ब्रिटिश काल में शासक और ठिकाणेदार
के परस्पर सम्बन्ध
मराठा सरदारों और पिण्डारी लुटेरे अमीर खां के बढ़ते हस्तक्षेपों, लूट-पाट और आर्थिक मांगों के समक्ष विवश होकर जोधपुर, जयपुर और अन्य राजपूत रियासतों ने अंग्रेजों से संरक्षण की मांग की। गर्वनर जनरल लार्ड हेस्टिंगस के शासन-काल में पिण्डारियों की शक्ति ब्रिटिश सेना ने कुचल दी (1871 ई.)42 ब्रिटिश सरकार ने अमीर खां से हुए समझौते के फलस्वरूप अमीर खां ने अपने सैनिक सभी राजस्थान राज्यों से और किलों से हटा लिए। 1817 ई. के आंग्ल-मराठा युद्ध में मराठों की हार के पश्चात् सिन्धिया ने राजस्थान के राज्यों पर से एक अपना अधिकार त्याग दिया।43 तत्पश्चात् एक-एक करके सभी राजपूतों राज्यों ने 1818 ई. की संधि द्वा रा ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार कर लिया। इस संधि द्वारा बाहरी रूप से राजपूत राज्य सुरक्षित हो गए तथा आन्तरिक प्रबंध में शासकों को पूर्ण स्वतंत्रता दी गई।44 इस संधि के सरदारों पर पड़ने वाले प्रभाव शीघ्र दृष्टिगोचर होने लगे।राजा को अपने ठिकाणेदारों की अब पहले जैसी आवश्यकता नहीं रही क्योंकि उसका राज्य अब बाहरी आक्रमण से सुरक्षित था। प्रशासन की ओर महाराज मानसिंह द्वारा निरन्तर उपेक्षा दर्शाए जाने पर दरबार में अनेक गुट बन गए। ठिकाणेदारों व मुतसदियों के षडयंत्र के फलस्वरूप शासन सŸा महाराज मानसिंह के हाथों से निकलकर युवराज छŸारसिंह के पास आ गई। युवराज छŸारसिंह की आकस्मिक मृत्यु (मार्च 1818)45 के पश्चात् 1820 ई. में महाराज मानसिंह ने इस स्थिति के लिए जिम्मेदार पोकरण गुट के विरूद्ध गंभीर कार्यवाही करते हुए या तो उन्हें मरवा डाला अथवा उनकी सम्पिŸा जब्त कर ली। इसी क्रम में आसोप, चण्डावल, रोहट, खेजड़ला और निाज के ठिकाणे व सम्पिŸा जब्त कर ली गई।46
अपने ठिकाणों से बेदखल किए गए। अपरोक्त सरदारों ने अन्य राज्यों में आश्रय लिया। इन ठिकाणेदारों ने ब्रिटिश मध्यस्थता के अनेक प्रयास किए। ब्रिटिश सरकार चूंकि आंतरिक प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं करने हेतु संधिबद्ध थी। अतः वे मध्यस्थता के अधिक इच्छुक भी नहीं थे। उनके बार-बार आग्रह करने पर पश्चिमी राजपूताना के पॉलिटिकल एजेंट एफ. विल्डर ने उन्हें महाराजा के पास जाने को कहा। पॉलिटिकल एजेण्ट के कहने में आकर वे जोधपुर पहुंचे किन्तु महाराजा मानसिंह के आदेश पर उन्हें कैद कर लिया गया। शीघ्र ही एफ.विल्डर के हस्तक्षेप के बाद वे छूट गए। 1824 ई. में महाराज ने पॉलिटिकल एजेन्ट की मध्यस्थता करने पर सरदारों के ठिकाणे लौटाने का वचन दिया।47 ऐसा ही वचन 1839 ई. में भी दिया पर लागू नहीं किया। सरकार ने भी महाराजा को स्पष्टतः कह दिया कि सरदारों को न्यायपूर्ण विद्रोह पर उनका कोई दायित्व नहीं होगा।48 इसी तरह 1868 ई में ए.जी.जी ने महाराज तरलसिंह को 1857 ई. के विद्रोह में शामिल सरदारों की जमीने लौटाने का निवेदन किया। जिस महाराजा ने नहीं माना।49 महाराजा जसवन्त सिंह द्वितीय के समय सर प्रताप ने ठिकाणेदारों के असंतोष को दूर करने के लिए एक समिति ‘‘कोर्ट ऑफ सरदार’’ गठित की। यह समिति ठिकाणेदारोंके परस्पर झगड़ो की देखभाल करती थी। इसके साथ ही ठिकाणेदारों के सिविल और आपराधिक अधिकारों को परिभाषित एवं वर्गीकृत किया गया। इसके बादसरदार राज्य के पक्के समर्थक बन गए।50
मारवाड़ राज्य पर अंग्रेजी संरक्षण का एक सुप्रभाव यह पड़ा कि अब व्यक्ति के शासन के स्थान पर कानून के शासन की अवधारणा को अमल में लाया जाने लगा।51 राज्य सरकार अब यह सुनिश्चित करती थी कि ठाकुर अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करके सामान्य जनता से अन्याय या उनके व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप न करें।52 अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने वाले ठिकाणेदारों को दण्ड-स्वरूप जुर्माना, कैद, अधिकार कम करना, ताजिम, कुरब इत्यादि छीन लिए जाते थे।53 स्पष्टतः ब्रिटिश शासन के दौरान ठिकाणेदारों की स्थिति का स्पष्ट अवमूल्यन हुआ।
के परस्पर सम्बन्ध
मराठा सरदारों और पिण्डारी लुटेरे अमीर खां के बढ़ते हस्तक्षेपों, लूट-पाट और आर्थिक मांगों के समक्ष विवश होकर जोधपुर, जयपुर और अन्य राजपूत रियासतों ने अंग्रेजों से संरक्षण की मांग की। गर्वनर जनरल लार्ड हेस्टिंगस के शासन-काल में पिण्डारियों की शक्ति ब्रिटिश सेना ने कुचल दी (1871 ई.)42 ब्रिटिश सरकार ने अमीर खां से हुए समझौते के फलस्वरूप अमीर खां ने अपने सैनिक सभी राजस्थान राज्यों से और किलों से हटा लिए। 1817 ई. के आंग्ल-मराठा युद्ध में मराठों की हार के पश्चात् सिन्धिया ने राजस्थान के राज्यों पर से एक अपना अधिकार त्याग दिया।43 तत्पश्चात् एक-एक करके सभी राजपूतों राज्यों ने 1818 ई. की संधि द्वा रा ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार कर लिया। इस संधि द्वारा बाहरी रूप से राजपूत राज्य सुरक्षित हो गए तथा आन्तरिक प्रबंध में शासकों को पूर्ण स्वतंत्रता दी गई।44 इस संधि के सरदारों पर पड़ने वाले प्रभाव शीघ्र दृष्टिगोचर होने लगे।राजा को अपने ठिकाणेदारों की अब पहले जैसी आवश्यकता नहीं रही क्योंकि उसका राज्य अब बाहरी आक्रमण से सुरक्षित था। प्रशासन की ओर महाराज मानसिंह द्वारा निरन्तर उपेक्षा दर्शाए जाने पर दरबार में अनेक गुट बन गए। ठिकाणेदारों व मुतसदियों के षडयंत्र के फलस्वरूप शासन सŸा महाराज मानसिंह के हाथों से निकलकर युवराज छŸारसिंह के पास आ गई। युवराज छŸारसिंह की आकस्मिक मृत्यु (मार्च 1818)45 के पश्चात् 1820 ई. में महाराज मानसिंह ने इस स्थिति के लिए जिम्मेदार पोकरण गुट के विरूद्ध गंभीर कार्यवाही करते हुए या तो उन्हें मरवा डाला अथवा उनकी सम्पिŸा जब्त कर ली। इसी क्रम में आसोप, चण्डावल, रोहट, खेजड़ला और निाज के ठिकाणे व सम्पिŸा जब्त कर ली गई।46
अपने ठिकाणों से बेदखल किए गए। अपरोक्त सरदारों ने अन्य राज्यों में आश्रय लिया। इन ठिकाणेदारों ने ब्रिटिश मध्यस्थता के अनेक प्रयास किए। ब्रिटिश सरकार चूंकि आंतरिक प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं करने हेतु संधिबद्ध थी। अतः वे मध्यस्थता के अधिक इच्छुक भी नहीं थे। उनके बार-बार आग्रह करने पर पश्चिमी राजपूताना के पॉलिटिकल एजेंट एफ. विल्डर ने उन्हें महाराजा के पास जाने को कहा। पॉलिटिकल एजेण्ट के कहने में आकर वे जोधपुर पहुंचे किन्तु महाराजा मानसिंह के आदेश पर उन्हें कैद कर लिया गया। शीघ्र ही एफ.विल्डर के हस्तक्षेप के बाद वे छूट गए। 1824 ई. में महाराज ने पॉलिटिकल एजेन्ट की मध्यस्थता करने पर सरदारों के ठिकाणे लौटाने का वचन दिया।47 ऐसा ही वचन 1839 ई. में भी दिया पर लागू नहीं किया। सरकार ने भी महाराजा को स्पष्टतः कह दिया कि सरदारों को न्यायपूर्ण विद्रोह पर उनका कोई दायित्व नहीं होगा।48 इसी तरह 1868 ई में ए.जी.जी ने महाराज तरलसिंह को 1857 ई. के विद्रोह में शामिल सरदारों की जमीने लौटाने का निवेदन किया। जिस महाराजा ने नहीं माना।49 महाराजा जसवन्त सिंह द्वितीय के समय सर प्रताप ने ठिकाणेदारों के असंतोष को दूर करने के लिए एक समिति ‘‘कोर्ट ऑफ सरदार’’ गठित की। यह समिति ठिकाणेदारोंके परस्पर झगड़ो की देखभाल करती थी। इसके साथ ही ठिकाणेदारों के सिविल और आपराधिक अधिकारों को परिभाषित एवं वर्गीकृत किया गया। इसके बादसरदार राज्य के पक्के समर्थक बन गए।50
मारवाड़ राज्य पर अंग्रेजी संरक्षण का एक सुप्रभाव यह पड़ा कि अब व्यक्ति के शासन के स्थान पर कानून के शासन की अवधारणा को अमल में लाया जाने लगा।51 राज्य सरकार अब यह सुनिश्चित करती थी कि ठाकुर अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करके सामान्य जनता से अन्याय या उनके व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप न करें।52 अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने वाले ठिकाणेदारों को दण्ड-स्वरूप जुर्माना, कैद, अधिकार कम करना, ताजिम, कुरब इत्यादि छीन लिए जाते थे।53 स्पष्टतः ब्रिटिश शासन के दौरान ठिकाणेदारों की स्थिति का स्पष्ट अवमूल्यन हुआ।
Nice jankari hkm
ReplyDeleteNice jankari hkm
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