शोध संक्षेपण
पोकरण का राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास
पश्चिमी राजस्थान के विस्तृत मरुभूमि की गोद में अवस्थित
पोकरण अपनी विशिष्ट भौगोलिक विशेषताओं, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और सांस्कृतिक गतिविधियों के कारण सदियों से चर्चित रहा
है। यह 26 55‘ उत्तर और 71 55‘ पूर्व तथा जोधपुर से 80 कि.मी. दूर स्थित है। शीतोष्ण शुष्क किन्तु निम्न भूमि होने के कारण यहांँ
पीने के जल की उपलब्धता सम्पूर्ण पश्चिमी मरूभूमि की अपेक्षा कुछ अच्छी है।
प्रारम्भिक इतिहास -
किंवदन्तियों के अनुसार पुष्करणा ब्राह्मण के आदि पुरुष
पोकर ऋषि की कर्मस्थली होने के कारण यह स्थान पोकरण कहलाया। रियासती काल में पोकरण
जैसलमेर और मारवाड़ राज्यों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण विवाद का बिन्दु
बना। कालान्तर में 1728 ई. में यह मारवाड़ राज्य के प्रधान की पट्टाशुदा जागीर होने से चर्चित रहा।
लगभग 100 गांवों का यह पोकरण पट्टा प्रशासनिक शब्दावली में ‘ठिकाणा’ नाम से जाना जाता था। ठिकाणा एक शासक द्वारा सामान्यतया अपने भाई बन्धुओं को दिया गया वह अहस्तान्तरणीय पैतृक भू-क्षेत्र या जागीर पट्टे का वह मुख्य गांव था जिसमें ठिकाणों को प्राप्त करने वाला सरदार अपने परिवार सहित कोट, कोटडियों या हवेली में निवास करता था। जागीर पट्टे के सभी गांवों का शासन प्रबंध एवं संचालन इसी प्रशासनिक केन्द्र से किया जाता था तथा इससे राज्य का सीधा सम्बन्ध होता था। चारणों और ब्राह्मणों को दिए गए गांव (डोली एवं सांसण) सामान्यतया इस श्रेणी में नहीं आते थे।
ठिकाणे के स्वामी ठाकुर, धणी, जागीरदार, सामन्त या ठिकाणेदार इत्यादि नामों से जाने जाते थे। ठिकाणे के संचालन को ’ठकुराई’ कहा गया। मारवाड़ ये ठाकुर युद्ध और प्रशासन में महाराजा के परम् सहयोगी हुआ करते थे। उनमें ये भावना निहित थी कि वे अपनी पैतृक सम्पŸिा की सामूहिक रूप से रक्षा करने हेतु ऐसा कर रहे है। अपनी इस विशेष स्थिति के कारण ठिकाणेदारों को अनेक विशेषाधिकार और विशिष्ट सम्मान प्राप्त थे। इसके बावजूद ठिकाणेदारों और महाराजा के परस्पर सम्बन्ध काफी उतार-चढ़ाव युक्त रहे।
पोकरण का संदर्भ ऐतिहासिक ‘‘महाभारत’’ में पुष्करण या पुष्करारण के नाम से
मिलते है जहां उत्सवसंकेत गणों को नकुल ने दिग्विजय यात्रा में हराया था। लगभग इसी
नाम से एक स्थल का विवरण समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में भी मिलता है, किन्तु यह विवादास्पद है। 17 वीं शताब्दी में 1013 ई. में दो
शिलालेखों से इस क्षेत्र में गुहिल और परमार शासकों की गतिविधियों के संकेत
प्राप्त होते है। मुहता नैणसी री ख्यात उपरोेक्त कला में भाटी, झाला और वराह पंवारों (परमार) की राजनीतिक गतिविधियों का
विवरण देता है। मुहता नैणसी लगभग 14वीं शताब्दी में पोकरण में पोकरण पुरूरवा, नानग छाबड़ा, महिध्वल तथा भैरव राक्षस द्वारा
महिध्वल को पकड़ कर पोकरण को सूना करने का विवरण देता है।
15 वीं शताब्दी में रावल मल्लिनाथ पोकरण और उसके आस-पास के
क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। कालान्तर में अजमालजी तंवर और उसके पुत्र रामदेवजी
ने रावल मल्लिनाथ की आज्ञा से पोकरण पुनः बसाया। राव मल्लिनाथ के पौत्र हम्मीर-जगपालोत
की रामदेवजी की भतीजी और वीरमदेव की पुत्री से विवाह के उपलक्ष्य में पोकरण दहेज
में दिया गया। रामदेवजी पोकरण से कुछ दूर रूणिचा या रामदेवरा में जा बसे। पोकरण
में हम्मीर के वंशज पोकरणा राठौड़ कहलाए। पोकरणा राठौड़ों और जैसलमेर के भाटियों में
पोकरण के अधिकार को लेकर निरंतर संघर्ष चलता रहा। इसी बीच मण्डोर के शासक राव सातल
के पुत्र नरा (नरसिंह) ने मौका देखकर पोकरण पर अधिकार कर लिया। उसने पोकरण के समीप
सातलमेर में नया किला बनवाया। पोकरण के राठौड़ों ने तब राव खींवा के नेतृत्व में
संगठन बनाकर आक्रमण कर दिया। इस संघर्ष मंे राव नरा वीरगति को प्राप्त हुआ।
तदुपरान्त राव सूजा ने पुत्र की हत्या का प्रतिशोध लेने हेतु फौज भेजकर पोकरणा
राठौड़ों को वहां से खदेड़ दिया।
16 वीं शताब्दी के प्रारंभ में राव खींवा के पुत्र लूंका ने
महेवा के स्वकुलीय राठौड़ों की सहायता से पोकरण पर आक्रमण किया। पोकरण सातलमेर के
शासक राव गोविन्द ने उसे आधा राज्य देकर समझौता कर लिया। 1550 ई. में राव मालदेव ने सेना भेजकर राव गोविन्द के पुत्र
जैतमाल को पराजित कर कैद कर लिया और पोकरण-सातलमेर को अपने प्रत्यक्ष नियंत्रण में
ले लिया। उसने सातलमेर का गढ़ नष्ट करके पोकरण के किले का पुनर्निर्माण करवाया और
पुलिस चौकी की स्थापना की। उसके उŸाराधिकारी राव चन्द्रसेन की बादशाह अकबर की सेना से हार हुई। राव चन्द्रसेन ने
मण्डोर का दुर्ग त्याग कर पीपलण के पहाड़ों में शरण ली। इस दौरान जैसलमेर महारावल
हरराज ने पोकरण पर अधिकार करने का प्रयास किया। असफल रहने पर उसने एक लाख फदियों
में पोकरण गिरवी रखने की पेशकश की। राव चन्द्रेसन ने इसकी स्वीकृति दे दी क्योंकि
उसे धन की आवश्यकता थी।
तदनन्तर 74 वर्षों तक पोकरण पर जैसलमेर के भाटियों का अधिकार रहा। महाराजा जसवन्तसिंह ने बादशाह शाहजहां की आज्ञा से सेना भेजकर पोकरण पर पुनः अधिकार कर लिया। सात वर्ष पश्चात् महारावल सबलसिंह ने पोकरण पर अधिकार कर लिया। महाराजा जसवंतसिंह प्रथम ने मुहता नैणसी के नेतृत्व में एक सेना भेजकर पोकरण पुनः हस्तगत कर लिया तथा उसने आगे बढ़कर आसणीकोट तक लूटमार की। बीकानेर महाराज कर्णसिंह की मध्यस्थता में दोनो पक्षों में संधि सम्पन्न हुई। महाराजा जसवंतसिंह प्रथम की मृत्यु के बाद महारावल अमरसिंह ने पोकरण पर अधिकार करने के प्रयास पुनः प्रारंभ किए। वह औरंगजेब से पोकरण-सातलमेर और फलौदी का पट्टा लिखवाने में असफल रहा। इसी दौरान जोधपुर दुर्ग पर शाही आक्रमण के समय कुंवर राजसिंह के मारे जाने से उसकी पोकरण-फलौदी के प्रति रूचि समाप्त हो गई। उसने मारवाड़ के राठौड़ों से कटुता दूर करने के लिए अपनी पुत्री का विवाह महाराजा अजीतसिंह से कर दिया।
जोधपुर रियासत द्वारा चम्पावतों को पोकरण का पट्टा दिए जाने के पश्चात् से ठाकुर भवानीसिंह तक का इतिहास
ठा.महासिंह - महाराजा अजीतसिंह ने 1707-08 ई. में ठा. महासिंह चाम्पावत को पोकरण का पट्टा प्रदान
किया गया, किन्तु कुछ समय बाद चन्द्रसेन नरावत को पुनः पोकरण का
पट्टा बहाल कर दिया गया। 1724 ई. में
महाराजा अजीतसिंह की मृत्यु हो गई। उŸाराधिकारी महाराजा अभयसिंह उस समय दिल्ली में था। उसके जोधपुर पहुंचने के 7-8 माह तक महासिंह ने जोधपुर का उचित प्रबंध किया। 1725 ई. में उसे प्रधानगी इनायत हुई।
महाराजा अभयसिंह के अनुजों- आनन्दसिंह, रायसिंह और किशोरसिंह ने राज्य प्राप्ति के उद्देश्य से
बिलाड़ा और सोजत में विद्रोह कर दिया। ठा. महासिंह के नेतृत्व में भेजी गई सेना ने
इन्हें खदेड दिया। महाराजकुमार आनंद सिंह ने जैसलमेर महारावल और नरावत राठौड़ों की
सहायता से पोकरण-फलौदी में लूटपाट करनी प्रारंभ कर दी। पुनः ठा. महासिंह को भेजा गया।
उसने विद्रोहियों को जैसलमेर खदेड़ दिया और आगे बढ़कर जैसलमेर को जा घेरा। वह
महारावल ने अहदनामा करवाने में सफल रहा कि वे फिर कभी किशोरसिंह की सहायता नहीं
करेगें। ठा. महासिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराजा अभयसिंह ने 1728 ई. (वि.सं. 1785 फागण सुद 6) को 72 गांवों सहित पोकरण का पट्टा दिया।
1730 ई. में महाराज अभयसिंह को मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ने
सूबेदार नियुक्त किया। निवर्तमान गर्वनर सरबुलन्दखां ने अधिकार साैंपने से इंकार
कर दिया। तब जोधपुर की सेना ने अहमदबाद के समीप हुए एक युद्ध में सरबुलन्दखां को
पराजित किया। ठा. महासिंह ने प्रथम मोर्चे की अगुवाई करते हुए जबरदस्त वीरता
प्रदर्शित की और घायल हुआ। 1736 ई. में उसने
मालकोट-मेड़ता में मल्हारराव होल्कर के आक्रमण को विफल किया। 1740 ई. में राजाधिराज बख्तसिंह से युद्ध किया। 1743 ई. में मराठों को पराजित कर अजमेर पर पुनः अधिकार स्थापित
किया।
ठा. देवीसिंह - 1744 ई. में ठा. महासिंह की मृत्य के पश्चात् ठा. देवीसिंह 82 गांव सहित पोकरण का पट्टाधिकारी और राज्य का प्रधान
नियुक्त हुआ। 1747 ई. में उसे उŸाराधिकार समस्या के कारण बीकानेर सेना सहित भेजा गया
किन्तु मराठों के मारवाड़ पर सैन्य दबाव के चलते बीकानेर अभियान बीच में छोड़ दिया
गया। 1749 ई. में महाराजा रामसिंह मारवाड़ की गद्दी पर सिंहासनरूढ
हुआ। उसके उपेक्षापूर्ण और अपमानजनक व्यवहार से क्षुब्ध होकर ठा. देवीसिंह
राज्याधिराज बख्तसिंह के बुलावे पर उसके पक्ष में नगौर चला गया। 1851 ई. में सालावास के निकट हुए युद्ध में विजय से जोधपुर पर
बख्तसिंह का अधिकार हुआ। ठा. देवीसिंह ने अपने ससुर किलेदार सुजाणसिंह को प्रभावित
करके जोधपुर गढ़ पर अधिकार कर लिया। 1752 ई. में महाराजा बख्तसिंह के अंतिम समय पर ठा. देवीसिंह ने प्रतिज्ञा का जल
स्वयं धारण कर चारणों के तागीर किये गए गांव बहाल करवाए। 1754 ई. में महाराजा रामसिंह ने जयप्पा सिन्धिया की सहायता से
मारवाड़ पर आक्रमण किया। गंगारडा के निकट हुए प्रथम युद्ध में मारवाड़ की सेना विजयी
रही। कुछ उत्साहित सरदारों ने अगले ही दिन पुनः मराठांे पर आक्रमण करने पर जोर
दिया। किन्तु बुरे अपशकुनों के कारण बीकानेर, किशनगढ़ सहित मारवाड के सरदारों ने ठा. देवीसिंह से युद्ध एक दिन टलवाने का
निवेदन किया। प्रधान ठा. देवीसिंह के इस सुझाव को महाराजा विजयसिंह ने रास ठाकुर
केसरीसिंह के दबाव के कारण स्वीकृत नहीं किया। इससे मारवाड़ की सेना और सहयोग घटकों
के मनोबल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। मराठों के आकस्मिक आक्रमण से मारवाड़ ओर सहयोगी
सेना छिन्न-भिन्न हो गई। ठा. देवीसिंह स्वयं भी घायल हुआ। महाराजा विजयसिंह मराठों
से बचता हुआ ठा. देवीसिंह के साथ नागौर पहुंचा। नागौर के किले की सुरक्षा का भार ठा.
देवीसिंह के पास रहा। नागौर की सख्त घेराबन्दी से मुक्त होने के लिए राठौड़ सरदारों ने जनकोजी सिन्धिया को मरवा दिया। तब मराठों की नई
सेना लेकर पहुंचे रघुनाथराव ने नागौर की और सख्त नाकेबन्दी की। नागौर दुर्ग में
आसन्न रसद और जल के संकट की वजह से कठोर शर्तों के साथ मराठों से संधि करनी पड़ी।
इस संधि से मराठों को 20 लाख और
अजमेर प्रान्त मिला तथा महाराजा रामसिंह मेड़ता, मारोठ, सोजत, जालोर के परगने देने पडे़े।
मराठों से हुई संधि की एक शर्त के अनुसार महाराजा विजयसिंह
एक वर्ष तक महाराजा रामसिंह पर आक्रमण नहीं करेगा। ठा. देवीसिंह के कड़े विरोध के
बावजूद महाराजा विजयसिंह ने सेना भेजकर रामसिंह कोे दिए परगनों पर अधिकार कर लिए।
पुनः उपेक्षा से क्षुब्ध ठा. देवीसिंह अपने ठिकाणें पर जा बैठा। उसने उपरोक्त
युद्ध से भी स्वयं को दूर रखा। महादजी सिन्धिया के नेतृत्व में एक मराठा सेना ने
मारवाड़ की सेना को पराजित करके रामसिंह के परगने पुनः दिलवायें। इधर ठा. देवीसिंह
को मनाने पहले गोविन्ददास और फिर केसरीसिंह को भेजा, किन्तु ठा. देवीसिंह नहीं माना। महाराजा विजयसिंह ने सामंती सेना पर निर्भरता
कम करने के उद्देश्य से शाही सेना को मजबूत करने का प्रयास किया। जग्गू धायभाई के
नेतृत्व में इस सेना ने चारों ओर सफलता प्राप्त की। मारवाड़ के असन्तुष्ट सरदार ठा.
देवीसिंह के नेतृत्व में संगठित हुए। महाराजा विजयसिंह ने अपने प्रतिष्ठित व्यक्ति
भेजकर सरदारों को मनाने का प्रयास किया, किन्तु बात और बिगड़ गई। क्रोध में ठा. देवीसिंह कह बैठा, ‘‘जोधपुर का राज्य मेरी कटार की परतली में हैं। मैं बनाऊंगा
वहीं जोधपुर का राजा होगा।’’ तदुपरान्त
महाराज विजयसिंह स्वयं सरदारों को मनाने गया। इस बार सरदारों ने अपने सभी शिकवे
भुलाकर महाराजा विजयसिंह का स्वागत किया और जोधपुर लौट आए। महाराजा विजयसिंह के
गुरू आत्माराम द्वारा राज्य प्रशासन में हस्तक्षेप के मुद्दे पर ठा. देवीसिंह की
पुनः नाराजगी उत्पन्न हो गई। कुछ ही दिनों बाद गुरू आत्माराम की मृत्यु हो गई। शोक
जताने आए ठा. देवीसिंह सहित प्रमुख सरदारों को महाराजा की स्वीकृति से जग्गू धायभाई
द्वारा कैद कर लिया गया। 6 दिन की कैद
में रहते हुए 8 फरवरी, 1760 ई. में ठा. देवीसिंह का देहावसान हो गया।
ठा. सबलसिंह - अपने पिता की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु से
क्षुब्ध होकर ठा. सबल सिंह ने असन्तुष्ट सरदारों के साथ मिलकर विद्रोह किया।
बिलाडा में वे राजकीय सेनाओं को पराजित करने में सफल रहे। युद्ध में एक घायल सैनिक
ने ठा. सबलसिंह पर गोली चलाई तो उसकी कनपटी के समीप लगी। उसे सोजत ले जाया गया।
वहीं 1760 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
ठा. सवाईसिंह - महाराज विजयसिंह ने सबलसिंह के उŸाराधिकारी ठा. सवाईसिंह का पट्टा 1766 ई. में प्रदान किया। 1760 ई. में सिन्ध के टालपुरा बलोच मुसलमानों के विरुद्ध भेजी गई मारवाड़ की सेना
में पोकरण की जमीयत की सेना ने भी भाग लिया। चौबारी के युद्ध में पोकरण की सेना ने
जबरदस्त वीरता प्रदर्शित की। इस उपलक्ष्य में ठा. सवाईसिंह को महाराजा विजयसिंह की
भरपूर प्रशंसा और प्रधानगी का सिरोपाव प्राप्त हुआ। 1787 ई. में ठा. सवाईसिंह और सिंघवी धनराज ने धावा बोलकर मराठों
से अजमेर छीन लिया। अजमेर पर पुनः अधिकार करने आई मराठों की सेना ठा. सवाईसिंह की
सुदृढ़ मोर्चाबन्दी के कारण विफल रही। मराठों की लगातार पराजयों के कारण तारागढ़ का
मराठा किलेदार मियां मिर्जा शेख इमामअली महाराजा विजयसिंह के प्रतिनिधियों से संधि
करके लौट गया। इसकी सूचना मिलने पर ठा. सवाईसिंह ने अजमेर पहुँचकर उस पर अधिकार कर
लिया।
1740 ई. में माधोजी सिन्धिया, तुकोजी होल्कर और फ्रेंच सेनापति डी. बोइने ने मेड़ता के समीप मारवाड़ की सेना
को पराजित किया। जोधपुर पर मराठों के संभावित आक्रमण को रोकने के लिए ठा. सवाईसिंह
के परामर्श में हरियाढ़ाणा के बुद्धसिंह (पोकरण कामदार) को मराठों पमरार्श में
हरियाढ़ाणा के बुद्धसिंह (पोकरण कामदार) को मराठों परामर्श में हरियाढ़ाणा के
बुद्धसिंह (पोकरण कामदार) को मराठों से संधि करने भेजा गया। अजमेर प्रान्त और 60 लाख हर्जाने की शर्त से समझौता सम्पन्न हुआ। इधर जोधपुर
राजदरबार महाराजा विजयसिंह की वृद्ध अवस्था, वैष्णव सम्प्रदाय के प्रति बढ़ती आस्था तथा पासवान गुलाबराय के बढ़ते प्रशासनिक
हस्तक्षेप के कारण षड्यंत्र स्थल बन गया। पासवान गुलाबराय के गुट ने युवराज
भीमसिंह की हत्या करने का प्रयास किया। 1792 ई. में महाराजा असन्तुष्ट सरदारों को मनाने मालकोसणी गया। मौका देखकर युवराज
भीमसिंह ने रनिवास, ठा.
सवाईसिंह और प्रमुख सरदारों की स्वीकृति से जोधपुर के किले और नगर पर अधिकार कर
लिया। ठा. सवाईसिंह के इशारे पर पासवान गुलाबराय की हत्या करवा दी गई।
लगभग 11 माह तक
महाराजा विजयसिंह विश्वस्त सरदारों के मार्फत राजसŸाा की पुनः प्राप्ति के लिए प्रयास करता रहा। दरबार के षड्यंत्रों के सफाया हो
जाने के उद्देश्य को पूरा होने पर ठा. सवाईसिंह स्वयं भी महाराज विजयसिंह की सŸाा पुनर्स्थापित करवाना चाहता था। कुँवर भीमसिंह को सिवाणा
जागीर में देने, युवराज का पद बनाए रखने तथा सुरक्षित
सिवाणा भिजवाने की शर्त पर दोनों पक्षों में समझौता हुआ किन्तु महाराजा विजयसिंह
ने अपने वचन से पलटकर कुँवर भीमसिंह पर सेना भेज दी। भीमसिंह और ठा. सवाईसिंह सुरक्षित पोकरण पहुंचने
में सफल रहें। जुलाई 1793 ई. में
महाराजा विजयसिंह की मृत्यु के बाद महाराजकुमार जालिमसिंह, मानसिंह ओर लोढ़ा सहसमल की बड़ी फौज की मौजूदगी के होते हुए
भी ठा. सवाईसिंह कुंवर भीमसिंह के साथ मात्र 6 ऊंटों पर किले की लखणा पोल पहुँच गए। किले के प्रमुख मुसाहिबों ने कुँ.
भीमसिंह का राज्याधिकार स्थापित करवा दिया।
महाराजा भीमसिंह ने ठा. सवाईसिंह को एक बड़ी जागीर देने की
पेशकश की। ठा. सवाईसिंह ने फलौदी मांगी। महाराजा ने आदेश भी दे दिया परन्तु
मुसाहिबों ने इसे क्रियान्वित नहीं होने दिया। ठा. सवाईसिंह की नाराजगी दूर करने
के लिए बधारे में उसके गांवों में वृद्धि कर दी गई परन्तु दोनों पक्षों में
मनमुटाव बना रहा। अक्टूबर 1803 ई. को
महाराजा भीमसिंह का स्वर्गवास हो गया। उसकी देरावर रानी गर्भवती थी। जालौर में
महाराजा मानसिंह के विरूद्ध सिंघवी इन्द्रराज के नेतृत्व में गई। सेना ने पक्ष
बदलकर मानसिंह के साथ जोधपुर प्रयाण किया। जोधपुर में ठा. सवाईसिंह और मुसाहिबों
ने महाराजा मानसिंह को देरावरजी के गर्भ से होने की सूचना दी। इस पर महाराजा
मानसिंह ने वचन दिया कि देरावरजी के पुत्र होने पर वह जोधपुर का स्वामी होगा।
जनवरी 1804 ई. में देरावरजी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम
धौंकलसिंह रखा गया। धौंकलसिंह की हत्या के षड्यंत्र की जानकारी मिलने पर ठा.
सवाईसिंह ने उसे गुप्त रूप से अपने जवांई खेतड़ी के अभयसिंह शेखावत के पास भिजवा
दिया। महाराजा मानसिंह ने धौंकलसिंह को ठा. सवाईसिंह का षड्यंत्र करार दिया।
ठा. सवाईसिंह ने अपनी पौत्री का विवाह जयपुर महाराजा
जगतसिंह से निश्चित किया। विवाह गीजगढ़ (ठा. सवाईसिंह के काका के पुत्र को यह
ठिकाणा प्राप्त था) हवेली जयपुर में करना तय किया गया। महाराजा मानसिंह ने इस प्रकार विवाह करने को राठौड़ों कुल के विपरीत
बताकर मना करवाया। अप्रसन्न ठा. सवाईसिंह ने कहलाया कि ’वह अपने भाई गीजगढ़ ठाकुर के यहां विवाह कर रहा है किन्तु जिस कृष्णाकुमारी (उदयपुर राजकुमारी) का
विवाह पहले महाराजा भीमसिंह से तय किया गया हो, का विवाह जयपुर महाराजा जगतसिंह से होना क्या अप्रतिष्ठाजनक नहीं है ?’ यह बात महाराजा मानसिंह को चुभ गई। वह इस विवाह को किसी भी
प्रकार से रूकवाने का प्रयास करने लगा। उसने रूकवा कर लौटने को बाध्य किया। इस
प्रश्न पर जोधपुर और जयपुर राज्य आमने-सामने आ गए। बीकानेर, किशनगढ़ और शाहपुरा राज्य जयपुर के पक्ष में आ गए।
मार्च 1807 ई. में
गिंगोली के युद्ध के प्रारंभ होते ही महाराजा मानसिंह के अधिकांश सरदार ठा.
सवाईसिंह के पक्ष में चले गये। अपनी करारी हार के बाद महाराजा मानसिंह जोधपुर लौट
गए औैैर नगर व प्राचीर की सुदृढ़ मोर्चाबन्दी की। 30 मार्च, 1807 ई. में ठा. सवाईसिंह के नेतृत्व में
सेनाओं ने घेराबन्दी की। महाराजा मानसिंह ने सिंघवी इन्द्रराज भण्डारी, गंगाराम आसोप, कुमाचन, आउवा, बुडसू, लाम्बिया इत्यादि सरदारों के मार्फत
जोधपुर छोड़कर राज्य आधा-आधा बांटने की पेशकश की। किन्तु अपनी मजबूत सैनिक और
सामरिक स्थिति के कारण ठा. सवाईसिंह ने धौंकलसिंह के लिए जोधपुर सहित आधा राज्य और
22 लाख हर्जाना मांगा। इससे संधि वार्ता में गतिरोध आ गया। तब
इन प्रतिनिधियों ने जोधपुर शहर सौंपने की एवज में उन्हें मुक्त करने की पेशकश की।
ठा. सवाईसिंह ने उसे स्वीकार किया। नगर पर अधिकार कर लिया गया। किन्तु ठा.
सवाईसिंह इन सरदारों को कैद करने का पक्षधर था क्योंकि मुक्त होने की दशा में वे
परेशानियाँ खडी कर सकते थे। चूंकि ये सरदार खेतड़ी और झुंझनूं के शेखावतों के वचन
से आए थे। अतः ठा. सवाईसिंह के सुझाव का इन्होंने विरोध किया।
ठा. सवाईसिंह की आंशकाएँ सही रही। इन सरदारों ने
ठा.सवाईसिंह और महाराजा जगतसिंह से नाराज पिण्डारी अमीरखां को अपने पक्ष में कर
लिया। लूटपाट के धन से इन सरदारों ने एक सेना तैयार करके फागी के निकट जयपुर की
सेनाओं को पराजित कर जयपुर पर आक्रमण कर दिया। इसकी सूचना मिलते ही महाराजा
जगतसिंह सेना सहित जयपुर लौट गया। ठा. सवाईसिंह ने भी धौंकलसिंह एवम् बीकानेर नरेश
सूरतसिंह के साथ नागौर की ओर प्रस्थान किया।
तदनन्तर महाराजा सूरतसिंह बीमारी के कारण सेना सहित बीकानेर लौट गया। महाराजा
मानसिंह ने युद्ध का पासा पलटने वाले
सरदारों और अमीरखां को जमकर पुरस्कृत किया। ठा. सवाईसिंह की हत्या करने की गुप्त
योजना बनाई गई। अमीरखां महाराजा से बनावटी झगड़ा करके मारवाड़ के गांवों में लूटपाट
करनी प्रारंभ कर दीं। ठा. सवाईसिंह ने अमीरखां को 40 लाख रूपए देने का वचन देकर अपने पक्ष में कर लिया। नागौर में तारकीन की दरगार
में उसने अपनी निष्ठा की शपथ लेकर ठा. सवाईसिंह को पगड़ी बदल भाई बनाया। मूण्डवा के
निकट एक बड़े शामियाने में ठा.
सवाईसिंह और अन्य सरदारों को आमंत्रित किया गया। अमीरखां के सैनिकों ने पहले वेतन
का बनावटी तकाजा किया। फिर मौका मिलते ही शामियाने की रस्सी काटकर उसने आग लगा दी और
तोपें चलवा दी। शामियाने के बाहर मौजूद राठौड़ सरदारों पर अमीरखां के सैनिक टूट
पडे़। यहां से बचकर नागौर पहुँचे सैनिकों ने घटना का वृŸाान्त सरदारों को सुनाया। कुछ बचे हुए सरदार धौंकलसिंह के
साथ बीकानेर चले गए तो शेष सरदार और सैनिक प्राणरक्षा में इधर-उधर चले गये। ठा.
सवाईसिंह सहित चार सरदारों के सिर अमीरखां ने एक मोटे बोरे में डालकर महाराजा
मानसिंह के पास भिजवा दिए।
ठा. सालमसिंह - पिता ठा. सवाईसिंह की षड्यंत्रपूर्ण हत्या
से व्यथित ठा. सालमसिंह ने फलौदी पर राजकीय सेना के आक्रमण के समय बीकानेर की सेना को सहयोग दिया जिससे मारवाड़ की राजकीय सेना परास्त
हुई। शीघ्र ही अपनी कमजोर स्थिति का आभास हो जाने से उसने कामदार बुद्धसिंह को
महामंदिर भेजकर आयास देवनाथ की मार्फत महाराजा मानसिंह से माफी प्राप्त की। 1815 ई. में पिण्डारी सैनिकों द्वारा आयस देवनाथ और इन्द्रराज
की हत्या कर दी गई। महाराजा मानसिंह ने पागलपन का नाटक कर स्वयं को प्रशासन से अलग
कर लिया। आयस भीमनाथ और मुहता अखैचन्द ने युवराज छतरसिंह को रिजेन्ट पद दिया तथा
ठा. सालमसिंह को प्रधानगी का सिरोपाव हुआ। युवराज छतरसिंह की मार्च 1818 ई. में आकस्मिक मृत्यु हो जाने से राज्य की स्थिति
संकटपूर्ण हो गई। इस विकट घड़ी में अंग्रेजी राज्य ने मीर मुंशी बरकतअली को
वस्तुस्थिति की जानकारी लेने भेजा। उसने महाराजा मानसिंह को आश्वस्त कर राजकार्य
संभालने के लिए प्रेरित किया। पुनः राज्य प्रशासन संभालने के कुछ ही वर्ष बाद उसने
अपने विरोधियों का सफाया करना प्रारंभ कर दिया। ठा. सालमसिंह राजकीय सेनाओं के
आक्रमण की पूर्व सूचना पाकर महामंदिर में नाथजी की शरण में चला गया और वहां से पोकरण जा बैठा। 1823 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
ठा. बभूतसिह - यह ठा. सालमसिंह का दŸाक पुत्र था। अंग्रेजी संरक्षण के कारण महाराजा मानसिंह की
अपने ठिकाणेदारों पर से निर्भरता समाप्त हो गई थी। इनसे निरंतर कठोर व्यवहार किया
गया। राजकीय सेना की सहायता से अनेक सरदार मारवाड़ से निष्कासित कर दिए गए। नजराना
नहीं देने के कारण पोकरण सहित अनेक ठिकाणों के कुछ गांव जब्त किए गए। अंग्रेजों
द्वारा सरदारों की अपीलों को अनसुना किए जाने के कारण पोकरण, आउवा, रास, निमाज आदि ठिकाणों ने मिलकर 30,000 की सेना तैयार की और धौंकलसिंह को आमंत्रित किया। आउवा
ठाकुर और पोकरण ठाकुर में प्रमुखता के प्रश्न पर विवाद उत्पन्न हो गया। पोकरण
ठाकुर बभूतसिंह को प्रमुख पद नहीं दिए जाने से वह गुट से अलग हो गया। 1838 ई. में वह नाथों केें राज्य प्रशासन में हस्तक्षेप को
रोकने के लिए अजमेर स्थित ए.जी.जी. कर्नल सदरलैण्ड के पास गए सरदारों के प्रतिनिधि मण्डल में सम्मिलित हुआ। मारवाड़ के सरदारों की शिकायतों का
निस्तारण करने जोधपुर पहुँच कर्नल सदरलैण्ड के समक्ष असन्तुष्ट सरदारों का पक्ष
लिया। राजकार्य चलाने के लिए बनाई गई पंचायत में उसने अगुवाई की। 1840 ई. में उसे प्रधानगी का सिरोपाव प्राप्त हुआ। उसने महाराजा
मानसिंह की इच्छा के विपरीत मारवाड़ के नाथों को प्रभावहीन करने में अंग्रेजी सरकार
को मदद की।
सितम्बर 1843 ई. में
महाराजा मानसिंह की मृत्यु के पश्चात् उŸाराधिकारी संकट उत्पन्न हो गया। ठा. बभूतसिंह ने पहले ईडर से उŸाराधिकार लाने सम्बन्धी विचार किया जो जनाना की महिलाओं द्वारा खारिज़ हो गया।
फिर उसने धौंकलसिंह का नाम इस शर्त पर प्रस्तावित किया कि पहले ब्रिटिश सरकार उसे
महाराजा भीमसिंह का वैध पुत्र माने। इस प्रस्ताव को पोलिटिकल एजेण्ट ने अस्वीकृत
कर दिया। तदुपरान्त महाराजा मानसिंह का संदूक खोलकर उसके हस्तलिखित लेख के अनुसार
अहमदनगर नरेश कर्णसिंह के पुत्र तख्तसिंह के पुत्र जसवन्तसिंह को उŸाराधिकारी बनाने का विचार किया गया किन्तु ठा. बभूतसिंह ने
युवा और अनुभवी महाराजा तख्तसिंह का पक्ष लिया। पोलिटिकट एजेण्ट मि. लडलो ने इसे
स्वीकृत किया।
ठा. बभूतसिंह महाराज तख्तसिंह का विशेष कृपापात्र रहा। 1843 ई. मे उसे प्रधानगी दी गई। राज्य का प्रबंध करने के लिए
गठित की गई। कौंसिल ने उसे प्रधान नियुक्त किया गया। ठा. बभूतसिंह के सुझाव पर 1000 रूपये की आमदानी पर 80 रूपए रेख के रूप में निश्चित हुआ। 1845 ई. में उसकी सेवाओं से प्रसन्न होकर पोकरण की रेख पट्टा सहित माफ कर दी। अगस्त
1851 को पोकरण, आउवा, आसोप इत्यादि सरदार मिलकर महाराजा के पास गए और राज्य
प्रशासन के लिए फायदेमंद 23 कलमें
प्रस्तुत की। जून 1853 ई. जयपुर
महाराजा रामसिंह ने जोधपुर वालों द्वारा पहले टीका दिए जाने के बावजूद प्रथम विवाह
रींवा करने जाने का निश्चय किया। ठा. बभूतसिंह के प्रयासों से महाराजा रामसिंह को
पहले विवाह करने जोधपुर आना पड़ा।
1857 ई. की अंग्रेजी विरोधी क्रांति में आउवा ठा. कुशालसिंह
क्रांतिकारी अंग्रेजी सैनिक को सहायता दे रहा था। महाराजा तख्तसिंह ने ठा.
बभूतसिंह को पत्र लिखकर कुशालसिंह को समझाने के लिए कहा। ठा. बभूतसिंह ने अपनी
जमीयत के घोड़ें देकर उदावत समरथ सिंह को भेजा, पर वह असफल रहा। ठा. बभूतसिंह काफी लम्बे समय तक पोकरण रहा। वहां उसने ठिकाणे
का प्रशासन दुरूस्त करने का विशेष प्रयत्न किया। उसने असन्तुष्ट सरदारों की
शिकायतों के निस्तारण के लिए ए.जी.जी. कर्नल कीटिंग के मार्फत महाराजा तख्तसिंह पर
दबाव डलवाया। 1872 ई. में ठिकाणेदारों की पट्टा गांव
सम्बन्धी शिकायत का निस्तारण करने के लिए एक समिति गठित की गई जिसमें ठा. बभूतसिंह
की प्रमुख भुमिका रही।
महाराजा जसवन्तसिंह द्वितीय ने ठा. बभूतसिंह की प्रधानगी
पद, सम्मान और रेख माफी बरकरार रखी, कुछ नए गांव भी इनायत किए, कामगारों के गांव भलड़ा रो वाड़ों फिर इनायत किया, चुंगी के प्रबंध का जिम्मा सौंपा। जून 1877 ई. में ठा. बभूतसिंह की मृत्यु हुई।
ठा. गुमानसिंह - यह ठा. बभूतसिंह का दŸाक पुत्र था। जुलाई 1877 ई. को उसने प्रधानगी सिरोपाव हुआ। सावणु (खरीफ) की फसल संभालने के लिए उसने
महाराजा से पोकरण जाने की आज्ञा ली। वहीं कुछ समय बाद दिसंबर 1877 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
ठा. मंगलसिंह - वह दासपां से दŸाक होकर आया। 1883 ई. में उसे मात्र 13 वर्ष की
अवस्था में प्रधान का पद दिया गया। 1889 ई. में महाराजा प्रतापसिंह के बम्बई जाने पर राजकार्य चलाने के लिए बनाई गई
कौंसिल में उसे नियुक्त किया गया। 1902 ई. में राजकार्य चलाने के लिए बनाई गई कन्सलटेटिव कौंसिल में उसे मेंबर
नियुक्त किया गया। 1905 ई. में
ब्रिटिश सरकार द्वारा ’राय बहादुर’ उपाधि और 1911 ई. में पब्लिक वर्क्स मंत्री नियुक्त किया गया। 1923 ई. में उसे जोधपुर दरबार की उŸाम सेवाओं के उपलक्ष में सी.आई.ई. की उपधि प्रदान की गई।
उसने पोकरण में मंगल निवास नामक सुन्दर और भव्य इमारत बनवाई। जुलाई 1929 ई. को उसकी मृत्यु हुई।
ठा. चैनसिंह - वह मारवाड़ के इतिहास के सर्वाधिक शिक्षित सामन्त था। राजपूताने का प्रथम स्नातक राजपूत था। उसने 1915 ई. तक एम. एल.एल.बी. की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की। उसे विक्टोरिया जुबली मेडल से सम्मानित किया गया, जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय का सर्वोच्च अकादमिक सम्मान था। उसे लखनऊ विश्वविद्यालय का सर्वश्रेष्ठ वक्ता चुना गया। वह इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एडवोेकेट भारत के संघीय प्रशासन में वरिष्ठ एडवोकेट रहा। 1911 ई. में उसने जोधपुर राज्य प्रशासन में कार्य किया। चीफ कोर्ट में 1922-27 तक जज के रूप में कार्य किया। जनवरी 1920 ई. को ब्रिटिश सरकार की तरफ से कुंवर चैनसिंह को ’रावसाहब’ की उपाधि मिली। जुलाई 29, 1929 को उसे न्यायिक मंत्री नियुक्त किया गया। 1934 ई. में कार्यवाहक प्रधानमंत्री नियुक्त हुआ, अर्थ और राजनीतिक विभाग भी उसके अधिकार में रहा। राजपूताने के रेजीडेन्ट ने उसकी 25 वर्ष की आयु को अद्भुत और उत्कृष्ट रहा। इस सेवा के कारण उसे ’स्पेशल गुड सर्विस अवार्ड’ 1936 ई. में दिया गया। 1941-44 ई. तक वह मिनिस्टर इन्चार्ज ऑफ रिफार्म रहा। 1944-45 ई. तक उसने अलवर को सीनियर मिनिस्टर के रूप में सेवाएँ दी। उसने अपने ठिकाणे पोकरण में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ आजादी से दशकों पहले प्रारंभ करवाई। पोकरण में सर्वप्रथम असाम्प्रदायिक नगरपालिका का शुभारंभ किया। 1945 ई. में उसकी मृत्यु हुई।
ठा. भवानीसिंह - उसने पिता के नक्शे-कदम पर चलते हुए इंग्लैण्ड से बार एट लॉ की डिग्री प्राप्त की, जोधपुर में सेंशन जज नियुक्त हुआ, 1952 ई. में वह लोकसभा का सदस्य चुना गया।
पोकरण को प्रशासनिक व्यवस्था -
ठिकाणा पोकरण मालानी के बाद मारवाड़ राज्य का सबसे बड़ा
ठिकाणा था। ठा. मंगलसिंह के समय पोकरण के पट्टा गांवों की संख्या 100 थी। यह जोधपुर परगना के अधीन था। पोकरण के पट्टा गांवों
में सांकड़ा, जालोर, सिवाणा, नागौर के गांव सम्मिलित रहे। यह
संख्या अलग-अलग ठाकुरों के समय घटती-बढ़ती रही। मजल और दुनाड़ा प्रधानगी के
प्रशासनिक दायित्व की एवज में प्राप्त कर-मुक्त गांव थे। इनके अतिरिक्त उन्हें
अनेक करमुक्त बेतलबी के गांव भी मिलते थे। ठा. चैनसिंह अवध का ताल्लुकदार भी रहा।
इतने बड़े क्षेत्र के सुव्यवस्थित प्रशासन के लिए पोकरण
ठाकुर के द्वारा अच्छी खासी तादाद में कर्मचारियों की नियुक्ति की गई। पोकरण ठाकुर
भी अधिकांशतः राजदरबार में ही रहे किन्तु विशिष्ट परिस्थितियों यथा महाराजा से
मनमुटाव, अल्पवयस्क अवस्था इत्यादि के कारण पोकरण ठाकुर अपने ठिकाणे
में रहें। ठा. सालमसिंह व ठा. बभूतसिंह अधिक समय तक पोकरण में रहे। ठा. बभूतसिंह
ने अपना ध्यान पोकरण के प्रशासन में सुव्यवस्थित करने में लगाया। अंग्रेज पोलिटिकल
एजेंट कर्नल कीटिंग और स्वयं महाराजा तख्तसिंह ने ठा. बभूतसिंह की अच्छे प्रशासन
के कारण प्रशंसा की। अधिक समय तक पोकरण में रहने के कारण प्रधान पद की शक्ति और
अधिकारों का क्षय हुआ। ठा. बभूतसिंह के उत्तराधिकारियों को प्रधानगी का सिरोपाव देने का विवरण हमें नहीं मिलते है। अब
उन्हें किसी कौंसिल का सदस्य या मंत्री बनाया जाने लगा किन्तु दरबार में आसन ग्रहण
करने और महाराजा को नजर करने सम्बन्धी प्राथमिकता उन्हें पूर्व के समान ही मिलती
रही। पोकरण के प्रशासनिक सोपान में पोकरण ठाकुर का सर्वोच्च सोपान था। उसे अपने
ठिकाणों में शान्ति और व्यवस्था स्थापना का जिम्मा सौंपा गया था। वह अधिनस्थ
कर्मचारियों यथा कामदार, फौजदार, प्रधान मुसाहिब, वकील, दरोगा, कोठारी
इत्यादि की नियुक्ति करता था। वह पोकरण की जमीयत सेना का स्वामी था। उसे पुलिस और
प्रथम दर्जे के न्यायिक अधिकार प्राप्त थे। ठिकाणे का आर्थिक प्रशासन भी उसे के
जिम्मे था। राजदरबार को समय-समय पर रेख, चाकरी, हुकुमनामा व अन्य करों का भुगतान
करने की उसकी जिम्मेदारी थी। पोकरण ठाकुरों के अधिकांश समय राजदरबार में रहने के
कारण प्रशासन संभालने के पोकरण में लिए प्रधान नियुक्त किए गए। वह पोकरण ठाकुर के
निर्देश पर सैन्य कार्यवाहियाँ में भी भाग लेता था। उसे वेतन स्वरूप कोई गांव दिया
जाता था।
पोकरण में कामदार पद के अनेक स्तर थे। ऐतिहासिक संदर्भों
में पोकरण के कामदार बुद्धसिंह के अनेक विवरण मिलते। ठा. सवाईसिंह और ठा. सालमसिंह
के समय उसकी भूमिका बहुआयामी रही। प्रधान कामदार अपने अधीनस्थ कामदारों के कार्यों
का निरीक्षण किया करता था। कामगार का कार्य राज्य के दीवान के सदृश्य आर्थिक ओर
राजस्व प्रशासन से सम्बन्धित था। इनका कार्य भू-राजस्व और अन्य प्रकार के करों को
एकत्रित करने का था। ये जमा खर्च का हिसाब रखा करते थे तथा ठिकाणे के छोटे स्तर के
कर्मचारियों का निरीक्षण किया करता था। कामगार का कार्य राज्य के दीवान के सुदृश्य आर्थिक और राजस्व प्रशासन से
सम्बन्धित था। इनका कार्य भू-राजस्व और अन्य प्रकार के करों को एकत्रित करने का
था। ये जमा खर्च का हिसाब रखा करते थे तथा ठिकाणे के छोटे स्तर के कर्मचारियों का
निरीक्षण किया करते थे। कामदार राज्य के अधिकारियों से रेख, हुकुमनामा, न्योत एवं ठिकाणे के सम्बन्धित अन्य मुद्दों पर पत्र व्यवहार किया करता था।
भलड़़ा रो वाड़ो कामगारों का वेतन स्वरूप दिया जाने वाला गांव था। फौजदार जमीयत की
सेना का मुखिया था। वह दरोगा अस्तबल और दरोगा सुतरखाना के कार्य का निरीक्षण करता
था, चोरी-डकैती के विरूद्ध कार्यवाही करता था, आवश्यक पड़ने पर फलौदी के हाकिम को परगने की शांति एवम्
सुव्यवस्था हेतु सेना भेजता था। वकील ठिकाणे के प्रतिनिधि के रूप में जोधपुर रहा
करते थे। पोकरण के दो वकीलों नाथूराम और ठा. पीरदान भैरूसिंहोत (हरियाढ़ाणा) ने
अच्छा नाम कमाया। दरोगा पोकरण शहर का पुलिस अधिकारी था जिसके जिम्मे शहर की
सुरक्षा, चोरी व अनैतिक गतिविधियों पर रोकथाम था। किलेदार पोकरण
किले के रख-रखाव और सुरक्षा का प्रबंधक था। वह फौजदार के साथ मिलकर डाकुओं की
गतिविधियों पर अंकुश लगाता था।
पोकरण ठिकाणे के पास प्रथम श्रेणी के फौजदारी अधिकार
प्राप्त थे। इसे अपने पुलिस व्यवस्था रखने की इजाजत थी। अपने ठिकाणे में हत्या और
राजमार्ग डकैतियों के अलावा उन्हें अन्य आपराधिक घटनाओं की खोज ओर जाँच का अधिकार
था। पोकरण ठाकुर को अवल दर्जे के दीवानी और फौजदारी अधिकार हासिल थे। उसे सिविल
मुकदमंे जो 1000 रूपये तक के होते थे, को सुनने का अधिकार होता था और फौजदारी मुकदमे में 6 माह तक की कैद एवम् 300 रूपए तक जुर्माना कर सकते थे। जुर्माना नहीं देने की स्थिति में 3 माह की सजा दे सकते थे। सिविल मुकदमा 1000 रूपये से अधिक होने की दशा में मामला चीफ कोर्ट भेज सकता
था।
ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशासन में पटवारी, चौधरी या पटेल, चौकीदार, पंच इत्यादि प्रमुख व्यक्ति थे। गांव
के चौधरी या पटेल की अध्यक्षता में एक पांच सदस्यीय पंचायत होती थी। यह पंचायत विभिन्न विवादों और अपराधों के
सम्बन्ध में सुनवाई करके उपयुक्त दण्ड देती थी। न्याय से असन्तुष्ट प्रार्थी
ठिकाणेदार अथवा महाराजा के समक्ष अपील कर सकता था। गांव की सुरक्षा के लिए चौकीदार नियुक्त किए जाते थे।
ठा. बभूतसिंह और उसके बाद के पोकरण ठाकुर की छवि उदारवादी
रही। 1869 ई. के भीषण दुर्भिक्ष में ठा. बभूतसिंह ने सामान्य हित के
लिए कम दाम पर अन्न उपलब्ध करवाए। ठा. मंगलसिंह ने 1885 ई. के चेचक टीकाकरण कार्यक्रम में विशेष रूचि ली। उसने पोकरण में एक डाकघर, एक डिस्पेंन्री और एक वर्नाकुलर स्कूल खुलवाया। उसने
जोधपुर-फलौदी रेलमार्ग को पोकरण तक लाने के विशेष प्रयास किए। ठा. चैनसिंह ने
पोकरण में नगरपालिका की स्थापना में सक्रिय रूचि ली। पोकरण ठाकुरों को अनेक
विशेषाधिकार प्राप्त थे जो उनके राजनीतिक और प्रशासनिक महत्व को इंगित करते हैं
जैसे कि दरबार के बुलाने के लिए खास रूक्का, दरबार में आगमन पर विशेष उद्घोष, जीवणी मिसल में सिरे बैठना, प्रथम श्रेणी के फौजदारी और दीवानी अधिकार, महाराजा की सर्वप्रथम नजर-निछरावल, हाथी पर महाराजा के पीछे मोरछल के साथ ख्वासी में बैठना, विशिष्ट मौकों पर सिरोपाव दिया जाने आदि।
पोकरण ठिकाणे की अर्थव्यवस्था -
पोकरण का एक बड़ा ठिकाणा होते हुए भी
भौगोलिक परिस्थितियों के कारण राजस्व प्राप्तियों में काफी पिछड़ा था। 1728 ई. में पोकरण पट्टा इनायत किए जाने के समय पट्टा आय कागजों
में 66083 रूपये थी। इसमें पोकरण खास के 72 गांव, रामदेवजी के
दो मेलों की आय और मजल-दुनाड़ा के गांवों की आय सम्मिलित थे। 1744 ई. में ठा. देवीसिंह को 82 गांव सहित 76133 रूपये का पट्टा प्रदान किया गया। ठा.
सवाईसिंह के नाम 1767 ई. में बहाल
किए गए पट्टे की गांव आय मजल-दुनाड़ा सहित 66083 रूपए थी। बाद में इसमें वृद्धि होते-होते 92 गांव सहित 105473
रूपये की पट्टा आय हो गई। उसके पुत्र
ठा. सालमसिंह के समय 1816 ई. में 86 गांव सहित 79608 रूपये की रेख थी। ठा. बभूतसिंह के पास 1844 ई. में लगभग 100 से अधिक
गांवों का पट्टा था जिसकी रेख 1,17,898 रूपये थी।
ठा. मंगलसिंह के समय कुल पट्टा गांवों की संख्या 110 थी जिनकी रेख 1,17,092 रूपये थी।
भू-राजस्व के अतिरिक्त निम्नलिखित मदें ठिकाणे की आमदानी
के स्त्रोत थे -
(1) हथोड़ा लाग - यह विभिन्न कारीगरों यथा
सुथार, सिलावट, बागवान, माली, कसाई
इत्यादि पर लगाया जाता था। इसकी दर एक रूपये पर एक आना थी।
(2) चराई कर - यह 100 पशुओं पर 5 रूपये की दर से वसूला जाता था।
(3) अदालती स्टाम्प - यह मुकदमें के
पश्चात् 2 रूपये प्रति व्यक्ति की स्थित दर से वसूला जाता था।
(4) कबुलायत - पोकरण के जमीयत के गांवों
के उŸाराधिकार परिवर्तन पर वसूला जाता था।
(5) चिरा - तिलक, विवाह, पुत्र, जन्म इत्यादि अवसरों पर यह महाजनों से नजराने के रूप में
वसूला जाता था।
(6) सावा - बाहरी स्थानों पर लाए गए घी, अनाज, कपास वस्त्र, इत्यादि पर यह लगाया जाता था। इसकी दर माल के मूल्य का 5 प्रतिशत थी।
दाण - यह पोकरण में बेची जाने वाली
वस्तुओं यथा घी, अनाज, दाल इत्यादि पर लगाया जाता था।
(7) मुकाता - यह किसान के हल पर 3 रूपए प्रति हल की दर से वसूला जाता था। सिंचित भूमि पर
इसकी दर कुछ अधिक रहती थी।
(8) सूड़ - ठिकाणेदार अपनी जमीन को कृषि
के उपयुक्त बनाने के लिए लोगों को बेगार लेता था, वह सूड़ कहलाती थी।
(9) मुतफरकात - भेड़ों के शरीर से ऊन
उतारने की क्रिया के समय लगाया जाने वाला कर ।
(10) भूमि कर - महाजनों को उपज का 2/9 से 1/5 भाग देना
होता था। सामान्य कृषकों को कुल उपज का 1/4 भाग या 2/9 हिस्सा देना होता था। उन्हें खरीफ
फसल का एक मन पर एक सेर ठिकाणेे का अतिरिक्त देना होता था। सब्जियों, प्याज इत्यादि पर कुल उपज का 1/4 हिस्सा लिया जाता था। राजपूतों को हल के हिसाब से 3 से 3) रूपये प्रति
बीघा कर देना होता था। रबी फसलों पर भूमि का एक रूपया 6 आना प्रति बीघा था। सिंचित भूमि पर यह दर चार आने प्रति
बीघा थी। अफीम पर यह दर 2) रूपये प्रति
बीघा तरबूत पर एक रूपया और सब्जियों पर यह एक रूपया छः आने प्रति बीघा थी।
(11) कूंता - ब्राह्मण कनवारियों द्वारा
फसलों का कंूता करते समय कृषकों से फल का एक छोटा हिस्सा वसूला जाता था।
(12) पशुकर- यह 100 भेड़-बकरियों पर एक बकरा था जिसे पान-चराई टैक्स भी कहा
जाता था।
(13) जोड़ - यह घास भूमि पर पशु चराई पर
लिया जाता था।
(14) तेलियों पर कर- ठिकाणे द्वारा
तेलियों के पेला पर भी कर लगाया जाता था।
(15) राहदारी - ठिकाणा पोकरण होकर निकलने
वाले व्यापारिक मार्ग पर वर्ष में 5000 रूपए तक राहदारी प्राप्त करता था।
ठिकाणे को समय-समय पर अनेक कर राज्य को देय होता था जैसे
कि रेख-बाब, हुकुमनामा इत्यादि। 1839 ई. में 7661 रूपये रेख
और 1466 रूपये बाब के वसूल कर सरकार के प्रभारी सेठ जोरावरमलजी
दांणमलजी की हाट में जमा करवाई गई। 1845 ई. में महाराजा तख्तसिंह ने ठा. बभूतसिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर पोकरण
ठिकाणे से देय रेख और अन्य भरोतियाँ माफ कर दी।
महाराजा जसवंतसिंह ने इस परिलाभ से बरकरार रखा। हुकुमनामा सामान्यतः एक वर्ष की आय
के बराबर था।
ठिकाणे के प्रशासनिक व्यय विविध थे। तोशाखाना कारखाना, मोदीखाना, तबला
(अश्वशाला व सूतरखाना), सैन्य रखरखाव, किले पर
कार्यरत प्र्रशासनिक ;।करनेजद्ध
पदाधिकारियों के वेतन पर धन व्यय किया जाता था। पोकरण के ठाकुरों ने भव्य मंगल
निवास, देवल-छतरियाँ इत्यादि बनवाई, जिन पर पर्याप्त धन व्यय हुआ। ठिकाणे की भूमि पर बेगारी करने वाले लोगों को
बेगारी की एवज में अनाज, तेल, घी, आटा इत्यादि
दिया जाता था। ठिकाणे के वाहनों के पेट्रोल व्ययों का भी विवरण रखा जाता था।
सामाजिक जीवन -
साम्प्रदायिक सद्भाव का प्रतीक पोकरण विभिन्न धर्म
सम्प्रदायों और जातियों का संगम स्थल है। सामाजिक संरचना में हिन्दुओं की जनसंख्या
सर्वाधिक रही। परम्परागत सामाजिक सोपान में हिन्दुओं का स्थान सर्वोपरि रहा।
ब्राह्मणों में पुष्करणा, श्रीमाली, साकलद्विपीय (भोजक) या सेवक ब्राह्मण यहां मुख्य रूप से
निवास करते हैं। इस क्षेत्र में शक्ति और संसाधन मुख्यतः राजपूतों के पास रहें
हैं। यहां पोकरणा (महेचा), चाम्पावत
नरावत जैसे राठौडे़ कुलय जसोड़ जैसा, रावलोत केलण जैसे भाटी कुलय तंवर, पंवार देवड़ा आदि राजपूत कुल निवास करते हैं। पोकरणा राठौड़ और भाटी राजपूत इस
क्षेत्र में लूटपाट के लिए कुख्यात रहे हैं।
व्यापारिक मार्ग पर अवस्थित होने के कारण वैश्य समुदाय की
आबादी यहां काफी अच्छी रही। वैश्य वर्ण में माहेश्वरियों की संख्या सर्वाधिक रही।
पोकरण ठिकाणे में करों का भार भी सर्वाधिक इस वर्ण पर था। ओसवाल वैश्यों की भी
पोकरण में अच्छी खासी संख्या थी, पर देश की
आबादी के बाद यहां के व्यापार मार्ग पर महत्व समाप्त होने के कारण वे यहां से बड़ी
संख्या में पलायन कर गए। वैश्यों ने पूर्तकर्म के उद्देश्यों से यहां प्याऊ, तालाब मंदिर इत्यादि बनवाए। चतुर्थ वर्ण में माली, बुनकर, चाकर, दर्जी, जाट, सुनार, तेली, स्यामी (स्वामी), मोची, नाई, कुम्हार, धोबी इत्यादि आते थे।
पोकरण में मुस्लिम आबादी के प्रमाण 1784-85 ई. मंे सिंधी शहजादे के यहां बसने के वृतांत से मिलते है।
यहाँ मौजूद मुस्लिम बस्ती काफी पुरानी मानी जाती है। पोकरण किले के सुरक्षा-प्रहरी
गोमठिये मुसलमान हुआ करते थे। ठा. बभूतसिंह के समय पोकरण में मुस्लिम आबादी 1615 थी जबकि हिन्दू आबादी 10160 थी। पोकरण में सिक्ख धर्म का पर्दापण हुआ किन्तु स्थानीय लोगों पर यह अपना
प्रभाव नहीं छोड़ सका। यहाँ एक पुराना गुरुद्वारा है। रामदेवरा दर्शन करने आने वाले
सिक्ख श्रद्धालु यहां ठहरते हैं। पोकरण ठिकाणे के लोगों का सामान्य जन-जीवन जल की
कमी के कारण कुछ कठिन था। सभी गांवों में कुएं नहीं थे इसलिए लोगों को बारी-बारी
से पेयजल उपलब्ध कराने के लिए गाँव की पंचायत अपनी विशेष भूमिका का निर्वाह करती
थी। खेतीबाड़ी कम होने के कारण पशुपालन पर विशेष ध्यान दिया जाता था। कम जल
आवश्यकता वाली पशु नस्लों को पाला गया। लोग पशु उत्पादों विशेषकर दूध, घी, दही, मक्खन, छाछ, मांस पर आश्रित थे क्योंकि खाद्यान्न सदैव उपलब्ध नहीं
होता था। खान-पान में पशु उत्पादों के अतिरिक्त बाजरी, बाजरी की खीर, सांगरी केर, कुम्भटिया की सब्जी, दालें, मीठी गुड़ की
लापसी, पीलू, खजूर, बेर का सेवन किया जाता था। शराब और मांस का सेवन राजपूतों
में अधिक प्रचलित था।
पोकरण का क्षेत्र ‘थरडा’ कहलाता था। यहां का भाषा की प्रस्तुतिकरण और बोलने की शैली
कुछ भिन्नता है उदाहरण के लिए -
हिन्दी-(1) तुम कहां जा
रहे हो । (2) तुम क्या कर रहे हों।
थरड़ा थली
शेष मारवाड़
1) तू केत जाई तू कठे जाई
सिध पधारो
2) तू की करे तू कई करें
थे सिध पधारो
पहनावा भी शेष पश्चिमी राजस्थान से कुछ भिन्नता रखता था।
पुरुषों के पहनावें में अंगरखी, ढीली धोती
(टेवटा), सिर पर पगडी, हाथ में लाठी, सर्दियों
में हाथ का बुना कम्बल मुख्य है। महिलाओं में सूती-घाघरा, ओढना (लाल) तथा कोहनी से बाजू तक हाथी दांत का चूड़ा पहना
जाता था। पुरुष कान में लूंग, गोखरू, मुरकी, सांकली, सोने का कड़ा, चांदी की अंगूठी इत्यादि का प्रयोग करते थे। महिलाएं कड़ा-सांटा, आंवला-नेवरी (पंाव), डुरगला
(कान), हांसली, निम्बोली, तिमणियाँ (नाक के बीच में होठो पर) चांदी की अंगूठी, हथफूल, बिच्छूड़ी
(पांव में), कलाई में गजरा इत्यादि पहनती थी।
पोकरण क्षेत्र के लोगों के रीति-रिवाज शेष मारवाड़ से काफी
हद तक समान थे। ये रीति रिवाज जन्म, संगपंण विवाह, मृत्यु
इत्यादि से सम्बन्धित थे। कुछ गलत रिवाज जैसे कि खुशी या गम में अमल का प्रयोग, बालिका शिशु वध, मौसर, सती प्रथा इत्यादि भी प्रचलन में थी। सामान्य लोगों में
उपरोक्त रीति रिवाज पूर्ण सादगी से मनाए जाते थे। ठाकुर परिवार में ये पर्व काफी
भव्य और व्ययपूर्ण हुआ करते थे। प्रथम पुत्र या उŸाराधिकारी का जन्म विशेष उल्लासपूर्ण रहता था। मारवाड़ और अन्य राज्यों के
सामंत और प्रशासकीय अधिकारी नकद ओर अन्य भेंट भेजा करते थे। ठाकुर स्वयं के विवाह
अथवा पुत्र-पुत्री के विवाह की सूचना महाराजा को सर्वप्रथम देता था। वह निमंत्रण
पत्र के साथ नकद रूपये और भेंट भी देता था। प्रत्युत्तर में महाराजा की तरफ से विशेष भेंट और सिरोपाव दिया जाता था।
अन्तिम संस्कार सम्बन्धी रीति-रिवाज सीधे सादे थे किन्तु
खर्चीले थे। गांव और आसपास के गांवों के बडे़ बुजुर्ग शोकाभिव्यक्ति और सांत्वना
देने के लिए शोकालु परिवार के यहां जाया करते थे। शोकाभिव्यक्ति हेतु आए सभी
व्यक्तियों को कुछ खाने-पीने को अवश्य दिया जाता था। अस्थि-फूलों को गंगा जी में
प्रवाहित करने की परम्परा थी। 12 वें दिन शोकग्रस्त
परिवार के सभी सगे सम्बन्धी गांव में इकट्ठे होते थे। कुछ रीति रिवाज के बाद दोपहर
के समय मृतक व्यक्ति के बड़े पुत्र को पाग पहनाई जाने की परम्परा थी। सामान्य पूजा
पाठ के बाद मौसर (मृत्यु भोज) का आयोजन किया जाता था। दूर-दूर के गांव से लोग इस
अवसर पर आते थे। सामान्यतया गुड़ लापसी का भोज होता था। गांव के जो लोग भोज में
नहीं पहुंच पाते उनका हिस्सा (हाथी) भिजवा दी जाती थी। इतने बड़े पैमाने पर लोगों
को भोजन कराने पर से सम्बन्धित व्यक्ति को कर्ज लेना पड़ जाता था, जो कई वर्षों तक नहीं चूक पाता था।
पोकरण ठिकाणे में परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु पर
विधि-संस्कार और भी खर्चीला हुआ करता था। खास जलेबी का मौसर भी किया जाता था।
ब्राह्मणों को दान में गायें-सोना इत्यादि दिया जाता था। कई दिनों तक पूजा-पाठ
चलता था। पोकरण ठाकुर की मृत्यु होने पर महाराजा के द्वारा स्वयं जोधपुर स्थित
पोकरण हवेली में शोकाभिव्यक्ति हेतु आने की परम्परा थी। उदाहरण के लिए 20 जुलाई 1929 ई. को
महाराजा उम्मेदसिंह पोकरण ठा. मंगलसिंह की मातमपोशी के लिए पोकरण की हवेली गए।
इसके पश्चात् पोकरण ठाकुर चैनसिंह को प्रधानगी की उपाधि व सिरोपाव दिए गए तथा
सलामती बोली गई। इसके अलावा पोकरण के ठाकुर को ताजीम के साथ बांह-पसाव का कुरब
बख्शा गया। दिनांक 24 जून, 1947 ई. को पोकरण ठा. चैनसिंह की मृत्यु पर महाराजा पोकरण की
हवेली पर मातमपोशी के लिए गए तब फिर से प्रधानगी की उपाधि सिरोपाव, कुरब ताजीम प्रथानुसार बख्शे गए। मातमपोशी के समय अमल की
मनवार व मेवेे के थाल महाराजा को नजर किए जाते थे। मातमपोशी के बाद पोकरण ठाकुर
हल्के रंग के रंग का फेंटा बांधकर महाराजा को नजरें पेश करने गया। वहां उन्होंने
अमल व सूखे मेवे के थाल, दो घोडे़, सोने की मुहर, रूपए 11 नजर व रूपए 5 निछरावल किए। महाराजा ने घोडे़ वापस भेज दिए और बाकी चीजों
को स्वीकार किया।
स्थानीय लोगों में सतियों के प्रति
देवीतुल्य श्रद्धा थी। पोकरण में सतियों की अनेक छतरियाँ प्राप्त होती है जिनमें
से ज्यादातर पोकरण के ठाकुर परिवार से सम्बन्धित थी। मारवाड़ रियासत और अंग्रेजी
सरकार द्वारा यह प्रथा प्रतिबन्धित होने पर भी यदा-कदा ऐसी घटनाएं घट जाया करती
थी। उदाहरण के लिए 1856 ई. (वि.सं. 1913 माघ सुद 5) को पोलिटिकल एजेन्ट मालानी गया। वापस आते पोकरण होकर फलौदी, बाप की तरफ सरहद देख आने की तैयारी थी। पोकरण ठाकुर ने
सम्पूर्ण प्रबंध कराया था, किन्तु
पोकरण में पोकरणी ब्राह्मणी के सती होने की खबर मिलने पर वह कार्यक्रम में
परिवर्तन करके पोकरण आने की बजाय सीधा जोधपुर चला गया।
तत्कालीन पोकरण समाज स्त्रियों के प्रति दोहरी मानसिकता का
शिकार था। एक ओर वे स्त्री रूप की देवी के रूप में स्तुति करते थे तो दूसरी ओर
समाज में महिलाओं पर अनेक प्रतिबंध आरोपित किए गए थे। इस पितृसतात्मक समाज में
महिलाओं का दर्जा हीन था। स्त्री अन्य पुरुषों के सामने न तो अपने पति के साथ बैठ
सकती थी। न उसके साथ-साथ चल सकती थी, न ही उसके साथ बात कर सकती थी। इसे हमेशा घूंघट में रहना पडता था, धीमी आवाज में बात करनी पड़ती थी, पति की सभी बाते मनने के लिए बाध्य थी। यदि गांव में घूमते
हुए महिलाओं के समूह को कोई बडी आयु का व्यक्ति मिल जाता तो वे वहीं तुरंत घूंघट
करके बेठ जाती। यदि पुरुषों के सामने से होकर जाना आवश्यक होता तो उन्हें जूते खोल
कर उन्हें अपने हाथ में लेकर निकलना पड़ता था।
कन्या शिशु वध एक सामान्य बात थी क्योंकि कन्या का विवाह
बहुत खर्चीला हुआ करता था। यह विडम्बना थी कि एक तरफ कन्या को जन्म होते ही मार
दिया जाता था, वही समाज में पांच में से दो पुरुष
कंवारे रह जाते थे, फिर भी समाज
कन्या वध जैसी कुप्रथा और विवाह में खर्च करने को प्रतिबद्ध दिखाई नहीं पड़ता था।
विधवाओं की स्थिति शोचनीय थी। उन्हें हल्के आसमानी या गेरुएं रंग के कपडे़ पहनने
पड़ते थे। साज-श्रृंगार और रंगीन वस्त्र पहनना प्रतिबंधित था। पहले तीन वर्णों
(ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) में पुनर्विवाह संभव नहीं था। जाट-विश्नोई और कुछ अन्य जातियों में नाता-प्रणाली अवश्य प्रचलित थी। समाज
में महिलाओं की भूमिका बच्चे पैदा करना और चूल्हे-चौखट संभालने तक सीमित थी।
पोकरण की निम्न जातियों की सामाजिक
स्थिति तत्कालीन भारत के अन्य क्षेत्रों की निम्न जातियों से कुछ बेहतर ही कही जा सकती थी। इसका बहुत कुछ योगदान बाबा रामदेव को
दिया जा सकता है, जिन्होंने
निम्न जातियों को मुसलमान बनने से रोका और अपने प्रमुख शिष्यों में इन्हें स्थान
दिया। पोकरण ठाकुरों ने मेघवाल जाति के लोगों को किले के छोटे-मोटे कार्यों में
नियोजित किया। यह परम्परा आज भी जारी है। ठिकाणे में प्रशासन में सभी जातियों का
स्थान दिया गया। किले के सुरक्षा में राजपूतों के अतिरिक्त गोमठिया मुसलमान थे।
पोकरण-रामदेवरा म्यूनिसिल बोर्ड में कार्यरत कर्मचारी एम आर पूनिया (जाट) के नाम
का भी उल्लेख मिलता है।
पोकरण के स्थानीय निवासियों के स्वतंत्रता आंदोलनों में
भागीदारी के कुछ विवरण हमें प्राप्त होते है। सेठ दामोदरदास राठी जो मूलतः पोकरण
के थे, ने ब्यावर में एक कपड़ा मिल खोली तथा श्यामजी कृष्ण वर्मा
के साथ मिलकर 1915 ई. में एक अंग्रेजी विरोधी क्रांति
का असफल प्रयास किया। दामोदरदास राठी ने ब्यावर के अलावा पोकरण में भी एक स्कूल
खोला जो जोधपुर दरबार ने 1912 ई. ने
अंग्रेज विरोधी गतिविधियों के कारण बंद करवा दिया गया।
कुछ समय पश्चात् स्थानीय लोगों ने बरार के एक राठी परिवार
की सहायता से एक निजी स्कूल की व्यवस्था की। इसी विद्यालय में स्कूली अध्यापक के
रूप में वैद्य हेमचन्द्र छंगाणी का राजनीतिक सफर प्रारंभ हुआ। किन्तु कुछ समय बाद
ही उन्हें पोकरण छोड़ दिया और मध्य प्रान्त और बरार में काफी सक्रिय रहे। वैध
हेमचन्द्र छंगाणी ने 1928 ई. में
मारवाड़ में दुर्गादास जयन्ती का सफल आयोजन करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
पोकरण ठाकुर चैनसिंह जो राज्य कौंसिल में जुडिशियल मेम्बर था, द्वारा जागीरदारों की ढाल बनने की आलोचना की, हितकारिणी सभा व राज्य प्रजा सम्मेलन के सक्रिय सदस्य के
रूप में कार्य किया।
पंडित मदनमोहन छंगाणी, लीलाधर व्यास, गोवर्धन दास
चांडक व सुन्दरलाल चौधरी के सुझाव पर पोकरण ठाकुर चैनसिंह ने पोकरण में नगरपालिका
की स्थापना के प्रस्ताव को सरकार से स्वीकृत करवाया। वर्ष 1946 ई. में भवानी पोल स्थित हीरानन्दजी की बगेची में एक विशाल
किसान सभा का आयोजन किया गया। इस सभा में भाग लेने वाले बड़े नेता-मारवाड लोक
परिषद् जोधपुर के अध्यक्ष मीठालाल काका, द्वारकादास पुरोहित, मथुरादास
माथुर, मीठालाल व्यास (जैसलमेर), स्थानीय नेताओं में भाभा पोकरणदास पुरोहित, शिवकरण छंगाणी, रामचन्द्र
कपिल, लक्ष्मीनारायण गांधी, जीवणलाल चांडक, सुन्दरलाल राठी, वीरमाराम रातड़िया, सालूराम चौधरी (भणियाणा), मुकनाराम
विश्नोई (खेतोलाई), स्वरूपचन्द
महाजन (भणियाणा), भूराराम
चौधरी, मौलवी दोस्तमुहम्मद थाट, फतेहमुहम्मद थाट, गोविन्दसिंह
परिहार (छायण), माणकलाल पणियां, इत्यादि ने प्रमुख रूप से भाग लिया। इस आंदोलन में पोकरण
ठिकाणे के दीवानी ओर फौजदारी कानूनी अधिकारी छीने जाने तथा कृषि पर लगान नहीं दिये
जाने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया।
धार्मिक जीवन -
पोकरण तथा उसके आस-पास के क्षेत्र मध्यकाल से ही धार्मिक
दृष्टि से विशिष्ट महत्व रखते थे। हिन्दू धर्म और जैन धर्म के प्रचलन के प्राचीन
साक्ष्य अभिलेखों की शक्ल में उपलब्ध हैं जो कि 10 वी शताब्दी से अधिक पहले के नहीं है। इस्लाम का पदार्पण कुछ देर से हुआ। बौद्ध
धर्म और ईसाई धर्म के प्रचलित होने के कोई साक्ष्य नहीं है किन्तु एक सिख धर्म का गुरूद्वारा दमदमा साहब यहां पर मौजूद है।
इस क्षेत्र में सर्वाधिक प्रचलित हिन्दू धर्म ही था। बहुसंख्यक मंदिरों की मौजूदगी
से पोकरण क्षेत्र के लोगों का धर्म के प्रति झुकाव प्रतिबिम्बित होता है।
पोकरण शहर में मौजूद तीन मंदिरों से यहां जैन धर्म के
प्रचलन की पुष्टि होती है। अलंकृत पत्थरों से निर्मित विशाल मंदिरों में मुख्य
मंदिर भगवान आदिनाथ का है। इसके साथ ही शंाति पार्श्वनाथ और चिंतामणि पार्श्वनाथ
के मंदिर भी है। ये प्राचीन मंदिर निर्माण कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। स्थानीय
मान्यता है कि तीर्थ यात्रा पर निकले धर्मानुयायियों की तीर्थ यात्रा इन मंदिरों
के दर्शन एवं पूजा अर्चना के बाद ही पूर्ण मानी जाती है। यहां वर्ष भर जैन धर्म को
मानने वाले लोग आते हैं। जैन धर्मानुयायियों की संख्या सीमित थी तथा ये मुख्यतः
वणिक कर्म से जुडे थे।
पोकरण क्षेत्र में छोटे-बड़े, नए-पुराने, सैकड़ों मंदिर है। लोगों की आस्था पंचदेवों (गणेश, विष्णु, शिव, सूर्य और शक्ति) में होने के बावजूद विशेष श्रद्धा बाबा रामदेव के प्रति है।
मंदिरो में एक प्राचीन शिखरयुक्त सूर्य मंदिर पोकरण के किले के समीप है। देवियों
में खीवंज माता, आशापूर्णा धरज्वला माता, दुर्गा माता का मंदिर है। देवताओं में बाबा रामदेव जी के
प्रति लोगों की विशेष आस्था और श्रद्धा है। कैलाश टेकरी का शिव मंदिर, धर्मकुण्ड रामेश्वर महादेव, मार्कण्डेश्वर महादेव मंदिर, पंचमुखा
महादेव मंदिर, भगवान शिव के प्रति लोगों की अपार
श्रद्धा के प्रतीक हैं। भगवान हनुमान के दो प्राचीन मंदिरो में एक पोकरण के किले
के पीछे है और दूसरा बांकना हनुमान मंदिर के नाम से जाना जाता था। भगवान विष्णु के
दो प्राचीन मंदिर है पहला रामदेवसर के समीप नृसिंह मंदिर और दूसरा पोकरण के किले
के समीप चतुर्भुज जी का मंदिर है।
पोकरण के लोगों में साधु संन्यासियों के प्रति भी आस्था
रही। बाबा रामदेव के गुरु बालीनाथजी के धूणे पर आज भी लोग जाते हैं। एक अन्य
प्राचीन आश्रम मैनपुरी महाराज का है जो पोकरण राठौडों के आराध्य गुरु थे। रामदेवसर
के समीप दो अन्य आश्रम हैं। सुथारों के बेरी के निकट संत गरीबदास जी और संत देवगर
बाबा की समाधि है।
पोकरण के राजपरिवार का एक निजी मंदिर पोकरण के किले में
अमृत पोल के ऊपर बना हुआ है। यहां केवल राजपरिवार ही पूजा पाठ कर सकते थे। मंदिर
का आकार मात्र 12 ग् 12 फीट है तथा यह कमरानुमा है। मंदिर के ऊपर एक पंचरंगा झण्डा लगा है जो बाबा
रामदेव का प्रतीक है। मंदिर के पुजारी दाधीच दाइमा ब्राह्मण हैं। पोकरण पट्टा
ठाकुर महासिंह को इनायत किए जाने के समय वे भीनमाल से आये थे। इस छोटे से निजी
मंदिर में लगभग सभी देवी देवताओं की छोटी-छोटी मूर्तियां और प्रतीक है। पुजारी
प्रतिदिन सभी देवताओं को दूध केसर मिश्रित जल से स्नान कराता है, कुमकुम से तिलक करके यथास्थान विराजमान करता है। इन सभी
देवताओं में बाबा रामदेव की मूर्ति व पादुका का पूजन विशेष रूप से किया जाता था।
कृष्ण पूजन को भी पर्याप्त महत्व दिया जाता था। राजपरिवार केवल विशेष पर्वों पर ही
किले के बाहर के मंदिर के दर्शनार्थ जाया करते थे।
पोकरण के किले में उपरोक्त वर्णित मंदिर के अतिरिक्त लगभग पांच अन्य मंदिर है। जनानी ड्योढी में नागणेची जी का मंदिर है। पुराने मुख्य द्वार पर चार मंदिर है। इन मंदिरों के द्वार केवल सुबह-गोधूली वेला पर खोले जाते है। शेष समय इस पर ताला लगा रहता है। मुख्य द्वार के बाहर शिलालेख के समीप एक गणेश प्रतिमा है। यहां से थोड़ा बाहर निकलने पर बाबा की कोठरी है जिसे कभी रामदेव का रहवास माना जाता था। कोठरी के समीप स्थित जाल वृक्ष रामदेवजी के समय का माना जाता है।
पोकरण ठाकुरों का सांस्कृतिक योगदान -
पोकरण का किला- पोकरण का किलो कब और किसने बनवाया। यह
विवादास्पद प्रश्न हैं। संभवतः यह सर्वप्रथम परिहारों द्वारा निर्मित किया गया।
राव नरा ने इसे त्याग कर सातलमेर का दुर्ग बनवाया। कालान्तर में राव मालदेव ने इसे
नष्ट करवाकर पोकरण के दुर्ग का पुनः निर्माण करवाया। जैसलमेर के भाटियों ने पोकरण
पर अधिकार के समय दीवारों की ऊंचाई 21 गज करावाई गई। ठा. सवाईसिंह के समय इसकी राजकीय खर्च पर मरम्मत करवाई गई। किले में कुल 21 बुर्ज हैं, जहां चौकीदार नियुक्त किए जाते थे।
किले की एक पोल काफी ऊंची है जिस पर लोहे का दरवाजा था। इस पोल के ऊपर की ओर
मालिया (कमरा) है। एक पोल महाराजा जसवन्तसिंह के समय की बनी हुई है जिसे जसपोल के
नाम से जाना जाता हैं। अन्दर से किला 200 गज लंबा और 200 गज चौड़ा
समरस था। एक कुंआ पोल के नजदीक दीवानखाना के समीप घुड़शाला के प्रवेशद्वार के आगे
था। इसका पानी कुछ खारा था। एक छोटी बावड़ी भी थी जिसका पानी कुछ खारा था और प्रयोग
में नहीं लाया जाता था।
किले में देवी देवताओं के मंदिर है। मुहता नैणसी जैनियों
के आदिनाथ मंदिर के विषय में लिखता है जो किले से बाहर अभी भी मौजूद है। अन्दर की
इमारतों में चढ़ने की मूल रूप से तीन सीढियाँ थी। वर्तमान में इनकी संख्या अधिक है।
किले के चारों ओर पक्की खाई थी जो चार गज गहरी और 5 गज चौड़ी थी। किले के बाहर दो बावड़ियाँ है जो अपने आप भर जाती है। किले के चारों
ओर कंगूरे हैं जिन पर हल्की तोपें लगी रहती थी। प्रतिकूल परिस्थिति से निपटने के
लिए खाने की वस्तुएँ पर्याप्त रूप से जमा करके रखी जाती थी। पोकरण के किले में 5 पोल हैं, यथा - 1. इमरती पोल, 2. बाजार के समीप की पोल (गणेश पोल) 3. घोड़ो के तबेले की पोल, 4. माताजी के
मंदिर की पोल, 5. जनानी ड्योढ़ी पोल। पोकरण शहर के
परकोटे में भी पांच पोल हैं-
1. भवानी पोल - भवानी माता के मंदिर के निकट ।
2. सूरज पोल - सूरज इस ओर से उगता है।
3. चांद पोल - चन्द्रमा इस ओर अस्त होता है।
4. राम पोल - यहां से मृतकों के निकलने का रास्ता था।
5. एकों की पोल - एकों गांव इस ओर है। यह रघुनाथ पोल के नाम से भी जाना जाता है।
भवानी पोल पर सतियों के हाथ अंकित है। चांद पोल पोकरण का मुख्य द्वार था जो 7 बजे बंद हो जाता था। इस समय के बाद शहर वाले लोग बाहर नहीं जा सकते थे और बाहर वाले लोग भीतर नहीं आ सकते थे। सुरक्षा व्यवस्था गोमठ मुसलमानों के जिम्मे थी। ये प्रहरी नियमों का सख्ती से पालन करते थे। एक अवसर पर उन्होंने देरी से आने पर ठा. चैनसिंह को भी अंदर नहीं आने दिया। पोकरण के किले में मौजूद भवनों को अलग-अलग खण्डों में बांटा जा सकता है - यथा 1. मंगल निवास, 2. जनानी ड्योढी, 3. बादल भवन, 4. कोठार।
ठा. मंगलसिंह से पहले ठाकुर परिवार बादल भवन में रहता था।
बादल भवन से सटाकर एक तबेला था। कहते हैं कि ठा. सवाईसिंह का सांढिया (ऊँट) यहां
उनके ऊपर के कमरे की खिड़की के नीचे सदैव तैयार रहता था। जनानी ड्योढ़ी ठुकरानियों
के आवास के लिए था। यहां के झरोखों से वे नीचे मंच पर होने वाले मनोरंजक
कार्यक्रमों को देखा करती थी। जनानी ड्योढ़ी में नागणेची जी का एक मंदिर भी है।
मंगल निवास ठा. मंगलसिंह ने आधुनिक स्थापत्य और परम्परागत स्थापत्य से मेल करके
बनवाया।
हवेलियाँ - भारत के हवेली स्थापत्य में पोकरण की हवेलियों
का विशिष्ट स्थान है। इन हवेलियों में तराश कर लगाए गए पत्थरों पर फूल-पŸिायाँ, पशु-पक्षियों
की आकृतियाँ, जालीदार झरोखे, झराखे के नीचे की झालरीनुमा नक्काशी के साथ ही हवेली के
कोने पर बाहर की तरफ झरोखे में रत्नजडित हार की भांति आकृतियाँ उकरी गई है। 19 वीं शताब्दी के प्रारंभ में सिंगल कोर्ट मारवाड़ी पद्धति
में बनी गिरधारीलाल लाखोटिया और रोशनलाल की हवेलियाँ विशेष रूप से मशहूर हैं।
गिरधारीलाल लाखोटिया की हवेली में छत पर लकड़ी की नक्काशी और रोशनलाल की हवेली में
छत पर किया गया पत्थर का अलंकरण तथा खिड़कियों के चारों ओर सुन्दर पत्थर की कलाकारी
उत्कृष्ट है।
छतरियाँ - पोकरण किले से उŸार दिशा की पहाड़ी पर स्थित कलात्मक छतरियाँ सबसे सुन्दर और मनोहर है। दूर से
ये छतरियाँ एक झुण्ड के रूप में अनुपम दृश्य प्रस्तुत करती है। ये छतरियाँ ऊँचे
चबूतरे पर बनवाई गई हैं। ये छतरियाँ जमीन से 20 से 25 फुट ऊَँची हैं। कुछ छतरियाँ 12 खम्भों पर
खड़ी है तो कुछ 10 खम्भों पर। कुछ छतरियाँ आपस में
गुंथी हुई प्रतीत होती है। ये छतरियां समूहों में है। इनमें से अधिकांश
जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। इन गुम्बदाकार छतरियों-खंभों पर पीले पत्थरों के
पाद-चिन्ह, कमल के फूल की आकृतियाँ उकेरी गई है।
तालाब स्थापत्य - पोकरण की अपनी विशिष्ट भौगोलिक विशेषताएँ
हैं। पोकरण के चारों ओर एक चट्टानी क्षेत्र है, जो ऊंचा नहीं होने के बावजूद ढलानदार है। ये ढलानदार चट्टानें जिन्हें स्थानीय
भाषा में ‘मगरा’ कहते हैं। वर्षा काल में पूर्ण रूप से आन्तरिक अपवाह तंत्र का निर्माण करती है
यह निम्न भूमि युक्त अपवाह तंत्र झीलों व तालाबों के निर्माण को प्रेरित करता है।
पोकरण के लगभग 16 कि.मी के छोटे से क्षेत्र में बीस से
भी अधिक छोटे-बडे़ तालाब व बांधो का निर्माण किया गया। बाबा रामदेवजी द्वारा
रामदेवसर का निर्माण करवाया गया। राजस्थान की परम्परागत तालाब वास्तुकला के अनुसार
इसे भी दो विशाल घाटों द्वारा बांधा गया है। पूर्वी घाट जिसे नृसिंहघाट कहते हैं, लगभग 1 किलोमीटर से
भी अधिक लम्बा है। यह इस तालाब की पूर्वी सीमा बनाता है। तालाब का दक्षिणी घाट दो
भागों में विभक्त है। इसे शिव घाट व राम घाट कहते हैं। यह घाट लगभग 300 मीटर से अधिक लम्बा है। तालाब के ये घाट लाल बलुआ पत्थर के बने हुए हैं। हाथी घोड़े की प्रतिमाओं तथा
चबूतरों द्वारा इन घाटों का अलंकरण किया गया है। पोकरण के किले के पश्चिम की और
सालमसागर है। मुहंता नैणसी किले के बाहर की दो बावड़िया का विवरण देता है। इन्हीं
बावड़ियों का विकास सालमसागर के रूप में किया गया। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट होता
है सालमसागर ठा. सालमसिंह द्वारा पुण्यार्थ प्रयोजन से बनवाया गया। सालमसागर के
पूर्वी और पश्चिमी हिस्सांे में विशाल घाट बनवाए गए। पूर्वी घाट पर सीढियाँ बनी
हुई हैं जो सालमसागर की गहराई दर्शाती है। इस घाट पर जैसलमेरी पीले पत्थर की एक
रेलिंग भी लगाई गई है। इस हिस्से पर चौकियाँ भी बनवाई गई हैं। महासागर पोकरण से
उत्तर दिशा में स्थित छतरियों की तलहटी में स्थित एक विशाल कृत्रिम तालाब है।
महासागर के तीन ओर लाल पत्थर के पक्के घाट बने हुए हैं। चौथी तरफ पहाड़ी आ जाती है।
वर्षा ऋतु में पहाड़ी का पानी बहकर झरने के रूप में महासागर मंे आकर गिरता है।
महासागर के पूर्ण रूप से भर जाने पर एकत्रित जल झरने के रूप मंे पुनः नीचे की ओर
गिरता हैं। इसके अतिरिक्त मेहरलाई, सुधलाई, डूंगरसर, नरासर, रूखी री
तलाई, सूघरलाई, धरणीसर, लीगासर, हाथीनाड़ा, जैसे तालाब हैं जिन्हें स्थानीय लोगों ने बनावाया। पोकरण
में छोटी-बड़ी 20 बावड़ियाँ और 5 सांसण बावड़ियाँ भी हैं।
रम्मत -पोकरण में सार्वजनिक मनोरंजन के लिए विभिन्न
मण्डलियों द्वारा चैत्र मास में होली के तुरन्त बाद ऐतिहासिक लोककथा या धार्मिक
कथानक पर ये संगीतमय प्रस्तुतियाँ दी जाती थी। पुष्करणा ब्राह्मण एवं सेवक
ब्राह्मण इस कला में पारंगत माने जाते हैं। राजा भतृर्हरि, पतिव्रता, वीर अमरसिंह
राठौड़, भक्त पूरणमल, राजा हरिशचन्द्र इन रम्मतों के मुख्य विषय हैं।
कलाकृतियाँ - पोकरण में कुम्हार जाति के लोगों के द्वारा
बनाए जाने वाले गुलदस्ते, खिलौने, मानव-आकृतियाँ, पशु-पक्षी, देवी-देवताओं की मूर्Ÿिायां, मंदिरों की
घण्टियाँ, जलचरों की आकृतियाँ, महापुरूषों की मूतियाँ सम्पूर्ण पश्चिमी राजस्थान में लोकप्रिय रही है।
वर्तमान में ये पोकरण पॉट्स के नाम से जानी जाती हैं। सूती और ऊनी धागों से बने
वस्त्रों, और चादरों के लिए पोकरण विशेष रूप से जाना जाता था।
जूतियों पर कशीदाकारी के लिए पोकरण प्रसिद्ध रहा।
चित्रकला - पोकरण के किले में अनेक राजपूत शैलियों के
चित्र है। इन चित्रों के बॉर्डर, रंगों के
प्रयोग, आकार इत्यादि में पर्याप्त भिन्नता है। इस आधार पर इन
चित्रों को पोकरण शैली के चित्र कहना उपयुक्त नहीं होगा। संयुक्त राज्य अमेरिका
में न्यूयॉर्क पब्लिक लाइब्रेरी के ‘स्पेन्सर संग्रह’ में मौजूद
एक पाण्डुलिपि को पोकरण में चित्रित बताया गया हैं। इस पाण्डुलिपि की शैली
विशेषताएं जोधपुर शैली के समान है। संभवतः ठा. बभूतसिंह के समय जोधपुर शैली के
चित्रकार ने इसे पोकरण में चित्रित किया था और बाद में किसी अंग्रेेज को बेच दी गई
थी अथवा उपहार में भेंट की गई थी।
साहित्यकारों को संरक्षण -
पोकरण के ठाकुरों की शूरवीरता, स्वाभिमान, कटारी, कूटनीति तथा चारण भाट कवियों के हितैषी रहने के कारण इन पर अनेक दोहे, डिंगल, काव्य, झमाल, गीत, मरसिये इत्यादि लिखे गये। स्वयं महाराजा मानसिंह ने ठा. सवाईसिंह की हत्या होने पर एक मरसिया कहा। मैथिलीशरण गुप्त ने अपने हिन्दी काव्य ‘विकट भट्ट’ में ठा. देवीसिंह व ठा. सवाईसिंह की वीरता और वाकपटुता का प्रशंसनीय वर्णन किया है। पोकरण ठाकुरों ने प्रशंसा गीत लिखने वाले चारण-भाट कवियों को भूमि, पाग, नकद इनाम, भेंट इत्यादि से सम्मानित किया। विशेष अवसरों यथा विवाह, सन्तान के जन्म, मृत्यु आदि के समय गायन करने वाले लंगों और भाटों को नकद इनाम दिया जाता था। विवाह के समय चलते हुए ढोली-पातरों पर पैसे उछाले जाते थे।
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