Friday, 6 January 2017

ठिकाणेदारों के विशेषाधिकार

ठिकाणेदारों के विशेषाधिकार-
राजस्थान के ठिकाणेदार स्वयं को कुलीय राज्यों का संरक्षक मानते हुए महत्वपूर्ण युद्धकालीन और शान्तिकालीन सेवाएं प्रदान किया करते थे। वे शासकों को महत्वपूर्ण ओर सामान्य विषयों पर अपनी इच्छा से अथवा शासक द्वारा उनकी राय पूछे जाने पर सलाह दिया करते थे।71 सलाह को माने जाने अथवा नहीं माने जाने को ठिकाणेदार अपनी प्रतिष्ठा  से जोड़ते थे। महत्वपूर्ण मुद्दो पर सलाह नहीं माने जाने पर ठिकाणेदार नाराज हो जाया करते थे एवं अपने ठिकाणों पर जा बैठते थे। महाराजा विजयसिंह के शासनकाल में राज्य का प्रधान पोकरण के ठाकुर देवीसिंह अपनी निरन्तर उपेक्षा किए जाने पर अपने ठिकाणे जा बैठा।72 उसे काफी मुश्किल से मनाया जा सका। ऐसी स्थिति में शासक ठिकाणेदारों के महत्व को जताने के लिए उन्हें उनके पद और हैसियत के अनुसार सम्मान  देने के लिए अनेक रस्मतों का पालन करता था।
मारवाड़ राज्य में डाबी एवं जीवणी मिसल वाले ठिकाणेदारों और दूसरे महत्वपपूर्ण ठिकाणेदारों को राजदरबार में बुलाने के लिए विशेष रूक्का महाराजा की तरफ से भेजा जाता था। राजदरबार में महाराज उनका सम्मन उनके पद के अनुसार करता था। खास रूक्के सिरायत सरदारों को विवाह समारोह में भाग लेने, विशेष दरबारों में सम्मिलित होने तथा विपिŸा के समय राज्य की रक्षा हेतु बुलाने के लिए भेजाजाता था। खास  रूक्का नहीं भेजने पर ताजीमी सरदार दरबार नहीं आते थे।73 लौटते समय उन्हें महाराजा से स्वीकृति प्राप्त करनी पडती थी। इसके लिए वे किले में महाराजा के समक्ष उपस्थित होते थे, जहां उन्हें सीख सिरोपाव प्राप्त होता था। सिरायत या ताजीमी सरदारों को लिखे जाने वाले पत्र महाराजा के निजी सचिव द्वारा तैयार किए जाते थे। इस पर महाराजा के हस्ताक्षर होते थे तथा निजी मुद्रिका से सील किया जाता था। निम्न दर्जे के सरदारों को भेजे गए खास रूक्के पर राज्य के मंत्री अपने पास रखी राज्य की सील लगाता था।74
छह प्रमुख पर्वो पर यथा-आखा तीज, दशहरा, दिवाली, होली, रक्षाबन्धन तथा शासक के जन्म दिवस पर एक भव्य दरबार आयोजित होता था।75 सरदार अपनी वसीयता के अनुसार एक साथ बैठकर भोजन करते थे। तत्पश्चात् महाराज की नजर निछरावल की जाती थी।76 ठिकाणेदार के पुत्र होने अथवा विवाह समारोह के अवसर पर महाराज स्वंय ठाकुर के निवास स्थान पर जाता था तथा बधाई देने के अलावा हाथी, घोडा या पालकी का सिरोपाव (सम्मान सूचक वस्त्र) दिया जाता था। ठाकुर के परिवार की स्त्रियों को भी इस प्रकार के सम्मान सूचक वस्त्र प्रदान किए जाते थे।76 ठाकुरों और उनकी स्त्रियों को ही इस प्रकार सम्मान होने पर स्वर्ण-आभूषण पहनने का अधिकार  था, न कि सभी को।77
अनेक ठिकाणेदारों को बेतलबी सनद दिए जाते थे जिसके अन्तर्गत कुछ गांवों की आय को इनाम स्वरूप शासक को दिया जाता था। नए उŸाराधिकारी ठिकाणेदार को इन सनदों का नवीनीकरण करवाना आवश्यक था78। कैफीयत विशेषाधिकार के अन्तर्गत ताजीमी सरदारों को न्यायालयों में लगाई जाने वाली दस्तास्तो पर टिकट लगाने की छूट थी।79 ताजीमी सरदारों को राज्य के सामान्य न्यायालय में उपस्थिति से छूट थी और शासक की पूर्व अनुमति के अभाव में उन पर अभियोग नहीं लगाया जा सकता था। इन्हें न्यायालयों में गवाह के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता था केवल किसी समिति के समक्ष ही उनसे पूछताछ की जा सकती थी। प्रथम श्रेणी ताजीमी सरदार पर यदि कोई अभियोग चलाया जा रहा हो तो भी उसे न्यायालय में कुर्सी दी जाती थी।80 बागावास ठिकाण के मजिस्ट्रेट पद पर स्वयं ठाकुर रहा करता था और मारपीट के मामले में चौरी, डकैती के मामले स्वयं अपनी सूझबूझ से निपटाया करता था। कुछ ठिकाणेदारों जैसे कि धाणेराव ठाकुर को रियासत की ओर से दीवानी मामलो में 1000 रूपए तक के मुकदमे सुनने तथा फौजदारी मामलो में 6 माह की कैद और 300 रूप्ए तक का जुर्माना करने का अधिकार प्राप्त था।81 किन्तु सरदार किसी को भी मृत्युदण्ड देने का अधिकार नहीं रखते थे।82
ताजीमी ठिकाणेदार अपने ठिकाणे के एक प्रकार से शासक थे किन्तु सार्वभौम नहीं थे। उनका अपने क्षेत्र की जमीनों पर अधिकार नहीं था। यूरोपीय सामंतीय व्यवस्था के विपरीत यहां कृषक स्वतंत्र थे। ठाकुरों को अपने ठिकाणे के प्रशासन से सम्बन्धित पूर्ण अधिकार और स्वतंत्रता प्राप्त थी तथा राज्य का हस्तक्षेप काफी कम था। वह अपने क्षेत्र में लगान व कर वसूली तथा न्याय से सम्बन्धित प्रशासन करता था। दरबार में वह वर्ष के कुछ निश्चित दिनों तक और विशेष मौको पर ही रहता था।83 प्राकृतिक संतान नहीं होने पर गोद लेने तथा उŸाराधिकारी की स्वीकृति शासक से प्राप्त होनी अति आवश्यक थी। वर्ष 1895 ई. में पोकरण के ठाकुर की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई जिसने उŸाराधिकारी से सम्बन्धित नियम निश्चित किए।84 पोकरण के ठाकुर, बगडी के ठाकुर तथा मुन्दियाड के बारहठ चरणों को वंशानुगत विशेषाधिकार प्राप्त थे। महाराजा मानसिंह के राज्यकाल तक पोकरण के ठाकुर को वंशानुगत प्रधानगी प्राप्त थी, ठाकुर को हाथी के हौदे पर पीछे की जगह पर बैठने और महाराज के मोरछल (चंवर) करने का विशेषााकार था। उसे मजल और दुनाड़ा गांव का राजस्व प्रधानजी पद संभालने के उपलक्ष में दिया जाता था। दरबार के समय नजर निछरावल सर्वप्रथम करने का विशेषाधिकार भी पोकरण ठाकुर को ही प्राप्त था।85 बगड़ी के ठाकुर को नए महाराजा के गद्दी पर बैठन के समय अपने अंगूठे के रक्त से टीका करने और खड़ग-बन्दी विशेषाधिकार महाराजा के सूजा के समय से प्रापत थी। मुन्दियाड़ का बारहठ (चारण) इस अवसर पर राठौड़ो की वंशावली कहकर सुनाता था। इस अवसर पर उसे हाथी सिशेपाव दिया जाता था।86 ठिकाणेदारों को राज्य की ओर से अपने ठिकाने की सील का अधिकार प्राप्त था। पोकरण, आसोप, आऊवा, रायपुर, भाड़ाजून, निभाज, रास, आलनियावास, खैखा के ठाकुरों को सील अथवा थेबा रखने का अधिकार था।87 कुचामन और बुडसू ठाकुरों को सिक्के ढालने का विशेषाधिकार प्राप्त था।88  कुछ प्रथम श्रेणी ठिकाणेदारों को शराब की भट्टियाँ निकालने का भी विशेष अधिकार प्रापत था। इसके अलावा अफीम की खेती करने का भी राज्य की ओर से अधिकार मिला करता था। ठिकाणा बागावास को अफीम का रियायती लाइसेंस राज्य की ओर से मिला हुआ था।89
महाराजा द्वारा ठिकाणेदारों को उनके मूल जागीर पट्टे के अतिरिक्त भी गांव दिए जाते थे जिन्हें ‘बघारा’ कहा जाता था। बघारा पट्टा महाराजा की इच्छा रहने तक ठिकाणेदार के पास रहता था। महाराज द्वारा प्रसनन होने पर ठिकाणे के कामदारों को भी जागीर पट्टे वंशानुगत आधार पर दिए जाते थे तथा इन से हुकुमनामा, रेख, चाकरी भी नहीं ली जाती थी।90 भोमिचारा नामक ठिकाणेदारों फौजबल था खिचड़ी-लाग अथवा हुकुमत-लाग जली जाती थी जो मूल्य में काफी छोटी होती थी। इनमें न कोई उŸाराधिकारी को पट्टा जारी किया जाता था।9़1
ठिकाणेदारों को उनकी श्रेणी व पद के अनुसार लावजमा प्रदान किया जाता था। लावजमा के अन्तर्गत नक्कारा, निशान, चंवर-चंवरी, सोने-चांदी की छड़ी इत्यादि आते थे।92
सिरायत के ठाकुरों की मृत्यु पर उनके सम्मान में राजकीय शोक रखा जाता था। जोधपुर के किले पर एक समय नौबल व शहनाई बजाना बंद रखा जाता था।93 शोक कितने दिन रखा जाना था यह पूर्णतया महाराजा पर निर्भर करता था। जब दिवंगत यात्रा पर जाता तब महाराजा उसके निवास स्थान या हवेली पर उसे सांत्वना देने जाता था। नया उŸाराधिकारी ठाकुर सफेद पगड़ी पहन कर महाराज का स्वागत करता था तथा उसे दो घोड़े भेंट करता था।94 जिसे महाराज सामान्यतया लौटा देते थे। तत्पश्चात् महाराजा ठाकुर को एक ‘एक रंगा का पेचा’ भेजा करता था जिसमें स्वर्ण जरी युक्त पॉच स्वर्ण मोलिया या मोहुर पेटर्न बना होता था। ये रंगीन पगड़ी ठाकुर के गांव में भी भेजी जा सकती थी।95
राज्य की ओर से ठिकाणेदारों को दिए गए विशेषाधिकारों का वे दुरुपयोग करके सामान्य जन की व्यक्ति स्वतंत्रता का हनन या अन्याय न करने लगे, इस ओर भी ध्यान दिया गया।96 जिन ठाकुरों ने अपने विशेषाधिकारों का हनन करके अन्यायापूर्ण कार्य किए उनके खिलाफ सख्त कार्यवाही की गई। 1915 ई. में कुरडी के ठाकुर द्वारा एक ब्राह्मण की पिटाई करने पर पीडित महाराज के समक्ष फरियाद की। महाराज ने ठाकुर से स्पष्टीकरण मांगा किन्तु उसने कोई जवाब नहीं दिया। मामले की सुनवाई हुई । शिकायत सही पाई गई। ठाकुर को दो वर्ष कैद की सजा हुई तथा जांगीर पांच वर्ष के लिए राज्य प्रबंध के सुपुर्द कर दिया गया तथा प्रार्थी को एक हजार रूपए देने का आदेश दिया।97 दुगोली ठाकुर द्वारा लुटेरों की सहायता करने की शिकायत सही पाए जाने पर उसे छः माह कैद और 500 रूपए जुर्माना लगाया गया।98 इसी प्रकार भीकमकोर पर तलवार से हमला कर उसे घायल कर दिया। 30 जुलाई, 1945 को ठाकुर के सभी विशेषाधिकार और ताजीम छीन ली गई तथा ठिकाणे को कोर्ट ऑफ वार्डस के सुपुर्द कर उस पर एक साधारण अपराधी के समान अभियोग चलाया गया।99 बागावास ठाकुर द्वारा पशुओं के लिए नियत तालाब सम्बन्धी अधिकार  का हनन किया तो उसका यह अधिकार छीन लिया गया।100 मिठडी ठाकुर द्वारा जाली सिक्के बनाने और मुद्रा धोखाधड़ी करने पर उसके ताजीम और कुरब छीन लिए गए101 तथा उसके कुछ गांव खालसा कर दिए गए101 । अपने इस निर्णय में महाराज ने कानून के शासन को लागू किया।
ठिकाणेदारों के कत्त र्व्य -
राज्य की विभिन्न प्रशसनिक सैनिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शासक ठिकाणेदारों से विभिन्न प्रकार के करों की वसूली करता था। करों की वसूली से जहां एक ओर शासक की सार्वभौमिकता स्थापित होती थी। वहीं दूसरी ओर ठिकाणों पर अंकुश लगाने में भी करारोपण सहायक था।


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