अध्याय - 5 : सालमसिंह से भवानीसिंह तक का राजनीतिक इतिहास

 अध्याय - 5 : सालमसिंह से भवानीसिंह तक का राजनीतिक इतिहास


30 मार्च, 1808 ई. को ठा. सवाईसिंह की मृत्यु के बाद 14 अप्रैल, 1808 ई. को सालमसिंह पोकरण का पट्टाधिकारी हुआ। उसका जन्म 1773 ई. (वि.स. 1830 की भाद्रपद बदी सप्तमी) को हुआ था। उस समय उसकी आयु 35 वर्ष थी।

सालमसिंह का विद्रोह-

अपने पिता सवाईसिंह की महाराजा मानसिंह के सहयोगी अमीरखां द्वारा षड्यंत्र पूर्वक हत्या किए जाने से सालमसिंह अत्यन्त व्यथित था। इधर गृह कलह से शांति मिलने के पश्चात मानसिंह ने फलौदी को विजित करने के लिए एक सेना भेजी। फलौदी के बीकानेरी हाकिम ने सहायता के लिए बीकानेर और पोकरण दोनों जगह कासीद भेजे। बीकानेर और पोकरण की सम्मिलित सेनाओं ने जोधपुर की सेना को पराजित करके खदेड़ दिया। दोेनों ही पक्षों के अनेक आदमी मारे गए और कई घायल हो गए।1 तब सिंघवी इन्द्रराज ने एक कड़ा पत्र लिखकर ठा. सालमसिंह को पोकरण लौट जाने की हिदायत दी । सालमसिंह ने भी जोधपुर की सेनाओं से अनावश्यक उलझने में हानि जानकर अपनी विरोधी मानोवृति त्याग दी। उसने जोधपुर सेना की वे तोपें और सामान जो पीछे छूट गए थे और जिन्हंे बीकानेर  की सेना लूट लेना चाहती थी, को एकत्रित करवा कर सुरक्षित रखवा दिया। बीकानेर के दीवान अमरचन्द को फलौदी का सुदृढ प्रबन्ध करता देख सालमसिंह ने उसे समझा बुझाकर फलौदी जोधुपर को सुपुर्द कर देने के लिए राजी करने के प्रयास प्रारम्भ किए। बीकानेर महाराजा सूरतसिंह को इस बात का आभास था कि गृह कलह से मुक्ति मिलने के बाद मानसिंह का अगला निशाना बीकानेर राज्य ही होगा। निःसंदेह जोधपुर राज्य के संसाधन बीकानेर राज्य से कहीं अधिक थे। फलौदी जोधपुर को सुपुर्द कर देने से भावी संघर्ष टलने की भी संभवना थी। अतः उसने बीकानेर के दीवान अमरचन्द और सालमसिंह की बात स्वीकार कर ली। ठा. सलामसिंह ने अपने कामदार हरियाढाणा के बुद्धसिंह को महामंदिर आयस देवनाथ के पास भेजा और कहलवाया कि बीकानेर राज्य फलौदी सुपुर्द कर देना चाहता है। अतः किसी व्यक्ति का सुपुर्दगी लेने के लिए भेजा जाय। आयस देवनाथ ने यह संदेश महाराजा तक पहुँचा दिए। महाराजा मानसिंह ने प्रसन्न होकर बुद्धसिंह को बुलाया। तत्पश्चात सिंघवी जसवंतराज को कुछ सेना देकर बुद्धसिंह के साथ भेजा। इनके फलौदी पहुँचने से पूर्व ही बीकानेर की सेना वहाँं से पलायन कर चुकी थी। इस अवसर पर वहाँं मौजूद सालमसिंह ने जोधपुर सेना की छूटी हुई तोपों आदि जो सामान इकटठा करवाकर रखा था, जसवंतराज के सुपुर्द किया।  इस प्रकार फलौदी पर महाराजा मानसिंह का दृढ अधिकार करवा कर सालमसिंह पोकरण लौट गया।2

आयस देवनाथ ने प्रसन्न होकर महाराजा मानसिंह से सालमसिंह को क्षमा दिलवाई। पूर्व के समान मजल और दुनाड़ा उसे फिर से दिलवा दिये। ठा. सालमसिंह ने भी पहले की तरह नियमानुसार रेख और बाब नामक कर राज्य को देते रहने और चाकरी में घोडे़ रखने का वचन दिया। तत्पश्चात् महाराजा ने उसके भाई बन्धुओं की जब्त की हुई जागीरें भी उन्हंे लौटा दी गई।3

महाराजा मानसिंह ने अक्टूबर 1808 ई. में बीकानेर4 और जून 1809 ई. में जयपुर के विरूद्ध सेना भेजकर उन्हंे संधि करने को और बाध्य किया और धौंकलसिंह का साथ नहीं देने का वचन दिया।5 जुलाई 1810 ई. महाराजा मानसिंह के निर्देशानुसार अमीर खां को मेवाड़ भेजा। अमीर खां ने वहाँं पहुँचकर लूटपाट करनी प्रारम्भ कर दी। महाराणा भीमसिंह के कर्मचारियों ने लूटपाट का कारण पूूछा। अमीर खां ने उन्हंे मानसिंह से कृष्णाकुमारी का विवाह करने को कहा । महाराणा ने इससे संबंधित एक खरीता मानसिंह को भेजा। पर मानसिंह ने यह कहकर विवाह करने से इंकार कर दिया कि भीमसिंह से मंगनी की हुई कन्या से वह विवाह नहीं कर सकता। उदयपुर पर आसन्न विपदा के समाधान के लिए महाराणा भीमसिंह ने अपने प्रधान सलूम्बर के राव के द्वारा राजकुमारी कृष्णाकुमारी को जुलाई 21, 1810 ई. को जहर दिलवा दिया। इस विष के प्रभाव से कृष्णकुमारी की मौत हो गई।6

कुछ अन्य स्त्रोतों में भिन्न विवरण मिलता है इनके अनुसार महाराणा भीमसिंह ने राजकुमारी कृष्णकुमारी की हत्या के चार प्रयास किए सर्वप्रथम महाराजकुमार ने दौलतसिंह को हत्या करने के लिए कहा किन्तु उसने इस जघन्य कृत्य को करने से मना कर दिया। फिर महाराणा अरीसिंह की पासवान के पुत्र जवानदास को भेजा गया। वह राजमहल में कटार लेकर प्रविष्ट भी हुआ पर मार नहीं सका। तत्पश्चात उसे तीन बार विष दिया गया पर यह घातक सिद्ध नहीं हुआ। अंत में उसे अत्यधिक मात्रा में विष दिया गया जिससे उसकी मृत्यु हो गई।7

1812 ई. मे सिराई जाति के लोगों ने जालौर प्रान्त में काफी उत्पात मचाया। राज्य की घोड़ियों और गोल गांव (जालौर) से नाथों के कई ऊँट जबरदस्ती पकड़ कर ले गया। ठा. सलिमसिंह के नाम एक खास रूक्का भिजवाकर सिराईयों के विरूद्ध गई राजकीय सेना को सहयोग देने को कहा गया। सालमसिंह ने अपने अनुज हिम्मतसिंह को चुने हुए राजपूत सैनिकों के साथ राजकीय सेना में शामिल होने के लिए भेजा। राजकीय कार्यवाही के फलस्वरूप सिराइयों ने आत्मसमर्पण कर दिया और लूटा  हुआ माल वापस लौटा दिया।8 इस सेवा के उपलक्ष में हिम्मतसिंह को सादड़ी इनायत हुई।

ठा. सालमसिंह इस दौरान जोधपुर की राजनीति के प्रति उपेक्षा भाव रखते हुए पोकरण में ही रहा। इधर जोधपुर में महाराजा मानसिंह पूर्णतः नाथ भक्ति में मग्न था। सता की बागड़ोर आयस देवनाथ और इन्द्रराज के हाथ में थी। इनके इस प्रभुत्व से मूहता अखैचन्द और मूहणोत ज्ञानमल ईर्ष्या करते थें जिससे सम्पूर्ण राज्य में गुटबाजी और षड्यंत्र फैल गया। अमीर खां अपने आर्थिक स्वार्थ से प्रेरित होकर कभी एक तो कभी दूसरे गुट से मिल जाता था। अनेक बड़े सरदार आयस देवनाथ से नाराज हो गए। मूहता अखैचन्द, आउवा, आसोप के सरदारों, मानसिंह की चावड़ी रानी और युवराज छतरसिंह ने अमीर खां को धन देकर आयस देवनाथ और इन्द्रराज की हत्या का षडयंत्र किया। अमीर खां की आर्थिक मांग को इन्होंने टालने का प्रयास किया था जिससे अमीरखां इनसे पहले से ही नाराज था।9 10 अक्टूबर, 1815 ई. को उसने अपने लगभग 25 सैनिकों को इन्द्रराज व आयस देवनाथ के पास भेजा। उन्होंने खर्च का तकाजा किया। असंतुष्ट होने पर बंदूक की गोलियों से उनकी हत्या कर दी।10 व्यास सूरतनाथ और सरदारों ने महाराजा मानसिंह को शहर लूट लिए जाने का भय दिखाकर उन्हे सकुशल बाहर निकलने में सहायता दी।11 व्यास चतुर्भुज ने मानसिंह को एक कैदी की भांति नजरबंद कर लिया।12 अखैराज और सरदारों ने अमीरखां को लगभग 10 लाख देकर विदा किया।13 अब मारवाड़़ के प्रशासन पर अखैचन्द और उसके पक्ष के सरदारों का अधिकार स्थापित हो गया।14 

सालमसिंह की प्रधान पद पर नियुक्ति-

इधर सम्पूर्ण घटनाक्रम से व्यथित होकर महाराजा मानसिंह ने पागल होने का नाटक कर चुप्पी साध ली। यह देखकर आयस भीमनाथ और मुहता अखैचन्द ने राज्य प्रबन्ध को शिथिल होता जानकर महाराजा मानसिंह की इच्छा नहीं होते हुए भी युवराज छतरसिंह को रिजेन्ट का पद दिलवा दिया।15 छत्रसिंह की अवस्था उस समय मात्र 17 वर्ष की थी इसलिए राज्य प्रबन्ध मुहता अखैचन्द करने लगा। उसने अपने पुत्र लक्ष्मीचन्द को दीवान बनाया तथा प्रधान का पद पोकरण ठाकुर सालमसिंह को दिया गया।16 6 जनवरी 1818 ई. को जोधपुर राज्य और ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी से संधि हुई जिससे मराठों और पिण्डारी लुटेरों से राज्य को मुक्ति मिल गई तथा जोधपुर राज्य पर अंग्रेजों की सर्वोच्चता स्थापित हुई।17 युवराज छतरसिंह ने दो मास तक अपना कार्य बड़ी रूचि से किया। किन्तु शिघ्र ही कुसंगत में पड़कर उपदंश नामक बिमारी लगा बैठा। 26 मार्च, 181र्8 इ. को इसी बीमरी से उसकी मृत्यु हो गई। अखैचन्द ने युवराज के सदृश्य रूप वाले किसी अन्य व्यक्ति को गद्दी पर बैठाने की योजना बनाई जो सफल नहीं हो सकी। दाहक्रिया के बाद सभी सरदारों और मुत्सद्दियों व नगर के लोगों ने मुण्डन करवाया। पोकरण ठाकुर सालमसिंह उस समय जोधपुर में उपस्थित नहीं था। उसके प्रतिनिधि बुद्धसिंह ने सालमसिंह को पत्र लिखकर जोधपुर आने को कहा।18

ठा. सालमसिंह के जोधपुर पहुँचने पर उसे ज्ञात हुआ कि दिवंगत युवराज छतरसिंह की चौहान रानी गर्भ से है। जुलाई, 1818 ई. में चौहान रानी का भी स्वर्गवास हो गया।19 महाराजा मानसिंह की मनोदशा और उदासीनता के कारण मुहता अखैचन्द और उसके पक्ष के सरदार मिलकर राजकार्य चलाने और किसी को ईडर से लाकर गोद बिठाने का विचार करने लगे। किन्तु प्रधान ठा. सालमसिंह इसके पक्ष में नहीं था। उसने अपने कामदार बुद्धसिंह को मानसिंह के पास भेजा। महाराजा के व्यवहार में उसे पागलपन का कोई लक्षण नहीं दिखा। उसने लौट कर यह तथ्य सालमसिंह को बता दिया।20

अंग्रेजों ने जोधपुर में हो रही उथल पुथल और अराजक स्थिति की जानकारी प्राप्त करने के लिए मीर मुंशी बरकतअली को भेजा। उसने मारवाड़़ के सरदारों के साथ महाराजा मानसिंह से भेंट की किन्तु मानसिंह चुप रहे। तत्पश्चात् बरकतअली ने महाराजा से एकांत में मुलाकात की। इस भेंट में महाराजा मानसिंह ने उसे प्रारम्भ से अंत तक की दरबार की आंतरिक राजनीति और षड्यंत्रों की जानकारी दी। फिर बरकतअली ने ठा. सालमसिंह से मुलाकात की।21 सालमसिंह ने उसे जानकारी दी कि महाराजा की मानसिक स्वस्थ ठीक है; केवल मुत्सद्दियों और कुछ सरदारों के षड्यंत्रों से बचने और अपनी प्राण रक्षा के लिए मानसिंह को यह अभिनय करना पड रहा हैं। मुंशी बरकतअली ने यह रिर्पोट गवर्नर जनरल को दे दी। कुछ समय बाद अंग्रेजी सरकार ने महाराजा मानसिंह को एक खरीता भेजकर राज्य प्रबन्ध अपने हाथ में लेने और आवश्यक सहयोग देने का आश्वासन दिया।22 इधर सालमसिंह अवसर देखकर सरदारों और मुत्सद्दियों को अपने साथ लेकर राजमहल गया। उसने महाराजा मानसिंह से राज्य प्रबन्ध पुनः अपने हाथ में लेने तथा एकांतवास से बाहर आकर राज्य सिंहासन पर बैठने की प्रार्थना की।23

3 नवम्बर ,1818 ई. को लगभग 3 वर्ष के बाद महाराजा मानसिंह ने राजसी ठाठ-बाट से दरबार किया।24 मुहता अखैचन्द और उसके पक्ष के मुत्सद्दियों और सरदारों को पहले के समान राज्य प्रबंध करते रहने का आदेश दिया।25 अखैचन्द के मन में प्रारम्भ में कुछ शंका थी। परन्तु बाद में वह महाराजा की ओर से आश्वस्त हो गया। अगस्त 1819 ई. को ठा. सालमसिंह को प्रधान पदवी का सिरोपाव हुआ और नींबाज ठाकुर को पंचायत में रहने की आज्ञा प्रदान हुई।26 आसोप और निबांज ठाकुर मानसिंह की ओर से सशंकित थे। आसोप ठाकुर माता की बीमारी का बहाना कर चला गया। निबांज ठाकुर अपने मन की शंका के कारण ठा. सालमसिंह से मेल मुलाकात रखता था।27

महाराजा मानसिंह के औपचारिक रूप से सत्ता संभालने के बाद भी गुटबाजी का अंत नहीं हुआ। वह पोकरण गुट विशेषकर मुहता अखैचन्द से मन ही मन नाराज था। वह इस गुट के प्रशासनिक अनुभवों का लाभ उठाना चाहता था। इसलिए इस गुट के विरूद्ध कोई कार्यवाही नहीं की गई। इसी वजह से उसने प्रशासनिक संरचना पूर्व के समान रहने दी।28 मानसिंह सब कुछ जानकर भी अनजान बना रहा। महाराजा की अनुमति पाकर अखैराज ने राज्य के आय-व्यय के मिजाज को ठीक करने के लिए सरदारों से एक-एक गांव देने को कहा। पोकरण सहित अनेक ठिकाणेदारों ने उसे देना स्वीकार किया। गांव खालसा करने के मुद्दे पर अखैचन्द ने अपने विरोधी सरदारों को दबाने का प्रयास किया।29 डा.ॅ आर. पी. व्यास ने अखैचन्द के नेतृत्व वाले गुट को ष्पोकरण गुटश् कहा, जो उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि इस गुट में अखैचन्द की भूमिका प्रमुख थी और सालमसिंह की गौण अतः यह गुट ष्अखैचन्द गुटश् कहा जाना अधिक उपयुक्त रहेगा। 

महाराजा मानसिंह ने दोनों गुटों में शांति स्थापित करने का प्रयास किया पर असफल रहा। इधर अंग्रेजों के बार-बार सहयोग के आश्वासन से महाराजा मानसिंह में आत्मविश्वास संचित हुआ।30 21 अप्रैल, 1820 ई. को महाराजा मानसिंह ने अखैचन्द को स्वर्गवासी महाराजा गुमानसिंह का देवालय बनवाने के लिए मण्डोर में जमीन निश्चित करने भेजा।31 कार्य करके लौटते समय नागौरी गेट के बाहर पड़ी राज्य की विदेशी सेना ने अपनी तनख्वाह नहीं मिलने के कारण उसे पकड कर कैद कर लिया।32 महाराजा मानसिंह ने उसके खिलाफ कार्यवाही करने का यह उचित अवसर लगा। उसने अखैचन्द सहित 84 व्यक्तियों को पकड़ कर कैद कर लिया। 26,मई ,1820 ई को अखैचन्द सहित आठ मुत्सद्दियों और पदाधिकारियों को विष दे दिया।33 महाराजा ने पोकरण के कामदार बुद्धसिंह का बुला कर कहा कि तुम्हारा ठाकुर किसी भी प्रपंच में नहीं है और हमारी इच्छानुसार बर्ताव करता है। परन्तु नींबाज आदि ठिकाणों के सरदार तथा अनेक मुत्सद्दी प्रपंचों और षड्यंत्रों में शामिल हैं। उन्होंने पहले तो आयस देवनाथ और सिंघवी इन्द्रराज को मरवाया। तदनन्तर महाराजकुमार छतरसिंह को युवराज नियत करवाया और हमें मारने के विष मिला हुआ भोजन भिजवाया, बिछौने में सांप छोडे गए, इस प्रकार के अनेक दुःख दिए। तुम्हारे ठाकुर सवाईसिंह ने हमें तकलीफ जरूर पहुँचाई, झगड़ा भी किया, परन्तु मारने का उद्योग नहीं किया। इन लोगों ने हमें मारने का प्रयत्न किया था, परन्तु नाथजी ने हमारी रक्षा की। अब हम तुम्हारे ठाकुर पर प्रसन्न हैं उन्हें कह दो कि तुम नीबांज आदि सरदारों और मुत्सद्दियों के फंदे में न पडें और नींबाज ठिकाणे को किसी प्रकार की सहायता न दें।34

26 जून, 1820 ई.  की अर्द्धरात्रि को राजकीय सेना नींबाज की हवेली पर भेजी गई। ठा. सुरतानसिंह वीरता से युद्ध करता हुआ 18 आदमियों के साथ मारा गया।35 अगले दिन महाराजा मानसिंह ने आउवा के ठा. बख्तावरसिंह को पोकरण की हवेली पर सेना लेकर जाने का आदेश दिया था।36 किन्तु उसने गुप्त रूप से यह खबर सालमसिंह के पास पहुँचा दी। सूचना मिलते ही सालमसिंह भागकर पहले महामंदिर में नाथजी की शरण में चला गया और मौका देखकर वहाँं से पोकरण चला गया।37 पोकरण के महाराजा ने ठा. शिवनाथ सिंह ;कुचामनद्ध और भाद्राजुण ठाकुर को सालमसिंह के पास भेजकर उसे रोकने का प्रयास किया, किन्तु उसके जाने कि तीव्र इच्छा थी।38   कर्नल टॉड के अनुसार महाराजा मानसिंह ने ठा.सालमसिंह को पकड़कर पोकरण के सामन्त का वंश समाप्त करना चाहा।39 ठा. सालमसिंह के मजल और दुनाडा जब्त कर लिए गए।40

ठिकाणा पोकरण का इतिहास में कुछ भिन्न विवरण मिलता है। इसके अनुसार अगस्त 1820 ई. ;वि.स. 1877 की श्रावण बदी 30 अमावस्या ) को ठा. सालमसिंह पोकरण जाने की आज्ञा लेकर रवाना हुआ और महामंदिर में डेरा किया। मानसिंह प्रतिदिन महामंदिर जाया करता था। मानसिंह के आने पर सालमसिंह उसके समक्ष उपस्थित हुआ। उस समय ठाकुर को महाराजा ने तसल्ली दी और सालमसिंह के छोटे भाई हिम्मतसिंह के पुत्र बभूतसिंह को पट्टा इनायत किया।41 किन्तु यह विवरण समकालीन स्त्रोत से मेल नहीं खाने के कारण प्रमाणिक नहीं लगता। इसके पश्चात सालमसिंह पुनः जोधपुर लौटकर नहीं आया। अगस्त 1823 ई. (वि.स. 1880 की भाद्रपद बदी द्वितीया) को पोकरण में उसका स्वार्गवास हो गया।42 संभवतः ठा. सलामसिंह की मृत्यु हो जाने के कारण पोकरण के प्रति महाराजा मानसिंह का रवैया नरम पड गया, अन्यथा अन्य ठाकुरों पर कडी कार्यवाही की गई।

ठा. बभूतसिंह का पोकरण का पट्टाधिकारी बनना-

ठा. सालमसिंह के कोई पुत्र नहीं होने के कारण उसने बभूतसिंह को गोद लिया। बभूतसिंह का जन्म 1813 ई. ( वि.स. 1880 की भाद्रपद वदि 14 चतुर्दशी) को वह पोकरण का पट्टाधिकारी हुआ। उस समय उसकी अवस्था मात्र 10 वर्ष थी जिसके कारण पट्टे का प्रबन्ध उसकी माता कामदारों के सहयोग से करती थी।43 ज्ञातव्य ही कि बभूतसिंह के पिता हिम्मतसिंह को सादडी इनयात होने के कारण वह वहाँं का प्रबन्ध देखता होगा। ठा. बभूतसिंह को मारवाड़़ी भाषा को लिखना पढना हिसाब करना, अश्वारोहण और शस्त्र विद्या का ज्ञान करवाया गया। फरवरी 1825 ई. ( वि.सं. 1884 की फागुन वदि 10) को सामोद ( जयपुर राज्य) के रावल बेरिसाल सिंह की पुत्री से उसका धूमधाम से विवाह हुआ।44

  1827 ई. में आसोप, आउवा, रास और निमाज ठिकाणों के सभी गांव और इनके बिना दीवार के शहरों तथा पोकरण ठाकुर के कुछ गांव जब्त कर लिए गए क्योंकि इन्होंने नजराने नहीं दिए थे।45 तत्पश्चात् महाराजा मानसिंह ने पोकरण ठाकुर के अलावा शेष सभी ठाकुरों को नवनियुक्त 7-8 हजार सैनिकों की सहायता से राज्य से निष्कासित कर दिया।46 निष्कासित सरदारों ने अजमेर स्थित पॉलीटिकल एजेन्ट से संपर्क किया पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।47 अंग्रेजों के रवैये से नाराज होकर पोकरण, आसोप, आउवा, निमाज और रास के ठिकानेदारों ने 1828 ई. में महाराजा के खिलाफ शस्त्र उठा लिए। उन्होंने 30000 सशस्त्र अनुयायियों के सहयोग से राज्य के व्यापारी वर्ग को लूटना प्रारम्भ कर दिया जिससे राज्य व्यापार ठप्प हो गया। आउवा के ठाकुर को आयस देवनाथ की हत्या करने वाले षड्यंत्रकारियों का मुखिया मानने के कारण उसका पुत्र लाडूनाथ मानसिंह पर दबाव डालकर आउवा ठा. बख्तावर सिंह को सर्वाधिक प्रताड़ित करवा रहा था। 

आउवा पर राजकीय सैनिकों के कडे़ संघर्ष के बाद भी अधिकार नहीं किया जा सका। राजकीय सैनिकों के विपरीत सरदारों के पास बंदूकें नहीं होने के कारण असंतुष्ट ठाकुरों को शेखावटी की मरूभूमि में शरण लेनी पडीं।48 उन्होेंने धौंकलसिंह से पत्र व्यवहार करना प्रारम्भ कर दिया। पोकरण के ठाकुर ने अपने मित्रों सिंध के नवाब और जैसलमेर के भाटी सरदारों को सहयोग देने के लिए लिखा। किन्तु उन्होंने रूचि नहीं दिखाई।49 यदि ये आपस में समझौता कर मिल गए होते तो मानसिंह के लिए बड़ा संकट उत्पन्न हो जाता।

इधर राज्य में लगातार सरदारों से संघर्ष करते करते राज्य का खजाना खाली हो गया। राजपूत ब्राह्मणों और जोगियों के अतिरिक्त सम्पूर्ण प्रजा पर पाँच रू. का कर लगाया गया।50 वेतन कई माह से बकाया होने से सैनिकों ने इस बाबत तकाजा किया और मानसिंह का साथ छोड़ने लगे।51 तदुपरांत मानसिंह ने आसोप, निमाज और रास के ठाकुरों को क्षमा कर उनके ठिकाणे लौटा दिए किन्तु आउवा ठाकुर के पूर्ण विनाश के लिए वह दृढ प्रतिज्ञ था। फिर भी विद्रोही सरदारों ने शांति के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे समझौते में आउवा ठाकुर को भी सम्मिलित करवाना चाहते थे।52  सैनिकों के आउवा पर अधिकार करने के द्वितीय प्रयास के भी असफल रहने पर विरोधी सरदारों का मनोबल बढ़ गया।53 धौंकलसिंह द्वारा सरदारों के आमंत्रण स्वीकार करने पर दोनों पक्षों में शांति समझौता वार्ता बन्द हो गई तथा राज्य पर विनाशकारी गृहयुद्ध का खतरा मण्डराने लगा।54 धौंकलसिंह ने अपनी शरण स्थली झज्यर, हरियाणा से असंतुष्ट सरदारों से मिलने रवाना हुआ। खेतड़ी के राजा ने उसका एक सम्प्रभु शासक के समान स्वागत किया और मौद्रिक सहायता दी।55 जयपुर की पटरानी अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक कलह के कारण अपने कामदार के मार्फत धौंकलसिंह को गुप्त सहायता दे रही थी।56 यद्यपि ब्रिटिश प्रशासन ने इस कार्यवाही की कटु निन्दा की।57 महाराजा जगतसिंह (जयपुर) की पत्नी जो महाराजा मानसिंह की बहन भी थी, जयपुर में एक रिजेन्ट की भांति कार्य कर रही थी। कुछ माह बाद जगतसिंह की एक अन्य रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिससे कारण इस रानी ने शासन पर अपने पुत्र और रिजेन्ट (संरक्षक) पद के लिए अपनी दावेदारी प्रस्तुत की। मानसिंह की बहन ने यह प्रचारित करवाया कि इस रानी से एक कन्या उत्पन्न हुई थी और यह लड़का एक ब्राह्मण की संतान हैं। किन्तु सामंतों का सहायोग न मिलने से वह असफल होकर जोधपुर आ गई। नई रिजेन्ट जोधपुर राजवंश की कटु विरोधी होने के कारण धौंकलसिंह का पक्ष ले रही थी।58  मई 1928 को धौंकलसिंह 7500 घोड़ो तथा सैनिकों के साथ जोधपुर की सीमा की ओर रवाना हुआ। आउवा, रास, निमाज, खींवसर, बुडसू ,आसोप, बगड़ी एवं अन्य ठिकाणेदार उससे जा मिले। पोकरण ठाकुर ने उसे कुछ तोपें और 100 सैनिक मदद देने का वायदा उचित समय पर किया। 19 जून, 1828 ई. को एक छोटी लड़ाई के बाद धौंकलसिंह की सेनाओं ने डीडवाना के आस पास 15 मील का क्षेत्र को विजित कर लिया। उसकी तीव्र गति से घबराकर नागौर एवं अन्य नगरों ने समर्पण का प्रस्ताव किया।59 अस्थिर बुद्धि के कारण मानसिंह अनिर्णय की स्थिति में था कि उसके समीप मौजूद तीन ठाकुरों भादराजून, रायपुर और जसोल पर विश्वास किया जाए या नहीं। कुचामन ठाकुर अधिक जोश के साथ धौंकलसिंह के विरूद्ध कार्यवाही नहीं कर रहा था। अतः मानसिंह उसके प्रति संशकित था। उसके विदेशी सैनिक, जिस पर वह अधिक विश्वास कर रहा था भी उसे वेतन बकाया होने के कारण छोड़ने को तत्पर थे।60 अतः अपने अस्तित्व के मूल आधार, इन सैनिकों को संतुष्ट करने के लिए मानसिंह ने जनता में अलोकप्रिय होना भी स्वीकार कर लिया। उसने गृहकर लगाए तथा व्यावसायिक नगरों यथा पाली नागौर मेडता पर व्यावसायिक कर लगाए। किन्तु समस्या जस की तस रहीं क्योंकि विदेशी सैनिकों के अतिरिक्त मौजूदा राठौड़़़ सैनिक महाराजा की सफलता के इच्छुक नहीं थे।61

इधर धौंकलसिंह ने अनावाश्यक देरी कर स्वर्ण अवसर गंवा दिया। उसने दौलतपुरा का किला जीतने का प्रयास किया किन्तु केवल दो छोटी तोपो से वह इस कार्य में सफल नहीं हो सका।62 पोकरण ठाकुर जो धौंकलसिंह की सहायता करने नागौर तक पहुँच गया था, किन्तु आउवा और पोकरण के वर्चस्व और प्रधानता के प्रश्न पर उनसे शामिल नहीं हुआ।62 पोकरण ठाकुर जोधपुर राज्य में वंशानुगत प्रधान था किन्तु ठा. सवाईसिंह द्वारा 1806 ई. में जयपुर से जाकर मिल जाने पर यह स्थान आउवा ठाकुर को दिया गया। यद्यपि दोनो एक ही वंशज राव चाम्पा से थे, फिर भी दोनों पक्षों में इस मुद्दे पर विवाद था। आउवा ठाकुर धौंकलसिंह से पहले जा मिला था और उसने प्रधानगी की हैसियत प्राप्त कर ली थी। पोकरण ठाकुर ने अभी तक व्यक्तिगत उपस्थिति धौंकलसिंह के समक्ष नहीं दी थी। यद्यपि पोकरण ठाकुर अभी युवा ही था फिर भी अभियान में सफलता के लिए उसे उच्चता प्रदान की जानी चाहिए थी क्योंकि आउवा ठाकुर की राजधानी पर शाही सेना घेरा डाले थी तथा उसे वित्तीय परेशानियों का भी सामना करना पड रहा था। जबकि पोकरण ठाकुर  के पास पर्याप्त धन था, अच्छे प्रभाव के साथ-साथ उसकी हैसीयत मारवाड़़ नरेश के पश्चात आती थी। किन्तु आउवा ठाकुर ने इन व्यवहारिक बातों का नजरअंदाज कर दिया। उसने अपने अंधे स्वाभिमान और परम्परागत प्रतिष्ठा को अधिक महत्व दिया। फलस्वरूप दोनों चाम्पावत सरदारों मे एकता स्थापित नहीं हो सकी। इस मामूली मुद्दे को महत्व देकर पोकरण ठाकुर विरोधी सरदारों के शामिल नहीं हुआ और उसने धौंकलसिंह को कोई मदद नहीं दी।63

धौंकलसिंह की निर्बाध प्रगति से महाराजा मानसिंह के समक्ष संकट उत्पन्न हो गया। उसके पास धन और सेना की कमी थी। उसने मदद के लिए ब्रिटिश सरकार से गुहार लगाई। किन्तु ब्रिटिश सरकार ने उससे कड़ा व्यवहार करते हुए पहले अपने सरदारों से मतभेद समाप्त करने और समझौता करने के लिए कहा। परिस्थियों से मजबूर होकर महाराजा मानसिंह ने यह शर्त स्वीकार कर ली।64 तत्पश्चात् अजमेर स्थित ब्रिटिश पोलिटिकल एजेन्ट आर. केवेन्डिश ने धौंकलसिंह को ब्रिटिश सरकार का कोप भाजन बनने से बचने के लिए तुरन्त मारवाड़़ छोडने को कहा। उसने मानसिंह को यह उचित अवसर बताकर सभी सरदारों की जागीरें लौटा देने की अनुशंसा की। धौंकलसिंह अंग्रेज अधिकारियों की कड़ी कार्यवाही की धमकी के बाद झज्झर लौट गया।65 मानसिंह ने भी सरदारों की उदार शर्तें मान ली।66 1831 ई. (वि.स. 1888) में बभूतसिंह अपने करीबी रिश्तेदार गीजगढ ( जयपुर राज्य) के ठा. भारतसिंह की पुत्री के विवाह मे शामिल हुआ। इस अवसर पर उसकी मुलाकात जयपुर नरेश रामसिंह से करवाई गई। दरबार में उसे रीति के अनुसार सिरोपाव और जब तक वह जयपुर निवास करे तब तक नित्यखर्च देने का भी आदेश हुआ।67

महाराजा मानसिंह के आध्यात्मिक गुरू लाडूनाथ जो सरदारो के सख्त खिलाफ रहा की मृत्यु के बाद भीमनाथ आध्यात्मिक गुरू बना। 1838 ई. मे उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र लाडूनाथ गद्दी पर बैठा।68 उसके समय में राज्य प्रशासन पर नाथों का प्रभाव काफी बढ  गया। राज्य का अधिकांश धन इनके हाथों में पहुँच जाने पर भी उनकी तृष्णा शांत नहीं हुई थी। राज्य में नाथों के कहने से अनेक प्रकार के कर बढवाए गए और कई जागीरदारों की जागीरें जब्त कर ली गई।69 राज्य प्रशासन में नाथों के हस्तक्षेप से तंग आकर 1838 ई. (वि.सं. 1865) में सरदारों ने अजमेर स्थित ए. जी. जी. कर्नल सदरलैण्ड के पास अपनी शिकायत पेश की। इनमें पोकरण रास आउवा, नींबाज, चण्डावल, बासनी और हरसोलाव के ठाकुर या उनके प्रतिनिधि थे तथा साथीण के ठा. शक्तिदान भाटी इनका मुखिया था।70

कर्नल सरदलैण्ड ने मानसिंह को अपने राज्य का प्रबन्ध ठीक करने और सरदारों पर होने वाली सख्तियों को दूर करने के लिए लिखा। किन्तु जब इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। तब मार्च 21, 1839 ई. को स्वयं ए. जी. जी. ( एजेन्ट टू गवर्नर जनरल) कर्नल सदरलैण्ड और पोलिटिकल एजेण्ट मि. लडलो राजपूताने की अन्य रियासतों के वकीलों और मारवाड़़ के सरदारों के साथ लेकर जोधपुर आया और राई का बाग में डेरा किया। पोकरण का ठा. बभूतसिंह उससे मिलने गया।71

महाराजा मानसिंह को जब अपने प्रधान बभूतसिंह के उपरोक्त दल में शामिल होने का पता चला तो उसने ठा. बभूतसिंह को बुलवाकर स्पष्टीकरण मांगा। ठा. बभूतसिंह ने मानसिंह को विश्वास दिलाया कि उनका असंतोष केवल नाथों की मनमानी को लेकर है, महाराजा से व्यक्तिश कोई विरोध नहीं है।72 तत्पश्चात 30 मार्च को मानसिंह ने अंग्रेज अधिकारियों से मुलाकात की और उनकी पांच-सूत्री मांगों पर विचार विमर्श किया। मानसिंह उन सभी मांगों को मान लेना चाहता था किन्तु नाथों और दरबारियों ने जो यथावत स्थित चाहते थे, ने इसका विरोध करना प्रारम्भ कर दिया।73 15 अप्रैल, 1839 ई. को ए. जी. जी. ने अपने डेरे पर दोनों पक्षों की वार्ता करवाई।74 असंतुष्ट सरदारों ने मुखिया शक्तिदान भाटी (साथीण) ने जब्त किए गए 800 गांव वापस देने का मुद्दा उठाया। दरबारी सरदारों ने तर्क दिया कि सरदार राज्य के सेवक मात्र है। यह शासक का अधिकार है कि वे उन्हें सेवा में रखे या नहीं रखे। असंतुष्ट सरदारों ने इस बात का कड़ा विरोध किया। उन्होेंने राज्य में शांति स्थापना व बेहतर प्रशासन के लिए आठ-सूत्री सुझाव दिए। किन्तु नाथों और जोगियों ने आयस लक्ष्मीनाथ के नेतृत्व में इसका जबरदस्त विरोध करते हुए आत्महत्या करने की धमकी दी। अंत में महाराजा मानसिंह ने सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने और प्रतिनिधि के रूप में अपने पुत्र को गद्दी पर बैठने , ब्रिटिश प्रशासन के संरक्षण में एक नवीन प्रशासन गठित करने की बात कही तथा ब्रिटिश अधिकारियों के कहे अनुसार विभिन्न मांगे पूरी करने की सहमति दी।75    अभी वार्ता चल ही रही थी कि महाराजा मानसिंह का एकमात्र पुत्र, जो बमुश्किल एक वर्ष का था चल बसा। इस घटना से मानसिंह का अंतर्मन से पूरी तरह टूट गया। अब उसने अपने आपको पूरी तरह नाथों के सुपुर्द कर दिया। इसका लाभ उठाकर दरबारियों ने समझौता वार्ता बंद कर दी।76

तब ए. जी. जी. कर्नल सदरलैण्ड पुनः जोधपुर गया। पोकरण का ठा. बभूतसिंह भी जोधुपर पहुँचा। दरबारी लोगों ने उसे अपने पक्ष में करने के भरपूर प्रयास किए पर असफल रहे। उसने अपना डेरा असंतुष्ट सरदारों के साथ लगा लिया जिससे असंतुष्ट सरदारों का पक्ष मजबूत हो गया।77 लगातार वार्ताओं और विचार विमर्श के बाद महाराजा मानसिंह नाथों को राजकीय प्रशासन से बाहर करने और असंतुष्ट सरदारों को प्रशासन में लेने की सहमति दे दी। इसके बाद महाराजा मानसिंह ने कुछ सरदारों और उनके वकीलों को बुलाकर जागीरों के गांवों की सूची देने को कहा। सूची के बन जाने पर उसी के अनुसार सब सरदारों को उनकी जागीरें के पट्टे देने का वायदा कर लिया।78 किन्तु जो गांव नाथों दरबारियों और विशेष सहायकों को दिए गए थे उन्हें देने में मानसिंह ने असमर्थता जता दी।79 महाराजा मानसिंह सरदारों के जब्त गांवों का बहाल करने की जरूरत नहीं समझी गई जिससे असंतुष्ट सरदारों और मानसिंह में पुनः गतिरोध उत्पन्न हो गया। दरबारी  गुट के असहयोग के कारण वार्ता अंततः विफल हो गई।80 इस अवसर पर वकील रिडमल ने पोकरण ठाकुर से बात संभालने का निवेदन किया।81 कर्नल सदरलैण्ड नाराज होकर पोकरण, रास, निमाज, आउवा इत्यादि के सरदारों के साथ अजमेर चला गया।82 अन्य सरदार बीलाड़ा जाकर ठहरे। नाथों द्वारा राजकीय कोष हड़प जाने से सेना नाराज होकर असंतुष्ट सरदारों से जा मिली। महाराजा मानसिंह ने पुनः वार्तालाप के लिए अपने प्रतिनिधि लोढ़ा रिडमल का अजमेर भेजा, किन्तु कोई समाधान नहीं निकल सका।83

 कर्नल सदरलैण्ड मारवाड़़ रियासत के कुप्रबंध नाथों के उपद्रव और लुटखसोट सरदारों का असंतोष एवं उपद्रव महाराजा मानसिंह द्वारा समस्याएं सुलझाने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाए जाने तथा 1819 ई. के संधि के अनुसार अंग्रेजी सरकार को सलाना दी जाने वाली रकम पांच साल से बकाया होने ( कुल 12 लाख) से अत्यंत नाराज था।84 उसने मानसिंह पर सैन्य कार्यवाही करने के लिए गवर्नर जनरल से स्वीकृति भी ले ली। सदरलैण्ड ने अजमेर दरबार में मारवाड़़ के सरदारों का सहयोग मांगा।85 26 सितम्बर, 1839 ई. को कर्नल सदरलैण्ड पोलिटिकल एजेण्ट मि. लडलो 10,000 की सेना के साथ जोधपुर पहुँचा। मारवाड़़ के अनेक सरदार और उनके 1000 ऊँट भी इस राजकीय सेना में शामिल थे। महाराजा मानसिंह ने अंग्रेज अधिकारियों का स्वागत किया और 28 सितम्बर को उन्हें जोधपुर का किला सौंप दिया।86

तत्पश्चात् सरदारों की जागीरें उन्हें लौटा दी गई किन्तु ऐसेे कई गांव थे जिन पर भिन्न भिन्न समय पर अलग अलग सरदारों का अधिकार रह चुका था। कर्नल सदरलैण्ड ने ऐसे गांवो का निर्णय महाराजा की इच्छा पर ही छोड़ दिया।87 और आगे राजकार्य चलाने के लिए पंचायत बनावा दी जिसमें निम्नलिखित सरदार और मुत्सद्दी थे-88

सरदार -

1. पोकरण के ठा. बभूतसिंह चाम्पावत 2. आउवा के ठा. कुशालसिंह चाम्पावत

3.नींबाज के ठा. सवाईसिंह उदावत   4.रास के ठा. भीमसिंह उदावत

5.रींया के ठा. शिवनाथसिंह मेडतिया

6.कुचामन के ठा. रणजीतसिंह मेडतिया

7.आसोप के ठा. शिवनाथ सिंह कुम्पावत ( वह बालक था इसलिए कंटालिया का     

  ठा. शम्भूसिंह उसका प्रतिनिधि रहा)     

8.भाद्राजूण के ठा. बख्तावरसिंह जोधा

मुत्सद्दी - 

1. दीवान गंभीरमल सिंघवी          2. बख्शी फौजराज सिंघवी

3. धायभाई किलेदार देवकरण        4. वकील राव रिडमल

5. जोशी प्रभुलाल

उस समय ठा. बभूतसिंह की आयु मात्र 26 वर्ष थी।89 जोधपुर की प्रशासनिक स्थिति में कुछ सुधार के बाद 15 मार्च, 1840 ई. को जोधपुर किला महाराजा मानसिंह को पुनः सौंप दिया गया।90 इसी दौरान आयस लक्ष्मीनाथ की सिफारिश पर महाराजा मानसिंह ने ठा. बभूतसिंह को प्रधानगी दिलवा दी।91 महाराजा के आदेश से महामंदिर के नाथ गुरू लक्ष्मीनाथ के पट्टे का ताम्रपत्र लिखवाया गया। इस ताम्रपत्र में यह शर्त जोड़ी गई कि यदि कोई मुकदमा नाथ जी महाराज पर हो और तहकीकात करने में साबित हो जाए तो नाथजी महाराज को सवा लाख रू. देने होंगे। इसकी जमानत पोकरण के ठा. बभूतसिंह और नींबाज के ठा. सवाईसिंह ने दी। यह जमानत महाराजा के निर्देश से दोनों ठाकुरों ने अंग्रेजी सरकार में दी थी इसलिए महाराजा ने ठा. बभूतसिंह को खातरी का खास रूक्का लिख दिया कि नाथजी लक्ष्मीनाथ पर यदि किसी प्रकार का मुकदमा हो जाए और तहकीकात करने पर साबित हो जाए तो सवा लाख रू. तुम्हारे घर के नहीं लगेंगंे, राज्य से दिए जाएगें।92

इधर अंग्रेज अधिकारियों ने राज्य की अव्यवस्था के लिए नाथों को जिम्मेदार मानकर महाराजा पर दबाव डलवाया कि वह आयस लक्ष्मीनाथ और उसके सहयोगियों को राजधानी से दूर भेज दे। मानसिंह ने विवश होकर 1842 ई. में इन्हें जालौर भिजवा दिया।93 मारवाड़़ राज्य में निरन्तर अव्यवस्था के चलते राजकोष में धन  का अभाव हो गया।94 दैनिक आवश्यकता पूरी कराने के लिए 20 लाख रूपये ऋण लेना पड़ा। तब भी राज्य का खर्च चलाना कठिन हो रहा था। विवश होकर महाराजा मानसिंह ने बभूतसिंह को खर्च का प्रबन्ध करने के लिए कहा। उसने सरदारों से चंदा एकत्रित करवाकर राज्य को दिया। ठा. बभूतसिंह की इस सेवा से प्रसन्न होकर महाराजा मानसिंह ने करमावास गांव उसे इनायत किया जो उसकी जागीर पोकरण के पटटे में शामिल हो गया।95 संभवतः महाराजा मानसिंह ने ठा. बभूतसिंह को अपना पक्षधर बनाने के उद्देश्य से यह पट्टा इनायत किया था।

इधर महाराजा मानसिंह नाथों के लालच को तुष्ट करने के लिए राजकीय जवाहरातों को बेच रहे थे। नाथों के प्रभाव में आकर महाराजा मानसिंह तम्बुओं में रहने लगा। उसने उद्घोषित किया कि वह तभी राजमहल लौटेगा जबकि उसके श्रद्धापात्र नाथ जसरूप को पोलिटिकल एजेंट वापस आने की अनुमति प्रदान करे और उसके पद और शक्तियों की पुनःप्रतिष्ठा करे। जबकि पोलिटिकल एजेण्ट राज्य में सुव्यवस्था स्थापना के लिए विभिन्न अपराधों के दोषी नाथों को राज्य से निष्कासित करने की जिद पर अडे़ थे। अतः इस विषम परिस्थिति से निपटने के लिए पॉलिटिकल एजेण्ट ने ठा. बभूतसिंह से परामर्श कर यह निश्चित किया कि महाराजा द्वारा दोषी नाथों को निष्कासित करने में असफल रहने पर जोधपुर लिजन को इस उद्देश्य के लिए नियुक्त किया जाएगा।96

कुचामन ठा. रणजीतसिंह गुप्त रूप से महाराजा मानसिंह को नाथों का आर्थिक मदद देने संबंधी  परामर्श देता रहता था।97 महाराजा की उपेक्षा और असहयोग के कारण ठा. बभूतसिंह जिसके कंधे पर प्रशासन चलाने का भार, था अब इस दायित्व को भविष्य में निर्वहन करने के प्रति अनिच्छुक था।98 महाराजा मानसिंह के नाथ समस्या से निपटने में पूर्ण असहयोग को देखकर, अप्रैल 1843 ई. में पोलिटिकल एजेन्ट मि. लडलो ने दो उपद्रवी नाथों को पकड़कर अजमेर भेज दिया।98 इस कार्यवाही से मानसिंह अत्यंत अप्रसन्न और व्यथित हुआ। उसने इन्हंे छुड़वाने का प्रयास किया पर बात नहीं बनी।99 तब आत्मग्लानी से ग्रस्त हुए मानसिंह में संसार के प्रति विरक्त भाव आ गया। उसने शेखावत जी के तालाब पर जाकर भगवा वस्त्र धारण कर लिए। दो दिन भोजन नहीं किया।100 इसी निराशा और अवसाद की स्थिति में 4 सितम्बर ,1843 (वि.स. 1900 की भादो सुदि 11) की रात्रि को उसका स्वार्गवास हो गया।101

महाराजा मानसिंह की मृत्यु अगले दिन सभी सरदार किले पर एकत्रित हुए और दत्तक पुत्र, के विषय में वार्तालाप किया।102 पोलिटिकल एजेन्ट लडलो भी वहाँं मौजूद था। परस्पर विचार-विमर्श में कोई धौंकलसिंह का पक्ष ले रहा था तो काई सरदार उसका विरोध कर रहा था। सरदारों का एक वर्ग ईडर के महाराजा के पक्ष ले रहा था। उस समय मि. लडलो ने सरदारों से कहा कि महाराजा मानसिंह ने अपनी देह त्यागने से पहले उससे कहा था कि ष्हमारा उतराधिकारी कौन होगा इसका निर्णय करके हमने लिख दिया है और यह लेख हमारी संदूक मंे है।श्

ईडर (वर्तमान मध्यप्रदेश) का राजा जोधपुर राजघराने के सबसे करीबी संबंधी थे। यह जानकारी ठा. बभूतसिंह के द्वारा दी गई और अन्य सरदारों तथा वकीलांे द्वारा दी गई। किन्तु जनाना कि महिलाओं ने उसके दावे को ठुकरा दिया क्योंकि इन्होंने छतरसिंह कि मृत्यु के बाद मारवाड़़ की गद््दी पर आपना दावा प्रस्तुत किया था। इसके बाद ठा. बभूतसिंह और ठा. शिवनाथसिंह ( निंबाज ठाकुर का चाचा) ने धौंकलसिंह का नाम प्रस्तावित किया। यद्यपि वे चाहते थे पहले ब्रिटिश सरकार उसे महाराजा भीमसिंह का वैध पुत्र माने। किन्तु पोलिटिकल एजेन्ट ने उसे अवास्तविक संतान घोषित करके उसके दावे को खारिज कर दिया।103

मि. लाडलो ने स्वर्गीय महाराजा मानसिंह का संदूक मंगवाकर सबके सामने खुलवाया। इस संदूक में महाराजा के हस्ताक्षर सहित लिखा हुआ लेख मिला कि ’’अहमदनगर के अधीश कर्णसिंह का पुत्र दŸाक लिया जाए और हमारा उŸाराधिकारी बनाया जाए। इस लेख को देखकर सभी सरदार और स्वर्गीय महाराजा की रानी के मन में तख्तसिंह के पुत्र जसंवतसिंह को गोद लेने का विचार आया। किन्तु प्रधान ठा. बभूतसिंह की राय इनसे अलग थी। उसने विचार प्रकट किया कि जसवंतसिंह अभी बालक है, इस राज्य की स्थिति को देखते हुए व्यस्क व्यक्ति ही शासक बनाया जाना चाहिए। इसलिए महाराजा तख्तसिंह को ही उतराधिकारी बनाया जाना उचित होगा। महाराजा तख्तसिंह युवा और अनुभवी है। वे यहाँं आएगें तो इस राज्य का काम भी भली भांति संभाल लेगें और राज्य का अच्छा प्रबन्ध होगा। महाराजा तख्तसिंह आएं तब उनके साथ जसवंतसिंह भी आ जाएगें।’’104

पॉलिटिकल एजेन्ट मि. लाडलो और सरदार ठा. बभूतसिंह के विचार से सहमत हो गए।105 ये सभी लोग इकटठे होकर डयोढी गए और रानी से महाराजा तख्तसिंह को गोद लिए जाने का निवेदन किया। सभी सरदारों को एकमत देखकर उसने स्वीकृति दे दी। 106 महाराजा तख्तसिंह को जब समाचार मिले की उसे मानसिंह का दतक पुत्र और उतराधिकारी घोषित किया गया है तथा ठा. बभूतसिंह ने उसका पक्ष लिया है, वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने अपना हस्ताक्षर युक्त खास रूक्का ठा. बभूतसिंह को लिखा और पंचोली श्रीराम के साथ भिजवाया। खास रूक्के में बभूतसिंह से आगे की कार्यसिद्धि करने में सहायता देने का निवेदन किया गया था। खास रूक्के का हिन्दी अनुवाद- श्तुमने हमें जोधपुर के राज्य के गददी पर बिठाने में जो प्रयत्न किए है उसे आगे जारी रखना। हमारे गददी पर बैठने पर राजकाज पंच पंचायती सभी तुम्हारे हाथ से होगी और तुम्हारे पट्टे प्रधानगी कुरब और प्रधानगी के गांव लोहावट और थांवला तुम्हें दिलवा देंगे। थांवला ठा. इन्द्रसिंह के पास ह,ैं वो भी दिया जाएगा। जनाना सरदारों मुत्सद्दियों तथा ख्वास पासवानों इत्यादि को आप जो भी प्रतीतिकारक वचन कहोगे और विश्वास दिलाओगें वे हमें मंजूर होगें, तुम्हारी ये बंदगी हम कभी नहीं भूलेंगे। चाहे वह घर की बात हो या राजकाज की हम सभी बातों में, तुम्हारी सलाह लेंगे। यदि इस लेख में कोई अंतर पडे़ तो हमें बडे़ महाराज की शपथ। श्री इष्टदेव मध्यवर्ती है।श् (मिति कार्तिक अक्टूबर 1843 ई., वदि 1, संवत् 1900)।107

महाराजा तख्तसिंह को अहमदनगर से लाने के लिए अनेक सरदार मुत्सद्दी शहर के प्रतिष्ठित पुरूष अहमदनगर गए। महाराजा तख्तसिंह की इच्छानुसार एजेन्ट ने हिन्दी में खलीता पंडित गौरदत्त से लिखवाया और पोकरण ठाकुर के निर्देशानुसार भिजवाया।108 अक्टूबर माह में इन लोगों ने महाराजा तख्तसिंह को साथ लेकर जोधपुर की ओर प्रस्थान किया। 30 अक्टूबर, 1843 ई. (कार्तिक सुद 8) को महाराजा तख्तसिंह जोधपुर पहुँचे और राई का बाग में डेरा किया। शाम चार बजे के लगभग हाथी के होदे पर सवार हुआ। महाराजा की ख्वासी में पोकरण ठा. बभूतसिंह मोरछल लेकर बैठा।109 महाराजा तख्तसिंह अपने लावजमे सहित राईका बाग से उदयमंदिर होते हुए मेड़ती दरवाजे में प्रवेश कर बाजार से होते हुए फतेहपोल पहुँचा। तत्पश्चात हाथी ने गढ में प्रवेश किया। किले से 125 तोपों की सिलकें हुई।110 1 दिसम्बर, 1843 ई. को जोधपुर के किले में इनका विधिवत राज्याभिषेक किया गया। राज्य का प्रबन्ध करने के लिए एक कौसिल (सभा) गठित की गई जिसमें ठा. बभूतसिंह प्रधान था।111 महराजा तख्तसिंह ठा. बभूतसिंह के कार्य से अत्यन्त प्रसन्न था। अप्रैल 1844 ई. को पोकरण ठाकुर बभूतसिंह को प्रधानगी का सिरोपाव हुआ। हाथी, पालकी, कड़ा, मोती, मोतियों की कण्ठी वगैरह दी।112

महाराजा मानसिंह की मृत्यु के बाद आयस लक्ष्मीनाथ महामंदिर आ गया। वह अपने धनबल द्वारा राज्य में षड्यंत्र करवा सकता था। अतः पोकरण और कुचामन ठाकुरों ने महाराजा से कहलाकर लक्ष्मीनाथ के जोधपुर रहने पर रोक लगवा दी।113 1845 ई. में राज्य पर ऋण भार काफी बढ गया था जिससे राज्य का कार्य चलना कठिन हो गया। सरदारों को बुलाकर इस मुद्दे पर विचार विमर्श किया गया। महाराजा चारणों और सांसण गांवों पर टैक्स लगाना चाहता था, किन्तु  इस वर्ग के लोगों ने जौहर (आत्महत्या) की धमकी दी। इसलिए सरदार भी ये टेक्स लगाने के समर्थक नहीं थे।114 सरदारों को भी काफी मात्रा में कर रेख के रूप देना पड़ रहा था, जिससे उनमें असंतोष पनप रहा था। तब ठा. बभूतसिंह ने सुझाव दिया कि सरदार 1000 रू. की आमदनी पर 80 रू. रेख के रूप में महाराजा के खजाने में जमा करवाए।115 ठा. बभूतसिंह के कहने पर चारणों को इससे मुक्त रखा गया। मारवाड़़ के सभी सरदारों ने इसे स्वीकृत कर दिया। इसके फलस्वरूप राज्य को एक निश्चित आमदनी सुनिश्चित हुई और सरदारों और चारणों का विरोध भी समाप्त हो गया। महाराजा तख्तसिंह ने प्रसन्न होकर पेाकरण की रेख पट्टा सहित माफ कर दी और यह रकम कली के कोठार तालके लिखी गई।116

1847 ई. में महाराजा तख्तसिंह की कन्या का संबंध जयपुर महाराजा मानसिंह के साथ होने की बातचीत ठा. बभूतसिंह के द्वारा गीजगढ ठाकुर  झुंझाड़़सिंह की मध्यस्था में हुई।117 जब संबंध का पूर्ण निश्चिय हो गया तब टीके का दस्तूर रीति के अनुसार ठा. बभूतसिंह को राजकर्मचारियों, ख्वास-पासवानों के साथ जयपुर भेजा गया।117 मार्च 1850 ई. को भादराजन ठाकुर पोकरण ठाकुर से मिलने पोकरण हवेली गया। उसी समय भदोरा गांव के चारण सांदु भोपालदान ने भादराजुन ठाकुर पर कटारी चलाई। वह घायल हो गया। गोपालदान पकड़ा गया पर चारणों के धरने के बाद छोड़ दिया गया।118

  महाराजा तख्तसिंह साथ अहमदनगर से अनेक गुजराती कर्मचारी आए थे। इनकी संख्या वर्ष दर वर्ष बढ रही थी। प्रशासन मे गुजरातियों के बढते हस्तक्षेप से सरदार नाराज थे और इस संबंध में अपना ऐतराज जता चुके थे।119 ठा. बभूतसिंह ने एक बार पोलिटिकल एजेन्ट को बताया था कि महाराजा तख्तसिंह का एक खास गुजराती बातचीत में इतने अपमानजनक अपशब्द बोलता था कि उसके नजदीक जाना जोखिमपूर्ण था। यदि वह इस तरह से किसी राजपूत से बात करेगा तो वह राजपूत अपनी तलवार निकालकर या ता उसे मार डालेगा अथवा उसके हाथों मारा जाएगा।120  महाराजा तख्तसिंह ने हाकिम और कोतवाल के पद भ्रष्ट और शोषक प्रकृति के लोगों को दिए छोटे सरदारों के गांव नजराना था उŸाराधिकार शुल्क के नाम पर वसूलने प्रारम्भ किए तथा इस आधार पर उनके गांव जब्त किए जाने लगे। इन घटनाओं ने बडे़ सरदारों को चौंका दिया।121

7 अगस्त, 1851 ई. को पोकरण, आउवा, आसोप इत्यादि सरदार मिलकर महाराजा के पास गए और राज्य के लिए फायदेमंद 23 कलमों (बातों) के विषय में परामर्श दिया विशेषकर जागीरदार की मृत्यु के बाद हुकुमनामे के संदर्भ में अर्जी दी गई। इसमें कहा गया कि जगीरदार की मृत्यु के बाद नए उतराधिकारी से पिछली बहियाँ मात्र देखकर हुकमनामा निश्चित नहीं होने चाहिए बल्कि यह पिछले 12 माह की पैदाइश के आधार पर निश्चित होना चाहिए। 1851 ई को पोकरण ठाकुर और अन्य सरदार एजेन्ट सहित महाराजा के दरबार में आए और राज्य के प्रशासन में सुधार के 23 कलमें  (बातें) पुनः प्रस्तुत की। तब महाराजा ने कहा कि वह 2-4 दिन मे विचार करके बता देगें।122  इससे स्पष्ट होता है कि महाराजा तख्तसिंह और सरदारों मे कुछ मुद्दों पर खिंचाव उत्पन्न हो गया था।

जयपुर महाराजा रामसिंह का दूसरा संबंध रींवा ( वर्तमान मध्यप्रदेश) में महाराजा की कन्या के साथ हुआ था। महाराजा रामसिंह ने पहले रींवा जाकर विवाह करने का निश्चय किया और इस बाबत तैयारी भी कर ली। यह खबर जयपुरस्थ मारवाड़़ के वकील रिडमल के द्वारा महाराजा तख्तसिंह को मिली। महाराजा तख्तसिंह ने ठा. बभूतसिंह को बुलवाकर महाराजा रामसिंह का प्रथम विवाह जोधपुर आकर करने निमिन्त दबाव डलवाने को कहा। वस्तुतः महाराजा तख्तसिंह ने इस मुद्दे को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ दिया था। ठा. बभूतसिंह ने चौमू (जयपुर राज्य) के ठा. लक्ष्मण सिंह को लिखा कि पहले जोधपुर वालों द्वारा 1849 ई. में टीका किए जाने के कारण महाराजा रामसिंह का प्रथम विवाह जोधपुर होना चाहिए अतः आप महाराजा को समझा दें कि पहले रींवा जाने की गलती नहीं करें। जोधपुर के वकील ने पोलिटिकल एजेन्ट शेक्सपीयर से इस मुद्दे पर हस्तक्षेप करने को कहा। इस प्रकार के सम्मिलित प्रयासों और दबाव के कारण महाराजा रामसिंह ने अपना फैसला बदलकर पहले जोधपुर आने का मन बना लिया।19 जून,1853 ई. (वि.स. 1910 ज्येष्ठ सुदि 13) को जोधपुर में धूमधाम से विवाह हुआ। 123

1855 ई. में जैसलमेर मे दुर्भिक्ष होने से जैसलमेर वाले गेहूँ खरीदने के लिए फलौदी आए और गेहूँ आदि धान खरीद कर सायर का महसूल चुकाए बिना धान लेकर जैसलमेर की ओर जाने लगे। तब फलौदी हाकिम पंचोली धनरूप ने सहायतार्थ पोकरण ठाकुर को कहलाया कि जैसलमेर वाले सायर का महसूल दिए बिना जाने को उद्यत हो रहे है। मेरे पास इतना साधन नहीं है कि मैं उन्हें रोक सकूँ। ठाकुर ने यह सुनते ही अपने घुडसवार सुभट भेज दिए। उन्होेंने जैसलमेर वालों को परास्त करके उनसे धान वापस छीन लिया और वे हताश होकर चले गए।124

इधर जोधपुर में मारवाड़़ के सामन्तों का असंतोष निरंतर बढ रहा था। उनकी मुख्य शिकायत यह थी कि दरबार उनसे अत्यधिक रेख हुकुमनामा और न्योत मांग रहा है जिसे देने की उनकी हैसीयत नहीं है। इनमें आसोप गूलर अलणियावास सहित दस बडे़ सरदारों ने गवर्नर जनरल को शिकायत की अर्जी भेजी। महाराजा के गुजराती सलाहकार सरदारों से समझौता करने व असंतोष दूर करने से रोक रहे थे। उन्होने उपरोक्त सरदारों की उल्टी शिकायतें भिजवाई। 125 1857 ई. में अंग्रेजी हुकुमत के प्रति व्यापक क्रान्ति हुई। अगस्त 1857 ई. में एरीनपुरा में जोधपुर लिजियन क्रांति कीं। जब ये क्रांतिकारी जोधपुर की सीमाआंे से होकर गुजर रहे थे तब आउवा ठाकुर ने इन्हे अपने किले मे आश्रय दिया। इसी दौरान आसोप अलणियावास गुलर के ठाकुर भी आउवा जा पहुँचे। महाराजा तख्तसिंह ने किलेदार अनाड़सिंह के नेतृत्व में एक सेना भेजी। बिठोडा (आऊवा) नामक स्थान पर राजकीय सेना पराजित हुई ।126

इस घटनाक्रम के समय ठा. बभूतसिंह पोकरण में था। महाराजा तख्तसिंह ने उसे लिखा कि आउवा ठाकुर तुम्हारा भाई है। इसलिए उसको समझाने का प्रयत्न करो। तब ठा. बभूतसिंह ने अपनी जमीयत के घोडे़ देकर उदावत समरथसिंह को भेजा। उसने हर संभव प्रयास किए पर आउवा ठाकुर कुशालसिंह नहीं माना। इसके कुछ समय बाद जोधुपर का पोलिटिकल एजेन्ट मॉनाक मेसन जो ए. जी. जी. जनरल लॉरेस की सहायता करने आउवा आया था, अपनी गलती से विद्रोहियों के हाथों में पड़कर मारा गया। ठिकाणा पोहकरण के इतिहास मे मोनॉक मेसन के स्थान पर शेक्सपीयर वर्णित है जो कि त्रुटिपूर्ण है। स्थिति गंभीर होती जानकर महाराजा तख्तसिंह ने कविराज भारथदान के हाथ ठाकुर बभूतसिंह को खास रूक्का लिखकर पोकरण भेजा और उसे तुरन्त जोधपुर आने को कहा।127  

अगस्त 1862 ई. को महाराजा तख्तसिंह जैसलमेर महारावल की कन्या का पाणिग्रहण करने के लिए जैसलमेर गए मार्ग में पोकरण ठिकाणे के गांवा रामदेवरा में तख्तसिंह ने पड़ाव किया। ठा. बभूतसिंह महाराजा का स्वागत करने बड़े समारोह के साथ काली मगरी तक सामने गया और महाराजा की मेहमानी की। पोकरण ठिकाणे का उŸाम प्रबन्ध देखकर अति प्रसन्न हुआ। तत्पश्चात ठा. बभूतसिंह अपनी ऊँटो की सेना सजाकर महाराजा के साथ जैसलमेर गया।128

ठा. बभूतसिंह के तीन विवाह हुए किन्तु निःसंतान था। पुत्र होना असंभव समझकर दासपां के ठाकुर सुमेरसिंह के पुत्र गुमानसिंह को दत्तक लिया। 1862 में जब ठा. बभूतसिंह दरबार गया, उस समय अपने दत्तक पुत्र गुमानसिंह को भी साथ लेजाकर मुजरा करवाया। महाराजा तख्तसिंह ने गुमानसिंह को वह कुरब जो पहले कँवरो को प्राप्त हुआ करता था, प्रदान किया।129

19 जनवरी, 1865 ई. को महाराजा तख्तसिंह विवाह करने रींवा  गया। इसी दौरान ठा. बभूतसिंह भी तीर्थयात्रा करने वहाँं गया हुआ था। महाराजा का रींवावालों के साथ किसी बात झगडा हो गया। ठा. बभूतसिंह अच्छे सुभट एकत्रित कर तुरन्त रींवा पहँुचा। रींवावाले इनके पहुँंचते ही शांत हो गए। ठा. बभूतसिंह जयपुर होता हुआ पुनः पोकरण लौट गया।

1868 ई. में ए. जी. जी. कर्नल कीटिंग ने जोधपुर आकर महाराजा तख्तसिंह से सरदारों की शिकायतों  का फैसला करने और उनकी जागीरे लौटा देने के लिए कहा। तब महाराजा ने दो माह में उनका निर्णय कर लेने का वादा किया परन्तु झगडा शांत नहीं हो सका। इससे पोकरण कुचामन इत्यादि के सरदार भी आउवा, आसोप, नींबाज, रायपुर, रास, खेजड़ला और चण्डावल के सरदारों से मिल गए।130 तत्पश्चात् असंतुष्ट सरदारों ने मौका देखकर राजाज्ञा प्राप्त किए बगैर अपने जब्त हुए गाँवों और कुछ इधर-उधर के गांव पर अधिकार कर लिया । ब्रिटिश प्रशासन महाराजा तख्तसिंह पर निरन्तर दबाव डाल रही थी कि वह अपने सरदार से झगड़ा निपटाए।131 20 नवम्बर, 1871 ई. को महाराज ने जागीरदारों का झगड़ा  तय करने के लिए पोलिटिकल एजेन्ट के नाम एक पत्र लिखा जिसमें अपनी तरफ के पंचों के नाम और जागीरे लौटाने के नियम थे। जनवरी 1872 ई. में एक समिति बनाई गई जिसमें निम्नलिखित सरदार और मुत्सद्दी थे-132

सरदारों में -1.पोकरण के ठा. बभूतसिंह      2. रायपुर के ठा. लक्ष्मणसिंह 

            3.रींया के ठा. देवीसिंह         4. निंबाज के ठा. गुलाबसिंह

            5.कुचामन के ठा. केसरीसिंह    6. खेरवा के ठा. सांवतसिंह

मुत्सद्दियों में - 1. मेहता विजयमल          2. सिंघवी समरथराज

  3. हरजीवन               4. पंडित शिवनारायण

               5. मुहता कुन्दनमल         5. राव सरदारमल

इस समिति ने मई 1872 ई. तक कुछ फैसले किए 33 गांवों दरबार के पक्ष में बताए, 21 ठाकुरों के पक्ष में और 5 गांवों को लेकर अनिर्णय की स्थिति थी अतः फैसला पोलिटिकल एजेंट के विवेकाधिकार में छोड़ दिया गया। चूंकि इस समिति के पास केवल विवादित गांवों का जांच का कार्य था इसलिए असंतुष्ट सरदारों की शिकायतें यथावत रही।133 महाराजा से विवाद के चलते सरदार युवराज की ओर आशा से देखते थे। महाराजकुमार जोरावर सिंह के विद्रोह के बाद ब्रिटिश प्रशासन के दबाव के कारण महाराजा तख्तसिंह ने राज्य के प्रशासनिक अधिकार अपने युवराज जसवंतसिंह को सौंप दिए। 12 फरवरी, 1873 ई. को महाराजा तख्तसिंह की मृत्यु हो गई।134 

महाराजा तख्तंिसंह की मृत्यु के कुछ पूर्व पोकरणा राठौड़़ राजपुतों ने मारवाड़़ में चोरी और डकैती करनी शुरू कर दी जिससे प्रजा त्राहि-त्राहि करने लगी। इसका प्रबन्ध करने के लिए महाराजा ने अपनी सेना भेजी और पोकरण ठाकुर को लिखा कि ’’तुम्हारे आदमी इस इलाके से परिचित है, इसलिए तुम भी राज्य की सेना के साथ अपने सुभट भेज दो, जिससे इस उपद्रव का प्रबन्ध शीघ्र और सहुलियत के साथ हो जाए। ’’ठाकुर ने महाराजा की आज्ञानुसार अपने सुभट भेजे जिनमें फौजदार अजीतसिंह और किलेदार थे। ये जाकर राज्य की सेना में शामिल हुए। इनके पहुँचते ही उपद्रव शान्त हो गया ।135

नवपदस्थ महाराजा जसवन्तसिंह द्वितीय ने योग्य एवं अनुभवी बुजुर्ग ठा. बभूतसिंह को पूर्ण सम्मान दिया। यह तथ्य उसके द्वारा राजगद्दी पर बैठने के तुरन्त बाद भेजे गए खास रूक्के से प्रकट होता है - श्तुमको हमने आजीविका देने की बात कही थी, सो अब वापस आकर रूपये चार हजार का गांव इनायत करते है।श् एक अन्य खास रूक्का भेजा गया जिसका आशय था ’’तुम हमारे कृपापात्र हो और प्रधान हो। तुम्हारी इज्जत, जीविका, प्रधानगी का कदीमी पट्टा ओर भाईपा जिला सदा से है, उसमें अन्तर नहीं आएगा और तुमको श्री बड़े हजूर साहिब ने माफ की है सो अब भी तुम्हारे ठिकाणे से रेख नहीं ली जाएगी। सदा के अनुसार  माफी की भरोतियाँ हुआ करेंगी और तुम्हारे कामदारों के गांव भलडा रो वाडों सदा से है और इसकी एवज में रामसील श्री हुजूर से तुमको इनायत हुआ है, वह तुम ने लिया नही इसलिए भलड़ारो वाड़ो वापस तुम्हें इनायत कर देंगें। सांकड़ा के भोमियों की जमीन तुम्हारी आड़त में लिखी हुई है। फिर भोमियों ने तुम्हारेे इलाके में चोरी या डकैतियाँ की है, सो इन मुकद्दमों के और खत के रूपये सूद समेत तुम्हारे घर में आ जाने से भोमियों की जमीन का छुटकारा होगा। ऊपर लिखे हुए रूपये एक साथ नहीं देंगें, तब तक यह जमीन कब्जे में रहेगी और यह खास रूक्का हमारी निरन्तर मरजी से लिखकर इनायत किया गया है । इसके अनुसार व्यवहार में आएगा। हमको श्री हजूर साहबों की शपथ है।136

ठिकाणा पोहकरण के इतिहास में वर्णित उपरोक्त खास रूक्के के हिन्दी तर्जुमे में भाषागत गड़बड़ियाँ है। किन्तु कुछ बातंे स्पष्ट होती है कि नवपदस्थ महाराजा ने ठा. बभूतसिंह की प्रधानगी और जागीर पट्टा यथावत रखे । रेख की अदायगी माफ रखी; कामदारों के गांव भलडारो वाड़ो फिर इनायत किया; मुकदमें और हर्जाने के नहीं मिलने तक साकड़ा के पोकरणा राठौड़़ांे की जमीन रखे रहने की बात कही गई है । 

      इसी वर्ष महाराजा जसवंतसिंह ने ठा. बभूतसिंह को चूंगी (सायरों) का  प्रबन्ध का जिम्मा सौंपा और प्रधानगी का सिरोपाव दिया । 1876 ई. में उसकी सेवा से प्रसन्न होकर महाराजा ने पोकरण ठाकुर द्वारा दी जाने वाली अन्य भरोतियों यथा नजराना, हुकुमनामा, न्योत, सवार खर्च इत्यादि माफ कर दिए। रेख अदायगी पहले से ही माफ थी। ये रियायत वंश परम्परागत रखने के आदेश जारी किए गए। तदानुसार दीवान जोशी आसकरण ने उसी वर्ष जुलाई माह ( श्रावण शुक्ल 2 वि. स. 1933) को इस बाबत सनद दे दी। 1 जनवरी, 1877 ई. में वायसराय ने दिल्ली में दरबार किया। इसमें ष्शामिल होने के लिए महाराजा जसवंतसिंह द्वितीय के साथ ठा. बभूतसिंह गया।137 ब्रिटिश सरकार ने महाराजा की सिफारिश और ठाकुर की योग्यता पर ध्यान देकर ठाकुर को ’राव बहादुर’ की पद दी प्रदान किया।138

      जून 1877 ई. को ठा. बभूतसिंह अकस्मात रूप से बीमार पड़ गया। पोकरण की हवेली में महाराजा स्वयं उससे मिलने गया और ठरडा के 2 गांव भलड़ारो वाड़ो और रोइचो बड़ो इनायत किया। ज्येष्ठ सुदि तृतीया को ठा. बभूतसिंह के देहान्त के समय महाराजा ने मेहता विजयसिंह के मार्फत रू. 500 ठाकुर के पुण्यार्थ भेजे जो उसी समय भिक्षुकों में बंाट दिए गए।139 

  दिवंगत ठा. बभूतसिंह की मृत्यु के बाद उसका दत्तक पुत्र गुमानसिंह पट्टाधिकारी हुआ। ठा. गुमान सिंह का  जन्म अक्टूबर - नवम्बर 1847 ई. (वि. सं. 1904 की कार्तिक सुदि 10) को दासपां में हुआ था । 1862 ई.  में उसे 15 वर्ष की अवस्था में गोद लिया गया था।140 पट्टाधिकारी बनने के समय उसकी अवस्था 30 वर्ष थी । 

ठा. बभूतसिंह ने उसे उचित शिक्षण प्रशिक्षण प्रदान कर सर्वगुण बनाया । ठा. बभूतसिंह के संरक्षण में उसका व्यक्तित्व ढला। ठा. गुमानसिंह को महाराजा तख्तसिंह ने कुंवरपदे में निम्नलिखित कुरब दिया जो पहले कुंवरों को दिया जाता था -141

1. कुरब इकेवड़ो  2. कुरब हाथ रो  3. ताजीम  4. सवारी में घोड़ा आगे रखना 

   5. दरबार होने तब सामने की पंक्ति में बैठना । 

   जुलाई, 1877 ई. (वि.स. 1934 की श्रावण वदि अष्टमी) को प्रधानगिरी का सिरोपाव हुआ।142 कुरब कायदा जो ठा. बभूतसिंह को प्राप्त था, प्रदान किया गया। अक्टूबर-नवम्बर (कार्तिक मास) में सावणु फसल सम्भालने के लिए उसने महाराजा से पोकरण जाने की आज्ञा ली।143 वही, कुछ समय बाद ही वह बीमार पड़ गया और नवम्बर-दिसम्बर ,1877 ई. (वि.स. 1834 की पौष वदि 4) को उसकी मृत्यु हो गई।144 ठा. गुमानसिंह की मृत्यु के समाचार जोधपुर पहुँचने पर महाराजा ने किले की नौबत तीन टंाक बंद रखने का आदेश दिया।145

  ठा. गुमानसिंह के कोई पुत्र नही था। इसलिए उसके समीपी बन्धु दासपां ठाकुर सगतसिंह का पुत्र मंगलसिंह जो रिश्ते में गुमानसिंह का भाई था, गद्दी पर बैठा।146 ठा. मंगलसिंह का  जन्म 1870 ई. (वि.स. 1927 मार्गशीर्ष वदि 7) को हुआ। मंगलसिंह का  काका पोकरण का ठा. गुमानसिंह की 1877 ई. में निः सन्तान मृत्यु होने पर मंगलसिंह 7 वर्ष की अवस्था में पोकरण का  पट्टाधिकारी हुआ।147

ठा. मगंलसिंह, ठा. चैनसिंह एवं ठा. भवानीसिंह की उपलब्धियाँ:-

  1882 ई. को कोर्ट सरदारां नामक अदालत की स्थापना कर मुंशी हीरालाल को इसका सुपरिन्टेण्डेट और पोकरण, कुचामन, नींबज, आसोप, रायपुर खैरवा ओैर रींया के ठाकुरों को उसका सलाहकार नियुक्त किया।148 1883 ई. में महाराजा जसवन्त सिंह ने मंगलसिंह को मारवाड़़ के प्रधान पद पर नियुक्त किया । उस समय ठा. मंगलसिंह की अवस्था मात्र 13 वर्ष थी। नवम्बर 1889 ई. में मुसाहिबे आला महाराजा प्रतापसिंह के बम्बई जाने पर, राजकार्य करने के लिये 4 सरदारों की कौंसिल नियुक्त की गई जिसमे पोकरण के ठा. मंगलसिंल, कुचामन के ठा. शेरसिंह, नीबंाज के ठा. छत्रसिंह और आसोप के ठा. चैनसिंह थे । यह कौंसिल इजलास खास कहलाती थी।149

  1895 ई. में महाराजा जसवंतसिंह द्वितीय की मृत्यु के बाद 16 वर्षीय सरदारसिंह राजगद्दी पर बैठा। अल्पवयस्क होने के कारण महाराजा प्रतापसिंह को फिर से मुसायब आला बनाया गया और पुरानी कौंसिल राजकार्य करती रही।150 जनवरी 7, 1902  ई. को वायसराय ने महाराजा प्रतापसिंह को ईडर की गद्दी का हकदार मान लिये जाने का तार भेजा। 31 जनवरी को उसके ईडर चले जाने पर मुसाहिब आला का पद समाप्त कर दिया गया। अब पुरानी कौंसिल के स्थान पर कन्सलटेटिव कौंसिल (परामर्श देने वाली सभा) की स्थापना की गई। इसमें पोकरण, आसोप और कुचामण के ठाकुर तथा कविराजा मुरारीदान मैंबर थे। परंतु उपर्युक्त तीनों सरदार बारी बारी से वर्ष में केवल चार मास काम करते थे।151 

1905 ई. में मंगलसिंह को ब्ििरटश सरकार की तरफ से ’राय बहादुर‘ की उपाधि प्रदान की गई।152 1911 ई. में महाराजा सरदारसिंह का स्वर्गवास होने पर महाराजा सुमेरसिंह सिंहासनारूढ़ हुआ। अल्पवयस्क (13 वर्ष) होने के कारण महाराजा प्रतापसिंह को पुनः रीजेंट (अभिभावक) और कौंसिल का  अध्यक्ष बनाया गया और मंगलसिंह को पब्लिक वर्क्स का मंत्री नियुक्त किया गया।153  

  1918 ई. में महाराजा सुमेरसिंह के देहावसान के बाद उसका अनुज उम्मेदसिंह गद्दी पर बैठा और ठा. मंगलसिंह पूर्ववत पब्लिक वर्क्स के मंत्री पद पर कार्य करता रहा।154 उसके पुत्र कुं. चैनसिंह को ब्रिटिश सरकार की तरफ से ‘राव साहब‘ की उपाधि दी गई।155 जनवरी 1, 1925 ई. को पोकरण ठा. मंगलसिंह को जोधपुर दरबार की उत्तम सेवाओं के उपलक्ष में सी. आई. ई. की उपाधि प्रदान की गई।156 ठा. मंगलसिंह ने पोकरण के किले में मंगल निवास नामक सुन्दर और भव्य इमारत बनवाई।  जुलाई 9, 1929 को मंगलसिंह का 58 वर्ष की अवस्था में हृदय गति रूक जाने से स्वर्गवास हो गया। उसके 6 पुत्रों में चैनसिंह सबसे बड़ा था।157 तृतीय पुत्र कुशलसिंह गीजगढ़ गोद गया। 

  चैनसिंह का जन्म जनवरी, 1889 ई. (वि.स. 1945, माघ सुदि 5) को हुआ। जुलाई 1929 ई. (वि.स. 1986 श्रावण वदि 10) को वह पोकरण का पट्टाधिकारी हुआ।158 1915 ई. तक उसने एम. ए., एल. एल. बी. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उŸाीर्ण कर ली। वह राजपूताने का प्रथम स्नातक राजपूत था।159 उसे विक्टोरिया जुबली मेडल से सम्मानित किया गया जो कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय का सर्वोच्च अकादमिक सम्मान था। उसे लखनऊ विश्वविद्यालय यूनियन का सर्वश्रेष्ठ वक्ता चुना गया। वह इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एडवोकेट, भारत के संघीय न्यायालय में वरिष्ठ एडवोकेट रहा ; 1911 ई. में उसने जोधपुर राज्य प्रशासन में कार्य किया। चीफ कोर्ट में 1922-27 तक जज के रूप में कार्य किया।160 जनवरी 1, 1920 ई. को ब्रिटिश सरकार की तरफ से कुंवर चैनसिंह को रावसाहब की उपाधि मिली।161 जुलाई 29, 1929 को उसे शिक्षा और न्यायिक मंत्री नियुक्त किया गया ; 1934 ई. में कार्यवाहक प्रधानमंत्री नियुक्त हुआ, अर्थ और राजनीतिक विभाग भी उसके अधिकार में रहा।162  1934-35 ई. में दिल्ली और बम्बई में हुए भारतीय संघ के मिनिस्टर कॉन्फ्रेंस में जोधपुर राज्य के प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया।163 1936 ई. में उसने जूडीशियल मिनिस्टर पद से इस्तीफा दे दिया।164 दोनों विश्व युद्धो के बीच के काल में राज्य सैनिक बोर्ड के 25 वर्ष तक अध्यक्ष रहे। राजूताने के रेजीडेन्ट ने उसकी 25 वर्षाे की सेवा को अद्भुत और उत्कृष्ठ कहा। इस सेवा के कारण उसे स्पेशल ’गुड सर्विस रिवार्ड’ 1936 ई. में दिया गया। राज्य की प्रथम प्रतिनिधि सभा का वह अध्यक्ष रहा। 1941-44 ई. तक वह मिनिस्टर इनचार्ज ऑंफ रिफोर्म रहा। 1944-45 ई. तक उसने अलवर को सीनियर मिनिस्टर के रूप में सेवाएँ दी। 

  ठा. चैनसिंह आगरा विश्वविद्यालय कोर्ट का 1930-36 ई. तक मेम्बर रहा ; 1918 ई. से हिन्दू विश्वविद्यालय कोर्ट का फाउण्डर मेम्बर रहा; इण्डिन इेयर बुक एण्ड हूज हू 1946-47 ई. अन्तर्राष्ट्रीय लॉं एसोसिएशन (लण्डन) का वह आजीवन सदस्य रहा; 1934 ई. में वह अखिल भारतीय शैक्षिक कॉन्फ्रेन्स,नई दिल्ली का अध्यक्ष रहा; 1935 ई. में ऑक्सफोर्ड में हुए शिक्षा के विश्व कॉन्फ्रेंस में भारतीय प्रतिनिधि मण्डल का नेतृत्व किया; अखिल भारतीय पब्लिक स्कूल कमेटी का वह सदस्य रहा । उसने यूरोप और मध्यपूर्व एशिया में काफी यात्राएं की । उसकी रूचि पूर्वी और पश्चिमी दोनों तरह की भाषाओं मंे थी; संवैधानिक कानून में उसकी विशेषज्ञता थी; कुछ समय के लिये सर्वेन्टस ऑफ इण्डिया इन्श्योरेंस कम्पनी में वाइस चेयरमेन रहा ।  

वास्तव में ठा. चैनसिंह के कार्यों का योगदान, और सेवाओं की सूची को देखकर हैरानी होती है। मारवाड़़ राज्य में उसके जैसा कोई अन्य बौद्धिक व्यक्तित्व नहीं था। उसका रचनात्मक और सामाजिक मुद्दों में भी योगदान कम नहीं था। उसने कई पेपर्स लिखे जैसे कि फाइनेंनशियल इम्पलीकेशन्स ऑफ दी इण्डियन फेडरेशन फॉर दी स्टेट्स; प्रेसीडेंशियल एडेªस एट दी आल इण्डिया एजूकेशनल कॉन्फ्रेन्स, नई दिल्ली; पेपर्स ऑन प्री-स्कूल एजूकेशन एण्ड अदर एजूकेशनल सबजेक्ट्स एट दी वर्ल्ड कॉन्फ्रेन्स ऑफ एजूकेशन, ऑक्सफोर्ड; इत्यादि।165 

समाजिक मुद्दांे पर उसकी सोच प्रगतिशील रही। वह लम्बे समय से हरिजनों और पिछड़े वर्गों हेतु विभिन्न सुविधाएँ जुटाने हेतु प्रयासरत था जैसे कि शिक्षा, जलापूर्ति, मंदिर प्रवेश इत्यादि और उन्हें घरेलू कार्यो में लगाकर छुआछूत की भावना को दूर करना चाहा। राजनीति में वह उदारवादी था किन्तु परम्परागत घटकों से सम्बन्धित होने के कारण अधिक सफल नहीं हो सका। किन्तु एक सीमित पैमाने पर जोधपुर राज्य प्रतिनिधि सभा में अध्यक्षता के समय अपने प्रगतिशील व उदारवादी विचार के कारण वह वहाँ काफी लोकप्रिय रहा। 

उसने अपने ठिकाणे पोकरण में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं इत्यादि सामाजिक सेवाएं आजादी से  दशकों पहले प्रारम्भ करवाई। उसके ठिकाणें में स्थित रामदेवरा नामक स्थान पर स्थित बाबा रामदेव के पवित्र मंदिर में सभी जाति के लोगों के प्रवेश की अनुमति थी। उसने पोकरण में सर्वप्रथम असाम्प्रदायिक नगरपालिका का शुभारम्भ किया। खाद्यान्न की कमी के समय उसने ठिकाणे के लोगों को कम मूल्य में अनाज उपलब्ध करवाया तथा अतिरिक्त व्यय स्वयं बहन किया। वह अवध का तालुकदार था। वहाँ की जागीर के लोगों को उसने काफी स्वतंत्रता प्रदान की। उसने अपने ठिकाणे के लोगों पर करों का बोझ यथा सम्भव कम रखा। 

ठा. चैनसिंह एक स्वाभिमानी व्यक्ति था। उसने 28 मार्च, 1936 ई. को जुड़ीशियल मिनिस्टर के पद से इसलिए इस्ताफा दे दिया क्योंकि रियासत के आन्तरिक मामलों में ब्रिटिश सरकार का हस्तक्षेप उसे सहन नहीं था। उसकी अंग्रजों से नाराजगी का एक कारण यह था ब्रिटिश सरकार उमरकोट का इलाका जोधपुर रियासत से अलग कर देना चाहती थी और चैनसिंह इसके विरूद्ध था।166 

ठा. चैनसिंह की मृत्यु 1945 ई. को हुई। उसके चार पुत्रों में कुँ भवानी सिंह सबसे बड़ा था। 1945 ई. को वह पोकरण का पट्टाधिकारी हुआ । 

ठा. भवानीसिंह का जन्म 1911 ई. (वि. सं. 1967 चैत्र वदि 12) को हुआ।167 उसने इंग्लैण्ड से बार एट लॉ की डिग्री प्राप्त की। फिर वह जोधपुर में सेशन जज नियुक्त हुआ। 1952 ई. में वह भारतीय लोकसभा को सदस्य चुना गया।168

 ठा. महासिंह से ठा. भवानीसिंह तक का समय मारवाड़़ और पोकरण के इतिहास में विशिष्ट स्थान रखता है। पोकरण के चाम्पावतों ठाकुरों ने प्रारम्भिक वर्षों में जहाँ सैनिक प्रतिभा ओर प्रभावशाली व्यक्तित्व के रूप में नाम कमाया, कालान्तर में वे अपनी प्रशासनिक और बौद्धिक गतिविधियों के कारण प्रसिद्ध हुए। ठा. सवाईसिंह ने अपनी सैनिक योग्यता और प्रभाव से महाराजा मानसिंह का राजसिंहासन हिला दिया। ठा. बभूतसिंह ने एक योग्य प्रशासक के रूप में ख्याति प्राप्त की। उसने अपने ठिकाणे का उत्तम प्रबन्ध किया। महाराजा मानसिंह एवं तख्तसिंह के शासनकाल में दरबारी गुट और असंतुष्ट सरदारों में तालमेल स्थापित करने तथा मारवाड़़ में शान्ति स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मारवाड़़ के सरदारों में प्रधान की हैसियत से महाराजाओं को प्रशासन में आवश्यक सहयोग और परामर्श दिया ; वहीं, दूसरी ओर शासकों की गलत नीतियों और तानाशाह प्रवृतियों का विरोध भी किया। मारवाड़़ में शान्ति और सुव्यवस्थित प्रशासन के लिए उसने ब्रिटिश सरकार के मार्फत महाराजा मानसिंह और महाराजा तख्तसिंह पर दबाव डलवाकर उन्हें कर्त्तव्यानुकूल कार्य करने को बाध्य ंिकया। ठा. मंगलसिंह ने अपने सीधे और सच्चे, व्यक्तित्व से मारवाड़़ प्रशासन के विभिन्न पद संभालकर मारवाड़़ शासकों और ब्रिटिश सरकार की प्रश्ंासाएँ एवं सम्मान प्राप्त किए। ठा. चैनसिंह बहुमुखी प्रतिभा का धनी, उदारवादी और प्रगतिशील व्यक्तित्व था। उसने मारवाड़़ के न्यायिक और शैक्षिक प्रशासन में महत्वपूर्ण पद पर रहते हुए उल्लेखनीय सेवाएं दी। पोकरण के सरदारों ने ठा. महासिंह से लेकर ठा. चैनसिंह तक के युग में पोकरण का नाम और महत्व सम्पूर्ण मारवाड़़ में बनाए रखा। 

मारवाड़ की राजनीति में पोकरण ठिकाणे की भूमिका:-

राजस्थान की ठिकाणा व्यवस्था मध्यकालीन राजस्थान के इतिहास की एक अनुपम विशेषता रही। इस ठिकाणा व्यवस्था ने मध्यकालीन सलतनत और मुगलकाल में राजस्थान के पृथक अस्तित्व को बनाए रखा। इस पद्धति ने राजपूत राज्यों में राजनीतिक स्थायित्व प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसी पद्धति की वजह से मारवाड़़ राज्य राजस्थान में एक शक्तिशाली राज्य के रूप में उभरा। अपनी अनेक कमियों के बावजूद यह पद्धति मारवाड़़ की सभी राजनीतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक रहा। पश्चिम मारवाड़़ का पोकरण ठिकाणा 18 वीं एवं 19 वीं शताब्दी के मारवाड़़ के इतिहास में कई मायनों में विशेष था इसकी विशिष्टिता पोकरण की भौगोलिक और सामरिक स्थिति के साथ-साथ पोकरण के ठाकुरों की राजनीतिक भूमिका में निहित है। यह ठिकाणा मारवाड़़ के इतिहास में अपनी स्थापना के वर्षों से ही राजनीतिक उठा-पठक का कारण बना। 

ठिकाणा पोकरण अपनी भौगोलिक-सामरिक स्थिति तथा जल उपलब्धता के कारण मारवाड़़ और जैसलमेर राज्यों में राजनीतिक द्वन्द्व का कारण बना बीठलदासोत चाम्पावतों को पोकरण इनायत किए जाने से पूर्व तक यह स्थिति बनी रही। 16 वीं शताब्दी और 17 वीं शताब्दी के लगभग 90 वर्षों तक पोकरण जैसलमेर राज्य के अधिकार में रहा। महाराजा जसवंतसिंह प्रथम ने इसे पुनः विजित किया । महाराजा अजीतसिंह की मृत्यु के पश्चात् जैसलमेर राज्य ने इस क्षेत्र उपद्रवों और हस्तक्षेप को प्रश्रय देने का दुस्साहस किया। भीनमाल के ठिकाणेदार ठा. महासिंह ने नेतृत्व में मारवाड़़ की सेना ने उपद्रवों का दमन कर स्थिति पर काबू किया। ठा. महासिंह की इस सेवा से प्रसन्न होकर भीनमाल के स्थान पर पोकरण का पट्टा ठा. महासिंह को इनायत किया गया। इस ठिकाणे में गांवों की अभिवृद्धि द्वारा आर्थिक संसाधन पुष्ट किए गए। युद्धवीर चाम्पावतों के अधीन पश्चिमी सीमा पर एक शक्तिशाली ठिकाणें की स्थापना से जैसलमेर राज्य की राजनीतिक महत्वाकांक्षा पर सदा के लिए विराम लग गया। ठा. महासिंह को प्रधानगी सौंपकर उसकी शक्ति और पद की अभूतपूर्व अभिवृद्धि की गई। तत्पश्चात्  पोकरण के ठाकुर प्रधानगी प्रद का देश की आजादी तक परम्परागत रूप से उपभोग करते रहे। बीकानेर से युद्ध (1740 ई. के समय) राज्यधिराज बख्तसिंह एवम् जयपुर राज्य के सहयोग से मारवाड़़ पर आक्रमण और अहमदाबाद युद्ध में उसने अपनी सैन्य प्रतिभा और सामरिक सूझबूझ का परिचय दिया। 

उसका उत्तराधिकारी ठा. देवीसिंह का कार्यकाल मारवाड़़ के इतिहास में कई कारणों से खास रहा। अपने लम्बे जीवन काल में उसने चार शासकों को सेवाएं दी। महाराजा अभयसिंह का वह विशेेष कृपापात्र रहा, रामसिंह के प्रति सदैव निष्ठावान रहने की अन्य सरदारों के साथ प्रतिक्षा की, किन्तु बालबुद्धि और अव्यवहारकुशल महाराजा रामसिंह से वह अधिक समय तक निष्ठावान नहीं रहा सका। अपने स्वाभिमान के आहत होने पर वह महाराजा रामंिसंह के जयपुरस्थ सैन्य डेरे से चुपचाप पोकरण की और पलायन कर गया। राजाधिराज बख्तसिंह की ओर से अपने पक्ष में आने के निवेदन पर वह मारवाड़़ राज्य का इसमें हित समझकर तैयार हो गया। ठा. देवीसिंह के पक्ष बदलते ही मारवाड़़ के राजनीतिक समीकरण बदल गए। महाराज बख्तसिंह का मारवाड़़ राज्य की राज-गद्दी पर बैठने का चिरप्रतिक्षित स्वप्न फलीफूत हो गया। वस्तुतः ठा. देवीसिंह द्वारा पक्ष विद्रोह समय की महती आवश्यकता थी। महाराजा बख्तसिंह ने पूर्व में रामसिंह के विरूद्ध सरदारों का समर्थन पाने के लिए अपने पुत्र विजयसिंह को मारवाड़़ की गद्दी पर बैठाने की बात की थी। किन्तु रामसिंह के विरूद्ध सफलता मिलने पर उसने स्वयं राजगद्दी पर बैठने का निर्णय लिए। इससे सरदारों के एक समूह में असंतोष उभरा। ठा. देवीसिंह ही वह व्यक्ति था जिसने अपने स्तर पर सरदारों को समझा बुझा कर इस असंतोष को प्रारम्भिक अवस्था में ही समाप्त कर दिया। 

महाराजा बख्तसिह की असामयिक मृत्यु के बाद युवा विजयसिंह राजगद्दी पर विराजमान हुआ। अपनी युवावस्था, अनुभवहीनता, अयोग्यता, मराठा हस्तक्षेप तथा मारवाड़़ की तत्कालीन राजनीति से वैचारिक तालमेल स्थापित नहीं कर पाने की वजह से उसका शासनकाल संघर्ष, षड्यन्त्रों और सरदारों के असंतोष का काल रहा। सरदारों की परस्पर गुटबाजी और षड्यन्त्रों के फलस्वरूप राज्य के प्रधान ठा. देवीसिंह की महत्वपूर्ण अवसरांें पर बार बार अपेक्षा हुई। इस स्वाभिमानी ठाकुर के लिए यह स्थिति कतई रूचिकर नहीं थी। फलस्वरूप महाराजा विजयसिंह और ठा. देवीसिंह में अनावश्यक मनोमालिन्य और अलगाव उत्पन्न हुआ। रास के ठा. केसरीसिंह के अनावश्यक प्रभाव में आकर महाराजा विजयसिंह ने गंगारडा युद्ध के ऐन पहले मराठों से युद्ध एक दिन टालने की दरखास्त को अस्वीकृत किया। युद्ध टालने की इच्छा अनेक मारवाड़़ी सरदारों, बीकानेर महाराजा गजसिंह इत्यादि की थी क्योंकि शकुनवेत्ता उस दिन युद्ध लड़े जाने का विरोध कर रहे थे। महाराजा विजयसिंह का कर्त्तव्य था कि युद्ध स्थल पर सरदारों का प्रतिनिधित्व कर रहे ठा. देवीसिंह की बात को महत्व देता। युद्ध स्थल में सभी सहभागी घटक को साथ लेकर चलना अतिआवश्यक होता है। रास ठा. केसरीसिंह ने अपने अति उत्साह में ठा. देवीसिंह को डरपोक कहकर अपील खारिज करवा दी। उपेक्षा और अपमान के दशं लेकर, क्रोधित ठा. देवीसिंह ने सरदारों और महाराजा गजंिसंह से अपील खारिज होने कि बात कही। बहुसंख्यक सरदारों के समक्ष उसे नीचा होना पड़ा क्योंकि वह महाराजा से एक छोटी सी बात नहीं मनवा सका। महाराजा विजयसिंह अपनी अनुभवहीनता के कारण इन परिस्थितियों को सही ढ़ग से संभाल नहीं सका। यही कारण महाराजा विजयसिंह और ठा. देवीसिंह के मनोमालिन्य का प्रारम्भिक बिन्दु था। युद्ध टालने की अपील खारिज होने से मारवाड़़ और सहयोगी सेनाओं के सरदारों का मनोबल गिर गया। इस असंतोष और कटुतापूर्ण वातावरण में मारवाड़़ की सेना से एक बड़ी गलती तब हुई जब उनका तोपखाना मुख्य सेना से पीछे छूट गया। मराठा सेना ने द्रुतगामी आक्रमण कर इस तोपखाने पर अधिकार कर लिया और मारवाड़़ की सेना करारी शिकस्त दी ठा. देवीसिंह ने बड़ी वीरता से युद्ध किया। अपनी घायलावस्था के बावजूद उसने महाराजा विजयसिंह की मेड़ता और फिर नागौर सुरक्षित पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यद्यपि दोनों पक्षों में संधि हो गई। संधि में एक वर्ष तक युद्ध नहीं छेड़ने की शर्त थी किन्तु उतावले महाराजा विजयंिसंह ने पुनः ठा. देवीसिंह के परामर्श की उपेक्षा करते हुए रामंिसंह के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिए। शीघ्र ही मराठा महादजी सिन्धिया ने मारवाड़़ पहँुचकर मारवाड़़ की सेना को पराजित कर लौटा दिया। ठा. देवीसिंह ने युद्ध में भाग नहीं लिया था और नाराज होकर पोकरण बैठा रहा। 

कालान्तर में हालांकि महाराजा विजयसिंह का ठा. देवीसिंह से समझौता हो गया, किन्तु सम्बन्धों पर से गांठ नही निकल सकी। महाराजा विजयसिंह और ठा. देवीसिंह के सम्बन्धों का पटाक्षेप अततः महाराजा विजयसिंह के इशारे पर ठा.देवीसिंह की हत्या से हुआ। इस प्रकार अयोग्य व दुर्बल राजनीतिक सत्ता इस वीर पुरूष को अपना शिकार बना बैठी। ठा. देवीसिंह के पुत्र ठा. सबलसिंह ने पिता की हत्या का प्रतिशोध लेने और सरदारों को कैद से मुक्त करवाने हेतु  विद्रोह का शंखनाद किया। इससे मारवाड़़ राज्य में चारों ओर संघर्ष और लूटपाट  प्रारम्भ हो गया। बिलाड़ा और पीपाड़ पर ठा. सबलंिसंह के नेतृत्व वाली सरदारों की सेना ने पकड़ मजबूत कर ली। इसी दौरान ठा. सबलसिंह दुर्घटना का शिकार हुआ। उसकी असमायिक मृत्यु से असंतुष्ट सरदारों का मनोबल गिर गया। ठा. सबलसिंह के अनुज श्यामसिंह के नेतृत्व में अल्पकालिक संघर्ष संसाधनों के अभाव में समाप्त हो गया। 

मारवाड़़ के ठिकाणेदारों में सबसे विवादास्पद चरित्र ठा. सवाईसिंह का रहा। किन्तु इसमें सशंय नही है कि वह अपने युग का अत्यन्त प्रभावशाली एवं चतुर राजनीतिज्ञ व कूटनीतिज्ञ था। वह एक जबरदस्त योद्धा था। उसने अपनी युवावस्था में ही चौबारी के युद्ध में अपनी वीरता और युद्धकला का लोहा मनवाया था। मारवाड़़ की राजनीति में उसकी भूमिका को लेकर इतिहासकार अनेक आक्षेप लगाते रहें हैं। सबसे गम्भीर आक्षेप देशद्रोह का रहा है। इतिहासकार जेम्स टॉड उस पर आरोप लगाते है कि वह अपने पिता ठा. देवीसिंह की षड़यन्त्रपूर्ण हत्या में वह महाराजा विजयसिंह का हाथ मानता था। इस वजह से वह उससे द्वेष रखता था और हृदय से महाराज से निष्ठा नहीं रखता था। मारवाड़़ इतिहास में हमें प्रसंग मिलते है कि किस प्रकार उसने अपने पिता ठा. देवीसिंह को कैद करने वाले झंवर के जाटों की नृशंस हत्याएं करवाई। उस पर यह भी आरोप है कि उसने मारवाड़़ को युद्ध की अग्नि में झौंक कर राज्य में अनावश्यक जन-धन की हानि करवाई। पहले भीमसिंह से नाराज होकर मराठों से राज्य पर आक्रमण करवाया और फिर शिशु धौंकलसिंह के मामले को अनावश्यक रूप से महत्व देकर जयपुर बीकानेर, किशनगढ़ व शाहपुरा राज्य एवं मराठों के द्वारा आक्रमण करवाकर महाराजा मानसिंह केा राजच्युत करवाने का अनुचित कार्य किया। ये सभी उपरोक्त आरोप अत्यन्त ही गम्भीर कहे जा सकते हैं। इन आक्षेपों के आधार पर इतिहासकार ठा. सवाईसिंह को मारवाड़़ के इतिहास के खलनायक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। 

मेरी दृष्टि में ठा. सवाईसिंह पर इस प्रकार के आक्षेप लगाना एकपक्षीय और अनुचित होगा। हमें आरोप लगाने से पहले उन कारणों की पड़ताल करनी होगी जिसके चलते एक प्रभावशाली सामन्त और राज्य के प्रधान सवाईसिंह को इस विरोधी मार्ग पर चलना पड़ा। ठा. सवाईसिंह का दरबारी षड्यन्त्रों से वास्ता छोटी अवस्था में ही पड़ गया था। चौबारी के युद्ध में जबरदस्त वीरता प्रदर्शित करने के बाद भी सवाईसिंह के विरूद्ध मत्सद््िदयों ने महाराजा के कान भरे और युद्ध में पराजय का उत्तरदायित्व सवाईसिंह पर थोपने का असफल प्रयास ंिकया। यदि सिंध के नवाब का प्रतिनिधिमण्डल वहाँ नही आया होता तो अवश्य ही पोकरण ठिकाणा तागीर (जब्त) हो जाता। दरबारी षड्यन्त्रों से बचने का एक अच्छा उपाय यह था कि इन षड्यन्त्रों को प्रति षड्यन्त्रों द्वारा जोरदार जवाब दिया जाए। संभवतः ठा. सवाईसिंह इस तथ्य को छोटी अवस्था में ही समझ गया था। ठा. सवाईसिंह के पास प्रधान पद होने के कारण राज्य में उसकी प्रभावशाली स्थिति थी। अनेक मुत्सद्दी व सरदार उसकी इस स्थिति से द्वेष रखते थे। ठा. सवाईसिंह के विरूद्व वे गुट बनाकर षड्यन्त्रों और प्रति-षड्यन्त्रांे में उलझता चला गया। जब वह षड्यन्त्रों में सफल रहा तब नायक कहलाया अन्यथा खलनायक कहलाया। महाराजा विजयसिंह ने अपने अन्तिम समय में कुँ. मानसिंह को उत्तराधिकारी घोषित किया। किन्तु सवाईसिंह अपने प्रभाव और कूटनीति से षड्यन्त्र करके भींमसिंह को राज्यासीन कराने में सफल हो गया और नायक बन गया। जयपुर, बीकानेर की सेना जोधपुर पर चढ़ा लाने के बावजूद भी असफल रहा। अतः मारवाड़़ के इतिहास का खलनायक बन गया। यदि वह गृहयुद्ध सफल रहा होता तो इतिहासकार उसकी कभी भर्त्सना नहीं करते। मारवाड़़ के विरूद्ध एक बड़ी सेना ले आना जिसमें जयपुर, बीकानेर, किशनगढ़ शाहपुरा की सेना के साथ मराठे भी सम्मिलित हो ठा. सवाईसिंह के प्रभाव योग्यता और कूटनीति का परिचायक थी किन्तु उसकी विफलता के कारण इतिहासकार उसकी योग्यता को नजरअन्दाज कर देते है ।

ठा. सवाईसिंह को राज्य विरोधी पथ पर ले जाने वाले दरबारी षड्यन्त्रों को प्रश्रय राज्यतंत्र देता था। षड्यन्त्रों को दरबार से दूर नहीं कर पाना शासक की विफलता थी। उनके अपने ढीले व्यक्तित्व और अयोग्यता के कारण षड्यन्त्र रूपी नागों को पोषण मिला। इन षड्यन्त्रों से न केवल शासक परेशान हुए अपितु सरदारों को भी नुकसान उठाना पड़ा। ऐसे ही एक षड्यन्त्र में वह कुटिल अमीर खाँ का शिकार बना। इतिहास में ऐसे वीर पुरूष कम ही हुए है जिनकी मृत्यु पर शत्रुओं ने भी शोक मनाया हो। महाराजा मानसिंह ने ठा. सवाई सिंह की मृत्यु होने पर एक मरासिया लिखा। यदि उसे प्रभाव कूटनीति और वीरता में वह वीर दुर्गादास की श्रेणी का माना जाए तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। यह और बात है कि वह परिस्थितियों के कारण वैसी भूमिका का निर्वहन नहीं कर सका जैसी वीर दुर्गादास कर सका।

ठा. सवाईसिंह के पुत्र सालमसिंह ने अपने पिता के दुखांत पर रोष व्यक्त करने के लिए प्रतिकारस्वरूप फलोदी और उसके आस-पास के क्षेत्रों में बीकानेर राज्य के पक्ष में उपद्रव किया किन्तु शीघ्र ही अपने अल्पसंसाधनों और दुर्बलता को समझकर उसने समझौता कर लेना उचित समझा मारवाड़़ दरबार नहीं आया। सिंघवी इन्द्रराज की हत्या के पश्चात् दीवान अखैचन्द के आमन्त्रण पर वह जोधपुर आया। यद्यपि राज्य प्रशासन में उसे वंश परम्परागत प्रधान पद दिया गया था किन्तु वह तत्कालीन मारवाड़़ की राजनीति में सक्रिय भूमिका नहीं निभा सका। कुछ इतिहासकार तत्कालीन राजनीति में ’पोकरण गुट’ का उल्लेख करते है जबकि यह ’अखेराज गुट’ था तथा पोकरण का ठा. सालमसिंह मात्र इसका एक घटक था। वह ’अखैराज गुट’ के षड्यन्त्रों का मात्र एक सूत्र था । 

ठा. सालमसिंह के  उत्तराधिकारी ठा. बभूतंिसंह ने मारवाड़़ की राजनीति से एक सुरक्षित दूरी बनाए रखना पसंद किया अर्थात अति सक्रियता प्रदर्शित नहीं की महाराजा मानसिंह के शासनकाल में उसने धौंकलंिसंह को कुछ सहायता अवश्य दी किन्तु दूरदर्शिता दिखाते हुए वह शीघ्र ही पीछे हट गया। अंग्रेजी सरकार के प्रतिनिधियों से वह तालमेल बैठाने में पूर्णतः सफल रहा। मारवाड़़ के प्रशासन को सुव्यवस्थित करने तथा असंतुष्टो को मुख्य धारा से जोड़ने का प्रयास किया; जिसमें वह आंशिक रूप  से ही सफल हुआ। उसने शासन के पिछलगू की बजाय अपनी स्वतंत्र छवि स्थापित करने की कोशिश की। नाथों की मनमानी रोकने में अंग्रेज सरकार के प्रयासों पर उसने सहयोग दिया और महाराजा मानसिंह की नाराजगी मोल ली। महाराजा तख्तसिंह ने उसे पर्याप्त मान सम्मान और अपनापन दिया। महाराजा तख्तसिंह की शासन पद्वति से वह असंतुष्ट रहा। शासन व्यवस्था में सुधार के लिए उसने महाराजा के समक्ष 23 कलमें प्रस्तुत की। कालान्तर में उसकी सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराजा ने पोकरण ठिकाणे की रेख भरौतियाँ माफ करने का खास रूक्का इनायत किया। महाराजा जसंवतसिंह द्वितीय ने अपने प्रारम्भिक शासनकाल में पुनः रेख भरौतियाँ माफी का खास रूक्का इनायत किया।

ठा. बभूतसिंह के बाद पोकरण ठिकाणे की राजनीतिक भूमिका में ह्यस स्पष्ट परिलक्षित होता है। ठा. मंगलसिंह को प्रधानगी का सिरोपाव नहीं दिया गया यद्यपि सिरायतों में पोकरण का प्रथम स्थान बना रहा। मरवाड़़ प्रशासन में ठा. मंगलसिंह ने अनेक प्रशासनिक दायित्व का निर्वहन योग्यतापूर्वक किया। इस उपलक्ष में उसे अंग्रेज सरकार द्वारा भी सम्मानित किया गया। उसके पुत्र ठा. चैनसिंह की गिनती मारवाड़़ के प्रबुद्ध व्यक्तित्वों मे ंहोती थी। मारवाड़़ में वे कानून के विशेषज्ञ माने गए और इस क्षेत्र के अनेक प्रशासनिक पदों पर उसने कई वर्ष कार्य किए। वस्तुतः वे मारवाड़़ के आधुनिक ठाकुरों में प्रथम थे जिनकी राजनीति प्रशासन, सामाजिक मुद्दों, शिक्षा रचनात्मकता इत्यादि क्षेत्रों में विशिष्ट भूमिका रही। पोकरण के ठिकाणेदारों का रूझान तलवार से कलम की और होना पोकरण के इतिहास का एक दिलचस्प पहलू है। 

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संदर्भ -

1. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 99

2. गौ. ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग 4, खण्ड 2, पृ. 809 ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 118

3. वि.ना. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग 2, पृ. 414;

4. महाराजा मानसिंह री ख्यात, (सं. डॉ नारायणसिंह), पृ. 81; बीकानेर री ख्यात,    ( सं. डॉ. हुकुमसिंह ), पृ. 130,133; ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 118 

5. श्यामलदास, वीर विनोद, भाग 2, खण्ड 1, पृ. 508, 509; डा.ॅ आर. पी. व्यास.   राजस्थान का वृहत इतिहास, पृ. 258

6. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी,), पृ. 84; बीकानेर री   ख्यात, ( सं. डॉ. हुकुमसिंह ), पृ. 140; ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 119;    सूर्यमल्ल, वंशभास्कर, भाग 4, पृ. 3975;

7. श्यामलदास, वीर विनोद, भाग 2, खण्ड 3, पृ. 1738; डॉ. पदमजा शर्मा, महाराजा मानसिंह और उनका काल, पृ. 71

8. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 119

9. मारवाड़़ री ख्यात ( सं. डॉ. हुकुमसिंह ), पृ. 178

10. डॉ. आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नोबिलिटी इन मारवाड़़, पृ. 48

11. वही, पृ. 49,50; जी. आर. परिहार, मारवाड़, मराठा संबंध, पृ164 से 166

12. पॉलिटिकल कनसलटेशन नवम्बर 10,1815 न. 14; डॉ पदमजा शर्मा महाराजा     मानसिंह और उनका काल, पृ. 85; श्यामलदास, वीर विनोद, भाग 2, पृ. 865;

13. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी),  पृ. 103,104;

14. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 121; जी. आर. परिहार, मारवाड़, मराठा   संबंध, पृ. 166;

15. गौ. ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग 2, पृ. 819; अंत में 9 लाख रू     देना तय हुआ।

16. पोकरण ठाकुर पर शक नहीं किया गया किन्तु अफवाह थी कि आउवा ठाकुर  के नेतृत्व में यह षडयंत्र हुआ। डॉ. आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नॉबिलिटी इन मारवाड़़, पॉलिटिकल कनसलटेशन जून 14,1817 न. 13 अगस्त 1, 1817 न. 40 पृ. 50

17. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 217; श्यामलदास, वीर विनोद, भाग 2, खण्ड 2, पृ. 866; डॉ पदमजा शर्मा महाराजा मानसिंह और उनका काल,      पृ.104

18. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी),  पृ. 113; वि.ना.रेऊ, मारवाड़, का इतिहास, भाग 2, पृ. 420 

19. सिक्रेट कनसलटेशन, अक्टूबर 28,1817 न. 26 भाग 2; गौ.ही. ओझा, जोधपुर  राज्य का इतिहास,भाग 4, खण्ड 2, पृ. 823, 826

20. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी),  पृ. 121; ठिकाणा  पोहकरण का इतिहास, पृ. 123; श्यामलदास, वीर विनोद, भाग 2, पृ. 866

21. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 105 से 124

22. फॉरेन पॉलिटिकल, दिसम्बर 26, 1818 न. 55, 56; ठिकाणा पोहकरण का  इतिहास, पृ. 105; महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी )   पृ. 121; डॉ. पदमजा शर्मा; महाराजा मानसिंह और उनका काल, पृ. 105

23. ठिकाणा पोहरकण का इतिहास, पृ. 124;  गौ.ही. ओझा, जोधपुर राज्य का  इतिहास, भाग 4, खण्ड 2,  पृ. 829; के अनुसार बुद्धसिंह महाराजा की  वास्तविक दशा जानने में असमर्थ रहा।

24. फॉरेन पॉलिटिकल नवम्बर 7 ,1818 न. 33 से 36;

25. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी),  पृ. 123,124;  श्यामलदास, वीर विनोद, भाग द्वितीय, खण्ड 2, पृ. 867; वि. ना. रेऊ, मारवाड़़,  का इतिहास, भाग द्वितीय पृ. 427

26. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 101; फॉरेन पॉलिटिकल, दिसम्बर 26, 1818 

न. 55, 56

27. फॉरेन पॉलिटिकल, दिसम्बर 26,1818 न. 55, 56; वि.ना.रेऊ, मारवाड़, का  इतिहास, भाग द्वितीय, पृ. 423 

28. गौ. ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग द्वितीय, पृ. 829; डॉ. आर. पी  व्यास, रोल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़, पृ. 57

29. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी)  पृ. 127;

30. ठिकाणा पोहकरणका इतिहास, पृ. 107; महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ  नारायणसिंह), पृ. 132

31. श्यामलदास, वीर विनोद, भाग 2, खण्ड 2, पृ. 867

32. गौ. ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग 4, खण्ड 2, पृ. 830; 

33. डा.ॅ आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नॉबीलिटी, इन मारवाड़, पृ. 59,60

34. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 107;

35. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायण सिंह भाटी), पृ. 129;

36. वही, पृ. 130; श्यामलदास, वीर विनोद, भाग द्वितीय, खण्ड 2, पृ. 867; गौ. ही.  ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, पृ. 831

37. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 128;डा.ॅ आर. पी. व्यास, रोल ऑफ  नॉबीलिटी, इन मारवाड़, पृ.67

38. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 128 

39. ठा. मोहनसिंह चांपावतों का इतिहास, भाग 2 पृ. 367

40. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी)  पृ. 133; वि. ना. रेऊ,  मारवाड़, का इतिहास, भाग 2, पृ. 424

41. डॉ. आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नॉबिलिटी, इन मारवाड़़, पृ. 62;

42. जेम्स टॉड कृत जोधपुर राज्य का इतिहास, (सं. बलदेवप्रसाद मिश्र), पृ.288

43. गौ. ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग 4, खण्ड 2, पृ. 832;  

44. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 128 

45. वही, पृ. 129; वि.ना. रेऊ, मारवाड़़, का इतिहास, भाग 2 पृ. 424 ने ठा.  सालमसिंह की मृत्यु का वर्ष वि.स. 1878 लिखा है जो त्रुटिपूर्ण है।

46. वही, पृ. 130

47. वही, पृ. 130,131

48. फॉरेन पॉलिटिकल, अगस्त 8, 1829 न. 24; श्यामलदास, वीर विनोद, भाग 2,  खण्ड 1, पृ. 869

49. डॉ. आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नॉबिलिटी इन मारवाड़़, पृ. 69

50. फारेन पॉलिटिकल, जुलाई 29, 1828 न. 25

51. डॉ. आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़़, पृ. 69, 70

52. फॉरेन पॉलिटिकल, जुलाई, 29 1828 न. 26

53. फॉरेन पॉलिटिकल, जून 13, 1828 न. 1

54. फॉरेन पॉलिटिकल, जुलाई 29, 1828 न. 24; वि.ना. रेऊ, मारवाड़, का इतिहास,  भाग 2, पृ. 432 

55. डॉ. आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़़, पृ. 71,72 

56. फॉरेन पालिटिकल, जुलाई 29, 1838 गौ.ही. औझा, जोधपुर राज्य का इतिहास,  भाग 4, खण्ड 2, पृ. 843

57. फॉरेन पालिटिकल, जून 13, 1828 न. 2

58. वही, नं. 2,3,4

59. डॉ. आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नॉबिलिटी इन मारवाड़़, पृ. 72 ( पाद् टिप्पणी)

60. फॅारेन पॅालिटिकल, जुलाई 29, 1828 न. 11

61. फॉरेन पालिटिकल, जुलाई 29, 1828 न. 11; श्यामलदास, वीर विनोद, भाग  2, खण्ड 1, पृ. 869

62. वही, नं. 24

63. फॉरेन पॉलिटिकल, अगस्त 8, 1828 न. 25

64. वही, जुलाई 29, 1828 न. 24 पैरा 8

65. वही, जुलाई 29 1828 न. 25

66. वही, अगस्त 8 1825 न. 25

67. वही, न. 25 डॉ आर पी व्यास रोल ऑफ नॉबिलिटी इन मारवाड़, पृ. 74,75

68. वही, अगस्त 16, 1828 न. 18

69. वही, अगस्त 29, 1828 न. 15

70. डॉ. आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नोबीलिटी इन मारवाड़, पृ. 76

71. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 131

72. डॉ. आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नोबीलिटी इन मारवाड़़, पृ. 90; 1838 मे उसकी 

मृत्यु के बाद उसका पुत्र लक्ष्मीनाथ गद्दी पर बैठा।

73. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 133

74. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायण सिंह भाटी),  पृ. 164; वि.ना.रेऊ,  मारवाड़़, का इतिहास, भाग द्वितीय पृ. 431

75. वही, पृ. 166; ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 133

76. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 132

77. मारवाड़़ प्रेसिस, पृ. 52; राष्ट्रीय अभिलेखागार दिल्ली,,

78. वही, पृ. 54

79. डॉ. आर. पी .व्यास, रोल ऑफ नोबीलिटी इन मारवाड़़, पृ. 90

80. मारवाड़़ प्रेसिस, पृ. 58 

81. वही, पृ. 60

82. वि. ना. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग 2 पृ. 431

83. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 132

84. डॉ. आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नोबीलिटी, इन मारवाड़, पृ. 96

85. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी),  पृ. 167

86. वही, पृ. 168 ;गौ. ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग 4, खण्ड द्वितीय,       पृ. 856 ;वि. ना. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग द्वितीय, पृ. 431, 432

87. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 131,132

88. वही, पृ. 133; गौ. ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग 2, पृ. 860

89. वि.ना. रेऊ, मारवाड़, का इतिहास, भाग 2 पृ. 433

90. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी),पृ. 173,174; ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 134; श्यामलदास, वीर विनोद, भाग द्वितीय 872

91. मारवाड़़ प्रेसिस, पृ. 76; वि.ना.रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग 2, पृ. 436

92. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी), पृ. 185; पाद् टिप्पणी  श्यामलदास, वीर विनोद, भाग 4, पृ. 872; गौ.ही. ओझा, जोधपुर राज्य का   इतिहास, भाग 2 पृ. 865

93. मोहनसिंह, चांपावतों का इतिहास, भाग 2, पृ. 372

94 फॉरेन पोलिटिकल, मार्च 23, 1840 न. 56 58; ठिकाणा पोहकरण का इतिहास,  पृ. 135; महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी), पृ. 213 

95. गौ. ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग 4, खण्ड 2, पृ. 867; के  अनुसार वि.स. 1897 में पोहकरण ठा. बभूतसिंह को प्रधानगी हुई।

96. मारवाड़,़ प्रेसिस, पृ. 111 से 118; ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ.  136-खास रूक्का ठाकुर श्री बभूतसिंह सिंध जी सु जुहार वाचजो तथा  आयसजी महाराज  श्री लख्मीनाथ जी रो पतर लिख्ीजियो लिण में कोई मुकदमो आय पडे तो तार काढ लेणो मुदो साबत हुवे तो सवा लाख 125000 रूपीया थांरा घर रा नहीं लागसी राजसु दिरीज जावसी मांरा वचन छै इण रूक्कारी जामनी 125000 रा दोनु सरदार अंगरेजी सिरकार में लिखी दीनी। ठा. सा बभूतसिंह ने नींबाज सवाई सिंधजी लिख है सं 1897 रा माघ सु 3

97. वि.ना. रेऊ, मारवाड़, का इतिहास, भाग 2, पृ. 437

98. डॉ. आर. पी. व्यास, रोल आफ नॉबिलिटी इन मारवाड़़ पृ. 109;  के अनुसार ठा.  बभूतसिंह को प्रधानगी दिए जाने से कुचामन भाद्राजून रायपुर आसोप और  कंटालिया के ठाकुर नाखुश थे। इस गुट के नेता कुचामन ठाकुर रणजीतसिंह  ने पंचायत (कॉंसिल) के कार्य में अनावश्यक बाधाएं उत्पन्न की। अततः वह  विफल रहा और उसे कौंेसिल से हटा दिया गा। नाथों ने इस गुटबाजी का  लाभ उठाने का प्रयास किया। 

99. श्यामलदास, वीर विनोद, भाग 2, खण्ड 2, पृ. 873 ; गौ. ही. ओझा, जोधपुर  राज्य का इतिहास, खण्ड 2, भाग 4, पृ. 868; ठिकाणा पोहकरण का इतिहास,  पृ. 137

100. मारवाड़, प्रोसिस, पृ. 117; फॉरेन पोलिटिकल, फरवरी 28 1842 न. 22 23

101. वही, पृ. 123 

102. डॉ. आर. पी. व्यास, रोल आफ नॉबिलिटी इन मारवाड़़ पृ. 111

103. श्यामलदास, वीर विनोद, भाग 2, खण्ड 1, पृ. 873 

104. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायण सिंह भाटी)  पृ. 221

105. श्यामलदास, वीर विनोद, भाग 2,खण्ड 1, पृ. 873

106. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी) पृ. 227; वि.ना.रेऊ,  मारवाड़़ का इतिहास, भाग 2, पृ. 438

107. महाराजा मानसिंह री ख्यात (सं. डॉ नारायणसिंह भाटी), पृ. 225; गौ. ही.  ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग 2, पृ. 871; ठिकाणा पोहकरण का  इतिहास, पृ. 138;  उस समय ठा. बभूतसिंह पोहकरण में था ।

108. फॉरेन पॉलिटिकल, अक्टूबर 21, 1843 न. 96 से 104; डॅा. आर. पी. व्यास  रोल ऑफ नॉबिलिटी मारवाड़़ पृ. 114; वि.ना. रेऊ, मारवाड़, का इतिहास, भाग 2, पृ. 443

109. फॉरेन पॉलिटिकल, जनवरी 27, 1846 न. 29 31; महाराजा तख्तसिंह री ख्यात (सं. डॅा. नारायणसिंह भाटी), पृ. 3; ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ138; श्यामलदास, वीर विनोद, भाग 2, पृ. 875; वि.ना.रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग 2, पृ. 442

110. महाराजा तख्तसिंह री ख्यात (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी) पृ. 3; प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर पृ. 3;

111. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 138

112. वही, पृ. 139,140  

113. महाराजा तख्तसिंह री ख्यात (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी ), पृ. 6, 7

114. महाराजा तख्तसिंह री ख्यात (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी ), पृ. 8 

115. मारवाड़़ प्रेसिस, पृ. 131 

116. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 140

117. महाराजा तख्तसिंह री ख्यात (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी), पृ. 8

118. फॉरेन पॉलिटिकल जनवरी 27 1844 न. 38,45

119. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 140

120. डॉं. आर. पी. व्यास, रोेल ऑफ नोबीलिटी इन मारवाड़़, पृ. 122, 

121. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 142

122. महाराजा तख्तसिंह री ख्यात (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी ), पृ. 104 ,105

123. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 142

124. महाराजा तख्तसिंह री ख्यात (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी ), पृ. 126 ,127

125. डॉं. आर. पी. व्यास, रोेल ऑफ नोबीलिटी इन मारवाड़़ पृ. 122

126. वही, पृ. 125

127. वही, पृ. 122

128. महाराजा तख्तसिंह री ख्यात (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी ), पृ. 132 ,133 ,134

129. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 143; महाराजा तख्तसिंह री ख्यात (सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी ), पृ. 402,403; वि.ना. रेऊ, मारवाड़, का इतिहास, भाग 2, पृ. 446 एवं पादटिप्पणी

130. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 143

131. फॉरेन पोलिटिकल, मई 22 1857 न. 82; डॉ. आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नॉबिलिटी इन मारवाड़़,  पृ. 132, 133

132. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 144; में उस शेक्सपीयर कहा गया है जो गलत है; वि. ना. रेऊ,  मारवाड़़ का इतिहास, भाग 2, पृ. 449;  

133. वही, पृ. 144; वि.ना.रेऊ, मारवाड़,़ का इतिहास, भाग 2, पृ. 451

134. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 145; महाराजा तख्तसिंह री ख्यात (सं. डॉ.नारायणसिंह भाटी) पृ. 363; डा.ॅ आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नॉबिलिटी इन मारवाड़़, पृ. 157

135. वही, पृ. 145 

136. वि.ना. रेऊ, मारवाड़,़ का इतिहास, भाग 2, पृ. 459

137. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 146; डॉ आर.पी.व्यास, रोल ऑफ  नोबिलिटी इन मारवाड़,़  पृ.163

138. वि. ना. रेऊ, मारवाड़,़ का इतिहास, भाग प्प्ए पृ. 459; ठा. भगवतसिंह, चांपावत राठौड़़, पृ. 316

139. डॉ. आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नोबीलिटी इन मारवाड़, पृ. 164

140. ठिकाणा पोकरण का इतिहास, पृ.147; डॉ. आर. पी. व्यास, रोल ऑफ नोबिलिटी इन मारवाड़़, पृ. 166,167

141. वही, पृ. 147

142. वही, पृ. 147,148

143. वही, पृ. 148,149; पाद् टिप्पणी दीवान जोशी आसकरण और फैजुल्ला खाँ के 

      पत्रों की प्रतिलिपि 

144. वि. ना. रेऊ, मारवाड़,़ का इतिहास, भाग 2 पृ. 469 

145. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ.149 

146. बदरी शर्मा, दासपों का इतिहास, पृ.  233

147. ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 152,153; मोहनसिंह, चांपावतों का इतिहास, भाग 2, पृ. 375; गोविन्दलाल श्रीमाली राजस्थान के अभिलेख, भाग 2, पृ. 596 ; मरू भारती, जनवरी 1982, वर्ष 29 अंक 4; बदरी शर्मा दासपों ंका इतिहास, पृ. 233 

148. वही, पृ. 153 

149. बदरी शर्मा; दासपों ंका इतिहास, पृ. 234; मोहनसिंह, चांपावतों का इतिहास, भाग 2, पृ. 375;

150. श्यामदास, वीरविनोद, खण्ड 2, भाग 2; वि. ना. रेऊ, मारवाड़,़ का इतिहास, 

  भाग 2, पृ. 475 

151. वि. ना. रेऊ, मारवाड़,़ का इतिहास, भाग 2 पृ. 474 

152. वही, पृ. 484 

153. वही, पृ. 494 पाद् टिप्पणी 

154. वही, पृ. 504; भगवतसिंह चांपावत राठौड़़, पृ. 319

155. वही, पृ. 519 ;मोहनसिंह चांपावतों का इतिहास, भाग 2, पृ.375;

156. वही, पृ. 507 

157. वही, पृ. 535 

158. वही, पृ. 536 पाद् टिप्पणी 

159. वही, पृ. 549 

160. वही, पृ. 559, मोहनसिंह, चांपावतों का इतिहास, भाग 2, पृ.559;

161. बदरी शर्मा, दासपों ंका इतिहास,  पृ. 234; 

162. वि. ना. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग 2 पृ. 525; भगवतसिंह, चांपावत  राठौड़़ पृ. 321,322

163. इण्डियन इयर बुक एण्ड हुज हू ,1946,47 (रिप्रिन्ट), ठिकाणा पोकरण संग्रह 

164. वि. ना. रेऊ, मारवाड़़़ का इतिहास, भाग 2, पृ. 560

165. वि. ना. रेऊ, मारवाड़़़ का इतिहास, भाग 2, पृ. 567;

166. इण्डियन इयर बुक एण्ड हुज हू , 1946, 47 (रिप्रिन्ट), ठिकाणा पोकरण संग्रह 

167. वि. ना. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग 2, पृ. 572;

168. इण्डियन इयर बुक एण्ड हुज हू,  1946, 47 (रिप्रिन्ट), ठिकाणा पोकरण  संग्रह 


 

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