महाराजा जसवंतसिंह की मृत्यु (1678 ई) के समय पोकरण का पट्टा सबलसिंह के पुत्र चन्द्रसेन के नाम 40,000 कीरेख में दर्ज थी।127 राठौड़ चन्द्रसेन राव सूजा का पुत्र नरा का वंशज था और राठौड़ो की नरावत शाखा के रूप में माने जाते थे।
महाराजा जसवंतसिंह की मृत्यु के पश्चात् शाही रकम बकाया होने की आड में जोधपुर को खालसा घोषित कर दिया। औरंगजेब ने मारवाड़ के वास्तविक उŸाराधिकारी अजीसिंह की वैधता पर भी प्रश्न-चिन्ह लगा दिए। उसने नागौर के शासक इन्द्रसिंह को जोधपुर का टिका दे दिया। फलस्वरूप जोधपुर के सरदारों ने राठौड़ दुर्गादास के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया।
जैसलमेर के तत्कालीन महारावचल अमरसिंह ने इन परिस्थितियों का लाभ उठाकरन पोकरण पर अधिकार करने के प्रयास नए सिरे से प्रारंभ किए। उसने अपने भाई महारावल अमरसिंह को औरंगजेब के शाही दरबार में भेजा। राठौड़ो के विद्रोह से नाराज औरंगजेब ने पोकरण और फलौदी का पट्टा जैसलमेर के नाम कर दिया। इसी दौरान जोधपुर दुर्ग पर शाही सेना के आक्रमण के समय राजसिंह मार गया। तत्पश्चात् महारावल अमरसिंह की पोकरण-फलौदी को अधिकृत करने में रूचि समाप्त हो गई।128
पोकरण को लेकर जैसलमेर और जोधपुर राज्यों में पुनः कटुता उत्पन्न हो गई थी। इस कटुता को दूर करने के लिए महारावल अमरसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह महाराजा अजीतसिंह के साथ किया किन्तु औरंगजेब के विरूद्ध कोई मदद नहीं की।129
अपने ग्रंथ राजस्थानी ऐतिहासिक गं्रथों का सर्वेक्षण भाग-3 में लेखक डाॅ. नारायणसिंह भाटी ने लिखा है कि 1722 ई. (संवत. 1779 आषाढ वदी 10) को महारावल तेजसिंह की हत्या कर दी गई। पोकरध के ठा. राठौड़ अमरसिंह की पुत्री महारावल तेजसिंह को ब्याही गई थी। महारावल के वध किए जानाद अमरसिंह ने जैसलमेर पहुंचकर लूटमार की। फिर महारावल तेजसिंह के पुत्र प्रतापसिंह को लवारकी गांव दिलाया। डाॅ. नारायणसिंह ने पोकरण ठिकाणे में मौजूद चम्पावतों की ख्याल का हवाला दिया है किन्तु उपर्युक्त ख्यात में इसका वर्णन नहीं मिलता है अन्य समकालीन स्त्रोत भी इस विषय में मौन है। संभवतः यह कोई पोकरणा राठौड़ ठाकुर रहा होगा।130
1707 ई. 1708 ई. (वि.सं. 1764 तथा 1765) में महाराजा अजीतसिंह के ओहदा अधिकारियों की सूची में चम्पावत महासिंह को पोकरण दिऐ जाने का जिक्र है किन्तु कुछ समय बाद चन्द्रसेन की पोकरण जागीर बहाल कर दी गई क्योंकि वह बादशाह के यहां राजकीय सेवा में था तथा बादशाह ने उसके सम्बन्ध अच्छे थे। महाराज की सेवा में लगे सरदारों की वह अपने यहां ठहरने की व्यवस्था भी करता था।131
इस प्रकार पश्चिमी राजस्थान के एक प्राचीन नगर पोकरण को अधिकृत करने के लिए एक लंबी प्रतिदन्द्विता व संघर्ष चला। पोकरण की विशिष्ट भौगौलिक स्थिति, जलीय उपलब्धता एवं सामरिक स्थिति के कारण जैसलमेर इस क्षेत्र पर अधिकार करने का आकांक्षी रहा। लगभग 90 वर्षों तक जैसलमेर का पोकरण पर अधिकार भी रहा किन्तु सैन्य एवं अन्य संसाधनों की सबलता के कारण मारवाड़़ राज्य इस संघर्ष में अन्ततः विजयी रहा।
महाराजा जसवंतसिंह की मृत्यु के पश्चात् शाही रकम बकाया होने की आड में जोधपुर को खालसा घोषित कर दिया। औरंगजेब ने मारवाड़ के वास्तविक उŸाराधिकारी अजीसिंह की वैधता पर भी प्रश्न-चिन्ह लगा दिए। उसने नागौर के शासक इन्द्रसिंह को जोधपुर का टिका दे दिया। फलस्वरूप जोधपुर के सरदारों ने राठौड़ दुर्गादास के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया।
जैसलमेर के तत्कालीन महारावचल अमरसिंह ने इन परिस्थितियों का लाभ उठाकरन पोकरण पर अधिकार करने के प्रयास नए सिरे से प्रारंभ किए। उसने अपने भाई महारावल अमरसिंह को औरंगजेब के शाही दरबार में भेजा। राठौड़ो के विद्रोह से नाराज औरंगजेब ने पोकरण और फलौदी का पट्टा जैसलमेर के नाम कर दिया। इसी दौरान जोधपुर दुर्ग पर शाही सेना के आक्रमण के समय राजसिंह मार गया। तत्पश्चात् महारावल अमरसिंह की पोकरण-फलौदी को अधिकृत करने में रूचि समाप्त हो गई।128
पोकरण को लेकर जैसलमेर और जोधपुर राज्यों में पुनः कटुता उत्पन्न हो गई थी। इस कटुता को दूर करने के लिए महारावल अमरसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह महाराजा अजीतसिंह के साथ किया किन्तु औरंगजेब के विरूद्ध कोई मदद नहीं की।129
अपने ग्रंथ राजस्थानी ऐतिहासिक गं्रथों का सर्वेक्षण भाग-3 में लेखक डाॅ. नारायणसिंह भाटी ने लिखा है कि 1722 ई. (संवत. 1779 आषाढ वदी 10) को महारावल तेजसिंह की हत्या कर दी गई। पोकरध के ठा. राठौड़ अमरसिंह की पुत्री महारावल तेजसिंह को ब्याही गई थी। महारावल के वध किए जानाद अमरसिंह ने जैसलमेर पहुंचकर लूटमार की। फिर महारावल तेजसिंह के पुत्र प्रतापसिंह को लवारकी गांव दिलाया। डाॅ. नारायणसिंह ने पोकरण ठिकाणे में मौजूद चम्पावतों की ख्याल का हवाला दिया है किन्तु उपर्युक्त ख्यात में इसका वर्णन नहीं मिलता है अन्य समकालीन स्त्रोत भी इस विषय में मौन है। संभवतः यह कोई पोकरणा राठौड़ ठाकुर रहा होगा।130
1707 ई. 1708 ई. (वि.सं. 1764 तथा 1765) में महाराजा अजीतसिंह के ओहदा अधिकारियों की सूची में चम्पावत महासिंह को पोकरण दिऐ जाने का जिक्र है किन्तु कुछ समय बाद चन्द्रसेन की पोकरण जागीर बहाल कर दी गई क्योंकि वह बादशाह के यहां राजकीय सेवा में था तथा बादशाह ने उसके सम्बन्ध अच्छे थे। महाराज की सेवा में लगे सरदारों की वह अपने यहां ठहरने की व्यवस्था भी करता था।131
इस प्रकार पश्चिमी राजस्थान के एक प्राचीन नगर पोकरण को अधिकृत करने के लिए एक लंबी प्रतिदन्द्विता व संघर्ष चला। पोकरण की विशिष्ट भौगौलिक स्थिति, जलीय उपलब्धता एवं सामरिक स्थिति के कारण जैसलमेर इस क्षेत्र पर अधिकार करने का आकांक्षी रहा। लगभग 90 वर्षों तक जैसलमेर का पोकरण पर अधिकार भी रहा किन्तु सैन्य एवं अन्य संसाधनों की सबलता के कारण मारवाड़़ राज्य इस संघर्ष में अन्ततः विजयी रहा।
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