अध्याय - 6 : प्रशासनिक एवं आर्थिक व्यवस्था

 अध्याय - 6 :  प्रशासनिक एवं आर्थिक व्यवस्था


पोकरण, जोधपुर राज्य का एक बड़ा ठिकाणा था। मालानी के 1031 गांवों के पश्चात् पोकरण पट्टे के गांवों की संख्या सर्वाधिक 1002 थी। पोकरण ठिकाणा प्रशासनिक दृष्टि से जोधपुर परगने के अधीन था। इसके अधीन पोकरण के गांवों के अतिरिक्त साकड़ा3, जालोर4, सिवाणा5 और नागोर6 के गांव भी सम्मिलित रहे हैं। इस ठिकणांे के मूल गांवों की संख्या 1728 ई. में ठा. महासिंह के समय मात्र 727 थी, जो क्रमशः बढ़ते रहे। उसे प्रधानगी के दायित्व के निर्वाह हेतु मजल ओर दुनाडा नामक दो बड़े गांव दिए गए8। इस प्रकार कुल 74 गांव महासिंह के पास थे।9 ठा. देवीसिंह के समय यह संख्या बढ़कर 82 गांव हो गई। ठा. देवीसिंह की राजकीय सेवकों द्वारा हत्या करने पर उसके पुत्र सबलसिंह ने विद्रोह किया। सबलसिंह की आकस्मिक मृत्यु के बाद वृद्धि किए गए गांव वापस ले लिए गए। 1767 ई. में ठा. सवाईसिंह के समय (मजल, दुनाडा रहित)10 पट्टे के कुल गांवों की संख्या 72 थी। 1808 ई. में ठा. सवाईसिंह की मृत्यु के बाद उसके पुत्र सालम सिंह को 84 गांव (मजल, दुनाडा सहित) का पट्टा हुआ।11 1823 ई. में ठा. सालमसिंह के स्वर्गवास के समय उसके कोई पुत्र नहीं होने के कारण पोकरण का पट्टा जब्त हुआ और पोकरण को प्रबंध के लिए सरदारमल सिंघवी के सुपुर्द किया गया। 1825 ई. को उसके गोद आए पुत्र बभूतसिंह के नाम पोकरण का पट्टा बहाल हुआ जिसमें मजल दुनाडा सहित 94 गांव थे।12 1840 ई. में सिवाणा के गांव करमावास, बीनावास पट्टे में तो नहीं लिखे गए किन्तु उनकी पैदाइश उसे देने के आदेश दिए गए।13 कुछ और भी गांव उसे प्रदान किए गए। ठा. मंगलसिंह के समय कुल 100 गांव थे।14

पोकरण के 100 गांव जो गढ़ जोधपुर के अधीन थे, एक क्षेत्र. विशेष में नहीं होकर बिखरे हुए थे। ठा. चैनसिंह अवध के ताल्लुकदार भी थे।15 इतने बडे़ क्षेत्र में प्रशासनिक सुव्यवस्था के लिए कर्मचारियों की एक फौज नियुक्त थी। पोकरण के ठाकुरों के पास जोधपुर राज्य की प्रधानगी होने के कारण वे ठिकाणा की ओर कम ही ध्यान दे पाते थे।16 उन्हें  ठिकाणे में रहने का मौका कम हीं मिल पाता था। पोकरण के ठिकाणेदारों की जोधपुर के महाराजाओं से नाराजगी की अवस्था में ये ठिकाणेदार लंबे समय तक अपने ठिकाणों में रहे। ठा. देवीसिंह महाराजा विजयसिंह से नाराजगी के चलते कुछ वर्ष पोकरण रहा, ठा. सवाईसिंह पहले अपनी बाल्यवस्था के कारण और बाद में महाराजा मानसिंह से उŸाराधिकार के मुद्दे पर मनमुटाव के कारण पोकरण रहा, ठा. सालमसिंह ने एक लंबे समय तक दरबार की गतिविधियों के प्रति उपेक्षा भाव रखा और पोकरण में ही रहा। ठा. बभूतसिंह भी राजदरबार की गुटबाजी के कारण महाराजा तख्तसिंह के शासनकाल में अधिकांशतः अपने ठिकाणें में ही रहा। उसने अपनी प्रशासनिक प्रतिभा का इस्तेमाल अपने ठिकाणे में किया और राजस्व प्राप्तियों को बढाया। उसके प्रशासन की प्रशंसा अंग्रेज पोलिटिकल एजेण्ट कर्नल कीटिंग और स्वयं महाराजा तख्तसिंह ने भी जैसलमेर विवाह हेतु जाते समय पोकरण पड़ाव के समय की।17 किन्तु उसके अधिक समय तक जोधपुर से बाहर रहने के कारण प्रधानपद की शक्ति और अधिकारों का क्षय हो गया। इस पद के कार्य अब किलेदार और दीवान में बंट गए।18 ठा. बभूतसिंह के उŸाराधिकारियों को प्रधानगी का सिरोपाव देने के विवरण हमें नहीं मिलते है। अब इन्हंे किसी कौंसिल का सदस्य या मंत्री बनाया जाने लगा।19 किन्तु दरबार में आसन ग्रहण करने और महाराजा को नजर करने सम्बन्धी प्राथमिकता उन्हें पूर्व के समान मिलती रही।


पोकरण की प्रशासनिक संरचना - 

1. ठिकाणेदार - पोकरण खास और पट्टे के गांवों के प्रशासन में पोकरण में ठिकाणेदारों का सर्वोच्च सोपान था। वे अपने ठिकाणे में एक अर्द्ध-स्वतंत्र शासक की तरह कार्य करते थे। ठिकाणे की प्रशासनिक व्यवस्था वास्तव में राज्य प्रशसन व्यवस्था का ही लघु रूप था।20 उसकी अपने ठिकाणे में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना करने की जिम्मेदारी थी। इस उद्देश्य की प्राप्ति करने के लिए उसे अधीनस्थ कर्मचारियों की नियुक्ति का अधिकार था। उसके अधीन पोकरण जमीयत की फौज थी।21 उसे पुलिस और प्रथम दर्जे के न्यायिक अधिकार प्राप्त थे।22 ठिकाणे के आर्थिक प्रशासन भी उसे के जिम्मे था तथा राजदरबार को समय-समय पर रेख-चाकरी, हुकुमनामा एवम् अन्यकरों का भुगतान करने की जिम्मेदारी थी। पोकरण के ठिकाणेदार मारवाड़ राज्य के प्रधान थे। इस कारण उनके पास राज्य के सभी पदाधिकारियों से सम्बन्धित विवरण रहता था, जैसे कि सरदारों को दिए जाने वाले पट्टे के गावों का विवरण, रेख की मात्रा, कुल प्राप्तियाँ, हुकुमनामा इत्यादि। उसकी अनुशंसा पर महाराज उŸाराधिकार प्राप्त सरदार को हुकुमनामे में रियायत प्रदान करता था। इस सेवा के प्रतिफल में उसे प्रति पट्टेदार प्रतिवर्ष एक रूपया मिलता था।23 अपने ठिकाणे के प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए वह आवश्यकता के अनुसार प्रधान, कामदार, फौजदार, मुसाहिब, वकील, दरोगा, कोठारी, तहसीलदार आदि कर्मचारियों की नियुक्ति करता था।

प्रधान - पोकरण जैसे बड़े ठिकाणे में प्रधान की नियुक्ति की जाती थी। उनके कार्य मुख्यः सामान्य प्रशासन सम्बन्धी थे। बीकानेर री ख्यात में पोकरण के प्रधान भायल जीवराज का विवरण मिलता है जिसने पोकरण जमीयत की सेना और बीकानेर की सेना के संयुक्त अभियान द्वारा 1807 ई. में फलोदी पर बीकानेर का अधिकार करवा दिया।24 संभवतः जिस प्रकार के कार्य जोधपुर राज्य का प्रधान जोधपुर में रहकर किया करता था। लगभग उन्हीं कार्यों को पोकरण के प्रधान पोकरण में रहकर किया करते हो। अपने कार्य के निमिŸा उसे कोई एक या दो गांव वेतनस्वरूप दिया जाता था।25 पोकरण ठाकुरों की अनुपस्थिति में वह अन्य कर्मचारियों के सहयोग से प्रशासन संभालता था। 

कामदार - ऐतिहासिक स्त्रोतों में पोकरण के कामदारों के हमे अनेक विवरण मिलते हैं। इनके कार्य बहुमुखी प्रकृति के थे। कामदार युद्ध में जाते थे, अपने ठाकुर को विभिन्न मुद्दों पर सलाह देते थे, उसे शत्रु पक्ष में समझौता करने भी भेजा जाता था इत्यादि।26 इससे स्पष्ट होता है कि पोकरण ठिकाणे में कामदार का कार्य और भूमिका प्रधान से कहीं अधिक थी। 1781 ई. में चौबारी के युद्ध में पोकरण का कामदार मूता रूपचंद वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए काम आया। इस युद्ध में पोकरण की सेना की दिलेरी के कारण ठा. सवाईसिंह को प्रधानगी इनायत हुई।27 तत्पश्चात् इस पद पर बुद्धसिंह चांपावत (हरियाढ़ाणा) का अनेक बार जिक्र मिलता है।28 1790 ई. में मेड़ता के युद्ध में मराठा सेना से करारी हार के बाद मराठों से समझौता करने बुद्धसिंह को भेजा गया। उसने मराठों के वकील भवानीदास को समझा-बुझा कर महाराजा विजयसिंह की पोकरण ठाकुर के प्रति नाराजगी दूर की। इससे दोनों पक्षों में समझौता संभव हो सका।29 1804 ई. को एक पत्र स्वर्गीय महाराजा भीमसिंह की रानी देरावरीजी ने बुद्धसिंह को एक पत्र लिखा जिसमें वह अपनी मार्मिक दशा का भावपूर्ण वर्णन करके मदद की गुहार की।30 ठा. सवाईसिंह की 1808 ई. में हत्या के बाद ठा. सालमसिंह ने प्रतिशोधवश फलोदी पर अधिकार करने आई जोधपुर की सेना के विरूद्ध बीकानेर वालों की मदद की। किन्तु बाद में उसने कामदार बुद्धसिंह को महामंदिर के आयस देवनाथ के पास भेजकर उससे सहायता मांगी। आयस देवनाथ ने महाराजा मानसिंह से ठा. सालमसिंह को क्षमा करने की सिफारिश की। फलस्वरूप ठा. सालमसिंह का जब्त ठिकाणा बहाल हो गया।31 1820 ई. में महाराजा मानसिंह ने मुहता अखैचन्द को पकड़ लेने के बाद पोकरण के कामदार बुद्धसिंह को बुलवाकर उसे कहलवाया कि उसकी ठा. सालमसिंह के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है तथा ठा. सालमसिंह नींबाज ठाकुर और अन्य सरदारों तथा मुत्सदियों की किसी भी प्रकार की मदद नहीं करें।32 इस घटना से कुछ पूर्व बुद्धसिंह को महाराजा मानसिंह की वास्तविक मनोदशा का पता लगाने के लिए महाराजा के पास भेजा गया।33 बुद्धसिंह के इन विवरणों से स्पष्ट है कि पोकरण के इस कामदार की भूमिका बहुमुखी रही थी। एक कामदार के वास्तविक कार्य से काफी आगे निकलकर उसने कार्य किए। ठा. बुद्धसिंह प्रधान कामदार था और उसके अधीन अनेक कामदार नियुक्त थे। प्रधान कामदार अपने अधीनस्थ कामदारों के कार्यों का निरीक्षण किया करता था। कामदार का कार्य राज्य के दीवान के सदृश्य आर्थिक और राजस्व प्रशासन से सम्बन्धित था। इनका कार्य भू-राजस्व और अन्य प्रकार के करों को एकत्रित करने का था। ये जमा खर्च का हिसाब रखा करते थे तथा ठिकाणे के छोटे स्तर के कर्मचारियों का निरीक्षण किया करते थे। 

कामदार राज्य के अधिकारियों से रेख, हुकुमनामा, न्योत एवं ठिकाणे से सम्बन्धित अन्य मुद्दों पर पत्र-व्यवहार किया करते थे34। कामदार का पद वंशानुगत था तथा ठिकाणे में उसकी शक्ति और प्रभाव ठिकाणेदार के बाद आता था।35 

वह अनेक छोटे स्तर के कर्मचारियों की नियुक्ति का भी अधिकार रखता था। दरोगा, खजांची (पोतेदार) व तहसीलदार इत्यादि उसके सहयोगी थे जो उसे मालगुजारी वसूल करने में सहयोग प्रदान करते थे और गांवों को व्यवस्थित रखते थे।36 पोकरण ठिकाणा कुछ हलकों में बंटा था और प्रत्येक के लिए एक कामदार नियुक्त किया जाता था। भलड़ा रो बाडो, कामदारों का गांव था।37

फौजदार - फौजदार जमीयत की सेना का मुखिया होता था। वह फलौदी के हाकिम को परगने की शांति एवं सुव्यवस्था हेतु सेना भेजता था। ठिकाणे के फौजदार का कार्य ठिकाणे की सुरक्षा तथा स्थानीय सेना पर नियंत्रण रखना होता था। ठिकाणे के घोडों तथा ऊँटों की देख-रेख के लिए क्रमशः दरोगा अस्तबल और दरोगा सुतरखाना हुआ करते थे। गांवों में चोरी और डकैती की सूचना मिलने पर चोरों और डाकुओं का पता लगाने के लिए ठिकाणे से सैनिक भेजे जाते थे। संगीन डकैती पड़ने पर फौजदार और कभी-कभी ठाकुर स्वयं सवारों के साथ डाकुओं के विरूद्ध  अभियान में जाते थे। मारवाड में इसे ‘बाहर चढ़ना’ कहा जाता था।38 बींसवीं शताब्दी के प्रांरभ में जब पोकरणा राठौड़ो ने मारवाड में व्यापक पैमाने पर डकैतियाँ डालना प्रारंभ किया। तब महाराजा तख्तसिंह ने जोधपुर से एक सेना रवाना की और ठा. बभूतसिंह को भी जमीयत की सेना भेजने को कहा। पोकरण के फौजदार अजीतसिंह और किलेदार अमाना पोकरण से रवाना होकर राज्य की सेना से शामिल हुए। इस सेना ने पोकरणा राठौड़ो का दमन करके इनके प्रमुख सरदारों को कैद कर लिया।

किलेदार - पोकरण के किलेदार के जिम्मे पोकण के किले की सुरक्षा, प्राचीरों का रखरखाव, किले पर सुरक्षा प्रहरियों की नियुक्ति, अस्त्र-शत्रों का रखरखाव इत्यादि कार्य थे। किले की सुरक्षा में गोमठिया, मुसलमान नियुक्त किए जाते थे जो किले की सुरक्षा के प्रति सतर्क और सख्त हुआ करते थे। वे किले के द्वार आठ बजे के बाद नहीं खोलते थे, चाहे स्वयं पोकरण ठाकुर ही द्वार पर क्यों न हो। रतन खां गोमठिया उन्नति करता हुआ किलेदार के पद तक जा पहुंचा। किलेदार अमाना भी मुसलमान था।39

वकील - ये ठिकाणे के प्रतिनिधि के रूप में राजनीतिक, प्रशासनिक एवं न्यायिक कार्यो को संपादित करते थे। 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ में उजला गांव का नाथूराम पोकरण के वकील की हैसीयत से अपनी राजनीतिक सूझबूझ और प्रशासनिक योग्यता के लिए जाना जाता थे। इससे पूर्व 1857 ई. में पोकरण का वकील हरियाढाणा के ठा. पीरदान भैरूसिंहोत था। वकील अपने ठिकाणे और राज्य प्रशासन के मध्य सम्पर्क सूत्र था। वह ठिकाणा के प्रतिनिधि के रूप में सदैव राजधानी में रहा करता था और वहां की गतिविधियों की जानकारी ठिकाणेदार या कामदार को दिया करता था। इसे कभी-कभी किसी विशेष जिम्मेदारी का निर्वहन करने पड़ोसी ठिकाणे, राज्य या रेजीडेन्सी में भी भेजा जाता था।40

दरोगा - यह पोकरण शहर से सम्बन्धित पुलिस अधिकारी था जिसके जिम्मे शहर की सुरक्षा और चोरी तथा अनैतिक गतिविधियों पर रोक लगाने का दायित्व था।

पुलिस प्रशासन - पोकरण ठिकाणे के पास प्रथम श्रेणी के फौजदारी अधिकार होने के कारण अपनी पुलिस व्यवस्था रखने की इजाजत थी।41 अपने ठिकाणे में हत्या और राजमार्ग डकैतियों के अलावा उन्हें अन्य आपराधिक घटनाओं की खोज और जांच का अधिकार था। इन्हें पुलिस अधीक्षक के निरीक्षण के निमिŸा आपराधिक घटनाओं का अभिलेखन करना होता था। हत्या और डकैतियों की जांच करना राज्य पुलिस के जिम्मे था।42 गांवांेे में कोई पृथक पुलिस व्यवस्था नहीं थी। ठिकाणे के सैनिक थानों में नियुक्त किए जाते थे। गांवों के लोग अपने व्यय पर चौकीदार नियुक्त करते थे।43 पुलिस कार्यवाहीे से सम्बन्धित अनेक रिकॉर्ड पोकरण की बहियों में दर्ज है।44

न्यायिक प्रशासन - पोकरण ठिकाणेदारों को अव्वल दर्जे के दीवानी और फौजदारी के अधिकार (अख्तियार) हासिल थे।45 पोकरण के ठाकुरों को सिविल मुकदमें जो 1000 रूपए तक के होते थे, को सुनने का अधिकार होता था और वे फौजदारी मुकदमे में 6 माह तक की कैद एवं 300 रूपए तक जुर्माना कर सकते थे। जुर्माना नहीं देने की स्थिति में 3 माह की जेल दे सकते थे।46 सिविल मुकदमा उपरोक्त वर्णित सीमा से अधिक होने की दशा में वह मामला चीफ कोर्ट में भेज सकता था। यदि चीफ कोर्ट को यह आभास होता कि वह मामला ठिकाणेदार के लिए जटिल होने के कारण उचित ढंग से निस्तारण करने में सफल नहीं हो पाएगा तो वह मामला स्टेट कोर्ट को भेज सकता था, अन्यथा ठिकाणेदार को पुनः भिजवा सकता था। फौजदारी मामलों में ठिकाणेदार के अधिकार सेंशन जजों की अपेक्षा कम थे। दिवानी मामलों के समान ही ठिकाणा कोर्ट के निर्णयों के विरूद्ध जिला कोर्ट में अपील की जा सकती थी। 1933 ई. में ठिकाणेदारों के न्यायिक शक्ति अधिनियम 1915, में संशोधन करके ठिकाणेदारों के लिए निम्नालिखित दो बाते माननी आवश्यक थी एक तो सहायता के लिए उचित योग्यता प्राप्त न्यायिक अधिकारी की नियुक्ति प्रशिक्षित, सेवानिवृत या किराये पर जोधपुर राज्य के या अन्य किसी प्रतिष्ठित राज्य के पुलिस अधिकारी को लेकर उसे ठिकाणा पुलिस में नियुक्त करना। ज्ञातव्य है कि पोकरण ठिकाणे के ठिकाणेदार ठा. चैनसिंह स्वयं न्यायिक क्षेत्र में जानी मानी हस्ती थी।47 न्यायिक प्रक्रिया त्वरित थी। न्यायिक वाद सामान्यतः एक ही सुनवाई अथवा एक ही दिन में निपटा दिए जाते थे। एक दिन में निर्णय नहीं हो पाने की अवस्था में अगले दिन दोपहर तक हर हाल में निर्णय सुना दिए जाते थे। अधिकारियों को आदेश था कि शाही कोर्ट में जाने वाले प्रार्थियों को नहीं रोका जाए।48 अभियुक्तों से सच उगलवाने के लिए उन्हें अग्नि परीक्षा देने अथवा पिटाई की जाती थी। यदि किसी चोर के पदचिन्ह किसी गांव विशेष तक जाते थे तो सम्पूर्ण गांव पर चोर को पकडने का दबाव पड़ता था अथवा उन पर सामूहिक जुर्माना (चोरी गई सम्पŸिा के मूल्य तक) लगाया जाता था। चोरों के हाथ पांव बांधकर बंदीगृह या कोतवाली चबूतरे में रखा जाता था और चौकीदारों द्वारा निगरानी की जाती थी। चोरों के हाथ पांव काटने, माथों पर दागना, गधे पर मुंह काला करके बाजार में घुमाना, जुर्माना, निर्वासन के भी दण्ड दिए जाते थे। निम्न जाति के लोगों को खुले मैदान में सांकल से बांध दिया जाता था। कुछ को कोतवाली ओर कुछ को गढ या किले में रखा जाता था। बंदियों को एक छोटे स्थान पर अस्वच्छ वातावरण में रहना पड़ता था। ठिकाणे की तरफ से बंदियों के खाने पीने की व्यवस्था नहीं की जाती थी।49 जानलेवा हमला, मारपीट, जुआखोरी, धोखाधड़ी, चाप चोरी, अवैध विवाह, किसी को अवैध ढंग से बंदी बनाना, सम्पŸिा को नुकसान पहुंचाना, सिक्कों का अवैध निर्माण खेती, तबाह करना, घर तोड़ना, चोरी, अपराधी की सहायता करने, किसी के घर को आग लगाना, कम तौलना, गबन, सरकारी करों की अदायगी नहीं करना जैसे अपराधों के उदाहरण पोकरण की बहियों से मिलते हैं। अभियुक्तों पर सामान्यतया जुर्माना लगाया जाता था। जुर्माने की रकम, समय और जाति पर निर्भर करती थी। उदाहरण के लिए चाप चोरी (बलात्कार) के अपराध में दण्ड अभियुक्त की प्रतिष्ठा और विŸाीय स्थिति पर निर्भर करता था। एक निम्न जाति के आदमी पर 11 रूपए का जुर्माना अपनी ही जाति की स्त्री पर बलात्कार करने की स्थिति में आरोपित किया जाता था। एक चमार पर 2 रूपए का जुर्माना था। बाल विवाह के बाद नाता नहीं करने की दिशा में भी लड़के या लड़की के पिता पर जुर्माना लगाया जाता था। तलाक के मामले में पति को पत्नि के जीवित रहने तक उसका भरण-पोषण करना होता था। हत्या करने की स्थिति में भी जुर्माना लगाया जाता था। गांव के चौधरी पर यह जुर्माना 125 रूपए, भौमिया राजपूत पर 51 रूपए और भाटी राजपूत पर 251 रूपए था। एक उच्च कुल के राजपूत द्वारा हत्या या अपराध स्वीकार कर लेने पर 500 रूपए का जुर्माना लगाया जाता था। यह रकम मृतक की पत्नी को दे दी जाती थी। इस प्रकार जुर्माना पद्धति आय का एक स्त्रोत बन गई। सजा से बचने के लिए अपराधी, धार्मिक स्थानों यथा मंदिरों, मठों, आश्रम में, प्रमुख ठाकुरों अथवा महाराजा के करीबी रिश्तेदारों के यहां शरण ले लेते थे। एक बार यहां शरण लेने पर अभियुक्तों को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता ।50

ग्राम प्रशासन - ग्रामीण क्षेत्रों के प्रशासन में पटवारी  चौधरी या पटेल, चौकीदार, पंच इत्यादि प्रमुख व्यक्ति थे। पटवारी, भू-कागजात तैयार करने एवं राजस्व संग्रहण से सम्बन्धित था। चौधरी या पटेल जो वंशानुगत अधिकारी था, वह प्रशासन और जनता के बीच संबंध स्थापित करने का माध्यम था। उसका प्रमुख कार्य अपने क्षेत्र में शान्ति स्थापित करना तथा कर वसूली में राजकीय अधिकारियों को स्नेह देना था। वह गांव के सभी प्रकार के झगड़ो को निपटाता था और ग्रामवासियों की समस्याओं के प्रति राजकीय ध्यान आकृष्ट करता था। ग्राम वासियों के कल्याण के लिए वह सदैव जागरूक रहता था। अपनी सेनाओं के बदले राज्य की ओर से उसे कर मुक्त भूमि ’नानकर’ प्राप्त रहती थी। इसके अतिरिक्त लगान में से कुछ भाग (पंचोतरी) उसे दिया जाता था।51 गांव के कनवारियां भू-राजस्व से जुडे ब्रह्मण पदाधिकारी थे। ये लोग किसानों की उपज की सुरक्षा तथा ठिकाणे और कृषक के हिस्से का निर्धारण करते थे। इन्हें गांव के बिना किराए वाली मुफ्त भूमि मिला करती थी। कृषकों से उपज का कुछ हिस्सा भी वेतन स्वरूप प्राप्त करते थे। करवारिया भूमि की माप जोख ‘बिसवा’ के आधार पर करते थे। तत्पश्चात् प्रत्येक प्रकार की फसल के क्षेत्र का विस्तृत विवरण तैयार करते थे। भू-राजस्व निर्धारण की कूंता प्रणाली या अंदाजा प्रणाली ही अधिक प्रचलित थी।52

गांव के चौधरी या पटेल की अध्यक्षता में एक पांच सदस्यीय पंचायत होती थी। गांवों में शान्ति और सुरक्षा बनाए रखना और ग्राम प्रशासन में सहयोग प्रदान करना पंचायतों का मूल कर्तव्य था। भूमि सम्बन्धी झगडे, खेत व गांव की सीमा के विवाद, चोरी, मिलावट, अपहरण, बलात्कार (चाप-चोरी), विवाह सम्बन्धी झगड़े, व्याभिचार का आरोप, कुटुम्ब की कटुता, आदि की जांच करना और अपराधी को दण्ड देना इत्यादि गांव पंचायत के कार्य होते थे। जाति विशेष के आपसी झगड़ो का निस्तारण जाति पंचातयों द्वारा किया जाता था।53 जाति पंचायतों द्वारा अपनाई गई दण्ड व्यवस्था में प्रायश्चित, क्षमादान, अर्थदण्ड, तीर्थ यात्रा द्वारा शुद्धिकरण, जाति भोज देना, जाति बहिष्कृत आदि सम्मिलित थे।54 ग्राम पंचायतें केवल जुर्माना लगा सकती थी। पंचायतों के निर्णयों से असन्तुष्ट होकर प्रार्थी ठिकाणेदार या महाराजा के समक्ष अपील कर सकता था किन्तु सामान्यतया वे इनके मामले में हस्तक्षेप नहीं करते थे।55

जन उपयोगी सेवाएँ - ठा. बभूतसिंह और उसके बाद के पोकरण ठाकुर उदारवादी छवि के थे। इन्होंने लोगों को सार्वजनिक हित की सुविधाएं उपलब्ध कराने के प्रयास किए, विशेषकर स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में। 1869 ई. में पडे़ भीषण दुर्भिक्ष के समय ठा. बभूतसिंह ने जनकल्याण हेतु कम दामों पर अन्न उपलब्ध करवाया और व्यय राशि स्वयं वहन की।56 1922-23 ई. में ठाकुर मंगलसिंह ने अपने खर्च पर पोकरण में पहली डिस्पेंन्सरी खुलवाई । यहां रियायती दरों पर अंग्रेजी दवाएं उपलब्ध की जाती थी।57 चेचक टीकाकरण के क्षेत्र में भी पोकरण ठाकुरों के द्वारा सजगता प्रदर्शित की गई। 1885 ई. के लगभग टीकाकरणकर्मियों की नियुक्ति की गई। प्रारंभ में रेजीडेन्सी सर्जन के आने पर ही टीकाकरणकर्मियों को वेतन मिलता था परन्तु बाद में इन्हें ठाकुर की ओर से नियमित वेतन मिलने लगा। जाति के हिसाब से टीका-करण कर्मी नियुक्त किए गए। पर्दे में रहने वाली महिलाओं के लिए ब्राह्मण टीकाकरणकर्मी और निम्नवर्ग की महिलाओं के लिए निम्नवर्गीय टीकाकरणकर्मी नियुक्त किए गए। इससे टीकाकरण कार्यक्रम के प्रति लोगों की आपŸिायाँ कम हो गई।58 पोकरण के ठा. मंगलसिंह ने मई 1914 से कार्यशील जोधपुर फलोदी रेल मार्ग को पोकरण तक लाने के प्रयास किए किन्तु यह कार्य 1968 से पूर्व सम्पन्न नहीं किया जा सकता।59 1901 ई. में पोकरण में एक डाकघर था। ठा. मंगलसिंह के समय में एक वर्नाकुलर स्कूल भी खोली गई थी।60

स्थानीय स्वशासन - पोकरण ठिकाणा मारवाड़ में जोधपुर के बाद पहला शहर था जहां नगरपालिका स्थापित हुई। पोकरण के बुद्धिजीवियों प. मदनमोहन छंगाणी, लीलाधर व्यास, गोवर्द्धनदास चाण्डक व सुन्दरलाल राठी इत्यादि ने पोकरण के तत्कालीन ठा. चैनसिंह से भंेट करके पोकरण में नगरपालिका की स्थापना का सुझाव व विकास की रूपरेखा प्रस्तुत की। उदारवादी और प्रगतिशील विचारक ठा. चैनसिंह के सुझाव को जोधपुर रियासत को अपनी अनुशंसा सहित प्रेषित किया। प्रयास फलीभूत हुए और 1936 ई. ठा. चैनसिंह ने संयुक्त रूप से एवं सर्वसम्मति से चयनित असाम्प्रदायिक नगरपालिका का उद्घाटन किया। विद्वान किशनलाल दवे अध्यक्ष बने और दस सदस्यों को मनोनीत किया गया। 1940 ई. में पोकरण ठिकाणे के कामदार अधिवक्ता रतनलाल पुरोहित (गुचिया) को नगरपालिका का अध्यक्ष मनोनीत किया गया।61

पोकरण के ठाकुरों के प्रशासनिक विशेषाधिकार

जोधपुर की राजनीति और प्रशासन में पोकरण के ठाकुरों का अठारहवीं शताब्दी के तीसरे दशक से देश की आजादी तक विशिष्ट स्थान रहा। वे लंबे समय तक जोधपुर राज्य के प्रधान रहे। दरबार और राज्य प्रशासन में उनके विशेषाधिकार अग्रलिखित हैं - 

1) इन्हें दरबार में बुलाने के लिए महाराजा की ओर से खास रूक्का भेजा जाता था।62

2) इन्हें दोवड़ी ताजीम प्राप्त थी।

3) दरबार में पोकरण के ठाकुर के आनेे पर ड्योढ़ीदार विशेष उद्घोष करता था। उदाहरण के लिए ठा. मंगलसिंह के समय था-

‘‘मंगलसिंह गुमानसिंह खांप चांपावत, हाजर महाराजा सलामत हथी नाथ सलामत’’63

4) सिरायत अर्थात् दरबार में सबसे आगे बैठने का अधिकार  था। महाराजा के जीवणी (बाईं ओर) मिसल में।64

5) अव्वल दर्जे के फौजदारी और दीवानी अख्तियार हासिल थे।65

6) दरबार में सर्वप्रथम नजर और निछरावल करने का अधिकार66

7) दरबार में हाजिर होकर नजर करने और ड्योढ़ीदार द्वारा उसके नाम की सलामती बोलने पर महाराजा का खडा होना और उसके जाते समय भी खड़े होना।

8) महाराजा द्वारा हाथी पर यात्रा करते समय पोकरण के ठाकुर महाराजा के पीछे मोरछल लेकर बैठते थे।67

9) महाराजा द्वारा सनद लेख द्वारा अपने क्षेत्र में विशेष आबकारी अधिकारी समय-समय पर दिए गए पोकरण के ठा. मंगलसिंह के नाम वि.सं. 1943 को ऐसा ही एक सनद लेख लिया गया।68

10) पोकरण ठाकुरों को विशिष्ट मौके पर सिरोपाव और आभूषण प्रदान किए गए। उदाहरण के लिए (1857 ई. वि.सं. 1914 के वैसाख बदि 5) के दिन पोकरण ठा. बभूतसिंह की पुत्री के विवाह का  सावा निकाला गया। इस अवसर पर महाराजा तख्तसिंह की ओर से ठा. बभूतसिंह को दो मोतियों की कंठी, एक सिरपेच, सिरोपाव प्रदान किया गया। सिरोपाव के अवसर पर 6 प्रकार के वस्त्र दिए गए। -

1) पेचीतासरी (2) दुसालों गुलपन (3) केसरिया दुपट्टा

(4) खीनखाप (5) चीलांदर (6) 2 फुलकारी का थान

बभूतसिंह के जवाई गोपालसिंह अणदसिंघोत जो उदयपुर के जाजपुर ठिकाणे से सम्बन्धित था, को 1 मोतियों की कंठी, 1 घोड़ा तथा सिरोपाव जिसमें 6 प्रकार के उपरोक्त वर्णित वस्त्र प्रदान किए गए। जनाना  को भी एक कड़ा दुशाला इनायत की गई। ठा. बभूतसिंह के दो आदमियों को कड़ा दुसाला दी गई जिसमें एक नरूका मदनसिंह था। वि.सं. 1915 में ठा. बभूतसिंह को पाघमंदी लकसूंबल, दुपटो चीलादंर वीरांफरदो सिरोपाव इनायत हुआ।69

पोकरण के ठा. सालमसिंह सवाईसिंहोत को 1816 ई. (प्रथम जेठ वदि 1873) को प्रधानगी इनायत की गई। इस अवसर पर जवाहरखाना जरजरखाना से 1 मोतियों की कड़ी (दोवड़ी) 1 कीमत 350/- सीरपेच राजाशाही, कड़ा अजनार को सीलखाना से, 1 तलवार व 1 कटारी फीलखाना से, एक हाथी, एक पालकी प्रदान की गई।70

(11) वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारियों के जोधपुर आगमन पर प्रधान के नाते पोकरण ठाकुर उनकी पेशवाई (अगवानी) करते थे। वि.सं. 1913 की मिति चैत्र वदी 13 के दिन जब एजेण्ट शेक्सपीयर के बदली चले जाने पर उसका स्थान लेने वाले एजेण्ट मेसन की ठा. बभूतसिंह ने पेशवाई की।71

(12) विशिष्ट सम्मान जोधपुर के शासकों के अतिरिक्त जोधपुर आने वाले अन्य शासकों द्वारा भी दिए जाते थे- 1854 ई. (वि.सं. 1911 मिति चैत्र. सुदी 8) के दिन जयपुर महाराजा के चार ठाकुरों को कुरब बहांपसाव हनायत किया-

1) पोकरण 2) आउवा 3) रायपुर 4) कुचामणा72

13) पोकरण के ठाकुरों को सामान्य पट्टों के अतिरिक्त बेतलबी सनदें भी दी जाती थी जिनकी आमदानी पर रेख नहीं देना होता था। ठा. बभूतसिंह को 13 गांव बेतलबी में दिए गए।73 

14) महाराजा तख्तसिंह ने ठा. बभूतसिंह और आगामी पीढ़ियों को रेख, चाकरी, हुकुमनामा देने से मुक्त कर दिया। जागीर की सम्पूर्ण आय का वे स्वयं उपभोग कर सकते थे।74

ठिकाणा पोकरण में अपनाई गई प्रशासनिक व्यवस्था जोधपुर राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था का ही सूक्ष्म रूप था। ठिकाणे के आकार के अनुरूप प्रशासनिक कर्मचारी काफी मात्रा में नियुक्त किए गए। ठा. बभूतसिंह ने अधिकांश समय ठिकाणे में रहकर प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार करके व्यवस्था को पुष्ट किया। इस प्रशासनिक व्यवस्था में पर्याप्त विकेन्द्रीकरण था किन्तु ठिकाणेदार का सामान्य जन से न्यून सम्पर्क इस व्यवस्था की एक बड़ी कमी थी। 

पोकरण ठिकाणे की अर्थव्यवस्था

पोकरण मारवाड़ के पश्चिमी  क्षेत्र के मरूभूमि में स्थिति मारवाड़ का प्रमुख ठिकाणा था। सामरिक दृष्टि से यह महत्वपूर्ण था। जैसलमेर के भाटी इसे प्राप्त करने के सदैव इच्छुक रहे। समय-समय पर भोमियों के उत्पात भी यहां होे रहे थे। इस समस्या से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए यहां एक बड़ा ठिकाणा स्थापित किया गया जिससे उपरोक्त समस्या का प्रभावी समाधान किया जा सके। 1728 ई. में इस ठिकाणे का पट्टा राज्य के प्रधान चाम्पावत ठा. महासिंह को दिया गया । 

इस पट्टे का विवरण75

56443) पोकरण के गांव 72 व रामदेवजी के मेले

 9640) तफै दुनाडा के गांव

  4100) दुनाडा

  5540) मजल

66083) गांव - 74  


मजल और दुनाड़ा गांव प्रधानगी पद पर सेवा के उपलक्ष्य में दिए गए थे। पोकरण के पट्टों के गांवों की संख्या अधिक थी किन्तु उनका आय तुलनात्मक रूप से कम थी। ठा. महासिंह से पूर्व पोकरण का पट्टा नरावत राठौड़ चन्द्रसेन सबलसिंघोत के पास था बादशाह शाहजहां के दरबार में पोकरण सातलमेर के नाम से 800000 दाम में अंकित था। महाराजा जसवंतसिंह ने 1648 ई. (वि.सं. 1705 रा वैसाख मांहे) में 41000) रूपए के पट्टे के रूप में नरावत चन्द्रसेन को पोकरण का पट्टा दिया। 

चन्द्रसेन के पट्टे का विवरण76

40 गांव 

27060) रू पोकरण के गांव के

10000) कसबा पोकरण 

400) चाचा बांभण 1

200) भींवों भोजो 1

400) घूहडसर 1

500) ऊधरास 1

800) बांभणु 1

1000) छायण

100) थाट

70) गाजण कालर री सरेह

200) बलहीयो 1

200) दूधीयो 1

150) भोपी री सरेह 1

250) ढंढ री सरेह 

900) बड़ली

1500) पचपदरो 1

400) माहव 1

1050) झालरीया 2

500) जसवंतपुरो 1

1000) मंढलो 1

250) राहड रौ गांव 1

150) जैसिंघ रौ गांव 1

80) गोभटीया में हर कालर 

150) राहयो 1

100) नेहड री सरेह 1

50) सोढ़ा री सरेह 1

250) गलरां री सरहे

1000) बांणीया बांभण

800) काला बांभण 1

1500) लोहवो

700) ढंढ 1

1000) खारो 1

500) चांदसमो

150) केलावो

100) एका

400) खालत सरवण री सरहे

100) खेतपालीयां री सरेह

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