मारवाड़ नरेशों द्वारा दी जाने वाली ताजीम, कुरब, ओर सिरोपाव
सरदारों द्वारा विशिष्ट राजकीय सेवा करने पर शासक उन्हें सम्मानस्वरूप ताजीम, कुरब या सिरोपाव प्रदान करते थे। ताजीम दो प्रकार की थी। इकेवडी ताजीमी सरदार का अभिवादन ग्रहण शासक खड़े होकर उसके आने पर करता था जबकि दोहरी ताजीभी सरदारों के आने तथा जाने-दोनो अवसरो पर महाराज खड़े होकर अभिवादन ग्रहण करता था।62 सिरायत सरदारों को दोहरी ताजम प्राप्त थी। महाराज ताजीमी सरदारों से नजर और निछरावल खडे होकर प्राप्त करता था तथा अन्य सरदारो से बैठे-बैठे स्वीकार करता था।63
कुरब और बांह-पसाव भी दरबार अभिवादन की एक रीति थी। कुरब का सम्मान प्राप्त ठिकाणेदार महाराज के समक्ष उपस्थित होने पर अपनी तलवार उसके पैरो के पास रखकर घुटने या अचकन के पल्लू को छूता था, तब महाराज उसके कंधों पर हाथ लगाकर अपने हाथ को अपनी छाती तक ले जाता था। इसके हाथ का कुरब कहा जाता था।64 बाह-पसाव सम्मान में महाराज सरदार का केवल कंधा छूता था।65 किसी सरदार द्वारा अति-विशिष्ट राजकीय सेवा करने पर ही हाथ का कुरब दिया जाताथा। महाराज विजयसिंह के शासन काल में चण्डावल ठाकुर ने महाराजा से निवेदन किया कि उसे हाथ का कुरब इनायत किया जाए। इसके बदले में तह महाराज को 40-50 हजार रूपए नजर करने को तैयार था। किन्तु महाराजा ने प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और कहलवाया कि ‘‘ कुरब रि साटै मिलता है, दाम साटै नहीं’’ अर्थात् सिर देने पर कुरब मिलता है न कि दाम देने से। सिर का कुरब प्राप्त ठिकाणेदार दरबारके समय अन्य सरहारो से ऊपर बैठते थे। राह कुरब मारवाड के विशिष्ट ठिकाणेदारों को ही प्राप्त था जैसे कि पोकरण आऊवा, आसोप, रियां, रियापुर, रास, निमाज, खैरवा इत्यादि।67
ठिकाणेदारों के दरबार या किसी शाही विवाह के पश्चात् विदा लेने पर एक सम्मानसूचक वस्त्र दिया जाता था जिसे सिरोपाव कहा जाता था। ये सिरोपाव हाथी, घोड़ा, पालकी या सादा होता था। इसके लिए नकद भ त्ते दिए जाते थे। उदाहरण के लिए हाथी सिरोपाव हेतु 780/- रूपए दिए जाते थे68 किन्तु विवाह के मौके पर 849/- रूपए दिए जाते थे। सादा सिरोपाव और जवाहर मोतीकडा सिरोपाव सरदारों को उनकी श्रेणी के अनुसार दिए जाते थे। उस समय मारवाड़ में प्रत्येक व्यक्ति को सोना पैर में पहनने का अधिकार नहीं था। जिस व्यक्ति को राज्य की तरफ से यह अधिकार होता था वही इसका उपयोग कर सकता था, अन्य नहीं। इसके अतिरिक्त कंण्ठी, दुपट्टा सिरोपावन, कड़ा-मोती, दुशाला सिरोपाव भी दिया जाता था।69 महाराजा की सेवा में आए हुए सरदारों को दिए गए इनामों का विवरण (जाति के अनुसार) कौमी दस्तूर कहलाता था। उस समय सरदारों द्वारा महाराजा को भेंट व उपहार की पद्धति का सामान्य प्रचलन था।70
सरदारों द्वारा विशिष्ट राजकीय सेवा करने पर शासक उन्हें सम्मानस्वरूप ताजीम, कुरब या सिरोपाव प्रदान करते थे। ताजीम दो प्रकार की थी। इकेवडी ताजीमी सरदार का अभिवादन ग्रहण शासक खड़े होकर उसके आने पर करता था जबकि दोहरी ताजीभी सरदारों के आने तथा जाने-दोनो अवसरो पर महाराज खड़े होकर अभिवादन ग्रहण करता था।62 सिरायत सरदारों को दोहरी ताजम प्राप्त थी। महाराज ताजीमी सरदारों से नजर और निछरावल खडे होकर प्राप्त करता था तथा अन्य सरदारो से बैठे-बैठे स्वीकार करता था।63
कुरब और बांह-पसाव भी दरबार अभिवादन की एक रीति थी। कुरब का सम्मान प्राप्त ठिकाणेदार महाराज के समक्ष उपस्थित होने पर अपनी तलवार उसके पैरो के पास रखकर घुटने या अचकन के पल्लू को छूता था, तब महाराज उसके कंधों पर हाथ लगाकर अपने हाथ को अपनी छाती तक ले जाता था। इसके हाथ का कुरब कहा जाता था।64 बाह-पसाव सम्मान में महाराज सरदार का केवल कंधा छूता था।65 किसी सरदार द्वारा अति-विशिष्ट राजकीय सेवा करने पर ही हाथ का कुरब दिया जाताथा। महाराज विजयसिंह के शासन काल में चण्डावल ठाकुर ने महाराजा से निवेदन किया कि उसे हाथ का कुरब इनायत किया जाए। इसके बदले में तह महाराज को 40-50 हजार रूपए नजर करने को तैयार था। किन्तु महाराजा ने प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और कहलवाया कि ‘‘ कुरब रि साटै मिलता है, दाम साटै नहीं’’ अर्थात् सिर देने पर कुरब मिलता है न कि दाम देने से। सिर का कुरब प्राप्त ठिकाणेदार दरबारके समय अन्य सरहारो से ऊपर बैठते थे। राह कुरब मारवाड के विशिष्ट ठिकाणेदारों को ही प्राप्त था जैसे कि पोकरण आऊवा, आसोप, रियां, रियापुर, रास, निमाज, खैरवा इत्यादि।67
ठिकाणेदारों के दरबार या किसी शाही विवाह के पश्चात् विदा लेने पर एक सम्मानसूचक वस्त्र दिया जाता था जिसे सिरोपाव कहा जाता था। ये सिरोपाव हाथी, घोड़ा, पालकी या सादा होता था। इसके लिए नकद भ त्ते दिए जाते थे। उदाहरण के लिए हाथी सिरोपाव हेतु 780/- रूपए दिए जाते थे68 किन्तु विवाह के मौके पर 849/- रूपए दिए जाते थे। सादा सिरोपाव और जवाहर मोतीकडा सिरोपाव सरदारों को उनकी श्रेणी के अनुसार दिए जाते थे। उस समय मारवाड़ में प्रत्येक व्यक्ति को सोना पैर में पहनने का अधिकार नहीं था। जिस व्यक्ति को राज्य की तरफ से यह अधिकार होता था वही इसका उपयोग कर सकता था, अन्य नहीं। इसके अतिरिक्त कंण्ठी, दुपट्टा सिरोपावन, कड़ा-मोती, दुशाला सिरोपाव भी दिया जाता था।69 महाराजा की सेवा में आए हुए सरदारों को दिए गए इनामों का विवरण (जाति के अनुसार) कौमी दस्तूर कहलाता था। उस समय सरदारों द्वारा महाराजा को भेंट व उपहार की पद्धति का सामान्य प्रचलन था।70
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