प्राक्कथन : PREFACE

                        प्राक्कथन

    इस शोध प्रबन्ध का उद्देश्य पोकरण के राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास के विविध पक्षों पर प्रकाश डालना हैं, 1724 ई. में महाराजा अजीतसिंह की मृत्यु और महाराजा अभयसिंह के सिंहासनोहण के समय उत्पन्न राजनीतिक परिस्थितियों में ठा. चाम्पावत महासिंह का राजनीतिक जीवन प्रारंभ हुआ। इसी क्रम में उसकी सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराजा अभयसिंह ने 1729 ई. में उसे 72 गाँव युक्त पोकरण का पट्टा इनायत किया। ऐतिहासिक दृष्टि से ठा. महासिंह जैसे शक्तिशाली सरदार को पोकरण इनायत किए जाने से पोकरण को लेकर मारवाड़ राज्य और जैसलमेर राज्य के मध्य संघर्ष का पटाक्षेप हुआ। मुहता नैणसी महाराजा जसवंतसिंह के शासनकाल तक पोकरण के विविध पक्षों पर प्रकाश डालता है, किन्तु इसके पश्चात् किसी भी इतिहासकार ने पोकरण पर वस्तुनिष्ठ अध्ययन नहीं किया। पोकरण के ठाकुरों तथा उनके मारवाड़ के महाराजाओं से सम्बन्धों के विषय में हमें बिखरी हुई जानकारियाँ मिलती हैं जिनमें अनेक विसंगतियाँ है। महाराजाओं ओर पोकरण के ठाकुरों ने अपने संरक्षित चारणों और भाट-कवियों इत्यादि से जो साहित्य रचना करवाई है, वह कई स्थानों पर अतिश्योक्तिपूर्ण है तथा घटनाओं को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया। इससे ऐतिहासिक अध्ययन में एक भटकाव उत्पन्न हुआ। इन ऐतिहासिक विसंगतियों का निवारण करना, पोकरण के इतिहास से सम्बन्धित प्राथमिक और द्वितीयक स्त्रोतों में सामंजस्य स्थापित करना, पोकरण के सामन्त सरदारों की निष्ठा, राजनीतिक कार्यवाहियों, व्यवहारों और व्यक्तित्व के विषय में उत्पन्न भ्रान्तियों का निवारण करके पोकरण के ठाकुरों की सही तस्वीर प्रस्तुत करना, पोकरण के भौगोलिक, सामरिक, ऐतिहासिक, आर्थिक एवम् सांस्कृतिक पक्षों का व्यापक और सर्वांगीण विश्लेषण करना इस शोध का उद्देश्य है।

    इस शोध प्रबन्ध के अन्तर्गत आठ अध्याय लिखे गये है। प्रथम अध्याय में पोकरण की भौगोलिक स्थिति और स्थानीय भूगोल पर प्रकाश डाला गया है। आजादी से पूर्व पोकरण मारवाड़ की ठिकाणा व्यवस्था के अन्तर्गत प्रशासित था। इस अध्याय में ठिकाणे का अर्थ, मारवाड़ में ठिकाणा व्यवस्था की आवश्यकता और महत्व के विषय में प्रकाश डाला गया है।

    दूसरे अध्याय में महाराजा जसवंतसिंह के शासनकाल तक का पोकरण का इतिहास बताया गया है। इसमें पोकरण की उत्पत्ति से जुड़ी किंवदन्तियाँ, तंवर अजमालजी और बाबा रामदेव द्वारा पोकरण पुनः बसाने, पोकरणा राठौड़ ठाकुरों तक का इतिहास, फलोदी के सामन्त नरा सूजावत की पोकरण प्राप्ति की इच्छा एवम् विवाद, मारवाड़ अधिपति राव सूजा, तदन्तर राव मालदेव और महाराजा जसवंतसिंह द्वारा पोकरण में सैनिक हस्तक्षेप के विषय में जानकारी दी गई है।

    तीसरे अध्याय में पोकरण के चाम्पावत राठौड़ कुला के इतिहास का संक्षिप्त वर्णन किया गया है, साथ ही उन कारणों पर प्रकाश डालता गया है जिनके कारण चाम्पावत महासिंह को मारवाड़ की पश्चिमी सीमा पर एक बड़ा पट्टा-रेख और प्रधानगी इनायत की गई। ठा. देवीसिंह द्वारा मारवाड़ राज्य को दी गई सेवाएं और मारवाड़ राज्य के महाराजाओं यथा अभयसिंह, रामसिंह, बख्तसिंह और विजयसिंह से उसके सम्बन्धों का क्रमिक विवरण तथा ठा. देवीसिंह की हत्या का प्रतिशोध लेने को उद्यत उसके पुत्र ठा. सबलसिंह द्वारा किए गए असफल विद्रोह की जानकारी दी गई है।

    चौथे अध्याय में मारवाड़ कि इतिहास के सर्वाधिक चर्चित सामन्त ठा. सवाईसिंह के व्यक्तित्व, कृतित्व और मारवाड़ के महाराजाओं यथा विजयसिंह, भीमसिंह और मानसिंह से क्रमिक सम्बन्धों पर प्रकाश डाला गया है। ’मारवाड़ का राज्य मेरी कटार की पड़दली में है’ का उद्घोष करने वाले ठा. सवाईसिंह ने महाराजा भीमसिंह के पुत्र धौंकलसिंह को मारवाड़ का राज्य दिलाने के लिए जयपुर, बीकानेर, और शाहपुरा की सेना की सहायता से मारवाड़ पर आक्रमण करवाया और मेहरानगढ़ की घेराबन्दी की किन्तु अमीरखां पिण्डारी की कुटिलता के कारण वह न केवल असफल रहा अपितु उसे अपने जीवन से भी हाथ धो बैठना पड़ा। ठा. सवाईसिंह को मारवाड़ के इतिहासकारों ने उनके कार्याें को सही मूल्यांकन नहीं किया किन्तु तस्वीर का एक उजला पक्ष भी है जिसे प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के द्वारा उजागर करने का प्रयास किया गया है।

    पांचवें अध्याय में ठा. सालमसिंह से 1947 ई. तक का पोकरण का इतिहास वर्णित हैं। ठा. सालमसिंह ने अपने पिता ठा. सवाईसिंह की हत्या करवाएं जाने के प्रतिशोधस्वरूप फलोदी में मारवाड़ राज्य की सेना के विरुद्ध बीकानेर राज्य को प्रारंभिक सहयोग दिया किन्तु अपनी कमजोर स्थिति को भांपकर शीघ्र ही समझौता कर लिया। सिंघवी इन्द्रराज की मृत्युपर्यन्त उसने मुहता अखैचन्द के सहयोग से पोकरण गुट का निर्माण कर वर्चस्व की स्थिति प्राप्त की। महाराजा मानसिंह ने अंग्रेजों के संरक्षण में अवसाद की स्थिति से उबरकर पोकरण गुण को छिन्न-भिन्न कर दिया। उसका उŸाराधिकारी ठा. बभूतसिंह अधिकांशतः पोकरण में ही रहा किन्तु समय-समय पर दरबारी गुट और असन्तुष्ट गुट में संतुलन स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसके उŸाराधिकारियों ठा. मंगलसिंह, ठा. चैनसिंह और ठा. भवानीसिंह को प्रधानगी सिरोपाव इनायत नहीं हुआ। उन्हें मंत्री पद से ही सन्तुष्ट रहना पड़ा। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध पोकरण ठाकुरों की इस हृासमान स्थिति पर प्रकाश डालता है।

    छठें अध्याय में पोकरण की प्रशासनिक व्यवस्था ओर अर्थव्यवस्था का वर्णन किया गया हैं। मूलतः पोकरण पट्टे में 72 गांव थे जो वृद्धि होते-होते लगभग 100 गांवों तक पहुंच गए। पोकरण चैनसिंह को अवध में ताललुकदारी भी प्राप्त थी। इतने बड़े क्षेत्र के प्रशासन के लिए विविध पदाधिकारी नियुक्त थे यथा प्रधान, किलेदार, कामदार, फौजदार, वकील, दरोगा, कोठारी इत्यादि की नियुक्ति की जाती थी। पोकरण ठाकुरों को पुलिस और प्रथम दर्जे के न्यायिक अधिकार प्राप्त थे।

        1728 ई. में पोकरण पट्टा इनायत किऐ जाने के समय पट्टा-रेख कागजों में 72 गांवों से 66083 रूपए थी जो ठा. मंगलसिंह के समय कुल पट्टा गांवों 110 पर 1,17,092 रूपए हो गई। भू-राजस्व के अतिरिक्त हथोड़ा लाग, चराई कर, अदालती स्टाम्प, कबुलायत, चिरा, सावा, दाण, मुकाता, सूड़, मुतफरकात, कूंता, पशुकर, राहदारी इत्यादि ठिकाणे की आय के स्त्रोत थे। रेख, बाब, हुकुमनामा तथा प्रशासनिक खर्चे ठिकाणे की व्यय की मदें थी।

        सातवें अध्याय में पोकरण की सामाजिक संरचना, जनसंख्या, खान-पान, रहन-सहन, पहनावा, उपबोली की विशिष्टता, विवाह, रीति-रिवाज जैसे पक्षों का वर्णन किया गया है। पोकरण का जीवन धर्म प्रधान रहा हैं। यहां छोटे-बडे़ असंख्य मंदिर हैं। लोगों की आस्था पंचदेवों यथा गणेश, विष्णु, शिव, सूर्य ओर शक्ति में होने के बावजूद विशेष श्रद्धा बाबा रामदेव के प्रति रही हैं। संत बालीनाथ, मौनपुरी महाराज, संत गरीबदास, संत देवगर बाबा के प्रति भी पोकरणवासियों में अनन्य आस्था रही है। विशेष पर्वों को छोड़कर पोकरण के ठाकुर अपने निजी मंदिर में ही पूजा अर्चना किया करते थे। पोकरण में सिखों का एक गुरुद्वारा और एक पुरानी मस्जिद भी हैं। 1917 ई. में यहां एक मदरसा स्थापित किया गया। प्रस्तुत अध्ययन पोकरण में सर्वधर्म सम्भाव की जानकारी देता है।

आठवें अध्याय में पोकरण के शासको द्वारा सांस्कृतिक क्षेत्र में दिए योगदान के विषय में प्रकाश डाला गया है।             पोकरण के शासकों ने पोकरण के लाल किले में अनेक निर्माण कार्य करवाए। ठा. मंगलसिंह ने किले के प्राचीन भाग को गिराकर आधुनिक स्थापत्य विशेषताओं युक्त मंगल निवास बनवाया। पोकरण के धनाढ्य सेठों द्वारा निर्मित हवेलियाँ, हवेली स्थापत्य में विशिष्ट स्थान रखती है। पोकरण के दिवंगत ठाकुरों ओर ठकुरानियों की स्मृति में बनवाई गई छतरियाँ स्थापत्य की दृष्टि में उत्कृष्ट हैं। लोक कलाओं में रम्मत, मिट्टी की कलाकृतियाँ आज भी प्रसिद्ध है।  पोकरण की चित्रकला  शैली की एक पाण्डुलिपि संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यूयार्क में स्पेन्सर संग्रह में मौजूद है। कुछ चित्र पोकरण के किले में अवलोकन हेतु  रखे गए है।

        पोकरण के ठाकुरों की शूरवीरता, स्वाभिमान, कटारी, कूटनीति पर चारण-भाट कवियों ने अनेक दोहे-डिंगल, काव्य, झमाल, गीत, मरसिये इत्यादि लिखे गए हैं। इस शोध में इनके कुछ उदाहरणों को स्थान दिया गया है।

आभार

मैं सर्वप्रथम डॉ. आर.पी. व्यास, पूर्व आचार्य एवम् अध्यक्ष इतिहास विभाग का आभार प्रकट करना चाहता हूँ जिनके आशीर्वाद, मार्गदर्शन और पोकरण के विषय-सन्दर्भों के ज्ञान ने मुझे शोध-प्रबन्ध पूर्ण करने में अमूल्य सहायता दी है।

मैं अपने गुरु एवम् शोध निर्देशक डॉ. श्याम प्रसाद व्यास का हार्दिक आभार प्रकट करता हूं, जिनके कुशल निर्देशन एवम् बहुमूल्य प्रेरणा से यह  शोध-प्रबन्ध पूर्ण हुआ। उन्होंने समय-समय पर मुझे उपयोगी और आवश्यक सुझाव देकर मेरा मार्गदर्शन किया। मैं उनका आभार शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता हूँ। किसी भी शिष्य की भांति मैं उनका गुरु ऋण नहीं चुका सकता हूँ। उनके आशीर्वाद से ही मैं अपनी योग्यता सिद्ध कर सका हूँ।

मैं पोकरण ठाकुर साहब श्रीमान् नगेन्द्रसिंह जी पोकरण, ठकुराणी सा और कुँवर साहब परम विजय सिंह पोकरण का अत्यधिक आभारी हूँ। उन्होंने पोकरण से जुड़े मूल स्त्रोत और बहियाَँ मुझे पढ़ने और तस्वीरें लेने के लिए दी। इनके पूर्ण सहयोग और प्रोत्साहन से ही मेरा यह शोध प्रबन्ध सफलतापूर्वक पूरा हो सका है। मैं अपने पोकरणस्थ मित्र राधाकिशन खत्री और राजेन्द्र व्यास तथा अपने शिष्य विकास राठी का आभारी हूं जिन्होंने पोकरण के सामाजिक और सांस्कृतिक पक्षों से जुड़़ी सामग्रियाँ एकत्रित करने में मेरी सहायता की ।

मैं डॉ. हुकुमसिंह भाटी, निदेशक, राजस्थानी शोध संस्थान, चौपासनी और उनके पुत्र डॉ. विक्रमसिंह भाटी का आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने सामग्री एकत्रीकरण और मूल स्त्रोतों को पढ़ने में मुझे उपयोगी सहायता प्रदान की। मैं डॉ. महेन्द्रसिंह नगर, निदेशक, महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश और अनुसंधान केन्द्र का आभारी हूँ जिन्होंने मेरा उत्साहवर्द्धन करने के साथ-साथ मुझे लाइब्रेरी से पुस्तकें उपलब्ध कराई।

मैं रा. रा. प्रा. वि., जोधपुर में कार्यरत डॉ. कमल किशोर एवं (श्रीमती) वसुमती शर्मा का आभारी हूँ जिन्होंने मेेरे शोध प्रबन्ध में व्यक्तिगत रूचि ली और मूल स्त्रोतों को तत्परता से उपलब्ध कराने में सहायता दी। मैं रा. रा. अ., जोधपुर में कार्यरत श्री नारायणसिंह भाटी और रा. रा. अ., बीकानेर में कार्यरत श्री पूनमचंद जी जोईया का भी आभारी हूँ जिन्होंने मूल शोध सामग्री उपलब्ध कराने में विशेष सहायता दी।

मैं अपने मित्रों शक्तिसिंह राठौड, डॉ. महेन्द्रसिंह तंवर और  डॉ. गुमानसिंह राठौड़ का आभारी हूं जिन्होंने मुझे समय-समय पर सहयोग दिया और प्रोत्साहन दिया।

मैं अपनी स्नेहमयी माँ श्रीमती सज्जन कंवर और पिता श्रीमान् देवीसिंह शेखावत का ऋणी  हूँ जिनके आशीर्वाद से ही एक शोध-प्रबन्ध पूर्ण हुआ है। साथ ही मैं अपनी पत्नी श्रीमती कविता शेखावत को निरंतर सहयोग एवं उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद देता हूँ। उनकी प्रेरणा और त्याग के बिना यह काम असंभव था। मैं अपनी पुत्रियों पूर्वी और तन्वी को साधुवाद देता हूँ जिन्हें मेरी व्यस्तता के कारण एकाकीपन सहना पड़ा।


मैं विकास कम्प्यूटर्स एण्ड फोटो कॉपीयर्स, के खुशाल अरोड़ा का हृदय से धन्यवाद देता हूं जिन्होंने अल्प समय में इस शोध प्रबन्ध को तैयार किया है। अन्त में, मैं अपने उन सभी सहयोगियों, मित्रों एवम् रिश्तेदारों को धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मेरी सहायता की है।

अशोक कुमार सिंह शेखावत

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