अध्याय - 7 : समाज और धर्म
सामाजिक संरचना -
पोकरण मारवाड़़ की रियासत की पश्चिमी सीमा पर जैसलमेर की सीमा से सटा हुआ मरूस्थलीय
ठिकाणा था। पवित्र भूमि रामदेवरा के संत बाबा रामदेव की कर्मभूमि पोकरण में उनकी
शिक्षाओं के अनुकूल सामाजिक सद्भाव की झलक दिखाई देती थी। विभिन्न धर्म
सम्प्रदायों की उपस्थिति के बावजूद यहां कभी भी साम्प्रदायिक विरोध उत्पन्न नहीं
हुआ। ठिकाणा पोकरण में हिन्दुओं का जनसंख्या अनुपात सर्वाधिक रहा है। हिन्दू समाज
चार वर्णो में बंटा था। यह वर्ण आगे अनेक जातियों में विभक्त था। ब्राह्मणों का
स्थान वर्णो में सर्वोच्च था किन्तु शक्ति और संसाधन राजपूतों के पास रहे।
पुष्करणा ब्राह्मण स्वयं को पोकरण के स्थापनकर्ता मानते रहे है। श्रीमाली
ब्राह्मणों का आगमन बाद में हुआ। साकलद्विपीय ब्राह्मण (भोजक) या सेवक ब्राह्मण
काफी बाद में पाकिस्तानी क्षेत्र में आए थे तथा मुख्यतः मंदिरों में पूजा कर्म ही
करते रहे है। व्यास, बिस्सा, जोशी, त्रिवेदी, पल्लीवाल, सेवक
इत्यादि ब्राह्मण कुल पोकरण में रहते हैं। राजपूतों में राठौड़ो में चाम्पावत राठौड़, पोकरणा राठौड़, जयसिंघोत राठौड़, नरावत
राठौड़, भाटियों में जसोड़, जैसा, रावलोत, केलण इत्यादि भाटी, तंवर, पंवार, देवड़ा (बिलिया) आदि राजपूतों कुलों का यहां
निवास है। प्रारंभ में परमार, पंवार, प्रतिहार जैसे राजपूतों कुलों की विद्यमता के
भी साक्ष्य मिले हैं किन्तु ये राजपूत कुल यहां से पलायन कर गए। किंवदन्ती है कि
पोकरण रामदेवजी ने बसाया था जो स्वयं तंवर राजपूत थे। उनके वंशज आज भी रामदेवरा
में पूजा-कर्म करते हैं। बीठलदासोत चांपावत राठौड़ों को पोकरण का पट्टा दिए जाने से
पूर्व इस क्षेत्र में पोकरणा राठौड़ों का वर्चस्व रहा। कालान्तर में नरावत राठौड़ो
ने छल से पोकरण क्षेत्र इनसे हस्तगत कर लिया। लगभग 90 वर्षों तक जैसलमेर के भाटी
शासकों का पोकरण पर अधिकार रहा जिससे बडी संख्या में भाटी राजपूत यहां बस गए।
पोकरणा राठौड़ और भाटी राजपूत इस क्षेत्र में लूटपाट के लिए कुख्यात रहे हैं।
पोकरण में वैश्य समुदाय आबादी में सदैव सर्वाधिक रहे। इससे पता चलता है कि पोकरण
की बसावट से ही आर्थिक दृष्टि से यह शहर
महत्वशील रहा है। वैश्य वर्ण में माहेश्वरियों की संख्या सर्वाधिक रही। भूतड़ा, राठी, चाण्डक
इत्यादि माहेश्वरी कुलों की संख्या अधिक रही। यह माना जाता है कि माहेश्वरी जाति
के लोग पूर्व में क्षत्रिय वर्ण से थे किन्तु वणिक कर्म अपनाए जाने के कारण वैश्य
वर्ण में परिगणित हुए। बाद में खान-पान में इन्होंने निरामिष को अपना लिया। भूतड़ा
माहेश्वरी समुदाय पोकरण में सबसे पहले आकर बसा हुआ माना जाता है। पोकरण के समीप
खींवज माता का मंदिर, जो भूतड़ा माहेश्वरियों की कुलदेवी है
पर स्थापना तिथि वि.सं. 1028 (971 ई.) अंकित है। इससे उपरोक्त तथ्य की पुष्टि की
जा सकती है। भैरव राक्षस भूतड़ा कुल का माहेश्वरी माना जाता था। पोकरण ठिकाणे को इन
वणिक वर्णों से पर्याप्त धन राशि करों के रूप में प्राप्त होती थी। जन्म-विवाह
इत्यादि समारोह के अवसर पर इस समुदाय से चिरा के रूप में अच्छी खासी रकम प्राप्त
होती थी।1 माहेश्वरियों द्वारा पूर्तकर्म करने के उद्देश्य से प्याऊ, तालाब, मंदिर
इत्यादि बनवाए। ओसवाल वैश्य देश की आजादी के समय बड़ी संख्या में यहां से पलायन कर
गए।
चतुर्थ वर्ण में माली, बुनकर, चाकर
(रावणा राजपूत), दर्जी, जाट, सुनार, तेली, स्यामी (स्वामी), मोची, नाई, कुम्हार, धोबी
इत्यादि आते थे। कुछ स्थानीय लोगों की यह मान्यता है कि पोकरण पोकर माली का स्थान
था। पहले यहां माली और मोची रहा करते थे। एक दिन संयोग से एक राजपूत यहां पहुंचा।
मालियों ने उसे अपनी सुरक्षा के लिए उसे रूकने को कहा तथा उसके लिए एक कोठरी बनवा
दी। उस कोठरी के निकट एक रात्रि एक सिंह ने एक बकरी के बच्चे का भक्षण करना चाहा।
बकरी ने जबरदस्त संघर्ष करते हुए सिंह के इस प्रयास को विफल कर दिया। तदुपरान्त
घटना वाले स्थल को पवित्र भूमि समझ कर वहां एक पोल बनवा कर चारदीवारी बनवाई गई।
पोकरण का पुराना मुख्य द्वार इसी स्थान पर निर्मित किया हुआ बताया जाता है।
मोहनसिंह ने बयलों के पर्सनल नैरेटिव को उद्घृत
करते हुए ठा. बभूतसिंह के समय निम्नलिखित जनसंख्या संरचना बताई है -2
1. माहेश्वरी
वैश्य - 2500 2. चाकर - 1750
3. पुष्करणा
- 1500 4. माली -
750
5. बुनकर
-
625 6. ओसवाल - 500
7. दर्जी - 500 8. जाट -
275
9. सुनार -
250 10. तेली - 200
11. स्यामी - 200 12. मोची -
200
13. नाई - 200 14. कुम्हार -
150
15. भील - 100 16. पल्लीवाल
ब्राह्मण - 100
17. श्रीमाली - 100 18. राठौड़
राजपूत - 100
19. मेहतर
(हरिजन) - 50 20. लोहार - 45
21. कलाल - 25 22. डाकोत
- 25
कुल आबादी - 10160 हिन्दू
हिन्दुओं
के बाद पोकरण में आबादी की दृष्टि से मुसलमान थे। मुसलमानों का पोकरण में आगमन
सर्वप्रथम कब हुआ, इसके विषय में कोई स्पष्ट जानकारी
उपलब्ध नहीं है। ठा. सवाईसिंह के समय एक सिंधी शहजादे (सिंध के नवाब का भतीजा) का
करोड़ांे की सम्पŸिा के साथ (1784-85 ई.) में पोकरण आकर
बसने का किस्सा हमें प्राप्त हैं।3 संभवतः तभी मुसलमान आकर बसे थे। पोकरण में एक
प्राचीन मस्जिद भी है जहां वर्षों से इस्लामी पद्धति से शिक्षण कार्य किया जा रहा
है।
ठा.
बभूतसिंह के समय मुसलमानों की जनसंख्या संरचना निम्नलिखित थी।4
(1) मुजावर -
750 (2) खतरी (छतरी) -
400
(3) बलोच (रैबारी)- 250 (4) पिनारा -
60
(5) सिलावट -
50 (6) फकीर -
50
(7) लखेरा -
25 (8) चूड़ीगर (हाथी-दांत) - 10
(9) महावत - 10 (10)
सिकलीगर - 10
कुल मुसलमान - 1615
पोकरण
के किले के सुरक्षा प्रहरी गोमठिया मुसलमान थे। ये सुरक्षा मामले में बड़े सख्त और
समय के पाबंद थे। नियम समय अर्थात् 8 बजे शहर की चारदीवारी के द्वार बंद कर दिए
जाते थे। एक बार स्वयं ठा. मंगलसिंह जोधपुर से पोकरण आते हुए पोकरण पहुंचने में कुछ लेट हो गए। किन्तु इन सुरक्षा
प्रहरियों ने काफी समझाइश के बाद भी द्वार नहीं खाले। अन्ततः ठाकुर साहब को रात
चारदीवारी के बाहर ही गुजारनी पडी। अगले दिन पहरे पर तैनात सुरक्षा प्रहरी को
उन्होंने स्वयं पुरस्कृत किया। रतन खां नामक एक गोमठिया मुसलमान उन्नति करते हुए
किलेदार के पद तक जा पहुंचा। उसकी मृत्यु के पश्चात् ठिकाणे की ओर से मौसर किया
गया।5
सिख
धर्म का भी पोकरण में पदार्पण हुआ किन्तु स्थानीय लोगों को प्रभावित करने में यह
असफल रहा। वर्तमान में पोकरण रेलवे स्टेशन के समीप एक गुरूद्वारा है। यह माना जाता
है कि गुरूनानक की बाबा रामदेव से भेंट के बाद यहां गुरुद्वारा स्थापित किया था।
खान पान -
पोकरण
ठिकाणे के लोगों का खाना सादा और सरल था मुहता नैणसी पोकरण में जल की पर्याप्त
उपलब्धता और गेंहू की खेती किए जाने का विवरण देता था।6 किन्तु स्थिति वास्तविकता
से परे थी। जल की उपलब्धता सीमित थी। पोकरण कस्बे के समीप के गांव-ढाणियों में जो
मुख्यतः मालियों से संबन्धित थे, में
बडे-बडे़ खड़ीनों में संभवतः गेहूं बोया जाता था। इस पर भी यदि वर्षा अच्छी होती तो
अच्छी फसल निकल जाती थी। पोकरण से कुछ दूरी पर स्थित गांवों में खेती-बाड़ी न के
बराबर थी क्योंकि इस क्षेत्र में तो न पर्याप्त वर्षा होती थी और न ही भूगर्भीय जल
स्त्रोत ही पर्याप्त थे। खेती-बाड़ी के लिए जल-उपलब्धता तो दूर, लोगों के लिए पेयजल की भी भारी किल्लत रहती थी।
सामान्यतया गांवों में एक कुंआ होता था किन्तु कुछ गांवों में एक भी कुंआ नहीं था।
उन्हें अपनी पेयजल आवश्यकताओं के लिए दूसरे गांवों पर निर्भर रहना पड़ता था। सांकडा
गांव जो पूर्व से पश्चिम लगभग 18 कि.मी. और उŸार
से दक्षिण लगभग 12 कि.मी. विस्तृत था, में
अनेक ढ़ाणियां थी किन्तु कुंए मात्र 3 थे। ऐसी स्थिति में गांव वालों को बारी-बारी
से अपनी जल की आवश्यकताओं की पूर्ति करने और पशुओं को जल पिलाने का समय निश्चित
किया गया। मानव और पशु जनसंख्या अधिक होने के कारण 24 घण्टे कुंओं को संचालित करना
पड़ता था। एक व्यक्ति की दो दिन बाद बारी पड़ती थी।
इन
कठिन परिस्थितियों की वजह से स्थानीय
लोगों ने पशुपालन को पेशे के रूप में अपनाया। उन्होंने ऐसे पशु अपने पास रखे जो कम
जल में काम चला सकते थे। उन्होंने ऊँट (साण्डिये), गाय, भेड़े, बकरियाँ जैसे पशुओं को पाला जिनकी जलीय आवश्यकता कम थी। पोकरण ठा.
मंगलसिंह के पास 1000 से अधिक साण्डिये थे। सेवण घास, जाल, कम्भटिया-केर
की झाड़ियों, सांगरिया और बेरी के पर्याप्त होने के
कारण पशुओं के भोजन की कमी नहीं थी। ऊँटों, गायों
(देशी नस्ल) भेड़ो को दो दिन में एक बार जल नसीब होता था। स्थानीय लोगों को कई बार
कई दिन बिना अन्न खाए गुजारने पड़ जाते थे। ऐसी स्थिति में पशु और पशु-उत्पादों की
सहायता से जीवन-यापन करना पड़ता था। यदि
गांव का कोई एक आदमी दो-चार अन्न की बोरी प्राप्त करने में सफल हो जाता तो
वह गांव में अपने खास आदमियों में अन्न का वितरण कर देता था। प्राप्तकर्ता इसे
कर्ज समझ कर अन्न प्राप्त होते ही लौटाने का प्रयास करता था। इस प्रकार दिए जाने
वाले अन्न का मापन बाट के स्थान पर द्रव्य के समान किसी प्रमापित बर्तन में भर कर
किया जाता था। इनमें अधपाई करीब आधे किलो का, अधेला
(अधसेरिया) करीब दो किलो का, पाइली
करीब 4 किलो का था। उपरोक्त वर्णित परिस्थितियों के कारण अनेक अभावग्रस्त लोगों को
डाकेजनी की ओर प्रवृत होना पड़ा। सामान्य लोगों के खानपान में दही, रायता, छाछ, घी, दूध, बाजरी के आटे की खीर, सांगरी, केर, कुम्भटिया, दालें, पीलू, खजूर, बेर, मीठी
गुड की लापसी सम्मिलित थे। शराब और मांस का सेवन केवल राजपूतों में प्रचलित था।
ब्राह्मण-वैश्य में इनका सेवन धार्मिक-सामाजिक रूप से वर्जित था जबकि निम्न वर्ण
के लिए इनका सेवन क्षमता के बाहर था। कलाल जाति के लोग गुपचुप तरीके से शराब
निकालते और सेवन करते थे।
भाषा और बोली -
पोकरण क्षेत्र थरडा के अन्तर्गत आता है। यह
भाषागत और मामूली सांस्कृतिक व रीति-रिवाजों में अन्तर का भी सूचक है। यहां
मारवाड़़़़ी बोलने की शैली और शब्द उच्चारण शेष मारवाड़़़ प्रदेश से कुछ भिन्न है।
उदाहरण के लिए -
हिन्दी-(1) तुम कहां जा रहे हो । (2) तुम क्या कर रहे हों।
थरड़ा थली शेष
मारवाड़़
1) तू
केत जाई
तू कठे जाई सिध पधारो
2) तू
की करे
तू कई करें थे सिध
पधारो
पहनावा -
महिलाएं कोहनी से बाजू तक हाथी दांत का चूड़ा
पहनती थी, जो थरडे की एक विशिष्ट पहचान थी।
सामान्य वेशभूषा-सूती घाघरा, चोली, ओढ़ना (लाल) था। गुली रंग (गहरा कबूतरी) अशुभ
रंग माना जाता था। कड़ा-सांटा, आंवला
नेवरी (पांव), डुरगला (कान), हांसली निम्बोली तिमणिया (गले में), बुला (नाक के बीच होठो पर), चांदी की अंगूठी, हथफूल, बिच्छुडी (पांव में), कलाई में गजरा इत्यादि। अंगरखी, ढीली धोटी जिसे टेवटा कहा जाता था, सिर पर पगड़ी, हाथ में लाठी,
सर्दियों में हाथ से बुना कम्बल ओढ़ा
जाता था। राजपूतों और ब्राह्मणों का पहनावा लगभग एक समान था। राजपूत साफा पहना
करते थे जिसे स्थानीय भाषा में पोतियां कहा जाता था। धोती को धोतियां भी कहा जाता
था। ब्राह्मण जनेऊ रखते थे किन्तु हाथ में कड़ा राजपूतों के समान रखते थे। वे अपने
गले में एक अंगोछा रखते है,
इसी से उनकी पहचान होती थी। सफेद रंग
के वस्त्र ही अधिकांशतः प्रचलित थे। वैश्य वर्ण एक अलग तरह की पगडी बांधते थे।कान
में लूंग, गोखरु, मुरखी, सांकली, सोने का कड़ा,
चांदी की अंगूठी इत्यादि का प्रयोग
किया जाता था।
रीति रिवाज - पोकरण क्षेत्र के लोगों द्वारा
अपनाए गए रीति-रिवाज शेष मारवाड़़़ से काफी समानता रखते थे। ये रीति रिवाज जन्म, संगपण, विवाह, मृत्यु इत्यादि से सम्बन्धित हुआ करते थे। कुछ
गलत रिवाज जैसे कि खुशी और गमी में अमल का प्रयोग, बालिका शिशु वध, मौसर, सती इत्यादि भी प्रचलन में थे। पुत्र जन्म पर ही
खुशियां मनाई जाती थी। शिशु का पिता या दादा अपनी हैसियत या इच्छा के अनुसार गांव
वालों को अमल की दावत देता था। पोकरण ठिकाणे में पुत्र विशेषकर ज्येष्ठ पुत्र का
जन्म विशिष्ट उल्लास का मौका होता था। खजाना और कोठार खोल दिए जाते थे। दावत दी
जाती और मिठाइयां बांटी जाती थी। भाटांे-ढ़ोलियांे को अच्छी बख्शीश दी जाती तथा
ब्राह्मण को दान-पुण्य किया जाता था। मारवाड़़़ और अन्य क्षेत्रों के ठाकुरों की
तरफ से नकद रूपया वस्त्र और अन्य भेंट भेजी जाती थी। ठा. भवानी के जन्म क समय
निम्नलिखित की तरफ से भंेट प्राप्त हुईं।7
1. सामोद
ठाकुर की तरफ से 50 रूपए और भेंट
2. चौमूं
ठाकुर देवीसिंह से 50 रूपए और विशेष वस्त्र के 2 थान
3. कोतवाल
रणजीत से 200 रूपए और पाग
4. पीलवा
ठाकुर इन्द्रसिंह और जवाहरसिंह से क्रमशः 5 रूपए और 11 रूपया
5. बामणु
ठाकुर फतैसिंह से 11 रूपए
विवाह - यह विशेष उत्सव का मौका होता था।
सर्वाधिक रीति-रिवाज इसी से सम्बन्धित हुआ करते थे। ब्राह्मणों में विवाह काफी
दूर-दूर होते थे। राजपूतों में भाटी और राठौड़ों में परस्पर विवाह होते थे। बहुत कम
अवस्था में सोढ़ा राजपूतों से लड़की ब्याही जाती थी पर सोढ़ा राजपूत कन्या से विवाह
से कोई परहेज नहीं था। इसी प्रकार देवड़ा राजपूत कन्या से भाटी और राठौड़ विवाह तो
अवश्य कर लेते थे किन्तु अपनी कन्या इससे नहीं ब्याहते थे। इसलिए वे विवाह के लिए
पोकरण से दूर सोढ़ा राजपूतों या देवराज, चाडदेव
या गोगादेव राठौड़ो में विवाह करते थे। तंवर राजपूतों के साथ भी कुछ ऐसी ही दिक्कते
थी। लड़कियाँ कम होने के कारण अनेक पुरुष कंवारे ही रह जाते थे। पांच पुरुषों में
से दो पुरुष अविवाहित रह जाते थे। जिन युवकों का विवाह होता उसे भाग्यशाली माना
जाता था। विवाह से दो-तीन दिन पहले मुहर्त के अनुसार बांधला बिठाया जाता था। उस
समय औरतें वर-वधू को तेल चढ़ाती। इन औरतों में दो कंवारी और दो विवाहित होती थी।
इधर वर को उसके मित्र हल्दी की मालिश करते थे। हल्दी का रिवाज सभी जातियों में
प्रचलित था।
नियत दिन दुल्हा, बारात और ऊँट-बैलगाडी को सजा कर बारात प्रस्थान होता था। सामान्यतया
जितने ऊँट-उतने ही सवार हुआ करते थे। निम्न जातियों में बाराते पैदल ही जाया करती
थी। बूढ़े-बुजुर्गो के लिए एक-दो बैलगाडी साण्डिए रखे जाते थे। बारात में ऊँटों की
विशिष्ट सज्जा की जाती थी। ऊँटो को गोरबंध, मालडा, गादियाँ, पलाण
(लकडी) के बांधा जाता था। ऊँट के दोनो नाकों में दोहरी रस्सी मोरी या नकेल होती
थी। सर्दियों में ऊँट अकसर खीझ जाया करता है इसलिए उसे रस्सी से मुंह के आकार का
मोरखा बनाकर मुंह में पहनाया जाता था तथा साथ में हमेशा डांग (बड़ी लाठी) रखी जाती
थी जिससे काटने की कोशिश में उसे नियंत्रित किया जा सके। पंूछ पलाण के साथ बंधी
रहती थी जिससे वह मूत्र दूसरों पर नहीं डाल सकें। पलाण के नीचे दरी-गद्दे हुआ करते
थे तथा 20-25 किलो चारा साथ में बंधा होता था। लंबे सफर वाली बारात अपने साथ भोजन रखती थी। ऊँट का चारा
ग्वारटी (फलंगटी), पाला (बेरीयों के पते), बाजरे के अवशिष्ट पŸो इत्यादि को मिला कर बनाया जाता था बारात में
एक या दो घोडियाँ रहती थी। बारात में लंगा-ढोली (दमामी) हुआ करते थे। बारात में कम
से कम एक नाई का होना आवश्यक था। बारात 2-3 दिन रूका करती थी। बारात के वधू पक्ष
के गांव पहुंचने पर उनका स्वागत किया जाता था। कुछ देर बाद बारात को कुंवारी बाती
(गुड़-लापसी) दी जाती थी, जो शुभ मानी जाती थी। बरातियों को भोजन
में चावल (शक्कर और प्रचूर घी के साथ), गेंहू
के फाफरे (घी युक्त बटिया),
हलवा, बाजरी के सोगरे, कडी, दाल, सांगरी-केर-कुम्भटिया
की सब्जी, प्याज या बगैर प्याज का रायता इत्यादि
परोसा जाता था। राजपूतों में केवल सम्पन्न
लोग ही बारात को मांस खिलाते थे।
अगले दिन बारात की तरफ से अमल की रेवाण दी जाती
थी। रेवाण में पताशे, मीठी गोलियाँ, सींगोड़ा, मखाना, मिश्री इत्याद थाल में रख दी जाती थी। गांव
वालों को आमंत्रित करने के लिए बारात का नाई एक ऊँची जगह पर चढ कर रेवाण का
आमंत्रण आवाज देकर करता था ‘‘आज
(फलां) गांव से बारात आई है, और
(फलां) कोटडी में आज रेवाण है, सब
पधारजो’’। सभी गांव वाले आसानी से रेवाण
स्वीकार नहीं करते थे। उन्हें मनाकर लाना पड़ता था। अगर एक गांव में बारातें ज्यादा
आती तो गांव का मुखिया एक-एक कर तय करता कि किस समय किसकी रेवाण लेनी है।
पोकरण क्षेत्र में लड़कियों की कमी होने के कारण
अधिकांश अवस्था में पैसा देकर लड़की लाई जाती थी। विवाह के समय रेवाणा का खर्च अधिक
होने के कारण लड़के वालों का काफी खर्चा हो जाता था। बड़े गांव में रेवाण करना बारात
के वश की बात नहीं होती थी। क्योंकि 3-4 किलो अमल खर्च हो जाता था। अतः रेवाण का
आमंत्रण नहीं देकर केवल बरातियों के पास आने वाले गांव वालों को ही रेवाण की जाती
थी। रेवाण में बीडी, हुक्का-चिलम की भी मनुहार होती थी।
प्रातःकालीन रेवाण सुबह 8 से 11 बजे के बीच होती थी और सायंकालीन रेवाणा 4 से 5
बजे के बीच होती थी। लड़की वालों की तरफ से गांव वालों को भोजन कराया जाता था। गांव
के प्रत्येक घर के 1-2 सदस्यों और खास घरांे के परे परिवार बुलाए जाते थे। यदि
लड़की पक्ष (राजपूतों में) मांस (बकरा) की व्यवस्था करते तो बारातियों को अमल के
साथ-साथ शराब की रेवाण भी करनी पड़ जाती थी। विवाह में फेरे सबसे पवित्र क्रिया
समझी जाती थी जिसमें वर-वधू अग्नि के इर्द-गिर्द परिक्रमा करते और सामाजिक सहजीवन
का वचन ग्रहण करते है। पुष्करणा ब्राह्मणों में श्रीमाली ब्राह्मणों के द्वारा ही
वैवाहिक संस्कार सम्पादित करवाएं जाते है। विवाह के अगले दिन वर-वधू को गांव के
पवित्र स्थानों पर परिक्रमा दिलाई जाती थी।
बारात प्रस्थान के समय बारात के लिए संभाल, दहेज (बहुत सीमित था) इत्यादि बांधकर भेजा जाता
था। बाराती 30-35 से अधिक नहीं हुआ करते थे और जितने ऊँट उतने ही बाराती हुआ करते
थे। दुल्हन के साथ उसका एक रिश्तेदार ऊँट पर बैठता था। ऊँट पर रखा बिस्तार रात में ठहरने के प्रयोग में लाया जाता
था। रात में किसी ढाणी के पास बारात रोकी जाती और स्वयं भोजन बनाया जाता था। बारात
के अपने गांव पहुंचने पर सर्वप्रथम नाई लड़के के घर जाकर बारात आने की सूचना देता
और बधाई लेता था। वधू को बंधाया जाता है जिसमें आरती, तिलक, गुड
खिलाना, गीत गाना और वर-वधू को पल्ले के
साथ-साथ घर के द्वार लाया जाता था। तत्पश्चात् सात या नौ थालियों पर दुल्हा पहले
तलवार रखता और वधू उन्हें इकट्ठा कर एक तरफ रखती थी। रात में वधू को पवित्र या
देवस्थान पर रखकर रातीजोगा होता व औरतें गीत गाती थी। सवेरे देवी-देवताओं की
परिक्रमा दी जाती थी। फिर जुई खिलाई जाती थी, तत्पश्चात्
कांकण-डोरड़ा बड़ा कर दिया जाता था।
ब्राह्मण, राजपूत
और वैश्य वर्ण में बाल विवाह नहीं होता था। लड़के में 25-30 वर्ष की आयु में विवाह
होता था। कई दुल्हे तो 50 वर्ष के और लड़कियाँ 15 वर्ष की होती थी। जो कि जबरदस्त
दबाव के कारण होता था। केवल जाट, विश्नोई, कुम्हार एवम् अन्य वर्णांे में बाल विवाह और
गौना होता था। जाट-विश्नोइयों, चर्मकार
इत्यादि जातियों में नाता होता था।
पोकरण ठिकाणे तथा परिवार के सदस्यों के विवाह
उपरोक्त वर्णित वृतान्त से काफी भिन्न हुआ करते था। विवाह काफी धूमधाम से हुआ करते
थे। ठाकुर स्वयं के विवाह अथवा पुत्र, पुत्री
के विवाह की सूचना महाराजा को सर्वप्रथम देता था। निमंत्रण पत्र के साथ नकद रूपए
और भेंट दी जाती थी। महाराजा की तरफ से भी शुभकामनाएं और भेंट प्रेषित की जाती थी।
उदाहरण के लिए सं. 1914 के बैसाख वदि 5 के दिन पोकरण के ठाकुर बभूतसिंह की पुत्री
के विवाह का सावा निकला। इस अवसर पर महाराजा तख्तसिंह की ओर से ठा. बभूतसिंह को दो
मोतियों की कंठी, एक सिरपेच, सिरोपाव प्रदान किया गया। सिरोपाव के अवसर पर 6
प्रकार के वस्त्र - (1) पेचीतासरी (2) दुसालो गुलपन (3) केसरिया दुपट्टा (4)
खीनखाप (5) चीलांदार (6) 2 फुलकारी का थान। ठा. बभूतसिंह के जवाई गोपालसिंह
अणदसिंहोत, जो उदयपुर के जाजपुर ठिकाणे से सम्बन्धित
था, को एक मोतियों की कण्ठी, एक घोड़ा तथा सिरोपाव जिसमें 6 प्रकार के
उपरोक्त वर्णित वस्त्र प्रदान किए गए। जनाना को भी एक-एक कड़ा और दुशाला इनायत की
गई। ठा. बभूतसिंह के दो आदमियों को भी एक कड़ा दुशाला दी गई जिसमें एक नरूका
मदनसिंह था।8
ठिकाणे में विवाहों में शानोशौकत का पूरा ध्यान
रखा जाता थ। ठाकुरों के पुत्रों के विवाह में सजे घोड़ों और ऊँटों और हाथियों का
काफिला मय लवाजमे के साथ होता था।9 पुत्रियों के विवाह के समय बारात को श्रेष्ठतम
स्वागत और आवभगत की जाती थी। ठा. चैनसिंह की पुत्री किशोर कंवर के विवाह के समय
हजारों रूपयों के साटण वस्त्र, जरी
वस्त्र और दुपट्टे की खरीदारी की गई। 194र्2 इ. (वि.सं. 1942 मिति पोष सुदी 2) को
हुए इस विवाह में चार डावड़ियाँ भेजी गई। प्रत्येक को पीतल का एक कटोरदान, सेाने की तिमणियाँ, सोने का बोर, टोटिंयाँ री जोड़ी (लूंग), चांदी
के जेवर यथा बाजुबन्द, पुणछीयां री जोड़ी, बगड़ी जोडी, कड़ला
री जोड़ी, सांटा, नेयरीयां री जोड़ी (पैर), आंवला
री जोड़ी, अंगुठियां, पीतल री थाली, चरियां, बाटकियां, लोटा, चांदी
का पानदान जैसी सामग्रियाँ प्रदान की गई।10
विवाह के सामय लड़के के पक्षवाले अपने साथ ढ़ोली
पातर लेकर चलते थे। लडकी के गाँव के ढ़ोली-पातर भी मौजूद रहते थे। सम्पन्न बाराते
इन पर मुक्त हस्त से धन लुटाते थे। विवाह में चलते हुए भी ढोली-पातरों पर पैसे
उछाले जाते थे।11 विशेष अवसर पर पोकरण ठाकुरों को विशेष अवसरों पर महाराजा की तरफ
से भेंट इत्यादि देकर सम्मानित किया जाता हैं। महाराजा तख्तसिंह द्वारा जोधपुर की
राजगद्दी संभालने के समय ठा. बभूतसिंह को 1 हाथी का होदा चांदी का, 1 पालकी (जयपुर की खास), 2 घोडे़, और
चांदी की मुहरें भेट की गई की भेंट दी गयी।
1872 ई. (वि.सं. 1929) में महाराज जसवंतसिंह ने
ठा. बभूतसिंह को प्रधानगी का सिरोपाव दिया। इस अवसर पर निम्नलिखित वस्तुएं दी गई
1 गहनें- मोतियों की कुड़ी, कड़ा री जोड़ी, सिरपेच,
2 कपडे़ -
1 चीरो फरखसाई, 1 फेटो समुमल लपारो, 1 जामो कसुमल लपा धांगरो।
1 हाथी पालखी सीलामती
1 तलवार, 1
कटारी सीलामती
2 घोड़े सीलामती
चीठी खासा खजाना माथे .... सावण बदी 7 री सं.
1930 में
4000) गेणा
री रकमां रां
2000)
मोतीयां री कडी रां
1000)
मोतीयां रा चोकडा रा
500) कड़ां री जोडी रा
500) सिरपेरच रा
1500) हाथी रा 1000), पालखी रा 500)
5500)12
अंतिम संस्कार - मृत्यु सम्बन्धी रीति-रिवाज
सीधे सादे थे किन्तु खर्चीले थे। गांव और आसपास के गांवों के बडे़ बुजुर्ग
शोकाभिव्यक्ति और सांत्वना देने के लिए शोकालु परिवार के यहां जाया करते थे।
शोकाभिव्यक्ति हेतु आए सभी व्यक्तियों को कुछ खाने-पीने को अवश्य दिया जाता था।
अस्थि-फूलों को गंगाजी में प्रवाहित करने की पम्परा थी। 12 वें दिन शोकग्रस्त
परिवार के सभी सगे सम्बन्धी गांव में इकट्ठे होते थे। कुछ रीति रिवाज के बाद दोपहर
के समय मृतक व्यक्ति के बड़े पुत्र को पाग पहनाई जाने की परम्परा थी। सामान्य पूजा
पाठ के बाद मौसर (मृत्यु भोज) का आयोजन किया जाता था। दूर-दूर के गांव से लोग इस
अवसर पर आते थे। सामान्यतया गुड़ लापसी का भोज होता था। गांव के जो लोग भोज में
नहीं पहुंच पाते उनका हिस्सा (हाथी) भिजवा दी जाती थी। इतने बड़े पैमाने पर लोगों
को भोजन कराने पर से सम्बन्धित व्यक्ति को कर्ज लेना पड़ जाता था, जो कई वर्षो तक नहीं चूक पाता था।
पोकरण ठिकाणे में परिवार के किसी सदस्य की
मृत्यु पर विधि-संस्कार और भी खर्चीला हुआ करता था। खास जलेबी का मौसर भी किया
जाता था।13 ब्राह्मणों को दान में गायं-सोना इत्यादि दिया जाता था। कई दिनों तक
पूजा-पाठ चलता था।14 पोकरण ठाकुर की मृत्यु होने पर महाराज के द्वारा स्वयं जोधपुर
स्थित पोकरण हवेली में शोकाभिव्यक्ति हेतु आने की परम्परा थी। उदाहरण के लिए 20
जुलाई 1929 ई. को महाराजा उम्मेदसिंह पोकरण ठा. मंगलसिंह की मातमपोशी के लिए पोकरण
की हवेली गए। इसके पश्चात् पोकरण ठाकुर चैनसिंह को प्रधानगी की उपाधि व सिरोपाव
दिए गए तथा सलामती बोली गई। इसके अलावा पोकरण के ठाकुर को ताजीम के साथ बांह पसाव
का कुरब बख्शा गया। दिनांक 24 जून, 1947
ई. को पोकरण ठा. चैनसिंह की मृत्यु पर महाराजा पोकरण की हवेली मातमपोशी के लिए गए
तब फिर से प्रधानगी की उपाधि सिरोपाव, कुरब
ताजीम प्रथानुसार बख्शे गए। मातमपोशी के समय अमल की मनवार व मेवेे के थाल महाराजा
को नजर किए जाते थे। मातमपोशी के बाद पोकरण ठाकुर उम्मेद भवन के रंग का फेंटा
बांधकर महाराजा को नजरें पेश करने गए। वहां उन्होंने अमल व सूखे मेवे के थाल, दो घोडे़, सोने
की मुहर, रूपए 11 नजर व रूपए 5 निछरावल किए।
महाराजा ने घोडे़ वापस भेज दिए और बाकी को स्वीकार किया।15
सती प्रथा - स्थानीय लोगों में सतियों के प्रति
देवीतुल्य श्रद्धा थी। पोकरण में सतियों की अनेक छतरियाँ प्राप्त होती है जिनमें
से ज्यादातर पोकरण के ठाकुर परिवार से सम्बन्धित थी। मारवाड़़ रियासत और अंग्रेजी
सरकार द्वारा यह प्रथा प्रतिबन्धित होने पर भी यदा-कदा ऐसी घटनाएं घट जाया करती
थी। उदाहरण के लिए 1856 ई. (वि.सं. 1913 माघ सुद 5) को पोलिटिकल एजेन्ट मालानी में
समेत गया। वापस आते पोकरण होकर फलौदी, बाप
की तरफ सरहद देख आने की तैयारी थी। पोकरण ठाकुर ने सम्पूर्ण प्रबंध कराया था
किन्तु पोकरण में पोकरणी ब्राह्मणी के सती होने की खबर मिलने पर वह कार्यक्रम में
परिवर्तन करके पोकरण आने की बजाय सीधा जोधपुर चला गया।16
स्त्रियों की दशा - तत्कालीन पोकरण समाज
स्त्रियों के प्रति दोहरी मानसिकता का शिकार था। एक ओर वे स्त्री रूप की देवी के
रूप में स्तुति करते थे तो दूसरी ओर समाज में महिलाओं पर अनेक प्रतिबंध आरोपित किए
गए थे। इस पितृसतात्मक समाज में महिलाओं का दर्जा हीन था। स्त्री अन्य पुरुषों के
सामने न तो अपने पति के साथ बैठ सकती थी। न उसके साथ-साथ चल सकती थी, न ही उसके साथ बात कर सकती थी। इसे हमेशा घूंघट
में रहना पडता था, धीमी आवाज में बात करनी पड़ती थी, पति की सभी बातें मनने के लिए बाध्य थी। यदि
गांव में घूमते हुए महिलाओं के समूह को कोई बड़ी आयु का व्यक्ति मिल जाता तो वे
वहीं तुरंत घूंघट करके बैठ जाती। यदि पुरुषों के सामने से होकर जाना आवश्यक होता
तो उन्हें जूते खोल कर उन्हें अपने हाथ में लेकर निकलना पड़ता था।
कन्या शिशु वध एक सामान्य बात थी क्योंकि कन्या
का विवाह बहुत खर्चीला हुआ करता था। यह विडम्बना थी कि एक तरफ कन्या को जन्म होते
ही मार दिया जाता था, वही समाज में पांच में से दो पुरुष
कंवारे रह जाते थे, फिर भी समाज कन्या वध जैसी कुप्रथा और
विवाह में खर्च करने को प्रतिबद्ध दिखाई नहीं पड़ता था। विधवाओं की स्थिति शोचनीय
थी। उन्हें हल्के आसमानी या गेरुएं रंग के कपडे़ पहनने पड़ते थे। साज-श्रृंगार और
रंगीन वस्त्र पहनना प्रतिबंधित था। पहले तीन वर्णों (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) में
पुनर्विवाह संभव नहीं था। जाट-विश्नोई और कुछ अन्य जातियों में नाता-प्रणाली अवश्य
प्रचलित थी। समाज में महिलाओं की भूमिका बच्चे पैदा करना और चूल्हे-चौखट संभालने
तक सीमित थी।
निम्न जातियों की स्थिति - पोकरण की निम्न
जातियों की सामाजिक स्थिति तत्कालीन भारत के अन्य क्षेत्रों की निम्न जातियों से
कुछ बेहतर ही कहीं जा सकती थी। इसका बहुत
कुछ योगदान बाबा रामदेव को दिया जा सकता है जिन्होंने निम्न जातियों को मुसलमान
बननने से रोका और अपने प्रमुख शिष्यों में इन्हें स्थान दिया। पोकरण ठाकुरों ने
मेघवाल जाति के लोगों को किले के छोटे-मोटे कार्यों में नियोजित किया। यह परम्परा
आज भी जारी है। ठिकाणे में प्रशासन में सभी जातियों का स्थान दिया गया। किले के
सुरक्षा में राजपूतों के अतिरिक्त गोमठिया मुसलमान थे। पोकरण रामदेवरा म्यूनिसिल
बोर्ड में कार्यरत कर्मचारी एम. आर. पूनिया (जाट) के नाम का भी उल्लेख मिलता है।17
ब्राह्मणों, महाजनों
का राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास में
योगदान -
पोकरण के स्थानीय निवासियों के स्वतंत्रता
आंदोलनों में भागीदारी के कुछ विवरण हमें प्राप्त होते है। सेठ दामोदरदास राठी जो
मूलतः पोकरण के थे, ने ब्यावर में एक कपड़ा मिल खोली तथा
श्यामजी कृष्ण वर्मा के साथ मिलकर 1915 ई. में एक अंग्रेज विरोधी क्रांति का असफल
प्रयास किया। दामोदरदास राठी ने ब्यावर के अलावा पोकरण में भी एक स्कूल खोला जो
जोधपुर दरबार ने 1912 ने अंग्रेज विरोधी गतिविधियों के कारण बंद करवा दिया गया।18
कुछ समय पश्चात् स्थानीय लोगों ने बरार के एक
राठी परिवार की सहायता से एक निजी स्कूल की व्यवस्था की। इसी विद्यालय में स्कूली
अध्यापक के रूप में वैद्य हेमचन्द्र छंगाणी का राजनीतिक सफर प्रारंभ हुआ। किन्तु
कुछ समय बाद ही उन्होंने पोकरण छोड़ दिया और मध्य प्रान्त और बरार में काफी सक्रिय
रहे। वैध हेमचन्द्र छंगाणी ने 1928 ई. में मारवाड़़़ में दुर्गादास जयन्ती का सफल
आयोजन करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पोकरण ठाकुर चैनसिंह जो राज्य कौंसिल
में जुडिशियल मेम्बर था, द्वारा जागीरदारों की ढाल बनने की
आलोचना की, हितकारिणी सभा व राज्य प्रजा सम्मेलन
के सक्रिय सदस्य के रूप में कार्य किया।19
पंडित मदनमोहन छंगाणी, लीलाधर व्यास, गोवर्धन दास चांडक व सुन्दरलाल चौधरी के सुझाव पर पोकरण ठाकुर
चैनसिंह ने पोकरण में नगरपालिका की स्थापना के प्रस्ताव को सरकार से स्वीकृत
करवाया। वर्ष 1946 में भवानी पोल स्थित हीरानन्द जी की बगेची में एक विशाल किसान
सभा का आयोजन किया गया। इस सभा में भाग लेने वाले बड़े नेता-मारवाड़़ लोक परिषद्
जोधपुर के अध्यक्ष मीठालाल काका, द्वारकादास
पुरोहित, मथुरादास माथुर, मीठालाल व्यास (जैसलमेर), स्थानीय नेताओं में भाभा पोकरणदास पुरोहित, शिवकरण छंगाणी, रामचन्द्र कपिल, लक्ष्मीनारायण
गांधी, जीवणलाल चांडक, सुन्दरलाल राठी, जसराज मौलवी,
वीरमाराम रातडिया, सालूराम चौधरी, भणियाणा, मुकनाराम विश्नोई (खेतोलाईं), स्वरूपचन्द महाजन (भणियाणा), भूराराम चौधरी, मौली दोस्त मुहम्मद थाट, फतेह
मुहम्मद थाट, गोविन्द सिंह परिहार (छायण), माणकलाल पणियां, इत्यादि ने प्रमुख रूप से भाग लिया। इस आंदोलन में पोकरण ठिकाणे के
दीवानी ओर फौजदारी कानूनी अधिकारी छीने जाने तथा कृषि पर लगान नहीं दिये जाने का
प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया।20
धार्मिक जीवन
पोकरण तथा उसके आस-पास के क्षेत्र मध्यकाल से
ही धार्मिक दृष्टि से विशिष्ट महत्व रखते थे। हिन्दू धर्म और जैन धर्म के प्रचलन
के प्राचीन साक्ष्य अभिलेखों की शक्ल में उपलब्ध हैं जो कि 10 वी शताब्दी से अधिक
पहले के नहीं हैं। इस्लाम का पदार्पण कुछ देर से हुआ । बौद्ध धर्म और ईसाई धर्म के
प्रचलित होने के कोई साक्ष्य नहीं है किन्तु
एक सिख धर्म का गुरूद्वारा दमदमा साहब यहां पर मौजूद है। इस क्षेत्र में
सर्वाधिक प्रचलित हिन्दू धर्म ही था। बहुसंख्यक मंदिरों की मौजूदगी से पोकरण
क्षेत्र के लोगों का धर्म के प्रति झुकाव प्रतिबिम्बित होता है।
जैन धर्म - पोकरण शहर में मौजूद तीन मंदिरों से
यहां जैन धर्म के प्रचलन की पुष्टि होती है। अलंकृत पत्थरों से निर्मित विशाल
मंदिरों में मुख्य मंदिर भगवान आदिनाथ का है। इसके साथ ही शंाति पार्श्वनाथ और
चिंतामणि पार्श्वनाथ के मंदिर भी है। ये प्राचीन मंदिर निर्माण कला के उत्कृष्ट
नमूने है। स्थानीय मान्यता है कि तीर्थ यात्रा पर निकले धर्मानुयायियों की तीर्थ
यात्रा इन मंदिरों के दर्शन एवं पूजा अर्चना के बाद ही पूर्ण मानी जाती हैं। यहां
वर्ष भर जैन धर्म को मानने वाले लोग आते है। जैन धर्मानुयायियों की संख्या सीमित
थी तथा ये मुख्यतः वणिक कर्म से जुडे़ थे।
सिख धर्म - पोकरण में सिखों का एक गुरुद्वारा
अवश्य है किन्तु आबादी न्यून है। यह मान्यता प्रचलित है कि गुरूनानक देव (1469 ई.-1538
ई.) अपनी तीसरी धार्मिक यात्रा (उदासी) करते हुए मक्का से लौटते वक्त पोकरण रूके।
इसी दौरान उनकी भेंट बाबा रामदेव से हुई थी। नानकदेव के समय मक्का के पांच पीर भी
आए थे जिन्होंने रामदेव जी को पीरो का पीर कहा। गुरूनानक के साथ उनके शिष्य मरदाना
और बालाजी थी थे। भूख लगने पर मरदाना ने
गुरुनानक से भोजन का निवेदन किया। गुरुनानक ने उसे पास ही लगे आक के फल तोड़कर खाने
को कहा। गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए मरदाना ने आक के कड़वे फल का सेवन किया
किन्तु उसे आक के कड़वे फल आम के समान मीठे लगे। तत्पश्चात् उसने गुरु से प्यास
लगने की बात कही। गुरुनानक ने उसे अपने पास ही रेत हटाने को कहा। आश्चर्यजनक रूप से मात्र 4-5 फुट खोदने पर
ही पानी निकल आया। वह स्थान भी बाऊली साहब बावड़ी के नाम से जाना जाता है।
जब गुरुनानक आगे की यात्रा पर पोकरण से कोलायत
की तरफ जाने लगे तो मरदाना ने कुछ आक के फल अपने साथ बांध लिए। रास्ते में वे जब
उन्हें खाने लगे तो आक के फल उसे अत्यन्त कड़वे लगे। इस कारण पूछने पर गुरुनानक ने
कहा कि ‘अगर तू फलों को वहां से नहीं लाता तो
वहां आम ही आम होते किन्तु अब वहां आक ही होंगे।’ जिस स्थान पर गुरुनानक ने विश्राम एवं सत्संग किया था उस पवित्र
स्थान पर कालांतर में एक गुरुद्वारे का निर्माण करवाया गया जिसे दमदमा साहब के नाम
से जाना जाता हैं। उपरोक्त कथा में कोई सच्चाई नहीं है क्योंकि बाबा रामदेव की
मृत्यु के 84 वर्ष बाद गुरुनानक का जन्म
हुआ। गुरुद्वारा धर्म प्रचार हेतु स्थापित किया गया था। रूणिचा आने वाले सिख
तीर्थ-यात्री यहां रूकते थे।
हिन्दू धर्म - पोकरण क्षेत्र के बहुसंख्यक
लोगों की मान्यता हिन्दू धर्म के प्रति थी। यहां पंचदेवों (गणेश, विष्णु, शिव, सूर्य और शक्ति) का पूजा काफी पहले से प्रचलित
थी किन्तु यहां की लोगों की आस्था का मुख्य केन्द्र बाबा रामदेव थे।
1. सूर्य उपासना - पोकरण में प्राप्त 11 वीं
शताब्दी का एक शिलालेख बालकनाथ मंदिर से प्राप्त हुआ है जो कि एक सूर्य मंदिर के
समीप स्थित था। यह शिखर युक्त सूर्य मंदिर पोकरण गढ़ के समीप शहर में स्थित है तथा
इसका निर्माण राठी शाह जैता ने करवाया था।
2. शक्ति उपासना - पोकरण से 3 कि.मी. दक्षिण
में बाड़मेर रोड़ पर खींवज माता का मंदिर हे। यहां से प्राप्त एक शिलालेख के अनुसार
यह मंदिर 971 ई. (विक्रम सं. 1028 वैशाख सुदी 13)
का बना हुआ है। यह माहेश्वरी भूतड़ा जाति की कुलदेवी है।21 देवी की मूर्ति
रूद्राणी रूप में है। आजादी से कुछ पूर्व तक यहां भैंसे या बकरे की बलि दी जाती
थी। अपने स्थापना काल से ही यहां अखण्ड ज्योति प्रज्ज्वलित है। नवरात्रि पर्व में
यहां आज भी बहुत धूमधाम रहती है। यह मान्यता है कि 17 वी शताब्दी में मुगल बादशाह
औरंगजेब में इस मंदिर को नष्ट करने का प्रयास किया किन्तु उसे आंशिक भण्डार सफलता
ही मिल सकी। उसका बारूद भण्डार वहां अपने आप नष्ट हो गया। इसी वजह से मंदिर के
आस-पास की भूमि के पत्थर काले रंग के और जले हुए से प्रतीत होते है। मंदिर के समीप
ही 400 वर्ष पुराना तालाब है जिसकी गहराई एक पूर्ण हाथी के डूबने जितनी होने के
कारण इसका नाम हाथी नाडा पडा।
पोकरण के समीप ही एक अन्य प्राचीन मंदिर
आशापूर्णा शक्ति पीठ नाम से है। मुख्य व्यवस्थापक श्री मोहनलाल बिस्सा के अनुसार
इस मंदिर की स्थापना 1258 ई. (वि.सं. 1315 माघ शुक्ला तृतीया) को हुई थी। मंदिर के
संस्थापक लुद्रवा (रूद्रनगर) निवासी लूणभानु बिस्सा थे। लोक प्रचलित कथा है कि
देवीभक्त लूणभानु अपनी वृद्धावस्था तक आशापूर्णा माता के दर्शन करने कच्छ नियमित
रूप से जाया करता था। अंततः अपनी जरावस्था और क्षीण बल के कारण उसने देवी की
स्तुति करके निवेदन किया कि वह वृद्धावस्था के कारण भविष्य में कच्छ आकर दर्शन
करने में असमर्थ रहेगा। अतः लूद्रावा आकर उसे कृतार्थ करें। लूणभानु की भक्ति से
प्रसन्न होकर एक शर्त पर लुद्रावा आने की सहमति दी कि वह (देवी) लूणभानु के
पीछे-पीछे आएंगी किन्तु लुणभानु किसी भी दशा में पीछे नहीं देखेगा। शर्त भंग करने पर
वह उसी स्थान पर रूक जाएगी।
वचन के अनुसार देवी आशापूर्णा अपने रथ पर
लूणभानु का अनुसरण करती रही। सूर्यास्त के वक्त लूणभानु को ‘ठहरमाता’ शब्द
सुनाई दिए। पीछे नहीं देखने की शर्त वह भूल गया और पीछे मुड़कर देख बैठा। देवी
आशापूर्णा ने तत्काल अपना रथ रोक दिया और उसी स्थान पर रूकने का निर्णय लिया।
लूणभानु के बार-बार क्षमा याचना की तब देवी ने उसे समझाया कि ‘‘पुत्र, पूरा
संसार मेरा ही स्थान है और सम्पूर्ण जगत में मैं ही व्याप्त हूँ। मै किसी भी स्थान
पर रहकर भक्तों का भला कर सकती हूं’’।
यह कहकर देवी आशापूर्णा भूमि में प्रविष्ट हो गई और अपना एक उपवस्त्र (दुपट्टा)
बाहर छोड़ दिया। इसी स्थान पर लुणभानु ने एक मंदिर बनवाया। अनेक पीढ़ियों से मंदिर
में स्वामी जाति के वंशज पूजा-पाठ का कार्य करते रहे हैं। देवी आशापूर्णा बिस्सा
ब्राह्मणों की कुलदेवी है।
पोकरण का एक अन्य प्राचीन मंदिर मां
जाज्वलामंदिर है। जो पोकरण नगर की पूर्व दिशा में 1 कि.मी. की दूरी पर है। मंदिर
की संस्थापना का वर्ष ज्ञात नहीं है किन्तु यह मान्यता है कि पोकरण नगर की बसावट
500-600 वर्ष पूर्व इस मंदिर का निर्माण करवाया गया। भाट बहियों में मां जाज्वला
को समस्त व्यास ब्राह्मणों की कुलदेवी कहा गया है। मंदिर में एक अखण्ड ज्योति
प्रज्ज्वलित है। नवरात्रों के समय मंदिर में विशेष धूमधाम रहती है।
पोकरण के समीप ही सच्चयाय मंदिर है जिसे लोक
मान्यतानुसार वि.सं. 1520 में बाबा रामदेवजी के कुलगुरु और महर्षि कपिल की वंश
परम्परा के साधोजी महाराज ने बनवाया था। मंदिर में प्रतिष्ठित सच्चयाय माता व चौसठ
योगिनियों साधावाड़ियों नाम से प्रसिद्ध है। साधोजी ने मंदिर के समीप ही साधोलाई
तलाई का निर्माण करवाया। मंदिर में एक अखण्ड ज्योति प्रज्जवलित है। नवरात्रों मे
ंयहां अच्छी चहल पहल रहती है। महाशिवरात्रि के दिन-रात्रि भर शुक्ल यजुर्वेद की
रूद्राष्टाध्यायी का पाठ होता है। 1877 ई. में फरसाराम जी मौसाणी सारस्वत ने
मेहरलाई तालाब के पास श्री हिंगलाज मंदिर बनवाया। मंदिर की मूर्ति पाकिस्तान के
लसबेला बलूचिस्तान स्थित श्री हिंगलाज देवी के मुख्य मंदिर से लाई गई बताई जाती
है। यह मंदिर प्रारंभ से ही खत्री समाज के संरक्षण में है। नगर के बीचों बीच माता
धरज्वल देवी का एक विशाल मंदिर है जिसे सावित्री देवी गांधी ने अगस्त-सितम्बर 1938
ई. में बनवाया था। मंदिर में देवी धरज्वल माता व रिद्धी-सिद्धी सहित भगवान गजानन की
विशाल प्रतिमाएँ स्थापित है। गांधी (नावंधर) जाति की कुल देवी होने के कारण यह
मंदिर स्थानीय गांधी समाज के संरक्षण में है। पोकरण से उŸार दिशा की ओर पहाड़ी जो कैलाश टोकरी के नाम से
जानी जाती है, पर एक प्राचीन दुर्गा मंदिर है।
शैव धर्म
पोकरण
के धार्मिक जीवन में शिव उपासना को भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। ऐतिहासिक
दृष्टि से चार शिव मंदिर अधिक महत्वपूर्ण माने जा सकते हैे। कैलाश टेकरी के दुर्गा
मंदिर के समीप एक छतरी के नीचे शिवलिंग एवं पूरानी धूणी हैं। लोक मान्यता है कि इस
पहाडी पर कभी एक संत रहा करता था जो शिव के परम् भक्त था। वह यहां पर धूणी रमाता
था एवं पूजा अर्चना करता था। इसी पहाड़ी पर भगवान शिव की वर्षों तक अराधना किए जाने
के कारण ही संभवतया इसका नाम कैलाश टेकरी पड़ा।
धर्मकुण्ड रामेश्वर महादेव पोकरण फलसूण्ड मार्ग
से दक्षिण पूर्व की तरफ लगभग पौन कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहां एक प्राचीन
प्राकृतिक कुण्ड है। इस कुण्ड के झरने के मध्य ही शिव मंदिर स्थित है। इसकी
ऐतिहासिकता के बारे में कोई प्रामाणिक दस्तावेज तो उपलब्ध नहीं है लेकिन जनश्रुति
है कि उक्त शिवालय पर स्वयं भगवान शिव साधुवेश में तपस्या करते थे एवं उक्त कुण्ड
के जल से ही इस शिवालय का अभिषेक होता था। उक्त शिवालय के स्थान पर कुण्ड एवं झरने
के बीच प्राचीन चौकी है जिस पर भगवान शिव का लिंग स्थापित था एवं बरसाती जल के
झरने से ही भगवान शिव का स्वतः ही सावन में अभिषेक होता था। शिव अराधना के साथ ही
पुष्करणा ब्राह्मणों द्वारा पूर्व में यहां श्रावणी कर्म भी किया जाता था। इससे इस
स्थान की धार्मिक महता भी प्रमाणित होती है।
पोकरण के पूर्वी रामदेवरा घाट के मध्य भाग पर
मार्कण्डेश्वर महादेव का मंदिर है।22 यह छोटा सा सादगी पूर्ण शिवालय है मगर इसमें
रखा लिंग अपनी भव्यता के लिए चारो ओर प्रसिद्ध है। जैसलमेरी पीले पत्थर का यह
शिवलिंग लगभग दो फुट जमीन के ऊपर ओर लगभग उतना ही अन्दर की तरफ है। उसके ऊपर भाग
का व्यास लगभग दो फीट है जो नीचे की ओर बढ़कर शंकुरूप बनाता है। मंदिर के निर्माण
समय के विषय में जानकारी उपलब्ध नहीं है। इसके समीप ही पीपलेश्वर महादेव का मंदिर
है।
सालमसागर तालाब की पाल पर से आशापुरा जाने वाले
सड़क मार्ग के पश्चिम पाल में स्थित पंचमुखा महादेव मंदिर अपनी स्थापत्य कला के
कारण पोकरण के शिव मंदिरों में विशेषोल्लेख्य है। पोकरण के ठाकुर सालमसिंह द्वारा
निर्मित इस मंदिर में पशुपति एकलिंग भगवान शिव की पंचमुखा मूर्ति है। मंदिर की
वास्तु शिल्प मध्यकालीन भारत में प्रचलित निर्माण शैली के अनुरूप है। विशाल चबूतरे
पर स्थित मंदिर रथ के आकार का है। मंदिर पूर्वमुखी होने के कारण उगते सूर्य की
किरणें शिवलिंग का प्रातः पूजन करती प्रतीत होती हैं। पुराने जानकार लोग बताते है
कि मंदिर के पास एक विशाल बगीचा था। जूनाबाग के नाम से प्रसिद्ध इस बगीचे में
विभिन्न फलों के पेड लगे थे। मंदिर के सामने एक विशाल कुंआ स्थित है। इस कु्रंए के
जल से बगीचे की सिंचाई की जाती थी। सिंचाई के लिए पत्थर की पक्की नालियां बनी हुई
थी। नालियों के टूटे हुए पत्थर प्रमाण के रूप में आज भी मौजूद है।
अन्य देवता
पोकरण के सामान्य जनों में शिव अवतार श्री
हनुमान के प्रति भी लोगों की असीम आस्था है। आजादी के पूर्व के पोकरण का सबसे
प्रसिद्ध हनुमान मंदिर पोकरण किले के पीछे की ओर सालमसागर के दक्षिण छोर पर स्थित
है। इस प्राचीन मंदिर का मुख्य द्वारा पूर्वमुखी था। मंदिर के गुफानुमा होने के
कारण दिन में भी अंधेरा रहता है। गर्भ-गृह में विशाल आदमकद की मूर्ति संजीवनी बूटी
हाथ मंे लेकर लंका की ओर उड़ती हुई दिखाई देती है। लोक मान्यता के अनुसार यह मूर्ति
पृथ्वी से प्रकट हुई है। जमीन से मूर्ति
के निकलते समय जन समूह आश्चर्य से चिल्ला-चिल्ला कर जय-जयकार करने लगा। शोर होते
ही मूर्ति जो घुटनो तक निकल चुकी थी। आगे नहीं निकली। पूजा-पाठ का प्रबंध एक
श्रीमाली परिवार के सुपुर्द है।
पोकरण के दक्षिण पूर्व में फलसूण्ड मार्ग पर
बांकना गांव जो वर्तमान में निर्जन है में भी एक प्राचीन हनुमान मंदिर के अवशेष
है। बांकना गांव में ही एक प्राचीन
सत्यनारायण मंदिर के जीर्ण अवशेष है। इस मंदिर को बाबा रामदेव के कुलगुरु साधोजी
के वंशज छंगाणियों ने बनवाया था। जब छंगाणियों ने यहां से पलायन किया तो मूर्तियां
भी अपने साथ ले आये व उन मूर्तियों को
पोकरण में स्थापित कर दिया।23
रामदेवसर के पूर्वी घाट पर एक मध्यकालीन नृसिंह
मंदिर है। पोकरण के किले के समीप दक्षिण की ओर कुछ दूरी पर चतुरभुज जी का
शिखरयुक्त मंदिर है जिसका निर्माण राव बजरांग द्वारा करवाया गया था।24
लेाक देवता - बाबा रामदेव (1352-1385 ई.)
मध्यकालीन राजस्थान में बाबा रामदेव पश्चिमी
राजस्थान के लोकदेवों में अग्रणी रहे है। 14 वीं शताब्दी के प्रारंभ में अवतरित इस
महापुरुष की ख्याति साम्प्रदायिक सद्भाव और दलितोत्थान के क्षेत्र में विशेष रूप
से है और पोकरण इनकी मुख्य कर्मभूमि रही। लोक मान्यता है कि बाबा रामदेवजी के
पूर्व-पुरुष तंवर अनंगपाल दिल्ली का शासक था। बाबा रामदेव के पिता तंवर अजैसी
पाटण(जयपुर) की ओर के उण्डू-काश्मेर आकर बस गए। यही 1352 ई. में रामदेवजी का जन्म
हुआ।25 तदनन्तर अजैसी ने राव मल्लिनाथजी से पोकरण पुनः बसाने की अनुमति लेकर पोकरण
के किले के पुनरूद्धार किया।26 इस दौरान बाबा रामदेव ने खेल-खेल में भैरव राक्षस
को पराजित करके सिन्ध की ओर जाने की आज्ञा दी। रामदेवजी ने अमरकोट की अपंग
राजकुमारी नेतलदे को अपनी सहधर्मिणी बनाकर सामाजिक आदर्श स्थापित किया। उन्होंने
मेघवाल जाति की लड़की ‘डालीबाई’ को तत्कालीन सिद्ध परम्परा के अनुसार ‘महामुद्रा’ के रूप में स्वीकार करके अपनी सहयोगिनी
बनाया। छुआछूत के न मानने पर उन्हें सगे सम्बन्धियों के कोप का भाजन भी बनना पड़ा, परन्तु बाबा रामदेव ने इसकी परवाह नहीं की और
मेघवालों को साथ लेकर भजन कीर्तन करने लगे। हिन्दू धर्म से भ्रष्ट अथवा समाज
बहिष्कृत व्यक्तियों को पुनः सामाजिक प्रतिष्ठा दिलवाने के लिए बाबा रामदेव ने एक
संत मत की स्थापना की। इसमें बिना भेदभाव के कोई भी व्यक्ति सम्मिलित हो सकता था। इस
धर्म में दीक्षित व्यक्ति को हाथ में कामड़ी (बेंत) रखनी पड़ती थी। अतएव वह कामड़िया
पंथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वर्तमान में इस जाति ने एक उपजाति का रूप धारण कर
लिया। ये लोग अपने सिर पर भगवा रंग का फंेटा पगडी धारण करते हैं तथा बाबा रामदेव
का जुम्मा-जागरण देते हैं । इस पंथ में धर्म के प्रचलित दस लक्षणों को मान्यता
मिलने से दशाधर्म भी कहा जाता है।
अपनी भतीजी (वीरमदेव की पुत्री) के राव
मल्लिनाथ के पौत्र हम्मीर से विवाह के उपलक्ष्य में पोकरण दहेज में दिया और वे
स्वयं पोकरण से 13 किमी. दूर रामदेवरा में जाकर बस गए। रामदेव ने अपने जीवनकाल में
23 परचे (चमत्कार) दिखाये। उन्होंने 1385 ई. (वि.सं. 1442 भादवा शुक्ल एकादशी) में
33 वर्ष की अवस्था में जीवित समाधि ले ली। उनकी अनन्य भक्त डाली बाई ने भी बाबा की
समाधि से एक दिन पूर्व यहीं पर समाधि ली थी। उन्होंने समाधि लेने से पूर्व अपने
माता-पिता, भाई बन्धुओं को आध्यात्मिक उपदेश दिये।
उनके द्वारा रचित चौबीस वाणियाँ जिन्हें ‘चौबीस
प्रमाण’ कहा जाता है, में निर्गुण ब्रह्म की महŸाा को प्रतिपादित किया गया है। उनके काव्य में
भी मध्यकालीन संतों की भांति गुरु महिमा, आगम-निगम, योग, भक्ति, ज्ञान, माया
आदि विषयों का लोकवाणी में बहुत ही रोचक ढंग से निरुपण किया गया है।27
बाबा रामदेव की समाधि का स्थल बाबा के देवरे के
रूप में विख्यात है। मंदिर में बाबा
रामदेव की समाधि बनी हुई है तथा इसके दोनो ओर मस्तक बने हुए है। सामान्य दिनों में
एक मस्तक पर चांदी का मुकुट प्रतिष्ठापित किया जाता है और मेला अवधि में दोनो ही
मस्तकों पर स्वर्ण मुकुट प्रतिष्ठापित करके पूजा-अर्चना की जाती है, यहां बाबा रामदेव के पिता अजमाल जी, माता नेणादे, पत्नी नेतलदे और अन्य परिजनों की भी समाधियाँ बनी हुई है। उनकी भी
रोजाना पूजा की जाती है। मंदिर में रामदेव जी का प्रिय घोड़ा ‘धातु’ और
कपडे़ की कलात्मक आकृति में शोभायमान है।
प्रतिवर्ष बाबा रामदेव के जन्मदिवस भादवा सुदी
द्वितीया जिसे बाबा की बीज भी कहा जाता है, से
पन्द्रह दिनों तक एक विशाल मेला आयोजित होता है। रामदेवरा आने वाले मेलार्थियों के
लिए पोकरण ठिकाना विभिन्न सुविधाएं प्रदान करता था। मंदिर में आने वाले चढ़ावे का
एक निश्चित हिस्सा ठिकाणे को प्राप्त होता था।
रामदेवरा के मंदिर के अतिरिक्त रामदेवरा और
उसके आस-पास ऐसे अनेक स्थल हैं जो बाबा रामदेवरा से संबंधित रहे हैं- जैसे परचा
बावड़ी, रामसरोवर तालाब, पंच पिपली, रूणीचा
कुंआ, बालीनाथ जी घूणा। रामदेवरा मेले के समय
आने वाले गरीब यात्रियों की सुविधा के लिए 1923 ई. में श्री सावलपुरी महाराज ने
अन्नक्षेत्र का शुभारंभ किया। उनकी मृत्यु के बाद शिष्या जमनागिरि ने इसका संचालन
किया। 1942 ई. में महन्त रामनाथ ने इसका कार्यभार संभाला। उन्होंने रामदेवरा में
जगह-जगह पानी की प्याऊ, धर्मशालाए एवं कुष्ठ रोगियों के आवास
आदि बनाए। पोकरण किले में प्रवेश करते समय दाईं ओर रामदेवजी का थान है जहां
रामदेवजी का कुछ समय तक निवास स्थान रहा था।28 यह रामदेवजी की चरण पादुकाएं हैं।
पोकरण के ठाकुर परिवार ने यहां एक तिबारी बनवाई।29
पोकरण के लोग देवी-देवताओं के पूजन के अतिरिक्त
साधु-संन्यासियों में भी आस्था रखते थे। पोकरण तथा पोकरण के आस-पास के क्षेत्रों
में अनेक साधु संन्यासियों के आश्रम है।
पोकरण के साधु आश्रम में सबसे पुराना आश्रम
बाबा रामदेव के गुरु नाथपंथी बालीनाथ का आश्रम था जिसे बालीनाथ जी का धूणा कहा
जाता है। रामदेव जी की यात्रा करने वाले तीर्थयात्री बालीनाथ जी धूणे पर भी आते
है। एक अन्य प्राचीन आश्रम पोकरण से 60 कि.मी. दूर फलसुण्ड के समीप मौनपुरी जी का
मठ है जिसकी स्थापना पोकरणा राठौड राजपूतों ने संवत् 1661 में अपने आराध्य गुरु के
लिए की। मौनपुरी महाराज और उनके शिष्य के अनेक पर्चो और चमत्कारों से सम्बन्धित
किंवदन्तियाँ है। आज भी यह मान्यता प्रचलित है कि जो कोई व्यक्ति इस आश्रम के कड़ाव
में पड़े तिल्ली के तेल को महन्त महाराज के हाथों से शनिवार को एक निश्चित समय पर
सेवन करेगा, वह पागल कुŸो के खाने से रेबीज बीमारी से ग्रस्त नहीं होगा
और ग्रसित व्यक्तियों को जीवनदान मिलेगा। रामदेवसर के समीप एक अन्य विशाल
रामद्वारा स्थित है। आश्रम निर्माण में सादगी का विशेष ध्यान दिया गया। आश्रम की
नीची छत आवश्यकताओं को सीमित करने व ईश्वर के आगे नतमस्तक होने का संदेश देती है।
इसी आश्रम के दाहिने भाग में साधु-सन्यासियों की विशाल छतरियां बनी हुई है जो उनके
व्यक्तित्व कृतित्व के अनुरूप है सादगी किए हुए है। इन छतरियों की छत पर 18 फीट
लंबी शिला पट्टिकाओं का प्रयोग हुआ है। रामदेवसर के पूर्व घाट पर नृसिंहृ मंदिर के
समीप एक खाकी आश्रम है। इसके चार ब्लॉक है। ये सभी ब्लॉक नक्काशीदारी खम्भो पर
टिके है। आश्रम के आंगन में 200 वर्षों से भी अधिक पुरानी छतरियां स्थित है जो
वैष्णव संतों की है।
पोकरण के लोगों में संत गरीबदास जी महाराज के
प्रति असीम श्रद्धा रही। मान्यता है कि संत गरीबदास के पास पानी पर चलने की सिद्धी
थी। पोकरण से 13 किमी दूर सुथारों की बेरी में उनकी समाधि है। लोक मान्यता है कि
सुथारांे की बेरी क्षेत्र में पानी की कमी रहती थी और पानी खारा भी था। लोगों की
प्रार्थना पर बाबाजी ने अपने स्थान पर जगह बताकर कहा कि इस जगह खोदो जल्द ही पानी
निकल आएगा। संत की बात मानकर खुदाई की गई। थोड़ी खुदाई के बाद ही मीठा पानी आ गया।
यहां का पानी वर्तमान समय में भी मीठा व शुद्ध है तथा यह जमीन की स्तर तक भरा रहता
है।
सुथारों की बेरी से लगभग 3 कि.मी. दूर पूर्व
में संत देवगर बाबा की समाधि है। जनश्रुति है कि संत देवगर कहीं से फक्कड़ साधु की
तरह पोकरण आए और पोकरण के किले के मुख्य मार्ग के सामने इन्होंने धूणी रमा ली।
तत्कालीन ठा. सवाईसिंह को इस पर अत्यधिक क्रोध आया। उन्होंने संत को तत्काल वह
स्थान छोड़कर चले जाने को कहा। संत देवगर नाराज होकर जलती हुई धूणी को अपने चादर
में बांधकर वहां से पैदल चल पड़ा। ठा. सवाईसिंह आश्चर्य चकित हो गए। उन्हें अपनी
भूल का अहसास हुआ और संत से वहीं रहने और तपस्या करने का अनुरोध किया। लेकिन देवगर
बाबा नहीं मानें ओर वहां से चल पड़े। तत्पश्चात् ठा. सवाईसिंह ने पोकरण के
प्रभावशाली लोगों के साथ संत के पीछे प्रयाण किया। इस दल के निवेदन पर संत देवगर
बाबा ने उसी स्थान पर धूणी रमा ली जो पोकरण से 15 किमी दूरी पर स्थित है। पोकरण
ठाकुर द्वारा वहां एक मठ बनवाया गया। लोक मान्यता है कि गाय, बैल, बकरी, भेड़ आदि जानवरों की किसी भी बीमारी के लिए बाबा
की राखड़ी बांधी जाती है तथा वे ठीक हो जाते है। लोग आज भी उसी श्रद्धा से यहां घी, दूध चढ़ाते है एवं सभी की स्वास्थ्य की मनोकामना
करते है।
राज परिवार का धार्मिक विश्वास
पोकरण के परिवार का एक निजी मंदिर पोकरण के
किले में अमृत पोल के ऊपर बना हुआ है। यहां केवल ठाकुर परिवार ही पूजा पाठ कर सकते
थे। मंदिर का आकार मात्र 12 ग् 12 फीट है तथा यह कमरानुमा है। मंदिर के ऊपर एक
पंचरंगा झण्डा लगा है जो बाबा रामदेव का प्रतीक है। मंदिर के पुजारी दाधीच दाइमा
ब्राह्मण है। पोकरण पट्टा ठाकुर महासिंह को उनायत किए जाने के समय वे भीनमाल से
आये थे। इस छोटे से निजी मंदिर में लगभग सभी देवी देवताओं की छोटी-छोटी मूर्तियां
और प्रतीक है। पुजारी प्रतिदिन सभी देवताओं को दूध केसर मिश्रित जल से स्नान कराता
है, कुमकुम से तिलक करके यथास्थान विराजमान
करता है। इन सभी देवताओं में बाबा रामदेव की मूर्ति व पाटुका का पूजन विशेष रूप से
किया जाता था। कृष्ण पूजन को भी पर्याप्त महत्व दिया जाता था। ठाकुर परिवार केवल
विशेष पर्वो पर ही किले के बाहर के मंदिर के दर्शनार्थ जाया करते थे।
पोकरण के किले
में उपरोक्त वर्णित मंदिर के अतिरिक्त लगभग पांच अन्य मंदिर है। जनानी
ड्योढी में नागणेची जी का मंदिर है। पुराने मुख्य द्वार पर चार मंदिर है। इन
मंदिरों के द्वार केवल सुबह व गोधूली वेला पर खोले जाते है। शेष समय इस पर ताला
लगा रहता है। मुख्य द्वार के बाहर शिलालेख के समीप एक गणेश प्रतिमा है। यहां से
थोड़ा बाहर निकलने पर बाबा की कोठरी है जिसे कभी रामदेव का रहवास माना जाता था।
कोठरी के समीप स्थित जाल वृक्ष रामदेवजी के समय का माना जाता है।
मुस्लिम धर्म - पोकरण में मुस्लिम आबादी काफी
समय से है। पोकरण शहर की एक मस्जिद काफी पुरानी बताई जाती है। संभवतः यह कई
निर्माण-पुननिर्माण की प्रक्रिया से वर्तमान स्वरूप में आई थी। 1917 में ई. में एक
मदरसा स्थापित हुआ। यह पोकरण-जैसलमेर मार्ग पर स्थित है। इस मदरसे में उर्दू, अरबी, फारसी, के अतिरिक्त हिन्दी, अंग्रेजी, गणित
विषयों की भी शिक्षा दी जाती थी।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि पोकरण
की बहुमंजिला संस्कृति ने एक विशिष्ट असाम्प्रदायिक वातावरण और साम्प्रदायिक सौहार्द्र को जन्म दिया। यहां एक
ऐसा वातावरण विकसित हुआ जिसमें हिन्दू और मुस्लिम जन अपना समान विकास कर सकते थे।
थरडा क्षेत्र की यह उज्जवल संस्कृति सम्पूर्ण भारतवर्ष को अनेकता में एकता का
संदेश देती हुई प्रतीत होती है।
संदर्भ -
1. चिरा
री बही (सं. 1923) क्र. 50य सावा आमदानी री बही (सं.1937) क्र.सं, 1725य बाजार रो चौपनियों (सं. 1970-71), क्र. 1535-36य सावा आमदानी बाबत (सं.1937), क्र.1725, ठि.
पो. सं.
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3. डॉ.
महेन्द्रसिंह नगर, राजस्थान इतिहास तथा संस्कृति की
झलकियाँ का लेख ‘‘सिंधी शहजादा की दास्तान’’ पृ. 74
4. मोहन
सिंह, चाम्पावतों का इतिहास, भाग द्वितीय, पृ. 369
5. रतन
खां गुजरिया जिण री बही (सं.-1988), क्र
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6. मुहता
नैणसी, मारवाड़़ रा परगना री विगत (सं. डॉ.
नारायणसिंह भाटी), पृ. 312 से 314
7. भंवर
जी जानमियाँ जिण री बही, सं.1967, क्र-22य ठि. पो. सं. बही भाटां री (सं.1949), क्र.1528
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री बही, क्र. 2637, हजुरी दफ्तरी रिकॉर्ड, रा.रा.अ. जोधपुर।
9. ठिकाणा
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10. ब्याव
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पो. सं.
11. बहीं
भांटा री, क्र. 1528, सं. 1949, ठि.
पो. सं.
12. प्रधानगी
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13. महाराजा
तख्तसिंह री ख्यात (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी) पृ. 98
14. ठाकुर
व ठकुरानियां रे बारे दिनों रे खर्चे री बही, क्र.
1540, सं.1937य देवलोक हुआ तिण तालके खर्चे
रो चौपनियां, क्र. 1557, (सं. 1836 से 1926) ठि. पो. सं.
15. डॉ.
महेन्द्रसिंह नगर, मारवाड़़ के राजवंश की सांस्कृतिक
परम्पराएं, भाग द्वितीय, पृ. 461 ।
16. महाराज
तख्तसिंह री ख्यात (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी), पृ.
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17. पोकरण
रामदेवरा म्यूनिसिपल बोर्ड-रसीद, ठि.
पो. सं.
18. एम.एस.जैन, आधुनिक राजस्थान का इतिहास, पृ. 323
19. स्वतंत्रता
संग्राम में राजस्थान का योगदान (सं.डॉ. आर.पी.व्यास), राजस्थान ग्रं्रथागार, 2004
में श्री एफ.के.कपिल के लेख ‘मध्य
प्रान्त बरार एवं मंुबई से मारवाड़ में लोकतंत्र के लिए प्रयास‘ (1920-30), पृ.
171, 174, 175, 176
20. शक्ति
स्थल, पोकरण, स्मारिका, पृ. 10, 11 पो. वि. सं., पोकरण।
21. मुहता
नैणसी, मारवाड़़़ परगना री विगत, भाग द्वितीय पृ. 311
22. वही, पृ. 312, यह
मंदिर शिखरबंद नहीं था, बाद में वर्तमान मंदिर बनवाया गया।
23. शक्ति
स्थल, पोकरण, स्मारिका, पृ. 55, 56, 57
24. मुहता
नैणसी, मारवाड़़़ परगना री विगत, (सं डॉ नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय पृ. 311
25. विश्वम्भरा, जनवरी-जून, 1985, पृ. 64, 65
26. मुहता
नैणसी, मारवाड़़़ परगना री विगत, (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी)पृष्ठ 311
27. पुस्तिका
’सामाजिक सद्भाव के प्रणेता बाबा रामदेव’, निदेशालय, सूचना
जनसम्पर्क, राजस्थान जयपुर द्वारा
प्रकाशित-सितम्बर 1987
28. मुहता
नैणसी, मारवाड़़़ परगना री विगत, (सं डॉ नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 311
29. रामदेवजी
री कोटड़ी में तिंबारी बनाई जावे तिण रो चौपनियो
(सं. 1877-79 क्र-1549), ठि.पो.सं.
- प्राक्कथन
- अध्याय 1 : ठिकाणे का अर्थ और इतिहास
- अध्याय 2 : पोकरण का आरंभिक इतिहास
- अध्याय 3 : पोकरण में चम्पवातों का आगमन
- अध्याय 4 : सवाईसिंह की उपलब्धियाँ
- अध्याय 5 : ठा भवानी सिंह तक पोकरण ठाकुर
- अध्याय - 6 : प्रशासनिक एवं आर्थिक व्यवस्था
- अध्याय - 7 : समाज और धर्म
- अध्याय - 8 : पोकरण के शासकों का योगदान
- संदर्भ ग्रंथ सूची
- शोध संक्षेपण
- अध्याय 3 का अतिरिक्त भाग
- पोकरण की खाता बहियाँ
- 1st क्लास ताज़मी ठिकाने का प्रबंध और स्टाफ
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