह ने विजयसिंह और पासवान दोनों को यह कहकर डरा दिया कि सरदार आपको मारने आ रहे हैं। तब दरवाजे बन्द करवा दिए गए और महाराजा ने सरदारों से मुलाकात नहीं की । सरदार भी खिन्न होकर चले गए। संभवतः सवाईसिंह स्वयं यह नहीं चाहता था कि गोवर्द्धन खींची को न्याय मिले।31 इधर किसी बात पर भैरजी 32 ने सवाईसिंह पर स्वार्थी होने का आक्षेप लगाया। सवाईसिंह को यह बात ठीक नहीं लगी और दोनों में असभ्य बातें हुई। पासवान इस कारण से सवाईसिंह से और भी नाराज हो गई। इस तरह के विरोधी वातावरण में सवाईसिंह को दरबार में आना उचित नहीं लगा। इसलिए न तो सवाईसिंह प्रधानगी से सम्बन्धित सामान्य कार्य करने हेतु दरबार जाता और न ही महाराज विजयसिंह सवाईसिंह को कभी पूछता था। इधर सवाईसिंह, भैरजी और खूबचन्द दोनों की हत्या करने की लगातार कोशिश कर रहा था। सवाईसिंह के दरबार में लगातार अनुपस्थित रहने के कारण रतनसिंसह कूंपावत के चाचा सार्दूलसिंह को सवाईसिंह के स्थान पर नियुक्त करने का विचार चला।33 तब गोवर्द्धन खींची की सलाह पर सवाईसिंह ने अपने और पासवान के कट्टर विरोधी रतनसिंह कूंपावत से समझौता कर लिया इससे गुलाबराय का पक्ष कमजोर हो गया। अब पासवान ने धांधिया के ठा. बनेसिंह को आगे बढ़ाकर सवाईसिंह के स्थान की पूर्ति करने का विचार किया।34

नृप-निर्माता के रूप में ठाकुर सवाईसिंह की भुमिका-

      पासवान गुलाबराय ने राजमहल में कुँ.भींवसिंह की हत्या करने का प्रयास किया परन्तु असफल रहीं।35 अब पासवान विरोधी गुट ने महाराज विजयसिंह को राज्यच्युत कर राजकुमार भींवसिंह को शासक बनाने और गुलाबराय की हत्या करने का षड़यन्त्र रचा। इसमें ठा. सवाईसिंह, रतनसिंह (आसोप), भीमसिंह (खींवसर), जवानसिंह (रास), सरदारसिंह रूपावत (पल्ली) ने जनवरी 1, 179र्2 इ. का दिन निश्चित किया। किन्तु खींवसर ठाकुर ने पासवान को इसकी गुप्त सूचना दे दी। योजना की विफलता से घबराए सरदार जोधपुर छोड़ बिलाड़ा रवाना हुए। इधर राजकुमार जालिमसिंह अपने ननिहाल वालों उदयपुर राज्य के सहयोग से गोडवाड़ परगने पर अधिकार करके, मारवाड़़ में सशó उपद्रव करने पर उतारू था। इन सरदारों के उससे मिल जाने से समीकरण बिगड़ सकता था जिससे राजसत्ता को खतरा उत्पन्न हो जाता। अतः महाराजा विजयसिंह असंतुष्ट सरदारों को मनाने बीसलपुर भावी होता हुआ मालकोसणी पहुँचा (फरवरी 1792 ई.)।36 सरदारों ने आगे बढ़कर महाराजा का स्वागत किया। महाराजा उन्हें मनाकर अपने साथ जोधपुर को रवाना हुआ। मार्ग में अप्रेल 13, 1792 को उसे सूचना मिली कि रनिवास और पासवानों की सहायता लेकर राजकुमार भीमसिंह ने जोधपुर के किले और नगर पर अधिकार कर लिया।37 अप्रेल 16, 1792 को ठा. सवाईसिंह व जवानसिंह ने गुलाबराय को इस झूठे आश्वासन पर किले पर जाने के लिए राजी कर लिया कि वह किले में सुरक्षित रहेंगी । हालांकि गुलाबराय अपनी हत्या होने की आशंका से भयभीत थी, परन्तु उसके पास सवाईसिंह की बात मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। जैसे ही वह पालकी में बैठी, पल्ली के रूपावत सरदार सिंह ने उसकी हत्या कर दी। उसके पास जो धन था वह सवाईसिंह और रास के जवानसिंह ने आपस में बाँट लिया। इस प्रकार सवाईसिंह ने अपनी षड़यन्त्रकारी राजनीतिक बहन से मुक्ति प्राप्त की किन्तु महाराजा को इसकी खबर नहीं होने दी।38

      अप्रेल 27, 1792 को महाराजा विजयसिंह जोधपुर के निकट पहुँचा। नगर और किले पर भीमसिंह का अधिकार देख वह बालसमंद के बगीचे में ठहर गया। अन्त में दस माह बाद रींया, कुचामन, मीठड़ी, बलूंदा और चण्डावल के ठाकुरों ने सवाईसिंह को समझाया कि महाराज की उपस्थिति में भीमसिंह का राज्याधिकारी बन जाना अनुचित है। सरदारों, विशेषकर कुचामण ठाकुर सूरजमल ने सवाईसिंह को इस बात के लिए मनाया कि वह कुँ. भीमसिंह को महाराजा के पक्ष में गद्दी छोड़ने को कहे। तब सवाईसिंह ने महाराज से निवेदन किया कि वे भीमसिंह को खर्च के लिए सिवाणा जागीर में दे और महाराजा के बाद जोधपुर की गद्दी पर अधिकार कायम रखने का वादा करें। कुँ. भीमसिंह को सकुशल सिवाना भिजवाने का भी प्रबन्ध करें।39 महाराजा विजयसिंह ने ये सभी बातें स्वीकार कर ली। कुँ. भीमसिंह भी उपरोक्त शर्तों पर जोधपुर को किला छोड़ने को तैयार हो गया।40 महाराजा विजयसिंह ने कहलवाया कि मेरे बाद सब कुछ भीमसिंह का ही है। इस आशय का प्रतिज्ञा पत्र लिख भेजा। इधर सवाईसिंह प्रधान होने के नाते महाराज से विमुख होकर राजतंत्र को क्षति पहुँचाने के पक्ष नहीं था। उसने गुलाबराय को खत्म करने और मुत्सद्दियों को अपने अधिकार क्षेत्र में रहने के लिए कुँवर भींमसिंह को गद्दी पर बिठाया। स्थिति जब सामान्य हो गई तब भीमसिंह को गढ़ परित्याग करने के लिए राजी कर लिया। महाराजा ने अपने पौत्र के साथ बैठ कर  भोजन किया और अपने कक्ष में लेटा कर स्नेह प्रदर्शित किया। उसे विश्वास दिलाया कि उसके साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाएगा। परन्तु भीमसिंह के गढ़ से निकलते ही मुत्सद्दियों ने उसके कान भरने प्रारम्भ कर दिए।41 भीमसिंह भी महाराजा और सरदारों के प्रति संशंकित था। इसलिए उसने किला छोड़ने से पहले सरदारों से यह प्रतिज्ञा करवा ली कि सिवाणा की ओर जाते समय उसके मार्ग में कोई बाधा पैदा नहीं की जाएगी। तत्पश्चात् भीमसिंह अपने पितामह महाराज विजयसिंह से अपने कृत्य की क्षमा माँगकर सिवाणा की ओर रवाना हुआ। इस समझौते के समय अनेक सरदारों ने कुँँ. भीमसिंह को सुरक्षित सिवाणा पहुँचाने की प्रतिज्ञा ली थी। इनमें प्रमुख थे रीयाँ, बलूंदा, कुचामण, मीठड़ी तथा चण्डावल ठाकुर। कुँ. भीमसिंह किले में धन दौलत खजाना आदि जितना सामान साथ ले जा सकता था, साथ लेकर सवाईसिंह के साथ सिवाणा की ओर मार्च 20, 1793 ई को रवाना हुआ।42 अंधेरा होने पर झँवर गाँव में पड़ाव किया गया। ठा. सवाईसिंह ने इस गाँव के उन जाटों को जिन्होंने रस्से का फंदा डालकर सवाईसिंह के दादा ठा. देवीसिंह को पकड़ा था, कुटुम्ब सहित मरवा दिया।43

      इधर महाराजा विजयसिंह ने भीमसिंह के किला छोड़ने के दिन ही रात्रि में किले में प्रवेश किया। खजाने को खाली देखकर तथा मुत्सद्दियों के बहकावे में आकर महाराज विजयसिंह ने अपने वचनों को भुला दिया। क्रोधवश रात्रि में ही एक सेना भीमसिंह को कैद करने के लिए भिजवाई। अगले दिन प्रातः यह सेना झँवर पहुँच गई तथा भीमसिंह के दल पर आक्रमण कर दिया।44 यह देखकर राजकुमार को सकुशल सिवाणा तक पहुँचाने के लिए साथ गए राजभक्त सरदारों को भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए महाराजा की सेना से युद्ध करना पड़ा । अल्प सैन्य संख्या होने के कारण सरदारों ने यह निर्णय लिया कि भीमसिंह को ठा. सवाईसिंह के साथ पोकरण भेज दिया जाए, क्योंकि पोकरण ठिकाणा मारवाड़़ की सीमा पर है तथा शेष सरदार महाराजा की सेना को रोके रखेंगें।45 दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ, जिसमें महाराजा विजयसिंह को पुनः राज्यासीन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले तथा भीमसिंह को सुरक्षित सिवाणा पहुँचाने की प्रतिज्ञा करने वाले कुचामण ठाकुर सूरजमल मेड़तिया और कुछ अन्य सरदार मारे गए तथा अनेक घायल हुए।46 अवशिष्ठ सरदारों की सेना भाग कर अपने अपने ठिकाणें में चली गई।जब महाराज को भीमसिंह के निकलकर चले जाने की सूचना मिली, तब युद्ध बंद करवाकर सेना वापस बुलवाने की आज्ञा भिजवाई । राजभक्त सरदारों को जिन्होंने राजभक्त होने के बावजूद प्रतिज्ञाबद्ध होने के कारण महाराजा की सेना से युद्ध करना पड़ा, को हर तरह से आश्वासन और तसल्ली दी गई।47 स्थिति को काबू में रखने के उद्देश्य से लोढ़ा शाहमल और वैद्य अमरचन्द की सलाह से महाराजकुमार सांवतसिंह के पुत्र सूरसिंह जिसकी अवस्था मात्र 9 10 वर्ष थी को युवराज घोषित करने का निर्णय किया गया, किन्तु यह क्रियान्वित नहीं किया जा सका।48 पोकरण पर एक सेना भेजने पर भी विचार किया गया।49

      8 जुलाई, 1793 ई. को रात्रि में महाराजा विजयसिंह का वायु के प्रकोप से स्वर्गवास हो गया।50 धायभाई शम्भुदान, सिंघवी अखैराज, भण्डारी भवानीदास, ओझा रामदत्त इत्यादि ने पोकरण सूचना करवाने का विचार किया और एक कासीद के साथ पत्र पोकरण भिजवाया ।51 उस समय कुँ. भीमसिंह विवाह करने के लिए जैसलमेर गया हुआ था। उसका विवाह रावल मूलराज की पौत्री श्रृंगार कँवर से हुआ था।52 तथा ठा. सवाईसिंह भी वहीं मौजूद था। कासीदों ने जैसलमेर पहुँचकर सवाईसिंह को यह शोक समाचार दिया।53

इधर मृत्यु का समाचार मिलते ही महाराजकुमार जालमसिंह, मानसिंह और लोढ़ा साहमल एक बड़ी सेना के साथ जोधपुर पहुँचे तथा शेखावतजी के तालाब के निकट डेरा किया।54 तदनन्तर उन्होंने गढ़ में उपस्थित मुत्सद्दियों और सरदारों ने उन्हें बारह दिन हो जाने तक रुकने को कहा।55  लाखण पोल के बाहर रखी गई शोकसभा में जालमसिंह और मानसिंह आकर चले गए। महाराज विजयसिंह के देवलोक गमन की सूचना पोकरण और फिर जैसलमेर पहुँचने पर महाराजकुमार भीमसिंह और ठा. सवाईसिंह महारावल मूलराज से औपचारिक सीख लेकर बड़ी तेजी से पोकरण होते हुए जोधपुर की ओर प्रयाण किया। सिंघोरियों की बारी (चाँदपोल द्वार के निकट) के रास्ते उन्होंने नगर में प्रवेश करते हुए 17 जुलाई 1793 (वि.सं. 1850 की आसाढ़ सुदि नवमी) को ब्रह्म मुहुर्त में (रात दो घड़ी तीसरे प्रहर)56 में किले की लाखण पोल पर पहुँचे।57  इस अवसर पर धायभाई शम्भुदान, दीवान भण्डारी भवानीराम, बख्शी सिंघवी अखैराज, श्रीमाली ब्राह्मण ओझा रामदत्त, मूहणोत ज्ञानमल आदि मुसाहिबों ने इनका स्वागत किया।58 

महाराजकुमार भीमसिंह और ठा. सवाईसिंह का मात्र 6 ऊँटों पर नगर में प्रवेश करना महाराजकुमार जालमसिंह और मानसिंह की घोर असावधानी और गलती थी। यदि इन्होंने 2000 सेना के साथ शहर में दाखिल होकर गढ़ घेर लिया होता तथा पोकरण के नाके पर 2000 सैनिक बिठा दिए होते तो भीमसिंह गढ़ में प्रवेश नहीं कर पाता।59 गढ़ में उस समय मौजूद मुसाहिबों (मुत्सद्दियों) ने भीमसिंह से निवेदन किया कि किलें में दिवंगत महाराजा विजयसिंह के चार पुत्र पौत्र शेरसिंह, अजीतसिंह, सूरसिंह और प्रतापसिंह उपस्थित हैं। किले में प्रवेश करने से पूर्व यह प्रतिज्ञा करें कि उन्हें कोई हानि नहीं पहुँचाई जाएगी।60 ठा. सवाईसिंह की मध्यस्थता में भीमसिंह ने यह वचन दे दिया गया। तब गढ़ की पोल खोलकर भीमसिंह को अन्दर ले लिया गया और तोपों की सिलकें करवाई गई। तोपों की गर्जना सुनते ही जालमसिंह, मानसिंह और लोढ़ा शाहमल तथा उनके सहयोगी कूम्पावत व मेड़तिया सरदार समझ गए कि अब किला हाथ नहीं आएगा। उन्होंने तुरन्त जोधपुर से कूच किया और राज्य में लूटमार करने लगे।61

      20 जुलाई, 1793 ई. को किले के सिणगार चौकी में भीमसिंह का राज्याभिषेक हुआ। ठा. सवाईसिंह को प्रधान की पदवी एवं सिरोपाव दिया गया। सिंघवी बनराज और सिंघवी अखैराज को सेना सहित भेजकर उपद्रवियों का दमन कर मारवाड़़ में शान्ति स्थापित  की। जालमसिंह ने सिरोही और मानसिंह ने जालौर के सुदृढ़ दुर्ग में शरण ली।

      मारवाड़़ में शान्ति स्थापित हो जाने पर महाराजा भीमसिंह ने अपने पक्ष के सरदारों, जिन्होनें उसे झँवर के युद्ध और जोधपुर की गद्दी प्राप्त कराने में सहायता दी थी, को उचित पुरुस्कार और जागीरें दी।62 पोकरण के जिलायितों को यथायोग्य आजीविका प्रदान की। ठा. सवाईसिंह का पोकरण का गढ़ गिर गया था, उसकी मरम्मत करने का आदेश दिया और राजकोष से सम्पूर्ण खर्च दिया।63 ठा. सवाईसिंह की सेवाओं के उपलक्ष में महाराजा भीमसिंह ने राज्याभिषेक के समय उसे पोकरण के अलावा एक बड़ी जागीर और देने का विचार प्रकट किया। इस पर सवाईसिंह ने फलौदी मांगी। महाराजा ने फलौदी देने का हुक्म भी दे दिया64 किन्तु सिंघवी जोधराज ने सरदारों को फलौदी परगना जागीर मंे देने का विरोध किया।65 उसने महाराजा भीमसिंह को भड़काया कि यदि सवाईसिंह को फलौदी का परगना जागीर में दिया गया तो चाँदपोल दरवाजे के बाहर आपका राज नहीं रहेगा। फलस्वरूप सवाईसिंह को फलौदी का पट्टा मिलते मिलते रह गया।66  ठा. सवाईसिंह ने नाराज होकर गंगाजी के दर्शन के बहाने विदा ली।67 कुछ इतिहासकारों के अनुसार वह दिल्ली चला गया और मराठा सेनानायक लखबा दादा (दादा शेणची) को मारवाड़़ पर चढ़ाई करने के लिए तैयार किया। 1794 ई. में उसने मारवाड़़ पर चढ़ाई की।68  संभवतः महाराजा भीमसिंह भी अपने प्रधान को अधिक समय तक अप्रसन्न नहीं रखना चाहता था। उसने ठा. सवाईसिंह के विरोधी बख्शी सिंघवी अखैराज को पद से हटा दिया और सवाईसिंह के मार्फत लखबा दादा  से बातचीत करके कुछ रुपये देकर उसे वापस लौटा दिया। ठा. सवाईसिंह को बुलवाया गया तथा बधारे में उसके कुछ गाँवों में वृद्धि कर दी गई।69  मारवाड़़ रा ठिकाणा री विगत में उसे दस गाँव दिए जाने का विवरण मिलता है।70 सवाईसिंह के कहने पर भण्डारी शिवचन्द को बख्शी और भण्डारी शोभाचन्द को अपना मुसायब (सलाहकार) बनाया। लखबा दादा के मारवाड़़ में होने के कारण महाराज भीमसिंह पर काफी दबाव था। लखबा दादा के मारवाड़़ छोड़कर जाने से पूर्व ठा. सवाईसिंह के माध्यम से वार्षिक कर सम्बन्धी समझौता 1794 ई. में कर लिया गया क्योंकि वह दौलतराव सिंधिया द्वारा समस्त उत्तर भारत में प्रतिनिधि नियुक्त था।71

ठा. सवाईसिंह से सुलह कर लेने के बाद भी महाराजा भीमसिंह हृदय से उसे पसंद नहीं करता था। उसने सवाईसिंह की हत्या करने का मन बनाया, इसकी जानकारी सवाईसिंह को भी थी। उसने किलेदार शम्भुदान और खानसामा से गढ़ की चाबियाँ माँगी पर इन दोनों ने इन्कार करते हुए कहा कि आठों मिसलों के सरदारों के समक्ष वह चाबियाँ देगा। सवाईसिंह ने भीमसिंह को लिखकर भिजवाया की जोधपुर की किलेदारी जयसिंह भाटी को देने पर ही वह आपकी सेवा में उपस्थित रह सकेगा।72

      महाराजा भीमसिंह  अपने चाचा जालमसिंह और भाई मानसिंह द्वारा महाराजा विजयसिंह की मृत्यु के पश्चात् राज्य पर अधिकार करने के प्रयास के कारण अप्रसन्न था।73 उसने इन दोनों के विरुद्ध सेनाएं भेजी। जालमसिंह के विरुद्ध घाणेराव अभियान (1795 ई.) में दोनों विरोधी गुट एकत्रित हुए। रतनसिंह कूम्पावत और सिंघवी जोधराज इत्यादि ठा. सवाईसिंह के विरोधी थे, पर कोई संघर्ष नहीं हुआ।74 विरोधी गुट ने ठा. सवाईसिंह की हत्या करने का षड़यंत्र रचा, किन्तु ठा. सवाईसिंह को इसकी जानकारी मिल गई। वह जयपुर के लिए रवाना हो गया। नागौर में उसने सेठ साहुकारों को कैद कर 5 लाख रुपये वसूले। देवा जाट जिसने 38 वर्ष पूर्व ठा. देवीसिंह को पकड़ा था, की सपरिवार हत्या कर दी।75 संभवतः इस षड़यंत्र में उसे महाराजा भीमसिंह का हाथ प्रतीत हुआ होगा। ठा. सवाई सिंह ने लखबा दादा से महाराजा मानसिंह जोधपुर का राज्य देने के सम्बंध में गोपनीय पत्र व्यवहार किया। उसने मराठा सेनापति लखबा दादा को आश्वासन दिया कि इस कार्य में जोधपुर राज्य के महत्त्वपूर्ण सरदारों का सहयोग उसे मिल जाएगा।76 उसने पुष्कर बैठे हुए मेहता हुकमचन्द के माध्यम से जालौर रह रहे मानसिंह से सम्पर्क साधा। सकारात्मक उत्तर नहीं आने पर राजकुमार जालमसिंह को मारवाड़़ पर चढ़ाई करने हेतु प्रेरित किया। इधर महाराज भीमसिंह को ठा. सवाईसिंह की गुप्त कार्यवाहियों की सूचनाएँ लगातार मिल रही थी। वह इनसे परेशान हो गया। तब उसने किशनगढ़ के शासक महाराज प्रतापसिंह के माध्यम से सवाईसिंह को मनाया, किन्तु उसने चाकरी मे रहना पंसद नही किया।77 1795 ई. में महाराजा भीमसिंह ने चारणों से नाराज होकर उन पर चार लाख रूपये का जुर्माना कर दिया और वसूली का कार्य ठा. सवाईसिंह को सौंपा गया। किन्तु जब एक चारण कवि ने ठा. सवाईसिंह पर को प्रशंसात्मक कविता सुनाई, तो उसने समस्त जुर्माना स्वयं लेना स्वीकार कर लिया।78 महाराजा भीमसिंह से प्रार्थना करके ठा. सवाईसिंह ने मारवाड़़ के सांसण गाँवों की बाब (चन्दे की रकम) माफ करवा दी।79

       इधर जोधपुर में दीवान सिंघवी जोधराज ने अपने कामकाज के तरीके से पहले से ही असंतुष्ट सामन्त वर्ग को नाराज कर दिया। मेड़ता और परबतसर परगनों के छोड़े जागीरदारों और उनके अधिनस्थों पर ष्फौजकशी करष् के नाम पर भारी रकम की वसूली की गई। आठों मिसलों के सरदार और अन्य छोटे सरदार इस मुद्दे पर एकजुट होने लगे, क्योंकि देर सवेर यह कर उनसे भी वसूल किया जा सकता था। ये सभी सामन्त मेड़ता परगने के कालू गाँव में एकत्रित हुए और आसपास के क्षेत्रों में उपद्रव करने लगे। जब यह सूचना सवाईसिंह को मिली तब उसने अपने पुत्र सालमसिंह को अपने पास बुलाकर विद्रोह में शामिल नहीं होने के लिए समझा दिया।80 महाराज भीमसिंह ने विद्रोही सरदारों के विरुद्ध भण्डारी धीरजमल को भेजा जिसने सरदारों को वहाँ से खदेड़ दिया। 1802 ई. को सरदारों ने षडयंत्र करके दीवान जोधराज को उसके घर में ही सोते हुए साहिबसिंह (खेजड़ला ठिकाणें में सेवारत) और मुल्कचन्द के हाथों मरवा डाला।81 उससे क्रुद्ध होकर महाराज भीमसिंह ने आउवा, आसोप, चण्डावल, रास, रोयट और नींबाज के ठाकुरों की जागीरें जब्त कर ली । तब इन सरदारों ने देछू गाँव में मंत्रणा कर विद्रोह की योजना बनाई। महाराज भीमसिंह ने सूचना मिलने पर उनके विरुद्ध सिंघवी इन्द्रराज को एक सुसज्जित सेना सहित भेजा।82 सरदार गोडवाड़ से होते हुए मारवाड़़ जा पहुँचे। इन्द्रराज ने अपने भाई सिंघवी बनराज की सहायता से 26 जुलाई, 1803 ई.  के दिन जालौर पर आक्रमण कर नगर पर अधिकार कर लिया। जालौर किले की सख्त घेराबन्दी की गई।82 मानसिंह ने इस दौरान मराठा सहयोग प्राप्त करने का प्रयास किया, किन्तु उस समय मराठा अंग्रेजों से संघर्ष करने में व्यस्त थे।84

दीर्घकालीन घेरे के कारण दुर्ग में रसद सामग्री का अभाव हो गया तथा पीने का पानी भी खत्म होने को था। इस विकट समय में मानसिंह ने भोजन के अभाव में प्राण त्यागने के स्थान पर किला छोड़ कर अन्यत्र चले जाने पर विचार करने लगा। उसने अपनी सेना का नेतृत्व कर रहे सूरजमल को विरोधी खेमे के पास भेजा और कहलवाया कि घेरा ढीला कर दे ताकि मानसिंह दुर्ग छोड़कर जा सके।85 मानसिंह ने दुर्ग खाली करने का समय मांगा तथा दीपावली के दिन दुर्ग छोड़ने का वचन दिया।86 दीपावली नजदीक ही थी। तब पास ही जलंधरनाथ मंदिर के पुजारी आयस देवनाथ को अपने ईष्ट से आज्ञा हुई कि मानसिंह गढ़ को 21 अक्टूबर ,1803 तक नहीं छोड़े तो बाद में दुर्ग नहीं छोड़ना पडे़गा।87

19 अक्टूबर ,1803 ई.  को महाराज भीमसिंह का अदीठ (पीठ का फोड़ा) रोग से स्वर्गवास हो गया।88 दिवंगत महाराज के कोई पुत्र नहीं था, रानी देरावरजी गर्भवती थी। महाराजा भीमसिंह की मृत्यु के समय महाराज के पास सरदारों में से पोकरण कुँवर हिम्मतसिंह सवाईसिंहोत और कुचामण ठाकुर शिवनाथसिंह आदि हाजिर थे। क्योंकि महाराजा भीमसिंह के पुत्र नहीं था और रानी देरावरजी गर्भवती थी।ं इसलिए शेष रानियों ने कहलाया कि ’’हम तो पति के साथ प्रयाण करती है। रानी देरावर जी गर्भवती है, ईश्वर इसको पुत्र प्रदान करे तो उसको गद्दी पर बैठाना।’’ कुँवर हिम्मतसिंह सवाईसिंहोत और कुचामन ठाकुर शिवनाथसिंह को कहलाया कि ’’पोकरण ठाकुर सवाईसिंह यहाँ नहीं है, उसे जल्दी बुला लेना। यदि ईश्वर की कृपा से देरावरजी के पुत्र होवे तो उसको पट्टाधिकारी करके राज्य करवाना। यदि उससे राज्य नहीं करवाया तो हम ईश्वर की दरगाह में तुम्हें पूछेगी।’’ तदनन्तर रानियों ने पति के साथ अग्नि में जलकर मृत्यु का वरण किया।89

      मारवाड़़ के बड़े सरदार निष्कासिक अवस्था में उदयपुर व कोटा की रियासतों में बैठे थे अथवा अपने ठिकाणों में जा बैठे थे। ठा. सवाईसिंह भी अपने ठिकाणे पोकरण में था। जोधपुर में मौजूद मुत्सद्दी वर्ग राजगद्दी विषयक कोई भी महत्त्वपूर्ण निर्णय नहीं ले पा रहा था।90  दीवान, बख्शी, मुत्सद्दी, धायभाई शम्भुदान इत्यादि ने एकत्रित होकर राज्य के प्रधान ठा. सवाईसिंह के नाम पत्र लिखकर पोकरण भेजा और शीघ्र जोधपुर आने के लिए कहलवाया। एक अन्य पत्र सिंघवी इन्द्रराज के नाम धायभाई शम्भुदान, भण्डारी शिवचन्द, मुणोत ज्ञानमल इत्यादि ने लिखा कि ’’महाराजा भीमसिंह का स्वर्गवास हो गया है और रानी देरावर जी के गर्भ है, पोकरण ठाकुर सवाईसिंह जी जो राज्य के प्रधान है, पोरकण में है, उनको कासीद भेजकर बुलाया है।उनके आने तक सलाह करके आखिरी हुक्म न लिखें तब तक जालौर के किले का घेरा मत उठाना।’’91

      सिंघवी इन्द्रराज ने कुछ समय पूर्व ही मारवाड़़ के विद्रोही सरदारों के एक बड़े समूह को युद्ध में पराजित करके उन्हें मारवाड़़ से खदेड़ने और जालौर शहर पर अधिकार करने में सफल हुआ था। अतः वह स्वाभाविक रूप से राज्य की सक्रिय राजनीति विशेषकर उत्तराधिकारी मुद्दे पर अपनी भूमिका निभाने के लिए उद्यत हुआ। सिंघवी इन्द्रराज और भण्डारी गंगाराम को पत्र की भाषा पंसद नही आई। उन्होंने परस्पर विचार किया कि वे सवाईसिंह के समान राज के नौकर हैं, पोकरण ठाकुर के नहीं।92 रानी देरावरजी के पुत्र ही होगा यह भी निश्चित नहीं है, क्यों ना वे मानसिंह को ही जोधपुर का स्वामी बना दें। वह 21 वर्ष का तरुण पुरुष है, उसे युद्ध और प्रशासन का अनुभव है तथा शिशु राजा से निश्चित रूप से बेहतर विकल्प है। मानसिंह के शासक बनने से उन्हें सर्वोच्च पद और प्रतिष्ठा मिलेगी। यदि दिवंगत महाराज भीमसिंह का पुत्र स्वामी हो गया तो जोधपुर में इस समय जो दीवान और बख्शी है उन्हीं की चलेगी।93 अतः मानसिंह को राजगद्दी पर बैठाना उनके लिए हितकर रहेगा।

      जालौर किले वालों को महाराज भीमसिंह की मृत्यु की खबर प्रकट करने के लिए उन्होंने सेना सहित मुण्डन करा कर सचैल स्नान किया। जालौर किलेवालों को अब यह भाँपने में समय नहीं लगा कि किसी विशेष व्यक्ति की मृत्यु हुई है। मानसिंह ने दासपां ठाकुर उदयराज से कहलवाकर एक व्यक्ति को वेश बदलकर गुप्त रूप से भिजवाया। तब जाकर उन्हंे यह मालूम हुआ कि महाराज भीमसिंह का स्वर्गवास हो गया हैं। मानसिंह ने किले में मौजूद सरदारों से मंत्रणा करके सिंघवी इन्द्रराज और ठा. सवाईसिंह को अपने पक्ष में करने के प्रयास करने प्रारम्भ कर दिए। ठा. उदयराज ने अपना एक विश्वासपात्र व्यक्ति सिंघवी इन्द्रराज के पास भेजा और उन्हें महाराजा मानसिंह के पक्ष में आने का संदेश दिया। सिंघवी इन्द्रराज तो यही चाहता था। उसने अपने विश्वासपात्र ललवाणी अमरचन्द को आगे की बातचीत के लिए संदेशवाहक के साथ भेज दिया।94 उसने मानसिंह के समक्ष प्रस्तुत होकर औपचारिक अभिवादन किया और एक खास रुक्का सिंघवी इन्द्रराज के नाम लिखवा लिया। दूसरा रुक्का  सरदार और मुत्सद्दियों के नाम सिंघवी इन्द्रराज के कथनानुसार लिखवाया गया। ठाकुर सवाईसिंह के नाम तीन रुक्के 20 अक्टूबर और 24 अक्टूबर को लिखा और चौथा 25 अक्टूबर को लिखा तथा एक खास रुक्का कुँ. हिम्मतसिंह के नाम अक्टूबर 22 का लिखा हुआ भेजा गया। इन खास रुक्कों में कहा गया कि ठा. सवाईसिंह का कुरब, प्रधानगी, पट्टा इत्यादि कम नहीं किया जाएगा और मानसम्मान यथावत रहेगें। महाराजा मानसिंह की ठा. सवाईसिंह पर सदैव शुभ दृष्टि रहेगी इसका वचन दिया गया। ठा. सवाई सिंह को लिखे चौथे रुक्के में लिखा गया कि उनके (मानसिंह) जोधपुर की ओर कूच की तैयारी है और वे ठा. सवाईसिंह के पत्र का इंतजार कर रहे है। प्रधान होने के नाते वह आगे का कार्य उसके सलाह के अनुसार ही करेगा।95

      इस प्रकार सब प्रकार से निश्ंिचत होकर महाराज मानसिंह किले से उतर कर राजकीय सेना के समक्ष जा पहुँचा। भण्डारी गंगाराम और सिंघवी इन्द्रराज मानसिंह को साथ लेकर जोधपुर की ओर प्रयाण किया। जोधपुर रियासत के सरदार जो निष्कासित अवस्था में उदयपुर व कोटा रह रहे थे, को खास रुक्के भिजवाकर सिंहसनारूढ़ समारोह में आने का निमंत्रण भिजवाया गया।96 जोधपुर से सवाईसिंह के पास दीवान, बख्शी तथा सरदारों के पत्र पहुँचे और जालौर से मानसिंह के खास रुक्के और सरदारों के पत्र आए। दोनों पक्षों के पत्र पाकर ठा. सवाईसिंह के मन में अनिश्चय की स्थिति उत्पन्न हो रही थी, क्योंकि यदि वह स्वर्गवासी महाराज भीमसिंह के भावी पुत्र के पक्ष में नहीं रहता तो विश्वासघाती कहलाता तथा सति हुई रानियों की बात नहीं रखने का दोषी होता। अगर दूसरे पक्ष की ओर नहीं रहता तो भावी महाराजा मानसिंह से शत्रुता हो जाती । फिर यह भी निश्चित नहीं था कि रानी देरावर जी के पुत्र ही होगा।126

      ठा. सवाईसिंह शीघ्रतापूर्वक जोधपुर पहुँचा और दीवान, बख्शी, सरदारों, धायभाई, ख्वास, पासवान इत्यादि सब से मिलकर पूछताछ करवाई तो रानी देरावरजी के गर्भ होना प्रमाणित हुआ। सभी राजकीय व्यक्तियों से सलाह की गई और यह निश्चित हुआ कि स्वर्गीय महाराज भीमसिंह के पुत्र होने पर जोधपुर का राज्य उसके अधिकार में रहेगा, तब तक मानसिंह जालौर में राज्य करते रहें। तत्पश्चात् सभी ने ठा. सवाईसिंह से कहा कि आप प्रधान है इसलिए आपको अग्रणी होना पड़ेगा, तब ठा. सवाईसिंह ने कहा कि आप सब लोग न बदलने का वचन देवें, तब सबने धर्म को साक्षी रखकर वचन दिया।97

      इसी दौरान सिंघवी इन्द्रराज और महाराजा मानसिंह जोधपुर के समीप पहुँचे और सालावास में डेरा किया।98 सूचना मिलने पर ठा. सवाईसिंह सहित किले में मौजूद सभी सरदार, मुत्सद्दियों, ख्वासों, पासवानों सहित सालावास पहुँचे। औपचारिक अभिवादन के पश्चात् सभी राजकीय गण महाराजा के पास बैठ गए। उन्होंने महाराजा से निवेदन किया कि महाराजा भीमसिंह की रानी देरावरजी के गर्भ है, इस बात पर विचार किया जाना चाहिए। महाराजा मानसिंह ने ठा. सवाईसिंह से कहा कि ’’अभी तो आप सब डेरा करें, भोजन कर लें , फिर विचार करेंगें।’’ महाराजा मानसिंह ने दासपां ठाकुर उदयराज और सिंघवी इन्द्रराज को बुलवाकर उनसे राय की। इन्होंने परामर्श दिया कि एक बार तो आप किले में दाखिल हो जाइए। फिर विचार होता रहेगा। आपसे कोई झगड़ा या युद्ध तो करेगा नहीं। देरावरजी के पुत्र या पुत्री होने पर ही इस मुद्दे पर कुछ तय हो सकता है। आप जोधपुर से आए सरदारों से कहेें कि  यहाँ बाहर बैठने से सभी को तकलीफ है। हम (महाराजा) तलहटी के महलों में ठहर जाएगें, फिर तुम्हारी सलाह होगी वैसा किया जाएगा। इस विचार विमर्श के बाद  महाराजा ने जोधपुर प्रयाण का नक्कारा करवाया और स्वयं सवार हो गया। इसी मौके पर राजकीय गणों ने सवाईसिंह से महाराजा को कुछ समय ठहरने का निवेदन करवाया किन्तु महाराजा ने पूर्व निश्चित उत्तर दे दिया। ठा. सवाईसिंह ने लौटकर राजकीय गणों को कह दिया कि महाराजा की ठहरने की इच्छा नहीं हैं। तब भण्डारी शिवचन्द, ज्ञानमल और धायभाई शम्भुदान आदि ने सवाईसिंह से कहा कि ’’रानी देरावरजी के गर्भ है, उनका किले में रहना उचित नहीं रहेगा, क्योंकि महाराजा मानसिंह देरावरजी की सुरक्षा और हत्या नहीं करने का वचन तो ले लेंगें परन्तु राजा का भरोसा नहीं किया जा सकता। महाराजा भीमसिंह ने महाराजकुमारों एवं राजकुमारों की हत्या नहीं करने का वचन दिया था किन्तु मौका मिलते ही अकारण मरवा डाला।99 इसलिए महाराजा मानसिंह के जोधपुर पहुँचने से पूर्व देरावरजी को चौपासनी भिजवा दिया जाना चाहिए।’’ यह बात निश्चित होने पर एक कासीद द्रुतगति से जोधपुर भेजा गया। संदेश के अनुसार देरावर जी चौपासनी चली गई। उसके साथ स्व. महाराजा भींवंिसंह की रानी तँवर जी भी गई।100 5 नवंबर ,1803 ई. को महाराज मानसिंह ने जोधपुर के किले में प्रवेश किया।101 देरावर जी और तँवर जी के चौपासनी होने की सूचना मिलने पर महाराजा ने सरदारों से इसे जोधपुर राज्य की प्रतिष्ठा व मर्यादा के प्रतिकूल बताया। वह दिवंगत महाराजा भीमसिंह की रानियों को लाने के लिए स्वयं चौपासनी गया। देरावर जी से हुई मुलाकात में देरावर जी ने गर्भ होने की सूचना दी और भावी संतान हेतु बंदोबस्त करने को कहा।102 महाराजा ने देरावरजी को उसकी इच्छानुसार वचन दिया कि कन्या के जन्म होने पर जयपुर या उदयपुर राजघराने में उसका विवाह करवा दिया जाएगा और यदि लड़का हुआ तो वह जोधपुर का स्वामी होगा। वह जालौर लौट जाएगा।103 यदि हम इस लेख का पालन न करें तो जयपुर और बीकानेर महाराज के कथनानुसार हमें मानना पड़ेगा। देरावरजी की प्रार्थना पर महाराज ने वचन का लेख लिखकर हस्ताक्षर किए, गुसाईं विट्ठलजी को साक्षी बनाया और आठों मिसलों पोकरण, आउवा, कुचामण, बगड़ी, चण्डावल, रास, खींवसर और कनाना के ठिकानेदारों ने प्रतिहस्ताक्षर करके लेख चौपासनी के गुसाईं जी के सुपुर्द कर दिया।104 तब देरावरजी सवारी से गढ़ की ओर रवाना हुई। किन्तु पूर्व निश्चित योजना के विपरीत ठा. सवाईसिंह ने दोनों रानियों को तलहटी के महलों में रुकवा दिया। इससे महाराजा मानसिंह उससे नाराज हो गया।105 महाराजा मानसिंह ने अपने विश्वासपात्र नाजर गंगाराम के चेले रामदास और दासियों के रानी देरावरजी के पास रखवाया और चौकियों पर विश्वासपात्र सरदारों व उनकी सेना नियुक्त की गई।106

      इसी वर्ष जनवरी 1804 ई. (वि.सं. 1861 माघ सुदि 2द्धें देरावर जी से एक बालक पैदा हुआ।107 उसका नाम धौंकलसिह रखा गया। इसकी जानकारी मिलने पर महाराज ने उसकी हत्या करने का षड़यंत्र रचा।108 ठा. सवाईसिंह जिसका सूचनातंत्र अत्यंत कुशल था को इसकी सूचना मिली। सवाईसिंह ने मौका देखकर रात के समय बालक धौंकलसिह को एक बाँस की टोकरी में लिटाकर रस्से से महल के नीचे उतार दिया क्योंकि मानसिंह ने सख्त पहरा लगा रखा था। तलहटी के महल की सुरक्षा व्यवस्था को गच्चा देकर ठा. सवाईसिंह उस बालक को लेकर बाजार होकर मेड़ता दरवाजे से बाहर निकला। बालक धौंकलसिंह के मामा भाटी छत्रसाल के साथ अपने दामाद खेतड़ी (जयपुर राज्य का ठिकाणा) के अभयसिंह शेखावत के पास भिजवा दिया।109

रानी देरावर जी के बालक उत्पन्न होने और ठा. सवाईसिंह के द्वारा उसे खेतड़ी भिजवाए जाने की औपचारिक सूचना महाराजा मानसिंह को भिजवाई गई। तब महाराजा मानसिंह ने धौंकलसिह के उत्पन्न होने की जाँच करवाई। सभी सरदारों के सामने देरावरजी ने यह घोषित कर दिया कि धौंकलसिंह उसका पुत्र नहीं है। धौंकलसिंह के पैदा होने के पहले के और बाद के ऐसे कोई प्रमाण नहीं रखे गए जिससे यह प्रमाणित होता हो कि देरावरजी गर्भवती थी। अतः रानी के उत्तर से सामन्तों को विश्वास हुआ था।110 वस्तुतः देरावर जी सत्य कहने का नैतिक साहस नहीं जुटा सकी। अपने पति की असामयिक मृत्यु के बाद वह अपने शिशु की सुरक्षा के प्रति चिन्तित थी। संभवतः शिशु बालक की हत्या की आंशका से भयभीत होकर ही उसने शिशु को जन्म देने के सभी प्रमाण नष्ट करवा दिए और घोषित कर दिया कि धौंकलसिंह उसका पुत्र नहीं है।111 सरदारों ने भी इसके अतिरिक्त और कोई प्रमाण प्राप्त करने की आवश्कता नहीं समझी। मानसिंह सवाईसिंह की इन गुप्त कार्यवाहियों से अत्यधिक अप्रसन्न हुआ।

क्या धौंकलसिंह देरावर जी का वास्तविक पुत्र था ?      

महाराजा मानसिंह धौंकलसिह को देरावर जी का वास्तविक पुत्र मानने को तैयार नहीं था। उसने इसे विरोधियों के प्रपंच और ठा. सवाईसिंह की शरारतपूर्ण चाल कहा। उसने देरावरजी के गर्भ से होने की बात पर भी प्रश्न चिह्न लगाए। उससे महाराजा मानसिंह की मंशा स्पष्ट रूप से प्रकट होती थी। देरावरजी अवश्य ही गर्भवती थी। तथ्य इस पत्र से भी पुष्ट होता है जिसे दीवान, बख्शी, मुत्सद्दियों, धायभाई इत्यादि ने मिलकर लिखा और जालौर में अवस्थित सिंघवी इन्द्रराज को भिजवाया । इस पत्र में जालौर का घेरा नहीं उठाने, देरावर जी के गर्भवति होने और ठा. सवाईसिंेह के पोकरण में होने की बात कही गई है। अतः देरावर जी का गर्भवती होना ठा. सवाईसिंह का झूठा प्रपंच कतई नहीं हो सकता था। महाराजा जसवंतसिंह की मृत्यु होने पर उसकी एक रानी के गर्भ से महाराजा अजीत सिंह का जन्म हुआ था। औरंगजेब ने उसे बनावटी पुत्र घोषित करवा दिया था। अन्त में जब उसका विवाह उदयपुर महाराणा के भाई की पुत्री के साथ सम्पन्न हुआ तब उसे अजीतसिंह के वास्तविक उत्तराधिकारी होने के तथ्य को स्वीकार करना पड़ा। जयपुर महाराजा ने भी धौंकलसिह को अपने साथ एक ही थाल में भोजन कराया। जिससे महाराजा मानसिंह को उसके वास्तविक होने का विश्वास कर लेना चाहिए था। किन्तु अपने निजी स्वार्थों के कारण मानसिंह ने उसे बनावटी मानना ही श्रेयस्कर समझा। देरावरजी के पुत्र उत्पन्न होने का एक समकालीन प्रमाण वह पत्र है जो उसने ठाकुर बुधसिंह जी (पोकरण का तत्कालीन कामदार) को मिति पूनम वार मंगलवार को लिखा था। इस पत्र में उसने अपने पुत्र के माघ सुदि बीज (2) को रात्रि की दो घड़ी व्यतीत होने के समय होना स्पष्ट तौर से लिखा है।112

मानसिंह द्वारा उस समय धौंकलसिंह के अस्तित्व को अस्वीकार करने का एक अन्य कारण भी था। देरावर जी को तलहटी के महल में ठहराने के मुद्दे पर महाराजा मानसिंह का ठा. सवाईसिंह से विवाद होने के पश्चात् मानसिंह ने तलहटी के महल की सुरक्षा सुदृढ़ कर दी, विश्वस्त सेवकों और दासियों को नियुक्त किया और चौकियों पर अपने समर्थक सरदारों और उनकी सेना को नियुक्त किया, जिससे ठा. सवाईसिंह और उसके समर्थक सरदार कोई षड़यंन्त्र न कर सकें। इतनी सुरक्षा के बाद भी ठा. सवाईसिंह का देरावरजी के नवजात शिशु धाैंकलसिंह को महल से सुरक्षित बाहर निकाल कर खेतड़ी भिजवा देना अविश्वसनीय और असम्भव सा कार्य था। इसी कारण मानसिंह ने यह कहना प्रारम्भ कर दिया कि धौंकलसिंह काल्पनिक बालक है तथा देरावर जी के कोई गर्भ ही नहीं था। गर्भ के समय के ऐसे प्रमाण सुरक्षित नहीं रखे गए जिससे देरावर जी द्वारा संतान उत्पन्न होना प्रमाणित होता हो। महाराजा मानसिंह समस्त घटनाक्रम से क्षुब्ध था। इसलिए वचन भंग करके देरावर जी पर दबाव डलवाया और सरदारों के समक्ष घोषित कराया कि ’’धौंकलसिंह उसका पुत्र नहीं है।’’ सरदार इससे संतुष्ट हो गए तथा महाराजा मानसिंह को निष्कंटक राज्य प्राप्त हो गया।

ठा. सवाईसिंह ने धौंकलसिंह का क्यों पक्ष लिया ?

यह सर्वविदित है कि महाराजा विजयसिंह की पासवान गुलाबराय की हत्या करवाने में ठा. सवाईसिंह का प्रत्यक्ष हाथ रहा था। महाराजा मानसिंह गुलाबराय का दत्तक पुत्र था। व्यक्तिशः ठा. सवाईसिंह मानसिंह का विरोधी नहीं था, किन्तु अवश्य ही उसके मन में यह धारणा रही होगी कि यह पुत्र अपनी माता, चाहे वह सगी नहीं थी की, हत्या का प्रतिशोध अवश्य लेगा। महाराजा भीमसिंह के शासनकाल के 11 वर्षों में से 9 साल ठा. सवाईसिंह के महाराजा से सम्बन्ध अच्छे रहे थे, किन्तु दीवान सिंघवी जोधराज की हत्या करवाने में अप्रत्यक्ष रूप से शामिल होने के कारण महाराजा भीमसिंह से उसके सम्बन्ध बिगड़ गए थे। फिर भी राजवंश के प्रति निष्ठा और वफादारी होने के कारण वह देरावर जी द्वारा पुत्र उत्पन्न होने की अवस्था में उसे राजगद्दी पर बिठाने के लिए तत्पर था। महाराजा भीमसिंह की मृत्यु के बाद उसकी सती होने वाली रानियों ने ठा. सवाईसिंह को कहलवाया कि देरावर जी के पुत्र होने पर उसे गद्दी पर बैठाया जाए। वह सतियों के वचन का मान रखना चाहता था।

महाराजा मानसिंह के जोधपुर पहुँचने से पूर्व सालावास में और तत्पश्चात् जोधपुर से उसने देरावर जी के गर्भ का मुद्दा उठाया । देरावर जी की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उसने देरावर जी को चौपासनी के गुसाँई जी के यहाँ ठहराया और तत्पश्चात् महाराजा मानसिंह की इच्छा के विपरीत किले की जगह तलहटी के महल में ठहरा मानसिंह की नाराजगी मोल ली। महाराजा मानसिंह भी तब तक समझ गया था कि कौन उसके पक्ष में और कौन विपक्ष में था। ऐसी परिस्थिति में ठा. सवाईसिंह को वह स्थिति और मान सम्मान कभी नहीं मिल सकती थी, जो उसके आत्मसम्मान को तुष्ट कर सके। अतः वह देरावर जी के प्रति सतर्क रहा और अपने तंत्र को सक्रिय रखा। शिशु धौंकलसिंह के जन्म होते ही वह तमाम सुरक्षा व्यवस्था की आँखों में धूल झौंक कर बालक को तलहटी के महल से निकालकर खेतड़ी भेजने में सफल रहा। यह ठा. सवाईसिंह की एक बड़ी सफलता और महाराजा मानसिंह की व्यक्तिगत हार थी। महाराजा मानसिंह इस षड़यन्त्र से तिलमिला उठा। इस घटना से उसकी सद्भावना को ठोस लगी थी। उसने उसी माह अपना राज्याभिषेक करवा कर वचन भंग कर दिया। राज्याभिषेक के समय ठा. सवाईसिंह के पक्ष के लोगों की पूर्ण उपेक्षा हुई और महाराजा मानसिंह के समर्थक सरदारों एवं कर्मचारियों को पुरुस्कृत किया गया, जिससे विश्वासपात्रों के सशक्त गुट बनने से उसकी स्थिति मजबूत हुई। राजकार्य में भी ठा. सवाईसिंह की उपेक्षा की जाने लगी। राज्याभिषेक के समय मानसिंह ने मानसिंह भीमसिंहोत के स्थान पर मानसिंह गुमानसिंहोत उच्चारित करवाया जो तत्कालीन परम्परा के विरुद्ध था। इससे ठा. सवाईसिंह सहित अन्य सरदार नाराज हो गए। मानसिंह ने भण्डारी शिवचन्द, धायभाई शम्भुदान, सिंघवी ज्ञानमल सहित कई छोटे बड़े नौकरों को जो भीमसिंह की सेवा में थे, को कारागार में डाल दिया और कई भाग गए। सिंघवी इन्द्रराज जिसने महाराजा मानसिंह से प्रतिज्ञा करवाई थी कि भीमसिंह के मनुष्यों को हम नुकशान नहीं पहुँचाएगें, मन में शंकित हुआ और उसके मन में भी अन्तर पड़ गया और भय के मारे अपनी हवेली में बैठा रहता था।113

उसी दौरान महाराजा मानसिंह ने सवाईसिंह की हत्या का असफल प्रयास किया। उस पर सवाईसिंह अपने 500-700 सैनिकों सहित सूरसागर में डेरा डाकर बैठ गया और बुलाने पर भी दरबार नहीं गया। तब महाराजा मानसिंह स्वयं ठा. सवाईसिंह के डेरे गया और उसे प्रधानगी बख्शी। तत्पश्चात् ठा. सवाईसिंह ने पोकरण जाने की अनुमति माँगी।114 पोकरण पहुँचकर उसने महाराज मानसिंह की सत्ता उखाड़ने का पुरजोर प्रयास प्रारम्भ किया।115 महाराजा मानसिंह को शासक बाने में सिंघवी इन्द्रराज और भण्डारी गंगाराम की मुख्य भूमिका थी, जिसे ठा. सवाईसिंह ने पसन्द नहीं किया। उसने माहराजा को कहलवा दिया कि ’’राव रिड़मल के वंशज जिसको थरपेगें वही, मारवाड़़ का राजा होगा। बनिये का बनाया राजा राज नहीं कर सकता।

1804 ई. में महाराजा मानसिंह ने अंग्रेजो से हारकर अजमेर की ओर आए जसवंतराज होल्कर को सकुटुम्ब संरक्षण दिया। इस घटना से यद्यपि मानसिंह और अंग्रेजों के बीच मई, 1804 की संधि तो बिल्कुल रद्द हो गई, परन्तु होल्कर से अच्छी मित्रता स्थापित हो गई।116 जब मानसिंह 1803 ई. में जालौर के घेरे में फँसा था, उस समय उसने अपने जनाने को सिरोही में रखने के लिए राव वैरीसाल जी से कहलाया था, किन्तु महाराजा भीमसिंह के भय से उसने इन्कार कर दिया था।117 प्रतिशोधवश महाराजा मानसिंह ने एक सेना जुलाई 1804 ई. में भण्डारी गंगाराम, मुहताज्ञानमल और ठा. सवाईसिंह के पुत्र सालमसिंह के नेतृत्व मे भेजी।118 इस सेना ने सिरोही पर अधिकार कर लिया ओर गढ को गिराया जाने लगा। सालमसिंह ने गढ़ की प्रसिद्ध कबानदार पोळ को गिराने से सैनिकों को रोक दिया।119 जिससे एक ऐतिहासिक शिल्पकला का नमूना नष्ट होने से बच गया।

महाराजा मानसिंह के विरूद्ध विद्रोह-

जुलाई 1804 ई. मंे ही खेतड़ी, झुन्झुनू, नवलगढ़ और सीकर आदि के शेखावतों ने 4000 की सेना के साथ छत्रसाल भाटी और धौंकलसिह का पक्ष लेते हुए डीडवाना पर अधिकार कर लिया।120 किन्तु शीघ्र ही राजकीय सेना ने डीडवाना पहुँचकर शेखावतों को खदेड़ दिया और सीकर वालों से शाहपुरा छीन लिया।121  इस कार्य में अवश्य ही ठा. सवाईसिंह की अप्रत्यक्ष भागीदारी रही होगी क्योंकि खेतड़ी के राव अभयसिंह सवाईसिंह का दामाद था। यह जानकार महाराजा मानसिंह ने ठा. सवाईसिंह को पोकरण से मनाकर लाने के लिए असायच नथकरण को भेजा। किन्तु वह आने को तैयार नहीं हुआ। नथकरण ने लौटकर मानसिंह से निवेदन किया कि ठा. सवाईसिंह के पास राजपूतों का अच्छा सैन्य संगठन है। अतः किसी भी प्रकार से सवाईसिंह को मना लेना चाहिए। किन्तु मुहता अखैचन्द और मुहता ज्ञानमल ने उसे यह कहकर नथकरण को कैद करवा दिया कि यह तो सवाईसिंह से मिला हुआ है।122

      इधर पोकरण जा बैठे ठा. सवाईसिंह को देरावर जी के समर्थक सरदारों ने उसे सक्रिय भूमिका निभाने का निवेदन किया।वे सवाईसिंह को भविष्य में सहयोग देगें इस बाबत प्रतिज्ञा पत्र सरदारों ने सवाईसिंह को प्रेषित किए। जोधपुर के किले में एकाकी और दुःखमय जीवन व्यतीत कर रही देरावर जी ने सवाईसिंह के कामदार बुद्धसिंह को हृदयस्पर्शी पत्र लिखकर सवाईसिंह को सक्रिय भूमिका निभाने के लिए प्रेरित करने को कहा।123 इधर चौपासनी के वल्लभ सम्प्रदाय के श्याम मनोहर मंदिर के गुँसाई विट्ठलराय भी महाराजा मानसिंह द्वारा नाथ परम्परा अपनाए जाने से नाराज हो गया। हुआ यह कि एक दिन महाराजा मानसिंह ललाट पर विभूति लगाए हुए इस मंदिर में चले गए।तब गुँसाई जी ने उसे टोका कि ’’आप महाराजा विजयसिंह के पौत्र है, आपको विभूति लगाना उचित नहीं है। वैष्णवों को वही, तिलक करना चाहिए जो परम्परा से करते आए है। भविष्य में ऐसी विभूति लगाकर मंदिर में मत आना।’’ महाराजा मानसिंह इस बात से अत्यन्त अप्रसन्न हुआ और उस मंदिर में जाना बंद कर दिया। इस पर गुँसाई विट्ठलराय ने महाराज मानसिंह का लिखा वह प्रतिज्ञापत्र जिसमें उसने देरावर जी के पुत्र होने की अवस्था में जोधपुर राज्य देने का और स्वयं जालौर चले जाने का जिक्र किया था, को पुष्कर आए जयपुर महाराजा को सौंप दिया और कहा कि भीमसिंह के पुत्र को राज्य दिलाना जयपुर और बीकानेर वालों का कर्त्तव्य है ।124

3 जुलाई ,1805 को ठा. सवाईसिंह जयपुर पहुँचा और महाराजा जगतसिंह से धौंकलसिंह की सहायता करने के लिए दो शर्तों पर समझौता किया-125

1. मारवाड़़ पर चढ़ाई का सारा खर्चा (9 लाख रुपये) सवाईसिंह देगा और जयपुर वालों को साम्भर दे दिया जाएगा ।

2. धौंकलसिह को मारवाड़़ की गद्दी पर बिठाने के लिए जगतसिंह पूर्ण सहायता करेगा

 

ठा. सवाईसिंह ने बीकानेर स्थित बडलू के सार्दुलसिंह की मदद से बीकानेर महाराजा को अपने पक्ष मे किया।126  2 नवम्बर, 1805 ई. को ठा. सवाईसिंह बीकानेर गया और महाराजा सुरतसिंह को फलौदी सहित 84 गाँव देने का वचन दिया तथा फौज खर्च देने की भी सहमति दी। महाराजा मानसिंह को जब इसकी जानकारी मिली तो इसने भी बीकानेर के समक्ष फलौदी देने का प्रस्ताव रखा पर सूरतसिंह ने इसे खारिज कर दिया। पोकरण के प्रधान भायल जीवराज के साथ बीकानेर की 8000 की सेना भेजकर अमल करवाया। इसी प्रकार सांभर पर जयपूर का राज्यधिकार स्थापित हो गया।127

इस मौके पर सवाईसिंह ने अपनी पौत्री (सालमसिंह की पुत्री) की सगाई जयपुर महाराजा जगतसिंह के साथ कर दी तथा जयपुर में गीजगढ़ की हवेली में शादी करना निश्चित किया गया। इसकी सूचना जब महाराजा मानसिंह को मिली तो उसने सवाईसिंह को पौत्री का विवाह जयपुर जाकर करने को राठौड़ कुल के लिए अनुचित और अप्रतिष्ठाजनक बताया और मना कराया।128 उसने कहलवाया कि महाराजा जगतसिंह की बारात को पोकरण आना चाहिए। ठा. सवाईसिंह को महाराजा मानसिंह की यह बात पसन्द नहीं आई। उसने उत्तर भिजवाया कि उसका भाई उम्मेदसिंह जयपुर में रहता है और उसकी गीजगढ़ में जागीर है। वह अपने भाई की जयपुर स्थित गीजगढ़ की हवेली में विवाह कर रहा है, जिसमें कोई बुरी बात नहीं है। किन्तु यह सर्वथा अप्रष्ठिाजनक और लज्जाजनक बात है कि उदयपुर की जिस राजकुमारी कृष्णाकुमारी का सम्बन्ध पहले महाराजा भीमसिंह के साथ हुआ था; उसी राजकुमारी का विवाह अब महाराजा जगतसिंह के साथ हो रहा है ।129

महाराजा मानसिंह को यह बात चुभ गई। उसने अपने सरदारों मुत्सद्दियों से पूछताछ करवाई गई। वास्तव में राजकुमारी कृष्णाकुमारी की सगाई पहले महाराजा भीमसिंह से हुई थी। उसकी मृत्यु होने पर महाराणा भीमसिंह ने महाराजा मानसिंह के समक्ष कृष्णाकुमारी के विवाह का प्रस्ताव रखा। महाराजा मानसिंह द्वारा प्रस्ताव स्वीकार भी कर लिया गया, किन्तु जून, 1804 ई. में मानसिंह द्वारा महाराणा के दूर के सम्बन्धी घाणेराव ठाकुर पर आक्रमण कर उसे निष्कासित करने की कार्यवाही से अप्रसन्न होकर 1805 ई. में जयपुर महाराजा जगतसिंह से कृष्णाकुमारी के विवाह की चर्चा प्रारम्भ की, जिसे उसने स्वीकार कर लिया।130 महाराजा मानसिंह को सूचित किया गया कि सम्बन्ध की बात तो पक्की हो चुकी है परन्तु टीका दस्तूर अभी नहीं हुआ है। मानसिंह ने अपने जयपुरस्थ वकील को लिखा कि विवाह के प्रतिषेध का प्रबन्ध करो और उदयपुर वालों को लिखा कि आप यह सम्बन्ध मत करना। किन्तु उदयपुर राजघराने ने महाराजा मानसिंह के पत्र की ओर कोई ध्यान नहीं दिया और टीका जयपुर को रवाना कर दिया।131 इसकी जानकारी पाकर महाराजा मानसिंह अत्यधिक अप्रसन्न हुआ। 19 जनवरी ,1806 को वह अपने साथ कुछ सेना लेकर, बगैर सलाहकारों से परामर्श किए मेड़ता की ओर रवाना हुआ।132 उसने मुहता ज्ञानमल को जो शेखावाटी में सेना सहित मौजूद था और सिरोही में मौजूद सेना को बुलवाया।133 जसवंतराव होल्कर को अपनी मित्रता की दुहाई देकर बुलवाया। कोटा और सिरोही से भी सैनिक सहायता माँगी गई।134

’’ठिकाणा पोहकरण का इतिहास’’ के अनुसार महाराज मानसिंह ने ड्योढी़दार नथकरण को ठा. सवाईसिंह के पास पोकरण भेजा। सवाईसिंह ने पोकरण से कुँवर हिम्मतसिंह को नथकरण के साथ करा दिया। वह महाराजा के समक्ष उपस्थित हुआ और कुँवर सालमसिंह जो सिरोही में था, ने सिरोही के राव के साथ संधि करके राव उदयभाण को पदारूढ़ किया और वह भी सेना लेकर मेड़ता में महाराजा के समक्ष उपस्थित हुआ। फिर सालमसिंह आज्ञा लेकर पोकरण चला गया।167 समकालीन ऐतिहासिक स्त्रोत से तुलना करने पर उपरोक्त विवरण गलत प्रतीत होता है। महाराजा मानसिंह के जनवरी, 1805 ई. में मेड़ता जाने से काफी पूर्व सवाईसिंह मई 1804 ई. में जयपुर रवाना हो गया था। समकालीन स्त्रोत नथकरण के साथ कुँ. हिम्मतसिंह को भेजने को भी प्रमाणित नहीं करते हैं। कुँ. सालमसिंह सिरोही से मेड़ता गया। इसे भी अन्य स्त्रोत प्रमाणित नहीं करते। सम्भवतः वह कोई बहाना बनाकर सीधा ही पोकरण चला गया होगा। महाराजा मानसिंह के प्रयासों से एक लाख की सेना मेड़ता में एकत्रित हो गई। अमीरखाँ को भी रोजाना के खर्च के हिसाब से सेना सहित बुलवा लिया गया ।135

इधर उदयपुर महाराणा भीमसिंह ने इस विस्फोटक घटनाक्रम की उपेक्षा कर उदयपुर से टीका रवाना कर दिया। टीका लेकर गए दल ने खारी नदी के तट पर डेरा डाला। उसकी सूचना मिलते ही महाराजा मानसिंह ने सिंघवी इन्द्रराज व आउवा ठाकुर आदि को 20,000 की सेना देकर टीका रोकने के लिए भेजा । जब उदयपुर से टीका लेकर गए दल को इसका पता चला तो वे भयवश शाहपुरा की ओर चले गए।136 मारवाड़़ की सेना ने शाहपुरा को घेर लिया। यह पूर्व में बताया गया है कि महाराजा मानसिंह की राजकीय सेना ने सीकर वालों से शाहपुरा छीनकर राव मोहनसिंह को पुनः शाहपुरा की गद्दी पर बैठाया था। राव मोहनसिंह ने टीका पार्टी पर लौट जाने हेतु दबाव डाला फलस्वरूप टीका पार्टी को वापस उदयपुर लौट जाना पड़ा ।137

महाराजा जगतसिंह ने इसे अपनी व्यक्तिगत हार मानी । वह युद्ध के मैदान में मानसिंह से हिसाब बराबर करने को तत्पर हुआ। परन्तु सैनिक तैयारी पूरी नहीं होने के कारण उसने समझौता करना चाहा।138 शीघ्र ही जोधपुर के बख्शी सिंघवी इन्द्राज और जयपुर के दीवान रायचन्द ने मिलकर इस झगड़े को शान्त कर दिया और दोनों नरेशों ने कृष्णा कुमारी से विवाह नहीं करने की प्रतिज्ञा करवा ली । इस अवसर पर जयपुर महाराज जगतसिंह की बहन से महाराजा मानसिंह का और मानसिंह की कन्या से जगतसिंह का विवाह होना निश्चित हुआ।139 संघर्ष टल जाने के पश्चात् महाराज मानसिंह ने होल्कर जसवंतराव के स्वागत के लिए सामने जाने और बराबर बैठाने से इंकार कर दिया। उसने अमीरखां को कुरब देने में भी आनाकानी की। इससे दोनों मन से मानसिंह से अप्रसन्न हो गए, परन्तु अप्रसन्नता प्रकट नहीं की। जसवंतराव अपने एक छोटे सेे दल के साथ महाराजा से मिलने गया। तत्पश्चात् वह दक्षिण लौट गया।

इसी दौरान अक्टूबर ,1806 ई में महाराजा मानसिंह ने अपने पुराने सेवकों की शिकायत पर कि सिंघवी इन्द्रीराज और भण्डारी गंगाराम इत्यादि धौंकलसिंह से आंतरिक रूप से पक्षधर हैं, मेडता में इन दोनों को पुत्रों सहित कैद कर लिया गया।140 महाराज भीमसिंह के धायभाई शम्भूदान और कुछ अन्य राजकर्मचारियों को भी कैद कर लिया गया। इन्द्रराज और गंगााराम को सलेमकोट जोधपुर कैद में भिजवा दिया गया। कुछ समय बाद इन्हंे मारने की आज्ञा भिजवाई गई। किलेेदार ठा. अनाड़सिंह (आहोर) ने मानसिंह को कहलाया कि इन दोनों की सहायता से ही आप जोधपुर की गद्दी पर बैठ पाए हैं। अतः भले ही इन्हें कैद में रखें, किन्तु मरवाएं नहीं।141 इस घटना के बाद मारवाड़़ के सरदार और अनेक मुत्सद्दी महाराजा मानसिंह की ओर सेे सशंकित रहने लगे। जयपुर महाराजा जगतसिंह कृष्णकुमारी मामले में महाराजा मानसिंह के उग्र रवैये को अभी तक भूला नहीं सका था। वह अभी भी कृष्णकुमारी से विवाह करना चाहता था।142 महाराजा जगतसिंह ने अपमानित होने पर भी पूर्व मे समझौता करना इसलिए स्वीकार कर लिया क्योंकि उस समय उसकी सैनिक तैयारी पूरी नहीं थी। बख्शी इन्द्रराज को कैद किए जाने कि सूचना ठा. सवाईसिंह ने महाराजा गजसिंह को दी और बतलाया कि मानसिंह के इस कदम के कारण सरदारों मे असंतोष बढ गया हैं। मानसिंह के विरूद्ध धौंकलसिंह के पक्ष में युद्ध करने का उपयुक्त समय है। मारवाड़़ के अधिकांश सरदार इसके पक्ष में है। युद्ध प्रारम्भ होते ही शेष सरदार भी उससे आ मिलेगें।143 धौंकलसिंह को राजगद्दी दिलाने से महाराजा जगतसिंह की मान प्रतिष्ठा में भी निसंदेह की वृद्धि होगी। ठाकर सवाईसिंह का प्रभाव और कूटनीति अन्तत सफल हुई। महाराजा जगतसिंह ने धौंकलसिंह के पक्ष में युद्ध करने की स्वीकृति दे दी।144 ठाकुर सवाईसिंह ने बीकानेर से नवम्बर, 1805 ई. की संधि के अनुसार फलौदी तथा बीकानेर का अमल करवाने के लिए पोकरण के प्रधान भायल जीवराज को बीकानेर की 8 हजार की सेना के साथ भेजा और राज्याधिकार स्थापित करवा दिया था। इसी प्रकार सांभर पर जयपुर का राज्याधिकार स्थापित हो गया।145

      तत्पश्चात् सवाईसिंह खेतड़ी गया। धौंकलसिंह को अपने साथ ले जाकर महाराजा के साथ उसे भोजन करवाया जिससे की धौंकलसिंह की वैधता प्रमाणित हो सके।146 इधर जयपुर में नियुक्त जोधपुर के वकील दीनानाथ ने ठाकुर सवाईसिंह व महाराजा जगतसिंह की गतिविधियों की गुप्त सुचना महाराजा मानसिंह को भिजवाई जो उस समय परबतसर मे डेरा डाले हुए था। महाराजा मानसिंह ने तत्काल अपने सरदारों के पत्र लिखकर सुसज्जित सेना सहित आने को रूक्का भिजवाया।147

      बीकानेर महाराजा सूरतसिंह को अपने पक्ष में करने का असफल प्रयास किया। किन्तु बून्दी और  किशनगढ से सैनिक सहायता प्राप्त करने में सफल रहा।148 जसवंतराव होल्कर को भी मदद् देने के लिए लिखा गया। किन्तु वह किशनगढ के तिहोद  गांव मे ही रूक गया। उसने फौज खर्च के लिए मानसिंह से धन मांगा। अकाल की परिस्थितियों के कारण महाराजा मानसिंह पहले से ही आर्थिक संकट से जूझ रहा था। उसने झानमल को जोधपुर भेजकर धन का प्रबन्ध करने को कहा। उसने आभूषणों और मूल्यवान वस्तुओं को बेचकर तथा जोधपुर शहर के रहवासियों पर विशेष कर लगाकर धन एकत्रित किया। महाराजा मानसिंह द्वारा भेजे गए धन को जसवंतराव मे बहुत कम बताकर लेने से मना कर दिया।149 इसी बीच जयपुर नरेश की तरफ से बड़ी रकम ;तीस हजारद्ध मिल जाने पर होल्कर पुराने उपकारों को भुलाकर वही,ं से वापस लौट गया।150 इस बीच होल्कर और अमीरखां में बकाया भुगतान का विवाद हुआ। अमीरखां नाराज होकर उससे अलग हो गया और जगतसिंह से जा मिला। जगतसिंह ने एक लाख रूपये मेें उसकी सेवाएं खरीद ली। होल्कर ने उदयपुर राणा को तटस्थ रहने के लिया मजबूर किया।151 जोधुपर से युद्ध की तैयारी की जानकारियाँ मिलने पर महाराजा जगतसिंह ने ठा. सवाईसिंह और बीकानेर नरेश को सेना सहित बुलवाया।152 ठा.सवाई सिंह 1806 ई. (विक्रम सं. 1863 की पौष वदी 14द्ध को पोकरण से रवाना हुआ। शाहपुरा ने भी सैन्य सहायता भेजी। इसके अतिरिक्त जगतसिंह ने सिंधिया से भी सैनिक सहायता प्राप्त करने का प्रयास किया। सिन्धिया ने बालाराव डूंगले को भेजा।153 सवाईसिंह ने जयपुर के वकील के मार्फत दिल्ली में सर जॉन मालकम को भी अपने पक्ष मे करने की बहुत कोशिश की परन्तु अग्रेजों ने इस झगड़े में तटस्थ रहना ही उचित समझा। इस प्रकार जयपुर, बीकानेर सवाईसिंह, अमीर खां और बालाराव डूंगले की अधीनता में सिंधिया की सेना, इन सभी को मिलाकर एक लाख 20 हजार की सेना एकत्रित हो गई।188

      जयपुर नरेश जगतसिंह के मारोठ पहुँचने पर बीकानेर नरेश भी उससे जा मिला। ठा. सवाईसिंह ने जयपुर नरेश से यह कहा था कि मारवाड़़ के लगभग सभी सरदार धौंकलसिह के पक्ष में है। इसलिए जैसे ही उनकी सेना मुकाबले मे उतरेगी। वैसे ही उनमे से कुछ तो मानसिंह का साथ छोड़कर आपके पक्ष में चले आएगे और कुछ जो पीछे रहेेंगे, वे मानसिंह का मारवाड़़ के सरदारों का शत्रुओं से मिले होने का भय दिखाकर बिना लडे़ ही, जालौर की तरफ ले जाने का प्रयत्न करेंगे। इससे धौंकलसिंह को आसानी से जोधपुर पर अधिकार करने का मौका मिल जाएगा।154 परन्तु फिर भी जगतसिंह के मन से संदेह और भय दूर नहीं हुआ। इसी कारण वह तथा बीकानेर नरेश पलसाना (मारोठ) में ही रूके रहे। वास्तव में जगतसिंह में आत्मविश्वास की कमी थी। उसकी सेना का एक बड़ा हिस्सा विदेशी सैनिकों से बना था जिन पर न तो युद्ध के दौरान अधिक भरोसा किया जा सकता था और न ही सम्मिलित कार्यवाही की रणनीति बनाई जा सकती थी। जबकि जोधपुर की सेना जोधपुर की सेना का बहुत बडा हिस्सा उन राठौड राजपूत सैनिकों का था जो युद्ध में न केवल विश्वसनीय थे अपितु युद्ध मैदान में डट कर लोहा ले सकते थे।155

      13 मार्च ,1807 ई. को ठा. सवाईसिंह और अमीर खां लगभग 25,000 सेना लेकर आगे बढ़े इसकी सूचना मिलने पर महाराजा मानसिंह स्वयं दल बल सहित आगे बढ़कर गींगोली (परबतसर) के पास उसका मार्ग रोकने को जा पहुँचा।156 ठा. सवाईसिंह मीठड़ी के नाहरगढ दुर्ग के नाके से होता हुआ गिंगोली पहुॅँचा। उसके पास काफी मात्रा में युद्ध सामग्री और तोपखाना था। उसने दस हजार हैदराबादी सैनिकों (जसवंतराव होल्कर से अलग हुए थे) और पंद्रह हजार अमीरखां के सैनिकों सहित गिंगोली में पड़ाव डाला।157 मानसिंह के सैन्य शिविर में ठा. सवाईसिंह की सैन्य गतिविधियों के समाचार पहुँचते ही युद्ध की तैयारी होने लगी। सरदारों के शिविरों में चोबदार (संदेशवाहक) दौडने लगे। सवाईसिंह स्वयं घोडे पर सवार हुआ। तभी ठा. सवाईसिंह की तोपखाने वाली टुकडी वहाँं आ पहुँंची। दोनों ओर सांकेतिक तोपें चली। तोपों की प्रथम गड़गड़ाहट के साथ ही हरसोलाव, सथलाणा, धांधिया, चवा व सरवाड़ के क्षेत्रीय ठाकुरांे सहित 1500 घुडसवार सैनिक मानसिंह से विद्रोह कर गिंगोली घाटी की तरफ दौडे।158 शीघ्र ही मारोठ ठाकुर महेशदास भी एक हजार घुडसवारों सहित ठा. सवाईसिंह के पक्ष में चला गया। इस प्रकार गौड़वाटी और चौरासी के सभी मेड़तिया सरदारों के अचानक विपक्षी खेमें में पहुँच जाने से जोधपुर के शेष सरदारों और मुत्सद्दियों के हौंसले पस्त हो गए।159 अब तक हरसोलाव, सथलाणा, धांधिया, गच्छीपुरा, माण्डा, चण्डावल, रींया, मारोठ, बलूंदा, खींवसर, बिराई, देवलिया, बगड़ी, इत्यादि के ठाकुर अपनी अपनी सेनाओं सहित धौंकलसिंह के पक्ष में चले गए थे। मानसिंह के पास जोधपुर के आठ सरदारों आसोप, नीबांज, कुचामन, बुडसू, खेजडला, रास, आउवा तथा आहोर के ठाकुर, जालौरी सरदार और दासपां ठाकुर, उदयराज थे।160

      ठा. सवाईसिंह की अब तक की कूटनीति सफल रही थी। चाम्पवात और मेड़तियों की अधिकतम संख्या उनकी पक्षधर होकर युद्ध मैदान में आ डटी। इधर बड़ी संख्या में सरदारों के पलायन कर जाने के बाद भी महाराजा मानसिंह युद्ध करने को उद्यत था। जबकि सरदार जानते थे कि युद्ध में विजयश्री मिलना असंभव है। अतः रास ठाकुर जवानसिंह ने महाराजा से लौट चलने का निवेदन किया, किन्तु मानसिंह अपनी हठ छोडने को तैयार नहीं था।161 वह जमकर युद्ध करना चाहता था। तब मेड़तिया जवानसिंह और धांधल उदयराज ने जबरन उसका घोड़ा फेर दिया।162 महाराजा मानसिंह इससे अत्यन्त नाराज हुआ। वह युद्ध करने से मना करने वाले सरदारों का वध करने को तत्पर हो गया उसी समय दासपां का ठा. उदयराज ने मानसिंह के कान में कहा कि श्सभी सरदार शत्रुओं से मिले हुए हैैं। अतः जोधपुर लौट जाना ही उचित रहेगा।इस प्रकार बडी कठिनाई से मानसिंह को मना लेने के पश्चात् सरदार उसे सही सलामत युद्ध के मैदान से निकालकर जोधपुर की ओर निकल पडे़।163 जिस सरदार में साहस था वह तो तम्बू उखाडकर ले गया। अन्यथा शेष सभी सरदार और सैनिक मेड़ता और किशनगढ के गांवों की ओर भाग गए।164

      ठा. सवाईसिंह की आगे बढती सेना ने उनका सभी सामान लूट लिया। जोधपुर की भाग रही सेना का तोपखाना एवं खजाना वही,ं रह गया। फर्राखखान भी वही,ं रह गया जिसे जला दिया गया।165 ठा. सवाईसिंह की सेना ने चारों तरफ के गांव यथा खोखर, अडाणी, श्यामपुर, गींगोली आदि को लूट लिया। परबतसर लूट लिया गया।166 यहाँं के किलेदार ने घबराकर चाबियाँ ठा. सवाईसिंह को सौंप दी। गींगोली विजय के बाद रास का ठा. जवानसिंह भी ठा. सवाईसिंह के पक्ष में जा बैठा।167 इधर महाराजा मानसिंह और उसक सैन्य दल ने गींगोली से लौटकर मेड़ता में पडाव किया। उस समय मेड़ता के बनियों ने घोड़ों के लिए गुड़ फिटकरी और रसद वगैरह देने से इन्कार कर दिया। परन्तु वहाँं के कोतवाल को जब इसकी सूचना मिली तो उसने ताले तुड़वाकर आवश्यकता पूरी की।168

19,मार्च ,1807 ई. को महाराजा मानसिंह अपने सैन्य दल के साथ जोधपुर पहुँचा। अधिकांश सरदारों का शत्रुओं से मिला होने का संदेह होने पर मानसिंह ने जालौर की तरफ जाने का मानस बनाया।169 यह घटना ठा सवाईसिंह की योजना के अनुकूल थी, किन्तु कुचामन ठा. शिवनाथसिंह और हिन्दालखां के समझाने से उसने विचार त्याग दिया।170 कर्नल टॉड इस विषय में कुछ भिन्न विवरण देता है। उसने लिखा है कि गींगोली से भागकर आए मानसिंह जालौर में आश्रय लेने हेतु बीसलपुर पहुँंचा। सिंघवी चैनमल नामक एक राज कर्मचारी ने मानसिंह को जालौर जाने को उद्यत होता देख उससे कहा कि ’’यहां से दाहिनी ओर 9 कोस की दूरी पर राजधानी जोधपुर है और 16 कोस (वास्तव में 40 कोस) की दूरी पर जालौर का किला हैं। जालौर की अपेक्षा जोधपुर बडी आसानी से पहुँंचा जा सकता है। यदि आप राजधानी बचाने मे समर्थ नहीं रहे तो किसी अन्य स्थान से भी सिंहासन की रक्षा संभव नहीं हैं। आप जब तक राजधानी में रहकर सिंहासन की रक्षा का प्रयास करेंगे तब तक सम्पूर्ण सर्वसाधारण प्रजा आपके साथ रहेगी।महाराजा मानसिंह ने इस राजकर्मचारी की बात मान ली। संभवतः महाराजा मानसिंह को जालौर नहीं जाने की सलाह सिंघवी चैनमल की रही होगी और कुचामन ठा. शिवनाथसिंह और हिन्दाल खाँ ने इसका समर्थन किया होगा।171

महाराजा मानसिंह के युद्ध स्थल से पलायन करने के पश्चात् धौंकलसिंह के पक्ष की सेना मारोठ, परबतसर, सांभर, नांवा, डीडवाना, सोजत, जैतारण को जीतती हुई 23 मार्च (फाल्गुन वदि पूणर््िामा होली का दिन) को नागौर विजित करने और इसके तुरन्त बाद मेडते पर अधिकार करने में सफल रही।172 मानसिंह के अधिकार में जोधपुर नगर, जालौर, दौलतपुरा, घाणेराव, सिवाणा, सिवानन्द, और अमरकोट के परगने ही बचे रहे गए थे। मारवाड़़ के शेष परगनों पर धाैंकलसिंह की दुहाई फिर गई।173 मानसिंह ने जोधपुर पर आसन्न खतरे को भांपकर युद्धोपयोगी सामग्री एकत्रित करना और शहर की बुर्जों पर तोपें चढवानी प्रारम्भ की।174

इस बीच जयपुर के दीवान रायचन्द ने महाराजा जगतसिंह को सलाह दी कि वह जोधपुर जाने की बजाय उदयपुर जाकर राजकुमारी कृष्णाकुमारी से विवाह करें, तत्पश्चात् जयपुर लौट जाएं।175 महाराजा जगतसिंह ने इस विषय में ठा. सवाईसिंह से चर्चा की। ठा.सवाईसिंह ने उसे पहले जोधपुर चलने का निवेदन किया।176 उसने जगतसिंह के समक्ष मन्तव्य प्रकट किया कि जयपुर, बीकानेर की सम्मिलित सेना के जोधपुर पहुँचने की सूचना पाकर महाराजा मानसिंह अपने जनाने को लेेकर जालौर चला जाएगा। अतः जोधुपर पहुँचकर धौंकलसिंह को राजगद्दी पर बैठाकर पूरा यश प्राप्त करे और फिर विवाह करने उदयपुर जाए। महाराजा जगतसिंह ने इसकी स्वीकृति भी दे दी।177 ठा. सवाईसिंह की यह सलाह सर्वथा उचित थी। जोधपुर दुर्ग शीघ्र विजित करना अत्यधिक आवश्यक था। इसमें किसी भी प्रकार की देरी सारे समीकरण बिगाड़ सकती थी। एक छोटी सेना की सहायता से जोधपुर को घेरने से उसकी सफलता पर प्रश्न चिन्ह लग सकता था।

महाराजा जगतसिंह के कहे अनुसार ठा. सवाईसिंह अमीरखां और हैदराबादी सैनिकों को लेकर जोधपुर की ओर रवाना हुआ। मेड़ता, पीपाड़ होता हुआ वह जोधपुर पहुँंचा। मार्ग में इन्होेंने अनेक गांव लूट लिए। 30 मार्च,1807 ई. (वि.स. 1863 की चैत वद 7 शील सप्तम) के दिन सवाईसिंह ने आकर घेरा किया।178 तत्पश्चात् जयपुर महाराजा जगतसिंह और बीकानेर महाराजा सूरतसिंह की फौजें भखरी, रींया, कालू बलूदें के मार्ग से होकर लूटपाट करती हुई      14 अप्रैल को पहुँची। इस फौज की वास्तविक सैन्य संख्या लगभग सवा लाख थी परन्तु अफवाह तीन लाख सेना की थी।179 इस विकट समय में महाराजा मानसिंह को अपने पुराने सेवकों सिंघवी जोरावरमल के पुत्रों जीतमल और सूरजमल का स्मरण हुआ। महाराजा मानसिंह ने इन्हें स्वयं सलेमगढ ( जोधपुर दुर्ग का कारावास) जाकर मुक्त किया। धायभाई शम्भूदान को भी मुक्त कर दिया गया। जीतमल को दीवानगी का सिरोपाव देकर राजकीय सेवा करने को कहा गया।180

ठा. सवाईसिंह ने किले के चारों ओर मोर्चाबन्दी करके अपने डेरे नागौरी दरवाजे के पास सिनगोरी की पहाड़ी पर लगाये और धौंकलसिंह के डेरे बालसमन्द पर किए। जयपुर महाराजा जगतसिंह का डेरा राइकाबाग, बीकानेर महाराजा सूरतसिंह का डेरा गुलाबसागर अमीरखां का डेरा अखैराज के तालाब पर और बाकी सेना के डेरे चैनपुरा और मंडौर में हुए। जोधपुर के गढ की सख्त घेराबन्दी की गई जिससे न तो कोई अन्दर जा सकता था और न ही बाहर जा सकता था।181 धौंकलसिंह की सम्मिलित सेना ने सिंगोरिये की बारी पर ठा. सवाईसिंह के निर्देशन पर तोपखाना जमाकर किले पर गोले बरसाए जिससे किले में बहुत नुकसान हुआ।182 सिंघवी जीतमल, सूरलमल, और धायभाई शम्भूदान सात दिन तक किले की रक्षा का प्रयास करते रहे। विजय होनी कठिन जानकर वे ठा. सवाईसिंह के पक्ष में चले गए और गुप्त रीति से नगर के परकोटे से बाहर आ गए। सूचना मिलने पर महाराजर मानसिंह बहुत नाराज हुआ।183 उसने सिंघवी इन्द्रराज, भण्डारी गंगाराम और असायच नथकरण को कैद से मुक्त किया।184 और ठा. सवाईसिंह के पास जाकर संधि की वार्ता करने को कहा। ये लोग शुत्र पक्ष से न मिल जाए इस हेतु मानसिंह ने इन्द्रराज के पुत्र फतेहराज और गंगाराम के पुत्र भवानीदास को इनके स्थान पर बंधक रख लिया।185 इस बीच मानसिंह ने दिल्ली स्थित ब्रिटिश रेजीडेन्ट अलेक्जेण्डर सेटन से मदद पहुँचाने के लिए संपर्क किया, पर उसने सहायता देने से इन्कार कर दिया।186

      जयपुर महाराजा जगतसिंह के कुछ शेखावत सरदारांें से वचन लेकर सिंघवी इन्द्रराज और भण्डारी गंगाराम ठा. सवाईसिंह से मिलने कागा गए और संधि का प्रस्ताव किया। संधि में जोधपुर राज्य की तरफ के परगने महाराजा मानसिंह के पास रखे जाने और नागौर, मेडता, सांभर, डीडवाना, नांवा, कोलिया, जैतारण और सोजत के परगने धौंकलसिंह को देने का प्रावधान था।187 ठिकाणा पोकरण का इतिहास के अनुसार ठा. सवाईसिंह ने इस बात की स्वीकृति दे दी। परन्तु अन्य सरदारों और मुत्सद्दियों ने सवाईसिंह से कहा कि ’‘आपका ठिकाणा तो जैसलमेर की सीमा पर है, आप तो वहाँं जा बैठेंगे, परन्तु हमारे ठिकानों और मुत्सद्दियों की हवेलियों पर जोधपुर के किले छाया दिन में तीन बार पडती है। यदि संधि हुई तो हम महाराजा मानसिंह के प्रतिशोध से नहीं बच पाएगें। इसलिए ऐसी संधि उचित नहीं है। किन्तु यदि मानसिंह जालौर चले जाएं और धौंकलसिंह जोधपुर रहे तोे बात बैठ सकती है।188 इस प्रकार सरदारों और मुत्सद्दियों द्वारा स्वीकृत नहीं करने से संधि वार्ता विफल हो गई। मोहनसिंह के अनुसार संधि के तीन प्रयास किए गए थे। प्रथम संधि वार्ता के असफल रहने का कारण ठा. सवाईसिंह का सख्त रवैया था।189 गढ जोधपुर घेरे री बही इस बात की पुष्टि करती है। उपरोक्त बही के अनुसार जब शेखावतों से वचन लेकर इन्द्रराज और गंगाराम सवाईसिंह से मिलने कागा गए, तब सवाईसिंह ने उपहास और कड़क लहजे मे कहा कि ’’तुम लोग हमारी सहमति के बिना जालौर से राजा ले आए, अब कैसा सुख मिल रहा है। रिडमलों का स्वीकृत किया हुआ ही राजा हो सकता है, महाजनों का बनाया हुआ नहीं।मानसिंह से कहो कि पुनः जालौर लौट जाए। जोधपुर पर भीमसिंह का पुत्र ही शासन करेगा। जयपुर के राजा को फौज खर्च के 22 लाख देकर ही तुम यहाँं की कैद से छूट सकते। इन्द्रराज ने तब कहा कि गढ़ तो महाराजा छोडे़गें नहीं किन्तु मैं तुम्हें शहर को सौंपवा सकता हूँ। किन्तु आसोप, नीबांज, कुचामन वगैरह के जो सरदार अन्दर हैं, उन्हें जहाँं वे कहें, वहाँ तक पहुँचा दो और इस बात का शेखावतों का वचन दिलवा दो। रही किले कि बात, सो वहाँ पर महाराज के स्वयं के मौजूद होने से इस विषय मे वे कुछ नही कर सकते है।190

      इस प्रकार संधि वार्ता विफल हो गई किन्तु ठा. सवाईसिंह ने कुछ सरदारों को किले से बाहर आकर सकुशल निकल जाने देने की स्वीकृति दे दी। इस घटनाक्रम से कुछ प्रश्न भी उभरते हैं, कि क्या जोधपुर नगर को सौंपे जाने का फैसला सही था ? सरदार घेरे से निकलकर बाहर क्यों जाना चाहते थे ? ठा. सवाईसिंह ने इसकी स्वीकृति क्यों दी ? वास्तव में धौंकलसिह की सम्मिलित सेना महाराजा मानसिंह की शहर और गढ में मौजूद संख्या से बहुत अधिक थी। अतः जोधपुर शहर पर अधिकार बनाए रखना बहुत कठिन था। धौंकलसिंह के पक्षधर सेना के शहर पर अधिकार करने के बाद लूटपाट करने की पूरी संभावना थी। अतः जोधपुर नगर को सुपुर्द कर देना निःसंदेह एक अच्छा निर्णय था। नगर को सुपुर्द कर देने के जिए सरदारों को सकुशल निकलने देने की शर्त रखी गई थी। ठा. सवाईसिंह ने इस आशा मे यह स्वीकार किया कि वह उन लोगो को मनाने मे सफल हो जाएगा।191 इन सरदारो की मानसिंह के प्रति गहरी आस्था थी किन्तु मानसिंह समदडी, दासपों, आहोर, व जसोल के सरदारो के अलावा अन्य का विश्वास नहीं करता था। इसी कारण उसने उन्हें राज्य की रक्षा करने हेतु कोई जिम्मेदारी नहीं सौंपी। उसने किले की रक्षा का भार राठौड़ सरदारों को नहीं सौंपकर हिंदालखां और उसके तीन हजार साथियों को यह कार्य सौंपा। उनकी सहायता के लिए चौहान, भाटी, ईंदा राजपूतों के एक हजार सैनिकों, भारती सम्प्रदाय के युद्धजीवी साधु सहित कुल पांच हजार की सेना किले की रक्षा में तैनात की।192 आउवा, आसोप, नीबांज, कुचामन, बुडसू और लाम्बिया इत्यादि के ठाकुरों ने तब महाराज से जोधपुर नगर की रक्षा में उन्हें लगाने की प्रार्थना की।193 राठौड़ सरदारों से भरोसा उठ जाने के कारण मानसिंह ने आधे मन से आज्ञा दे दी। इन सरदारों की जल्द ही आभास हो गया कि नगर की रक्षा करना अधिक समय तक संभव नहीं होगा। कर्नल टॉड के अनुसार वे निराशा भाव से किले से निकलकर धौंकलसिंह के पक्ष में  चले गए।194 किन्तु उनके धौंकलसिंह से मिलने की पुष्टि समकालीन स्त्रोत नहीं कहते है। अतः सरदार इस घेरे से बाहर निकल कर महाराजा मानसिंह के पक्ष में सक्रिय कार्यवाही बनाने की योजना कर रहे थे। ठा. सवाईसिंह इस घटनाक्रम से प्रसन्न था क्योंकि उसे बिना अधिक प्रयास किए नगर पर अधिकार मिल रहा था। ठा. सवाईसिंह को आशा थी कि उपरोक्त सरदार उसके पक्ष में आ जाएगें। जोधपुर नगर पर अधिकार जाने और सरदारों के चले जाने से किले में घिरे महाराजा मानसिंह का बल क्षीण हो रहा था।195

      तत्पश्चात् सिंधवी इन्द्रराज और भण्डारी गंगाराम में लौट आए और समस्त बातचीत का विवरण महाराजा मानसिंह को दिया। हालांकि मानसिंह का सरदारों पर कम भरोसा था किन्तु अन्य कोई विकल्प नहीं होने क कारण वह यह जुआ खेलने को तैयार हो गया। 18 अप्रैल,1807 ई जोधपुर नगर धौंकलसिंह के पक्ष की सेना को सौंप दिया गया। नगर में धौंकलसिंह के नाम की आन फेरी गई।196 सिंधवी इन्द्रराज, भण्डारी गंगाराम, आसोप के ठा. केसरीसिंह, आउवा के ठा. बख्तावरसिंह, नींबाज के ठा. सुरतांण सिंह, कुचामन के ठा. शिवनाथसिंह, बुडसू के  ठा. प्रतापसिंह, लांबिया के ठा. भाणसिंह, रोहट के ठा. इन्द्रसिंह, भण्डारी चतुरभुज, उपाध्याय रामदान वगैरह छोटे मोटे नौकरों को लेकर शेखावतों के वचन से बाहर निकल आए।197 कुछ स्त्रोतों के अनुसार महाराजा मानसिंह ने सिंघवी इन्द्रराज के साथ एक पेशकश भेजी कि धौंकलसिंह को मारवाड़़ सहित आधा राज्य और स्वयं जोधपुर सहित आधा मारवाड़़ रखेगा। किन्तु सँवाईसिंह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। वह धौंकलसिंह के पक्ष में जोधपुर राज्य चाहता था। उसने 22 लाख रूपये के युद्ध हर्जाने की भी मांग की। इससे बातचीत में पुनः गतिरोध आ गया।198 कुछ स्त्रोतों के अनुसार सिंघवी इन्द्रराज और बाहर आने वाले सभी सरदारों ने यह वादा किया था कि वे एक माह में जोधपुर का किला खाली करके मानसिंह को जालौर भेज देंगे।199 किन्तु यह सही प्रतीत नहीं होता है तथा न ही अन्य स्त्रोत इसे प्रमाणित करते है।

      ठा. सवाईसिंह ने संभवतः घेरे से बाहर आने वाले सरदारों को अपने पक्ष में आने का निमंत्रण दिया था, किन्तु सरदारों की प्रतिक्रिया से उसे आभास हो गया कि इन सरदारों के मन में कुछ और है। ये लोग बाहरी पक्षों से मिलकर कोई फितूर कर सकते हैं। इसलिए उसने वार्ता में आए सभी लोगों को बंदी बनाने की योजना बनाई। उसने बीकानेर नरेश महाराजा सूरतसिंह से निवेदन किया कि यदि आप धौंकलसिंह को मारवाड़़ की गद्दी पर बैठाना चाहते हैं, तो इस समय इन सभी सरदारों को कैद कर लेवें, वरना ये लोग कुछ न कुछ समस्या अवश्य उत्पन्न करेंगें। किन्तु खेतड़ी और झुंझुनु के शेखावत जिनके वचन से वे वहां आए थे उन्होेंने इसका विरोध किया जिससे यह योजना विफल हो गई।200 इनका विरोध करने का एक अन्य कारण यह था कि आउवा ठा. बख्तावारसिंह, चौमू के रणजीत सिंह नाथावत का दामाद था और रोहट के ठा. इन्द्रसिंह पचेवर के खंगारोतों का दामाद था। अन्य सरदार भी किसी न किसी रूप में जयपुर के सरदारों के संबंधी थे।201

      कुचामण, आउवा, आसोप, नीबांज वगैरह सरदारों और इंन्द्रराज व गंगाराम शेखावतों के घोड़े साथ लेकर जोधपुर से निंबाज और फिर बाबरा गए और वहाँं अपना डेरा किया। यहाँं से इन्होंने लोढा कल्याणमल को दौलतराव सिंधिया से सहायता प्राप्त करने के जिए रवाना किया।202 कल्याणमल ने दौलतराव सिंधिया को पिछली बकाया खिरनी देने और भविष्य में भी देते रहने की बात कही। इसके बदले में उसने इस विकट समय में महाराजा मानसिंह की मदद करने की प्रार्थना की।203 इधर जोधपुर में धौंकलसिंह के पक्ष की सेना जोधपुर और आसपास के क्षेत्रों में भयंकर लूटमार कर रही थी। उस समय जोधपुर नगर भी लूटमाट द्वारा बर्बाद हो जाता किन्तु पंचोली गोपालदास ने सवाईसिंह को कहलाया कि नगर की क्यों बरबादी करते हैं। जो वाजिब पैदाइश होगी, वह मैं देता ही रहूॅंगा। तब सवाईसिंह ने उसे हाकिम के पद के अधिकार और सायर का प्रबन्ध सौंपा। तंवर मदनसिंह कोतवाल बनाया गया। यह पंचोली गोपालदास चुपके चुपके दुर्ग में रसद भी पहुँचाता रहता था।204 जोधपुर के गढ के चारों ओर धौंकलसिंह के पक्ष के सेनाओं का डेरा था। ठा. सवाईसिंह ने दुर्ग के चारों ओर मोरचे लगाए। सिंगोरियों की बारी का पहाड़ी के ऊपर बीकानेर की सेना का मोरचा था। आसोप की हवेली में भी एक मोरचा था। दोनों पक्षों में रोज लडाईयाँ हो रहीं थी। सिंघवी जीतमल और सूरजमल ने 7 दिन सवाईसिंह के पास दीवानगी का काम किया नागौर में उसके बच्चे और परिवार के सदस्यों को रोका गया था, जिन्हें सूरजमल छुड़वा कर भाग गया। जीतमल ने भी भागने का प्रयास किया पर पकडा गया और बीकानेर की फौज में कैदी रहा। बाद में ठा. सवाईसिंह ने सिंघवी चैनकरण को दीवानगी दी। धांधल, खींची पडियार, अंगोलिया, अबदारी वगैरह कितने ही छोटे मोटे नौकर जो पूर्व महाराजा भीमसिंह के यहाँं सेवारत थे, सवाईसिंह से जा मिले।205

धौंकलसिंह का राज दिलाने आई फौज की सबसे कमजोर कड़ी अमीरखां था। उसमें विश्वसनीयता और नैतिकता का सर्वथा अभाव था। वह मूलतः धन और लूट के लिए अपनी सैनिक सेवाएं देता था। वह प्रारम्भ से ही धाैंकलसिह को जोधपुर का तख्त दिलाने के पक्ष में नहीं था, पर मेवाड़ की राजकुमारी का विवाह महाराजा जगतसिंह से करवाने का आकांक्षी था।206 इस धनलोलुप लुटेरे का फौज खर्च की रकम को लेकर ठा. सवाईसिंह से विवाद उत्पन्न हो गया।207 विवाद का मूल यह था कि जोधपुर पर लगातार घेराबंदी से जयपुर का राजकोष बड़ी तेजी से रिक्त हो रहा था। अतः जयपुर के दीवान रायचन्द ने खर्च भेजना बंद कर दिया और महाराजा जगतसिंह को कहलाया कि फौज का खर्च सवाईसिंह को देना चाहिए। जब अमीरखां ने महाराजा जगतसिंह से रकम की मांग की तो जगतसिंह ने उसे ठा. सवाईसिंह के पास बकाया राशि लेने के जिए भेज दिया। किन्तु सवाईसिंह इस राशि की व्यवस्था नहीं कर सका और कुछ अतिरिक्त समय मांगा।208 इस सेें मराठा मानसिकता का सच्चा प्रतिनिधि यह लुटेरा नाराज होकर धौंकलसिंह का पक्ष छोड़कर चला गया।209  जोधपुर से निकलकर अमीरखां  ने पीपाड़, पाली और बीलाड़ा जैसे व्यापारिक नगरों में लूटपाट की। धौंकलसिंह के पक्ष में युद्ध कर रहे सरदारों के ठिकाणों को भी उसने लूटा। इसकी शिकायत सवाईसिंह से की गई परन्तु वह इन्हें तसल्ली दिलाने के अलावा कुछ नहीं कर सका।210

      अमीरखां के नाराज होने की सूचना मिलने सिंघवी इन्द्रराज ने भण्डारी पृथ्वीराज और कूचामन के ठा. शिवनाथसिंह को अमीरखां के पास 30,000 रू देकर भेजा।211 यह रकम उन्होनें बलंूदा के ठा. शिवसिंह से वसूली थी जो ठा. सवाईसिंह के पक्ष में युद्ध में शमिल था।212 जयपुर राज्य पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित करते हुए अमीर खां को पांच लाख रू. देने का समझौता हुआ, एक लाख रू. प्रथम किश्त के रूप में पेशगी में दिया जाना था। रकम का प्रबन्ध नहीं होने पर महाराजा मानसिंह और राठौड़ सरदारों ने अपने घर परिवार के आभूषण इन्द्रराज के पास भेजे। कुचामाण के ठा. शिवनाथसिंह ने चार लाख रू. का प्रतिज्ञा पत्र लिख कर दिया और यह कहलाया कि यदि रकम देने के वचन से हम चूकते है तो हम तुम्हारें साथ भोजन कर मुसलमान बन जाएगे।213 

तत्पश्चात अमीरखां और उसका सहयोगी शिरजे राव घाटगे अपना पक्ष बदलकर बाबरा में इन्द्रराज से जा मिले।214 इन्द्रराज ने भण्डारी पृथ्वीराज और अमीरखां को जयपुर राज्य में लूटपाट मचाने के लिए भेजा और स्वयं उन सरदारों में से बहुतों को जो महाराजा का साथ छोड़कर पोकरण ठा. सवाईसिंह से मिल गए थे या इधर उधर चले गए थे, फिर से महाराजा के पक्ष में लाने का प्रबन्ध करने लगा। इन्द्रराज ने गोडावटी जाकर अनेक सरदारों को अपने पक्ष में करने में सफलता प्राप्त की। चौरासी क्षेत्र के अनेक सरदारों को भण्डारी चतुरभुज उपध्याय रामबक्श ने अपने पक्ष मे कर लिया। इन सरदारों की सहायता से एक फौज तैयार की गई जिसने परबतसर डीडवाना मारोठ आदि स्थानों पर फिर से महाराजा मानसिंह का अधिकार स्थापित करा दिया।215 अब ठा. सवाईसिंह ने किले पर भीषण गोलाबारी शुरू करवा दी। किले के फतेहपोल को ध्वस्त करने के लिए बारूद की सुरंग लगाई जाने लगी। किन्तु इस मोर्चे पर मौजूद खेजडला के भाटियों ने किले से खौलते गर्म तेल की वर्षा करके इस प्रयास को विफल कर दिया। राणीसर तालाब की तरफ भी सुरंग लगाई जाने लगी। तंवर बहादुरसिंह ने तब जम कर युद्ध किया और यह प्रयास भी विफल कर दिया। लखणा पोल के बाहर रासोलाई में जयपुर के दादू-पंथियों ने अपना मोर्चो डाला। जसोल के ठा. जसवंतसिंह ने लखणा पोल से बहार निकल दादू पंथियों को वहाँं से खदेड़ दिया। उसका प्रधान सोढ़ा कीरतसिंह इस युद्ध में मारा गाया। जयपोल के बाहर इसकी छतरी है। राखी गांव का ठाकुर चौहान श्यामसिंह भी इसी प्रकार के संघर्ष में काम आया। उसकी छतरी भी जयपोल के बाहर है। इस प्राकर ठा. सवाईसिंह की तरफ से रोजाना किले पर आक्रमण करवाए जा रहे थे किन्तु प्रयास फलीभूत नहीं हो पाए।216

इधर जोधपुर में ठा. सवाईसिंह की मुश्किले बढती जा रहीं थी। अमीरखां द्वारा धौंकलसिंह का पक्ष छोडकर महाराजा मानसिंह के खेमे में जाना उसके लिए एक बडा झटका था।217 मारवाड़़ में युद्ध और लूटपाट के माहौल में खेती-बाड़ी काफी कम हुई थी। फलस्वरूप धान एक रूपया सेर के भाव तक जा पहुँंचा। इस युद्ध जनित वातावरण में मंहगाई तो बढ़ी ही, राजस्व प्राप्तियां भी प्रभावित हुई।218 सेना के रख रखाव की लागत इससे काफी बढ़ गई। जयपुर की विशाल सेना के विजातीय और अनुशासनहीन तत्व भी अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर रहे थे। जयपुर के दीवान रायचन्द द्वारा फौज खर्च नहीं भेजने से सेना को वचन किया हुआ धन और पुरस्कार देना अब संभव नहीं था। अपनी राजधानी से बहुत दूर होने, खाद्य सामग्री के अभाव और पीने के पानी की कमी तथा घोड़ांे हेतु घास इत्यादि वस्तुओं की कमी के कारण जयपुर की सेना अपना धैर्य खोकर बेकाबू हो रही थी। ठा. सवाईसिंह और उसके सहयोगियों के पास जो संचित धन था वह भी समाप्त हो गया था। धौंकलसिंह के पक्ष में युद्ध करने वाले राठौड़ सैनिक सरदार अपनी मातृभूमि का विध्वंस और विनाश देखकर दुखी थे। वे विरक्त भाव से जयपुर शिविर से चले गए तथा कुछ सरदारों ने मानसिंह का पक्ष ग्रहण कर लिया।219 सीकर के राव लक्ष्मणसिंह ने दौलतपुरा में अपनी पराजय के बाद धौंकलसिंह का साथ छोड दिया।220 शाहपुर का शासक राव मोहनसिंह पहले ही लौट चुका था।221 इन्द्रराज की गतिविधियों की और अमीर खां के जयपुर में लूटपाट की सूचनाएं भी उसे परेशान कर रही थी। उसकी परेशानी इस समाचार के साथ निश्चित रूप से दोगुनी हो गई होगी कि लोढा कल्याणमल अंबाजी इंग्ले और जॉन बतीसी के अधीन सिधिंया की सेना लेकर अजमेर के समीप पहुँच चुका है।222 जोधपुर का सुदृढ दुर्ग भी उसे चिन्तित कर रहा था। अपने सम्पूर्ण प्रयासों के बावजूद वह उस पर अधिकार नहीं कर पा रहा था।

      ठा. सवाईसिंह ने अपने दो हजार सैनिकों के साथ अजमेर की ओर प्रयाण किया। बगडी, बलूंदा, चण्डावल और पाली के ठाकुर उसके साथ थे। 30 जुलाई, 1807 ई में उसने मेड़ता के निकट देवरिया में डेरा डाला। इस अवसर पर ठा. सवाईसिंह ने दोनों ही पक्षों से वार्ता प्रारम्भ की। एक तरफ उसने सिंघवी इन्द्रराज के साथ शांति स्थापित करने की वार्ता की तो दूसरी ओर उसने अपने प्रतिनिधियों की सहायता से मराठा सेनानायाकों को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया। सिंघवी इन्द्रराज ने ठा. सवाईसिंह के समक्ष प्रस्ताव रखा कि नागौर डीडवाना कोलिया मेडता पवरबतसर मारोठ सांभर और नावां धौंकलसिंह के पास रहंे और जोधपुर, जालौर, सोजत, जैतारण, सिवाना, पचपदरा, पाली, देसूरी, शिव, उमरकोट और फलौदी महाराजा मानसिंह के पास रहे।223 ठा. सवाईसिंह पूर्व में इस प्रस्ताव को ठुकरा चुका था वर्तमान में भी उसे यह प्रस्ताव मंजूर नहीं था । वह चाहता था कि नागौर वगैरह महाराजा मानसिंह अपने पास रखें और जोधपुर वगैरह धौंकलसिंह के लिए छोडे। यह प्रस्ताव इन्द्रराज को स्वीकार नहीं था।224 किन्तु फिर भी अपने वार्ता जारी रखी जिससे मराठा सरदारों को अपने पक्ष में करने हेतु पर्याप्त समय मिल सके। संभवतः उसके मन में यह विचार रहा होगा कि यदि यह सिधिंया को अपने पक्ष में करने पर वह विफल रहता है तो इन्द्रराज के उपरोक्त प्रस्ताव पर सहमति देकर संधि कर लेगा। ठा. सवाईसिंह को अपनी योजना में सफल होने में चार दिन लगे। महाराजा जगतिसिंह ने मराठा सरदारो को सांभर का परगना और 12 लाख रू. देने को प्रस्ताव दिया। ठा. सवाईसिंह ने माराठों को धौंकलसिह के राजगद्दी पर बैठने पर 9 लाख रू देने का वचन दिया।225 इस समझौते के बाद ठा. सवाईसिंह ने सिंघवी चैनकरण को आंबाजी और जॉन बतीसी के साथ सोजत और जैतारण की ओर भेजा। इन्होंने लांबिया, नीबांज, आऊवा इत्यादि ठिकाणों से रकम वसूली। ठा. सवाईसिंह 8 अगस्त को जोधपुर लौट और किले का सख्त घेराव करवाया गया। उसक निर्देशानुसार जान बतीसी ने डीडवाना, परबतसर, मारोठ आदि पर दुबारा धौंकलसिंह का अधिकार करवा दिया।226

      इधर जयपुर राज्य के ढूढाड में अमीरखा,ं भण्डारी पृथ्वीराज और मानसिंह के पक्ष के अन्य सरदार लूट पाट कर रहे थे। इन्द्रराज ने उपाध्याय चतुर्भुज के साथ कुछ सरदारों को भेजकर डीडवाना परबतसर और मारोठ पर पुनः मानसिंह का अधिकार करवा दिया।227 महाराजा जगतसिंह के निर्देशानुसार शिवलाल जयपुर की एक सेना के साथ अमीरखां  के विरूद्ध गया। अमीरखां उसको काफी समय तक इधर उधर दौडाता रहा। शिवलाल और अमीरखां  का आमना सामना सर्वप्रथम 3 अगस्त ,1807 ई को गोविन्दगढ़ में हुआ जहाँ दोनों सेनाओं में पहले मुठभेड़ हुई और तदुपरांत हरसोरी में लड़ाई हुई। इन युद्धों में शिवलाल ने अमीर खां को पराजित कर दिया किन्तु उसका पीछा नहीं किया। प्रसन्न शिवलाल अपनी सेनाओं को फागी में ही छोड़कर जयपुर चला गया। जब इसी सूचना अमीर खां को मिली तो उसने तुरंत अपनी सेना को संगठित करके रात्रि में अचानक जयपुर की सेना पर आक्रमण कर दिया। बिना किसी नेतृत्व के जयपुर की सेना ने हीरासिंह के नेतृत्व में प्रतिरोध किया पर शीघ्र ही यह सेना पराजित होकर भाग खड़ी हुई (18 अगस्त ,1807 ई)।228 इनके सामान को पठानों और राठौड़ों ने लूट लिया। वहाँं से आगे बढ़ कर उन्होंने जयपुर पर गोलबारी की। सितम्बर, 1807 ई में जयपुर पर चढाई कर वहाँं तोड़फोड़ करनी प्रारम्भ कर दी। जयपुर नगर रक्षकों ने आपनी रक्षार्थ नगर के द्वार बंद कर दिए।229 ठा. सवाईसिंह यह जानता था कि जयपुर नरेश यह सूचना मिलते ही जयपुर लौट जाएगा। इसलिए जयपुर के दीवाना रायचन्द को उसने घूस देकर जयपुर महाराजा को यह जानकारी देने से रोक लिया। परन्तु जगतसिंह की माता ने कई गुप्त सेवकों को भेजकर उस तक यह सूचना पहुँचा दीे।230

      जोधपुर के सरदारों और अमीरखां द्वारा जयपुर की चढाई की सूचना मिलने पर महाराजा जगतसिंह का उत्साह ठण्डा हो गया। उसने तुरन्त जयपुर कूच करने का निश्चिय किया। अपनी योजना को बिगडता देखकर ठा. सवाईसिंह अत्यन्त निराश हुआ। उसने जयपुर नरेश को रोकने केलिए काफी अनुनय-विनय किया किन्तु अन्ततः असफल रहा। 14,सितम्बर,1807 को जगतसिंह जयपुर की रक्षार्थ चला गया।231 ठा. सवाईसिंह ने भी धौंकलसिंह सहित बीकानेर नरेश सूरत सिंह को साथ लेकर नागौर की ओर प्रस्थान किया। मोतीझरे की बीमारी के कारण महाराजा सूरतसिंह वहाँं से बीकनेर लौट गया।232 इस प्रकार एक माह के अन्तराल में घटनाक्रम और परिस्थितियॉं बडी तेजी से बदली जिससे ठा. सवाईसिंह की योजनाओं और आशाओं पर पानी फिर गया और धौंकलसिंह को राज मिलते मिलते रह गया।

अपने कठिन किन्तु सफल अभियान को पूर्ण करके सिंघवी इन्द्रराज, अमीरखां और महाराजा मानसिंह के पक्ष के सरदार जोधपुर पहँुचे। महाराजा मानसिंह ने इनका याथोचित स्वागत करके इन्हें जागीरंे इत्यादि दी। इन्द्रराज को भव्य खिलअत और फौजबख्श का पद, कुचामन ठाकुर को राव राजा की पदवी 50000 रू. का पटटा और इकतिसन्दा सिक्का ढालने की आज्ञा दी गई। आउवा के ठा. बख्तावरसिंह को प्रधान का पद दिया गया। अमीरखां को नवाब का खिताब देकर अपना पगड़ी बदल भाई बनाया तथा खर्च के लिए नावां की तरफ के परगनों की आमदनी सौंप दी गई। धौंकलसिंह का पक्ष छोडकर पुनः मानसिंह के पक्ष में आने वाले सरदारों के जागीर पट्टों में कमी करके उन्हें उनकी जागीरें लौटा दी गई।233  साढे पाँच माह तक धौंकलसिंह के पक्ष की सेना से घिरे रहने के बाद महाराजा मानसिंह अब ठा. सवाईसिंह रूपी जीवंत समस्या से यथा शीघ्र मुक्ति चाहता था। ठा. सवाईसिंह के पास नागौर का अधिकार व 15 हजार की सेना थी।234 चंडावल, हरसोलाव, खींवसर, लवेरा, संखवास, लाडनू, दुगोली और लौटोती इत्यादि के ठाकुर अभी भी उसके पक्ष में थे।235 बापू सिंधिया और जॉन बुतीसी दौलतराव सिंधिया की ओर से उसे सहयोग दे रहे थे।236

महाराजा मानसिंह ने जनवरी, 1808 ई में अमीर खां को बुलाकर गुप्त मंत्रणा की। उसने सवाईसिंह को छल से मारने की योजना बनाई। सालावास ठाकुर ने इसकी गुप्त सूचना पत्र द्वारा सवाईसिंह को भेजी और वह स्वयं 500 सैनिकों के साथ सवाईसिंह के शामिल हो गया।237 इधर सवाईसिंह को अपने मराठा सहायकों जॉन बुतीसी और बापू सिंधिया से अलग करवाने के उद्देश्य से अमीर खां ने अपने एजेण्टों द्वारा सिंधिया के दोनों सेनापतियों के मन में सवाईसिंह के प्रति शंका उत्पन्न करवा दी। परिणामस्वरूप ये दोनों व्यक्ति सवाईसिंह का साथ छोड़कर अजमेर चले गए।238 यह घटना सवाईसिंह के लिए निश्चित ही वज्रपात के समान रही होगी। धौंकलसिंह को राजगद्दी दिलाने के अभियान में उसके सभी विदेशी सहयोगी उसका साथ छोड़कर जा चुके थे।

      इधर जोधपुर में अमीर खां ने योजनानुसार महाराजा मानसिंह से फौज खर्च का बनावटी झगड़ा किया और मारवाड़ के गांवों में लूटमार करनी प्रारम्भ कर दी। ठा. सवाईसिंह को जब इस घटनाक्रम की जानकारी हुई तो उसने अपना एक प्रतिनिधि अमीर खां के पास भेजकर धौंकलसिंह के पक्ष में आने पर 40 लाख रू देने के वचन दिया। सवाईसिंह इसमें निहित षड्यंत्र को बिलकुल नहीं भांप सका। अमीर खां ने प्रस्ताव हाथों हाथ स्वीकार कर लिया। वह अपनी सेना को मूण्डवा में छोड़कर केवल 500 सवारों के साथ नागौर के पहुँचा। मार्च 25, 1808 ई. को नागौर के समीप तारकीन की दरगाह पर दोनों की मुलाकत हुई।239 अमीर खां न इस पवित्र स्थान पर कुरान पर हाथ रखकर शपथ ली कि वह खर्च मिलने पर पूर्ण निष्ठा से उनकी सहायता करेगा।240 इस अवसर पर अमीर खां ने सवाईसिंह को अपना पगड़ी बदल भाई बनाया।241 उसने सवाईसिंह को उसके मेहमान के रूप में मूडवा आने तथा वहाँं आकर सैनिकों को वेतन चुकाने का विश्वास दिलाने को कहा।242

      29 मार्च, 1808 ई को ठा. सवाईसिंह चण्डावल, पाली, बगड़ी के ठाकरों के साथ नागौर से मूण्डवा की ओर रवाना हुआ। उनके साथ 2000 सैनिक थे। मूण्डवा पहुँचकर रात्रि में भोजन के बाद सरदारों ने वहीं निवास किया। अगले दिन अमीरखां की सेना के सूबेदार मुहम्मद खां ने उनके पास आकर वेतन संबंधी तकाजा किया। वहाँं उपस्थित अमीरखां ने तब सवाईसिंह से सिपाहियों को वेतन देने संबंधी विश्वास दिलाने का कहा। अमीर खां सवाईसिंह और अन्य सरदारों को एक बडे़ शामियाने की ओर ले गया जिसमें बिछायत की हुई थी।243 शामियाने के चारों और अमीरखां के सैनिक अपनी मांग को लेकर तोपें लिए हुए बैठे थे। सरदारों ने दृढतापूर्वक सैनिकों की मांग पूरी करने का वचन दिया। तभी सूबेदार मुहम्मदखां अमीरखां को लाने की बात कहकर चला गया। कुछ समय बाद अमीरखां का साला जो सरदारों के साथ शामियाने में बैठा था, अमीर खां को बुला लाने की बात करके जाने लगा, किन्तु सवाईसिंह ने  उसे रोक लिया। इसकी जानकारी अमीरखां को दे दी गई। तब उसने विचार किया कि सरदारो के मन में अवश्य शक पैदा हो गया है। यदि सवाईसिंह जिन्दा निकल गया तो न जाने क्या करेगा। अब मेरे साले कि गति उनके साथ होगीतत्पश्चात उसने तोपें चलवाने की आज्ञा दी। आज्ञा मिलते ही तम्बू की डोरियां एक साथ काट दी गई। डोरियों के कटते ही बड़ा भारी साहिवान (डेरे का तम्बू) उन पर जा गिरा जिससे कोई अपना सिर भी ऊँचा नहीं कर सका। बिछायत के नीचे बारूद बीछी हुई थी। जिसे आग दिखा दी गई और तोपें एक साथ चलने लगी।244 इस प्रकार की भयंकर गोलेबारी से डेरे मे मौजूद सभी सरदार मारे गए।245 सरदारों के साथ आए राजपूत सैनिकों पर अमीरखंा के सैनिक टूट पडे़। इस आकस्मिक आक्रमण में बड़ी संख्या में राजपूत सैनिक मारे गए। शेष सरदार और सैनिक अपनी प्राणरक्षा में इधर उधर चले गए।246 ठा. सवाईसिंह के मारे जाने पर उसकी निजी सेना के सेनापति इन्द्रसिंह बल्लुओत चाम्पावत 500 सेनिकों सहित पोकरण चला गया।247

      अमीरखां ने पोकरण, पाली (खींवाडा), चण्डावल और बगडी के इन चारों सरदारों के मस्तक काट कर एक मोटे थैले में भरकर महाराजा मानसिंह के पास जोधुपर भेजे।248 हालांकि महाराजा मानसिंह ठा. सवाईसिंह को अपना परम शत्रु मानता था किन्तु वह उसकी सैन्य प्रतिभा का कायल था। तत्कालीन प्रधान आउवा के ठा. बख्तावर सिंह ने इन सरदारों के अंतिम संस्कार का निवेदन किया क्योंकि ठा. सवाईसिंह ने उसके दादा ठा. जैतसिंह की किले में छलपूर्वक हत्या होने पर उनका दाह संस्कार किया था। सिंगोरिया की पहाड़ी पर इन चारों सरदारों का दाह संस्कार करवाया गया। महाराजा मानसिंह ने ठा. सवाईसिंह की दुखद मृत्यु की शोकाभिव्यक्ति में एक मरसिये की रचना की।249

      31,मार्च ,1808 ई को अमीर खां ने सरलता से नागौर पर अधिकार कर लिया।250 धौंकलसिंह के पक्ष के सरदारों से दण्ड स्वरूप जुर्माना लगाया।251 जिन सरदारों ने अपने कृत्य की माफी मांग ली उन्हें मामूली दण्ड देकर क्षमा कर दिया गया।

इस प्रकार परम भाग्यशाली महाराजा मानसिंह अपने राज्य में गृह कलह शांत करने में सफल रहा। ठा. सवाईसिंह से हुए संघर्ष ने मारवाड़़ राज्य को अन्दर से खोखला कर दिया। महाराजा मानसिंह ने कृतज्ञ भाव से अमीरखां को हर प्राकर से संतुष्ट करने का प्रयास किया जिसका खामियाजा उसे भुगताना पड़ा। ठा. सवाईसिंह की मृत्यु के बाद भी राजपूत सरदारों के विद्रोह दूर नहीं हुए थे। मारवाड़़ में पुनः संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार होने लगी।

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संदर्भ -

1.    ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 64

2.    मोहनसिंह, चांपावतों का इतिहास, भाग 2, पृ. 329

3.    ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 64

4.    मारवाड़़ री ख्यात (स. डॉ. हुकुमसिंह) पृ. 60

5.    चांपावतों की पट्टा बही ;1808 से 1867द्ध क्रंमाक  67, रा.रा.अ. जोधपुर

6.    मोहनसिंह, चांपावतों का इतिहास, भाग  2, पृ. 329

7.    भगवतसिंह, चांपावत राठौड़, पृ. 235

8.    ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 65;

9.    वि.ना. रेऊमारवाड़़ का इतिहास, भाग प्, पृ. 385;

10.   भगवतसिंह, चापावत राठौड़, पृ. 236

11.   डॉ. महेन्द्रसिंह नगर, राजस्थान इतिहास तथा संस्कृति का झलकियाँ, पृ. 73 

12.   डॉ. आर. पी. व्यास, राजस्थान का वृहत् इतिहास, पृ.186

13.   वि.ना. रेऊ मारवाड़़ का इतिहास, भाग प्, पृ.388,389 ;

14.   ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 73,74

15.   मारवाड़़ री ख्यात (स. डॅा. हुकुम सिंह), पृ. 86

16.   ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 74 ; बदरी शर्मा, दासपों का इतिहास, पृ.110

17    वही, पृ. 75,76 ; बदरी शर्मा, दासपों का इतिहास,, पृ. 112

18    भगवतसिंह, चांपावत राठौड़, पृ. 245

19    ठिकाणा पोकरण का इतिहास, पृ.  76 ;

20    वि.ना. रेऊ मारवाड़़ का इतिहास, भाग प्ए पृ. 389

21    वही, पृ.  79,80, मोहनसिंह चांपावतों का इतिहास, भाग 2 पृ. 333

22    परम्परा, मारवाड़़ - मराठा ऐतिहासिक पत्रावली, पृ.132, ;संपादक नारायण सिंह भाटी,द्ध  राज. शोध संस्थान, चौपासनी, अनुवादक डी. बी. क्षीरसागर, कृष्ण जगन्नाथ कृत 1990

23    वही, पृ. 93

24    मोहनसिंह, चांपावतों का इतिहास, पृ. 335, पाद् टिप्पणी

25    परम्परा, मारवाड़़ मराठा ऐतिहासिक पत्रावली, पृ. 91

26    महाराजा भीमसिंह री ख्यात, पत्र सं. 2 , ग्रंथांक 15645, राज.प्राच्य प्रतिष्ठान, जोधपुर

27    महाराजा विजयसिंह री ख्यात (सं. ब्रजेश कुमार सिंह) पृ.  157, 158; महाराजा मानसिंह री ख्यात (संपादक डा. नारायणसिंह भाटी), पृ. 3

28    परम्परा, मारवाड़़ मराठा ऐतिहासिक पत्रावली, पृ. 97

29    ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 80, 81

30    मारवाड़़ रा ठिकाणा री विगत (सं. डॉ. हुकुमसिंह), पृ. 9;

31    परम्परा, मारवाड़़ मराठा ऐतिहासिक पत्रावली, पृ.  95

32    जीं आर. परिहार, मारवाड़़ एण्ड मराणाज पृ. 136

33    वही, पृ. 99

34    शिवदत्तदान बारहठ, जोधपुर राज्य का इतिहास, पृ. 138

35    मारवाड़़ री ख्यात (सं. डॉ. हुकुमसिंह), पृ. 112,113

36    शिवदत्तदान बारहठ, जोधपुर राज्य का इतिहास, पृ. 138,

37    पद्मजा शर्मा, महाराजा मानसिंह और उनका काल पृ. 5, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर 4,

38    महाराजा विजय सिंह री ख्यात (सं. ब्रजेश कु. सिंह), पृ. 162;

39    वही, पृ. 164

40    गौ. ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग 4ए  खण्ड 2 ,पृ. 757, 58

41    मारवाड़़ री ख्यात (सं. डॉ. हुकुम सिंह) पृ. 126,127

42    ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 82;

43    बीकानेर री ख्यात (सं. डॉ. हुकुमसिंह) पृ. 97;

44    महाराजा विजयसिंह री ख्यात (सं. ब्रजेश कुमार सिंह), पृ. 166

45    ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 82,

46    श्यामलदास, वीर विनोद, भाग प्प्ए खण्ड 1 पृ.856

47    शिवदत्तदान बारहठ, जोधपुर राज्य का इतिहास, पृ.144

48    गौ. ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग 4 खण्ड प्प् पृ. .759;

49    ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 82य मारवाड़़ री ख्यात (सं. डॅा. हुकुम सिंह) पृ.12

50    महाराजा विजयसिंह री ख्यात (सं. ब्रजेश कुमार सिंह), पृ. 168 शिवदत्तदान बारहठ, जोधपुर राज्य का इतिहास, पृ. 145

51    मारवाड़़ री ख्यात (स. डॅा. हुकुम सिंह) पृ. 13

52    महाराजा भीमसिंह री ख्यात, पत्र सं. 2, ग्रंथांक  15645

53    ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 82,83

54    पद्मजा शर्मा, महाराजा मानसिंह और उनका काल, पृ. 7

55    शिवदत्तदान बारहठ, जोधपुर राज्य का इतिहास, पृ. 150

56    परम्परा मारवाड़़ मराठा पत्रावली (सं. डॉ नारायणसिंह) पृ. 133

57    महाराजा भीमसिंह री ख्यात, पत्र सं. 1,2,3; मारवाड़़ री ख्यात(स. डॅा. हुकुमसिंह) पृ. 129;

58    वही, पृ. 83

59    परम्परा, मारवाड़़ मराठा ऐतिहांिसक पत्रावली, पृ. 133

60    शिवदत्तदान बारहठ, जोधपुर राज्य का इतिहास, पृ. 150

61    महाराजा भीमसिंह री ख्यात पत्र सं. 1; ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 83,

62    वि. ना.  रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग 1 पृ. 397

63    ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 84

64    वि.ना. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग 1, पृ. 397, पाद् टिप्पणी

65    शिवदत्त बारहठ, जोधपुर राज्य का इतिहास, पृ.154

66    महाराजा भीमसिंह री ख्यात पत्र सं.2 (ब), 3 (अ)

67    महाराजा भीमसिंह री ख्यात पत्र सं.  4 (अ)

68    वि.ना. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग 1, पृ. 397 व पाद् टिप्पणी

69    शिवदत्तदान बारहठ, जोधपुर राज्य का इतिहास, पृ. 157

70    मारवाड़़ रा ठिकाणा री विगत (सं. डॉ. हुकमसिंह), पृ. 4

71    शिवदत्तदान बारहठ, जोधपुर राज्य का इतिहासपृ. 155

72    परम्परा, मारवाड़़  मराठा ऐतिहासिक पत्रावली, पृ. 125

73    वि. ना. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग प् पृ. 397

74    शिवदत्तदान बारहठ, जोधपुर राज्य का इतिहास, पृ. 156

75    परम्परा, मारवाड़़ मराठा ऐतिहासिक पत्रावली, पृ. 107, 108

76    वही, पृ. 129

77    मारवाड़़ री ख्यात (सं. डॉ. हुकुम सिंह), पृ. 23ए पृ.142 से 145

78    मोहनसिंह, चांपावतों का इतिहास,, भाग 2 पृ. 336; चारण साहित्य पृ. 252

79    ठा. भगवतसिंह, चांपावत राठौड़, पृ. .260

80    महाराजा भीमसिंह री ख्यात पत्र संख्या 9(ब);

81    वही, पत्र संख्या 10(अ) (ब); मारवाड़़ री ख्यात (हुकुमसिंह), पृ. 158;

82    वि.ना. रेऊ मारवाड़़ का इतिहास, भाग प्ए पृ.398;

83    महाराजा मानसिंह री ख्यात पृ. 4 (सं.डॉ. नारायणसिंह भाटी) राजस्थान प्राच्य प्रतिष्ठान, जोधपुर  

84    जी.आर. परिहार, मारवाड़़ एण्ड मराठाज, पृ. 140

85    डॉ. पद्मजा  शमार्महाराजा मानसिंह और उनका काल, पृ. 17

86    शिवदत्तदान बारहठ, जोधपुर राज्य का इतिहास, पृ.165

87    महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी) पृ.4;

88    महाराजा भीमसिंह री ख्यात, पत्र सं. 11 (ब);

89    ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 85

90    डॉ. आर. पी . व्यास, रोल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़़, पृ. 25

91    ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ.46

92    भाद्राजून ठिकाणा री तवारीख (सं. डॉ. हुकुमसिंह भाटी) पृ. 118

93    वही, पृ. 118, ठिकाणा पोहकरण का इतिहासपृ. 86

94    ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 86;

95    ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 86, 87   

96          डॉ. आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़़, पृ.  25

97    ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 87

98    महाराजा मानंिसंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह), पृ. 8    

99    ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ.87

100   डॉ. पद्मजा शर्मामहाराजा मानसिंह और उनका काल, पृ.22;

101   महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी), पृ.8

102   बीकानेर री ख्यात (सं. डॉ. हुकुमसिंह), पृ. 123

103   ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ.87;

104   महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी), पृ.9;

105   वि.ना. रेऊ मारवाड़़ का इतिहास, भाग प्प् पृ. 402;

106   ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ.87;

107   वि.ना. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग प्प्ए  पृ. 404

108   पद्मजा शर्मा, महाराजा मानसिंह और उनका काल पृ. 23,27

109   महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी), पृ. .2

110   निर्मला उपाध्याय द्वारा प्रस्तुत शोध पत्र महाराजा मानसिंह विषयक विद्वानों की भ्रान्तियाँ  पृ.1, महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश - 2006

111   डॉ. आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नाबिलिटी इन मारवाड़़, पृ. 29

112. ठा.भगवतसिंह, चांपावत राठौड़, पृ. 274

113. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. .89

114. बीकानेर री ख्यात (सं. डा.ॅ हुकुम सिंह), पृ.123

115. मोहन सिंह, चांपावतों का इतिहास, भाग 2, पृ. 343

116. गौ. ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग 4, खण्ड 2 पृ. 780

117. महाराजा मानसिंह री ख्यात, (सं. डॉ नारायण सिंह भाटी)पृ. 30

118.  श्यामलदास, वीर विनोद, भाग प्प्ए खण्ड 1, पृ. 861; वि.ना. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग प्प्, पृ. 405

119. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 89,

120. श्यामलदास वीर विनोद, भाग प्प्ए खण्ड 1, पृ. 861

121. गौ. ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग प्टए खण्ड प्प्ए पृ. 787

122. मोहनसिंह, चांपावतों का इतिहास,भाग प्प्एपृ.343;ठा. भगवतसिंह, चांपावत राठौड, पृ.270

123. ठा. भगवतसिंह, चांपावत राठौड,़  पृ. 274(पत्र पूर्व में वर्णित है)

124. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 89, 90

125. डॉ. पद्मजा शर्मा, महाराजा मानसिंह और उनका काल, पृ. 33, 34

126. डॉ. आर.पी. व्यास, रोल ऑफ नाबिलिटी इन मारवाड़,़ पृ.30,

127. बीकानेर री ख्यात (सं. डॉ हुकुमसिंह) पृ. 123,124;

128. मारवाड़़ री ख्यात (सं. डॅा. हुकुमसिंह), पृ. 169

129. महाराजा मानसिंह री ख्यात, (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी)  पृ.40;

130. श्यामलदास, वीर विनोद, भाग 2 खण्ड 1, पृ. 862;

131.  वि.ना. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग प्प्ए पृ. 406

132.  फॉरेन पॉलिटिकल जनवरी 29, 1807 न. 32

133.  ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 90

134. डॉ आर.पी. व्यास, दी रोल ऑफ इन मारवाड़,़ पृ.29

135.  ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ.90

136.  गौ. ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग 4 खण्ड 2पृ. 788;

137.  महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी ) पृ.91;    

138    डॉ. पद्मजा शर्मामहाराजा मानसिंह और उनका काल, पृ.42

139. श्यामलदास, वीर विनोद,भाग 2 पृ.862, वि.ना. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास,भाग 2, पृ.406

140. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 91; वि.ना. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास,    भाग 1, पृ. 406

141. गौ.ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग 4, खण्ड 2, पृ. 791

142. डॉ. आर पी व्यास, रोल ऑफ नॉबिलिटी इन मारवाड़़, पृ. 30

143. ठिकाना पोहकरण का इतिहास, पृ. 92; श्यामलदास, वीर विनोद, भाग 2 खण्ड ,पृ. 862

144.  डॉ. आर. पी. व्यास, राजस्थान का वृहत इतिहास, पृ. 252

145. पॉलिटिकल कंसलटेशन जनवरी 29 1807 न. 32 ; सिक्रेट जनवरी 19 1807 न. 3

146. जेम्स टॉड कृत जोधपुर राज्य का इतिहास, (स. बलदेव प्रसाद व ज्वाला प्रसाद मिश्र तथा राय मुंशी देवी प्रसाद) पृ. 247

147. वही,ं पृ. 247,248; डॉ. आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नॉबीलीटी इन मारवाड़़,     पृ. 31

148. बीकानेर री ख्यात (स. डॉ. हुकुमसिंह) पृ. 123,124; पो कन्स. फरवरी 12,   1807 न. 96;

149. वही, पृ.124; डा. आर पी व्यास रॉल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़, पृ. 31

150. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 92; गौ.ही. औझा,जो.रा. का इतिहास, भाग 1,पृ. 793

151. जी. आर. परिहार, मारवाड़ मराठा संबंघ, पृ. 148 से 150

152. मारवाड़ री ख्यात (सं. डॉ. हुकुमसिंह) पृ. 17

153. मोहनसिंह चांपावतों का इतिहास, भाग 2 पृ. 346

154. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 92; मोहनसिंह, चांपावतों का इतिहास, भाग 2 पृ. 349

155. डॉ. आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नाबिलिटी इन मारवाड़, पृ. 32;

156. मारवाड़ री ख्यात (सं. डॉ. हुकुमसिंह) पृ. 6; फॉरेन पोलिटिकल अप्रैल 23,1807 न. 25

157. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी),पृ. 50

158. वही, पृ. 50,51; गौ. ही. ओझाजोधपुर राज्य का इतिहास, भाग 4 खण्ड 2, पृ. 794

159. दैनिक भास्कर, दिनांक 11.4.98, पृ. 6

160. डॉ पद्मजा शर्मा महाराजा मानसिंह और उनका काल पृ. 93

161. वही, पृ. 51

162. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 94;

163. श्यामलदास, वीर विनोद, भाग 2, खण्ड 1, पृ. 863

164. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास,पृ.ृ 94;वि.ना. रेऊ मारवाड़,़ का इतिहास, भाग 1, पृ. 408,

165. डॉ आर.पी.व्यास, राजस्थान वृहत इतिहास, पृ. 253

166. बीकानेर री ख्यात (सं. डॉ. हुकुमसिंह)पृ. 126

167. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी )पृ. 54

168. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 94; वि.ना.रेऊ मारवाड़, का इतिहास, भाग 1, पृ. 408

169. जी. आर. परिहार, मारवाड़, मराठा संबंध, पृ. 151

170. गढ जोधपुर धेरे री वही, (सं. डॉ. हुकुमसिंह) पृ. 69;

171. टॉड कृत जोधपुर राज्य का इतिहास, (सं बलदेवप्रसाद, ज्वालाप्रसाद मिश्र) पृ. 252

172. गढ जोधपुर घेरे री बही (सं. डॉ. हुकुमसिंह) पृ. 69

173. मारवाड़ री ख्यात (सं. हुकुमसिंह) पृ. 6;

174. गढ जोधपुर घेरे री बही ( सं. डॉ. हुकुमसिंह) पृ. 69

175. फॉरेन पोलिटिकल फरवरी 12,1807, नं 97

176. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी)  पृ. 55, श्यामलदास वीर विनोद, भाग 2 खण्ड 1 पृ. 863;

177. वही, पृ. 70; गौ.ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग 4, खण्ड 2, पृ. 795 

178.,    गढ जोधपुर घेरे री बही (सं. डॉ. हुकुमसिंह) पृ. 70;

179   महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी )  पृ. 50

180. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ.94;गढ जोधपुर घेरे री बही (सं. डॉ हुकुमसिंह) पृ. 70

181. मोहनसिंह, चांपावतों का इतिहास, भाग द्वितीय, पृ. 352, 353; पोलिटिकल

      कनसलटेशन, मई 7 न. 22; सूर्यमल्ल, वंश भास्कर, भाग 4 पृ. 3967

182. पद्मजा शर्मा, महाराजा मानसिंह और उनका काल, पृ. 55

183. गढ जोधपुर घेरे री बही पृ. 70; ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 94

184. हकीकत बही सं 9, पत्र संख्या  81

185. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी)  पृ. 57; वि.ना. रेऊ, मारवाड़ का इतिहास, भाग 1 पृ. 409                                                 

186. जी. आर. परिहार, मारवाड़, मराठा संबंध, पृ. 152

187. डॉ आर. पी. व्यास, राजस्थान का वृहत इतिहास, पृ. 253;

188. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 94,95

189. मोहनसिंह, चंापावतों का इतिहास, भाग 2 पृ. 35

190. गढ़ जोधपुर घेरे री बही (सं डॉ हुकुम सिंह )पृ. 74;

191. डॉ. पद्मजा शर्मा, महाराजा मानसिंह और उनका काल, पृ. 54

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194.  जैम्स टॉड कृत जोधपुर राज्य का इतिहास, (सं बलदेवप्रसाद ज्वालाप्रसाद मिश्र)पृ. 253

195. वि.ना.रेऊ, मारवाड़, का इतिहास, भाग 2, पृ. 410

196. मारवाड़ री ख्यात (सं. डॉ. हुकुमसिंह) पृ. 6

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198.  डॉ आर. पी. व्यास, राजस्थान को वृहत इतिहास, पृ. 254

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201.  मोहनसिंह चांपावतों का इतिहास, भाग 2 पृ. 355

202.  गढ़ जोधपुर घेरे री बही, पृ. 74; ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 95

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205.  गढ जोधपुर घेरे री बही, पृ. 74

206.  जी. आर. परिहार, मारवाड़़, मराठा संबंध, पृ. 153

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210.  जेम्स टॉड कृत जोधपुर राज्य का इतिहास, (सं बलदेवप्रसाद, ज्वालाप्रसाद) पृ. 246

211.  महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी)  पृ. 64

212.  वि. ना. रेऊ, मारवाड़, का इतिहास, भाग 1 पृ. 410

213.  गढ़ जोधपुर घेरे री बही (सं. डॉ. हुकुमसिंह), पृ. 76

214.  डॉ. आर. पी. व्यास, राजस्थान का वृहत इतिहास, पृ. 254

215.  गढ जोधपुर घेरे री बही (सं. डॉ. हुकुमसिंह), पृ. 75

216.  वही, पृ. 75, 76, महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी)

217.  महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी )  पृ. 64

218.  गढ जोधपुर घेरे री बही (सं. डॉ. हुकुमसिंह), पृ. 75

219. डॉ. पदमजा शर्मा, महाराजा मानसिंह और उनका काल, पृ. 57;

220. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी )  पृ. 65;

221. डॉ. आर. पी. व्यास, राजस्थान का वृहत इतिहास, पृ. 255

222. मारवाड़़़ री ख्यात (सं. डॉ. हुकुमसिंह )पृ.174

223. डॉ. आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नाबिलिटी इन मारवाड़़, पृ. 35

224  गढ जोधपुर घेरे री बही, पृ. 76

225.  डॉ. पदमजा शर्मा महाराजा मानसिंह और उनका काल, पृ. 58,59

226.  गौ.ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग 4, खण्ड 2, पृ. 800

227.  गढ जोधपुर घेरे री बही ( सं. डॉ. हुकुमसिंह ) पृ. 77;

228.  जेम्स टॉड कृत जोधपुर का इतिहास,(सं बलदेवप्रसाद मिश्र एवं ज्वालाप्रसादद्ध पृ. 257,

229. गढ जोधपुर घेरे री बही ( सं. डॉ. हुकुमसिंह ), पृ. 77;

230. जेम्स टॉड कृत जोधपुर राज्य का इतिहास, (सं बलदेवप्रसाद, ज्वालाप्रसाद) पृ. 259

231.  वि.ना. रेऊ, मारवाड़, का इतिहास, भाग 2, पृ. 411;

232. बीकानेर री ख्यात( सं. डॉ. हुकुमसिंह ), पृ. 128;

233.  फॉरेन पॉलिटिकल, नवम्बर 16,1807 न. 1;

234.  डॉ पदमजा शर्मा, महाराजा मानसिंह और उनका काल, पृ. 62

235. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 95

236. जी. आर परिहार मारवाड़़, मराठा संबंध पृ. 155

237. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 95; फॉरेन पॉलिटिकल नवम्बर 16,1807 न. 1

238. डॉ पद्मजा शर्मा, महाराजा मानसिंह और उनका काल, पृ. 63;

239. गौ.ही. ओझा, जोधपुर का राज्य का इतिहास, भाग 4 खण्ड 2, पृ. 806

240. बीकानेर री ख्यात(सं. डॉ. हुकुमसिंह), पृ. 129

241. फॉरेन पॉलिटिकल नवम्बर 16,1807 न. 1; सूर्यमल्ल, वंश भास्कर, भाग 4, पृ. 3978

242. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी)  पृ. 77;

243. बीकानेर री ख्यात( सं. डॉ. हुकुमसिंह ),पृ. 120

244. फॉरेन पॉलिटिकल अगस्त 29,1808 न. 58;

245. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 97 मारवाड़, री ख्यात( सं. डॉ. हुकुमसिंह)पृ. 6   

246. गौ. ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग 4, खण्ड 2, पृ. 807 

247. मोहनसिंह चांपावतों का इतिहास, भाग 2, पृ. 362

248.  मारवाड़़, री ख्यात( सं. डॉ. हुकुमसिंह ), पृ. 176,

249. ठा. भगवतसिंह, चांपावत राठौड़, पृ. 293

250.  डॉ. आर. पी. व्यास, राजस्थान का वृहत इतिहास, पृ. 256

251. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी) पृ. 79

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