अध्याय - 2- 2
हरभू सांखला उस समय फलौदी गया हुआ था। वापस लौटते समसय बेंगटी के समीप बच्ची के रोने की आवाज सुनी। हरभू के निर्देशानुसार सेवक बच्ची को उठा लाए। उसी समय एक शकुन हुआ। तब हरभूजी उस बच्ची को घर ले आए। ठीक उसी दिन हरभूजी की पत्नी ने भी एक पुत्री को जन्म दिया। दोनो कन्याओं का लालन-पोषण साथ-साथ हुआ। अपनी दोहित्री लक्ष्मी के युवा होने पर हडबूजी ने विवाह का नारीयल राठौड़ो खींवा के पास भेजा किन्तु उसने यह कहते हुए मना कर दिया कि सुना है कन्या के दांत मोटे है‘‘ उसने नारियल लौटाकर संदेश भेजा कि हडभूजी अपनी पुत्री का विवाह करें तो मैं तैयार हूं।
हड़बू जी ने तब अपनी कन्या का विवाह राठोड खींवा से कर दिया।28ं लक्ष्मी कई वर्षों तक कुंवारी रही। संयोग से मारवाड़ का राजकुमार सूजा (सूरजमल)29 शिकार करते हुए वहां आ गया। हड़भू जी ने उचित अवसर देख कर अपनी पुत्री का विवाह उससे कर दिया। लक्ष्मी के दो पुत्र हुए बाधा और नरा।
राव जोधा के उŸाराधिकारी राव सातल के कोई पुत्र नहीं था। अतः उसने अपने अनुज सूजा के पुत्र नरा (नरसिंह) को गोद लेने को विचार से अपने पास रख लिया।30 राव सावल की मृत्यु (1491 ई) होने पर माता लक्ष्मी के कहने पर नरा ने अपने पिता सजा के पक्ष में राज्य छोड़ दिया। कालान्तर में नरा और उसके भाई ऊदा में किसी बात को लेकर झगड़ा हो गया। नरा ने गुस्से में ऊदा को छडी से पीट दिया इस घटना से कुपित होकर सूजा ने नरा को फलोदी का जागीर देकर अलग कर दिया।31 बाघा को जागीर में बगड़ी दी गई।
एक दिन नरा को भोजन करते समय लक्ष्मी ने अनायास ही उसे अपने कुंवर पदे का अपमान राव खींवा द्वारा किए जाने की घटना बताई । नरा ने राव खींवा से इसका बदला लेने का निश्चय किया। उसने अपने पुरोहित से बनावटी झगडा करके फलौदी से निकाल दिया। उस पुरोहित की शादी पोकरण हुई थी। अतः वह अपने ससुराल पोकरण आ गया। उसके ससुराल वालों ने उसके झगड़े की बात राव खींवा को बताई। राव खींवा ने उसे दरबार में बुलवा लिया और अपनी सेवा में रख लिया। यह पुरोहित ज्येष्ठ माह में पोकरण आया था। उन्हीं दिनों इमली भी फलित हो गई थी। जोगी बालीनाथ के आश्रम के अंदर राव खींवा के कुंवर इमली खाने रोज आते थे। बालीनाथ के चेलों ने इसकी शिकायत बालीनाथ से की। तब बालीनाथ ने इमली को श्राप दिया कि निष्फल हो जाना और कुंवरों को श्राप दिया कि तुमसे गढ छिन जाएगा और हमारे चेलों से मठ जाएगी और चेले घरबारी (गृहस्थ) हो जाएंगे। यह कहकर वह दक्षिण की ओर चल पडा। स्थानीय लोगों ने उसे रोकने की बहुत कोशिश की पर वह नहीं रुका।
कुंवरों की माता ईंदी ने तत्पश्चात काफी परिश्रम से बालीनाथ को मना लिया। बालीनाथ ने उससे प्रसन्न होकर उसे वीर पुत्र लूंका को उत्पन्न करने का आशीर्वाद दिया किन्तु यह भी कहा कि उसका राज्य जाल (एक प्रकार का मरूस्थलीय वृक्ष झाडी) के आस-पास ही होगा।
इधर पुरोहित भी मौके की इन्जार में रहा। राव खींवा को एक दिन न्याला (मांस-गोष्ठी) के विशेष आयोजन में ओगरात (उधरास या उगरावास)32 आमंत्रित किया गया। वह 80 आदमियों के साथ कोट से बाहर निकाला। उसने पुरोहित को भी चलने को कहा। पर उसने यह कहकर इंकार कर दिया कि मांस-गोष्ठी में भला उसका क्या काम।
मौका देखकर पुरोहित ने नरा के जासूसों को संकेत दे दिया। नरा 500 सवारों के साथ वहां जा पहुंचा। घोडों की पद्चाप सुनकर राव खींवा के आदमियों ने उन्हें रोककर पूछताछ की। राव नरा के सैनिकों ने उन्हें झूठ कह दिया कि यह नरा बीकावत का काफिला है जो अमरकोट विवाह करने जा रहा है खीरा के आदमियों ने यह बात उसे बता दी जिससे वह असावधान हो गया। इसी दौरान नरा पोकरण जा पहंुच नरा के निर्देशानुसार पुरोहित ने पोलिये (चैकीदार) को बातों में लगा दिया। मौका देखकर नरा ने उसकी बरछी से हत्या कर दी। पोल (मुख्य द्वार) खोलकर नरा ने कोट पर अधिकार कर लिया और अपनी आण फेरी (गढ़ पर अधिकार होने की घोषणा) । यह घटना सन् 1494 (वि.सं. 1551)33 की है।
खींवा ने आदमितसयों ने उस तक सूचना पहुंचा दी। वह उस समय पोकरण से तीन कोस की दूरी पर था। पोकरण आने के मार्ग पर उन्हें एक गडरिया मिला। जिसके कंधेपर एक मृत बकरा था। राव खींवा ने उसे अच्छा शकुन समझा। गडरिये की थोडी आनाकानी के बाद वे बकरे को खरीदने में सफल हुए। खींवा का एक चाचा जो शकुनक्ता भी था ने कहा कि आप जितनी दूर पहुंचकर इसे खाएंगे उतने ही वर्षों बाद आपकों पोकरण मिल जाएगा। उन्होंने जल्दी तो बहुत की परन्तु जगह-जगह नरों की सैनिक चैकियिों और पहले के कारण वे पोकरण से 12 कोस दूर भिणीयाणे में जाकर बकरा खा गए किन्तु पूरा नहीं खा सके।
नरा ने पोकरण गढ़ में मौजूद स्त्रियों को बाहर निकाल दिया। अब सभी पोकरणा राठौड़ बाडमेर जाकर रहने लगे जो उनके मल्लिनाथ जी के वंशज भाई-बन्धु थे। यहां से उन्होंने पोकरण पर पुनः अधिकार करने के प्रयास प्रारंभ किए। नरा ने पोकरण से दो किलोमीटर की दूरी पर राव सा तल के नाम से सातलमेर का गढ बनवाया। नरासर तालाब बनवाया और प्रदेश में सुदृढ शासन स्थापित किया।
पोकरण राठौड 12 वर्षो तक प्रयास करते रहें इधर लूंका 12 वर्ष का हो गया तथा भाला चलाने में निपुण हो गया। एक बार सभी पोकरणा राठौड़ों ने बाडमेर से पोकरण पर आक्रमण करने के लिए कूच हकिया। पोकरण पहुंचकर उन्होंने पोकरण के गोधन पर अधिकार कर लिया।34 नरा ने उन पर प्रत्याक्रमण किया। घमासान युद्ध हुआ जिसमें अनेक राठौड़ मारे गए। इसी दौरान लंका के घोडें पर बैठै बैठै ही अन्य घोडे पर सवार नरा के सिर कटकर नीचे गिर गया। दो सौ कदम दूर जाकर उसका धड भी गिर गया। राव नरा को मारकर पोकरणा भिणीयाणैं में जाकर ठहरे।
इधर पोकरण में नरा के पीछे उसकी पत्नियाॅ सती होने को तैयार हुई किन्तु नरा के मस्तक के अभाव में ऐसा होना संभव नहीं था। उन्होंने पोकरणा राठौडों से राव नरा का मस्तक देने को कहा। पोकरणों ने जवाब भिजवाया कि हम तो तरा का मस्तक लाए नहीं है उन्होंने नरा के मस्तक गिरने के स्थान का पता बता दिया ओर कहा कि वे स्वयं जाकर मस्तक ले आएं । तब राव नरा की पत्नियाँ बताए गए स्थान (एक जाल वृक्ष) पर गई और वहां से मस्तक लाकर पोकरण पहुंचकर सती हुई ।
पोकरणा राठौड़ों के हाथों राव नरा की मृत्यु की सूचना पाकर उसका पिता राव सूजा बेहद उदास हुआ। वह तत्काल एक फौज को साथ लेकर पोकरण की ओर चला। शीघ्र ही उसने पोकरण के समीपवर्ती गांव नीलवै को जीत लिया। उसने एक-एक कर राव खींवा और लूंका के सभी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। तदुपरान्त राव सूजा ने नरा के बेटे गोविन्द को पोकरण ओर दूसरे पुत्र हमीर को फलौदी दी। राव खींवा के पुत्रों ने वहां काफी समय तक उत्पात मचाया। उन्हें सांकड़ा ओर सनावड़ी जैसे गांव देकर शान्त किया गया।36
सन् 1503 ई (वि.सं. 1560) में अल्पायु राव गोविन्द को राव सूजा ने पोकरण का टीका दिया। कामकाज करने के लिए उमराव नियुक्त किए। इस दौरान पोकरण में लूंका का उत्पात जारी रहा क्योंकि वे उपर्युक्त दो गांवों से सन्तुष्ट नहीं थे। युवा होने पर राव गोविन्द ने रामदेवरा के समीप उत्पाती लूंका पर आक्रमण कर दिया। लूंका को कोढणा के समीप घेर लिया गया। जनश्रुति है कि इस युद्ध में 140 पोकरणा राठौड काम आए। लूंका को पकडने के प्रयास में राव गोविन्द के हाथ उसका दुपट्टा आ गया। लूंका नंगे बदन भागने का प्रयास करने लगा।37 तभी राव गोविन्द ने लूंका को कहा - ‘‘काकाजी वहीं खडे रहो। मै आपका वध नहीं करूंगा‘‘। गोविन्द ने अपना दुपट्टा दिया और कहा ‘‘जो हुआ सो हुआ । अब इस शत्रुता को दूर करों‘‘। दोनों नगे साथ में बैठकर भोजन किया।उसने पोकरण के दो हिस्से किए। सातलमेर पोकरण सहित 30 गांव उसने स्वयं रखे और 30 गांव लूंका को दिए। जहां राव नरा का मस्तक कट कर गिरा था। उसी जाल वृक्ष से दोनों की सीमा निर्धारित हुई। यह सीमा कई वर्षो तक ज्यों की त्यों रही। लूंका ने लूणीयणों बसाया जिसे वर्तमान में भूणयाणें कहा जाता है। राव गोविन्द के समय सातलमेर में काफी अच्छी बस्ती विकसित हुई । यहां उस समय 500 घर महाजनों के थे।38
हड़बू जी ने तब अपनी कन्या का विवाह राठोड खींवा से कर दिया।28ं लक्ष्मी कई वर्षों तक कुंवारी रही। संयोग से मारवाड़ का राजकुमार सूजा (सूरजमल)29 शिकार करते हुए वहां आ गया। हड़भू जी ने उचित अवसर देख कर अपनी पुत्री का विवाह उससे कर दिया। लक्ष्मी के दो पुत्र हुए बाधा और नरा।
राव जोधा के उŸाराधिकारी राव सातल के कोई पुत्र नहीं था। अतः उसने अपने अनुज सूजा के पुत्र नरा (नरसिंह) को गोद लेने को विचार से अपने पास रख लिया।30 राव सावल की मृत्यु (1491 ई) होने पर माता लक्ष्मी के कहने पर नरा ने अपने पिता सजा के पक्ष में राज्य छोड़ दिया। कालान्तर में नरा और उसके भाई ऊदा में किसी बात को लेकर झगड़ा हो गया। नरा ने गुस्से में ऊदा को छडी से पीट दिया इस घटना से कुपित होकर सूजा ने नरा को फलोदी का जागीर देकर अलग कर दिया।31 बाघा को जागीर में बगड़ी दी गई।
एक दिन नरा को भोजन करते समय लक्ष्मी ने अनायास ही उसे अपने कुंवर पदे का अपमान राव खींवा द्वारा किए जाने की घटना बताई । नरा ने राव खींवा से इसका बदला लेने का निश्चय किया। उसने अपने पुरोहित से बनावटी झगडा करके फलौदी से निकाल दिया। उस पुरोहित की शादी पोकरण हुई थी। अतः वह अपने ससुराल पोकरण आ गया। उसके ससुराल वालों ने उसके झगड़े की बात राव खींवा को बताई। राव खींवा ने उसे दरबार में बुलवा लिया और अपनी सेवा में रख लिया। यह पुरोहित ज्येष्ठ माह में पोकरण आया था। उन्हीं दिनों इमली भी फलित हो गई थी। जोगी बालीनाथ के आश्रम के अंदर राव खींवा के कुंवर इमली खाने रोज आते थे। बालीनाथ के चेलों ने इसकी शिकायत बालीनाथ से की। तब बालीनाथ ने इमली को श्राप दिया कि निष्फल हो जाना और कुंवरों को श्राप दिया कि तुमसे गढ छिन जाएगा और हमारे चेलों से मठ जाएगी और चेले घरबारी (गृहस्थ) हो जाएंगे। यह कहकर वह दक्षिण की ओर चल पडा। स्थानीय लोगों ने उसे रोकने की बहुत कोशिश की पर वह नहीं रुका।
कुंवरों की माता ईंदी ने तत्पश्चात काफी परिश्रम से बालीनाथ को मना लिया। बालीनाथ ने उससे प्रसन्न होकर उसे वीर पुत्र लूंका को उत्पन्न करने का आशीर्वाद दिया किन्तु यह भी कहा कि उसका राज्य जाल (एक प्रकार का मरूस्थलीय वृक्ष झाडी) के आस-पास ही होगा।
इधर पुरोहित भी मौके की इन्जार में रहा। राव खींवा को एक दिन न्याला (मांस-गोष्ठी) के विशेष आयोजन में ओगरात (उधरास या उगरावास)32 आमंत्रित किया गया। वह 80 आदमियों के साथ कोट से बाहर निकाला। उसने पुरोहित को भी चलने को कहा। पर उसने यह कहकर इंकार कर दिया कि मांस-गोष्ठी में भला उसका क्या काम।
मौका देखकर पुरोहित ने नरा के जासूसों को संकेत दे दिया। नरा 500 सवारों के साथ वहां जा पहुंचा। घोडों की पद्चाप सुनकर राव खींवा के आदमियों ने उन्हें रोककर पूछताछ की। राव नरा के सैनिकों ने उन्हें झूठ कह दिया कि यह नरा बीकावत का काफिला है जो अमरकोट विवाह करने जा रहा है खीरा के आदमियों ने यह बात उसे बता दी जिससे वह असावधान हो गया। इसी दौरान नरा पोकरण जा पहंुच नरा के निर्देशानुसार पुरोहित ने पोलिये (चैकीदार) को बातों में लगा दिया। मौका देखकर नरा ने उसकी बरछी से हत्या कर दी। पोल (मुख्य द्वार) खोलकर नरा ने कोट पर अधिकार कर लिया और अपनी आण फेरी (गढ़ पर अधिकार होने की घोषणा) । यह घटना सन् 1494 (वि.सं. 1551)33 की है।
खींवा ने आदमितसयों ने उस तक सूचना पहुंचा दी। वह उस समय पोकरण से तीन कोस की दूरी पर था। पोकरण आने के मार्ग पर उन्हें एक गडरिया मिला। जिसके कंधेपर एक मृत बकरा था। राव खींवा ने उसे अच्छा शकुन समझा। गडरिये की थोडी आनाकानी के बाद वे बकरे को खरीदने में सफल हुए। खींवा का एक चाचा जो शकुनक्ता भी था ने कहा कि आप जितनी दूर पहुंचकर इसे खाएंगे उतने ही वर्षों बाद आपकों पोकरण मिल जाएगा। उन्होंने जल्दी तो बहुत की परन्तु जगह-जगह नरों की सैनिक चैकियिों और पहले के कारण वे पोकरण से 12 कोस दूर भिणीयाणे में जाकर बकरा खा गए किन्तु पूरा नहीं खा सके।
नरा ने पोकरण गढ़ में मौजूद स्त्रियों को बाहर निकाल दिया। अब सभी पोकरणा राठौड़ बाडमेर जाकर रहने लगे जो उनके मल्लिनाथ जी के वंशज भाई-बन्धु थे। यहां से उन्होंने पोकरण पर पुनः अधिकार करने के प्रयास प्रारंभ किए। नरा ने पोकरण से दो किलोमीटर की दूरी पर राव सा तल के नाम से सातलमेर का गढ बनवाया। नरासर तालाब बनवाया और प्रदेश में सुदृढ शासन स्थापित किया।
पोकरण राठौड 12 वर्षो तक प्रयास करते रहें इधर लूंका 12 वर्ष का हो गया तथा भाला चलाने में निपुण हो गया। एक बार सभी पोकरणा राठौड़ों ने बाडमेर से पोकरण पर आक्रमण करने के लिए कूच हकिया। पोकरण पहुंचकर उन्होंने पोकरण के गोधन पर अधिकार कर लिया।34 नरा ने उन पर प्रत्याक्रमण किया। घमासान युद्ध हुआ जिसमें अनेक राठौड़ मारे गए। इसी दौरान लंका के घोडें पर बैठै बैठै ही अन्य घोडे पर सवार नरा के सिर कटकर नीचे गिर गया। दो सौ कदम दूर जाकर उसका धड भी गिर गया। राव नरा को मारकर पोकरणा भिणीयाणैं में जाकर ठहरे।
इधर पोकरण में नरा के पीछे उसकी पत्नियाॅ सती होने को तैयार हुई किन्तु नरा के मस्तक के अभाव में ऐसा होना संभव नहीं था। उन्होंने पोकरणा राठौडों से राव नरा का मस्तक देने को कहा। पोकरणों ने जवाब भिजवाया कि हम तो तरा का मस्तक लाए नहीं है उन्होंने नरा के मस्तक गिरने के स्थान का पता बता दिया ओर कहा कि वे स्वयं जाकर मस्तक ले आएं । तब राव नरा की पत्नियाँ बताए गए स्थान (एक जाल वृक्ष) पर गई और वहां से मस्तक लाकर पोकरण पहुंचकर सती हुई ।
पोकरणा राठौड़ों के हाथों राव नरा की मृत्यु की सूचना पाकर उसका पिता राव सूजा बेहद उदास हुआ। वह तत्काल एक फौज को साथ लेकर पोकरण की ओर चला। शीघ्र ही उसने पोकरण के समीपवर्ती गांव नीलवै को जीत लिया। उसने एक-एक कर राव खींवा और लूंका के सभी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। तदुपरान्त राव सूजा ने नरा के बेटे गोविन्द को पोकरण ओर दूसरे पुत्र हमीर को फलौदी दी। राव खींवा के पुत्रों ने वहां काफी समय तक उत्पात मचाया। उन्हें सांकड़ा ओर सनावड़ी जैसे गांव देकर शान्त किया गया।36
सन् 1503 ई (वि.सं. 1560) में अल्पायु राव गोविन्द को राव सूजा ने पोकरण का टीका दिया। कामकाज करने के लिए उमराव नियुक्त किए। इस दौरान पोकरण में लूंका का उत्पात जारी रहा क्योंकि वे उपर्युक्त दो गांवों से सन्तुष्ट नहीं थे। युवा होने पर राव गोविन्द ने रामदेवरा के समीप उत्पाती लूंका पर आक्रमण कर दिया। लूंका को कोढणा के समीप घेर लिया गया। जनश्रुति है कि इस युद्ध में 140 पोकरणा राठौड काम आए। लूंका को पकडने के प्रयास में राव गोविन्द के हाथ उसका दुपट्टा आ गया। लूंका नंगे बदन भागने का प्रयास करने लगा।37 तभी राव गोविन्द ने लूंका को कहा - ‘‘काकाजी वहीं खडे रहो। मै आपका वध नहीं करूंगा‘‘। गोविन्द ने अपना दुपट्टा दिया और कहा ‘‘जो हुआ सो हुआ । अब इस शत्रुता को दूर करों‘‘। दोनों नगे साथ में बैठकर भोजन किया।उसने पोकरण के दो हिस्से किए। सातलमेर पोकरण सहित 30 गांव उसने स्वयं रखे और 30 गांव लूंका को दिए। जहां राव नरा का मस्तक कट कर गिरा था। उसी जाल वृक्ष से दोनों की सीमा निर्धारित हुई। यह सीमा कई वर्षो तक ज्यों की त्यों रही। लूंका ने लूणीयणों बसाया जिसे वर्तमान में भूणयाणें कहा जाता है। राव गोविन्द के समय सातलमेर में काफी अच्छी बस्ती विकसित हुई । यहां उस समय 500 घर महाजनों के थे।38
No comments:
Post a Comment