अध्याय – 8 : पोकरण शासकों का सांस्कृतिक क्षेत्र में योगदान

 अध्याय – 8 : पोकरण शासकों का सांस्कृतिक क्षेत्र में योगदान


पोकरण का किला

पोकरण का किला पश्चिमी राजस्थान के प्राचीनतम किलों में से एक है। जोधपुर और जैसलमेर राज्य की सीमा पर अवस्थित होने के कारण यह सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था। इसी वजह से यह दुर्ग दोनांे राज्यों के मध्य संघर्ष का बड़ा कारण बना। लगभग 90 वर्षों को छोड़कर यह किला जोधपुर राज्य के अधीन रहा। अल्पकाल के लिए यह राव मालदेव के समय सुल्तान शेरशाह सूरी के समय दिल्ली सल्तनत के अधीन रहा जिसने राव मालदेव का पीछा करते हुए पोकरण पर अधिकार किया और अपना एक थाना यहां स्थापित किया। कुछ समय के लिए यहाँ मुगलवंशी औरंगजेब का भी अधिकार रहा।

पोकरण के किले का निर्माण किसने और कब करवाया, इससे जुडे़ अनेक मिथक प्रचलित हैं। किन्तु इस बात को लेकर सर्वसम्मति है कि पोकरण किला का जो वर्तमान स्वरूप है, वह इसकी स्थापना के समय ऐसा नहीं रहा होगा। पोकरण किले का वर्तमान स्वरूप एक क्रमिक प्रक्रिया रही होगी। पोकरण किले का इतिहास का पता लगाने से पूर्व हमें पोकरण कस्बे या शहर का इतिहास खंगालना होगा।

पोकरण की विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियाَ यथा निम्न भूमि, जल की उपलब्धता, यहां की मिट्टी की भिन्न प्रकृति, मरू बालूका मिट्टी से भिन्न ललाई लिए हुए है। मिट्टी के टीबों की अनुपस्थिति चारों और चट्टानी क्षेत्र से निर्मित छोटा अपवाह तंत्र इत्यादि लक्षणों के कारण यहां निश्चित ही प्राचीन बसावट रही होगी। प्राचीन काल और मध्यकाल में दूसरे स्थानों की अपेक्षा यहां जल की उपलब्धता अवश्य ही काफी अच्छी थी। जोधपुर के राव सूजा के पुत्र नरा जिसे फलौदी प्राप्त थी, पोकरण की जल उपलब्धता की वजह से ही यहां अधिकार करने हेतु प्रेरित हुआ।1 स्पष्ट है कि आबादी बसावट के लिए यहां की परिस्थितियाँ   अनुकूल थी।

श्री विजयेन्द्र कुमार माथुर ने पोकरण को महाभारतकालीन पुष्कराराण्य नगर माना जहां उत्सवसंकेत गण रहा करते थे। इस मान्यता की स्वीकृति से पोकरण का इतिहास ईसा से कई शताब्दी पूर्व चला जाता है। उस काल में भी लोग प्रशासनिक केन्द्र के रूप मंे दुर्ग या गढ़िया बनाया करते थे। अतः पोकरण में किला महाभारत काल में ही बन गया होगा। श्री विजयेन्द्र कुमार माथुर ने श्री हरप्रसाद शास्त्री को उद्घृत किया जिनके अनुसार महरौली (दिल्ली) के प्रसिद्ध लौह स्तम्भ का चन्द्र वर्मा और समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति का चन्द्र वर्मा एवं मंदसौर अभिलेख (404-05 ई.) का चन्द्रवर्मा यहीं का शासक था।2 जब शासक था तो उसका प्रशासनिक केन्द्र दुर्ग भी अवश्य ही रहा होगा। पोकरण से प्राप्त 1013 ई. के अभिलेख से इस क्षेत्र में पहले गुहिलों और फिर परमारों के वर्चस्व की ओर इशारा करते हैं।3 इसके बाद लगभग तीन शताब्दी से भी अधिक समय तक यहां परमारों का राज रहा। निश्चित रूप से परमारों के समय यहां कोई गढ़ या छोटी गढ़ी  रही होगी। उस काल में परमारों द्वारा पश्चिमी राजस्थान में दुर्ग श्रृंखला बनाए जाने के निश्चित प्रमाण मिलते हैं। कालान्तर में पंवार पुरूरवा ने नानग छाबडा को गोद लिया जिससे पोकरण में छाबड़ा वंश का शासन प्रारंभ हुआ।

मुहता नैणसी जनश्रुति के आधार पर भैरव राक्षस द्वारा छाबड़ा वंशी शासक महिध्वल को पकड़ कर मार डालने का वर्णन करता है। यह घटना तेरहवीं शताब्दी के प्रारंभ की रही होगी। इस घटना के बाद पोकरण भैरव राक्षस के भय से उजड़ गया। कालान्तर में तेरहवीं शताब्दी के चौथे पांचवे दशक में तंवर अजमाल जी ने राव मल्लिनाथ जी से पोकरण बसाने की स्वीकृति ली। उन्होंने पंवारों (परमार) के दुर्ग में आश्रय लेकर पोकरण पुनः बसाने की स्वीकृति ली। पंवारों (परमार) के दुर्ग में आश्रय लेकर पोकरण पुनः बसाने के प्रयास प्रारंभ किये। इसी दौरान अपनी किशोरावस्था में (लोककथाओं के अनुसार) अजमाल तंवर के पुत्र रामदेव ने भैरव राक्षस को पराजित कर सिन्ध भगा दिया। संभवतः अजमाल जी, वीरमदेव जी तथा रामदेवजी द्वारा दुर्ग का पुनर्निमाण करवाया गया। कुछ समय पश्चात् तंवरों ने अपने वंश की एक कन्या राव मल्लिनाथ के पौत्र हमीर जगपालोत (पोकरणा राठौड़ों के आदि पुरुष) से ब्याही। विवाह के पश्चात् रामदेव जी ने कन्या से कुछ मांगने के लिए कहा। हमीर जगपालोत के कहे अनुसार उसने गढ़ के कंगूरे मांग लिए। रामदेवजी ने उदारता पूर्वक इसे स्वीकार कर लिया जिससे पोकरण गढ़ पर राव हम्मीर का अधिकार हो गया। कालान्तर में जोधपुर के शासक राव सूजा के पुत्र नरा ने छल से पोकरण दुर्ग पर अधिकार कर लिया। उसने पोकरण से कुछ दूर पहाड़ी पर किला बनाकर सातलमेर बसाया। पोकरण गढ़ पर अपना अधिकार रखा किन्तु आबादी को सातलमेर स्थानान्तरित कर दिया। 1503 ई. के लगभग पोकरणा राठौड़ों से हुए युद्ध में नरा वीरगति को प्राप्त हुआ जिससे पोकरण-सातलमेर दुर्गों पर पोकरणा राठौड़ों का अधिकार हो गया। यह अधिकार अल्पकालिक स्थापित हुआ। क्योंकि जोधपुर के राव सूजा ने उन्हें परास्त कर खदेड़ दिया। कालान्तर में 1550 ई. में राव मालदेव ने पोकरण सातलमेर दुर्गों पर अधिकार कर लिया। उसने सातलमेर के दुर्ग को नष्ट कर दिया तथा पोकरण के पुराने गढ़ का पुनर्निर्माण करके उसे सुदृढ़ स्वरूप दिया।4 सातलमेर गढ़ के पत्थरों को मेड़ता भिजवाकर मालकोट बनवाया।5 कुछ वर्षों बाद जब मारवाड़ पर मुगल प्रभुत्व स्थापित  हो गया तब राव चन्द्रसेन ने एक लाख फदिये में पोकरण दुर्ग और उससे लगे क्षेत्र जैसलमेर के भाटियों को गिरवी रूप में दे दिए। अनन्तर 100 वर्षों के बाद महाराजा जसवंतसिंह के समय मुहता नैणसी के नेतृत्व में आई एक सेना ने पोकरण पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार पोकरण दुर्ग पर प्रभुत्व बदलता रहा और अन्ततः स्थायी रूप से आजादी तक जोधपुर राज्य के स्वामित्व में रहा। महाराज अजीतसिंह के समय जब मारवाड़ पर मुगल प्रभुत्व स्थापित हुआ था, पोकरण में एक थाना स्थापित किया गया। महाराजा अभयसिंह के समय पोकरण के नरावत राठौड़ों के विद्रोह करने पर बीठलदासोत चांपावत महासिंह को यह दुर्ग और इससे लगे 72 गांव पट्टे में दिए गए। ठा. सवाईसिंह के समय दुर्ग का कुछ हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया, तब महाराज विजयसिंह ने राजकीय खजाने से इस दुर्ग का पुनर्निर्माण करवाया। 19 वीं शताब्दी में ठा. मंगलसिंह ने दुर्ग के अन्दर की एक पुरानी इमारत को गिरवाकर आधुनिक स्थापत्य विशेषताओं का समन्वय करके मंगल निवास बनवाया।

पोकरण में सातलमेर के अतिरिक्त कहीं से किसी भी प्रकार के दुर्ग या गढ़ी के अवशेष नहीं मिले है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि पोकरण के वर्तमान दुर्ग की नींव प्राचीनकाल में ही पड़ गई थी। अनेक पुनर्निमाणों के बाद इसका वर्तमान स्वरूप अस्तित्व में आया है। पोकरण का किला जिसे स्थानीय लोग लाल किले के नाम से जानते हैं लाल पत्थर से निर्मित है। इसकी ऊंचाई सभी स्थानों पर बराबर नहीं है। राव मालदेव ने इसे 15 गज ऊंचा करवाया था। जैसलमेर के भाटी शासकों महारावल भीम और महारावल कल्याणमल ने किले की दीवारों को कहीं 5 तो कहीं 8 गज ऊँचा करवाया। दीवार की मोटाई नीचे की ओर 5 गज है। पोल की तरफ से दीवार की ऊँचाई 21 गज है। पीछे की ओर यह लंबाई 17 गज है। किले में कुल 21 बुर्ज हैं, जहां चौकीदार नियुक्त किए जाते थे। किले की एक पोल काफी ऊंची है जिस पर लोहे का दरवाजा था। इस पोल के ऊपर की ओर मालियों (कमरा) है। एक पोल महाराजा जसवन्तसिंह के समय बनी जिसे जसपोल के नाम से जाना जाता हैं।6 अन्दर से किला 200 गज लंबा और 200 गज चौड़ा समरस था। एक कुंआ पोल के नजदीक दीवानखाना के समीप घुड़शाला के प्रवेशद्वार के आगे था। इसका पानी कुछ खारा था। एक छोटी बावड़ी भी थी जिसका पानी कुछ खारा था और प्रयोग में नहीं लाया जाता था।

किले में देवी देवताओं के मंदिर है। मुहता नैणसी जैनियों के आदिनाथ मंदिर के विषय में लिखता है। जो किले से बाहर अभी भी मौजूद है। अन्दर की इमारतों में चढ़ने की मूल रूप से तीन नाल (सीढियाँ) थी। वर्तमान में इनकी संख्या अधिक है। किले के चारो ओर पक्की खाई थी जो चार गज गहरी और 5 गज चौड़ी थी। किले के बाहर दो बावड़ियाँ है जो अपने आप भर जाती है। किले के चारों ओर कंगूरे हैं जिन पर हल्की तोपें लगी रहती थी। प्रतिकूल परिस्थिति से निपटने के लिए खाने की वस्तुएँ पर्याप्त रूप से जमा करके रखी जाती थी। पोकरण के किले में 5 पोल है, यथा - 1. इमरती पोल2. बाजार के समीप की पोल (गणेश पोल) 3. घोड़ो के तबेले की पोल, 4. माताजी के मंदिर की पोल, 5. जनानी ड्योढ़ी पोल। पोकरण शहर के परकोटे में भी पांच पोल हैं -

1. भवानी पोल - भवानी माता के मंदिर के निकट ।

2. सूरज पोल - सूरज इस ओर से उगता है।

3. चांद पोल - चन्द्रमा इस ओर अस्त होता है।

4. राम पोल - यहां से मृतकों के निकलने का रास्ता था।

5. एकों की पोल - एकों गांव इस ओर है। यह रघुनाथ पोल के नाम से भी जाना जाता है।

भवानी पोल पर सतियों के हाथ अंकित है। चांद पोल पोकरण का मुख्य द्वार था जो 7 बजे बंद हो जाता था। इस समय के बाद शहर वाले लोग बाहर नहीं जा सकते थे और बाहर वाले लोग भीतर नहीं आ सकते थे। सुरक्षा व्यवस्था गोमठ मुसलमानों के जिम्मे थी। ये प्रहरी नियमों का सख्ती से पालन करते थे। एक अवसर पर उन्होंने देरी से आने पर ठा. चैनसिंह को भी अंदर नहीं आने दिया। पोकरण के किले में मौजूद भवनों को अलग-अलग खण्डों में बांटा जा सकता है - यथा 1. मंगल निवास2. जनानी ड्योढी3. बादल भवन4. कोठार।

ठा. मंगलसिंह से पहले ठाकुर परिवार बादल भवन में रहता था। बादल भवन से सटाकर एक तबेला था। कहते हैं कि ठा. सवाईसिंह का सांढिया (ऊँट) यहां उनके ऊपर के कमरे की खिड़की के नीचे सदैव तैयार रहता था। जनानी ड्योढ़ी ठुकरानियों के आवास के लिए था। यहां के झरोखों से वे नीचे मंच पर होने वाले मनोरंजक कार्यक्रमों को देखा करती थी। जनानी ड्योढ़ी में नागणेचीजी का एक मंदिर भी है। मंगल निवास ठा. मंगलसिंह ने आधुनिक स्थापत्य और परम्परागत स्थापत्य से मेल करके बनवाया। सुख-सुविधा सम्पन्न होने के कारण ठा. मंगलसिंह और उनके बाद के ठाकुर परिवार ने इसे ही अपना मुख्य आवास बना लिया। मंगल निवास के ऊपर एक चिन्ह लगा है। जिसे पुराने लोग पोकरण ठाकुरों का शाही चिन्ह बताते है किन्तु वर्तमान पोकरण ठाकुर श्री नगेन्द्रसिंह इससे इंकार करते है।

कोठार गृह के ऊपर हाथी के होदे के समान एक आकृति निर्मित की गई। संभवतः यह महाराजा के साथ प्रधान के रूप में हाथी के हौदे पर बैठने के विशेषाधिकार की ओर संकेत करता है। कुछ लोग कहते हैं कि यह अधूरा निर्माण है जो इस उद्देश्य से छोडा गया ताकि भविष्य में किले में भवन निर्माण करने के लिए कोई मुहुर्त नहीं निकालना पड़े। पोकरण के किले में चार शिलालेख मिलते हैं। पोकरण के पुराने मुख्य द्वार पर लगा शिलालेख ठा. सालमसिंह की मृत्युपर्यन्त सतियों से संबंधित है। यहां सतियों के हाथ भी अंकित है। इसके एकदम सामने गणेश प्रतिमा के पास लगा शिलालेख राव चन्द्रसेन से संबंधित है किन्तु अपाठ्य है। जनानी ड्योढ़ी के द्वार पर लगा शिलालेख भी अपाठ्य है। मुख्य पोल से बाहर बाजार की तरफ की दीवार पर अंकित शिलालेख में इमामकुली खां का नाम अंकित है जिसने महाराजा जसवंतसिंह की मृत्यु के बाद पोकरण के किले पर अधिकार कर लिया था। ठा. बभूतसिंह के समय नगर प्राकार (चारदीवारी) के चारो तरफ 20 फुट चौडी शहर पनाह थी। चार दीवारी में 30 मंदिर, 9 स्कूल, 15 कुएं और प्राकार के बाहर गांवों में 70 कूप, 13 पानी के टांके और बाजार में 250 दुकानंे थी।7

हवेलियाँ - राजस्थानी अपनी  बेजोड़़़़़ हवेली स्थापत्य कला के लिए विख्यात रही हैं। पोकरण में भी ऐसी ही विशाल हवेलियाँ बनायी गई। इन हवेलियों में तराश कर लगाए गए, पत्थरों पर फूल, Ÿिायाँ, पशु-पक्षियों की आकृतियाँ, झरोखे, झरोखों के नीचे ही झलरीनुमा नक्काशी के साथ ही हवेली के कोने पर बाहर की तरफ झरोखों में रत्नजड़ित हार की भांति आकृतियां उकेरी गई है। ये कहीं-कहीं एक ही पत्थर को काट कर बनाई गई है तो कहीं पर एक से अधिक प्रस्तर खण्डों को कुशलतापूर्वक जोड़कर बनायी गयी हैं। 19 वीं शताब्दी के प्रारंभ में सिंगल-कोर्ट मारवाड़ी पद्धति में बनी गिरधारीलाल लाखेटिया और रोशनलाल की हवेलियाँ विशेष रूप से मशहूर है। गिरधारीलाल लाखोटिया की छत पर किया गया पत्थर का अलंकरण तथा द्वारयुक्त खिड़कियाँ के चारों और सुन्दर पत्थर की कलाकारी उत्कृष्ट हैं। पोकरण में इन विशेषताओं से युक्त हवेलियाँ बड़ी संख्या में बनवाई गई किन्तु इनमें से अधिकांश इमारते अब जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं। आजादी से पूर्व पोकरण सिन्ध-मारवाड़ व्यापारिक मार्ग पर अवस्थित था जिससे यहां के सेठ-साहूकार काफी समृद्ध थे। इन्हीं लोगों ने इन उत्कृष्ट एवं बेजोड़ हवेलियाँ बनवाई। किन्तु आजादी के बाद जैसे ही ये व्यापारिक मार्ग बन्द हुए। समृद्ध व्यापारी वर्ग ने नए व्यापारिक क्षेत्र तलाशने के लिए पोकरण से पलायन किया। फलस्वरूप रखरखाव के अभाव में हवेलियाँ जीर्ण-शीर्ण हो गई ।

पोकरण की कलात्मक छतरियाँ- पोकरण में स्थापत्य की दृष्टि से सबसे सुन्दर और मनोहर यहां की छतरियाँ है। ये कलात्मक छतरियाँ पोकरण की उŸार दिशा की पहाड़ी पर स्थित हैं। दूर से ये छतरियाँ एक झुण्ड के रूप में अनुपम दृश्य प्रस्तुत करती है। इन कलात्मक छतरियों को लाल पत्थरों के विशाल चबूतरे पर राजपूत शैली में बनवाया गया है। ये छतरियाँ अलग-अलग समूहों में है। प्रथम समूह में एक साथ निर्मित पांच छतरियाँ हैं। पांच अन्य छतरियाँ भी इनके साथ मौजूद है। तीन छतरियाँ ध्वस्त होती नजर आ रही है। कुछ छतरियों के बीच में पीले पत्थरों के पाद चिन्ह लगे हुए है। हाथों के चिन्ह भी अंकित है जो सतियों के हैं। छतरियों में लगे खम्भों पर खिलते हुए कमल के फूल की आकृति उकेरी गई हैं। लाल पत्थरों के खंभों पर ये गुम्बदाकार छतरियाँ हस्तशिल्पियों की विलक्षण प्रतिभा को प्रदर्शित करती हैं। दूर से देखने पर छतरियों केे कई दृश्य बनते है। छतरियों के सामने से देखने पर लगता है कि प्रत्येक छतरी दो-दो खम्भों पर खडी है। थोड़ा दायें और बायें होने पर ऐसा प्रतीत होता है कि ये सैकड़ों खम्भांे पर निर्मित है। जितनी दूरी और विभिन्न कोणों से आप छतरियों को देखेंगे वे आपके समक्ष अलग दृश्य प्रस्तुत करेंगी। इन छतरियों की ऊंचाई 20 से 25 फीट के मध्य है। ये छतरियाँ 4, 6, 8, 10 तथा 12 खंभों पर बनी हैं। कुछ छतरियाँ जुड़ी हुई है। सातलमेर में स्थित छतरियां अधिकांश जीर्ण-शीर्ण है तथा एक को छोड़ शेष छतरियां चार खंभें युक्त हैं।

अद्भुत छतरियों वाला यह स्थान वास्तव में पोकरण के ठाकुर परिवार का शमशान है। प्रत्येक मृतक ठाकुर के नाम की एक देवली बनी हुई है। दिवंगत ठाकुर के विषय में यह जानकारी हवेली के निकट लगे पत्थर पर खुदे लेख से होती है। ऐसा ही एक सुपठ्य अभिलेख ठा. गुमानसिंह का है जिसमें वर्णित है कि इनका जन्म सं. 1904 कार्तिक वदी 10 को हुआ, दासपा से सं. 1919 की फागण वदी 5 को गोद लिया गया, सं. 1933 को पोकरण की गद्दी पर बैठे, सं. 1934 को स्वर्गवास हुआ तथा इस देवली की प्रतिष्ठा सं. 1937 को फागण वदी 7 को हुई। पोकरण के ठाकुरों की छतरियाँ अन्य स्थानों पर भी हैं यथा जोधपुर में सिंघोरिया की बारी में ठा. देवीसिंह की छतरी है। मूंडवा गांव (नागौर) में ठा. सवाईसिंह की छतरी है। कागा-जोधपुर में ठा. बभूतसिंह, ठा. चैनसिंह व ठा. मंगलसिंह की छतरियां है।

तालाब स्थापत्य - पोकरण की अपनी विशिष्ट भौगोलिक विशेषताएँ हैं। पोकरण के चारों ओर एक चट्टानी क्षेत्र है, जो ऊंचा नहीं होने के बावजूद ढलानदार है। ये ढलानदार चट्टानें जिन्हें स्थानीय भाषा में मगराकहते हैं। वर्षा काल में पूर्ण रूप से आन्तरिक अपवाह तंत्र का निर्माण करती है यह निम्न भूमि युक्त अपवाह तंत्र झीलों व तालाबों के निर्माण को प्रेरित करता है। पोकरण के लगभग 16 कि.मी के छोटे से क्षेत्र में बीस से भी अधिक छोटे-बडे़ तालाब व बांधो का निर्माण किया गया।

(1) रामदेवसर - यह पोकरण के उŸार पश्चिम में स्थित है। यह माना जाता है कि इसका निर्माण रामदेवजी ने करवाया था। समीप ही रामदेवजी की एक नष्ट हुई छतरी का विवरण मुहता नैणसी देता है जिसका वर्तमान में कोई नामोनिशान भी नहीं बचा है। राजस्थान की परम्परागत तालाब वास्तुकला के अनुसार इसे भी दो विशाल घाटों द्वारा बांधा गया है। पूर्वी घाट जिसे नृसिंहघाट कहते हैं, लगभग 1 किलोमीटर से भी अधिक लम्बा है। यह इस तालाब की पूर्वी सीमा बनाता है। तालाब का दक्षिणी घाट दो भागों में विभक्त है। इसे शिव घाट व राम घाट कहते हैं। यह घाट लगभग 300 मीटर से अधिक लम्बा है। तालाब के ये घाट लाल  बलुआ पत्थर के बने हुए हैं। हाथी घोड़े की प्रतिमाओं तथा चबूतरों द्वारा इन घाटों का अलंकरण किया गया है। मूल रूप से आशापुरा मगरा का एक भाग इसके लिए जलग्रहण क्षेत्र बनाता है। इस तालाब के चारों ओर अनेक वास्तु संरचनाएं है। यथा मार्केण्डेश्वर, शिव मंदिर, क्रियाशाल, विशाल रामद्वार, नृसिंह मंदिर, खाकी मंदिर, बालीनाथ आश्रम। क्रियाशाल व्यक्ति के मरणोपरांत क्रिया कर्म के लिए स्थान था। इसका उपयोग सभी जातियों द्वारा बिना भेदभाव के किया जाता है। रामदेवसर के चारों और 84 बीघा क्षेत्र में विभिन्न जातियों के शमशान व कब्रिस्तान बने है। बाबा रामदेवजी के मेले के समय बड़ी संख्या में दर्शनार्थी इस तालाब के किनारे आश्रय लेते रहे हैं।

(2) सालमसागर - पोकरण के किले के पश्चिम की ओर सालमसागर है। मुहता नैणसी किले के बाहर की दो बावड़िया का विवरण देता है। इन्हीं बावड़ियों का विकास सालमसागर के रूप में किया गया। जैसाकि नाम से ही स्पष्ट होता है सालमसागर ठा. सालमसिंह द्वारा पुण्यार्थ प्रयोजन से बनवाया गया।8 सालमसागर के पूर्वी और पश्चिमी हिस्सांे में विशाल घाट बनवाए गए। पूर्वी घाट पर सीढियाँ बनी हुई हैं जो सालमसागर की गहराई दर्शाती है। इस घाट पर जैसलमेरी पीले पत्थर की एक रेलिंग भी लगाई गई है। इस हिस्से पर चौकियाँ भी बनवाई गई हैं। वर्षा ऋतु में सालमसागर स्वतः ही एक वर्षा में भर जाता है। अधिक जल एकत्रित होने पर तालाब में चादर चलने लगती है और सालमसागर का जल एक ओर तीस फीट गहरे गड्डे में गिरता हुआ झरने का रूप ले लेता। तालाब के पूर्वी ओर पश्चिमी  घाट से सटी चौकियों व घाटों में विभिन्न पशुओं की मूर्Ÿिायाँ अंकित की गई हैं। घाट के विशाल पत्थरों को तराश कर एक विशेष लेप से जोड़ा गया है। कई शताब्दियों के बीत जाने पर भी इस पर पानी का कोई प्रभाव नहीं पड़ा हैं। ठिकाणा शासनकाल में सालमसागर तालाब का दोहरा प्रयोग होता था। नागरिकों के पेयजल का तो यह स्त्रोत था ही, संकटकाल में दुर्ग रक्षा के लिए बनाई गई किले की खाईयों को भी इसी के जल से भरा जाता था। इस तालाब के उŸारी किनारे पर, जो किले का दीवार को छूता था, पर एक दरवाजानुमा भाग बना है। यह वर्तमान मंे बन्द है। युद्ध काल में इसी रास्ते से दुर्ग में जलापूर्ति की जाती थी। ठिकाणा शासन में इस तालाब की स्वच्छता पर विशेष ध्यान दिया जाता था। स्नान व कपड़े धोने पर पूर्ण प्रतिबन्ध था। एकादशी, अमावस्या व पूर्णिमा के दिनों में जन सहयोग से श्रमदान द्वारा खुदाई होती थी। पशुओं के पानी पीने के लिए गऊघाट में पशुओं के जल तक पहुँचने के लिए ढालनुमा पत्थर बांधे हुए है। सालमसागर के पश्चिम में गरीबदासजी का आश्रम है। गरीबदासजी ठा. बभूतसिंह की पत्नी नाथावतजी के गुरू थे।

(3) महासागर - यह पोकरण से उत्तर दिशा में स्थित छतरियों की तलहटी में स्थित एक विशाल कृत्रिम तालाब है। महासागर के तीन ओर लाल पत्थर के पक्के घाट बने हुए हैं। चौथी तरफ पहाड़ी आ जाती है। वर्षा ऋतु में पहाड़ी का पानी बहकर झरने के रूप में महासागर मंे आकर गिरता है। महासागर के पूर्ण रूप से भर जाने पर एकत्रित जल झरने के रूप मंे पुनः नीचे की ओर गिरता है

(4) मेहरलाई - पोकरण शहर से पूर्व की ओर कोस की दूरी पर म्हैरा कुम्हार ने इस तालाब का निर्माण करवाया। इस तालाब के तट पर सरस्वती के रूप हिंगलाज का एक प्राचीन मंदिर है।

(5) सुधलाई - इसका निर्माण सुधा गांधी ने करवाया था। इसी से इसका नाम सुदागांधी री तलाई पड़ा। वर्तमान में यह सुधलाई नाम से जाना जाता है। यह पोकरण शहर के दक्षिण छोर पर स्थित है।

(6) डूंगरसर - शहर से 1 कोस की दूरी पर पहाड़ी के नीचे अवस्थित है जिसे मुरार राठी ने खुदवाया था। इसमें वर्ष भर जल रहता है। वर्तमान में यह तालाब पर्वतसर के नाम से जाना जाता है।

(7) नरासर -सातलमेर से 1 कोस दूर उत्तरपूर्व (ईशान) कोण पर नरा सूजावत ने इसे बनवाया था। इस तालाब के समीप ही नरा की छतरी है जो अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। इसमें वर्ष भर जल रहता है।

(8) रूखी री तलाई - मुहता नैणसी के अनुसार यह पोकरण से 60 कदम दूर दक्षिण में रूखी ब्राह्मणी द्वारा बनवाई गई थी।

(9) सूघरलाई - मुहता नैणसी के अनुसार यह सींघा पुष्करणा ब्राह्मण द्वारा बनवाई गई।

(10) धरणीसर - सातलमेर से कुछ उत्तर मंे धरणा राणी द्वारा बनवाई हुई है।

(11) लीगासर - राव गोविन्द की पुत्री बाई लूंग ने इसे पोकरण के पूर्व की ओर तीन कोस दूरी पर बनवाया था

(12) हाथी नाडा- पोकरण से दक्षिण में 3 किलोमीटर दूर खींवज माता के मंदिर के पास यह पुराना तालाब है। इसकी गहराई एक हाथी की ऊँचाई जितनी होने के कारण यह हाथी नाडा कहलाता है। उपरोक्त वर्णित तालाबों के अतिरिक्त पोकरण से लगे क्षेत्र में साधोलाई, बांदोलाई गोमटसर इत्यादि तालाब भी है।

      मंहता नैणसी9 पोकरण मंे मौजूद बावड़ियों के विषय में निम्न विवरण देता हैं -

(1)   कुंभारवाय - इसकेे तटों को पक्का किया गया था। पानी की पर्याप्त उपलब्धता है। इससे 35 मन गेहूं का बीज बोया जाता था। दर्जी जाति के लोग इस बावड़ी से मूलतः कृषि करते थे। इस पर दो अरहट लगे थे।

(2) मोहणवाय - यह माली जाति के लोगों की बावड़ी थी। पानी की मात्रा कम है और 14 मन गेहूं का बीज बोया जा सकता था। इस पर एक अरहट लगा था।

(3) नीबली - यह भी माली जाति के लोग की बावड़ी थी । पानी पर्याप्त मात्र में उपलब्ध था। इस पर दो अरहट लगे थे। इसके जल से 24 मन गेहंू का बीज बोया जा सकता था।

(4) सारंगवाय - यह एक कुंए के रूप में थी जिससे गांव के लोग जल पिया करते थे।

(5) मेहावाय - कुम्हारों के द्वारा बनवाई हुई थी तथा दस मण गेहूं का बीज बोया जाता था।

(6) वीसवाय - यह मालियों की बावड़ी थी। इसमें 15 हाथ पानी था। पानी थोड़ा खारा था। इस बावड़ी के जल से 15 मन गेहूं का बीज बोया जा सकता था।

(7) मदागण- मालियों की बावडी थी जिसका पानी अत्यन्त मीठा था इस पर एक अरहट लगा था तथा 10 मन गेहूं का बीज बोया जा सकता था।

(8)   भाखरवाय - इस बावड़ी से मालियों द्वारा कृषि की जाती थी किन्तु पानी कुछ खारा था। 4 मण गेहूं का बीज इसके जल से बोया जा सकता था।

(9)   हीरावाय - पानी काफी मीठा है तथा माली जाति के लोग इससे कृषि करते थे। इसके जल से 8 मन गेहूं के बीज की सिंचाई करना संभव था।

(10) कोहरियों - पानी काफी मीठा है । इस पर एक अरहट है। माली जाति की यह बावड़ी थी जिससे 12 मन गेहूं के बीज की सिंचाई की जा सकती थी।

(11) खाण्डीवाय - पानी काफी मीठा था किन्तु सिंचित क्षेत्र कम था। माली जाति के लोग 1 अरहट की सहायता से इससे 5 मन गेहूं प्राप्त करते थे।

(12) बछेसर - इस बावड़ी का जल अधिक अच्छा नहीं था। माली जाति के लोग एक अरहट की सहायता से 5 मण गेहूं की बीज इसके जल से बोते थे। एक अन्य बावड़ी धडीवाय से इसे जल आपूर्ति होती थी।

(13) बाली बावड़ी - मालियों की बावड़ी थी जिस पर एक अरहट लगा था तथा 5 मन गेंहू बोया जाता था। माली-1, अरहट - 5 मण गेहूं ।

(14) सतावाय या धड़ीवाय-दरजियों से सम्बन्धित बावडी जिसका जल मीठा था तथा 15 मन गेहूं का बीज बोया जाता था। दरजी-मीठा पानी-गेहू 15 मन

(15) देहाऊग वाय - इसका जल गांव के लोग पीते थे जो काफी मीठा था, 1 अरहट काफी ऊंचाई पर था -12 मण गेहूं बोया जाता था।

(16) खांखों री बाव - यह माली समाज की बावड़ी थी जिसमें - 5 मन गेहूं बोया जाता था।

(17) मोखासर - बावडी का जल नीचा था, गेहू 5 मन बोया जाता था।

(18) पोकरण किले के अंदर का कुंआ - यह इमरत कुंआ अमृत पोल के समीप था, जिसका जल मीठा है।

(19) पोकरण के किले के अंदर की बावडी इसका पानी खरा था और पीने के लिए उपयुक्त नहीं था।

(20) थड़ी बाव- बछेसर को इसके जल से आपूर्ति होती थी।

सांसण बावडियाँ - मुहता नैणसी के अनुसार ये हैं -

(1) भलवाय - पानी मीठा और पर्याप्त मात्रा में । इससे 12 मन गेहूं का बीज बोया जा सकता था। महाराजा जसवंत सिंह ने यह बावडी व्यास भोपत जी को दी थी।

(2)   चतुरभुजजी के मंदिर की बावडी - भोजक ब्राह्मणों को प्राचीन काल से ही प्रदŸा थी-आठ मन गेहूं बोया जाता था।

(3)   पुष्करणा ब्राह्मण सींघा की बावडी - इसका पानी अच्छा मीठा है। एक अरहट है और 8 मन गेहूं बोया जाता था। यह सांसण बावड़ी पहले रामदेवजी द्वारा दी हुई थी। तत्पश्चात् रानी लक्ष्मी (राव सूजा) को पत्नी ने इसे प्रदान किया।

(4)   जोसी वैकुण्ठ की बावडी - इसे राव गोविन्द ने जोसी वैकुण्ठ को प्रदान  किया। नदी किनारे स्थित थी और 8 मन गेहूं बोया जाता था।

(5)         बालनाथ जी की सांसण की बावड़ी - जोगियों को दी हुई

1. सोहाईवाय - पानी पर्याप्त था, गेहूं 8 मन बोया जाता था।

2. ऊलावाय-पानी पर्याप्त था जिससे गेहूं 2 मन बोया जाता था।

पोकरण ठाकुरों द्वारा कवियों, लेखकों और साहित्यकारों को संरक्षण- 

राजस्थान के प्रतिष्ठित राज्य जोधपुर के सर्वप्रतिष्ठित ठिकाणे पोकरण के बिठलदासोत चाम्पावत ठाकुरों के भुजबल, पराक्रम, शौर्य, स्वाभिमान, कटारी और कूटनीति से सम्बन्धित अनेक मिथक तत्कालीन समाज में प्रचलित रहे जिन्हें चारण  व भाट कवियों ने हाथों हाथ लिया और इनके जुडे विषयों में साहित्य रच डाला। डिंगल में सामान्यतया वीररस से परिपूर्ण ओजपूर्ण रचनाएँ पढ़कर सहज ही पोकरण ठाकुरों के मारवाड़ की राजनीति में महत्व को समझा जा सकता था।

पोकरण के चाम्पावत ठिकाणेदारों की श्रृंखला में प्रथम  ठाकुर महासिंह ने महाराजा अभयसिंह के समय अहमदाबाद के युद्ध में अद्वितीय शौर्य प्रदर्शित किया। कवि करणीदान ने सूरज प्रकाश में उसकी प्रशंसा करते हुए लिखा -

भुजा बल पाथ समो भ्रम भूप रौंदा दल ढाहत आतंक रूप।

वाहै खग वीद वान, धरा नव कोट सिरे परधान।10

राजरूपक  में ठा. महासिंह की प्रशंसा में लिखा गया11 -

माहव गंजा धंजा खग मारण, सुतन भूप करि कौपा सधारण।

कुरालौ नाथ सुजाव अकारौ, कलह पाथ सम हाथ करारौ ।। 45।।

हर पाव नेत्र कि पालहरा, सकलौ जध माहव सिंध छरा।

कुसलौ नृप आगल ढाल कली, बलि बांधणवामण जैम बली  ।।343।।

      ठा. महासिंह का पुत्र ठा. देवीसिंह अपने पिता से बल पराक्रम और ख्याति में एक कदम आगे था। 1754 ई. को मराठों द्वारा नागौर घेर लिए जाने पर ठा. देवीसिंह को किले के सुरक्षा प्रबंध का जिम्मा मिला था। निर्भय ठा. देवीसिंह ने नागौर किले के दरवाजे  खुले रखवाये और प्रमुख दरवाजों के बाहर की तरफ स्वंय के डेरे लगवायेे। इस विषय में एक दोहा प्रचलित है12-

गढ़ नागाणौ घेर नै, आपो बैठो आण।

चवड़े खुल्ली पोलियां, दैवो रहे दीवाणा।।

महाराजा विजयसिंह के कृपापात्र जग्गू धायभाई ने महाराजा से आज्ञा लेकर ठा. देवीसिंह को धोखे से पकड़ने का प्रयास किया। ठा. देवीसिंह ने जबरदस्त संघर्ष किया। अंततः झंवर के जाट सैनिकों ने उसे रस्से का फंदा बनाकर बड़ी कठिनाई से पकडा़। इससे सम्बन्धित यह दोहा प्रसिद्ध हुआ।13

केहर देवो छत्रसाल, दोलो राजकुवार ।

मरते मोड मारिया, चोटी वाली च्यार ।।

कवि शिरोमणि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी कृति विकट भट्ट में ठा. देवीसिंह के स्वाभिमानी चरित्र और धोखे से पकड़े जाने से पूर्व उसके द्वारा दर्शाये गए अदम्य साहय और बल का वर्णन किया है।14

ठा. सवाईसिंह के पिता सबलसिंह की मृत्यु के बाद पोकरण की जागीर का सिरोपाव देने के लिए ठा. सवाईसिंह को दरबार में बुलाया। इस अवसर पर उससे उस कटार की पड़दली के विषय में पूछा तो उसका दादा ठा देवीसिंह कहा करता था कि उसके बगल में रहती थी निम्नलिखित गीत इस विषय से सम्बन्धित है -

कह्यो विजै महाराज सुण सवाई देवकरण,

मै कहीं बात छै याद मांही।

पड़दली जकी माँहे गढ़ कई मावे परा,

नरिन्द वा कटारी छै क नांही ।। 1 ।।

                  पूछियौ नाथ जद सांच कहियौ परो,

                  कटारी जिकण सू प्रथी कांपी।

                  सौपी वा कटारी देवसा सबल नूं,

                  सबल वा कटारी मनै सौंपी ।। 2 ।।

मुझ री कमर में रहे वा सदामंद,

निमख मेलू नहीं धणौ नेहा।

पड़दली मायं गढ केई मावै परा,

जोधपुर अनै जालौर जेहा ।। 3 ।।

                  सांच कहयां थका स्याम री सावस्थो,

                  कहै वा बात सांची कहायौ।

                  पड़दली मायं जै न हुतो जोधपुर,

                  आप रै कहौ किण रीत आयो ।। 4 ।।

कटारी जगत में प्रकट चांणे कहै,

नाथ वा पड़दली नांनी ।

सवाई बात री भरौती दीध सह,

महीपत बिजै सौ सांच मानी ।। 5 ।।15

उसकी बात सुनकर दरबार स्तम्भ रह गया। महाराजा ने कहा कि ‘‘यह बालक कहता तो सही है। यह तो अपने दादा और पिता से भी सवाया निकलेगा और अपना सवाई नाम सार्थक करेगा। तत्पश्चात् महाराज विजयसिंह ने एक दोहा स्वयं अपने मुख से कहा -

हू जाण्यो धौलोे मुवौ, अजई भागी अग्ग।

इंणीज बाड़े बाछड़ो, उठत टांडण लग्ग ।।16

ठा. सवाईसिंह और उसके जमीयत के सैनिकों की वीरता से प्रभावित होकर महाराजा विजयसिंह ने ठा. सवाईसिंह को प्रधानगी का सिरोपाव इनायत किया और मूंदियाड़ के बारहठ को संकेत किया वे इस विषय में कुछ कहें । तब यह दोहा कहा गया -17

जेण सवाई ओवियां, मिसल सवाई होय।

सुत ऊभां सबलेस रे, गंज न सके काये।।

मार्च 1807 ई. में ठा. सवाईसिंह जयपुर, बीकानेर, शाहपुरा और अपनी जमीयत के सैनिकों सहित जोधपुर पर आक्रामण करने मारोठ से आगे बढ़ा। इस अवसर पर यह छप्पय प्रसिद्ध हुआ -

चांपावत पोकरण पति, प्रबल सवाई खिज्ज

बदल चढ्यो नृप मानसो, बह्यो कलह को बिज्जू।।

कलह बिज्ज ता दिन बढ्यो, लारा धूंकल लाय।

आनि मिल्यो जगतेश सूं, यम जुध करिय उपाय।।

साम दाम छल छिद्र करि, नृप हिय रूपि उपजाय।

मनहुं में बसि बात मंडि, चढ्यो कच्छ कुलराय।।।18

ठा. सवाईसिंह द्वारा जयपुर और आमीरखां पिण्डारी की सेना की सहायता से जोधपुर का किला घेर लिए जाने पर किले में अन्न जल का अभाव होने लगा। प्रतिदिन की झड़पों में महाराज मानसिंह के पक्ष में अनेक सरदार घायल होने लगे। इन परिस्थितियों में मानसिंह के कहलवाया दूसरों के हाथों से मेरी इज्जत क्यों बिगडवाते हो, अपने घर में ही आपस में सुलह कर ले। धौंकलसिंह के लिए नागौर सहित आधा मारवाड़ ले लो, जोधपुर सहित आधा मारवाड मेरे पास छोड़ दो। किन्तु ठा. सवाई सिंह ने धाैंकलसिंह के लिए जोधपुर के किले की मांग की। इस घटनाक्रम को निम्नलिखित पद्य द्वारा कवि सूर्यमल्ल मिश्रण ने वंश भास्कर में व्यक्त किया है -

जंत्र बिच इच्छू जिम बिच्छू जिम मंत्र बिच,

रसना रदन बीच ऐसे कष्ट मान रहि।

देस जुत द्रुग मांहि अरिको अमल देखि,

कुहक सवाईसिंह पास भेजी एक कहीं।

अर्द्ध देस लेख जुत नागपुर लेहु आप,

बेठाएहुं धौंकल वहां मौसो तुल्म भाव वहीं।

इज्जत हमारी बिगरावहूं क्यों सत्रु आनि,

गेह में समझिलेहु नेह में सुलह गही।। 51।।19

जब महाराजा मानसिंह के सभी प्रयासों के बावजूद सवाईसिंह धौंकलसिंह को जोधपुर का किला सहित आधे राज्य देने की बात पर अड़ा रहा तो क्षुब्ध होकर महाराजा मानसिंह ने सवाईसिंह पर दो दोहे रचे -

चांपा थारी चाल, औरा ने आवै नहीं ।

बहै बीकाणौ लार, जयपुर बहै जलेब में ।।

जगतौ कीधौ बांदरो, सुरतो काना लंग।

मारवाड़ रा भौमियां, तन रंग सवाई रंग ।। 20

ठा. सवाईसिंह की अमीरखां पिण्डारी द्वारा मार्च, 1808 में छलपूर्वक हत्या की खबर महाराज मानसिंह का जब लगी तो उसने निम्नलिखित मरसिये कहे-

मुरधर हुगी मोडली, धरती पड़ता धींग।

नर लेगो नव कोट रा, सींग सवाईसींग        ।। 1 ।।

            चांपावत ने चूकरी, जे पड जाती जांण।

            जातो घर नै जीवतौ पाछौ एक पठाण  ।। 2 ।।

मियौं जो दीधी मीरखां, कमधां बीच कुराण ।

रिया भरोसे राम रै, पड़ती खबर पठाण                  ।। 3 ।।21

एक अन्य दोहा ठा. सवाई सिंह के साथ मारे जाने वाले अन्य सरदारों के विषय में बताता है -

केशर सवाई ज्ञानसी, बलवन्त बख्शी राम ।

काम बुलाया बैकुण्ठ, मोटा पड़िया काम ।।22

ठा. सवाईसिंह के पुत्र ठा. सालिमसिंह भी जोधपुर राज्य में प्रधान रहे। एक चारण कवि ने उसकी स्मृति में निम्नलिखित गीत लिखा-

माठां दाझिया मगेज तेज आतंका मैवास मानै,

पाधोरणा बंका जीम जंगां जांणे पाथ,

राजा थापै ऊथापै मालवै ऊंकां ऊंची रीत,

नगारा धुरावै जैत डंका पौढीनाथ ।। 1 ।।

            कीधां छडंा ओझ घोड़ां भंडा रा घूमरां कीधां,

            बखाणै ऊमरां जोडा वाला बारम्बार ।

            देखै खाग त्याग गाढ़ आणियौ मारूवां देस,

            सालमेस आछा पणौ जांणियौ संसार ।। 2।।

केवाणां ऊबाणां कोजै टूक टूक करी कुंभा,

आभ डांवांस लाग पौजे आसवां अपाल ।

प्रथी माथै राव राणा वदीतौ ऊधरां पाणा,

सवाईसींघ रौ सुरŸााणा नाटसाल ।। 3 ।।

            वाक कान्धै बान्धै तेग दला सूं वोराधवीर,

            गांथा ऊजलां सू रचै गुणी क्रीत गं्रथ।

            भुजालां बिरददा माला चांपौ औ उजालै भालौ,

            पोतौ देवीसिंघ रो गोपाल वालौ पंथ ।।4 ।।23

 मथानिया के खेतसी बारहठ ने ठा. बभूतसिंह और उसके किले की प्रशंसा कुछ इस प्रकार की है -

      बाला हूंकलै हजारी बाज झण्डा रा समाज बेस

      मैंगलां बणाव भावी फबै तोपा माल ।

      समानां अखूंट किलो साझियौ अनोखै सूत,

      थारी वेलां बाजियौ भभूत भला थाल ।। 1।।

                        सेरपन्न भुरज्जालां परख्खावा संगरां सोभा,

                        बंदूकां जंजाला न्हाले फाटे खलां बांक।

                        पाखरा सन्नाहंु तुरां सूरमां, सुभहृाँ पाँण

                        धडक्के अैवाकाँ सिद्धा पडै तूझ धाक ।। 2 ।।

            सलमेस नंद चाँपा ऊजला सुभावाँ सोहुं,

            राईतन्ना बड़ाँ ज्यूं ठिकाणो सामराथ।

            ओढीवाराँ बणै जदी घाव औसाप असौ,

            नीपणा ऊबारै सदा धिनौ पौढीनाथ ।। 3 ।।24

उपरोक्त वर्णित दोहांे और गीतों के अतिरिक्त भी अनेक गीत है जिन्हें स्थानाभाव में यहां संकलित नहीं किया जा सका है। ज्ञातव्य है कि नाथों और ठा. सवाईसिंह में जबरदस्त बैर था। इस विषय में एक प्रसंग चारण और भाट कवियों ने प्रचलित किया जिसमें ठा. सवाईसिंह ने नाथों द्वारा जनता पर किए गए अत्याचारों पर कहा कि नाथ तो क्या बलत (बैल) के नथ मारवाड़ में नहीं रहने दूंगा। जवाब में नाथों ने कहा कि चाम्पानाथ चंपा का फूल तक मारवाड़ में नहीं रहने देंगे। जोधपुर के विभिन्न समुदाय इन नाथों के शोषण से त्रस्त से थे। विशेषतः माली समाज इनसे खास तौर से पीड़ित था। इस समाज के लोगों ने ठा. सवाईसिंह से मदद की गुहार की तब ठा. सवाईसिंह ने दोषी नाथ साधुओं को पकड़ कर दण्डित किया। इस वजह से ठा. सवाईसिंह में माली समाज की स्थिति एक नायक की तरह थी। इस समाज ने ठा. सवाईसिंह को अपने लोक गीतों और वैवाहिक गीतों में स्थान दिया। ये गीत वर्तमान में प्रचलन में नहीं होने के कारण उपलब्ध नहीं हो सके है।

पोकरण ठाकुरों ने प्रशंसा गीत लिखने वाले चारण एवम् भाट कवियों को पुरस्कृत किया। उन्हें पाग, नकद रूपये, भूमि, स्वर्ण वस्त्र इत्यादि देकर सम्मानित किया। राणीमंगा बभुता चतुरभुजोत को 5 रूपये रोकड़ व पाग दी गई । विशेष अवसरों यथा विवाह, संतान के जन्म, मृत्यु इत्यादि के समय गायन करने वाले लंगों और भाटों को नकद इनाम या बख्शीश दी जाती थी। विवाह में ढ़ोली पातरों पर पैसे उछाले जाते थे।25

अन्य सांस्कृतिक पक्ष -

(क) पोकरण की रम्मत - इस लोक कला को तमाशा या ख्याल के नाम से भी जाना जाता है। आजादी से पूर्व रात भर चलने वाली पोकरण की संगीतमय रम्मतें समस्त मनोरंजक विधाओं में अपना विशिष्ट स्थान रखती थी। दोहों, चौपाइयों के साथ शास्त्रीय संगीत की विभिन्न राग-रागनियों से कर्णप्रिय और लोक लुभावन संगीत सृजित किया जाता था। इन रम्मतों को खेलतथा किरदार अदा करने वाले प्रत्येक कलाकार को खिलाड़ीकहा जाता  है।

तमाशे खेलने का उचित समय होली के तुरन्त बाद चैत्र मास माना जाता है। शीत व ग्रीष्म ऋतु के संधिकाल का यह समय कलाकार के मधुर कंठ को ताजगी प्रदान करने के साथ ही साथ सुनने वालों को भी रोमांचित करता है। ढ़ोलक की थाप पर घुंघरू बंधे पैरों की थिरकन और हारमोनियम के निकलने वाली स्वर लहरियों की जुगलबंदी से उत्पन्न संगीत श्रोताओं पर नशा बनकर छा जाता है। रम्मतों की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें स्त्री पात्रों की भूमिका भी पुरुष ही अदा करते है। प्रत्येक खिलाड़ी के एकल गायन तथा संवाद की प्रथम पंक्ति टेर कही जाती है। प्रत्येक दोहे के पश्चात् टेरको दोहराने का कार्य इस कला में पारंगत विशेष दल द्वारा किया जाता है जो टेरियकहलाते है। रम्मत की सफलता में टेरियों की विशेष भूमिका रहती हे। पोकरण में पुष्करणा ब्राह्मण एवं सेवक ब्राह्मक इस कला में पारंगत माने जाते है।

ये रम्मतें लोक कथाओं से प्रेरित होती है। कलाकार अपनी प्रतिभानुसार रम्मतों में आवश्यक परिवर्तन कर स्थानीय विशेषताएँ। जोड़ देता है। उज्जैन के न्यायप्रिय राजा भतृर्हरि का अपनी रानी पिंगला पर अतुलनीय प्रेम था, रानी की बेवफाई से उत्पन्न वैराग्य के कथानक को रम्मतों में प्रभावशाली ढंग से चित्रित किया जाता है। पोकरण के कवि तेजमल बिस्सा द्वारा लिखित नायिका प्रधान रम्मत पतिव्रतामें धनपाल सेठ की पत्नी के अटल पतिव्रत धर्म के माध्यम से स्त्री की चारित्रिक दृढता का उदाहरण देकर समाज को सांस्कारित करने का प्रयास किया जाता था। वीर अमरसिंह राठौड़ और सुल्तान की रम्मतें भी पुष्करणा समाज द्वारा खेली जाती थी। सेवक समाज द्वारा सूर्यवंशी सत्यनिष्ठ राजा हरिशचन्द्र के सच्चरित्र पर आधारित रम्मत के साथ-साथ परम् भक्त पूरणमल एवं राजा मोरध्वज की अटूट ईश्वरीय श्रद्धा एवं भक्ति से समाज को संदेश देने वाली रम्मतें खेली जाती थी। पोकरण की रम्मतें वर्तमान आधुनिक सिनेमा युग में भी अपनी लोकप्रियता बनाए हुए है।

(ख) मिट्टी की कलाकृतियाँ - पोकरण की स्थानीय विशेषताओं युक्त कलाओं में पोकरण की मिट्टी की कलाकृतियाँ विशिष्ट स्थान रखती है। इस क्षेत्र में बहुतायत में प्राप्त लाल मिट्टी को कुम्हार जाति के लोग खोदकर, कूटकर, छानकर, उनकी अशुद्धियाँ दूर कर भांति-भांति की सुन्दर कलाकृतियाँ बनाते है। इनके द्वारा बनाये जाने वाले गुलदस्ते खिलौने, मानव आकृतियाँ, पशु-पक्षी, देवी-देवताओं की मूर्Ÿिायाँ, मंदिर की घण्टियाँ, जलचरों की आकृतियाँ, उलटा दीपक, महापुरुषों, की मूŸिायाँ इत्यादि। पश्चिमी राजस्थान में काफी लोकप्रिय थी। वर्तमान में इन्हें पोकरण पॉट्स के नाम से जाना जाता है।

(ग) पोकरण की बुनाई - पोकरण के बुनकरों और कशीदाकारों ने भी पश्चिमी राजस्थान में अपनी हस्तशिल्प का लोहा मनवाया। यहां मेघवाल जाति के लोग बुनाई कार्य में संलग्न है। पोकरण के निकटवर्ती ग्राम गोमट के बुनकरों द्वारा निर्मित ऊनी-सुती वस्त्रों की पोकरण के आस-पास के क्षेत्रों मे विशेष ख्याति थी। बुनाई का कार्य चरखे की सहायता से होता था। बुनकर परिवार की महिलाएं भी इसमें सहयोग करती थी।

वस्त्र निर्माण के साथ ही उनमें विभिन्न आकृतियां से डिजाइन डाली जाती थी। इसके लिए दोनों हाथों की अंगुलियों की सहायता से आकृति निर्माण का कार्य किया जाता है। एक बार डिजाइन बनने के बाद शेष  सारा कार्य तेज गति से हो जाता है। आकृतियों में ताजमहल, चौपड़, पहाड, पतंग, मंजिल, डमरू, ग्यारह तारे, घोड़ा, फूल, सूरजझरोखा, पणिहारी, रानी आदि कलाकृतियाँ बुनाई द्वारा बनाई जाती है।

(घ) कशीदाकारी - बुनाई के समान ही पोकरण की कशीदाकारी का भी पश्चिम राजस्थान में खास स्थान रहा। यह कार्य मुख्यतः जीनगर समाज के लोगों द्वारा किया जाता है। पुरुष जूतियां बनाने का कार्य करते हैं परन्तु उन जूतियों को मनभावन बनाने में महिलाओं का भरपूर योगदान रहता हैं। महिलाएं चमडे़ पर विभिन्न रंगों के धागों से इस प्रकार बेल-बूटों को उकेरती हैं कि देखने वाला उसे देखकर आश्चर्य करने लगता है। चमडे़ पर की गई कशीदाकारी ऐसी प्रतीत होती है मानों विभिन्न प्रकार के रंगों से पेन्टिंग की गई हो। महिलाएँ अपने घरों में पुरुषों द्वारा बनाई गई जूती पर कशीदाकारी करती है। इस काल की ख्याति के कारण आस-पास के गांवों कस्बोे के लोग चमड़े की वस्तुओं कपडों इत्यादि पर कशीदाकारी करवाने पोकरण आते रहे हैं। बन्दूक की खोली, चमड़े के बैग, चमडे़ की स्टूल और जूतियों पर काशीदारी के लिए पोकरण विशेष रूप से प्रसिद्ध रहा।

पोकरण की चित्रकला -

मुगल चित्रकला शैली और प्राचीन हिन्दू चित्रकला शैली के मिश्रित प्रभाव से मारवाड़ चित्रकला शैली का विकास हुआ। महाराजा मानसिंह के समय मारवाड़ चित्रकला शैली अपने चर्मोत्कर्ष पर थी। इसी समय पोकरण के ठिकाणेदारों ने चित्रकारों को संरक्षण देकर बहुविध चित्र बनवाए। इन चित्रों की सबसे बड़ी विशेषता चित्रों का बोर्डर है। इसमें पीला रंग अन्दर की ओर तथा लाल रंग बाहर की ओर है। पीला रंग चित्र के चारों ओर एक पतली लीरी की तरह है और लाल रंग बाहरी ओर मोटाई में प्रयुक्त हुआ है। पोकरण म्यूजियम में रखे कुछ चित्रों जिनकी संख्या चार है, में अन्दरूनी बॉर्डर नीले रंग का है। यह दक्षिण भारतीय हैदराबाद शैली का प्रभाव दर्शाता है। कुछ चित्रों में पीले रंग का  प्रयोग अन्य चित्रों की अपेक्षा अधिक हुआ जो कि बीकानेर चित्रकला शैली के प्रभाव का द्योतक है। एक चित्र में अन्दरूनी बोर्डर में हरा रंग भी प्रयुक्त हुआ है किन्तु बाहरी बॉर्डर पीला रंग और लाल रंग का ही रहा। चित्र जो कुछ अधिक बड़ा है जिसमें राधा-कृष्ण एवं गोपियाँ चित्रित है में बॉर्डर मात्र क्रीम रंग का है। संभवतः यह चित्र पोकरण में बना हुआ नहीं है।

पोकरण में बने ज्ञात चित्र में सबसे पुराने चित्र 1831-32 ई. के है तथा पाण्डुलिपि के रूप में है। उस समय पोकरण में ठा. बभूतसिंह पदासीन था। वर्तमान ठाकुर परिवार यह मानता है कि महाराजा मानसिंह से स्पष्ट होकर आए अथवा पद्च्युत चित्रकारों को पोकरण ठिकाणेदार ने संरक्षण दिया। यह पाण्डुलिपि वर्तमान में संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यूयॉर्क लाइब्रेरी के स्पेन्सर संग्रह में है।  पाण्डुलिपि में भगवतगीता से सम्बन्धित 35 पृष्ठ है एवम्् शीघ्रबोध के दो और नृसिंह चरित्र एक पृष्ठ में है। पाण्डुलिपि के पृष्ठों का आकार 27ण्3 ग् 13ण्6 ब्उण् है। पाण्डुलिपि के पहले पृष्ठ में नौ लाइनें है, जबकि शेष पृष्ठों में 12 से 14 लाइनें है। प्रथम पृष्ठ के दाएं-बाएं तथा ऊपर-नीचे लाल-पीली लीरियाँ बनाई गई जबकि बाकी पृष्ठों में केवल दाईं और बाईं ओर ही लाल-पीला लीरियाَ हैं।

प्रथानुसार पहला चित्र आभूषण युक्त गणेश जी का है जिनका आभामण्डल (ींसव), धूसड़ (ळतमल) रंग का है, सिर नारगी, धोती पीली सामान्य चमड़ी के रंग का शरीर और चार हाथ दर्शाए गए है। नीचे के दो हाथ खाली है और किसी भावना को दर्शाते हैं, तीसरे हाथ में कुल्हाड़ी ओर चौथे हाथ में मिठाई का कटोरा है, सूंढ़ मुंह की ओर घुमी हुई है। गणेश एक दीवान पर बेठे हैं, उनके पीछे एक  धूसड़ रंग का  तकिया है जिसके कोनों की ओर काली धारियां है नीचे एक हलका हरा कालीन बीछा हुआ है जिस पर काले रंग के फूल बने हैं। दीवान के समीप नीचे की ओर एक काला चूहा बनाया गया है। इसी पाण्डुलिपि के दूसरे चित्र में गणेशजी को ध्यानमुद्रा में चित्रित किया गया है। इस पाण्डुलिपि के तीसरे चित्र में धृतराष्ट्र और संजय को राजपूत वेशभूषा में सजा-धजा कर चित्रित किया गया है। संजय को धृतराष्ट्र से छोटा चित्रित किया गया है। धृतराष्ट्र पीले जामे और नारंगी पगड़ी में अंकित है जबकि संजय का जामा नारंगी और पगड़ी पीली है। धृतराष्ट्र दीवान पर बैठा है तथा नीचे धूसड़ और लाल रंग के फलों की डिजाइन युक्त सफेद कालीन बिछा है।

इस पाण्डुलिपि के दूसरे खण्ड के एक अन्य चित्र में अर्जुन और श्री कृष्ण को वार्तालाप करते हुए बताया गया है। कृष्ण एक दरी पर बैठे है और उनके पीछे एक पीला तकिया लगाया है। यह मुद्रा चौरापंचाशिकाहै। अर्जुन घुटने के बल समर्पण मुद्रा में बैठा है। इन दोनों के नीचे एक बडी दरी बिछी है जिन पर नीले पार्श्व में सफेद और लाल रंग के फूलों की डिजाइन है।

पाण्डुलिपि में 10 वें खण्ड में अर्जुन को श्रीनाथ जी के समक्ष करबद्ध होकर घुटने के बल बैठे हुए दिखाया गया है। खण्ड 11 में कृष्ण को अपने विहंगम आलौकिक रूप में दर्शाया गया है। कृष्ण इस चित्र में बहुभुज और अनेक सिरों युक्त गहरे नीले रंग में चमकीले रंग के पार्श्व में चित्रित किए है। 16 वें और 17 वें खण्ड के प्रारंभ में पुनः कृष्ण और अर्जुन रथ पर चित्रित है। पहले चित्र में कृष्ण एक बंद रथ में है किन्तु दूसरे चित्र में रथ खुला है। 17 वें व 18 वें खण्ड के मध्य के अन्य चित्र भी कृष्ण-अर्जुन से सम्बन्धित हैं।26

पोकरण कोर्ट म्यूजियम में रखे 36 चित्रों की विषय वस्तु -

1)    पोकरण के ठाकुर महासिंह भगवानदास व गुमानसिंह व देवीसिंह व सालमसिंह का अंकन सजे हुए घोडे पर ।

2)    जेाधपुर नरेश-महाराजा मानसिंह महाराज विजयसिंह, महाराजा अजीतसिंह, मोटा राजा उदयसिंह का चित्रण।

3)    देवी देवता यथा श्री कृष्ण, श्रीनाथ जी, महालक्ष्मी, रामदेवजी, तीरूपति बाला, जोगमाया, ठा. सालमसिंह व एक पुजारी कृष्ण पूजा करते हैं।

      कुछ लोग पोकरण की चित्रकला शैली को एक स्वतंत्र शैली मानते है। इसके लिए वे लाल और पीले हाशिए और रेखाओं का हवाला देते है। एक स्वतंत्र शैली के लिए इतना होना पर्याप्त नहीं माना जा सकता। स्वतंत्र शैली के लिए विशिष्ट रंग संयोजक, पृथक विषय वस्तु, नायक-नायिकाओं का विशिष्ट अंकन, पार्श्व वस्तुओं यथा पेड़-पौधांे, बादल, पशु-पक्षियों का नवीन प्रकार से अंकन जैसी विशेषताएं होनी आवश्यक है। जबकि पोकरण के चित्र हाशिये और अंकन विधा में जोधपुर शैली के सदृश्य प्रतीत होते है। राधा-कृष्ण जोधपुर नरेशों तथा ठाकुरों के चित्रों में पीले रंग का अधिक प्रयोग मारवाड़ शैली के सदृश्य है।  कुछ चित्रों में हाशिए अलग रंग से अंकित हैं किन्तु केवल हाशिए के पृथक रंग से अंकित होने के आधार पर इस अलग चित्रकला शैली कहना युक्ति संगत नहीं होगा।

इस प्रकार पोकरण का एक उदाŸा सांस्कृतिक पक्ष रहा है। पोकरण ठाकुरों ने अनेक महलों, छतरियों, मंदिरों व बावड़ियों का निर्माण करवाया तथा चारण-भाट कवियों एवम् चित्रकारों को संरक्षण दिया। जनसाधारण की सांस्कृतिक अभिरूचियों के कारण न केवल अद्भुत हवेलियों का निर्माण हुआ, अपितु सांस्कृतिक विधाओं यथा रम्मतों, मिट्टी की कलाकृतियों, चमड़े की सुन्दर जूतियों तथा कपड़ें की अनूठी कशीदाकारी की परम्परा का विकास हुआ। इस प्रकार पोकरण का सांस्कृतिक विकास बहुआयामी रहा।

 

 

 

संदर्भ -

1.    मुहता नेणसी, मारवाड़ रा परागना री विगत, भाग द्वितीय, पृ.-292

2.    विजयेन्द्र कुमार माथुर, ऐतिहासिक स्थानावली, पृ. 578

3.    वि.ना. रेऊ, ग्लोरीज ऑफ मारवाड एण्ड री ग्लोरियस राठौड़, पृष्ठ 3

4.    मुंहता नैणसी, मारवाड़ रा पगरना री विगत, पृ. 294

5.    डॉ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरपूवर्ण इतिहास, भाग 1, पृ. 154

6.    मुहता नैणसी, मारवाड़ रा पगरना री विगत, भाग द्वितीय, पृ. 309

7.    मोहनसिंह, चांपावतों का इतिहास, भाग द्वितीय, पृ. 369

8.    तालाब सालमसागर तालके री बही (सं. 1932, 1943-56, 84) क्र. 1556, 1572, 1577, ठि. पो. सं.।

9.    मुहता नैणसी, मारवाड़ रा पगरना री विगत(़सं. डॉ. नारायणसिंह भाटी), भाग द्वितीय पृ. 311 से 316

10.   करणीदान, सूरज प्रकाश भाग तृतीय, पृ. 49, 50 प्रा.वि.प्र., जोधपुर

11.   राजरूपक, पृ. 776 प्रा.वि.प्र., जोधपुर

12.   ठा. भगवत सिंह, चांपावत राठौड़, पृ. 213

13.   ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 58य बदरी शर्मा, दासपों का इतिहास,     पृ. 190य बीकानेर री ख्यात, (डॉ. हुकुमसिंह) पृ. 97

14.   मैथिलीशरण गुप्त, विकट भट्ट, श्री रामकिशोर गुप्त द्वारा प्रकाशित, साहित्य प्रेस, चिरगांव (झांसी) में मुद्रित संवत् 2003

15.   राजस्थानी वीरगीत संग्रह (सं. सौभाग्यसिंह शेखावत) भाग द्वितीय, पृ.119, 120, प्रा.वि.प्र., जोधपुरय भगवतसिंह, चांपावत राठौड, पृ., 238

16.   मोहन सिंह, चांपावतों का इतिहास, भाग द्वितीय, पृ. 330

17.   ठिकाणा पोहकरण का इतिहास, पृ. 73

18.   वही, भाग द्वितीय, पृ. 347

19.   सूर्यमल्ल मिश्रण, वंशभास्कर, भाग 8, पृ. 3967, 3968

20.   मोहनसिंह, चांपावतों का इतिहास, भाग द्वितीय, पृ. 355

21.   मोहनसिंह, चांपावतों का इतिहास, भाग द्वितीय, पृ. 362

22.   राजवी अमरसिंह, मेडाइवल हिस्ट्री ऑफ राजपुताना, पृ. 1295, जयभवन रानी बाजार, बीकानेर 1992

23.   महाकवि बांकीदास आशिया ग्रं्रथावली (सं.सौभाग्यसिंह शेखावत)  पृ. 194, 195, मोहन सिंह, चांपावतों का इतिहास, भाग-द्वितीयपृ. 368।

24.   राजस्थानी वीरगीत संग्रह (सं. सौभाग्यसिंह शेखावत), भाग, द्वितीय, पृ.-12

25.   बही भाटों की, सं. 1949, क्र. 1528, ठि.पो.सं.

26.   स्टीफन हाइलर लेविट, एन इलिस्ट्रेटिड भगवद्गीता फ्रॉम पोहोकरना, पृष्ठ  24, प्रतिलिप रूप में, ठि.पो.सं.

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