महारावल मनोहरदास के कोई पुत्र नहीं था। ई. सन् 1650 (वि.सं.1706)88 में उसकी मृत्यु के बाद रामचन्द्र और सबलसिंह में उŸाराधिकारी संघर्ष प्रारंभ हुआ। रामचन्द्र ने रनिवास का समर्थन प्राप्त कर जैसलमेर की बागड़ोर संभाली। उसे महत्वपूर्ण सामंतों का समर्थन प्राप्त नहीं था। इसलिए सामन्त उसे गद्दी से हटाना चाहते थे। उस समय सबलसिंह बादशाह शाहजहाॅ के विशेष कृपापात्र रूपसिंह भारमलोत (किशनगढ़ के राजा) की सेवा में लगा हुआ था।
इधर जोधपुर में महाराजा गजसिंह की मृत्योपरान्त महाराज जसवंतसिंह को राज्य की टीका हुआ। पूर्व के सामान सातलमेर (पोकरण) को परगना 6,00,000 छः लाख दाम अर्थात् 14,000 रूपए जसवंतसिंह को मिला91। महारावल मनोहरदास की मृत्यु का समाचार मिलने के समय महाराज जसवंत सिंह रणथम्भोर के गोड़ो के यहां विवाह करने गया हुआ था। उसकी रानी मनभावती ने शाहजहाॅ से निवेदन किया कि ‘‘पोकरण जागीर में दर्ज है जिस पर अभी तक अमल नहीं हो सकता है। इतने दिन हमारे समबन्धी महारावल मनोहरदास का वहां अधिकार था, इस कारण हमने कुछ नहीं कहा। अब रामचन्द्र गद्दी पर बैठा जिससे हमारा कोई लगाव नहीं है। अगर आपकी स्वीकृति मिल जाए तो हम पोकरण पर अधिकार कर लें।’’92
रानी मनभावती93 के पुत्र के उŸार में बादशाह शाहजहाँ ने कहा ‘‘आप चाहो तो जैसलमेर आपको दे दें। आपको अपने पोकरण पर अधिकार करने से कौन रोकता है। कुछ समय पश्चात् महाराजा जसवंतसिंह ने बादशाह से अर्ज किया - ‘‘जैसलमेर भाटियों का मूल वतन है इसलिए हमे इससे कोई वास्ता नहीं है। पोकरण की जागीर जोधपुर के राठौड़ो की रही है और आपके दफ्तर में भी इसका अंकन बराबर किया जाता रहा है परन्तु इसका उपयोग जैसलमेर के भाटी करते आए है। अगर आप पोकरण का फरमान कर दें तो भाटियों के विरूद्ध सेना भेजने की कार्यवाही की जाय। तब बादशाह ने इसके लिए स्वीकृति प्रदान कर दीं।94
महाराजा जसवंतसिंह ने पोकरण हस्तगत करने के लिए अप्रेल (सं. 1706, वैशाख सुदी 6) 1650 ई. को जोधपुर के लिए प्रस्थान किया। इसके कुछ समय पूर्व ही उसकी भटियाणी रानी जसरूप दे (महारावल मनोहरदास की पुत्री) बुधवार अप्रेल 10, 1650 ई. (वि.सं. वैशाख वदि 4-5) की रात्रि में मृत्यु हुई थी। श्रावण माह में सार्टूल और बिहारीदास शाही फरमान लेकर जैसलमेर के लिए रवाना हुए। उन्होंने वहां पहुंचकर रावल रामचन्द्र को फरमान दिखाया। सभी भाटियों ने मिलकर इसपर विचार-विमर्श किया और चार दिन बाद उन्होंने कहा कि गढ़ मांगने से नहीं मिलता है। दस भाटियों के बलिदन देने के बाद ही पोकरण उन्हें पोकरण मिलेगा। सार्दुल और बिहारीदास जोधपुर लौट आए और महाराजा को इसकी जानकारी दी।95
इस प्रकार जब शाही फरमान जारी करने के बाद भी भाटी पोकरण देने को राजी नहीं हुए तब महाराजा ने एक विशाल सेना पोकरण के भाटियों के विरूद्ध भेजने का निश्चय किया। फौज के तीन हिस्से किए गए तथा इसे राठौड़ गोपालदास (रींया सुन्दरदास मेड़तिया का पुत्र) चम्पावल विट्ठलदास (पाली गोपालदास चंपावत का पुत्र) और अग्रीम सेना राठौड़ नाहर खां (आसयोप राजसिंह कूम्पावत का पुत्र) व नैणसी ने किया। इस प्रकार सब मिलाकर दो हजार अश्वरोही और चार हजार पैदल सेना थी।96 इन तीनों टुकडियों को एक-एक कर क्रमश5 1650 ई. की (सितम्बर) आसोज वदि 2, 3 और 7 को रवाना किया गया। पहली टुकडी ने आसोज सुदी 7 को पोकरण के खारा गांव में पहंुचकर डेरा डाला।97
इस बीच राजा रूपसिंह (किशनगढ़) ने सबलसिंह की बादशाह शाहजहाॅ से भेट करवाई। राजा रूपसिंह ने रावल मनोहरदास के उŸाराधिकारी के रूप में सबलसिंह को प्रस्तुत किया और बादशाह के चरण स्पर्श करवाए। बादशाह ने तब सबलसिंह को जैसलमेर का टीका देकर विदा किया।98 तत्पश्चात् सबलसिंह ने महाराजा जसवंत सिंह से भेंट कर मदद की याचना की। महाराज जसवंत सिंह ने सबलसिंह के लिए सेना और खर्चे इत्यादि की व्यवस्था कर उसे जैसलमेर दिलाने का आश्वासन देते हुए कहा कि वह फलौदी पहुंचे वहां जोधपुर की सेना उसकी मदद करेगी। तब सबलसिंह ने भी राजा जसवंतसिंह को फलोदी का प्रान्त मय पोकरण किले के लौटा देने का वाद कर लिया।99
सबलसिंह कुछ दिन फलौदी रहा। उसने 700-800 योद्धाओं के साथ फलोदी के ग्राम कुण्डल के भोजासर तालाब पर शिविर लगाया। इधर भाटियों की एक सेना जिसमें अधिकांशतः केल्हण भाटी थे, पोकरण की सेना के साथ सबलसिंह का मुकाबला करने जवण री तलाई सेखासर में डारे डाले बैठी थी। दोनो पक्षों में युद्ध हुआ जिसमें सबलसिंह विजयी रहा।100
इस विजय के बाद भी सबलसिंह ने तत्काल जैसलमेर पर आक्रमण करना अच्छा नहीं समझा। अपना पक्ष और मजबूत करने के लिए उसने पोकरण पर चढ़ाई करने वाली जोधपुर की सेना के साथ सम्मिलित होने का निश्चय किा और खरा गांव का डेरा जहाॅ महाराजा की सेना रूकी हुई थी वहीं 500-600 योद्धाओं के साथ जा मिला। पोकरण क्षेत्र में सबलसिंह ने लूटमार की। उसे सूचना मिली कि पोकरण के गढ़ में डेढ़ हजार मनुष्य थे। जोधपुर की सेना के नजदीक आने पर अनेक व्यक्ति गढ़ से चुपचाप रात्रि में निकल गए और केवल 350 व्यक्ति ही रह गए।101 जोधपुर की सेना जिसमें 1500 सवार और 2500 पैदल थे।102 पोकरण से आधा कोस की दूरी पर डूगरसर तालाब पर जोधपुर की सेनाओं ने पड़ाव किया और आसोद सुद 15 (29 सितम्बर, 1650 ई.) को पोकरण गढ़ पर घेरा डाला । इस दिन प्रमुख सरदारों की देखरेख में तोपो से गढ़ पर आक्रमण किया गया। शहर पर अधिकार करके गढ़ के द्वारा के समक्ष मोर्चा लगाया गया। गढ़ में मौजूद भाटियों की सेना गोलियों और तीरों से शत्रुओं पर हमला किया किन्तु जोधपुर की सेना ने मोर्चा इस प्रकार से लगा रखा था जिससे इनका कोई सैनिक हताहत नहीं हुआ। इस प्रकार तीन दिन तक दोनो पक्षों में आक्रमण-प्रत्याक्रमा का दौर चलता रहा। गढ़ में मौजूद भाटियों ने सबलसिंह को कहलवाया कि ‘‘हमारी बाहं पकड़ कर बाहर निकाले जाने पर ही हम बाहर जाएंगे।’’ तब सबलसिंह ने जोधपुर की सेना के सरदारों-राठौड़ गोपालदास, बीठलदास और नाहरखान से निवेदन किया कि ‘‘ऐसे तो कोई भाटी गढ़ से बाहर नहीं आएगा। आप लोग मुझे दोन दिन का समय दो। किन्तु सबलसिंह भाटियों से गढ समर्पित करवाने में असफल रहा।103
5 अक्टूबर, 1650 ईं को (काती वद 6) को जोधपुर की सेना के 100 आदमी गढ में जा घुसे। इसकी सूचना मिलते ही अनेक व्यक्ति गढ़ छोड कर भाग खड़े हुए। केवल 15 या 16 व्यक्ति ही अब गढ़ में रह गए थे। गोपालदास, बिठलदास एवं नाहरखान गढ के अधिकांश व्यक्तियों के पलायन की जानकारी मिली तो उन्होंने सबलसिंह को कहलाया कि या तो प्रतापसिंह (पोकरण गढ़ में भाटियों का प्रमुख सरदार) को बाहर निकालों नहीं तो हमारे हाथों वह मारा जएगा।’’ सबलसिंह और मारवाड की सेना के तीनो सरदार प्रतापसिंह के वृद्ध होने के विषय में जानते थे इसी वजह से वह प्रतापसिंह को सकुशल बच निकलने का एक और मोका देना चाहते थे। तब सबलसिंह ने कहलाया कि प्रातः वह उसये गढ़ से बाहर निकाल देगा। किन्तु मारवाड़ के सेनानायक इससे सन्तुष्ट नहीं हुए क्योंकि वे रात में ही गढ पर पूर्ण अधिकार कर लेने के लिए तत्पर थे। रात्रि में ही बिठलदास ले कार्यवाही प्रारंभ कर दी। भाटी प्रतापसिंह को अततः अपने साथियों के साथ बाहर आना पड़ा। देहरा पोल के समीप हुए युद्ध में भाटी प्रतापसिंह अपने अनेक वयोवृद्ध साथियों के साथ लड़ते हुए काम आया।104 इस युद्ध में मारे जाने वाले प्रमुख भाटी -
1. भाटी प्रतापसिंह रावलोत - 75 वर्ष
2. भाटी का वेणीदास - 60 वर्ष
3. भाटी एका गोकलदास - 50 वर्ष
4. भाटी रूपसी - 65 वर्ष
5. भाटी सादो - 60 वर्ष
6. राठौड़ सादूल - 50 वर्ष
7. भाटी लालो - 38 वर्ष
8. भाटी जसो - 40 वर्ष
9. गौड़ रामो - 64 वर्ष
10. चैहान लखो - 60 वर्ष
11. तुरक जैमल कच्छवाह - 80 वर्ष
12. राठौड़ कुसलचन्द समेचा - 70 वर्ष105
पोकरण गढ़ में मौजूद भाटियों का इस तरह मुट्ठी भर लोगों के साथ लड़ना हमारी राय में नितांत बेवकुफी और मूर्खता वाला कदम था। यह कदम आम्मदाह के सदृश था। संभवतः भाटी प्रतापसिंह पोकरण को लेकर काफी जज्बाती हो गया थां अधिकांश राजपूत सरदारों और अन्य व्यक्तियों के गढ़ से पयलन करने के बाद भी 15-16 व्यक्तियों के सहयोग से उसने पोकरण गढ़ नहीं छोड़ने की जिद पकड़ ली। जोधपुर की सेना के सेनापतियों और रावल सबलसिंह ने उसे पोकरण गढ़ से बाहर निकलने के अनेक मौके भी दिए। वह लडकर काम आने का आमादा था जबकि हकीकत में इसका कोई ओचितय नहीं था। युद्ध जीतने के लिए लड़े जाते है न कि जबरदस्ती अपना जीवन झोकने के लिए। यदि उसकी इच्छा युद्ध करने ही की थी, तो भी उसे पोकरणगढ़ से पलायन करके जैसलमेर की सेना के सहयोग से मारवाड़ की सेना से युद्ध करता । निश्चित रूप से भाटी प्रतापसिंह वीर था किन्तु उसने अपने इस गुण का पूर्ण सुदपयोग नहीं किया।
जोधपुर की सेना की ओर से राठौड़ राजसिंह मारा गया और 10 व्यक्ति घायल हुए।106 पोकरण पर जोधपुर की सेनाओं के अधिकार करने के पश्चातृ अगले दिन वहां महाराज जसवंतसिंह का राज्याधिकार स्थापित हो गई। इसके पश्चातृ जोधपुर की सेना के साथ रामचन्द्र के विरूद्ध जैसलमेर पर आक्रामण करने के लिए रवाना हुआ। जैसे ही इस बात की सूचना रावल रामचन्द्र को मिली उसयने सबलसिंह को कहलवाया कि उसे अपना माल लेकर गढ में से निकलने दें । वह देरावर चला जाएगा। सबलसिंह ने उसकी स्वीकृति दे दी तथा जैसलमेर जाकर राज्य की बागड़ोर संभाली।
जैसलमेर की ख्यात तथा तवारीख जैसलमेर में रावल सबलसिंह के राज्य प्राप्ति का भिन्न विवरण मिलता है। इनके अनुसार सबलसिंह मुगल बादशाह का वह शाही फरमान लेकर जैसलमेर पहुंचा जिसमें उसे जैसलमेर का टीका दिए जाने का उल्लेख था। संभवतः जैसलमेर वालों ने उसे पकड़ना चाहा होगा। किन्तु वह बचकर किशनगढ़ पुनः लौटने में सफल रहा। जैसलमेर के भाटी सरदार इस घटना के कुछ समय पश्चात् सबलसिंह को लेने किशनगढ़ गए। लौटते हुए मार्ग पर मारवाड़ की सेना ने उनका रास्ता रोक लिया। तब सबलसिंह ने यह झूठ कहा कि हम जैसलमेर हस्तगत करने नहीं बल्कि स्वांगिया देवी की यात्रा करने जा रहे है। जब जोधपुर के सरदारों ने उनकी तलाशी ली। तलाशी में उन्हें बादशाह का फरमान मिला। तब सबलसिंह ने यह स्वीकार कर लिया कि वे जैसलमेर पर अधिकार करने जा रहे है। मारवाड के सरदारों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार करना पड़ा। जैसलमेर की ख्यात ओर तवारीख पोकरण के यह उपर्युक्त विवरण नितान्त काल्पनिक है क्योंकि मुंहता नैणसी जो इस सम्पूर्ण अभियान में काफी सक्रिय था अपनी ख्यात और मारवाड़ परगना रा विगत में इस घटना का कहीं भी वर्णन नहीं करता है।
अब सबलसिंह चूंकि पोकरा के इस हाथ से निकल जाने से प्रसन्न नहीं थी और अपने जीवन की इस घटना को एक कलंक मानता था। इसी वजह से उसने अथवा उसके उŸाराधिकारियों ने इस प्रकार की मिथ्या घटना लिखवाई।
इधर जोधपुर में महाराजा गजसिंह की मृत्योपरान्त महाराज जसवंतसिंह को राज्य की टीका हुआ। पूर्व के सामान सातलमेर (पोकरण) को परगना 6,00,000 छः लाख दाम अर्थात् 14,000 रूपए जसवंतसिंह को मिला91। महारावल मनोहरदास की मृत्यु का समाचार मिलने के समय महाराज जसवंत सिंह रणथम्भोर के गोड़ो के यहां विवाह करने गया हुआ था। उसकी रानी मनभावती ने शाहजहाॅ से निवेदन किया कि ‘‘पोकरण जागीर में दर्ज है जिस पर अभी तक अमल नहीं हो सकता है। इतने दिन हमारे समबन्धी महारावल मनोहरदास का वहां अधिकार था, इस कारण हमने कुछ नहीं कहा। अब रामचन्द्र गद्दी पर बैठा जिससे हमारा कोई लगाव नहीं है। अगर आपकी स्वीकृति मिल जाए तो हम पोकरण पर अधिकार कर लें।’’92
रानी मनभावती93 के पुत्र के उŸार में बादशाह शाहजहाँ ने कहा ‘‘आप चाहो तो जैसलमेर आपको दे दें। आपको अपने पोकरण पर अधिकार करने से कौन रोकता है। कुछ समय पश्चात् महाराजा जसवंतसिंह ने बादशाह से अर्ज किया - ‘‘जैसलमेर भाटियों का मूल वतन है इसलिए हमे इससे कोई वास्ता नहीं है। पोकरण की जागीर जोधपुर के राठौड़ो की रही है और आपके दफ्तर में भी इसका अंकन बराबर किया जाता रहा है परन्तु इसका उपयोग जैसलमेर के भाटी करते आए है। अगर आप पोकरण का फरमान कर दें तो भाटियों के विरूद्ध सेना भेजने की कार्यवाही की जाय। तब बादशाह ने इसके लिए स्वीकृति प्रदान कर दीं।94
महाराजा जसवंतसिंह ने पोकरण हस्तगत करने के लिए अप्रेल (सं. 1706, वैशाख सुदी 6) 1650 ई. को जोधपुर के लिए प्रस्थान किया। इसके कुछ समय पूर्व ही उसकी भटियाणी रानी जसरूप दे (महारावल मनोहरदास की पुत्री) बुधवार अप्रेल 10, 1650 ई. (वि.सं. वैशाख वदि 4-5) की रात्रि में मृत्यु हुई थी। श्रावण माह में सार्टूल और बिहारीदास शाही फरमान लेकर जैसलमेर के लिए रवाना हुए। उन्होंने वहां पहुंचकर रावल रामचन्द्र को फरमान दिखाया। सभी भाटियों ने मिलकर इसपर विचार-विमर्श किया और चार दिन बाद उन्होंने कहा कि गढ़ मांगने से नहीं मिलता है। दस भाटियों के बलिदन देने के बाद ही पोकरण उन्हें पोकरण मिलेगा। सार्दुल और बिहारीदास जोधपुर लौट आए और महाराजा को इसकी जानकारी दी।95
इस प्रकार जब शाही फरमान जारी करने के बाद भी भाटी पोकरण देने को राजी नहीं हुए तब महाराजा ने एक विशाल सेना पोकरण के भाटियों के विरूद्ध भेजने का निश्चय किया। फौज के तीन हिस्से किए गए तथा इसे राठौड़ गोपालदास (रींया सुन्दरदास मेड़तिया का पुत्र) चम्पावल विट्ठलदास (पाली गोपालदास चंपावत का पुत्र) और अग्रीम सेना राठौड़ नाहर खां (आसयोप राजसिंह कूम्पावत का पुत्र) व नैणसी ने किया। इस प्रकार सब मिलाकर दो हजार अश्वरोही और चार हजार पैदल सेना थी।96 इन तीनों टुकडियों को एक-एक कर क्रमश5 1650 ई. की (सितम्बर) आसोज वदि 2, 3 और 7 को रवाना किया गया। पहली टुकडी ने आसोज सुदी 7 को पोकरण के खारा गांव में पहंुचकर डेरा डाला।97
इस बीच राजा रूपसिंह (किशनगढ़) ने सबलसिंह की बादशाह शाहजहाॅ से भेट करवाई। राजा रूपसिंह ने रावल मनोहरदास के उŸाराधिकारी के रूप में सबलसिंह को प्रस्तुत किया और बादशाह के चरण स्पर्श करवाए। बादशाह ने तब सबलसिंह को जैसलमेर का टीका देकर विदा किया।98 तत्पश्चात् सबलसिंह ने महाराजा जसवंत सिंह से भेंट कर मदद की याचना की। महाराज जसवंत सिंह ने सबलसिंह के लिए सेना और खर्चे इत्यादि की व्यवस्था कर उसे जैसलमेर दिलाने का आश्वासन देते हुए कहा कि वह फलौदी पहुंचे वहां जोधपुर की सेना उसकी मदद करेगी। तब सबलसिंह ने भी राजा जसवंतसिंह को फलोदी का प्रान्त मय पोकरण किले के लौटा देने का वाद कर लिया।99
सबलसिंह कुछ दिन फलौदी रहा। उसने 700-800 योद्धाओं के साथ फलोदी के ग्राम कुण्डल के भोजासर तालाब पर शिविर लगाया। इधर भाटियों की एक सेना जिसमें अधिकांशतः केल्हण भाटी थे, पोकरण की सेना के साथ सबलसिंह का मुकाबला करने जवण री तलाई सेखासर में डारे डाले बैठी थी। दोनो पक्षों में युद्ध हुआ जिसमें सबलसिंह विजयी रहा।100
इस विजय के बाद भी सबलसिंह ने तत्काल जैसलमेर पर आक्रमण करना अच्छा नहीं समझा। अपना पक्ष और मजबूत करने के लिए उसने पोकरण पर चढ़ाई करने वाली जोधपुर की सेना के साथ सम्मिलित होने का निश्चय किा और खरा गांव का डेरा जहाॅ महाराजा की सेना रूकी हुई थी वहीं 500-600 योद्धाओं के साथ जा मिला। पोकरण क्षेत्र में सबलसिंह ने लूटमार की। उसे सूचना मिली कि पोकरण के गढ़ में डेढ़ हजार मनुष्य थे। जोधपुर की सेना के नजदीक आने पर अनेक व्यक्ति गढ़ से चुपचाप रात्रि में निकल गए और केवल 350 व्यक्ति ही रह गए।101 जोधपुर की सेना जिसमें 1500 सवार और 2500 पैदल थे।102 पोकरण से आधा कोस की दूरी पर डूगरसर तालाब पर जोधपुर की सेनाओं ने पड़ाव किया और आसोद सुद 15 (29 सितम्बर, 1650 ई.) को पोकरण गढ़ पर घेरा डाला । इस दिन प्रमुख सरदारों की देखरेख में तोपो से गढ़ पर आक्रमण किया गया। शहर पर अधिकार करके गढ़ के द्वारा के समक्ष मोर्चा लगाया गया। गढ़ में मौजूद भाटियों की सेना गोलियों और तीरों से शत्रुओं पर हमला किया किन्तु जोधपुर की सेना ने मोर्चा इस प्रकार से लगा रखा था जिससे इनका कोई सैनिक हताहत नहीं हुआ। इस प्रकार तीन दिन तक दोनो पक्षों में आक्रमण-प्रत्याक्रमा का दौर चलता रहा। गढ़ में मौजूद भाटियों ने सबलसिंह को कहलवाया कि ‘‘हमारी बाहं पकड़ कर बाहर निकाले जाने पर ही हम बाहर जाएंगे।’’ तब सबलसिंह ने जोधपुर की सेना के सरदारों-राठौड़ गोपालदास, बीठलदास और नाहरखान से निवेदन किया कि ‘‘ऐसे तो कोई भाटी गढ़ से बाहर नहीं आएगा। आप लोग मुझे दोन दिन का समय दो। किन्तु सबलसिंह भाटियों से गढ समर्पित करवाने में असफल रहा।103
5 अक्टूबर, 1650 ईं को (काती वद 6) को जोधपुर की सेना के 100 आदमी गढ में जा घुसे। इसकी सूचना मिलते ही अनेक व्यक्ति गढ़ छोड कर भाग खड़े हुए। केवल 15 या 16 व्यक्ति ही अब गढ़ में रह गए थे। गोपालदास, बिठलदास एवं नाहरखान गढ के अधिकांश व्यक्तियों के पलायन की जानकारी मिली तो उन्होंने सबलसिंह को कहलाया कि या तो प्रतापसिंह (पोकरण गढ़ में भाटियों का प्रमुख सरदार) को बाहर निकालों नहीं तो हमारे हाथों वह मारा जएगा।’’ सबलसिंह और मारवाड की सेना के तीनो सरदार प्रतापसिंह के वृद्ध होने के विषय में जानते थे इसी वजह से वह प्रतापसिंह को सकुशल बच निकलने का एक और मोका देना चाहते थे। तब सबलसिंह ने कहलाया कि प्रातः वह उसये गढ़ से बाहर निकाल देगा। किन्तु मारवाड़ के सेनानायक इससे सन्तुष्ट नहीं हुए क्योंकि वे रात में ही गढ पर पूर्ण अधिकार कर लेने के लिए तत्पर थे। रात्रि में ही बिठलदास ले कार्यवाही प्रारंभ कर दी। भाटी प्रतापसिंह को अततः अपने साथियों के साथ बाहर आना पड़ा। देहरा पोल के समीप हुए युद्ध में भाटी प्रतापसिंह अपने अनेक वयोवृद्ध साथियों के साथ लड़ते हुए काम आया।104 इस युद्ध में मारे जाने वाले प्रमुख भाटी -
1. भाटी प्रतापसिंह रावलोत - 75 वर्ष
2. भाटी का वेणीदास - 60 वर्ष
3. भाटी एका गोकलदास - 50 वर्ष
4. भाटी रूपसी - 65 वर्ष
5. भाटी सादो - 60 वर्ष
6. राठौड़ सादूल - 50 वर्ष
7. भाटी लालो - 38 वर्ष
8. भाटी जसो - 40 वर्ष
9. गौड़ रामो - 64 वर्ष
10. चैहान लखो - 60 वर्ष
11. तुरक जैमल कच्छवाह - 80 वर्ष
12. राठौड़ कुसलचन्द समेचा - 70 वर्ष105
पोकरण गढ़ में मौजूद भाटियों का इस तरह मुट्ठी भर लोगों के साथ लड़ना हमारी राय में नितांत बेवकुफी और मूर्खता वाला कदम था। यह कदम आम्मदाह के सदृश था। संभवतः भाटी प्रतापसिंह पोकरण को लेकर काफी जज्बाती हो गया थां अधिकांश राजपूत सरदारों और अन्य व्यक्तियों के गढ़ से पयलन करने के बाद भी 15-16 व्यक्तियों के सहयोग से उसने पोकरण गढ़ नहीं छोड़ने की जिद पकड़ ली। जोधपुर की सेना के सेनापतियों और रावल सबलसिंह ने उसे पोकरण गढ़ से बाहर निकलने के अनेक मौके भी दिए। वह लडकर काम आने का आमादा था जबकि हकीकत में इसका कोई ओचितय नहीं था। युद्ध जीतने के लिए लड़े जाते है न कि जबरदस्ती अपना जीवन झोकने के लिए। यदि उसकी इच्छा युद्ध करने ही की थी, तो भी उसे पोकरणगढ़ से पलायन करके जैसलमेर की सेना के सहयोग से मारवाड़ की सेना से युद्ध करता । निश्चित रूप से भाटी प्रतापसिंह वीर था किन्तु उसने अपने इस गुण का पूर्ण सुदपयोग नहीं किया।
जोधपुर की सेना की ओर से राठौड़ राजसिंह मारा गया और 10 व्यक्ति घायल हुए।106 पोकरण पर जोधपुर की सेनाओं के अधिकार करने के पश्चातृ अगले दिन वहां महाराज जसवंतसिंह का राज्याधिकार स्थापित हो गई। इसके पश्चातृ जोधपुर की सेना के साथ रामचन्द्र के विरूद्ध जैसलमेर पर आक्रामण करने के लिए रवाना हुआ। जैसे ही इस बात की सूचना रावल रामचन्द्र को मिली उसयने सबलसिंह को कहलवाया कि उसे अपना माल लेकर गढ में से निकलने दें । वह देरावर चला जाएगा। सबलसिंह ने उसकी स्वीकृति दे दी तथा जैसलमेर जाकर राज्य की बागड़ोर संभाली।
जैसलमेर की ख्यात तथा तवारीख जैसलमेर में रावल सबलसिंह के राज्य प्राप्ति का भिन्न विवरण मिलता है। इनके अनुसार सबलसिंह मुगल बादशाह का वह शाही फरमान लेकर जैसलमेर पहुंचा जिसमें उसे जैसलमेर का टीका दिए जाने का उल्लेख था। संभवतः जैसलमेर वालों ने उसे पकड़ना चाहा होगा। किन्तु वह बचकर किशनगढ़ पुनः लौटने में सफल रहा। जैसलमेर के भाटी सरदार इस घटना के कुछ समय पश्चात् सबलसिंह को लेने किशनगढ़ गए। लौटते हुए मार्ग पर मारवाड़ की सेना ने उनका रास्ता रोक लिया। तब सबलसिंह ने यह झूठ कहा कि हम जैसलमेर हस्तगत करने नहीं बल्कि स्वांगिया देवी की यात्रा करने जा रहे है। जब जोधपुर के सरदारों ने उनकी तलाशी ली। तलाशी में उन्हें बादशाह का फरमान मिला। तब सबलसिंह ने यह स्वीकार कर लिया कि वे जैसलमेर पर अधिकार करने जा रहे है। मारवाड के सरदारों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार करना पड़ा। जैसलमेर की ख्यात ओर तवारीख पोकरण के यह उपर्युक्त विवरण नितान्त काल्पनिक है क्योंकि मुंहता नैणसी जो इस सम्पूर्ण अभियान में काफी सक्रिय था अपनी ख्यात और मारवाड़ परगना रा विगत में इस घटना का कहीं भी वर्णन नहीं करता है।
अब सबलसिंह चूंकि पोकरा के इस हाथ से निकल जाने से प्रसन्न नहीं थी और अपने जीवन की इस घटना को एक कलंक मानता था। इसी वजह से उसने अथवा उसके उŸाराधिकारियों ने इस प्रकार की मिथ्या घटना लिखवाई।
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