ठिकाणा व्यवस्था का विकास
राजस्थान में ठिकाणा पद्धति का उदय कब और किस प्रकार हुआ। इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है। संभवतः राजपूत राज्यों की उत्प ति के साथ ही यह पद्धति स्थापित हो गई थी। यह पद्धति का संबंध सैनिक व्यवस्था और संगठन के साथ था। राज्य के महत्वपूर्ण और विश्वसनीय पद स्वकुलीय सरदारों को दिए जाते थे। युद्ध के अवसर पर सरदार अपने राज्य की सहायता करते थे। उनमें यह भावना निहित थी कि वे अपनी पैतृक सम्प ति की सामूहिक रूप से रक्षा करने हेतु ऐसा कर रहे है।17 इन सरदारों के जीवन-यापन के लिए उन्हें भू-क्षेत्र दिए जाते थे। महाराजा अभयसिंह के शासन काल में मारवाड़ में जागीर शब्द का प्रचलन नहीं था। अतः जागीर को सनद के रूप में प्रदान किया जाता था। इसे गांव देना या पट्टा देना कहते थे। कालान्तर में इसके लिए ‘जागीर-पट्टे’ शब्द का प्रचलन सामान्य हो गया। जब ये पट्टे पैतृक स्थिति प्राप्त कर लेते तो जागीर पट्टे का क्षेत्र ठिकाणे की श्रेणी में आ जाता था।
यदि किसी अन्य वंश में पूर्व शासक के अधिकांश क्षेत्र पर अधिकार कर लिया हो तो पूर्व शासक के पास बचा क्षेत्र ठिकाणे के रूप में विकसित हो जाता था जैसे कि जालोरा में सेणा ठिकाणा। शासकों द्वारा अपने पुत्रों को दिए गए पट्टे के गांव भी ठिकाणे की श्रेणी में आ जाते थे। इसी तरह भाई-बंट के आधार पर विभाजित भू-भाग भी ठिकाणे का स्तर प्राप्त कर लेते थे जैसे कि नगर व गुड़ा ठिकाणे इसके अतिरिक्त शासक भी अपने सरदारों द्वारा दी गई विशिष्ट सेवाओं के प्रतिफल में कुछ गांव ठिकाणे के रूप् में दे देता था। शासक द्वारा नाराज हो जाने पर या गंभीर अपराध करने ठिकाणा जब्त भी कर लिया जाता था। ठिकाणे पुनः आवंटित करने से पूर्व पेशकसी वसूली की जाती थी। ठिकाणेदारों को अपने क्षेत्र से सम्बन्धित प्रशासनिक-आर्थिक एवं न्यायिक अधिकार दिए जाते थे।19
स्वकुलीय सामन्त जो अपनी-अपनी खांप के ‘‘पाटवी’’ थे, अपने अधीन क्षेत्र में एकाधिकार प्राप्त शासक के रूप में आचरण करते थे। ये ठिकाणेदार सम्मानसूचक पद्धतियॉ, यथा रावत, राव रावत राजा, धारण करते थे। सामान्यतः वे ‘‘ठाकुर’’ कहलाते थे। ठिकाणेदार कई खांपो में विभाजित थे। प्रत्येक खांप का एक मुखिया या पाटवी होता था। ठाकुर भी अपने भाई-बेटों के जीवन निर्वाह के लिए अपनी जागीर में से भूमि वितरित करता था। ठाकुर अपने छुट-भाईयों की मदद से अपने ठिकाणे में शान्ति व सुव्यवस्था कायम रखने सम्बन्धी कŸार्व्यों का पालन करता था। ये छुट-भाई अपने ‘‘पाटवी’’ के प्रति पूर्ण निष्ठावान होते थे।20 ठिकाणे की जमीयत बिरादरी की सेना इन्ही छुट-भाईयों की सैनिक टुकड़ियों में बनी होती थी और राज्य के विभिन्न ठिकाणेदारों की सैनिक टुकड़ियों को मिलाकर राजकीय सेना का गठन होता था जिसका प्रयोग देश की रक्षार्थ तथा उसकी सीमा विस्तार हेतु किया जाता था। धीरे-धीरे राज्य में एक ही खांप के कई स्वतंत्र ठिकाणे स्थापित हो जाते थे, फिर भी वे सभी अपने ‘‘पाटवी’’ प्रथम ठिकाणेदार को ही अपनी नेता मानते थे और उसके प्रति उसकी निष्ठा बनी रहती थी। ठिकाणो के सैनिक अपने ठाकुर को ही सर्वस्व मानते थे। राजा के प्रति उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं थी यदि उनसे प्रश्न पूछ लिया जाता था कि उनकी सेवाएँ किसके प्रति हैं - राजा के या ठाकुर के? तो उनका उत्त् र यही होता था ‘‘राजा का मालिक वे, पाट का मालिक थे‘‘ अर्थात् राजा राज्य का स्वामी है परन्तु मेरे मालिक तो ठाकुर ही है। उसका दायित्व और उसकी वफादारी अपने ठाकुर तक ही सीमित थे। सुमेलगिरी के युद्ध में जनवरी 1544 ई. में राव मालदेव में चले जाने के बाद बहुत से ठाकुर भी रणक्षेत्र से पलायन कर गए थे। उनके साथ उनके सैनिक भी भाग निकले परन्तु जिनके स्वामी वहां डटे रहे उनके सैनिक भी वहां उपस्थित रहे। राव मालदेव के प्रति उनका कोई विशेष दायित्व नहीं था। इस प्रकार उस समय राजपूत राज्य एक शिथिल संघ व्यवस्था के रूप में था जिसमगें अनेक स्वतंत्र व अर्द्धस्वतंत्र प्रशासनिक इकाइयों का जमघट था।21
राजस्थान में ठिकाणा पद्धति का उदय कब और किस प्रकार हुआ। इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है। संभवतः राजपूत राज्यों की उत्प ति के साथ ही यह पद्धति स्थापित हो गई थी। यह पद्धति का संबंध सैनिक व्यवस्था और संगठन के साथ था। राज्य के महत्वपूर्ण और विश्वसनीय पद स्वकुलीय सरदारों को दिए जाते थे। युद्ध के अवसर पर सरदार अपने राज्य की सहायता करते थे। उनमें यह भावना निहित थी कि वे अपनी पैतृक सम्प ति की सामूहिक रूप से रक्षा करने हेतु ऐसा कर रहे है।17 इन सरदारों के जीवन-यापन के लिए उन्हें भू-क्षेत्र दिए जाते थे। महाराजा अभयसिंह के शासन काल में मारवाड़ में जागीर शब्द का प्रचलन नहीं था। अतः जागीर को सनद के रूप में प्रदान किया जाता था। इसे गांव देना या पट्टा देना कहते थे। कालान्तर में इसके लिए ‘जागीर-पट्टे’ शब्द का प्रचलन सामान्य हो गया। जब ये पट्टे पैतृक स्थिति प्राप्त कर लेते तो जागीर पट्टे का क्षेत्र ठिकाणे की श्रेणी में आ जाता था।
यदि किसी अन्य वंश में पूर्व शासक के अधिकांश क्षेत्र पर अधिकार कर लिया हो तो पूर्व शासक के पास बचा क्षेत्र ठिकाणे के रूप में विकसित हो जाता था जैसे कि जालोरा में सेणा ठिकाणा। शासकों द्वारा अपने पुत्रों को दिए गए पट्टे के गांव भी ठिकाणे की श्रेणी में आ जाते थे। इसी तरह भाई-बंट के आधार पर विभाजित भू-भाग भी ठिकाणे का स्तर प्राप्त कर लेते थे जैसे कि नगर व गुड़ा ठिकाणे इसके अतिरिक्त शासक भी अपने सरदारों द्वारा दी गई विशिष्ट सेवाओं के प्रतिफल में कुछ गांव ठिकाणे के रूप् में दे देता था। शासक द्वारा नाराज हो जाने पर या गंभीर अपराध करने ठिकाणा जब्त भी कर लिया जाता था। ठिकाणे पुनः आवंटित करने से पूर्व पेशकसी वसूली की जाती थी। ठिकाणेदारों को अपने क्षेत्र से सम्बन्धित प्रशासनिक-आर्थिक एवं न्यायिक अधिकार दिए जाते थे।19
स्वकुलीय सामन्त जो अपनी-अपनी खांप के ‘‘पाटवी’’ थे, अपने अधीन क्षेत्र में एकाधिकार प्राप्त शासक के रूप में आचरण करते थे। ये ठिकाणेदार सम्मानसूचक पद्धतियॉ, यथा रावत, राव रावत राजा, धारण करते थे। सामान्यतः वे ‘‘ठाकुर’’ कहलाते थे। ठिकाणेदार कई खांपो में विभाजित थे। प्रत्येक खांप का एक मुखिया या पाटवी होता था। ठाकुर भी अपने भाई-बेटों के जीवन निर्वाह के लिए अपनी जागीर में से भूमि वितरित करता था। ठाकुर अपने छुट-भाईयों की मदद से अपने ठिकाणे में शान्ति व सुव्यवस्था कायम रखने सम्बन्धी कŸार्व्यों का पालन करता था। ये छुट-भाई अपने ‘‘पाटवी’’ के प्रति पूर्ण निष्ठावान होते थे।20 ठिकाणे की जमीयत बिरादरी की सेना इन्ही छुट-भाईयों की सैनिक टुकड़ियों में बनी होती थी और राज्य के विभिन्न ठिकाणेदारों की सैनिक टुकड़ियों को मिलाकर राजकीय सेना का गठन होता था जिसका प्रयोग देश की रक्षार्थ तथा उसकी सीमा विस्तार हेतु किया जाता था। धीरे-धीरे राज्य में एक ही खांप के कई स्वतंत्र ठिकाणे स्थापित हो जाते थे, फिर भी वे सभी अपने ‘‘पाटवी’’ प्रथम ठिकाणेदार को ही अपनी नेता मानते थे और उसके प्रति उसकी निष्ठा बनी रहती थी। ठिकाणो के सैनिक अपने ठाकुर को ही सर्वस्व मानते थे। राजा के प्रति उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं थी यदि उनसे प्रश्न पूछ लिया जाता था कि उनकी सेवाएँ किसके प्रति हैं - राजा के या ठाकुर के? तो उनका उत्त् र यही होता था ‘‘राजा का मालिक वे, पाट का मालिक थे‘‘ अर्थात् राजा राज्य का स्वामी है परन्तु मेरे मालिक तो ठाकुर ही है। उसका दायित्व और उसकी वफादारी अपने ठाकुर तक ही सीमित थे। सुमेलगिरी के युद्ध में जनवरी 1544 ई. में राव मालदेव में चले जाने के बाद बहुत से ठाकुर भी रणक्षेत्र से पलायन कर गए थे। उनके साथ उनके सैनिक भी भाग निकले परन्तु जिनके स्वामी वहां डटे रहे उनके सैनिक भी वहां उपस्थित रहे। राव मालदेव के प्रति उनका कोई विशेष दायित्व नहीं था। इस प्रकार उस समय राजपूत राज्य एक शिथिल संघ व्यवस्था के रूप में था जिसमगें अनेक स्वतंत्र व अर्द्धस्वतंत्र प्रशासनिक इकाइयों का जमघट था।21
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