अध्याय - 2 : पोकरण का आरंभिक इतिहास
पोकरण (पोहकरण) कब और किसके द्वारा बताया गया, इस बारे में कोई स्पष्ट साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। जनश्रुति है कि पोकरण पुष्करणा ब्राह्मणों के पूवजों पोकर (पोहकर) ऋषि का बसाया हुआ है। एक कथा प्रचलित है कि जब श्री लक्ष्मीजी ओर श्री ठाकुर का विवाह सिद्धपुर में हुआ तब 45,000 श्रीमाली ओर 5000 पुष्करणा ब्राह्मण वहां एकत्रित हुए। विष्णु ने पहले श्रीमाली ब्राह्मणों की पूजा की इससे पुष्करणा ब्राह्मण वहां से नाराज होकर चले गए उन्होंने कहा कि आपने हमारा अपमान किया है विष्णु ने उनहें मनाने की बहुत कोशिश की जब वे नहीं माने तब विष्णु ओ लक्ष्मी जी ने उन्हें श्राप दिया -
वेद हीन हो
क्रिया भ्रष्ट हो।
निरजल देश बसो।
मान ही हो ।1
इसके पश्चात् पोकर ऋषि इस क्षेत्र में आकर बसे। उस समय यहां पानी उपलब्ध नहीं था। अतः उन्होंने वरूण की उपासना की। वरूण ने उन्हें प्रसनन होकर वर दिया कि एक कोस धरती में दस हाथ गहराई में पानी मिलेगा। आज भी आस-पास के अन्य क्षेत्र के अपेक्षा यहां अधिक जल मौजूद है।
पोकर ऋषि श्रीमाली ब्राह्मणों से अप्रसन्न था। उसने राक्षसी विद्या का प्रयोग कर श्रीमाली ब्राह्मणें के गर्भ में अवस्थित गर्भजात शिशुओं को मारना शुरू कर दिया इससे उनका वंश बढ़ना रूक गया। सभी श्रीमाली इकट्ठे होकर लक्ष्मी ओर विष्णु के पास पहुँचे और उन्हें अपनी चिन्ता बताई। अर्न्तयामी विष्णु ने उनकी शंका को उचित बताया। लक्ष्मी जी ने उनसे श्रीमालिसयों की सहायता करने का निवेदन किया। विष्णु श्रीमालियों को लेकर पोकरण आए। उन्होंने पुष्करणों को काफी प्रयत्न करके एकत्रित किया क्योंकि पुष्करणा विष्णु और उनके श्राप से नाराज थे। पुष्करणा ब्राह्मणों द्वारा विष्णु से श्राप से मुक्त करने और वर देने का निवेदन किया। विष्णु ने तब वर दिया -
वेद मत पढ़ो, वेद के अंग पुराणों को पढ़ो ।
राजकीय सम्मान हो।
तुम्हारी थोड़ी लक्ष्मी अधिक दिखेगी।
श्रीमाली लाखेश्वरी तुम्हारे आगे हाथ पसारेगी।
इस तरह विष्णु ने दोनों पक्षों में सुलह करवाई ।2
‘‘महाभारत’’ में भी पोकरण से सम्बन्धित संदर्भ प्राप्त हुए है। इसमें पोकरण के लिए पुष्करण या पुष्करारण्य नाम प्रयुक्त हुआ है; यहां के उत्सवसंकेत गणों को नकुल में दिग्विजय यात्रास के प्रसंग में हराया था।3 इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि पोकरण पश्चिमी राजस्थान के अत्यन्त प्राचीन नगरों में से एक है; इसके एक सहस्त्राबदी का पोकरण काइतिहास पूर्णतया अंधकारमय है।
सन् 1013 ई (वि.सं. 1070) का एक गुहिल स्तम्भ लेख हमें पोकरण के बालकनाथ मंदिर से प्राप्त हुआ है।4 अवश्य ही यह पोकरण के आस-पास के क्षेत्र का कोई गुहिल शासक या अधीनस्थ शासक रहा होगा जिसने संभवतः म्लेच्छ महमूद गजनवी या अन्य मुस्लिम शासक के सैनिको द्वारा गायों के पकड लेने पर युद्ध किया और मृत्यु को प्राप्त हुआ।5 यह भी संभव है कि परमारों से हुए युद्ध में वह मारा गया हो क्योंकि इसी काल (17 जून 1013 ई.) का एक परमारकालीन अभिलेख6 भी पोकरण से ही प्राप्त हुआ है जिसमें परमार धनपाल ने अपने पिता की स्मृति में गोवर्द्धन स्तंभ का निर्माण करवाया था। धिन्धिक भी गुहिक शासक के समान गायों की रक्षा करते हुए मारा गया था। यह भी संभव है कि गुहिक शासक परमार धिन्धिक की मदद के लिए आया हो और दोनो ही वीरगति को प्राप्त हुए हो। इस विषय में न तो अभिलेख ओर न ही कोई अन्य समकालीन स्त्रोत कोई जानकारी दे पाए है। किन्तु यह अवश्यक कहा जा सकता है कि इस काल में पोकरण क्षेत्र में परमार अथवा पंवार काफी सक्रिय थे। वर्तमान जैसलमेर के माड क्षेत्र भाटी विजयराव चूडाला के पुत्र देवराज के बाल्काल की घटना से इस पर प्रकाश पडता है।
भाटी विजयराव जिसका काला 1000 ई (1057 वि.सं.)7 के लगभग का है ने अपने पुत्र देवराज का पाणिग्रहण बीठोडे़ (संभवतः भटिण्डा) के वराह शाखा के पंवारों से किया। देवराज की अवस्था उस समय पांच वर्ष थी। कन्या का नाम हूरड़ था। विवाह की दावत के समय वराहों तथा झालों ने पूर्व नियोजित षडयंत्र के अनुसार भाटियों की बारात पर अचानक आक्रमण कर दिया। आक्रमण करने की वजह यह थी कि विजयराव चूड़ाला की बढती शक्ति से वराह पंवार आतंकित थे तथा अपनी सम्प्रभुता के लिए खतरा मानते थे। इस आक्रमण में विजयराव अपने 750 साथियों के साथ मारा गया। घाटा डाही की स्वामीभक्ति के कारण बालक देवराज के प्राण बच गए।8 एक रैबारी नेग अपनी दु्रतगति ऊंटनी पर बैठाकर पोकरण लाने में सफल रहा। संभवतः धाय डाही ने रेबारी नेग को देवराज सौपकर पोकरण पहुंचाने का निर्देश दिया था।
इतिहासविद मांगीलाल व्यास से वीठाड़े कागे भटिण्डा होने का अनुमान लगाया है।9 इसके विपरीत डॉ. हुकुमसिंह भाटी ने इसे देरावर मना है।10 वास्तव में देरावत अधिक युक्तिासंगत प्रतीत होता है क्योंकि विजयराव चूड़राला का बडी बारात लेकर भटिण्डा जाना ओर देवराज का वहां से ऊंटनी से बचकर सकुशल पहुंच जाना अविश्वसनीय लगता है। वीठोड़ा देरावर या उसके आस-पास का ही कोई क्षेत्र रहा होगा।
रेबारी नेगा देवराज को लेकर पोकरण पहुंचा। वहां अपने खेत में काम कर रहे एक ब्राह्मण देवायत पुरोहित को नेग ने सारी स्थिति स्पष्ट कर दी। ब्राह्मण से बालक की सुरक्षा का वचन लेकर उसने देवराज को सौप दिया। उधर वराहों ने बालक देवराज की खोजबनी करनी प्रारंभ करदी। जब वह अपने डेरे पर नहीं मिला तो पागिरयों की सहायता ली गई। पागियों को लेकर वराह ऊंटनी के पद-चिन्हों का पीछा करते हुए पोकरण जा पहुँचे। पोकरण में खोजबनी करते हुए वे देवायत पुरोहित के यहां पहुंचे। बालक देवराज के हुलिए से उन्हें उस पर शक हुआ। देवायत के लिए वराहों ने उसे देवराज के साथ भोजन करने को कहा। तब देवायत ने अपने पुत्र रतन के साथ देवराज को भोजन करवा दिा। सयंदेह दूर होने पर वराह सेनिकों का दल वहां से चला गया।11
इस प्रकार देवायत ब्राह्मण ने जातीय खानपान के नियम भंग कर देवराज के प्राण बचा लिए किन्तु ब्राह्मणों ने रतन को अतिच्यु कर दिया। मजबूर होकर उसे सोरठ जाना पड़ा।
सŸाा पुनः प्राप्त होने पर देवराज ने रतन की खोज करवाई। रतन के मिल जाने पर उसे अपना बारहठ बनाया और उसके सिर पर छत्र मंडा कर दिया चारण की पुत्री के साथ उसका विवाह कर दिया। उसके वंशज रतनू चारण के नाम से प्रसिद्ध हुए।12
भाटी देवराज जिसका काल 1020 ई. (1097 वि.सं.) के आसपास का है ने वराहो को पराजित कर उनके क्षेत्रों पर अधिकार स्थापित कर लिया।13 पंवारों की पराजय के बाद भी इस क्षेत्र में उनका प्रभाव पूर्णतया समाप्त नहीं हुआ। उपरोक्त घटना के बाद भी पोकरण में पंवारों की ठकुराई के साहित्यिक प्रमाण मिले है।14 किन्तु उनकी स्थिति स्वतंत्र सम्प्रभु शासक की थी या अधीनस्थ सामंत की इस विषय में हमारे पास कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। भौगोलिक दृष्टि हम यदि सोचे तो पोकरण का जैसलमेर के निकट होना जल की पर्याप्त उपलब्धता, नमक की उपलब्धता, पंवारों से परम्परागत शत्रुता इत्यादि कारणों से यह क्षेत्र अवश्य ही उस क्षेत्र में शक्तिशाली भाटियों के अधीन रहा होगा तथा पंवारों की स्थिति अधीनस्थ सामंत या ठाकुर की रही होगी। यह तथ्य गौर करने योग्य है कि रैबारी नेग बालक देवराज के प्राण बचाने के लिए पंवारों के अधीन क्षेत्र में कभी नहीं ले जाता। इससे यह प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र पर पंवारों का अधिकार नहीं था। यहां उस समय गुहिलों का शासन रहा होगा जो मेवाड के गुहिलों की कोई शखा या अधीनस्थ सामन्त रहा होगा। पोकरण के बालनाथ मंदिर में सन् 1013 (वि.सं. 1070) का गुहिल स्तंभ लेख इस ओर संकेत करता है। पोकरण से ही सन् 1013 ई. (वि.सं. 1070, आषाढ़ सुदी 6 शनिवार) का एक परमार अभिलेख प्राप्त हुआ है15 जिसमें वर्णित है कि परमार शिष्य पुण्य का पुत्र धिन्धक के पुत्र परमार धनपाल ने अपने पिता की स्मृति में गोवर्द्धन स्तंभ का निर्माण करवाया था। दोनों ही एक प्रकार से युद्धों में गायों की रक्षा कतरे हुए मारे गए। इसी वर्ष के परमार अभिलेख से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पंवारों ने ही गुहिलों की गायें पकडी थी। गुहिल शासक की मृत्यु होने पर उन्होंने इस क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया। गुहिलों को हराने वाला अवश्यक ही धिन्धिक रहा होगा। उसी वर्ष पंवारो के शत्रु भाटी अथवा किसी अन्य गुहिल शासक ने पंवारों के शत्रु भाटी अथवा किसी अन्य गुहिक शासक ने पंवारों की गायें पकड ली होगी और धिन्धिक युद्ध करता हुआ मारा गया होगा। गोविन्दलाल श्रीमाली ने अपने ग्रंथ राजस्थान के अभिलेख में गुहिल और परमार शासकों का गजनवी के सिपाहियों अथवा सिंध के मुस्लिम शासकों से गायो की रक्षा करते हुए युद्ध में मारे जाने की बात कही है। उपरोक्त शासकों का गाये पकड़ने का उद्देश्य स्पष्ट नहीं हो पाता है। उनके लिए गायें पकड कर अपने सुदूर देश ले जाने का विचार अविश्सनीय सा लगता है। अतः अभिलेख में वर्णित शत्रुओं का मुस्लिम आक्रांत होने की धारणा की संभावना काफी कम है।
सन् 1013 ई के परमार अभिलेख के आधार पर इसी वर्ष से पोकरण पर पंवारों की सŸाा स्थापना मानी जा सकती है। सन् 1182 ई. (वि.सं.1239) के पोकरण के समीप ओलन गांव से प्राप्त शिलालगेख से यह ज्ञात होता है कि यह क्षेत्र भीमदेव चालुक्स के अधीन था। इसी वजह से महारावल जैसल अपनी सीमान्तों का विस्तार वहां तक नहीं कर पाया था।16
लगभग इसी समय पोकरण में पंवार पुरूखा की ठकुराई थी।17 अवश्य ही यह चालुक्यों का अधीनस्थ सामंत रहा होगा। इसी वजह से जैसलमेर के भाटी इनके विरूद्ध कार्यवाही कर पोकरण पर अधिकार नहीं कर सके। पुरुखा ने पोकरण में लक्ष्मीनारायण जी का एक देवस्थान बनवाया। इन्हीं दिनों भैरव राक्षस का यहां आना हुआ। वह रोज एक आदमी का मांस खाने का आदी था। पुरुखा के कोई पुत्र नहीं था। अतः उसकी मृत्यु के बाद उसका दामाद नानग छाबडा गद्दी पर बैठा। प्रतापी ठाकुर नानग ने युद्ध में अनेक सोने की थालियाँ जाती थी। भैरव राक्षस रोज एक सोने की थाली ले जाता था। नानग ने इसबात को गुप्त रखा।
नानग की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मध्ध्विल गद्दी बैठा। रोज एक थाली कम हो जाने कापता लगने उसने थालियों पर सांकल लगवा दी इससे नाराज होकर भैरव राक्षस ने महिध्वल को पकड लिया। संभवतः भैरव राक्षस मारा गया। भैरव राक्षस के भय से पोकरणवासी नगर छोडकर चले गए।18
सन् 1375 ई (वि.स. 1432) के लगभग रावल मल्लिनाथ राठौड़ महेवा राज्य की सीमा विस्तार करने के उद्देश्य से पोकरण और उसके उसके आस-पास के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। इस क्षेत्र में राठौडों की सŸाा स्थापित हो जाने से जेसलमेर के भाटियों और मारवाड के राठौड़ों में झगडों का सूत्रपात हुआ।19
रावल मल्लिनाथ के शासनकाल में अजमाल तंवर उससे मिलने आया। उसने रावल से सूने पोकरण को पुनः बसाने की अनुमति मांगी। अजमाल तंवर के पुत्र रामदेव जी (1352ई.-1385 ई) ने भैरव को वश में करके सिंध जाने का आदेश दिया। भैरव का आतंक समाप्त हो जाने पर नगर पुनः आबाद हो गया। इधर रामदेव जी जब किसी काय्रवश तुंवरावाही (जयपुर राज्य) गए हुए थे पीछे से उनके अग्रज वीरभदेव जी अपनी पुत्री का विवाह राव मल्लिनाथ जी के पौत्र ओर जगपाल के पुत्र हम्मीर से कर दिया।20 एक जनश्रुति के अनुसार रिवाज के मुताबिक वीरमदेवजी ने अपनी .पुत्री से कुछ मांगने को कहा। तब पति के कहे अनुसार उसने गढ के कंगूने मांग लिए। पुत्री की इच्छा पूरी करते हुए उसने पोकरण छोड़ दिया। तुंवरावाटी से लौटकर आने पर रामदेवजी उस स्थान पर जा बसे जहां वर्तमान में रामदेवरा है। यही 33 साल की अवस्था में 1385 ई (सं. 1442 भादवा शुक्ल एकदशी) को राम सरोवर की पाल पर जीवित समाधि ले ली।21
राठौड़ हमीर के पश्चात् राव दुरजणसाल, तत्पश्चात् राव बजरंग ने पोकरण का शासन किया22 और फिर राव खींवा (क्षेमराज) नामक एक निर्बल ठाकुर पोकरण का स्वामी हुआ। पोकरण पर शासन करने के कारण हमीर के वंशज पोकरणा राठौड़ कहलाए।23 इन पोकरणा राठौड़ो ने राव जोधा को मण्डोर पर अधिकार करने में भी मदद की।24 जैसलमेर के महारावल देवीदस ने पोकरण के पौकरणा राठौड़ौं और भाटियों के बीच निरन्तर संघर्ष के कारण कुण्डल जो फलौदी के पास हैं, अपने दामाद राव सातल को दे दिया25। राव सातल के उŸाराधिकारी सूजा ने अपने पुत्र नरा (नरािसंह) को फलौदी का जागीर में दी। फलौदी में जल की कमी होने के कारण उनका मन वहां नहीं लगा। इसलिए उसनेराव सूजा से प्रार्थना कर पोकरण स्वयं के नाम लिखवा ली।26 मूंता नैणसी ने पोकरणा राठौड़ खींवा और नरा के मध्य हुए संघर्ष का रोचक विवरण प्रस्तुत किया है-27
राठौड़ खींवा का पोकरण पर राजा था जो बालनाथ योगी का आसन था। वहीं बेंगटी में महराज के बेटे हरभू सांखला का राज था। उसने अपनी पुत्र का विवाह भाटी कलिकरण केहरात (जैसलमेर) से की। आशा से होने के कारण वह पीहर थी। कड़े नक्षत्र मे ंउसने एक पुत्री को जन्म दिया। मॉ-बाप और वंश पर भारी होने का विचार करकेे उसे त्याग दिया।
हरभू सांखला उस समय फलौदी गया हुआ था। वापस लौटते समसय बेंगटी के समीप बच्ची के रोने की आवाज सुनी। हरभू के निर्देशानुसार सेवक बच्ची को उठा लाए। उसी समय एक शकुन हुआ। तब हरभूजी उस बच्ची को घर ले आए। ठीक उसी दिन हरभूजी की पत्नी ने भी एक पुत्री को जन्म दिया। दोनो कन्याओं का लालन-पोषण साथ-साथ हुआ। अपनी दोहित्री लक्ष्मी के युवा होने पर हडबूजी ने विवाह का नारीयल राठौड़ो खींवा के पास भेजा किन्तु उसने यह कहते हुए मना कर दिया कि सुना है कन्या के दांत मोटे है‘‘ उसने नारियल लौटाकर संदेश भेजा कि हडभूजी अपनी पुत्री का विवाह करें तो मैं तैयार हूं।
हड़बू जी ने तब अपनी कन्या का विवाह राठोड खींवा से कर दिया।28ं लक्ष्मी कई वर्षों तक कुंवारी रही। संयोग से मारवाड़ का राजकुमार सूजा (सूरजमल)29 शिकार करते हुए वहां आ गया। हड़भू जी ने उचित अवसर देख कर अपनी पुत्री का विवाह उससे कर दिया। लक्ष्मी के दो पुत्र हुए बाधा और नरा।
राव जोधा के उŸाराधिकारी राव सातल के कोई पुत्र नहीं था। अतः उसने अपने अनुज सूजा के पुत्र नरा (नरसिंह) को गोद लेने को विचार से अपने पास रख लिया।30 राव सावल की मृत्यु (1491 ई) होने पर माता लक्ष्मी के कहने पर नरा ने अपने पिता सजा के पक्ष में राज्य छोड़ दिया। कालान्तर में नरा और उसके भाई ऊदा में किसी बात को लेकर झगड़ा हो गया। नरा ने गुस्से में ऊदा को छडी से पीट दिया इस घटना से कुपित होकर सूजा ने नरा को फलोदी का जागीर देकर अलग कर दिया।31 बाघा को जागीर में बगड़ी दी गई।
एक दिन नरा को भोजन करते समय लक्ष्मी ने अनायास ही उसे अपने कुंवर पदे का अपमान राव खींवा द्वारा किए जाने की घटना बताई । नरा ने राव खींवा से इसका बदला लेने का निश्चय किया। उसने अपने पुरोहित से बनावटी झगडा करके फलौदी से निकाल दिया। उस पुरोहित की शादी पोकरण हुई थी। अतः वह अपने ससुराल पोकरण आ गया। उसके ससुराल वालों ने उसके झगड़े की बात राव खींवा को बताई। राव खींवा ने उसे दरबार में बुलवा लिया और अपनी सेवा में रख लिया। यह पुरोहित ज्येष्ठ माह में पोकरण आया था। उन्हीं दिनों इमली भी फलित हो गई थी। जोगी बालीनाथ के आश्रम के अंदर राव खींवा के कुंवर इमली खाने रोज आते थे। बालीनाथ के चेलों ने इसकी शिकायत बालीनाथ से की। तब बालीनाथ ने इमली को श्राप दिया कि निष्फल हो जाना और कुंवरों को श्राप दिया कि तुमसे गढ छिन जाएगा और हमारे चेलों से मठ जाएगी और चेले घरबारी (गृहस्थ) हो जाएंगे। यह कहकर वह दक्षिण की ओर चल पडा। स्थानीय लोगों ने उसे रोकने की बहुत कोशिश की पर वह नहीं रुका।
कुंवरों की माता ईंदी ने तत्पश्चात काफी परिश्रम से बालीनाथ को मना लिया। बालीनाथ ने उससे प्रसन्न होकर उसे वीर पुत्र लूंका को उत्पन्न करने का आशीर्वाद दिया किन्तु यह भी कहा कि उसका राज्य जाल (एक प्रकार का मरूस्थलीय वृक्ष झाडी) के आस-पास ही होगा।
इधर पुरोहित भी मौके की इन्जार में रहा। राव खींवा को एक दिन न्याला (मांस-गोष्ठी) के विशेष आयोजन में ओगरात (उधरास या उगरावास)32 आमंत्रित किया गया। वह 80 आदमियों के साथ कोट से बाहर निकाला। उसने पुरोहित को भी चलने को कहा। पर उसने यह कहकर इंकार कर दिया कि मांस-गोष्ठी में भला उसका क्या काम।
मौका देखकर पुरोहित ने नरा के जासूसों को संकेत दे दिया। नरा 500 सवारों के साथ वहां जा पहुंचा। घोडों की पद्चाप सुनकर राव खींवा के आदमियों ने उन्हें रोककर पूछताछ की। राव नरा के सैनिकों ने उन्हें झूठ कह दिया कि यह नरा बीकावत का काफिला है जो अमरकोट विवाह करने जा रहा है खीरा के आदमियों ने यह बात उसे बता दी जिससे वह असावधान हो गया। इसी दौरान नरा पोकरण जा पहंुच नरा के निर्देशानुसार पुरोहित ने पोलिये (चौकीदार) को बातों में लगा दिया। मौका देखकर नरा ने उसकी बरछी से हत्या कर दी। पोल (मुख्य द्वार) खोलकर नरा ने कोट पर अधिकार कर लिया और अपनी आण फेरी (गढ़ पर अधिकार होने की घोषणा) । यह घटना सन् 1494 (वि.सं. 1551)33 की है।
खींवा ने आदमितसयों ने उस तक सूचना पहुंचा दी। वह उस समय पोकरण से तीन कोस की दूरी पर था। पोकरण आने के मार्ग पर उन्हें एक गडरिया मिला। जिसके कंधेपर एक मृत बकरा था। राव खींवा ने उसे अच्छा शकुन समझा। गडरिये की थोडी आनाकानी के बाद वे बकरे को खरीदने में सफल हुए। खींवा का एक चाचा जो शकुनक्ता भी था ने कहा कि आप जितनी दूर पहुंचकर इसे खाएंगे उतने ही वर्षों बाद आपकों पोकरण मिल जाएगा। उन्होंने जल्दी तो बहुत की परन्तु जगह-जगह नरों की सैनिक चौकियिों और पहले के कारण वे पोकरण से 12 कोस दूर भिणीयाणे में जाकर बकरा खा गए किन्तु पूरा नहीं खा सके।
नरा ने पोकरण गढ़ में मौजूद स्त्रियों को बाहर निकाल दिया। अब सभी पोकरणा राठौड़ बाडमेर जाकर रहने लगे जो उनके मल्लिनाथ जी के वंशज भाई-बन्धु थे। यहां से उन्होंने पोकरण पर पुनः अधिकार करने के प्रयास प्रारंभ किए। नरा ने पोकरण से दो किलोमीटर की दूरी पर राव सा तल के नाम से सातलमेर का गढ बनवाया। नरासर तालाब बनवाया और प्रदेश में सुदृढ शासन स्थापित किया।
पोकरण राठौड 12 वर्षो तक प्रयास करते रहें इधर लूंका 12 वर्ष का हो गया तथा भाला चलाने में निपुण हो गया। एक बार सभी पोकरणा राठौड़ों ने बाडमेर से पोकरण पर आक्रमण करने के लिए कूच हकिया। पोकरण पहुंचकर उन्होंने पोकरण के गोधन पर अधिकार कर लिया।34 नरा ने उन पर प्रत्याक्रमण किया। घमासान युद्ध हुआ जिसमें अनेक राठौड़ मारे गए। इसी दौरान लंका के घोडें पर बैठै बैठै ही अन्य घोडे पर सवार नरा के सिर कटकर नीचे गिर गया। दो सौ कदम दूर जाकर उसका धड भी गिर गया। राव नरा को मारकर पोकरणा भिणीयाणैं में जाकर ठहरे।
इधर पोकरण में नरा के पीछे उसकी पत्नियॉ सती होने को तैयार हुई किन्तु नरा के मस्तक के अभाव में ऐसा होना संभव नहीं था। उन्होंने पोकरणा राठौडों से राव नरा का मस्तक देने को कहा। पोकरणों ने जवाब भिजवाया कि हम तो तरा का मस्तक लाए नहीं है उन्होंने नरा के मस्तक गिरने के स्थान का पता बता दिया ओर कहा कि वे स्वयं जाकर मस्तक ले आएं । तब राव नरा की पत्नियाँ बताए गए स्थान (एक जाल वृक्ष) पर गई और वहां से मस्तक लाकर पोकरण पहुंचकर सती हुई ।
पोकरणा राठौड़ों के हाथों राव नरा की मृत्यु की सूचना पाकर उसका पिता राव सूजा बेहद उदास हुआ। वह तत्काल एक फौज को साथ लेकर पोकरण की ओर चला। शीघ्र ही उसने पोकरण के समीपवर्ती गांव नीलवै को जीत लिया। उसने एक-एक कर राव खींवा और लूंका के सभी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। तदुपरान्त राव सूजा ने नरा के बेटे गोविन्द को पोकरण ओर दूसरे पुत्र हमीर को फलौदी दी। राव खींवा के पुत्रों ने वहां काफी समय तक उत्पात मचाया। उन्हें सांकड़ा ओर सनावड़ी जैसे गांव देकर शान्त किया गया।36
सन् 1503 ई (वि.सं. 1560) में अल्पायु राव गोविन्द को राव सूजा ने पोकरण का टीका दिया। कामकाज करने के लिए उमराव नियुक्त किए। इस दौरान पोकरण में लूंका का उत्पात जारी रहा क्योंकि वे उपर्युक्त दो गांवों से सन्तुष्ट नहीं थे। युवा होने पर राव गोविन्द ने रामदेवरा के समीप उत्पाती लूंका पर आक्रमण कर दिया। लूंका को कोढणा के समीप घेर लिया गया। जनश्रुति है कि इस युद्ध में 140 पोकरणा राठौड काम आए। लूंका को पकडने के प्रयास में राव गोविन्द के हाथ उसका दुपट्टा आ गया। लूंका नंगे बदन भागने का प्रयास करने लगा।37 तभी राव गोविन्द ने लूंका को कहा - ‘‘काकाजी वहीं खडे रहो। मै आपका वध नहीं करूंगा‘‘। गोविन्द ने अपना दुपट्टा दिया और कहा ‘‘जो हुआ सो हुआ । अब इस शत्रुता को दूर करों‘‘। दोनों नगे साथ में बैठकर भोजन किया।उसने पोकरण के दो हिस्से किए। सातलमेर पोकरण सहित 30 गांव उसने स्वयं रखे और 30 गांव लूंका को दिए। जहां राव नरा का मस्तक कट कर गिरा था। उसी जाल वृक्ष से दोनों की सीमा निर्धारित हुई। यह सीमा कई वर्षो तक ज्यों की त्यों रही। लूंका ने लूणीयणों बसाया जिसे वर्तमान में भूणयाणें कहा जाता है। राव गोविन्द के समय सातलमेर में काफी अच्छी बस्ती विकसित हुई । यहां उस समय 500 घर महाजनों के थे।38
ज्ञातव्य है कि मूंहता नैणसी ने ख्यात और मारवाड रा परगना री विगत दोनो रचनाएॅ लिखी है। एक ही व्यक्ति द्वारा लिखे जाने के बावजूद दोनों ग्रंथों के कुछ विवरण में अन्तर है। उदाहरण के लिए विगत में लिखा है कि राव खींवा के समय पोकरण गढ के द्वार नहीं था39 जबकि अपनी ख्यात में नैणसी ने लिखा कि किस प्रकार राव नरा ने पोलिये (पहरेदार) की हत्या करके पोल खोलकर गढ पर अधिकार कर लिया। जोधपुर राज्य की ख्यात40 में भी द्वार नहीं होने की जानकारी है। वाताएॅ चूंकि जनश्रुतियों पर आधारित होती है इसलिए इस प्रकार की गलती हो सकती है। नैणसी ने इस वार्ता को यथावत अपनी ख्यात में स्थान दे दिया। अतः हमारे विचार से पोकरण के गढ की पोल में दरवाजा नहीं रहा होगा।
ख्यात में एक अन्य प्रसंग है जो उपरोक्त वार्ता में वर्णित है कि गोविन्द के दो पुत्र जैतमाल और हमीर हुए।41 जबकि विगत में लिखा है कि नरा के दो पुत्र गोविन्द व हमीर हुए। राव सूजा ने गोविन्द को पोकरण और हमीर को फलोदी का टीका दिया।42 विगत में वर्णित तथ्य की पुष्टि महाकमां तवारीख री मिसलां रो ब्यारों से होती है जिसमें वर्णित है कि हमीर नरो सुजावत रो फलोदी रो धणी, गोयंद नरावत का पोकरण धणी।43 विश्वेवर नाथ रेऊ भी इसकी पुष्टि करते है।44 अतः ख्यात का विवरण त्रुटिपूर्ण है।
इसी प्रकार मूंहता नैणसी ने ख्यात और विगत ने नरा के पोकरण पर अधिकार करने के जो कारण् बताएं है उनमें भी अन्तर है। ख्यात में नैणसी ने कहा कि राव नरा पोकरण पर इसलिए अधिकार किया क्योंकि राव खींवा ने उसकी माता लक्ष्मी के विवाह का नारियल एक सर्वथा अनुचित कारण (दांत मोटे) है से लोटाकर उसके कुंवरपदे का अपमान किया था।45 इस प्रकार पोकरण पर अधिकार करने के पीछे प्रतिशोध की भावना थी जबकि विगत के अनुसार फलोदी के शुष्क और जल रहित होने के कारण राव नरा का वहां मन नहीं लग रहा था।46 अतः वह पोकरण पर अधिकार करने के उपर्युक्त दोनो ही कारण रहे होंगे। जोधपुर राज्य की ख्यात47 में लिखा है कि नरा ने पोकरण अपने नाम लिखवा ली। इस तथ्य के विषय में मूंहता नैणसी मौन है।
राव नरा की मृत्य के संबंध में भी विसंगतियां है। मूंहता नैणसी री ख्यात वार्ता में यह वि.सं. 1551 चेत्र वद 2 लिखा है।48 इतिहासविद् गौरीशंकर ओझा ने जोधपुर राज्य के इतिहास में इस नैणसी ख्यात का त्रुटिपूर्ण संदर्भ देते हुए वि.सं. 1551 चेत्र वद 5 या, ई.सं. 1496, 4 मार्च माना है49 । 1551 चैत्र वद 5 या ई.सं. 1496, 4 मार्च माना है। प. विश्वेश्वर नाथ रेऊ ने मारवाड का इतिहास में इसे वि.स. 1555 (ई.सन् 1498) माना है।50 जबकि मारवाड़ परगना री विगत में नेणसी ने लिखा है कि राव नरा की मृत्यु के बाद राव सूजा फौज लेकर पोकरण आया। उसने पोकरणों को पराजित कर दिया। संवत् 1560 में रावनरा के पुत्र राव गोविन्द (गोविन्ददास) को टीका दिया।51 मुंहता नैणसी री ख्यात में ‘नरा सूजावत राठौड अर खिंवसी पोकरणै री वार्ता‘ के अनुसार पोकरण पर अधिकार करने के समय लुंका (राव खींवा का पुत्र) का जन्म भी नहीं हुआ था। कालान्तर में लूंका ने ही घोडें पर सवार होकर दूसरे घोडें पर युद्ध करते हुए राव नरा के सिर पर आडी तलवार पर प्रहार करे हुए उसका सिर धड से अलग कर दिया था52। ऐसा बालक यदि हष्ट पुष्ट या बलिष्ठ हो तो कम से कम 8 या 9 वर्ष का तो रहा ही होगा।
सभी स्त्रोतों पर विचार करने के बाद यह प्रतीत होता है कि राव नश ने पोकरण पर ई-सन् 1494 (वि.सं. 1551) में आक्रमण किया होगा।53 ई-सन् 1503 (वि.सं. 1560) में वह राव खींवा और लूंका के आक्रमण का सामना करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ54 । इस वर्ष मारवाड़ नरेश राव सूजा के पोकरणा राठौडो का दमन कर राव नश के पुत्र गोविन्द के पोकरण का टीका दिया। गोविन्द की कम अवस्था 4 अथवा 5 वर्षो तक उसके सहयोगियों ने उसे पोकरणों पर चढ़ाई करने से रोका।55 नैणसी ख्यात में वर्णित वार्ता को यदि हम सही माने नरा के आक्रमण के अगले वर्ष लूंका का जन्म हुआ होगा अर्थात् ई-सन् 1495। ई सन् 1503 ई मगें उसने आठ वर्ष की अवस्था में नरा से युद्ध किया होगा तथा संयोगवश नरा को मारने में सफल रहा होगा।56 12 वर्ष का होने पर उसका गोविन्द से युद्ध हुआ होगा (ई सन् 1507) और इसी वर्ष दोनों ने समझौता कर राज्य आपस में बराबर बांट लिया गया होगा। निःसंदेह उसे इस कार्य में अन्य राठौड़ वीरों का भी सहयोग मिला होगा।
राव गोविन्द की ई. सन् 1525 (वि.सं. 1582) में मृत्यु होने के बाद उसके पुत्र जेतमाल को टीका हुआ। गौ.शा.ओझा जोधपुर राज्य का इतिहास भाग प्रथम पृष्ठ 311 में लिखा है कि ‘‘राव जैतमाल गोयन्द के पुत्र नरा के पौत्र कान्हा का अमल था‘‘ ओझा जी की यह टिप्पणी सही नहीं है क्योंकि अन्य कोई भी समकालीन स्त्रोत इस विषय में हमे जानकारी नहीं देते है। राव जेतमाल का विवाह जैसलमेर के राव मालदेव की बेटी से हुआ। राव जैतमाल अयोग्य थ। उसके प्रधान ने महाजनों का शोषण करना और उन्हें लूटना प्रारंभ कर दिया। जब महाजन एकत्रित होकर राव जैतवाल के पास गए तो राव ने उनकी कोई सुनवाई नहीं की। तब महाजन जोधपुर के राव मालदेव के पास पहुंचे तथा अपनी आपबीती और शोषण की विषय में महाराजा को जानकारी दीे।57 राव मालदेव ने ई.सन् 1550 (वि.सं. 1607) में राठौड नगा ओर बीदा को सेना देकर पोकरण-सातलमेर भेजा। राव जैतमाल ने पांच दिनों तक युद्ध जारी रखा। लगातार तोपों की गोलाबारी से गढ की बावड़ी नष्ट होकर (गोले लगने से) सूख गई। ऐसी परिस्थिति में जैतमाल ने गढ जोधपुूर की सेना को सौप दिया। उसे कैद कर लिया गया किन्तु बाद में मुक्त कर दिया गया। तब वह अपने ससुर भाटी रावल मालदेव के पास जैसलमेर चला गया।58
वस्तुतः राव मालदेव जिस समय जोधपर की गद्दी पर बैठा केवल जोधपुर और सोजत परगनों पर ही उसका अधिकार था। जैतारण, पोकरण, फलौदी, बाडमेर, सिवाना, मेड़ता इत्यादि के स्वामी आवश्यकता पडने पर सैन्य सहायता अवश्य देते थे अन्यथा वे स्वतंत्र थे। अतः राव मालदेव उन्हें अधीन करने हेतु अवसर की ताक में था। पोकरण सातलमेर पर अधिकार कर ने के बाद उसने छल से फलौदी पर भी अधिकार कर लिया।59
राव जैतमाल के ससुर महारावल मालदेव ने उसे शरण दी थी। राव जैतमाल ने महारावल की अधीनता को स्वीकार करके पोकरण पुनः हस्तगत करने में उसकी सहायता करने का निवेदन किया60। कुंवर हरराज के नेतृत्व में महारावल ने एक सेना पोकरण भेजी। महारावल मालदेव अपने जवाई जैतमल की मदद करने के साथ-साथ पोकरण एवं फलौदी क्षेत्र में राव मालदेव की बढ़ती गतिविधियों पर अंकुश भी लगाना चाहता। राव मालदेव जैसलमेर राज्य की संप्रभुता के लिए खतरा बर कर उभर रहा था।
हरराज ने बाड़मेर के रावत भीम को अपनी तरफ करके राव मालदेव के विरूद्ध सहायता देने के लिए बुलाया। वह 400 घुड़सवारों सहित हरराज की सेवा में उपस्थित हुआ। उसने जैतमाल के साथ मिलकर राव मालदेव की सेना पर आक्रमण किया ओर 400 ऊँट छीन लिए।61 मारवाड़ की सेना उनका पीछा करती हुई कुंवर हरराज के शिविर तक जा पहुंची। उस समय भाटियों की सेना इधर-उधर बिखरने के कारण राठौड़ो से मुकाबला करने में विफल रही। फलस्वरूप हरराज को अपना शिविर छोड़कर जैसलमेर का मार्ग पकड़ना पड़ा।62
इस प्रकार अन्ततः हरराज के नेतृत्व में जैसलमेर के भाटियों का अभियान विफल रहा। इसमें भाटियों से रणनीतिक गलती भी हुई। यदि हरराज ने फलोदी एवं पोकरण दोनो स्थानों पर एक साथ अभियान करने के स्थान पर अपनी पूर्ण शक्ति पोकरण-सातलमेर पर अधिकार करने में लगाई होती उसे सफलता मिल सकती थी। इस सैनिक अभियान ने जैसलमेर और मारवाड़ के संबंधों में कटुता के बीज बो दिए। जोधपुर का राव मालदेव यद्यपि इस सैन्य अभियान में सुल रहा था परन्तु आगे चलकर मारवाड़ राज्य को पोकरण से हाथ धोना पडा और लंबे समय तक पोकरण पर जैसलमेर के भाटियों का अधिकार रहा। जोधपुर का राव मालदेव अपने सभी राठोड बन्धुओं को अधीन करने का इच्छुक था। बाड़मेर के राव भीव जिसने मारवाड-जैसलमेर संघर्ष में भाटियों का साथ दिया था और राठौड़ो के ऊँट छीन लिए थे, के विरूद्ध ई सन् 1557 (वि.सं. 1608) में सेना भेजी। राव भीव ने पराजित होने के पश्चात् महारावल मालदेव की अधीनता स्वीकार करके सैन्य सहायता मांगी। रावल भीव ने हरराज की सहायता से बाड़मेर पर स्वीकार करके सैन्य सहायता मांगी। रावल भील ने हररज की सहायता से बाड़मेर पर पुनः अधिकार कर लिया। नाराज होकर राव मालदेव ने जैसलमेर पर आक्रमण और संधि करने के लिए बाध्य किया। इस संघर्ष की जड़ वास्तव में पोकरण ही था।
ई. सन् 1550 (वि.सं. 1607) के लगभग राव मालदेव ने सातलमेर के गढ़ को नष्ट कर दिया और राव नरा के द्वारा उजाड़े हुए पोकरण शहर के प्राचीन गढ़ को नष्ट कर दिया और राव नरा के द्वारा उजाड़े हुए पोकरण शहर के प्राचीन गढ़ का ही पुनर्निमाण और सुदृढ़ीकरण करवाया। सातमेर के गढ़ से प्राप्त निर्माण सामग्री का यहां प्रयोग किया गया।64 सातलमेर के पत्थरों और अन्य निर्माण सामग्रीयों का राव मालदेव ने मेड़ता भिजवाकर मालकोट बनवाया। इससे स्पष्ट होता है कि राव मालदेव ने मेड़ता भिजवाकर मालकोट बनवाया। इससे स्पष्ट होता है कि राव मालदेव ने कोई नया दुर्ग नहीं बनवाकर पोकरण के प्राचीन दुर्ग को ही दुरूस्त एवं पुननिर्मित किया क्योंकि एक गढ़ की निर्माण सामग्री से दो गढ़ बनवाया जाना संभव प्रतीत नहीं होता। गढ में राव मालदेव ने एक पुलिस चौकी स्थापित की ।
राव मालदेव के उŸाराधिकारी राव चन्द्रसेन ने मुगल अधीनता स्वीकार नहीं की। अतः मुगल बादशाह अकबर की शाही फौजो ने जोधपुर पर घेर डाला (1565 ई) । करीब आठ माह संघर्ष करने के पश्चातृ दुर्ग में संचित सामग्री तथा जल का अभाव हो गया। फलस्वरूप ई सन् 2 दिसंबर 1565 (वि.सं. 1622) को राव चन्द्रसेन ने रात्रि में गढ़ छोड़कर पहले भाद्राजूण और फिर सिवाना के समीप पीपलण के पर्वतों में रहने चला गया। पोकरण में उसने योग्य अधिकारियें की नियुक्ति की है -
1. चौहान रामो झांझणोत
2. पंवार अखावत नराइण
3. खींवसी अखावत
4. कानड़दास जोगावत
5. सोहड़ राजधर सिंहावत
6. भाटी सूरजमल केल्हण
7. पेराड़ राजो उधरास क।66
पोकरण कोट को सामरिक दृष्टि से उपयुक्त जानकर पोकरण कोट को सामरिक दृष्टि ने उस राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र बनाने का मानस बनाया। कुछ समय पश्चात् आमेर के राजा राव मानसिंह राजावत देवराज थलेचा (भाटी) के आमंत्रण कर पोकरण गढ पर अधिकार करने 500 घुड़सवारों के साथ लूंणी पहुंचा।67 तब मानसिंह ने अपने प्रधान को राव चन्द्रसेन के पास भेजकर कहलवाया कि हमें पोकरण दे दो तथा बदले में हमसे सेवाएं ले लो। किन्तु चन्द्रसेन द्वारा इस बात को अस्वीकार कर दिया गया।68 राव मानसिक ने इस अवसर पर संघर्ष को टालकर लौट जाना ही उचित समझा। राव चन्द्रसेन के सैनिकों ने थलेचा देवराज के गांव के महाजनों को लूटा। राव चन्द्रसेन ने एक बार आकर पोकरण गढ़़ देख लिया ओर पुनः पीपलण के पहाड़ो में वापस चला गया।69
ई सन् 1575 (1632 वि.सं.) में रावलजीत थलेचा (भाटी) ने पोकरण के सोहड़ो (राठौडों की एक शाखा) की गायों को पोकड कर अधिकार में कर लिया। राव चन्द्रसेन के निम्नलिखित व्यक्ति इस आक्रमण में मारे गए -
1. चौहान रामौ 2. पंवार नारायण
3. सोहड़ राजघर 4. सोहड रतनौ
5. भाटी सूरजमल 6. सोहड़ देदो ।
7. राठौड़ किशनदास को गंभीर चोटे लगी।70
उपरोक्त युद्ध के परिणामों के विषय में समकालीन स्त्रौत मोन हैं।
बादशाह अकबर ने राव चन्द्रसेन की शक्ति को तोड़ने के लिए महारावत हराराज के पुत्र कंवर सुल्तानसिंह को शाही सेवा की एवज में फलौदी परगना जागीर में दे दिया। भौगोलिक स्थिति के अनुसार पोकरण जैसलमेर और फलोदी के मध्य है। मारवाड़ में उस समय अराजकता व्याप्त थी। अतः पोकरण विजित करने का यह अवसर भाटियों को अनूकल लगा। इसी दौरान महारावल हरराज का पुत्र कुंवर भाखरसी बादशाह अकबर का कृपापात्र बनकर पोकरण को अपनी जागिर में लिखवाने में सफल रहा। उन दिनों राव चन्द्रसेन के हाथों से सिवाणा छूअ गया।71 वह अब मेवाड़ के मुराड़ा ग्राम में रह गया था।72 इस अवसर का लाभ उठाने के लिए भाटियों ने फिर से पोकरण जीतने के प्रयास प्रारंभ किए।
ई.सन् 1575 अक्टूबर वि.सं. 1632 की कार्तिक माह में जैसलमेर महारावल हरराज 8000 सैनिकों सहित पोकरण पहुंचा और पोकरण घेर लिया।73 इस घटना को विभिन्न स्त्रोत अलग-अलग ढंग से वर्णित करते है । राव चन्द्रसेन की ख्यात में वर्णित है कि रावल हरराज स्वयं 8000 आदमियों को लेकर आक्रमण करने पोकरण पहुंचा और घेरा डाला।74 जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार महारावल हरराज 7000 आदमियों के साथ पोकरण आक्रमण करने के निमिŸा आया।75 आक्रमण के वर्ष और माह उपरोक्त दोनो गं्रथों में एक समान है।
मूंहता नैणसी ने भाटियों के आक्रमण का एकदम भिन्न विवरण दिया है। मूंहता नैणसी ने लिखा है कि राव चन्द्रसेन जो मेवाड़ के मुराड़ा ग्राम मंें रह रहा था को पोकरण से दूर जानकर ई.सन् 1576 (वि.सं.1633) के सावन माह में महारावल हरराज ने अपने पुत्र भाखरसी को करीब 600-700 योद्धाओं के साथ फलौदी से पोकरण भेजा। उसने पोकरण गढ़ का घेरा डाला।76 गढ़ में उपस्थित 40 व्यक्तियों ने भाखरसी के प्रयास को विफल कर दिया। गढ़ में रसद और युद्ध सामग्री भी पर्याप्त थी। भाखरसी दो माह तक यहां घेरा डाले रहा। थक हारकर भाखरसी ने महारावल हरराज को अधिक सेना और युद्ध सामग्री भेजने का निवेदन किया। महारावल हरराज दो हजार अश्वाारोहियों को लेकर पोकरण की ओर रवाना हुआ और राजकुमार भींव को कुछ पदातियों के साथ रवाना किया। महारावल हरराज की फौज में भाटी खेतसिंह मुख्तियार था तथा पोकरण का मुख्तियार पंचोली अणदा मुख्तियार था। राव चद्रसेन री ख्यात - पृत्र 408, जोधपुर राज्य री ख्यात 109। जैसे ही यह सेना पोकरण गढ का घेराव करने के लिए निकट पहुंची। दुर्ग की दीवार के रूथ्रों से गोलियों की बोछार होने लगी। तत्पश्चात् भाटियों की सेना ने शहर से एक कोस दूर नरासर तालाब में डेरा डाला। इस स्थान से सेना ने कई बार दुर्ग पर आक्रमण किया पर असफल रहे। चार माह तक गढ़ का घेराव और लडाई चलती रही, पर कोई परिणाम नहीं निकला। इन परिस्थितियों में भाटियों ने अपने प्रधान के मार्फत भण्डारी माना के समक्ष प्रस्ताव रखा - ‘‘राव चन्द्रसेन के हाथ से मारवाड़ निकल चुका है। पोकरण पर तुर्कों (मुगलों) का अधिकार हो इससे तो अच्छा है कि पेाकरण हमारे रहन रख दिया जाए वेसे भी हम राठौड़ो के सगे सम्बन्धी है। जब जोधपुर पर राव चन्द्रसेन का अधिकार हो जाए, उस समय हमारी रकम लौटाने पर हम आपको पुनः पोकरण लौटा देंगे। राव चन्द्रसेन की स्वीकृति मिलने पर एक लाख फदियेमें पोकरण को भाटियों के रहन रखना निश्चित हुआ।78
राव चन्द्रसेन ने भाटियों को पोकरण क्यों सौप दिया, यह विचारणीय विषय। राव चन्द्रसेन संभवतः अपनी जमीनी हकीकत को समझता था। तत्कालीन समय उसके लिए अत्यन्त संकट पूर्ण था। बादशाह अकबर ओर मोटा राजा उदयसिंह जो उसका अग्रज था कि फौजें उसके पीछे लगी थी। पोकरण से उसका समपर्क टूट चुका था क्योंकि सिवाणा उसके हाथ से छूट चुका। केवल विŸाीय प्रलोभनों में पड़कर वह पोकरण नहीं छोड सकता था। जैसलमेर के महारावल का पुत्र भाखरसी मुगल मनसबदर के रूप में पेाकरण प्राप्त कर चुका था और वह किसी भी प्रकार से पोकरण प्राप्त करके ही रहेगा। यह बात दूरदर्शी चन्द्रसेन जानता था। भाटियों द्वारा पोकरण पर अधिकार करने में असफल रहने पर शाही मुगल फौजो की भी सहायता ली जा सकती थी। अतः देर सवेर पोकरण का हाथ से निकल जाना निश्चित था। राव चन्द्रसेन को अपनी उस समय की संकटपूर्ण परिस्थिति से निपटने के लिए धन की आवश्यकता थी। उसने अवश्य ही यह सोचा होगा कि भूमि तो जानी ही है ऐसी स्थिति में धन केा ठुकराना उचित नहीं होगा। यदि जोधपुर पर कभी अधिकार हो गया तो भाअियों के पास पोकरण रहना संभव नहीं है।
इन सभी स्थितियों पर विचार करके चन्द्रसेन ने मांगलिया भोज को पोकरण भेजकर कहलवाया कि पोकरण कोट हरराज को सौप दो। इस प्रकार रविवार 29 जनवरी 1576 ई को पोकरण भाटियों को दे दिया गया। भाटियों ने मांगलिया भोज को 37,000 फदिए उसी समय दे दिए जिसमें से उसने 5000 स्वयं ने रखे तथा 20,000 फादिये राावजी के राजपूतों को कोट में बांट दिए। बाकी के 12000 फदिए मांगलिया भोज लेकर राव चन्द्रसेन के पास गया।
मूंहता नैणसी ने अपने ग्रंथ ‘मारवाड़ परगना री विगत’ में कुछ विवरण दिया है। नैणसी के अनुसार राव चन्द्रसेन80 पोकरण सौपने को राजी होने के पश्चात् भाटियों ने 20,000 फदिए तो उसी समय चुका दिए और शेष राशि जैसलमेर जाने पर चुकाने का वादा किया। सं. 1633 (1576 ई.) फाल्गुन बदि 14 को कुंवर भींव को गढ़ सौप दिया गया। तत्पश्चात् भण्डारी माना और मांगलिया भोज जैसलमेर गए। उन्हें कई दिन इन्तजार करवाया गया। थक हारकर वह बिना रकम लिए ही लौट गए।81 इस प्रकार महारावल हरराज और राव चन्द्रसेन के मध्य 1 लाख फदिये में संधि का उल्लेख अनेक विद्वान करते है कि कितनी रकम का लेन-देन हुआ। निश्चित ही यह तय की गई से कम था। अतः भाटियों ने वादखिलाफी की थी। इस घटना के पश्चात् राव चन्द्रसेन न तो मारवाड़ पर अधिकार कर सका और न ही पोकरण को रहन से छुड़ा सका।
ई. सन् 1581 (वि.सं. 1638 के ज्येष्ठ माह) में बादशाह अकबर ने मोटा राजा उदयसिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर उसे जोधपुर का राज्य दिया तथा उसके मनसब में सातलमेर को भी सम्मिलित किया। लेकिन इस पर अमल नहीं किया जा सका । ई.सन् 1594 (वि.सं. 1651 आषाढ़ सुदी 16) को मोटा राजा उदयसिंह की मृत्यु के पश्चात् राजा सूरजसिंह का टीका हुआ। पोकरण परगने का राजस्व चूंकि 5,60,000 दाम अथवा 14,000 रूपए था, अतः राव सूरजसिंह ने कुंवर गजसिंह को पोकरण पर अधिकार करने हेतु फौज सहित भेजा किन्त अभियान असफल रहा और पोकरण पर जैसलमेर के भाटियों का अधिकार बना रहा।
जैसलमेर गढ़ के किलेदार गोपालदास ऊहड़ (राठौड़) के पुत्रों अर्जुन, भूपत तथा माण्डव ने पोकरण क्षेत्र के कुछ गांवों को लूटा और वहां से मवेशी लेकर भाग गए। इस पर जैसलमेर राज्य द्वारा नियुक्त थानेदर भाटी कल्ला जयमलोत, भाटी पन्न सुरतानोत और भाटी नन्दो रायचन्दोत ने इन लुटेरों का पीछा किया और वलसीसर गांव के समीप उन्हें जा पकड़ा।83 लुटेरों ने रात भर भाटियों को कहानी सुनाने में व्यस्त रखा। लुटेरा के कुछ साथी वहां से बचकर कोढ़णा ग्राम पहुंचने में कामयाब रहे। रातों-रात उहड़ो की सेना वलसीसर जा पहुंची। प्रातःकाल दोनों पक्षों में युद्ध हुआ जिसमें दोनो पक्षों के काफी लोग मारे गए।84 मरने वालों में पोकरण की सैन्य टुकडी के भाटी कल्ला एवं नेता जयमलोत, शिवा अजाओत, भाटी नान्दो रायचन्दोत, केल्हण, पेथड़, मोकल एवं मेघा आदि योद्धा काम आए और केल्हण तथा भाटी प्रतापसिंह सुरतानोत घायल हुए। गोपालदास के पुत्र वहां से अपने गांव भाग गएं महारावल भीम ने इसकी शिकायत जोधपुर दरबार पहुंचाई । प्रत्युŸार में जोधपुर के प्रधानभाटी गोविन्ददास ने सूचना भेजी कि गोपालदास मेरी आज्ञा नहीं मानता है। अतः वे स्वतः ही उससे निपटे।85
तत्पश्चात् भीम ने अपने अनुज कल्याणमल की अध्यक्षता में एक सेना को ढणा ग्राम भेजी। आक्रमण् होने की सूचना पोकर गोपाल रात्रि में ही तुरंत जोधपुर से रवाना हुआं उस समय गंगाहै ग्राम में भाटियों की सेना रूकी हुई थी। प्रातःकाल वह वहां पहुंचा और भाटी सेना का मुकाबला कर काम काम आयां उसके साथ 35 राठौड़ और चौहान योद्धा मारे गए।86
15 ऊहड - कमरसी, कंवरसी, महेस, गोयंद आदि
7 चौहान - शंकर, सिंघावत, वीसा आदि
6 देवड़ा - गोपा, गोयंद आदि
2 रांदा
2 ईंदा (पड़िहार)
2 ब्राह्मण
1 मांगलिया (गहलोत)
इस युद्ध के पश्चात् उहड राठौड़ो ने जैसलमर के भाटियों के विरूद्ध युद्ध करने का कभी साहस नहीं किया।
महारावल मनोहरदास के शासनकाल में पोकरणा पोकरणा राठौड़ो का उपद्रव शनैः-शनै बढ़ने लगा। इन्होंने महेवा प्रदेश में रहते हुए जैसलमेर राज्य में लूटमार आरंभ कर दी। पोकरणा राठौड़ो ने पोकरण के निकट स्थित कालमुधा गांव में लूटमार की और पोकरण का इलाका हस्तगत करने का प्रयास किय। अतः महारावल मनोहरदास को इनके विरूद्ध सामरिक कार्यवाही करनी पड़ी तथा स्वयं ने इन पर ससैन्य चढ़ाई की। जैसलमेर से 40 कोस की दूरी पर जैसल मेर और महेवा की सीमा पर पोकरणों को जा पकड़ा । यही फलसूण्ड से 6 कोस तथा कुसमला से ढाई कोस के अन्तर पर लड़ाई हुई । पोकरणों के 140 योद्धा काम आये तथा वे भाग खड़े हुए।
युद्ध के पश्चात् पोकरणा पोकरणों राठौड़ो के गण्यमान सरदार महारावल मनोहरदास की सेवा में उपस्थित हुए और उन्होंने अपने कृत्य पर क्षमा मांगी । तब जाकर इनको पोकरण क्षेत्र मे रहने की अनुमति मिली।87 ऊहडो के समान पोकरणों ने भी इसके पश्चात् कभी भी जैसलमेर के भाटियों से सशस्त्र विद्रोहउ करने का प्रयास नहीं किया।
महारावल मनोहरदास के कोई पुत्र नहीं था। ई. सन् 1650 (वि.सं.1706)88 में उसकी मृत्यु के बाद रामचन्द्र और सबलसिंह में उŸाराधिकारी संघर्ष प्रारंभ हुआ। रामचन्द्र ने रनिवास का समर्थन प्राप्त कर जैसलमेर की बागड़ोर संभाली। उसे महत्वपूर्ण सामंतों का समर्थन प्राप्त नहीं था। इसलिए सामन्त उसे गद्दी से हटाना चाहते थे। उस समय सबलसिंह बादशाह शाहजहॉ के विशेष कृपापात्र रूपसिंह भारमलोत (किशनगढ़ के राजा) की सेवा में लगा हुआ था।
इधर जोधपुर में महाराजा गजसिंह की मृत्योपरान्त महाराज जसवंतसिंह को राज्य की टीका हुआ। पूर्व के सामान सातलमेर (पोकरण) को परगना 6,00,000 छः लाख दाम अर्थात् 14,000 रूपए जसवंतसिंह को मिला91। महारावल मनोहरदास की मृत्यु का समाचार मिलने के समय महाराज जसवंत सिंह रणथम्भोर के गोड़ो के यहां विवाह करने गया हुआ था। उसकी रानी मनभावती ने शाहजहॉ से निवेदन किया कि ‘‘पोकरण जागीर में दर्ज है जिस पर अभी तक अमल नहीं हो सकता है। इतने दिन हमारे समबन्धी महारावल मनोहरदास का वहां अधिकार था, इस कारण हमने कुछ नहीं कहा। अब रामचन्द्र गद्दी पर बैठा जिससे हमारा कोई लगाव नहीं है। अगर आपकी स्वीकृति मिल जाए तो हम पोकरण पर अधिकार कर लें।’’92
रानी मनभावती93 के पुत्र के उŸार में बादशाह शाहजहाँ ने कहा ‘‘आप चाहो तो जैसलमेर आपको दे दें। आपको अपने पोकरण पर अधिकार करने से कौन रोकता है। कुछ समय पश्चात् महाराजा जसवंतसिंह ने बादशाह से अर्ज किया - ‘‘जैसलमेर भाटियों का मूल वतन है इसलिए हमे इससे कोई वास्ता नहीं है। पोकरण की जागीर जोधपुर के राठौड़ो की रही है और आपके दफ्तर में भी इसका अंकन बराबर किया जाता रहा है परन्तु इसका उपयोग जैसलमेर के भाटी करते आए है। अगर आप पोकरण का फरमान कर दें तो भाटियों के विरूद्ध सेना भेजने की कार्यवाही की जाय। तब बादशाह ने इसके लिए स्वीकृति प्रदान कर दीं।94
महाराजा जसवंतसिंह ने पोकरण हस्तगत करने के लिए अप्रेल (सं. 1706, वैशाख सुदी 6) 1650 ई. को जोधपुर के लिए प्रस्थान किया। इसके कुछ समय पूर्व ही उसकी भटियाणी रानी जसरूप दे (महारावल मनोहरदास की पुत्री) बुधवार अप्रेल 10, 1650 ई. (वि.सं. वैशाख वदि 4-5) की रात्रि में मृत्यु हुई थी। श्रावण माह में सार्टूल और बिहारीदास शाही फरमान लेकर जैसलमेर के लिए रवाना हुए। उन्होंने वहां पहुंचकर रावल रामचन्द्र को फरमान दिखाया। सभी भाटियों ने मिलकर इसपर विचार-विमर्श किया और चार दिन बाद उन्होंने कहा कि गढ़ मांगने से नहीं मिलता है। दस भाटियों के बलिदन देने के बाद ही पोकरण उन्हें पोकरण मिलेगा। सार्दुल और बिहारीदास जोधपुर लौट आए और महाराजा को इसकी जानकारी दी।95
इस प्रकार जब शाही फरमान जारी करने के बाद भी भाटी पोकरण देने को राजी नहीं हुए तब महाराजा ने एक विशाल सेना पोकरण के भाटियों के विरूद्ध भेजने का निश्चय किया। फौज के तीन हिस्से किए गए तथा इसे राठौड़ गोपालदास (रींया सुन्दरदास मेड़तिया का पुत्र) चम्पावल विट्ठलदास (पाली गोपालदास चंपावत का पुत्र) और अग्रीम सेना राठौड़ नाहर खां (आसयोप राजसिंह कूम्पावत का पुत्र) व नैणसी ने किया। इस प्रकार सब मिलाकर दो हजार अश्वरोही और चार हजार पैदल सेना थी।96 इन तीनों टुकडियों को एक-एक कर क्रमश5 1650 ई. की (सितम्बर) आसोज वदि 2, 3 और 7 को रवाना किया गया। पहली टुकडी ने आसोज सुदी 7 को पोकरण के खारा गांव में पहंुचकर डेरा डाला।97
इस बीच राजा रूपसिंह (किशनगढ़) ने सबलसिंह की बादशाह शाहजहॉ से भेट करवाई। राजा रूपसिंह ने रावल मनोहरदास के उŸाराधिकारी के रूप में सबलसिंह को प्रस्तुत किया और बादशाह के चरण स्पर्श करवाए। बादशाह ने तब सबलसिंह को जैसलमेर का टीका देकर विदा किया।98 तत्पश्चात् सबलसिंह ने महाराजा जसवंत सिंह से भेंट कर मदद की याचना की। महाराज जसवंत सिंह ने सबलसिंह के लिए सेना और खर्चे इत्यादि की व्यवस्था कर उसे जैसलमेर दिलाने का आश्वासन देते हुए कहा कि वह फलौदी पहुंचे वहां जोधपुर की सेना उसकी मदद करेगी। तब सबलसिंह ने भी राजा जसवंतसिंह को फलोदी का प्रान्त मय पोकरण किले के लौटा देने का वाद कर लिया।99
सबलसिंह कुछ दिन फलौदी रहा। उसने 700-800 योद्धाओं के साथ फलोदी के ग्राम कुण्डल के भोजासर तालाब पर शिविर लगाया। इधर भाटियों की एक सेना जिसमें अधिकांशतः केल्हण भाटी थे, पोकरण की सेना के साथ सबलसिंह का मुकाबला करने जवण री तलाई सेखासर में डारे डाले बैठी थी। दोनो पक्षों में युद्ध हुआ जिसमें सबलसिंह विजयी रहा।100
इस विजय के बाद भी सबलसिंह ने तत्काल जैसलमेर पर आक्रमण करना अच्छा नहीं समझा। अपना पक्ष और मजबूत करने के लिए उसने पोकरण पर चढ़ाई करने वाली जोधपुर की सेना के साथ सम्मिलित होने का निश्चय किा और खरा गांव का डेरा जहॉ महाराजा की सेना रूकी हुई थी वहीं 500-600 योद्धाओं के साथ जा मिला। पोकरण क्षेत्र में सबलसिंह ने लूटमार की। उसे सूचना मिली कि पोकरण के गढ़ में डेढ़ हजार मनुष्य थे। जोधपुर की सेना के नजदीक आने पर अनेक व्यक्ति गढ़ से चुपचाप रात्रि में निकल गए और केवल 350 व्यक्ति ही रह गए।101 जोधपुर की सेना जिसमें 1500 सवार और 2500 पैदल थे।102 पोकरण से आधा कोस की दूरी पर डूगरसर तालाब पर जोधपुर की सेनाओं ने पड़ाव किया और आसोद सुद 15 (29 सितम्बर, 1650 ई.) को पोकरण गढ़ पर घेरा डाला । इस दिन प्रमुख सरदारों की देखरेख में तोपो से गढ़ पर आक्रमण किया गया। शहर पर अधिकार करके गढ़ के द्वारा के समक्ष मोर्चा लगाया गया। गढ़ में मौजूद भाटियों की सेना गोलियों और तीरों से शत्रुओं पर हमला किया किन्तु जोधपुर की सेना ने मोर्चा इस प्रकार से लगा रखा था जिससे इनका कोई सैनिक हताहत नहीं हुआ। इस प्रकार तीन दिन तक दोनो पक्षों में आक्रमण-प्रत्याक्रमा का दौर चलता रहा। गढ़ में मौजूद भाटियों ने सबलसिंह को कहलवाया कि ‘‘हमारी बाहं पकड़ कर बाहर निकाले जाने पर ही हम बाहर जाएंगे।’’ तब सबलसिंह ने जोधपुर की सेना के सरदारों-राठौड़ गोपालदास, बीठलदास और नाहरखान से निवेदन किया कि ‘‘ऐसे तो कोई भाटी गढ़ से बाहर नहीं आएगा। आप लोग मुझे दोन दिन का समय दो। किन्तु सबलसिंह भाटियों से गढ समर्पित करवाने में असफल रहा।103
5 अक्टूबर, 1650 ईं को (काती वद 6) को जोधपुर की सेना के 100 आदमी गढ में जा घुसे। इसकी सूचना मिलते ही अनेक व्यक्ति गढ़ छोड कर भाग खड़े हुए। केवल 15 या 16 व्यक्ति ही अब गढ़ में रह गए थे। गोपालदास, बिठलदास एवं नाहरखान गढ के अधिकांश व्यक्तियों के पलायन की जानकारी मिली तो उन्होंने सबलसिंह को कहलाया कि या तो प्रतापसिंह (पोकरण गढ़ में भाटियों का प्रमुख सरदार) को बाहर निकालों नहीं तो हमारे हाथों वह मारा जएगा।’’ सबलसिंह और मारवाड की सेना के तीनो सरदार प्रतापसिंह के वृद्ध होने के विषय में जानते थे इसी वजह से वह प्रतापसिंह को सकुशल बच निकलने का एक और मोका देना चाहते थे। तब सबलसिंह ने कहलाया कि प्रातः वह उसये गढ़ से बाहर निकाल देगा। किन्तु मारवाड़ के सेनानायक इससे सन्तुष्ट नहीं हुए क्योंकि वे रात में ही गढ पर पूर्ण अधिकार कर लेने के लिए तत्पर थे। रात्रि में ही बिठलदास ले कार्यवाही प्रारंभ कर दी। भाटी प्रतापसिंह को अततः अपने साथियों के साथ बाहर आना पड़ा। देहरा पोल के समीप हुए युद्ध में भाटी प्रतापसिंह अपने अनेक वयोवृद्ध साथियों के साथ लड़ते हुए काम आया।104 इस युद्ध में मारे जाने वाले प्रमुख भाटी -
1. भाटी प्रतापसिंह रावलोत - 75 वर्ष
2. भाटी का वेणीदास - 60 वर्ष
3. भाटी एका गोकलदास - 50 वर्ष
4. भाटी रूपसी - 65 वर्ष
5. भाटी सादो - 60 वर्ष
6. राठौड़ सादूल - 50 वर्ष
7. भाटी लालो - 38 वर्ष
8. भाटी जसो - 40 वर्ष
9. गौड़ रामो - 64 वर्ष
10. चौहान लखो - 60 वर्ष
11. तुरक जैमल कच्छवाह - 80 वर्ष
12. राठौड़ कुसलचन्द समेचा - 70 वर्ष105
पोकरण गढ़ में मौजूद भाटियों का इस तरह मुट्ठी भर लोगों के साथ लड़ना हमारी राय में नितांत बेवकुफी और मूर्खता वाला कदम था। यह कदम आम्मदाह के सदृश था। संभवतः भाटी प्रतापसिंह पोकरण को लेकर काफी जज्बाती हो गया थां अधिकांश राजपूत सरदारों और अन्य व्यक्तियों के गढ़ से पयलन करने के बाद भी 15-16 व्यक्तियों के सहयोग से उसने पोकरण गढ़ नहीं छोड़ने की जिद पकड़ ली। जोधपुर की सेना के सेनापतियों और रावल सबलसिंह ने उसे पोकरण गढ़ से बाहर निकलने के अनेक मौके भी दिए। वह लडकर काम आने का आमादा था जबकि हकीकत में इसका कोई ओचितय नहीं था। युद्ध जीतने के लिए लड़े जाते है न कि जबरदस्ती अपना जीवन झोकने के लिए। यदि उसकी इच्छा युद्ध करने ही की थी, तो भी उसे पोकरणगढ़ से पलायन करके जैसलमेर की सेना के सहयोग से मारवाड़ की सेना से युद्ध करता । निश्चित रूप से भाटी प्रतापसिंह वीर था किन्तु उसने अपने इस गुण का पूर्ण सुदपयोग नहीं किया।
जोधपुर की सेना की ओर से राठौड़ राजसिंह मारा गया और 10 व्यक्ति घायल हुए।106 पोकरण पर जोधपुर की सेनाओं के अधिकार करने के पश्चातृ अगले दिन वहां महाराज जसवंतसिंह का राज्याधिकार स्थापित हो गई। इसके पश्चातृ जोधपुर की सेना के साथ रामचन्द्र के विरूद्ध जैसलमेर पर आक्रामण करने के लिए रवाना हुआ। जैसे ही इस बात की सूचना रावल रामचन्द्र को मिली उसयने सबलसिंह को कहलवाया कि उसे अपना माल लेकर गढ में से निकलने दें । वह देरावर चला जाएगा। सबलसिंह ने उसकी स्वीकृति दे दी तथा जैसलमेर जाकर राज्य की बागड़ोर संभाली।
जैसलमेर की ख्यात तथा तवारीख जैसलमेर में रावल सबलसिंह के राज्य प्राप्ति का भिन्न विवरण मिलता है। इनके अनुसार सबलसिंह मुगल बादशाह का वह शाही फरमान लेकर जैसलमेर पहुंचा जिसमें उसे जैसलमेर का टीका दिए जाने का उल्लेख था। संभवतः जैसलमेर वालों ने उसे पकड़ना चाहा होगा। किन्तु वह बचकर किशनगढ़ पुनः लौटने में सफल रहा। जैसलमेर के भाटी सरदार इस घटना के कुछ समय पश्चात् सबलसिंह को लेने किशनगढ़ गए। लौटते हुए मार्ग पर मारवाड़ की सेना ने उनका रास्ता रोक लिया। तब सबलसिंह ने यह झूठ कहा कि हम जैसलमेर हस्तगत करने नहीं बल्कि स्वांगिया देवी की यात्रा करने जा रहे है। जब जोधपुर के सरदारों ने उनकी तलाशी ली। तलाशी में उन्हें बादशाह का फरमान मिला। तब सबलसिंह ने यह स्वीकार कर लिया कि वे जैसलमेर पर अधिकार करने जा रहे है। मारवाड के सरदारों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार करना पड़ा। जैसलमेर की ख्यात ओर तवारीख पोकरण के यह उपर्युक्त विवरण नितान्त काल्पनिक है क्योंकि मुंहता नैणसी जो इस सम्पूर्ण अभियान में काफी सक्रिय था अपनी ख्यात और मारवाड़ परगना रा विगत में इस घटना का कहीं भी वर्णन नहीं करता है।
अब सबलसिंह चूंकि पोकरा के इस हाथ से निकल जाने से प्रसन्न नहीं थी और अपने जीवन की इस घटना को एक कलंक मानता था। इसी वजह से उसने अथवा उसके उŸाराधिकारियों ने इस प्रकार की मिथ्या घटना लिखवाई।
पोकरण को प्राप्त करने के लिए उपर्युक्त युद्ध में महाराजा जसवंत सिंह की राजनीतिक कुशलता भी दृष्टिगोचर होती है। इस अभियान में जसवंतसिंह ने मुगल सम्राट शाहजहां की आज्ञा की अनुपालना भी कर दी और सबलसिंह की सहायता करके फलोदी और पोकरण के परगने जोधपुर राज्य में मिलाकर अपना प्रयोजन भी सिद्ध कर लिया तथा सबलसिंह को जैसलमेर का राज्य भी मिल गया।109
नवंबर 1650 (कार्तिक सुदी 12) को महाराजा ने मुहता नैणसी को सिरोपाव देकर एवं पोकरण का हाकिम नियुक्त कर पोकरण भेजा।110 सरदारों ने पोकरण छोड़ने से पूर्व सिंघवी प्रतापमल को वहां का प्रबंध सौपा था। मुंहता नैणसीने उसे पूर्व निर्देशानुसार जोधपुर भेज दिया। नैणसी ने पोकरण में एक थाना स्थापित किया। राठौड़ को गढ़ की चाबियाँ सौंपी गई।111 ई.सन् 1655 (वि.सं. 1711) के पोकरण गढ़ से प्राप्त से एक अभिलेख के अनुसार महाराजा जसवंतसिंह ने पोकरण निर्माण करवाया।
जैसलमेर का महारावल सबलसिंह जिसने पूर्व में मारवाड़ की सेना को पोकरण दिलाने में सहयोग दिया था। अब पुनः पोकरण पर अधिकार करना चाहता था। इसके लिए वह उचित अवसर की प्रतीक्षा में था।
ई.सनृ 1657 (वि.सं. 1714) में मुगल बादशाह ने अपनी एक रूग्ण अवस्था जानकर अपने ज्येष्ठ पुत्र द्वारा शिकाह को अपना उŸाराधिकारी घोषित किया। शाहजहां के शेष पुत्रों ने उसे स्वीकार नहीं किया। फलस्वरूप दिल्ली साम्राज्य की राजगद्दी को लेकर उतराधिकार संघर्ष प्रारंभ हो गयां इस युद्ध में महाराज जसवंत ने दारा शिकोह का पक्ष लिया। इस युद्ध में औरंगजेब की विजय हुई। चूंकि महाराज जसवंतसिंह इस युद्ध में औरंगजेब के खिलाफ लड़ा था। इसलिए महारावल सबलसिंह को पोकरण का अधिकार करने का उचित समय लगा। उसने अपने पुत्र कुंवर अमरसिंह को 15 मार्च 1659 ई. (वि.सं. 1716 चैत्र सुदि 3) को 3000 सैनिकों के साथ पोकरण भेजा। कुं. अमरसिंह ने पोकरण के गढ़ को घेर लिया। कुं. अमरसिंह के साथ भाटी रामसिंह और सीहड़ रघुनाथ भी थे। भाटियों की सेना ने पोकरण से आधा कोस दूर मेहरलाई के समीप पड़ाव किया। गोलियों और तीर चलाते हुए वे गढ़ के समीप पहुंचे और उस पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात् भाटियों ने गढ पर आण फेरी (राज्याधिकार स्थापित होने की दुहाई फेरना) ।113
उस समय पोकरण के गढ़ में निम्नलिखित पदाधिकारी थे-114
1. रा. जगमाल मनोहरदासोत
2. रा. चन्द्रसेन सबलसिंहोत
3. रा. माधोदास जसंवतोत
4. रा. सार्दूल सूजावत मण्डलो
5. रा. रघुनाथ लक्ष्मीदासोत
6. भाटी वीठलदास सीहो
7. भाटी जोगीदास
8. भीवराज उघस रो
9. 4 मांगलिया इत्यादि
पोकरण पर जैसलमेर के भाटियों के अधिकार होने की सूचना महाराजा जसवंतसिंह को सिरोही के गांव ऊड में मिली। खबर पहुंचने के समय मिर्जा राजा जयंसिंह जसवंतसिंह के साथ मौजूद था। जसवंतसिंह ने यह घटनाक्रम अजमेर के सूबेदार बहादुर खां के बताया और उससे निवेदन किया कि वह एक शाही मनसबदार जैसलमेर भेजकर पोकरण को खाली करवाए। जयसिंह इससे सहमत था किन्तु नवाब को यह विचार पसन्द नहीं आया। जयसिंह ने चौधरी रतनसी के हाथ एक पत्र रावलसबलसिंह के पास भिजवाया तथा कहलवाया कि बादशाह की ओर से यह जागीर में महाराजा जसवन्त सिंह को दी गई है। किन्तु सवाईसिंह ने इस ओर ध्यान नहीं दिया।
तत्पश्चात् महाराजा जसवंतसिंह ने अप्रेल, 1659 निम्नलिखित राठौड सरदारों के साथ मुहता नैणसी को पोकरण भेजा और स्वयं विवाह करने सिरोही चला गया।116
1. मुहता नैणसी
2. रा. राजसिंह सूरजमलोत
3. रा. सबलसिंह प्रागदासोत
4. रा. गोपीनाथ माघवदासोत
5. रा. हरीदास ठाकुर सिंहोत
6. रा. प्रतापसिंह गोपीनाथोत
7. रा. गराधर दास मोहणदासोत
8. भाटी भील प्राणदासोत
9. सोहड़ तेजसिंह माधोसिंहोत
10. रा. श्याम साहिबखानोत
मुहता नैणसी की प्रार्थना पर राठौड़ लखधीर और राठौड़ भीव को सेना का नेतृत्व सौपा गया। इस बीच मुहता नैणसी एक बार जोधपुर आया तथा खजाने से 20,000 की रकम और आवश्यक सोजा सामान एकत्रित कर पुनः पोकरण लौट गया। पोकरण पहुंचने से पूर्व ही उसे यह सूचना मिल गई कि भाटी फलोदी पर आक्रमा करने का विचार बन रहे है। मार्ग में ही उसे बीकानेर नरेश कर्णसिंह का पत्र मिला जिसमें 500 सवार, 500 ऊँट, 500 पदातियों इत्यादि से मदद करने की पेशकश की गई थी किन्तु नैणसी ने उŸार भिजवाया कि फिलहाल उसे इसकी आवश्सयकता नहीं है। जरूरत पड़ने पर सहायता मांग ली जाएगी।
जोधपुर की सेना ने पोकरण के समीप डेरा डाला (वैशाख सुदी 8) । भाटियों ने जोधपुर की सेनाओं का जमावडा देखकर पोकरण गढ़ खाली कर दिया और मुख्य द्वार को पत्थरों से चुनवा दिया।118 जोधपुर हुकुमत की बही के अनुसार मिर्जा राजा जयसिंह ने चौधरी रतनसी और कछवाहा फतेहसिंह कोएक पत्र देकर भेजा। इस पत्र में जयसिंह के परामर्शानुसार भाटियों ने पोकरण शहर को खाली कर दिया।119
भाटियों के सैन्य दबाव को देखकर नैणसी ने महाराज से निवेदन कर सेवाएं मंगवाई । जोधपुर की सेना की नवीन कुमुक आते ही जैसलमेर की सेना, जिसका नेतृत्व कुंवर अमरसिंह कर रहा था ने और पीछे हटने का निश्चय किया। यद्यपि महारावल सबलसिंह स्वयं भी सहायता करने को पहुंचा था।120 तथापि वह मारवाड से युद्ध व्यापक पैमान पर छेड़ने का साहस नहीं कर सका और जैसलमेर लौट गया। इसके पश्चात् महाराजा की सेना ने जैसलमेर राज्य में घुसकर आसणी कोट तक लूटमार की। जैसलमेर के भाटियों ने संधि का एक प्रस्ताव भेजा जिसे नैणसी ने ठुकरा दिया। उसने जैसलमेर में लूटमार को जारी रखा और पोकरण लौटते हुए भी लूटमार जारी रखा।121
जोधपुर हुकुमत बही के अनुसार नैणसी ने आसणीकोट में लूटमार करने के पश्चात् जैसलमेर के गढ़ को घरने का निश्चय किया। वस्तुतः जैसलमेर वाले यह सोच रहे थे कि मारवाड़ी सेना लूटपाट कर लौट जाएगी। अब उन्होंने सुरक्षात्मक रूख अपनाते हुए जैसलमेर के किले के द्वार को चुनवा दिया।122 तत्पश्चात् राठौड़ सरदारों के विरोध के कारण गढ़ पर आक्रमण टालना पड़ां जून 1659 ई (वि.सं. 1716 ज्येष्ठ वदी 13) को मारवाड की सेना पोकरण लौट आई। मुहता नैणसी ने यहां की सुरक्षा व्यवस्था को और सुदृढ किया। राठौड सबलसिंह पोकरण् के थाने में पहले से ही पदस्थापित था। इस माह मुहता नैणसी अपने सरदारों सहित जोधपुर लौट आया।
मूहता नैणसी को पोकरण से जोधपुर गए हुए मुश्किल से दस दिन ही हुए थे कि महारावल सबलसिंह ने भाटी रामसिंह के नेतृत्व में दो हजार सैनिक पोकरण पर अधिकार करने भेज दिए। राठौड़ सबलसिंह ने भाटियों पर जबरदस्त प्रत्याक्रमण किया। नगर में मण्डी में दोनो पक्षों में युद्ध हुआ जिसमें 10 भाटी और जोधपुर सेन के 2 योद्धा मारे गए। पोकरण पर अधिकार करने की असफलता से कुपित होकर भाटियों ने पोकरण के आस-पास के गांवों में आग लगा दी। तत्पश्चात् वे डूंगरसर होते हुए फलौदी के राणीसर जलाशय पर जाकर रूके।
मुंहता नैणसी ने जोधपुर में सैना और साजो सामान एकत्रित कर फलोदी की ओर प्रस्थान किया। नैणसी के फलोदी होने से पूर्व ही भाटियों की सेना फलोदी से पलायन कर चुकी थी। नैणसी में फलोदी की ओर से जैसलमेर के भाटियों के गांव में लूटमार का अभियान चलाया। इस दौरान बीकानेर के राजा कर्णसिंह की बारात जैसलमेर जाते हुए कीरड़े गांव में रूकी। कर्णसिंह ने दोनो पक्षों को बुलवाकर समझाया, किन्तु स्थिति जस की तस रही। इधर रावल सबलसिंह ने 20 दिन तक बारात को रोकर उसकी अच्छी खातिर की। लौटते हुए मार्ग में रूणेचा (रामदेवरा) रूका। कर्णसिंह ने मुंहता नैणसी को भेंट करने के लिए पुनः बुलवाया। जुलाई माह (भाद्रपद वदि 8) को उसने दोनो पक्षों से लडाई समाप्त करने के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करवाए। एक भोज का भी आयोजन किया गया जिसमें राठौड़ बिहारीदास और राजसिंह को भाटी रामसिंह और रघुनाथ के साथ एक थाली में बैठाकर भोजन करवाया गया। इस प्रकार महाराज कर्णसिंह की मध्यस्थ भूमिका के सकारात्मक परिणाम निकले। दोनो पक्षों ने फिर कभी एक-दूसरे के क्षेत्राधिकार को लांघने का प्रयास नहीं किया।125
परगना पोकरण जो बादशाह के दरबार में सातलमेर नाम से दर्ज था। महाराजा जसवंतसिंह को 8,00,000 दान में जागीर के रूप में प्रदान किया गया था। 1658 ई (वि.सं. 1715 के फाल्गुन वदि 13) को यह परगना महाराजा जसवंतसिंह ने पोकरण पुलिस चौकी प्रमुख सबलसिंह प्रयागदसोत और उसके पुत्र चन्द्रसेन राठौड़ 41,000 की रेख पर 1664 ई. (सं. 1721 की मिंगसर सुदी 7) को मुहणेत नैणसी और नरसिंहदास ने इसे दुरुस्त कर निम्नलिखित निश्चित की -
गांव रुपए आसागी /गांव निम्नलिखित है
40 27060
10,000 कसबै दांण सुधो 1
400 चाचा बांभण 1
200 भींवो भोजो 1
400 घुहड़सर 1
500 ऊधरास 1
800 बांभणु
1000 छायण
100 थाट
70 गाजण कालर री सरेह 1
200 वलहीयो 1
200 दूधीसयो 1
150 भोजी री सरेह
250 ढंढ री सरेह
900 बड़ली
1500 पदपदरो 1
400 माहव 1
1050 झालरीयोे 2
500 जसवंत पुरा 1
1000 मंढलो 1
250 राहडरो गांव 1
150 जैसंघ रो गांव 1
80 गोमटीया मोहर कालर
150 राहयो 1
100 नेहड सी सरेह 1
50 सोढ़ा री सरेह 1
250 गलरां री सरेह
1000 बांणीयां बांभण
800 काला बांभण 1
1500 लोहवो
700 ढंढ 1
1000 खारो 1
500 चांदसमो 1
150 केलावो
100 एका
100 खालत सरवणी री सरहे
400 वरडांणो 1
100 खेतपालियां री सरहे
30 5100 पोकरणा राठौड़ जगमाल के भाई बन्धुअें के
15 1700 सांसण चारण पंडित ब्राह्मणों के
85 33,850
0 7,000 रामदेव जी दो मेले
85 40,860
इस प्रकार रेख में कुछ गांव 85 थे जिनकी रेख 40,860 रूपए थी।126
महाराजा जसवंतसिंह की मृत्यु (1678 ई) के समय पोकरण का पट्टा सबलसिंह के पुत्र चन्द्रसेन के नाम 40,000 कीरेख में दर्ज थी।127 राठौड़ चन्द्रसेनउ राव सूजा का पुत्र नरा का वंशज था और राठौड़ो की नरावत शाखा के रूप में माने जाते थे।
महाराजा जसवंतसिंह की मृत्यु के पश्चात् शाही रकम बकाया होने की आड में जोधपुर को खालसा घोषित कर दिया। औरंगजेब ने मारवाड़ के वास्तविक उŸाराधिकारी अजीसिंह की वैधता पर भी प्रश्न-चिन्ह लगा दिए। उसने नागौर के शासक इन्द्रसिंह को जोधपुर का टिका दे दिया। फलस्वरूप जोधपुर के सरदारों ने राठौड़ दुर्गादास के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया।
जैसलमेर के तत्कालीन महारावचल अमरसिंह ने इन परिस्थितियों का लाभ उठाकरन पोकरण पर अधिकार करने के प्रयास नए सिरे से प्रारंभ किए। उसने अपने भाई महारावल अमरसिंह को औरंगजेब के शाही दरबार में भेजा। राठौड़ो के विद्रोह से नाराज औरंगजेब ने पोकरण और फलौदी का पट्टा जैसलमेर के नाम कर दिया। इसी दौरान जोधपुर दुर्ग पर शाही सेना के आक्रमण के समय राजसिंह मार गया। तत्पश्चात् महारावल अमरसिंह की पोकरण-फलौदी को अधिकृत करने में रूचि समाप्त हो गई।128
पोकरण को लेकर जैसलमेर और जोधपुर राज्यों में पुनः कटुता उत्पन्न हो गई थी। इस कटुता को दूर करने के लिए महारावल अमरसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह महाराजा अजीतसिंह के साथ किया किन्तु औरंगजेब के विरूद्ध कोई मदद नहीं की।129
अपने ग्रंथ राजस्थानी ऐतिहासिक गं्रथों का सर्वेक्षण भाग-3 में लेखक डॉ. नारायणसिंह भाटी ने लिखा है कि 1722 ई. (संवत. 1779 आषाढ वदी 10) को महारावल तेजसिंह की हत्या कर दी गई। पोकरध के ठा. राठौड़ अमरसिंह की पुत्री महारावल तेजसिंह को ब्याही गई थी। महारावल के वध किए जानाद अमरसिंह ने जैसलमेर पहुंचकर लूटमार की। फिर महारावल तेजसिंह के पुत्र प्रतापसिंह को लवारकी गांव दिलाया। डॉ. नारायणसिंह ने पोकरण ठिकाणे में मौजूद चम्पावतों की ख्याल का हवाला दिया है किन्तु उपर्युक्त ख्यात में इसका वर्णन नहीं मिलता है अन्य समकालीन स्त्रोत भी इस विषय में मौन है। संभवतः यह कोई पोकरणा राठौड़ ठाकुर रहा होगा।130
1707 ई. 1708 ई. (वि.सं. 1764 तथा 1765) में महाराजा अजीतसिंह के ओहदा अधिकारियों की सूची में चम्पावत महासिंह को पोकरण दिऐ जाने का जिक्र है किन्तु कुछ समय बाद चन्द्रसेन की पोकरण जागीर बहाल कर दी गई क्योंकि वह बादशाह के यहां राजकीय सेवा में था तथा बादशाह ने उसके सम्बन्ध अच्छे थे। महाराज की सेवा में लगे सरदारों की वह अपने यहां ठहरने की व्यवस्था भी करता था।131
इस प्रकार पश्चिमी राजस्थान के एक प्राचीन नगर पोकरण को अधिकृत करने के लिए एक लंबी प्रतिदन्द्विता व संघर्ष चला। पोकरण की विशिष्ट भौगौलिक स्थिति, जलीय उपलब्धता एवं सामरिक स्थिति के कारण जैसलमेर इस क्षेत्र पर अधिकार करने का आकांक्षी रहा। लगभग 90 वर्षों तक जैसलमेर का पोकरण पर अधिकार भी रहा किन्तु सैन्य एवं अन्य संसाधनों की सबलता के कारण मारवाड़़ राज्य इस संघर्ष में अन्ततः विजयी रहा।
- प्राक्कथन
- अध्याय 1 : ठिकाणे का अर्थ और इतिहास
- अध्याय 2 : पोकरण का आरंभिक इतिहास
- अध्याय 3 : पोकरण में चम्पवातों का आगमन
- अध्याय 4 : सवाईसिंह की उपलब्धियाँ
- अध्याय 5 : ठा भवानी सिंह तक पोकरण ठाकुर
- अध्याय - 6 : प्रशासनिक एवं आर्थिक व्यवस्था
- अध्याय - 7 : समाज और धर्म
- अध्याय - 8 : पोकरण के शासकों का योगदान
- संदर्भ ग्रंथ सूची
- शोध संक्षेपण
- अध्याय 3 का अतिरिक्त भाग
- पोकरण की खाता बहियाँ
- 1st क्लास ताज़मी ठिकाने का प्रबंध और स्टाफ
संदर्भ -
1. मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी) भाग 2, पृ. 289
राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर - 1969
2. वही, भाग 2, पृ. 290
3. विजयेन्द्र कुमार माथुर, ऐतिहासिक स्थानावली, पृ. 570
राजस्थान हिन्दी गं्रथ अकादमी, जयपुर - 1990, इसमें पोकरण को पोकरण कहा गया है। महाभारत का श्लोक-समा. 32, 8-9 ‘‘पुनश्च परिव्रत्याथ पुष्करारण्य वासिनः गुणानुत्स वसंकेतान् व्यजयत् पुरूषर्षभ।’’ इस स्थान पर पुष्करारण्य का उल्लेख माध्यमिका व चिŸाौड़ के पश्चात् होने से इसकी स्थिति मारवाड़ में सिद्ध हो पाती है।
4. गोविन्दलाल श्रीमाली, राजस्थान के अभिलेख, भाग-1, पृ. 59, 60, महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश, जोधपुर 2000य शोध पत्रिका, वर्ष, 22 अंक 2, पृ. 67 से 69
5. सुमेर लाइब्रेरी सरदार म्यूजियम रिपोर्ट, 1931, पृ. 8, आइ. ए. 40, पृ. 176, गोविन्दलाल श्रीमाली, पूर्वोक्त, भाग 1, पृ 59
6. गोविन्दलाल श्रीमाली, पूर्वोक्त, पृ. 59,60 भाग प्रथम .के अनुसार, 1024, 25 ई. में महमूद गजनवी मुल्तान लोद्रवा मार्ग से सोमनाथ गया था। उसके 10-12 वर्ष पूर्व उसके या गजनवी के किसी अन्य शासक के सिपाहियों य सिंध के मुस्लिम शासक से यह युद्ध हुआ होगा।
7. डॉ. हुकुमसिंह भाटी, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, जैसलमेर भाग 1, पृ. 43, इतिहास अनुसंधान संस्थान, चौपासनी जोधपुर - 2003
8. मुहता नैणसी री ख्यात, (सं. बदरी प्रसाद साकरिया) भाग 2. पृ. 18, 19य राजस्थान प्राच्य प्रतिष्ठान जोधपुर-1962य जैसलमेर री ख्यात (सं. डॉ. नारायण सिंह भाटी) पृ. 37, राजस्थानी शोध संस्थान जोधपुर, 1981
9. डॉ. मांगीलाल व्यास, जैसलमेर राज्य का इतिहास, पृ. 22, देवनागर प्रकाशन, चौडा रास्ता, जयपुर - 1984
10. डॉ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, जैसलमेर, भाग प्रथम, पृ. 42
11. जैसलमेर री ख्यात, (सं.डॉ नारायणसिंह भाटी) पृ. 38, मुहता नैणसी री ख्यात, (सं. डॉ. बदरी प्रसाद साकरिया), भाग द्वितीय, पृ. 19, 20य मांगीलाल व्यास, जैसलमेर राज्य का इतिहास पृ. 22,23
12. मुहता नैणसी री ख्यात (स. डॉ. बदरी प्रसाद साकरिया),, भाग द्वितीय, पृ. 25, 26
13. वही, पृ. 25य डॉ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 49
14. मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत वात पोकरण परगना री (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 290
15. गोविन्दलाल श्रीमाली, पूर्वोक्त, पृ. 59, 60
16. डॉ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, जैसलमेर पृ. 67
17. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 290
18. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, (सं. डॉ. नारायण सिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 290
19. डॉ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, जैसलमेर, भाग द्वितीय, पृ. 115
20. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, (सं डॉ. नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 291
21. निदेशालय सूचना एवं जनसम्पर्क राजस्थान, जयपुर द्वारा प्रकाशित पेम्फलेट ‘‘सामजिक सद्भाव के प्रणेता, बाबा रामदेव’’
22. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी) , भाग द्वितीय, पृ. 292य जोधपुर राज्य री ख्यात (सं. रघुवीरसिंह, मनोहरसिंह) पृ. 71, भारतीय इतिहास अनु. परिषद्, नई दिल्ली एवं पंचशील प्रकाशन, जयपुर-1988
23. वि.ना. रेऊ, मारवाड़ राज्य का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 108, महाराज मानसिंह पुस्तक, प्रकाश जोधपुर - 1999
24. वि. ना. रेऊ, मारवाड़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 86
25. वही, पृ. 104
26. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहरसिंह) पृ. 71
27. मुहता नैणसी री ख्यात, (सं. बदरी प्रसाद सांकरिया) भाग प्रथम, पृ. 103 से 114
28. गौ.ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 267, व्यास एण्ड सन्स, अजमेर, वि.सं. 1998
29. वि.ना. रेऊ, मारवाड़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 105, पाद् टिप्पणी
30. वही, भाग प्रथम पृ. 106, पाद् टिप्पणी
31. कर्नल टॉड, ऐनाल्स एण्ड ऐंटिक्विटीज ऑफ राजस्थान, भाग 2, पृ. 952 में नरा को सूजा का पौत्र और वीरमदेव का पुत्र लिखा है जो त्रुटिपूर्ण है ।
32. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीरसिंह, मनोहर सिंह), पृ. 71य गौ.ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 264
33. वि.ना. रेऊ, मारवाड़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 105, पाद् टिप्पणी
34. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 292 में वर्णित है कि पोकरणों ने नीलवै और थटोहण में काफी उत्पात मचाया तथा पोकरण शहर की सीमा तक अधिकार कर लियाय जोधपुर राज्य री ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. 71
35. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 292 के अनुसार नानणयाई तालाब के समीप यह युद्ध हुआ। जो पोकरण से पांच कोस की दूरी पर था।
36. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. 71
37. मारवाड़ परगना री विगत, (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 293
38. वही, पृ. 293
39. वही, पृ. 292
40. जोधपुर राज्य की ख्यात, (सं. रघुवीरसिंह, मनोहरसिंह) पृ. 71
41. मुंहता नैणसी री ख्यात, (सं. बदरी प्रसाद सांकरिया), भाग द्वितीय, पृ. 25, 26
42. मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत, (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 292
43. महकमां तवारीख री मिलसां, क्र.सं. 126, ग्र. 15662 राजस्थान प्राच्य संस्थान, जोधपुर
44. वि. ना. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 108
45. मुहता नैणसी री ख्यात, (सं. बदरी प्रसाद सांकरिया), भाग द्वितीय, पृ. 104
46. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, भाग द्वितीय, पृ. 292
47. जोधपुर राज्य की ख्यात, (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह), पृ. 71
48. मुहता नैणसी री ख्यात, (सं. सांकरिया), भाग द्वितीय, पृ. 114
49. गौ.ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 267
50. वि.ना. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग प्रथम पृ. 108
51. मंुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 292, 293
52. मुहता नैणसी री ख्यात (सं. बदरी प्रसाद सांकरिया), भाग द्वितीय, पृ. 113
53. वि.ना. रेऊ, मारवाड़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ 108
54. मुंहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 292, 293, रेऊ ने इसे 1498 ई. (वि.सं. 1555) माना है जो उचित प्रतीत नहीं होती है
55. वही, पृ. 293
56. मुहता नैणसी री ख्यात (सं. बदरी प्रसाद सांकरिया), भाग द्वितीय, पृ. 113य गौ. ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 311
57. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, भाग द्वितीय, पृ. 293, 294य डॉ. मांगीलाल व्यास ‘मयंक’ जैसलमेर राज्य का इतिहास पृ. 91, 92य डॉ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, जैसलमेर, भाग प्रथम, पृ. 154य डॉ. नन्दकिशोर शर्मा, युग युगीन वल्लप्रदेश, जैसलमेर का इतिहास, पृ. 161, सीमान्त प्रकाशन जैसलमेर 1993
58. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीरसिंह, मनोहरसिंह), पृ. 89 वि.ना. रेऊ, मारवाड़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 133
59. प. वि.ना.. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 113, 60. डॉ. मांगीलाल व्यास ‘मयंक’, जैसलमेर राज्य का इतिहास, पृ. 92
61. मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत, भाग द्वितीय, पृ. 294य डॉ. नन्दकिशोर शर्मा, युग युगीन वल्लप्रदेश जैसलमेर का इतिहास, पृ. 161य वि.ना. रेऊ, मारवाड़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 113, में 1000 ऊँट पकडे जाने का लिखा है।
62. डॉ. मांगीलाल व्यास, ‘मयंक’, जैसलमेर राज्य का इतिहास, पृ. 149, 150
63. डॉ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 154
64. महकमां तवारीख जोधपुर री मिलसां रो ब्योरो, क्र.सं. 543, ग्र. 15662 में वर्णित है कि ‘‘मालदेव ने नरवतों से पोकरण छीनी तथा सातलमेर के अवशेषों से कोट करवाया’’। डॉ. मांगीलाल व्यास मयंक, जोधपुर राज्य का इतिहास, पृ. 149
65. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. 107
66. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत (डॉ. नारायण सिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 294
67. वही, भाग द्वितीय, पृ. 295
68. डॉ. मांगीलाल व्यास ‘मयंक’, जैसलमेर राज्य का इतिहास, पृ. 99
69. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, (डॉ. नारायण सिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 295य नन्दकिशोर शर्मा, युग युगीन वल्लप्रदेश जैसलमेर का इतिहास, पृ. 164
70. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत (डॉ. नारायण सिंह भाटी), भाग द्वितीय, पृ. 296
71. डॉ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, पृ. 167य डॉ. मांगीलाल व्यास ‘मयंक’, जैसलमेर राज्य का इतिहास, पृ. 100
72. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत (डॉ. नारायण सिंह भाटी), भाग द्वितीय, पृ. 295
73. राव चन्द्रसेन की ख्यात, भाग तृतीय, पृ. 408, ग्र, सं. 1632, प्राच्य संस्थान जोधपुर ने 8000 सैनिक अंकित हैय जोधपुर राज्य की ख्यात, (सं. डॉ. नारायण सिंह भाटी) पृ. 109 में 7000 सैनिक अंकित है जबकि मारवाड़़ परगना री विगत भाग द्वितीय पृ. 295 में मात्र 600-700 योद्धा अंकित है; राव चन्द्रसेन की ख्यात में वर्णित संख्या अधिक उचित प्रतीत होती है।
74. राव चन्द्रसेन की ख्यात, भाग तृतीय, पृ. 408, ग्रं. सं. 1632
75. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह), पृ. 109
76. मंुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत (डॉ. नारायण सिंह भाटी), भाग द्वितीय, पृ. 295य राव चन्द्रसेन री ख्यात, पृ. संख्या 408, जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह), पृ. 109
77. डॉ. मांगीलाल व्यास ‘मयंक’, जैसलमेर राज्य का इतिहास, पृ. 100
78. तवारीख जैसलमेर (सं. मेहता नथमल), पृ. 54 पर वर्णित है कि पोकरण गढ़ 10 हजार सोनइयों के बदले गिरवी रखा गया। प. वि.ना.रेऊ. मारवाड़ का इतिहास, भाग प्रथम, 218 में एक लाख फदिये 12,500 रूपए के बराबर बताए गए है।
79. राव चन्द्रसेन की ख्यात, भाग तृतीय, पृ. 408-409 मंुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत, (डॉ. नारायण सिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 296
80. राव चन्द्रसेन की ख्यात, भाग तृतीय, पृ. 410 में मात्र 30,000 फदिये दिए जाने का उल्लेख है, जोधपुर राज्य ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. 109 रात्रि के तीन बजे पोकरण गढ़ सुपुर्द किया गया।
81. मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत, (डॉ. नारायण सिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 247
82. जोधपुर राज्य की ख्यात, (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. 132, मारवाड़ परगना री विगत में नैणसी ने इसे सूरजसिंह लिखा है, भाग द्वितीय, पृ. 297-298
83. मुहता नैणसी री ख्यात, (सं. बदरी प्रसाद साकरिया) भाग द्वितीय, पृ. 99, 100
84. डॉ. मांगीलाल व्यास ‘मयंक’, जैसलमेर राज्य का इतिहास पृ. 106, इन्होंने कोढ़णा के स्थान पर कोटड़ा लिखा है जो त्रुटिपूर्ण कोटड़ा में कोटड़िया राठौड़ है जबकि कोढ़णा में ऊहड राठौड़ हैं।
85. डॉ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, भाग 1, पृ. 177
86. मुहता नैणसी सी ख्यात, भाग द्वितीय, पृ. 101, जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. सं. 153
87. मुहता नैणसी सी ख्यात (सं. बदरी प्रसाद साकरिया), भाग द्वितीय, पृ. 104
88. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, भाग द्वितीय, पृ. 298, सं. 1706 मिंगसर वद बताया गया है। जबकि वि.ना. रेऊ ने सं. 1706 कार्तिक मास, मारवाड़़ का इतिहास, भाग-प्रथम (पृ. 217) एवं जोधपुर राज्य की ख्यात, पृ.-212, में सं. 1707 रा काती सुद 15 मंगलवार, अक्टूबर 29, 1650 ई. वर्णित है। नैणसी द्वारा बताई गई तारीख अधिक उचित प्रतीत होती है
89. डॉ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, भाग 1, पृ. 104
90. मुहता नैणसी री ख्यात (सं. बदरी प्रसाद साकरिया) भाग 3, पृ. 217 के अनुसार सबल सिंह की बहन का विवाह किशनगढ़ हुआ था तथा राजा रूपसिंह उसका भांजा था।
91. मंुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत (डॉ. नारायण सिंह भाटी), भाग द्वितीय, पृ. 298 में 6 लाख दाम वर्णित है जबकि जोधपुर राज्य की ख्यात (सं.रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. 204 पद्टिप्पणी में रूपए 14000 तथा पृ. 206 में 8 लाख वर्णित है। महाराज सूरसिंह के समय 5,60,000 दाम एवं 14000 रूपए वर्णित है। अतः महाराजा जसवंत सिंह के समय यह 8 लाख की जगह 6 लाख दाम होने चाहिए।
92. मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत, (डॉ. नारायण सिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 298
93. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. 268 में महाराजा जसवंतसिंह की रानियों की सूची में मनभावती का वर्णन नहीं है। अवश्य ही यह महारावल मनोहरदास की पुत्री भटियाणी जसरूपदे थी। मिगसर वद 2 में पिता की मृत्यु के बाद उसने शाहजहां को पत्र लिखा। 10 अप्रैल 1650 ई. में रानी की भी मृत्यु के बाद उसका इच्छा पूर्ण करने के लिए महाराजा ने शीघ्र ही पोकरण अभियान करने का मन बनाया ।
94. मंुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत (डॉ. नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 298
95. वही, पृ. 298, 299य मांगीलाल व्यास ‘मयंक’, जैसलमेर राज्य का इतिहास, पृ. 112,
96. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. 212
97. डॉ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, भाग प्रथम पृ. 196
98. युगपुरुष महाराज जसवंतसिंह प्रथम (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी), पृ. 8, राजस्थानी शोध संस्थान, चौपासनी, जोधपुर
99. प.वि.ना. रेऊ, मारवाड़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 217
100. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत,भाग द्वितीय, पृ. 30य मुहता नैैणसी री ख्यात, भाग 1, पृ. 105
101. वही,पृ. 300य डॉ. मांगीलाल व्यास, जैसलमेर राज्य का इतिहास, पृ. 115
102. जोधपुर राज्य री ख्यात (सं. रघुवीरसिंह, मनोहरसिंह) पृ. 212, मुहता नैणसी री ख्यात भाग 2, पृ. 115
103. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, भाग द्वितीय, पृ. 300, मुहता नैणसी री ख्यात भाग 2, पृ. 300 से 303य नन्दकिशोर शर्मा, युग युगीन वल्लप्रदेश जैसलमेर का इतिहास, पृ. 177
104. वही, भाग द्वितीय, पृ. 303, 304
105. वही, भाग द्वितीय-पृ. 304
106. वही, भाग 2, पृ. 305य जोधपुर राज्य री ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. 213,
107. मुहता नैणसी री ख्यात, भाग 2, पृ. 308य युगपुरुष महाराज जसवंतसिंह प्रथम, पृ. 9
108. जैसलमेर री ख्यात, (सं. डॉ. नारायण सिंह भाटी), पृ. 59य तवारीख जैसलमेर, (सं.नथमल मेहता), पृ. 58, 59
109. युगपुरुष महाराज जसवंतसिंह प्रथम (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी) पृ. 9
110. वही, पृ. 24
111. मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत, भाग द्वितीय, पृ. 306
112. वि.ना. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 220
113. जोधपुर हुकुमत री बही, मारवाड़ अण्डर जसवन्तसिंह, (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी) पृ. 34, 253 मीनाक्षी प्रकाशन, मेरठ, 1976
114. मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत भाग प्रथम, पृ. 137, 138
115. जोधपुर हुकुमत री बही (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी), पृ. 40
116. मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत भाग प्रथम, पृ. 138य जोधपुर राज्य री ख्यात, (सं. रघुवीरसिंह, मनोहरसिंह), पृ. 260 के अनुसार रावल सबलसिंह ने पोकरण के 18 गांव विजित किए। वि.ना.रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 231 में वर्णित है कि मारवाड़ की सेना के पहुंचने तक पोकरण पर भाटियों ने अधिकार कर लिया।
117. जोधपुर हुकुमत री बही (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी), पृ. 40 से 42
118. डॉ. हुकुसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, भाग प्रथम पृ. 206
119. जोधपुर हुकुमत री बही, (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी), पृ. 42
120. वि.ना.रेऊ. मारवाड़़़़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 231
121. मारवाड़़ परगना री विगत (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी), भाग प्रथम, पृ. 140 से 142
122. जोधपुर हुकुमत री बही (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी), पृ. 43
123. वही, पृ. 44
124. वही, पृ. 48य मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी), भाग प्रथम, पृ. 143, 144
125. जोधपुर हुकुमत री बही (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी), पृ. 49, 50, 255य मुहता नैणसी, मारवाड़़़ परगना री विगत (सं. डॉ. नारायण सिंह भाटी), भाग प्रथम, पृ. 143, 144य. वि.ना. रेऊ मारवाड़़ का इतिहास, भाग प्रथम पृ. 231
126. मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी), भाग द्वितीय, पृ. 356, 357
127. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीरसिंह, मनोहर सिंह), पृ. 297
128. तवारीख जैसलमेर (सं नथमल मेहता), पृ. 62य डॉ. हुकुमसिंह भाटी वंश का गोरवपूर्ण इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 212
129. वही, पृ. 221, जोधपुर राज्य की ख्यात, (सं. रघुवीरसिंह, मनोहरसिंह), पृ. 429
130. डॉ. नारायणसिंह भाटी, राजस्थानी ऐतिहासिक गं्रथों का सर्वेक्षण भाग तृतीय, पृ. 180, 181
131. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीरसिंह, मनोहरसिंह), पृ. 401 व 405
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