मुगलकाल में शासक और ठिकाणेदार के परस्पर सम्बन्ध
मुगल सम्राट अकबर (1555-1607 ई) के शासन काल में मेवाड़ को छोड़कर एक-एक कर सभी राजपूत राज्यों ने मुगल अधीनता स्वीकार कर ली। अकबर ने राजपूत राजाओं पर अपना पूर्ण प्रभुत्व स्थापित करने के उद्देश्य से उŸाराधिकार मामलों में हस्तक्षेप किया और अपने कृपापात्रों को राजा बनाया। अकबर ने उŸाराधिकारियों ने भी उसकी नीति को जारी रखा और वे राजपूत राज्यों पर अपना आधिपत्य जमाये रखने में सफल भी रहे। मुगल परस्त राजपूत राजाओं को अब अपने ठिकाणेदारों की पहले के समान आवश्यकता नहीं रही क्योंकि सुरक्षा शान्ति और व्यवस्था के लिए अब उन्हें मुगल सेना का सहयेग कभी भी प्राप्त हो सकता था। इन परिस्थितियें में ठिकाणेदारों की राजनीतिक स्थिति में गिरावट आना स्वाभाविक था। अब ठिकाणेदारों का अपने राजाओं के साथ सम्बन्ध भाई-बन्धु का न रहकर स्वामी ओर सेवक का होने लगा।34 उनकी शक्तिओं और अधिकारों पर अंकुश लगाया जाने लगा। साथ ही मुगल शासको की भांति राजपूत राजाओं ने अपने सामन्तों की अलग-अलग श्रेणियाँ भी निर्धारित कर दी। सामन्तों पर नये-नये करों को लागू किया गया। उनके उŸाराधिकार के मामले में भी अंकुश लगाया गया। इसके साथ ही राजपूत राजाओं ने अपने सामन्तों को अपने अधीन सैनिक सहयोगियों के रूप में मानना प्रारंभ कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि सामन्तों की स्थिति बराबर से गिरकर निम्न स्तर पर पहुंच गयी। यदि कोई ठिकाणेदार विद्रोह करता तो राजा मुगल सेना की मदद से उसे कुचल देने की स्थिति में था। अकबर की अधीनता मानने वाला मारवाड़ का मोटा राजा उदयसिंह ने उन सभी ठिकाणेदारों को दण्ड दिया जिन्होंने उसके प्रतिद्वन्दी भाई चन्द्रसेन का साथ दिया था।35 उसने प्रभावशाली मेड़तियां सरदारों की अधिकांश ठिकाणों को खालसा घोषित कर दिय। उदावतों से जैतावरण छीन लिया तथा चांपावतों की भी बहुत सी ठिकाणों को खालसा मान लिया।36 मारवाड़ के नरेशों ने ठिकाणेदारों पर विभिन कर लगाने के साथ उनके ठिकाणों का मूल्याकंन कर आय के अनुपात से सैनिक बल निर्धारित किया तथा उन पर खड़गबन्धी (तलवार बधाई) का दस्तूर तथा हुकुमनामा अथवा नजराने की प्रथाएं भी प्रारंभ हो गई।37 अतः ठिकाणेदारों ने बाध्य होकर अपनी निम्न स्थिति को स्वीकार किया क्योंकि राजपूत राजाओं को मुगल संरक्षण प्राप्त था।
मुगल शक्ति के पतन के साथ ही राजपूत शासन में परम्परागत कुलीय संघर्ष पुनः प्रारंभ हो गया। अब परिस्थितियों वश राजपूत राजाओं को पुनः ठिकाणदारों केसहयोग की आवश्यक अनुभव हुई। अत सामन्तों ने भी इस स्थिति का लाभ उठाते हुए पुनः अपने प्रभाव को स्थापित करने का प्रयास किया।38 सामन्त पूर्व की भांति उत्तरधिकारी के मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे।39 किन्तु राजपूत राजाओं ने अपनी निरंकुशता एवं अधिकारों को बनाये रखने के लिए मराठों से सैनिक सहयोग क्रय करना प्रारंभ कर दिया40 क्योंकि वे ठिकाणेदारों के अत्यधिक प्रभाव से मुक्त होने के इच्छुक थे। किन्तु बाद में यह मराठा सहयोग राजपूतों के आर्थिक एवं राजनीतिक हित में हानिकारक सिद्ध हुआ और अन्त में राजपूतों ने ब्रिटिश संरक्षक को स्वीकार करने में अपनी भलाई समझी। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने राजपूतों को प्रत्येक क्षेत्र में निर्बल बना दिया।41
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