Saturday 7 January 2017

अध्याय - 3 चाम्पावतों का आगमन और सबलसिंह चाम्पावत तक राजनीतिक इतिहास

अध्याय - 3

चाम्पावतों का आगमन और सबलसिंह चाम्पावत तक राजनीतिक इतिहास

    राव जोधा राठौड़ सŸाा का वास्तविक संस्थापक तथा राठौड़ साम्राज्य को एक निश्चित स्वरूप प्रदान करने वाला व्यक्ति था। जोधा के शासन में ही मारवाड़ मे सामंत प्रथा की दृढ रूप से स्थापना हुई। उसने अपने सम्बन्धियो की सहायता से ही विशाल साम्राज्य निर्मित किया था। आवागमन के सीमित साधनों के कारण इतने विस्तृत साम्राज्य पर एक केन्द्र से शासन करना संभव न था। कठिन परिस्थितियों में सहायता करने वालों को भी पुरस्कृत करना आवश्यक था। अतः जोधा ने अपने साम्राज्य के विभिन्न क्षे़़़़़़़त्रो मे शासन करने हेतु अपने भाइयो व पुत्रो की नियुक्ति की । इस क्रम में राव चाम्पा को कापरड़ा और बनाड़ दिया गया।
राव रणमल के 26 पुत्रों में अखैराज सबसे बड़ा था किन्तु चाम्पा का अपने भाईयों में कौन सा क्रम था, इसे लेकर विद्वानों में मतभेद है। श्ठिकाणा पोहकरण के इतिहासश् में राव चाम्पा को राव रणमल की क्रम में दूसरी सन्तान बताया गया है और वह राव जोधा से बड़ा बताया गया है।1 पं॰ विश्वेश्वर प्रसाद रेऊ राव चाम्पा को क्रम में चतुर्थ अर्थात अखैराज, जोधा और काँधल के पश्चात् मानते हैं।2 इतिहासकार यथा रामकर्ण आसोपा, जगदीशसिंह गहलोत, भगवतसिंह, मोहनसिंह कानोता राव चाम्पा को क्रम में तीसरा और राव जोधा से बड़ा मानते हैं। इतिहासकारों की उपरोक्त धारणा अधिक उपयुक्त प्रतीत होती है।
चाम्पावतों का इतिहास - राव चाम्पा
राव चाम्पा का जन्म 1412 ई. को हुआ था, तथा राव जोधा इससे छोटा था, जिसका जन्म 1415 ई. का है।3 राव रणमल ने जब अखैराज, काँधल और चाम्पा से राव जोधा को राज्याधिकार देने की मंशा प्रकट की तो पिता की आज्ञा एवं इच्छा समझ कर इन्होने इसे स्वीकार किया4 और राव जोधा के मण्डोर राज्य को प्राप्त करने में पूर्ण सहयोग दिया। किशोर अवस्था में राव चाम्पा ने पिता की आज्ञा से एक ऊंटों का एक काफिला लूटा, जिससे बड़ी मात्रा में गुड़ के कापे बरामद हुए। इसे अच्छा शकुन जानकर उसने वही,ं एक गांव बसाया, जिसका नाम कापरड़ा रखा। 1428 ई. को राव रणमल ने इस गांव का पट्टा राव चाम्पा को दे दिया।5 1433 ई. में मेवाड़ के महाराणा मोकल की हत्या होने पर राव चाम्पा अपने पिता के साथ मेवाड़ गया। उसने पूर्व में राव रणमल्ल के साथ युद्ध करके चाचा और मेरा को मारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।6 तत्पश्चात् अग्रज अखैराज के साथ राव चाम्पा को मण्डोर के दुर्ग की व्यवस्था करने हेतु भेज दिया गया।7 1438 ई. (वि.सं. 1495) में राव रणमल की मेवाड़ में हत्या हो जाने पर राव जोधा 700 सवारों के साथ वहां से बच कर भाग निकला।8 किन्तु उसके मण्डोर पहुंचने से पूर्व ही मेवाड़ की सेना वहां आ पहुंची। मण्डोर किले के व्यवस्थापक अखैराज और चाम्पा ने समझा की ‘रावजी’ को पहुंचाने के लिए मेवाड़ी सैनिक आये हैं। बदरी शर्मा के अनुसार राव चाम्पा ने रावजी की सलामी में तोपें दागनी शुरू कर दी।9 यह विवरण हास्यास्पद है क्योंकि भारत में तोपों का प्रचलन 1525 ई. में बाबर के आगमन के बाद प्रारंभ हुआ था। मेवाड़ की सेना द्वारा मण्डोर के किले पर घेरा डालने पर चाम्पा और अखैराज ने अपने मुट्ठी भर सैनिकों की मदद से मेवाड़ी सेना से तीन दिन तक लोहा लिया। किले के बाहर हुई एक लड़ाई में राव चाम्पा घायल हुआ, किन्तु वह अखैराज के साथ वहां से बच निकले और राव जोधा के पास जांगलू के गांव काहूनी पहुँचने में सफल हुए।10
1453 ई. में राव जोधा ने अपने भाइयों अखैराज, चाम्पा और कांधल के सहयोग से तलवार के बल पर मारवाड़़ का राज्य पुनः अधिकृत कर लिया।11 1455 ई. में राव जोधा ने बड़ी सेना लेकर मेवाड़ पर चढ़ाई की। राव चाम्पा इस अभियान का सेनानायक था। राव चाम्पा की अध्यक्षता में पहले गोड़वाड प्रान्त लूटा गया तत्पश्चात् चिŸाौड़ पर बोलकर चिŸाौड़ के दरवाजे जलाए गए और पिछोला झील में घोडों को पानी पिलाया गया।12
1455 ई. में राणा कुम्भा ने एक बड़ी सेना के साथ मारवाड़़ की ओर कूच किया। इधर राव जोधा ने भी मुकाबले की पूरी तैयारी कर ली थी। राव जोधा के पास सैनिक अधिक थे जिससे घोड़े व ऊँट कम पड़ गए। तब राव चाम्पा के परामर्श से गाडे़ मंगवाए गए और राठौड़़ वीरों को उसमें बैठा कर रवाना किया गया। महाराणा कुम्भा को स्थिति भांपते में समय नहीं लगा कि सैनिक गाड़ों में बैठकर मरने मारने आए हैं, भागने के लिए  नहीं, क्योंकि राठौड़़ सैनिक के पास रणभूमि से भाग निकलने के साधन नहीं थे।13 तब कुम्भा ने सन्धि का पैगाम भिजवाया। राव जोधा ने भी चाम्पा और कांधल आदि से सलाह करके संधि कर लेना उचित समझ कर चाम्पा और कांधल को महाराणा के पास भेजा। राव चाम्पा ने संधि वार्ता द्वारा सोजत तक के क्षेत्र को मारवाड़़ के राज्य में बनाए रखने में सफलता प्राप्त की।
जोधपुर का किला बनवाए जाने के समय चिड़ियानाथ जी को राजकर्मचारियों द्वारा तंग किए जाने पर वे अपनी धूणी चादर में बांध कर अन्यत्र पालासनी की ओर रवाना हो गए। राव जोधा ने चाम्पा को उन्हें मनाने के लिए भेजा। चिड़ियानाथ जी ने लौटना स्वीकार नहीं करके वही,ं पालासनी धूणी रमा ली।14 1459 ई. में गोड़वाड के सिंधल और सोनिगरा चैहान राजपूतों ने कापरड़ा में एकत्रित होकर गायंे घेरकर ले गए। सूचना मिलने पर राव चाम्पा 500 सैनिकों के साथ पहुँचा और गायंे छुड़ाने में सफल रहा। 1465 ई. में पाटण (गुजरात) के सुल्तान ने गुजरात से दिल्ली जाते हुए पाली में डेरा डाला। गोडवाड़ के सिंधलों और सोनिगरों ने सुल्तान को भड़काया कि ‘‘ चाम्पा के पास बहुत धन है। हम अपनी पुरानी हार का बदला लेना चाहते है।ं आप हमारी मदद करें। जो भी धन मिले वह आप ले लेंगें’’। लोभ में पड़कर सुल्तान ने आक्रमण करने की नियत से कापरड़ा की ओर प्रस्थान किया। राव चाम्पा 300 सवारों के साथ पूनासर की पहाड़ी के समीप पहुंचा। चाम्पा से वीरतापूर्वक युद्ध लड़कर सुल्तान और उसके सहयोगियों को खदेड़ दिया किन्तु स्वयं भी घायल हो गया।  1479 ई. में महाराणा रायसिंह की सहायता से सिंधलों ने राव चाम्पा पर चढ़ाई की। मिणियारी के समीप हुए इस युद्ध में राव चाम्पा वीरगति को प्राप्त हुआ। राव चाम्पा के 5 पुत्र हुए 15  (1) भैरूदास (2) सगत सिंह (3) पंचायण  (4) भींवराज  (5) जैमल
राव भैरूदास -   चाम्पावत भैरूदास का जन्म 1434 ई. को हुआ ओर 1479 ई. को वह कापरड़ा का राज्याधिकारी हुआ। 1486 ई. को कच्छवाहा शासक राजा चन्द्रसेन ने सांभर पर आक्रमण किया। युद्ध में राव जोधा के साथ भैरुदास ने वीरतापूर्वक युद्ध करके आक्रमणकारियों को परास्त किया। छापर द्रोणपुर में भैरुदास के सेनापतित्व में भेजी गई सेना ने सांरग खां को परास्त कर मार डाला। 1491 ई. में अजमेर का सूबेदार मल्लू खां मेड़ता को लूटकर पीपाड़ तक बढ़ गया। उसने तीज पर्व पर गौरी पूजन के लिए गई स्त्रियों का अपहरण कर लिया। राव सातल ने भैरूदास के साथ उनका कोसाणा तक पीछा किया। यहां हुए भीषण युद्ध में मल्लूखां प्राण बचाकर भाग निकला तथा उसका सेनापति घुडले खां मारा गया। राव सातल घायल होकर वीरगति को प्राप्त हुआ। भैरुदास स्वयं सख्त रूप से घायल हो गया।16 1498 ई. में राव सूजा के पुुत्र नरा की पोकरणा लूंका के हाथों मृत्यु होने के प्रतिशोध में भैरुदास के नेतृत्व में सेना बाड़मेर और पोकरण भेजी गई, जिसने पोकरणा राठौड़़ लूंका की गतिविधियों पर अंकुश लगाया।17 1504 ई. में मेर भोपत के विरुद्ध भैरूदास को भेजा गया। भैरूदास ने उसे खदेड़कर गायंे छुड़वा ली। जैतारण के सींधल जो मेवाड़ महाराणा के प्रति निष्ठा रखते थे, द्वारा विद्रोह करने पर भैरूदास और राव उदा को भेजा गया। उन्होंने सीधलों को पराजित कर खदेड़ दिया।18
राव सूजा के स्वर्गवास होने पर वीरम को गद्दी बिठाने के लिए पंचायण, भैरुदास आदि सरदार एकत्रित हुए। राव वीरम की माता ने उनकी परवाह नहीं की। किन्तु गांगा की माता ने उनका सत्कार किया, जिससे सरदारों ने वीरम को राज्य से वंचित करके गांगाजी को गद्दी पर बैठाया। तभी से कहा जाने लगा ‘‘रिडमलां थापिया तिके राजा’’। जब राव वीरम राव गांगा के राज्य में उपद्रव करने लगा, तब चाम्पावत भैरुदास को सेना सहित भेजा गया। इसी युद्ध में वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए भैरुदास रणाशयी हुआ।19
राव जेसा राव भैरुदास की मृत्युपर्यन्त उनका चतुर्थ पुत्र राव जेसा कापरड़ा की गद्दी पर बैठा। उसका जन्म 1466 ई. को हुआ और 1520 ई. को वह कापरड़ा की गद्दी पर बैठा। एक महात्मा के यह कहने पर कि यदि भैरुदास का वंश कापरड़ा रहा तो उसका वैभव नहीं बढ़ेगा, के कारण राव जेसा ने निर्जन वन में रणसी गांव बसाया।20 राव गांगा ने महाराणा सांगा और गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह के संघर्ष में राणा सांगा की मदद के लिए सेना सहित राव  जेसा को भेजा। राणा सांगा के बाबर से संघर्ष के समय राव जेसा 3000 मारवाड़ी सैनिकों सहित खानवा के युद्ध में मौजूद था।21 1529 ई. में राव गांगा और राव सेखा के मध्य विवाद चरम सीमा पर पहुंच गया। राव जेसा ने दोनों में सुलह करने का प्रयास किया। राव गांगा को उसने सुलह करने के लिए मना लिया किन्तु राव सेखा ने इन प्रयासों की उपेक्षा की। उसने नागौर के दौलतखां की सहायता से जोधपुर पर आक्रमण कर दिया। गांगाणी के निकट हुए युद्ध में राव जेसा ने अन्य सरदारों की सहायता से भीषण युद्ध किया। दौलतखां युद्ध भूमि छोड़कर भाग खडा हुआ और राव सेखा युद्ध में मारा गया। 1534 ई. में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने चिŸाौड़ पर आक्रमण किया। उस समय राणा विक्रमादित्य ने राव मालदेव से सहायता मांगी। राव ने जेसा को 80,000 की सेना के साथ भेजा गया। इसकी सूचना मिलने पर सुल्तान बिना लड़े ही गुजरात लौट गया।22
1538 ई. में राव वीरमदेव (मेड़ता का स्वामी) और राव मालदेव में मनमुटाव अत्यधिक बढ़ जाने पर राव मालदेव ने जेसा को मेड़ता पर भेजा। वीरम ने संघर्ष किया पर असफल रहा। वहां से वह सहायता प्राप्ति के उद्देश्य से दिल्ली के सुल्तान शेरशाह के पास जा पहुंचा। सम्पूर्ण उŸारी भारत पर आधिपत्य स्थापना का इसे अच्छा मौका जानकार शेरशाह राव वीरमदेव के साथ मारवाड़़ पर 1534 ई. में चढ़ आया। गिरि-सामेल के युद्ध में कपटपूर्ण तरीके अपनाकर शेरशाह ने मालदेव को अपने सेनानायकों के प्रति सशंकित कर दिया। राव मालदेव के रणभूमि से पलायन करने पर शेरशाह ने सम्पूर्ण मारवाड़़ पर अधिकार कर लिया। राव मालदेव ने सिवाणा में पीपलाद की पहाड़ियों में शरण ली।23 इस अवसर पर राव जेसा ने उन्हें ढूंढने आए, शेरशाह के एक सेनापति जलाल खां को मारकर उसका घोड़ा पकड लिया। 1545 ई. में राव मालदेव ने जेसा को सेना सहित भेजकर सोजत पर अधिकार कर लिया।24 1545 ई. में शेरशाह की आकस्मिक मृत्यु के बाद राव मालदेव ने जोधपुर पर धावा बोलकर मुसलमान सूबेदार को निकाल बाहर किया। इस अभियान में जेसा भी साथ ही था।25
1547 ई. में (वि.सं. 1604) में पोकरण स्वामी जैतमाल के कुशासन से त्रस्त महाजनों ने राव मालदेव से सहायता की अपील की। राव मालदेव ने पोकरण की ओर कूच किया। जैसलमेर वालों ने मारवाड़़ की सेना के घोडे़ चुरा लिए। राव मालदेव ने इनके पीछे जेसा को भेजा। राव जेसा ने न केवल घोडे़ छुड़ाए बल्कि आगे जैसलमेर में लूटपाट भी की।26  राव मालदेव की सेना  के आक्रमण की आशंका से जैसलमेर महारावल ने संधि कर ली।27 1553 ई. में राव मालदेव ने जेसा को मेड़ता की ओर वीरमदेव के पुत्र जयमल के विरुद्ध भेजा। एक घनघोर युद्ध के पश्चात् राव जेसा विजयी रहा, किन्तु उसका भाई रायसिंह वीरगति को प्राप्त हुआ। जयमल ने बादशाह अकबर की सहायता से और मुगल सेनापति शरफुद्दीन के सक्रिय सहयोग से मेड़ता पर आक्रमण किया। राव जेसा को सेना सहित मेड़ता भेजा गया। मेड़ता के समीप हुए घमासान युद्ध में राव जेसा वीरगति को प्राप्त हुआ।27
राव जेसा के विषय में एक रोचक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि 1537 ई. के लगभग रात्रि में राव जेसा अकेला रणसी गांव आ रहा था। रणसी गांव के समीप एक नाडी पर वह अपने घोड़े को पानी पिलाने रूका। तभी भूत ने जेसा को कुश्ती के लिए ललकारा। राव जेसा ने इसे स्वीकार किया और थोड़ी ही देर में भूत को जमीन पर दे पटका। पराजित भूत अपने हाथ पांव बांधकर राव जेसा के सामने खड़ा हो गया। राव जेसा ने उसे एक बावड़ी और महल बनाने की शर्त पर छोड़ दिया। भूत ने भी प्रत्युŸार में शर्त रखी कि महल बनने तक वह किसी को इस बारे में नहीं बताए। इधर राव जैसा की पत्नी रात भर कोलाहल का कारण पूछती रही और जेसा उसे टालते रहा। प्रातः अंधेरा छटने से पूर्व उसकी पत्नी ने पुनः कारण बताने का अनुग्रह किया। राव जी ने सोचा कि अब तक भूत निर्माण कार्य कर चुका होगा। उसने रात वाली घटना ठकुराणी को बताई। उस क्षण भूत ऊपरी कोने के निर्माण में लगा था। उसने कार्य रोक दिया। यह महल और बावड़ी आज भी रणसी में मौजूद है।28 भूत द्वारा छोड़ गए कार्य को पूर्ण करने का कई बार प्रयास किया गया, पर हर बार असफलता मिली। रणसी के महल का अधूरा कोना आज भी मौजूद है।
राव माण्डण -  राव जेसा के बारह पुत्र में ज्येष्ठ पुत्र राव माण्डण (जन्म 1486 ई.) 1561 ई. में रणसी का पदाधिकारी हुआ। राव चन्द्रसेन ने राव माण्डण को अपने अग्रज उदयसिंह के विरुद्ध फलौदी हस्तगत करने हेतु भेजा। लोहावट के युद्ध में राव माण्डण को सफलता मिली।29 इधर राव उदयसिंह जो मुगल की शाही नौकरी में था ने बादशाह अकबर के सहयोग से जोधपुर और फिर फलौदी पर अधिकार कर लिया। इधर राव चन्द्रसेन की निष्क्रियता को देखकर राव माण्डण उदयसिंह के पक्ष में चला गया। उसने एक शर्त उदयसिंह के समक्षी रखी कि वह राव चन्द्रसेन के समक्ष कभी हथियार नहीं उठाएगा। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र गोपालदास को राव उदयसिंह की सेवा में रखा और स्वयं फलौदी का प्रबंध देखने के लिए रूक गया।30 1584 ई. में बादशाह अकबर की आज्ञा से गुजरात जाते हुए महाराजा उदयसिंह सिरोही में ठहरा। इस दौरान सिरोही के राव सुरताण  के आकस्मिक आक्रमण में राव माण्डण बुरी तरह घायल हो गया। इन्हीं घावों से उसकी मृत्यु हो गई।31
राव गोपालदास - राव माण्डण के तीन पुत्रों में ज्येष्ठ गोपालदास (जन्म 1533 ई.) 1587 ई. में रणसी की गद्दी पर बैठा।32 1584 ई. में बादशाह अकबर द्वारा गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर तृतीय के विरूद्ध भेजी गई सेना में वह भी राव माण्डण के साथ था। मार्ग में सिरोही में पिता की मृत्यु के बावजूद वह विचलित नहीं हुआ और मारवाड़़ की सेना के साथ अहमदाबाद की ओर रवाना हुआ। साबरमती नदी के तट पर शिकार के समय विद्रोही जाडेजा जगा से उसका संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में जगा जाडेजा मारा गया। महाराजा उदयसिंह ने प्रसन्न होकर उसे आउवा का पट्टा दिया।33 राजपीपला नामक स्थान पर शाही सेना का सुल्तान मुजफ्फर की सेना से युद्ध हुआ जिसमें बादशाह अकबर की विजय हुई । पुनः गोपादास के वीरतापूर्ण कृत्य से प्रसन्न होकर महाराजा उदयसिंह ने गोपालदास को पाली का अतिरिक्त पट्टा और प्रधानगी का पद दिया।
ख्यातों के अनुसार गोपालदास ने 1585 ई. में राणा प्रताप द्वारा जैसलमेर यात्रा से लौटते समय भेंट की। यही नहीं उसने आमेट युद्ध में राणाप्रताप को सहयोग भी दिया। इसकी एवज में महाराणा ने गोपालदास को पट्टा देने की इच्छा जाहिर की, किन्तु गोपालदास ने इसे अस्वीकार कर दिया और मारवाड़़ लौटा आया।34 इस बात की पुष्टि अन्य गं्रथों से नहीं हो पायी है। 1585 ई. में महाराजा उदयसिंह ने चारणों के कुछ गांव जब्त कर लिए। चारणों ने आत्महत्या के उद्देश्य से आउवा की ओर प्रयाण किया उन्होंने गोपालदास से उनके गांव बहाल करवाने हेतु सिफारिश करने का निवेदन किया। मोटाराजा उदयसिंह ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। कुछ क्षुब्ध चारणों ने आउवा में आत्महत्या की ओर मारवाड़़ छोड़कर जाने लगे। गोपालदास भी अपना पट्टा छोडकर महाराजा प्रतापसिंह के पास चला गया।
महाराजा सूरसिंह ने 1595 ई. में गद्दी पर बैठा। उसने गोपालदास को बुलवाया और चारणों के गांव लौटा दिए। 1596 ई. में गोपालदास  महाराजा सूरसिंह के साथ गुजरात अभियान पर गया। मार्ग में सिरोही के शासक राव सुरताण पर महाराजा ने आक्रमण कर दिया। गोपालदास की मध्यस्थता से दोनों पक्षों में संधि हुई। 1597 ई. में गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह और उसके पुत्र बहादुरखां से हुए युद्ध में उसने हरावल में रह कर युद्ध किया। अहमदनगर के उपद्रव को शांत करने के लिए अब्दुर्रहीम खानखाना व महाराजा सूरसिंह के साथ गोपालदास भी गया। शाही सेना ने मलिक अम्बर को परास्त कर दिया। इस युद्ध में गोपालदास घायल हुआ।35 1604 ई. में बादशाह जहांगीर ने महाराणा सूरसिंह को गुजरात का सूबेदार बना कर भेजा गया। इसी दौरान 1605 ई. में विद्रोहियों से हुए माण्डवे के युद्ध में गोपालदास वीरगति को प्राप्त हुआ। इस युद्ध में उसका पुत्र राधोदास भी युद्ध में काम आया। गोपालदास के आठ पुत्र हुए, इनमें 7 पुत्र युद्ध में काम आए और 8 वां दलपत घर में मरा। उनकेे विषय में प्रसिद्ध है कि ‘‘गोपालदास के गुरु शिवनाथजी महाराज थे, इनके दर्शन करने आठों भाई गए और सात पुत्रों ने प्रार्थना की हम तलवार की मौत मरें। 8 वें पुत्र दलपत ने व्यंग्य किया कि ‘स्वामीजी के पास भला कौन सी तलवार है ?’ यह सुनकर स्वामीजी ने कहा कि ‘तू खाट सेक कर मरेगा, अन्य सभी तलवार की मौत से मरेंगे।’ कहा जाता है कि इसके बाद दलपत द्वारा की गई सात लड़ाइयों मे ंवह अकेला ही शत्रुओं के बीच कूद पड़ता किन्तु हर बार घायल होकर रह जाता।36
राव बीठलदास - गोपालदास के आठ पुत्रों में बीठलदास ज्येष्ठ था। उसका जन्म 1603 ई. में हुआ। 1605 ई. में वह रणसी का पदाधिकारी हुआ। बादशाह जहांगीर के आदेश से 1605 ई. में महाराज सूरसिंह के दक्षिण अभियान में वह भी साथ में गया। 1615 ई. में मुगलों के उदयपुर अभियान में महाराजा सूरसिंह का दक्षिण से बुलाया गया। महाराज सूरसिंह ने बीठलदास को महाराणा के पास भेजकर संधि करवा दी। 1622 ई. में महाराजा सूरसिंह ने बीठलदास को महाराणा के पास भेजकर संधि करवा दी।37 1622 ई. में महाराजा गजसिंह के साथ वह मलिक अम्बर के विरुद्ध अहमदनगर गया और हरावल में रह कर युद्ध किया। खुर्रम (शाहजहाँ का मूल नाम) द्वारा बागी होकर महाराजा गजसिंह पर आक्रमण करने के समय भी बीठलदास ने हरावल में रह कर युद्ध किया। 1630 ई. में शाही सेना के बीजापुर अभियान में  भी वह महाराज गजसिंह के साथ शामिल था।38 1632 ई. में महाराजा जसवन्तसिंह के सिंहासनारूढ़ होने के समय बीठलदास को सिरोपाव दिया गया तथा रणसी और पाली के पट्टों में गांवों की संख्या बढ़ा दी गई।39 सिवाना विद्रोह दमन और पोकरण पर महाराजा जसवंतसिंह का अधिकार करवाने में उसकी रणकुशलता की प्रशंसा हुई।40 1657 ई. में मुगल राजवंश के उŸाराधिकार युद्ध में महाराजा जसवंतसिंह ने औरंगजेब के विपक्ष में लड़ाई की। धरमत के युद्ध में बीठलदास वीरगति को प्राप्त हुआ।41
राव जोगीदास - राव बीठलदास के 12 पुत्रों में ज्येष्ठ पृथ्वीराज रणसी का पदाधिकारी हुआ। पृथ्वीराज के अनुज जोगीदास को महाराज जसवंतसिंह ने अपनी सेना में बुलवाया। कालांतर में औरंगजेब ने महाराजा जसवन्तसिंह को माफ करके उन्हें सातहजारी मनसब के साथ गुजरात सूबेदार बनाकर भेज दिया। जोगीदास महाराजा के साथ गया। गुजरात में उसने कोली दूदा के उपद्रव को शांत करने में सक्रिय भूमिका निभाई। महाराष्ट्र में शिवाजी के विरूद्ध हुए युद्ध में भी उसने हिस्सा लिया। 1673 ई. में महाराजा जसवंतसिंह को जमरूद सूबेदारी प्राप्त होने पर वह भी महाराजा के साथ अफगानिस्तान गया। महाराजा और जोगीदास आदि अन्य सरदारों के परिश्रम से पठानों पर अंकुश लगाया जा सका।42
1678 ई. में महाराजा जसवंतसिंह की जमरूद में मृत्यु हांे गई। उनकी दो रानियों ने कुछ माह बाद दो पुत्रों को जन्म दिया, अजीतसिंह और दलथम्भन। दलथम्भन की कुछ दिनों बाद मृत्यु हो गई। औरंगजेब ने अजीतसिंह को महाराजा जसवंतसिंह का फर्जी पुत्र घोषित करवा कर नागौर के इन्द्रसिंह को पट्टा प्रदान दिया और महाराजा जसवंतसिंह और उसके पुत्र अजीतसिंह को पकड़ने के लिए 20,000 की सेना भेजी। राठौड़़ वीरों ने बड़ी चतुराई से अजीतसिंह को खींची मुकन्ददास के साथ सिरोही के ग्राम कालिन्द्री पहुंचा दिया। जोगीदास और अन्य सरदारों ने घिर जाने पर रानियों को धारास्नान करवाकर यमुना में बहा दिया और मुगलों से घनघोर युद्ध किया। 1679 ई.  के युद्ध में ठाकुर जोगीदास बहादुरी से लड़कर काम आया।43
ठाकुर सावंतसिंह - ठाकुर जागीदास के दो पुत्रों सावंतसिंह और भगवान दास हुए। सावंतसिंह 1679 ई. में भीनमाल का पदाधिकारी हुआ। वीर दुर्गादास के नेतृत्व में सरदारों ने मारवाड़ में जबरदस्त आतंक फैलाया। सेनानायक अजबसिंह बीठलदासोत के युद्ध में काम आ जाने पर  ठाकुर सावंत सिंह को सेनानायक बनाया गया। सावंतसिंह ने भीनमाल पर आक्रमण कर जालौर के स्वामी बिहारी पठान को निकाल बाहर किया। तत्पश्चात् उसने मुगलों द्वारा अधिकृत किलों और सैन्य चैकियों पर दबाव बनाना प्रारंभ किया। चांपावत सावंतसिंह के सेनापतित्व में यह आक्रमण  प्रत्याक्रमण का दौर 1683 ई. तक चलता रहा। 1683 ई. ठाकुर सावंतसिंह मुगल अधिकारी बहलोल खां से संघर्ष करता हुआ काम आया।44 ठाकुर सावंतसिंह का हठुसिंह नामक एक पुत्र था। 1693 ई. में वह मुगलों से संघर्ष करता हुआ अत्यधिक घायल हो गया तथा अल्पकाल में ही काल कलवित हो गया। तब सावंतसिंह का छोटा भाई भगवानसिंह सावंतसिंह के गोद बैठा और सावंतसिंह के बाहुबल से विजित भीनमाल, मजल और कोरां आदि गांवों का अधिपति हुआ।45
ठाकुर भगवानदास - भगवानदास ने अपने तीव्र अभियानों से मुगल विरोध को पुनः मुखरित किया। उसने अजमेर में मुगल अधिकारियों, नूरअली, पुरदिल खां मेवाती पर आक्रमण कर उन्हें मार डाला और मुहम्मद अली को परास्त किया। काणाणा, गांगाणी, नांदिया, पलासणी इत्यादि थाणों पर आक्रमण कर लूट लिया, पाली व फलौदी से दण्ड लिया। जालौर पर आक्रमण किया किन्तु शासक फतैहखां बिना लडे़ ही भाग गया। उसने मुकुन्ददास खींची से भेंट करके महाराजा अजीतसिंह को अज्ञातवास से प्रकट करने का निवेदन किया। वीर दुर्गादास से स्वीकृति मिलने पर मुकुन्ददास खींची ने महाराजा अजीतसिंह को प्रकट कर दिया। इससे राठौड़़ वीरों में नव उत्साह का संचार हुआ। महाराजा अजीतसिंह को सिवाणा दुर्ग में सुरक्षित रखा गया किन्तु मुगलों के बढ़ते दबाव के कारण अजीतसिंह को पीपलाद की पहाड़ी में जाना पड़ा। भगवानदास सफलतापूर्वक सिवाणा का प्रबंध करता रहा और अजीतसिंह की सहायतार्थ धन भेजता रहा।46
1691 ई. में पुत्र अमरसिंह से विवाद उत्पन्न होने पर महाराणा जयसिंह ने महाराजा अजीतसिंह से सहायता भिजवाने को कहा। इस मौके पर महाराजा ने अपने चार सरदारों दुर्गादास, भगवानदास, दुर्जणसाल (जोधा), अखैसिंह (उदावत) को सेना सहित भेजा। इन सरदारों के सक्रिय प्रयासों से पिता पुत्र में संधि सम्पन्न हुई।47 इसी बीच औरंगजेब और उसके अधिकारियों ने अनेक छल कपट और फूट डालने के प्रयास किए, जिन्हें भगवानदास ने दुर्गादास से परस्पर सलाह कर विफल कर दिया।48
1706 ई. में औरंगजेब की मृत्यु होने पर दुर्गादास, भगवानदास एवम् अन्य सरदारों ने सेना एकत्रित कर दिल्ली की ओर कूच किया। फौजदार जाफर कुली खां भाग छूटा।49 1708 ई. में बादशाह बहादुरशाह की फौज राजपूतों के उपद्रवों को कुचलने के लिए भेजी गई। जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह ने मारवाड़़ की सेना के साथ मिलकर मुगल सेना पर भीषण प्रहार किया। इस युद्ध में ठाकुर भगवानदास हरावल में था। बादशाही सेना पराजित होकर भाग खड़़ी हुई। बाद में दोनों पक्षों में हुई संधि में भगवानदास की सक्रिय भूमिका रही।50 इस बीच कृत्रिम दलथम्भन के विद्रोह को कुचलने के लिए महाराजा अजीतसिंह ने भगवानदास कोे सोजत भेजा। दो दिन के भीषण युद्ध के बाद कृत्रिम दलथम्भन भाग खडा हुआ।51 1708 ई. में महाराज अजीतसिंह ने नागौर के शासक इन्द्रसिंह पर अपनी एक फौज भेजी। इस सेना में अग्रणी भगवानदास था। गोलाबारी के प्रारंभ होते ही उसने एक दूत भेजकर अपराध क्षमादान और संधि की याचना की। भगवानदास की मध्यस्थता से काफी कठिनाईपूर्वक अजीतसिंह को मनाया जा सका। 1709 ई. में भगवानदास को प्रधानमंत्री पद ओर घोड़ा सिरोपाव देकर दासपा आदि 30 गांवों के पट्टे देकर जागीर में अभिवृद्धि की गई।
दिसंबर 1713 ई. में बादशाह फरूर्खसियर ने सैय्यद हुसैनअली खां को सेना देकर मारवाड़़ पर भेजा, क्योंकि अजीतसिंह ने दक्खन की सूबेदारी अस्वीकृत कर दी थी। महाराजा अजीतसिंह ने जोधपुर नगर और किले की सुरक्षा का प्रबंध भोपालसिंह जागीदासोत (चाम्पावत) के सुपुर्द किया और मुगलों से युद्ध करने चल पड़ा। हुसैनअली खां जो स्वयं युद्ध का पक्षधर नहीं था, ने एक प्रतिनिधि भेजकर संधि का प्रस्ताव किया। महाराजा अजीतसिंह ने प्रधान भगवानदास और अन्य सरदारों को संधि हेतु प्राधिकृत किया। भगवानदास ने संधि के वार्तालाप के लिए कुछ सरदारों को भेजा, किन्तु हुसैनकुलीखां ने इन्हें कैद कर लिया। तब भगवानदास और जोधा हरनाथ सिंह ने मुगलों पर धावा बोला। घमासान युद्ध में हरनाथसिंह मारा गया और भगवानदास घायल हो गया।52 एक सैनिक वहां से बच निकला। उसने महाराजा के रैण डेरे पर आकर भगवानदास के पुत्रों महासिंह और प्रतापसिंह को यह घटना बताई और भगवानदास के भी मारे जाने की गलत सूचना दी। महाराजा ने इसके शोक में तीन वक्त की नौबत बंद कर दी और उसके पुत्रों ने औध्र्वदैहिक क्रिया कर डाली। अगले दिन भगवानदास ने महाराजा के डेरे पर पहुँचकर सबको आश्चर्यचकित कर दिया। अजीत सिंह ने अपना डेरा आसोप किया और भगवानदास को जोधपुर के किले का प्रबंध सुपुर्द किया। कुछ दिनों में दोनों पक्षों में सुलह हो गई।
1714 ई. में महाराजा अजीतसिंह को गुजरात को सूबा इनायत हुआ। जोधपुर राज्य के प्रबन्ध का जिम्मा भगवानदास को पुनः सौंपा गया। किन्तु अगले ही वर्ष 70 वर्ष की आयु की अवस्था में उसका देहान्त हो गया। ठा. भगवानदास के विषय में कहा जाता है कि उसका सामान्य से काफी ऊंचा कद था। भीनमाल के वाराहजी के मंदिर में वाराहजी का छत्र जमीन पर खडे़ रहकर बांध देता था जबकि वहां का पुजारी तीन सीढ़ी चढ़कर वाराह जी के माथे पर तिलक लगाता था।53 ठा. भगवानदास को अग्रलिखित कुरब हासिल थे54
1. प्रधान का पद 2. दोहरी ताजीम
3. ठाकरां लेख 4. मिसल में सिरे बैठना
5. सवारी में घोड़ा आगे रखना 6. सरब ओपमा
7. डेरा सिरे पर करना 8. खासा ठामना
9. बांह पसाव 10. हाथ का कुरब
11. बगल गीरी 12. पहले बतलाना
ठाकुर महासिंह - ठा.भगवानदास के चार पुत्रों में महासिंह (जन्म 1687 ई.द्ध ज्येष्ठ था। ठा. भगवानदास ने 1713 ई. में अपनी जागीर के दो भाग किए। महासिंह को मीजल दिया, जिसमें भीनमाल भी शामिल था। प्रताप सिंह को दासपों प्रदान किया। कालांतर में महाराजा अभयसिंह ने महासिंह को मीजल भीनमाल की एवज में पोकरण प्रदान किया।
पोकरण के चाम्पावत जागीरदार
पोकरण ठिकाणा सर्वप्रथम महाराजा अजीतसिंह के द्वारा भीनमाल के ठिकाणेदार एवं राज्य के प्रधान भगवानदास चाम्पावत के पुत्र महासिंह को 1708 ई. में प्रदान किया गया। किन्तु कुछ समय पश्चात् ही पोकरण पुनः चन्द्रसेन नरावत को प्रदान किया गया।55 भगवानदास की मृत्यु (1715 ई.) के पश्चात् उसके पुत्र महासिंह को भीनमाल की जागीर मिली।56


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अध्याय - 2 पोकरण का आरंभिक इतिहास 1

अध्याय - 2

पोकरण का आरंभिक इतिहास


पोकरण (पोहकरण) कब और किसके द्वारा बताया गया, इस बारे में कोई स्पष्ट साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। जनश्रुति है कि पोकरण पुष्करणा ब्राह्मणों के पूवजों पोकर (पोहकर)  ऋषि का बसाया हुआ है। एक कथा प्रचलित है कि जब श्री लक्ष्मीजी ओर श्री ठाकुर का विवाह सिद्धपुर में हुआ तब 45,000 श्रीमाली ओर 5000  पुष्करणा ब्राह्मण वहां एकत्रित हुए। विष्णु ने पहले श्रीमाली ब्राह्मणों की पूजा की इससे पुष्करणा ब्राह्मण वहां से नाराज होकर चले गए उन्होंने कहा कि आपने हमारा अपमान किया है विष्णु ने उनहें मनाने की बहुत कोशिश की जब वे नहीं माने तब विष्णु ओ लक्ष्मी जी ने उन्हें श्राप दिया -
वेद हीन हो
क्रिया भ्रष्ट हो।
निरजल देश बसो।
मान ही हो ।1
इसके पश्चात् पोकर ऋषि इस क्षेत्र में आकर बसे। उस समय यहां पानी उपलब्ध नहीं था। अतः उन्होंने वरूण की उपासना की। वरूण ने उन्हें प्रसनन होकर वर दिया कि एक कोस धरती में दस हाथ गहराई में पानी मिलेगा। आज भी आस-पास के अन्य क्षेत्र के अपेक्षा यहां अधिक जल मौजूद है।
पोकर ऋषि श्रीमाली ब्राह्मणों से अप्रसन्न था। उसने राक्षसी विद्या का प्रयोग कर श्रीमाली ब्राह्मणें के गर्भ में अवस्थित गर्भजात शिशुओं को मारना शुरू कर दिया इससे उनका वंश बढ़ना रूक गया। सभी श्रीमाली इकट्ठे होकर लक्ष्मी ओर विष्णु के पास पहुँचे और उन्हें अपनी चिन्ता बताई। अन्र्तयामी विष्णु ने उनकी शंका को उचित बताया। लक्ष्मी जी ने उनसे श्रीमालिसयों की सहायता करने का निवेदन किया। विष्णु श्रीमालियों को लेकर पोकरण आए। उन्होंने पुष्करणों को काफी प्रयत्न करके एकत्रित किया क्योंकि पुष्करणा विष्णु और उनके श्राप से नाराज थे। पुष्करणा ब्राह्मणों द्वारा विष्णु से श्राप से मुक्त करने और वर देने का निवेदन किया। विष्णु ने तब वर दिया -
वेद मत पढ़ो, वेद के अंग पुराणों को पढ़ो ।
राजकीय सम्मान हो।
तुम्हारी थोड़ी लक्ष्मी अधिक दिखेगी।
श्रीमाली लाखेश्वरी तुम्हारे आगे हाथ पसारेगी।
इस तरह विष्णु ने दोनों पक्षों में सुलह करवाई ।2
‘‘महाभारत’’  में भी पोकरण से सम्बन्धित संदर्भ प्राप्त हुए है। इसमें पोकरण के लिए पुष्करण या पुष्करारण्य नाम प्रयुक्त हुआ है; यहां के उत्सवसंकेत गणों को नकुल में दिग्विजय यात्रास के प्रसंग में हराया था।3 इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि पोकरण पश्चिमी राजस्थान के अत्यन्त प्राचीन नगरों में से एक है; इसके एक सहस्त्राबदी का पोकरण काइतिहास पूर्णतया अंधकारमय है।
सन् 1013 ई (वि.सं. 1070) का एक गुहिल स्तम्भ लेख हमें पोकरण के बालकनाथ मंदिर  से प्राप्त हुआ है।4 अवश्य ही यह पोकरण के आस-पास के क्षेत्र का कोई गुहिल शासक या अधीनस्थ शासक रहा होगा जिसने संभवतः म्लेच्छ महमूद गजनवी या अन्य मुस्लिम शासक के सैनिको द्वारा गायों के पकड लेने पर युद्ध किया और मृत्यु को प्राप्त हुआ।5 यह भी संभव है कि परमारों से हुए युद्ध में वह मारा गया हो क्योंकि इसी काल (17 जून 1013 ई.) का एक परमारकालीन अभिलेख6 भी पोकरण से ही प्राप्त हुआ है जिसमें परमार धनपाल ने अपने पिता की स्मृति में गोवर्द्धन स्तंभ का निर्माण करवाया था। धिन्धिक भी गुहिक शासक के समान गायों की रक्षा करते हुए मारा गया था। यह भी संभव है कि गुहिक शासक परमार धिन्धिक की मदद के लिए आया हो और दोनो ही वीरगति को प्राप्त हुए हो। इस विषय में न तो अभिलेख ओर न ही कोई अन्य समकालीन स्त्रोत कोई जानकारी दे पाए है। किन्तु यह अवश्यक कहा जा सकता है कि इस काल में पोकरण क्षेत्र में परमार अथवा पंवार काफी सक्रिय थे। वर्तमान जैसलमेर के माड क्षेत्र भाटी विजयराव चूडाला के पुत्र देवराज के बाल्काल की घटना से इस पर प्रकाश पडता है।
भाटी विजयराव जिसका काला 1000 ई (1057 वि.सं.)7 के लगभग का है ने अपने पुत्र देवराज का पाणिग्रहण बीठोडे़ (संभवतः भटिण्डा) के वराह शाखा के पंवारों से किया। देवराज की अवस्था उस समय पांच वर्ष थी। कन्या का नाम हूरड़ था। विवाह की दावत के समय वराहों तथा झालों ने पूर्व नियोजित षडयंत्र के अनुसार भाटियों की बारात पर अचानक आक्रमण कर दिया। आक्रमण करने की वजह यह थी कि विजयराव चूड़ाला की बढती शक्ति से वराह पंवार आतंकित थे तथा अपनी सम्प्रभुता के लिए खतरा मानते थे। इस आक्रमण में विजयराव अपने 750 साथियों के साथ मारा गया। घाटा डाही की स्वामीभक्ति के कारण बालक देवराज के प्राण बच गए।8 एक रैबारी नेग अपनी दु्रतगति ऊंटनी पर बैठाकर पोकरण लाने में सफल रहा। संभवतः धाय डाही ने रेबारी नेग को देवराज सौपकर पोकरण पहुंचाने का निर्देश दिया था।
इतिहासविद मांगीलाल व्यास से वीठाड़े कागे भटिण्डा होने का अनुमान लगाया है।9 इसके विपरीत डाॅ. हुकुमसिंह भाटी ने इसे देरावर मना है।10 वास्तव में देरावत अधिक युक्तिासंगत प्रतीत होता है क्योंकि विजयराव चूड़राला का बडी बारात लेकर भटिण्डा जाना ओर देवराज का वहां से ऊंटनी से बचकर सकुशल पहुंच जाना अविश्वसनीय लगता है। वीठोड़ा देरावर या उसके आस-पास का ही कोई क्षेत्र रहा होगा।
रेबारी नेगा देवराज को लेकर पोकरण पहुंचा। वहां अपने खेत में काम कर रहे एक ब्राह्मण देवायत पुरोहित को नेग ने सारी स्थिति स्पष्ट कर दी। ब्राह्मण से बालक की सुरक्षा का वचन लेकर उसने देवराज को सौप दिया। उधर वराहों ने बालक देवराज की खोजबनी करनी प्रारंभ करदी। जब वह अपने डेरे पर नहीं मिला तो पागिरयों की सहायता ली गई। पागियों को लेकर वराह ऊंटनी के पद-चिन्हों का पीछा करते हुए पोकरण जा पहुँचे। पोकरण में खोजबनी करते हुए वे देवायत पुरोहित के यहां पहुंचे। बालक देवराज के हुलिए से उन्हें उस पर शक हुआ। देवायत के लिए वराहों ने उसे देवराज के साथ भोजन करने को कहा। तब देवायत ने अपने पुत्र रतन के साथ देवराज को भोजन करवा दिा। सयंदेह दूर होने पर वराह सेनिकों का दल वहां से चला गया।11
इस प्रकार देवायत ब्राह्मण ने जातीय खानपान के नियम भंग कर देवराज के प्राण बचा लिए किन्तु ब्राह्मणों ने रतन को अतिच्यु कर दिया। मजबूर होकर उसे सोरठ जाना पड़ा।
सŸाा पुनः प्राप्त होने पर देवराज ने रतन की खोज करवाई। रतन के मिल जाने पर उसे अपना बारहठ बनाया और उसके सिर पर छत्र मंडा कर दिया चारण की पुत्री के साथ उसका विवाह कर दिया। उसके वंशज रतनू चारण के नाम से प्रसिद्ध हुए।12
भाटी देवराज जिसका काल 1020 ई. (1097 वि.सं.) के आसपास का है ने वराहो को पराजित  कर उनके क्षेत्रों पर अधिकार स्थापित कर लिया।13 पंवारों की पराजय के बाद भी इस क्षेत्र में उनका प्रभाव पूर्णतया समाप्त नहीं हुआ। उपरोक्त घटना के बाद भी पोकरण में पंवारों की ठकुराई के साहित्यिक प्रमाण मिले है।14 किन्तु उनकी स्थिति स्वतंत्र सम्प्रभु शासक की थी या अधीनस्थ सामंत की इस विषय में हमारे पास कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। भौगोलिक दृष्टि हम यदि सोचे तो पोकरण का जैसलमेर के निकट होना जल की पर्याप्त उपलब्धता, नमक की उपलब्धता, पंवारों से परम्परागत शत्रुता इत्यादि कारणों से यह क्षेत्र अवश्य ही उस क्षेत्र में शक्तिशाली भाटियों के अधीन रहा होगा तथा पंवारों की स्थिति अधीनस्थ सामंत या  ठाकुर की रही होगी। यह तथ्य गौर करने योग्य है कि रैबारी नेग बालक देवराज के प्राण बचाने के लिए पंवारों के अधीन क्षेत्र में कभी नहीं ले जाता। इससे यह प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र पर पंवारों का अधिकार नहीं था। यहां उस समय गुहिलों का  शासन रहा होगा जो मेवाड के गुहिलों की कोई शखा या अधीनस्थ सामन्त रहा होगा। पोकरण के बालनाथ मंदिर में सन् 1013 (वि.सं. 1070) का गुहिल स्तंभ लेख इस ओर संकेत करता है। पोकरण से ही सन् 1013 ई. (वि.सं. 1070, आषाढ़ सुदी 6 शनिवार) का एक परमार अभिलेख प्राप्त हुआ है15 जिसमें वर्णित है कि परमार शिष्य पुण्य का पुत्र धिन्धक के पुत्र परमार धनपाल ने अपने पिता की स्मृति में गोवर्द्धन स्तंभ का निर्माण करवाया था। दोनों ही एक प्रकार से युद्धों में गायों की रक्षा कतरे हुए मारे गए। इसी वर्ष के परमार अभिलेख से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पंवारों ने ही गुहिलों की गायें पकडी थी। गुहिल शासक की मृत्यु होने पर उन्होंने इस क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया।  गुहिलों को हराने वाला अवश्यक ही धिन्धिक रहा होगा। उसी वर्ष पंवारो के शत्रु भाटी अथवा किसी अन्य गुहिल शासक ने पंवारों के शत्रु भाटी अथवा किसी अन्य गुहिक शासक ने पंवारों की गायें पकड ली होगी और धिन्धिक युद्ध करता हुआ मारा गया होगा। गोविन्दलाल श्रीमाली ने अपने ग्रंथ राजस्थान के अभिलेख में गुहिल और परमार शासकों का गजनवी के सिपाहियों अथवा सिंध के मुस्लिम शासकों से गायो की रक्षा करते हुए युद्ध में मारे जाने की बात कही है। उपरोक्त शासकों का गाये पकड़ने का उद्देश्य स्पष्ट नहीं हो पाता है। उनके लिए गायें पकड कर अपने सुदूर देश ले जाने का विचार अविश्सनीय सा लगता है।  अतः अभिलेख में वर्णित शत्रुओं का मुस्लिम आक्रांत होने की धारणा की संभावना काफी कम है।
सन् 1013 ई के परमार अभिलेख के आधार पर इसी वर्ष से पोकरण पर पंवारों की सŸाा स्थापना मानी जा सकती है। सन् 1182 ई. (वि.सं.1239) के पोकरण के समीप ओलन गांव से प्राप्त शिलालगेख से यह ज्ञात होता है कि यह क्षेत्र भीमदेव चालुक्स के अधीन था। इसी वजह से महारावल जैसल अपनी सीमान्तों का विस्तार वहां तक नहीं कर पाया था।16
लगभग इसी समय पोकरण में  पंवार पुरूखा की ठकुराई थी।17 अवश्य ही यह चालुक्यों का अधीनस्थ सामंत रहा होगा। इसी वजह से जैसलमेर के भाटी इनके विरूद्ध कार्यवाही कर पोकरण पर अधिकार नहीं कर सके। पुरुखा ने पोकरण में लक्ष्मीनारायण जी का एक देवस्थान बनवाया। इन्हीं दिनों भैरव राक्षस का यहां आना हुआ। वह रोज एक आदमी का मांस खाने का आदी था। पुरुखा के कोई पुत्र नहीं था। अतः उसकी मृत्यु के बाद उसका दामाद नानग छाबडा गद्दी पर बैठा। प्रतापी ठाकुर नानग ने युद्ध में अनेक सोने की थालियाँ जाती थी। भैरव राक्षस रोज एक सोने की थाली ले जाता था। नानग ने इसबात को गुप्त रखा।
नानग की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मध्ध्विल गद्दी बैठा। रोज एक थाली कम हो जाने कापता लगने उसने थालियों पर सांकल लगवा दी इससे नाराज होकर भैरव राक्षस ने महिध्वल को पकड लिया। संभवतः भैरव राक्षस मारा गया। भैरव राक्षस के भय से पोकरणवासी नगर छोडकर चले गए।18
सन् 1375 ई (वि.स. 1432) के लगभग रावल मल्लिनाथ राठौड़ महेवा राज्य की सीमा विस्तार करने के उद्देश्य से पोकरण और उसके उसके आस-पास के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। इस क्षेत्र में राठौडों की सŸाा स्थापित हो जाने से जेसलमेर के भाटियों और मारवाड के राठौड़ों में झगडों का सूत्रपात हुआ।19
रावल मल्लिनाथ के शासनकाल में अजमाल तंवर उससे मिलने आया। उसने रावल से सूने पोकरण को पुनः बसाने की अनुमति मांगी। अजमाल तंवर के पुत्र रामदेव जी (1352ई.-1385 ई) ने भैरव को वश में करके सिंध जाने का आदेश दिया। भैरव का आतंक समाप्त हो जाने पर नगर पुनः आबाद हो गया। इधर रामदेव जी जब किसी काय्रवश तुंवरावाही (जयपुर राज्य) गए हुए थे पीछे से उनके अग्रज वीरभदेव जी अपनी पुत्री का विवाह राव मल्लिनाथ जी के पौत्र ओर जगपाल के पुत्र हम्मीर से कर दिया।20 एक जनश्रुति के अनुसार रिवाज के मुताबिक वीरमदेवजी ने अपनी .पुत्री से कुछ मांगने को कहा। तब पति के कहे अनुसार उसने गढ के कंगूने मांग लिए। पुत्री की इच्छा पूरी करते हुए उसने पोकरण छोड़ दिया। तुंवरावाटी से लौटकर आने पर रामदेवजी उस स्थान पर जा बसे जहां वर्तमान में रामदेवरा है। यही 33 साल की अवस्था में 1385 ई (सं. 1442 भादवा शुक्ल एकदशी) को राम सरोवर की पाल पर जीवित समाधि ले ली।21
राठौड़ हमीर के पश्चात् राव दुरजणसाल, तत्पश्चात् राव बजरंग ने पोकरण का शासन किया22 और फिर राव खींवा (क्षेमराज) नामक एक निर्बल ठाकुर पोकरण का स्वामी हुआ। पोकरण पर शासन करने के कारण हमीर के वंशज पोकरणा राठौड़ कहलाए।23 इन पोकरणा राठौड़ो ने राव जोधा को मण्डोर पर अधिकार करने में भी मदद की।24 जैसलमेर के महारावल देवीदस ने पोकरण के पौकरणा राठौड़ौं और भाटियों के बीच निरन्तर संघर्ष के कारण कुण्डल जो फलौदी के पास हैं, अपने दामाद राव सातल को दे दिया25। राव सातल के उŸाराधिकारी सूजा ने अपने पुत्र नरा (नरािसंह) को फलौदी का जागीर में दी। फलौदी में जल की कमी होने के कारण उनका मन वहां नहीं लगा। इसलिए उसनेराव सूजा से प्रार्थना कर पोकरण स्वयं के नाम लिखवा ली।26 मूंता नैणसी ने पोकरणा राठौड़ खींवा और नरा के मध्य हुए संघर्ष का रोचक विवरण प्रस्तुत किया है-27
राठौड़ खींवा  का पोकरण पर राजा था जो बालनाथ योगी का आसन था। वहीं बेंगटी में महराज के बेटे हरभू सांखला का राज था। उसने अपनी पुत्र का विवाह भाटी कलिकरण केहरात (जैसलमेर) से की। आशा से होने के कारण वह पीहर थी। कड़े नक्षत्र मे ंउसने एक पुत्री को जन्म दिया। माॅ-बाप और वंश पर भारी होने का विचार करकेे उसे त्याग दिया।

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अध्याय - 2- 5

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बादशाह अकबर ने राव चन्द्रसेन की शक्ति को तोड़ने के लिए महारावत हराराज के पुत्र कंवर सुल्तानसिंह को शाही सेवा की एवज में फलौदी परगना जागीर में दे दिया। भौगोलिक स्थिति के अनुसार पोकरण जैसलमेर और फलोदी के मध्य है। मारवाड़ में उस समय अराजकता व्याप्त थी। अतः पोकरण विजित करने का यह अवसर भाटियों को अनूकल लगा। इसी दौरान महारावल हरराज का पुत्र कुंवर भाखरसी बादशाह अकबर का कृपापात्र बनकर पोकरण को अपनी जागिर में लिखवाने में सफल रहा। उन दिनों राव चन्द्रसेन के हाथों से सिवाणा छूअ गया।71 वह अब मेवाड़ के मुराड़ा ग्राम में रह गया था।72 इस अवसर का लाभ उठाने के लिए भाटियों ने फिर से पोकरण जीतने के प्रयास प्रारंभ किए।
ई.सन् 1575 अक्टूबर वि.सं. 1632 की कार्तिक माह में जैसलमेर महारावल हरराज 8000 सैनिकों सहित पोकरण पहुंचा और पोकरण घेर लिया।73 इस घटना को विभिन्न स्त्रोत अलग-अलग ढंग से वर्णित करते है । राव चन्द्रसेन की ख्यात में वर्णित है कि रावल हरराज स्वयं 8000 आदमियों को लेकर आक्रमण करने पोकरण पहुंचा और घेरा डाला।74 जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार महारावल हरराज 7000 आदमियों के साथ पोकरण आक्रमण करने के निमिŸा आया।75 आक्रमण के वर्ष और माह उपरोक्त दोनो गं्रथों में एक समान है।
मूंहता नैणसी ने भाटियों के आक्रमण का एकदम भिन्न विवरण दिया है। मूंहता नैणसी ने लिखा है कि राव चन्द्रसेन जो मेवाड़ के मुराड़ा ग्राम मंें रह रहा था को पोकरण से दूर जानकर ई.सन् 1576 (वि.सं.1633) के सावन माह में महारावल हरराज ने अपने पुत्र भाखरसी को करीब 600-700 योद्धाओं के साथ फलौदी से पोकरण भेजा। उसने पोकरण गढ़ का घेरा डाला।76 गढ़ में उपस्थित 40 व्यक्तियों ने भाखरसी के प्रयास को विफल कर दिया। गढ़ में रसद और युद्ध सामग्री भी पर्याप्त थी। भाखरसी दो माह तक यहां घेरा डाले रहा। थक हारकर भाखरसी ने महारावल हरराज को अधिक सेना और युद्ध सामग्री भेजने का निवेदन किया। महारावल हरराज दो हजार अश्वाारोहियों को लेकर पोकरण की ओर रवाना हुआ और राजकुमार भींव को कुछ पदातियों के साथ रवाना किया। महारावल हरराज की फौज में भाटी खेतसिंह मुख्तियार था तथा पोकरण का मुख्तियार पंचोली अणदा मुख्तियार था। राव चद्रसेन री ख्यात - पृत्र 408, जोधपुर राज्य री ख्यात 109। जैसे ही यह सेना पोकरण गढ का घेराव करने के लिए निकट पहुंची। दुर्ग की दीवार के रूथ्रों से गोलियों की बोछार होने लगी। तत्पश्चात् भाटियों की सेना ने शहर से एक कोस दूर नरासर तालाब में डेरा डाला। इस स्थान से सेना ने कई बार दुर्ग पर आक्रमण किया पर असफल  रहे। चार माह तक गढ़ का घेराव और लडाई चलती रही, पर कोई परिणाम नहीं निकला। इन परिस्थितियों में भाटियों ने अपने प्रधान के मार्फत भण्डारी माना के समक्ष प्रस्ताव रखा - ‘‘राव चन्द्रसेन के हाथ से मारवाड़ निकल चुका है। पोकरण पर तुर्कों (मुगलों)  का अधिकार हो इससे तो अच्छा है कि पेाकरण हमारे रहन रख दिया जाए वेसे भी हम राठौड़ो के सगे सम्बन्धी है। जब जोधपुर पर राव चन्द्रसेन का अधिकार हो जाए, उस समय हमारी रकम लौटाने पर हम  आपको पुनः पोकरण लौटा देंगे। राव चन्द्रसेन की स्वीकृति मिलने पर एक लाख फदियेमें पोकरण को भाटियों के रहन रखना निश्चित हुआ।78
राव चन्द्रसेन ने भाटियों को पोकरण क्यों सौप दिया, यह विचारणीय विषय। राव चन्द्रसेन संभवतः अपनी जमीनी हकीकत को समझता था। तत्कालीन समय उसके लिए अत्यन्त संकट पूर्ण था। बादशाह अकबर ओर मोटा राजा उदयसिंह जो उसका अग्रज था कि फौजें उसके पीछे लगी थी। पोकरण से उसका समपर्क टूट चुका था क्योंकि सिवाणा उसके हाथ से छूट चुका। केवल विŸाीय  प्रलोभनों में पड़कर वह पोकरण नहीं छोड सकता था। जैसलमेर के महारावल का पुत्र भाखरसी मुगल मनसबदर के रूप में पेाकरण प्राप्त कर चुका था और वह किसी भी प्रकार से पोकरण प्राप्त करके ही रहेगा। यह बात दूरदर्शी चन्द्रसेन जानता था। भाटियों द्वारा पोकरण पर अधिकार करने में असफल रहने पर शाही मुगल फौजो की भी सहायता ली जा सकती थी। अतः देर सवेर पोकरण का हाथ से निकल जाना निश्चित था। राव चन्द्रसेन को अपनी उस समय की संकटपूर्ण परिस्थिति से निपटने के लिए धन की आवश्यकता थी। उसने अवश्य ही यह सोचा होगा कि भूमि तो जानी ही है ऐसी स्थिति में धन केा ठुकराना उचित नहीं होगा। यदि जोधपुर पर कभी अधिकार हो गया तो भाअियों के पास पोकरण रहना संभव नहीं है।
इन सभी स्थितियों पर विचार करके चन्द्रसेन ने मांगलिया भोज को पोकरण भेजकर कहलवाया कि पोकरण कोट हरराज को सौप दो। इस प्रकार रविवार  29 जनवरी 1576 ई को पोकरण भाटियों को दे दिया गया। भाटियों ने मांगलिया भोज को 37,000 फदिए उसी समय दे दिए जिसमें से उसने 5000 स्वयं ने रखे तथा 20,000 फादिये राावजी के राजपूतों को कोट में बांट दिए। बाकी के 12000 फदिए मांगलिया भोज लेकर राव चन्द्रसेन के पास गया।
मूंहता नैणसी ने अपने ग्रंथ ‘मारवाड़ परगना री विगत’ में कुछ विवरण दिया है। नैणसी के अनुसार राव चन्द्रसेन80 पोकरण सौपने को राजी होने के पश्चात्  भाटियों ने 20,000 फदिए तो उसी समय चुका दिए और शेष राशि जैसलमेर जाने पर चुकाने का वादा किया। सं. 1633 (1576 ई.) फाल्गुन बदि 14 को कुंवर भींव को गढ़ सौप दिया गया। तत्पश्चात् भण्डारी माना और मांगलिया भोज जैसलमेर गए। उन्हें कई दिन इन्तजार करवाया गया। थक हारकर वह बिना रकम लिए ही लौट गए।81 इस प्रकार महारावल हरराज और राव चन्द्रसेन के मध्य 1 लाख फदिये में संधि का उल्लेख अनेक विद्वान करते है कि कितनी रकम का लेन-देन हुआ। निश्चित ही यह तय की गई से कम था। अतः भाटियों ने वादखिलाफी की थी। इस घटना के पश्चात् राव चन्द्रसेन न तो मारवाड़ पर अधिकार कर सका और न ही पोकरण को रहन से छुड़ा सका।
ई. सन् 1581 (वि.सं. 1638 के ज्येष्ठ माह)   में बादशाह अकबर ने मोटा राजा उदयसिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर उसे जोधपुर का राज्य दिया तथा उसके मनसब में सातलमेर को भी सम्मिलित किया। लेकिन इस पर अमल नहीं किया जा सका । ई.सन् 1594 (वि.सं. 1651 आषाढ़ सुदी 16) को मोटा राजा उदयसिंह की मृत्यु के पश्चात् राजा सूरजसिंह का टीका हुआ। पोकरण  परगने का राजस्व चूंकि 5,60,000 दाम अथवा  14,000 रूपए था, अतः राव सूरजसिंह ने कुंवर गजसिंह को पोकरण पर अधिकार करने हेतु फौज सहित भेजा किन्त अभियान असफल रहा और पोकरण   पर जैसलमेर के भाटियों का अधिकार बना रहा।
जैसलमेर गढ़ के किलेदार गोपालदास ऊहड़ (राठौड़)  के पुत्रों अर्जुन, भूपत तथा माण्डव ने पोकरण क्षेत्र के कुछ गांवों को लूटा और वहां से मवेशी लेकर भाग गए। इस पर जैसलमेर राज्य द्वारा नियुक्त थानेदर  भाटी कल्ला जयमलोत, भाटी पन्न सुरतानोत और भाटी नन्दो रायचन्दोत ने इन लुटेरों का पीछा किया और वलसीसर गांव के समीप उन्हें जा पकड़ा।83 लुटेरों ने रात भर भाटियों को कहानी सुनाने में व्यस्त रखा। लुटेरा के कुछ साथी वहां से बचकर कोढ़णा ग्राम पहुंचने में कामयाब रहे। रातों-रात उहड़ो की सेना वलसीसर जा पहुंची। प्रातःकाल दोनों पक्षों में युद्ध हुआ जिसमें दोनो पक्षों के काफी लोग मारे गए।84 मरने वालों में पोकरण की सैन्य टुकडी के भाटी कल्ला एवं नेता जयमलोत, शिवा अजाओत, भाटी नान्दो रायचन्दोत, केल्हण, पेथड़, मोकल एवं मेघा आदि योद्धा काम आए और केल्हण तथा भाटी प्रतापसिंह सुरतानोत घायल हुए। गोपालदास के पुत्र वहां से अपने गांव भाग गएं महारावल भीम ने इसकी शिकायत जोधपुर दरबार पहुंचाई । प्रत्युŸार में जोधपुर के प्रधानभाटी गोविन्ददास ने सूचना भेजी कि गोपालदास मेरी आज्ञा नहीं मानता है। अतः वे स्वतः ही उससे निपटे।85
तत्पश्चात् भीम ने अपने अनुज कल्याणमल की अध्यक्षता में एक सेना को ढणा ग्राम भेजी। आक्रमण् होने की सूचना पोकर गोपाल रात्रि में ही तुरंत जोधपुर से रवाना हुआं उस समय गंगाहै ग्राम में भाटियों की सेना रूकी हुई थी। प्रातःकाल वह वहां पहुंचा और भाटी सेना का मुकाबला कर काम काम आयां उसके साथ 35 राठौड़ और चैहान योद्धा मारे गए।86
15 ऊहड - कमरसी, कंवरसी, महेस, गोयंद आदि
7 चैहान - शंकर, सिंघावत, वीसा आदि
6 देवड़ा - गोपा, गोयंद आदि
2 रांदा
2 ईंदा (पड़िहार)
2 ब्राह्मण
1 मांगलिया (गहलोत)
इस युद्ध के पश्चात् उहड राठौड़ो ने जैसलमर के भाटियों के विरूद्ध युद्ध करने का कभी साहस नहीं किया।
महारावल मनोहरदास के शासनकाल में पोकरणा पोकरणा राठौड़ो का उपद्रव शनैः-शनै बढ़ने लगा। इन्होंने महेवा प्रदेश में रहते हुए जैसलमेर राज्य में लूटमार आरंभ कर दी। पोकरणा राठौड़ो ने पोकरण के निकट स्थित कालमुधा गांव में लूटमार की और पोकरण का इलाका हस्तगत करने का प्रयास किय। अतः महारावल मनोहरदास को इनके विरूद्ध सामरिक कार्यवाही करनी पड़ी तथा स्वयं ने इन पर ससैन्य चढ़ाई की। जैसलमेर से 40 कोस की दूरी पर जैसल मेर और महेवा की सीमा पर पोकरणों को जा पकड़ा । यही फलसूण्ड से 6 कोस तथा  कुसमला से ढाई कोस के अन्तर पर लड़ाई हुई । पोकरणों के 140 योद्धा काम आये तथा वे भाग खड़े हुए।
युद्ध के पश्चात् पोकरणा  पोकरणों राठौड़ो के गण्यमान सरदार महारावल मनोहरदास की सेवा में उपस्थित हुए और उन्होंने अपने कृत्य पर क्षमा मांगी । तब जाकर इनको पोकरण क्षेत्र मे रहने की अनुमति मिली।87 ऊहडो के समान पोकरणों ने भी इसके पश्चात् कभी भी जैसलमेर के भाटियों से सशस्त्र विद्रोह करने का प्रयास नहीं किया।


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अध्याय - 2 -4

अध्याय - 2 -4


हरराज ने बाड़मेर के रावत भीम को अपनी तरफ करके राव मालदेव के विरूद्ध सहायता देने के लिए बुलाया। वह 400 घुड़सवारों सहित हरराज की सेवा में उपस्थित हुआ। उसने जैतमाल के साथ मिलकर राव मालदेव की सेना पर आक्रमण किया ओर 400 ऊँट छीन लिए।61 मारवाड़ की सेना उनका पीछा करती हुई कुंवर हरराज के शिविर तक जा पहुंची। उस समय भाटियों की सेना  इधर-उधर बिखरने के कारण राठौड़ो से मुकाबला करने में विफल रही। फलस्वरूप हरराज को अपना शिविर छोड़कर जैसलमेर का मार्ग पकड़ना पड़ा।62
इस प्रकार अन्ततः हरराज के नेतृत्व में जैसलमेर के भाटियों का अभियान विफल रहा। इसमें भाटियों से रणनीतिक गलती भी हुई। यदि हरराज ने फलोदी एवं पोकरण दोनो स्थानों पर एक साथ अभियान करने के स्थान पर अपनी पूर्ण शक्ति पोकरण-सातलमेर पर अधिकार करने में लगाई होती उसे सफलता मिल सकती थी। इस सैनिक अभियान ने जैसलमेर और मारवाड़ के संबंधों में कटुता के बीज बो दिए। जोधपुर का राव मालदेव यद्यपि इस सैन्य अभियान में सुल रहा था परन्तु आगे  चलकर मारवाड़ राज्य को पोकरण से हाथ धोना पडा और लंबे समय तक पोकरण पर जैसलमेर के भाटियों का अधिकार रहा। जोधपुर का राव मालदेव अपने सभी राठोड बन्धुओं को अधीन करने का इच्छुक था। बाड़मेर के राव भीव जिसने मारवाड-जैसलमेर संघर्ष में भाटियों का साथ दिया था और राठौड़ो के ऊँट छीन लिए थे, के विरूद्ध ई सन् 1557 (वि.सं. 1608) में  सेना भेजी। राव भीव ने पराजित होने के पश्चात् महारावल मालदेव की अधीनता स्वीकार करके सैन्य सहायता मांगी। रावल भीव ने हरराज की सहायता से बाड़मेर पर स्वीकार करके सैन्य सहायता मांगी। रावल भील ने हररज की सहायता से बाड़मेर पर पुनः अधिकार कर लिया। नाराज होकर राव मालदेव ने जैसलमेर पर आक्रमण और संधि करने के लिए बाध्य किया। इस संघर्ष की जड़ वास्तव में पोकरण ही था।
ई. सन् 1550 (वि.सं. 1607) के लगभग राव मालदेव ने सातलमेर के गढ़ को नष्ट कर दिया और राव नरा के द्वारा उजाड़े हुए पोकरण शहर के प्राचीन गढ़  को नष्ट कर दिया और राव नरा के द्वारा उजाड़े हुए पोकरण शहर के प्राचीन गढ़ का ही पुनर्निमाण और सुदृढ़ीकरण करवाया। सातमेर के गढ़ से प्राप्त निर्माण सामग्री का यहां प्रयोग किया गया।64 सातलमेर के पत्थरों और अन्य निर्माण सामग्रीयों का राव मालदेव ने मेड़ता भिजवाकर मालकोट बनवाया। इससे स्पष्ट होता है कि राव मालदेव ने मेड़ता भिजवाकर  मालकोट बनवाया। इससे स्पष्ट होता है कि राव मालदेव ने कोई नया दुर्ग नहीं बनवाकर पोकरण के प्राचीन दुर्ग को ही दुरूस्त एवं पुननिर्मित किया क्योंकि एक गढ़ की निर्माण सामग्री से दो गढ़ बनवाया जाना संभव प्रतीत नहीं होता। गढ में राव मालदेव ने एक पुलिस चैकी स्थापित की ।
राव मालदेव के उŸाराधिकारी राव चन्द्रसेन ने मुगल अधीनता स्वीकार नहीं की। अतः मुगल बादशाह अकबर की शाही फौजो ने जोधपुर पर घेर डाला (1565 ई) । करीब आठ माह संघर्ष करने के पश्चातृ दुर्ग में संचित सामग्री तथा जल का अभाव हो गया। फलस्वरूप ई सन् 2 दिसंबर 1565 (वि.सं. 1622) को राव चन्द्रसेन ने रात्रि में गढ़ छोड़कर पहले भाद्राजूण और फिर सिवाना के समीप पीपलण के पर्वतों में रहने चला गया। पोकरण में उसने योग्य अधिकारियें की नियुक्ति की है -
1. चैहान रामो झांझणोत
2. पंवार अखावत नराइण
3. खींवसी अखावत
4. कानड़दास जोगावत
5. सोहड़ राजधर सिंहावत
6. भाटी सूरजमल केल्हण
7. पेराड़ राजो उधरास क।66
पोकरण कोट को सामरिक दृष्टि से उपयुक्त जानकर पोकरण कोट को सामरिक दृष्टि ने उस राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र बनाने का मानस बनाया। कुछ समय पश्चात् आमेर के राजा राव मानसिंह राजावत देवराज थलेचा (भाटी) के आमंत्रण कर पोकरण गढ पर अधिकार करने 500 घुड़सवारों  के साथ लूंणी पहुंचा।67 तब मानसिंह ने अपने प्रधान को राव चन्द्रसेन के पास भेजकर कहलवाया कि हमें पोकरण दे दो तथा बदले में हमसे सेवाएं ले लो। किन्तु चन्द्रसेन द्वारा इस बात को अस्वीकार कर दिया गया।68 राव मानसिक ने इस अवसर पर संघर्ष को टालकर लौट जाना ही उचित समझा। राव चन्द्रसेन के सैनिकों ने थलेचा देवराज के गांव के महाजनों को लूटा। राव चन्द्रसेन ने एक बार आकर पोकरण गढ़़ देख लिया ओर पुनः पीपलण के पहाड़ो में वापस चला गया।69
ई सन्  1575 (1632 वि.सं.) में रावलजीत थलेचा (भाटी) ने पोकरण के सोहड़ो (राठौडों की एक शाखा) की गायों को पोकड कर अधिकार में कर लिया। राव चन्द्रसेन के निम्नलिखित व्यक्ति इस आक्रमण में मारे गए -
1. चैहान रामौ 2. पंवार नारायण
3. सोहड़ राजघर 4. सोहड रतनौ
5. भाटी सूरजमल 6. सोहड़ देदो ।
7. राठौड़ किशनदास को गंभीर चोटे लगी।70
उपरोक्त युद्ध के परिणामों के विषय में समकालीन स्त्रौत मोन हैं।


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अध्याय - 2 -3

अध्याय - 2 -3


ज्ञातव्य है कि मूंहता नैणसी ने ख्यात और मारवाड रा परगना री विगत दोनो रचनाएॅ लिखी है। एक ही व्यक्ति द्वारा लिखे जाने के बावजूद दोनों ग्रंथों के कुछ विवरण में अन्तर है। उदाहरण के लिए विगत में लिखा है कि राव खींवा के समय पोकरण गढ के द्वार  नहीं था39 जबकि अपनी ख्यात में नैणसी ने लिखा कि किस प्रकार राव नरा ने पोलिये (पहरेदार) की हत्या करके पोल खोलकर गढ पर अधिकार कर लिया। जोधपुर राज्य की ख्यात40 में भी द्वार नहीं होने की जानकारी है। वाताएॅ चूंकि जनश्रुतियों पर आधारित होती है इसलिए इस प्रकार की गलती हो सकती है। नैणसी ने इस वार्ता को यथावत अपनी ख्यात में स्थान दे दिया। अतः हमारे विचार से पोकरण के गढ की पोल में दरवाजा नहीं रहा होगा।
ख्यात में एक अन्य प्रसंग है जो उपरोक्त वार्ता में वर्णित है कि गोविन्द के दो पुत्र जैतमाल और हमीर हुए।41 जबकि विगत में लिखा है कि नरा के दो पुत्र गोविन्द व हमीर हुए। राव सूजा ने गोविन्द को पोकरण और हमीर को फलोदी का टीका दिया।42 विगत में वर्णित तथ्य की पुष्टि महाकमां तवारीख री मिसलां रो ब्यारों से होती है जिसमें वर्णित है कि हमीर नरो सुजावत रो फलोदी रो धणी, गोयंद नरावत का पोकरण धणी।43 विश्वेवर नाथ रेऊ भी इसकी पुष्टि करते है।44 अतः ख्यात का विवरण त्रुटिपूर्ण है।
इसी प्रकार मूंहता नैणसी ने ख्यात और विगत ने नरा के पोकरण पर अधिकार करने के जो कारण् बताएं है उनमें भी अन्तर है। ख्यात में नैणसी ने कहा कि राव नरा पोकरण पर इसलिए अधिकार किया क्योंकि राव खींवा ने उसकी माता लक्ष्मी के विवाह का नारियल एक सर्वथा अनुचित कारण (दांत मोटे) है से लोटाकर उसके कुंवरपदे का अपमान किया था।45 इस प्रकार पोकरण पर अधिकार करने के पीछे प्रतिशोध की भावना थी जबकि विगत के अनुसार फलोदी के शुष्क और जल रहित होने के कारण राव नरा का वहां मन नहीं लग रहा था।46 अतः वह पोकरण पर अधिकार करने के उपर्युक्त दोनो ही कारण रहे होंगे। जोधपुर राज्य की ख्यात47 में लिखा है कि नरा ने पोकरण अपने नाम लिखवा ली। इस तथ्य के विषय में मूंहता नैणसी मौन है।
राव नरा की मृत्य के संबंध में भी विसंगतियां है। मूंहता नैणसी री ख्यात वार्ता में यह वि.सं. 1551 चेत्र वद 2 लिखा है।48 इतिहासविद् गौरीशंकर ओझा ने जोधपुर राज्य के इतिहास में इस नैणसी ख्यात का त्रुटिपूर्ण संदर्भ देते हुए वि.सं. 1551 चेत्र वद 5 या, ई.सं. 1496, 4 मार्च माना है49 । 1551 चैत्र वद 5  या ई.सं. 1496, 4 मार्च माना है। प. विश्वेश्वर नाथ रेऊ ने मारवाड का इतिहास में इसे वि.स. 1555 (ई.सन् 1498) माना है।50 जबकि मारवाड़ परगना री विगत में नेणसी ने लिखा है कि राव नरा की मृत्यु के बाद राव सूजा फौज लेकर पोकरण  आया।  उसने पोकरणों को पराजित कर दिया। संवत् 1560 में रावनरा के पुत्र राव गोविन्द (गोविन्ददास) को टीका दिया।51 मुंहता नैणसी री ख्यात में ‘नरा सूजावत राठौड अर खिंवसी पोकरणै री वार्ता‘ के अनुसार पोकरण पर अधिकार करने के समय लुंका (राव खींवा का पुत्र) का जन्म भी नहीं हुआ था। कालान्तर में लूंका ने ही घोडें पर सवार होकर दूसरे घोडें पर युद्ध करते हुए राव नरा के सिर पर आडी तलवार पर प्रहार करे हुए उसका सिर धड से अलग कर दिया था52। ऐसा बालक यदि हष्ट पुष्ट या बलिष्ठ हो तो कम से कम 8 या 9 वर्ष का तो रहा ही होगा।
सभी स्त्रोतों पर विचार करने के बाद यह प्रतीत होता है कि राव नश ने पोकरण पर ई-सन् 1494 (वि.सं. 1551) में आक्रमण किया होगा।53 ई-सन्  1503 (वि.सं. 1560) में वह राव खींवा और लूंका के आक्रमण का सामना करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ54 । इस वर्ष मारवाड़ नरेश राव सूजा के पोकरणा राठौडो का दमन कर राव नश के पुत्र गोविन्द के पोकरण का टीका दिया। गोविन्द की कम अवस्था 4 अथवा 5 वर्षो तक उसके सहयोगियों ने उसे पोकरणों पर चढ़ाई करने से रोका।55 नैणसी ख्यात में वर्णित वार्ता को यदि हम सही माने नरा के आक्रमण के अगले वर्ष लूंका का जन्म हुआ होगा अर्थात् ई-सन् 1495। ई सन् 1503 ई मगें उसने आठ वर्ष की अवस्था में नरा से युद्ध किया होगा तथा संयोगवश नरा को मारने में सफल रहा होगा।56 12 वर्ष का होने पर उसका गोविन्द से युद्ध हुआ होगा (ई सन् 1507) और इसी वर्ष दोनों ने समझौता कर राज्य आपस में बराबर बांट लिया गया होगा। निःसंदेह उसे इस कार्य में अन्य राठौड़ वीरों का भी सहयोग मिला होगा।
राव गोविन्द की ई. सन् 1525 (वि.सं. 1582) में मृत्यु होने के बाद उसके पुत्र जेतमाल को टीका हुआ। गौ.शा.ओझा जोधपुर राज्य का इतिहास भाग प्रथम पृष्ठ 311 में लिखा है कि ‘‘राव जैतमाल गोयन्द के पुत्र नरा के पौत्र कान्हा का अमल था‘‘ ओझा जी की यह टिप्पणी सही नहीं है क्योंकि अन्य कोई भी समकालीन स्त्रोत इस विषय में हमे जानकारी नहीं देते है। राव जेतमाल का विवाह जैसलमेर के राव मालदेव की बेटी से हुआ। राव जैतमाल अयोग्य थ। उसके प्रधान ने महाजनों का शोषण करना और उन्हें लूटना प्रारंभ कर दिया। जब महाजन एकत्रित होकर राव जैतवाल के पास गए तो राव ने उनकी कोई सुनवाई नहीं की। तब महाजन जोधपुर के राव मालदेव के पास पहुंचे तथा अपनी आपबीती और शोषण की विषय में महाराजा को जानकारी दीे।57 राव मालदेव ने ई.सन् 1550 (वि.सं. 1607) में राठौड नगा  ओर बीदा को सेना देकर पोकरण-सातलमेर भेजा। राव जैतमाल ने पांच दिनों तक युद्ध जारी रखा। लगातार तोपों की गोलाबारी से गढ की बावड़ी नष्ट होकर (गोले लगने से) सूख गई। ऐसी परिस्थिति में जैतमाल ने गढ जोधपुूर की सेना को सौप दिया। उसे कैद कर लिया गया किन्तु बाद में मुक्त कर दिया गया। तब वह अपने ससुर भाटी रावल मालदेव के पास जैसलमेर चला गया।58
वस्तुतः राव मालदेव जिस समय जोधपर की गद्दी पर बैठा केवल जोधपुर और सोजत परगनों पर ही उसका अधिकार  था। जैतारण, पोकरण, फलौदी, बाडमेर, सिवाना, मेड़ता इत्यादि के स्वामी आवश्यकता पडने पर सैन्य सहायता अवश्य देते थे अन्यथा वे स्वतंत्र थे। अतः राव मालदेव उन्हें अधीन करने हेतु अवसर की ताक में था। पोकरण सातलमेर पर अधिकार कर ने के बाद उसने छल से फलौदी पर भी अधिकार कर लिया।59
राव जैतमाल के ससुर महारावल मालदेव ने उसे शरण दी थी। राव जैतमाल ने महारावल की अधीनता को स्वीकार करके पोकरण पुनः हस्तगत करने में उसकी सहायता करने का निवेदन किया60। कुंवर हरराज के नेतृत्व में महारावल ने एक सेना पोकरण भेजी। महारावल मालदेव अपने जवाई जैतमल की मदद करने के साथ-साथ पोकरण एवं फलौदी क्षेत्र में राव मालदेव की बढ़ती गतिविधियों पर अंकुश भी लगाना चाहता। राव मालदेव जैसलमेर राज्य की संप्रभुता के लिए खतरा बर कर उभर रहा था।


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अध्याय - 2- 2

अध्याय - 2- 2


हरभू सांखला  उस समय फलौदी गया हुआ था। वापस लौटते समसय बेंगटी के समीप बच्ची के रोने की आवाज सुनी। हरभू के निर्देशानुसार सेवक बच्ची को उठा लाए। उसी समय एक शकुन हुआ। तब हरभूजी उस बच्ची को घर ले आए। ठीक उसी दिन हरभूजी की पत्नी ने भी एक पुत्री को जन्म दिया। दोनो कन्याओं का लालन-पोषण साथ-साथ हुआ। अपनी दोहित्री लक्ष्मी के युवा होने पर हडबूजी ने विवाह का नारीयल राठौड़ो खींवा के पास भेजा किन्तु उसने यह कहते हुए मना कर दिया कि सुना है कन्या के दांत मोटे है‘‘ उसने नारियल लौटाकर संदेश भेजा कि हडभूजी अपनी पुत्री का विवाह करें तो मैं तैयार हूं।
हड़बू जी ने तब अपनी कन्या का विवाह राठोड खींवा से कर दिया।28ं लक्ष्मी कई वर्षों तक कुंवारी रही। संयोग से मारवाड़ का राजकुमार सूजा (सूरजमल)29 शिकार करते हुए वहां आ गया। हड़भू जी ने उचित अवसर देख कर अपनी पुत्री का विवाह उससे कर दिया। लक्ष्मी के दो पुत्र हुए बाधा और नरा।
राव जोधा के उŸाराधिकारी राव सातल के कोई पुत्र नहीं  था। अतः उसने अपने अनुज सूजा के पुत्र नरा (नरसिंह) को गोद लेने को विचार से अपने पास रख लिया।30 राव सावल की मृत्यु (1491 ई) होने पर माता लक्ष्मी के कहने पर नरा ने अपने पिता सजा के पक्ष में राज्य छोड़ दिया। कालान्तर में नरा और उसके भाई ऊदा में किसी बात को लेकर झगड़ा हो गया। नरा ने गुस्से में ऊदा को छडी से पीट दिया इस घटना से कुपित होकर सूजा ने नरा को फलोदी का जागीर देकर अलग कर दिया।31 बाघा को जागीर में बगड़ी दी गई।
एक दिन नरा को भोजन करते समय लक्ष्मी ने अनायास ही उसे अपने कुंवर पदे का अपमान राव खींवा द्वारा किए  जाने की घटना बताई । नरा ने राव खींवा से इसका बदला लेने का निश्चय किया। उसने अपने पुरोहित से बनावटी झगडा करके फलौदी से निकाल दिया। उस पुरोहित की शादी पोकरण हुई थी। अतः वह अपने ससुराल पोकरण आ गया। उसके ससुराल वालों ने उसके झगड़े की बात राव खींवा को बताई। राव खींवा ने उसे दरबार में बुलवा लिया और अपनी सेवा में रख लिया। यह पुरोहित ज्येष्ठ माह में पोकरण आया था। उन्हीं दिनों इमली भी फलित हो गई थी। जोगी बालीनाथ के आश्रम के अंदर राव खींवा के कुंवर इमली खाने रोज आते थे। बालीनाथ के चेलों ने इसकी शिकायत बालीनाथ से की। तब बालीनाथ ने इमली को श्राप दिया कि निष्फल हो जाना और कुंवरों को श्राप दिया कि तुमसे गढ छिन जाएगा और हमारे चेलों से मठ जाएगी और चेले घरबारी (गृहस्थ) हो जाएंगे। यह कहकर वह दक्षिण की ओर चल पडा। स्थानीय लोगों ने उसे रोकने की बहुत कोशिश की पर वह नहीं रुका।
कुंवरों की माता ईंदी ने तत्पश्चात काफी परिश्रम से बालीनाथ को मना लिया। बालीनाथ ने उससे प्रसन्न होकर उसे वीर पुत्र लूंका को उत्पन्न करने का आशीर्वाद दिया किन्तु यह भी कहा कि उसका राज्य जाल (एक प्रकार का मरूस्थलीय वृक्ष झाडी) के आस-पास ही होगा।
इधर पुरोहित भी मौके की इन्जार में रहा। राव खींवा को एक दिन न्याला (मांस-गोष्ठी) के विशेष आयोजन में ओगरात (उधरास या उगरावास)32 आमंत्रित किया गया। वह 80 आदमियों के साथ कोट से बाहर निकाला। उसने पुरोहित को भी चलने को कहा। पर उसने यह कहकर इंकार कर दिया कि मांस-गोष्ठी में भला उसका क्या काम।
मौका देखकर पुरोहित ने नरा के जासूसों को संकेत दे दिया। नरा 500 सवारों के साथ वहां जा पहुंचा। घोडों की पद्चाप सुनकर राव खींवा के आदमियों ने उन्हें रोककर पूछताछ की। राव नरा के सैनिकों ने उन्हें झूठ कह दिया कि यह नरा बीकावत का काफिला है जो अमरकोट विवाह करने जा रहा है खीरा के आदमियों ने यह बात उसे बता दी जिससे वह असावधान हो गया। इसी दौरान नरा पोकरण जा पहंुच नरा के निर्देशानुसार पुरोहित ने पोलिये (चैकीदार) को बातों में लगा दिया। मौका देखकर नरा ने उसकी बरछी से हत्या कर दी। पोल (मुख्य द्वार) खोलकर नरा ने कोट पर अधिकार कर लिया और अपनी आण फेरी (गढ़ पर अधिकार होने की घोषणा) । यह घटना सन् 1494 (वि.सं. 1551)33 की है।
खींवा ने आदमितसयों ने उस तक सूचना पहुंचा दी। वह उस समय पोकरण से तीन कोस की दूरी पर था। पोकरण आने के मार्ग पर उन्हें एक गडरिया मिला। जिसके कंधेपर एक मृत बकरा था। राव खींवा ने उसे अच्छा शकुन समझा। गडरिये की थोडी आनाकानी के बाद वे बकरे को खरीदने में सफल हुए। खींवा का एक चाचा जो शकुनक्ता भी था ने कहा कि आप जितनी दूर पहुंचकर इसे खाएंगे उतने ही वर्षों बाद आपकों पोकरण मिल जाएगा। उन्होंने जल्दी तो बहुत की परन्तु जगह-जगह नरों की सैनिक चैकियिों और पहले के कारण वे पोकरण से 12 कोस दूर भिणीयाणे में जाकर बकरा खा गए किन्तु पूरा नहीं खा सके।
नरा ने पोकरण गढ़ में मौजूद स्त्रियों को बाहर निकाल दिया। अब सभी पोकरणा राठौड़ बाडमेर जाकर रहने लगे जो उनके मल्लिनाथ जी के वंशज भाई-बन्धु थे। यहां से उन्होंने पोकरण पर पुनः अधिकार करने के प्रयास प्रारंभ किए। नरा ने पोकरण से दो किलोमीटर की दूरी पर राव सा तल के नाम से सातलमेर का गढ बनवाया। नरासर तालाब बनवाया और प्रदेश में सुदृढ शासन स्थापित किया।
पोकरण राठौड 12 वर्षो तक प्रयास करते रहें इधर लूंका 12 वर्ष का हो गया तथा भाला चलाने में निपुण हो गया। एक बार सभी पोकरणा राठौड़ों ने बाडमेर से पोकरण पर आक्रमण करने के लिए कूच हकिया। पोकरण पहुंचकर उन्होंने पोकरण के गोधन पर अधिकार कर लिया।34 नरा ने उन पर प्रत्याक्रमण किया। घमासान युद्ध हुआ जिसमें अनेक राठौड़ मारे गए। इसी दौरान लंका के घोडें पर बैठै बैठै ही अन्य घोडे पर सवार नरा के सिर कटकर नीचे गिर गया। दो सौ कदम दूर जाकर उसका धड भी गिर गया। राव नरा को मारकर पोकरणा भिणीयाणैं में जाकर ठहरे।
इधर पोकरण में नरा के पीछे उसकी पत्नियाॅ सती होने को तैयार हुई किन्तु नरा के मस्तक के अभाव में ऐसा होना संभव नहीं था। उन्होंने पोकरणा राठौडों से राव नरा का मस्तक देने को कहा। पोकरणों ने जवाब भिजवाया कि हम तो तरा का मस्तक लाए नहीं है उन्होंने नरा के मस्तक गिरने के स्थान का पता बता दिया ओर कहा कि वे स्वयं जाकर मस्तक ले  आएं । तब राव नरा की पत्नियाँ बताए गए स्थान (एक जाल वृक्ष) पर गई और वहां से मस्तक लाकर पोकरण पहुंचकर सती हुई ।
पोकरणा राठौड़ों के हाथों राव नरा की मृत्यु की सूचना पाकर उसका पिता राव सूजा बेहद उदास हुआ। वह तत्काल एक फौज को साथ लेकर पोकरण की ओर चला। शीघ्र ही उसने पोकरण के समीपवर्ती गांव नीलवै को जीत लिया। उसने एक-एक कर राव खींवा और लूंका के सभी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। तदुपरान्त राव सूजा ने नरा के बेटे गोविन्द को पोकरण ओर दूसरे पुत्र हमीर को फलौदी दी। राव खींवा के पुत्रों ने वहां काफी समय तक उत्पात मचाया। उन्हें सांकड़ा ओर सनावड़ी जैसे गांव देकर शान्त किया गया।36
सन् 1503 ई (वि.सं. 1560) में अल्पायु राव गोविन्द को राव सूजा ने पोकरण का टीका दिया। कामकाज करने के लिए उमराव नियुक्त किए। इस दौरान पोकरण में लूंका का उत्पात जारी रहा क्योंकि वे उपर्युक्त दो गांवों से सन्तुष्ट नहीं थे। युवा होने पर राव गोविन्द ने रामदेवरा के समीप उत्पाती लूंका पर आक्रमण कर दिया। लूंका को कोढणा के समीप घेर लिया गया। जनश्रुति है कि इस युद्ध में 140 पोकरणा राठौड काम आए। लूंका को पकडने के प्रयास में राव गोविन्द के हाथ उसका दुपट्टा आ गया। लूंका नंगे बदन भागने का प्रयास करने लगा।37 तभी राव गोविन्द ने लूंका को कहा - ‘‘काकाजी वहीं खडे रहो। मै आपका वध नहीं करूंगा‘‘। गोविन्द ने अपना दुपट्टा दिया और कहा ‘‘जो हुआ सो हुआ । अब इस शत्रुता को दूर करों‘‘। दोनों नगे साथ में बैठकर भोजन किया।उसने पोकरण के दो हिस्से किए। सातलमेर पोकरण सहित 30 गांव उसने स्वयं रखे और 30 गांव लूंका को दिए। जहां राव नरा का मस्तक कट कर गिरा था। उसी जाल वृक्ष से दोनों की सीमा निर्धारित हुई। यह सीमा कई वर्षो तक ज्यों की त्यों रही। लूंका ने लूणीयणों बसाया जिसे वर्तमान में भूणयाणें कहा जाता है। राव गोविन्द के समय सातलमेर में काफी अच्छी बस्ती विकसित हुई । यहां उस समय 500 घर महाजनों के थे।38


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अध्याय - 2 -6

महारावल मनोहरदास के कोई पुत्र नहीं था। ई. सन् 1650 (वि.सं.1706)88 में उसकी मृत्यु के बाद रामचन्द्र और सबलसिंह में उŸाराधिकारी संघर्ष प्रारंभ हुआ। रामचन्द्र ने रनिवास का समर्थन प्राप्त कर जैसलमेर की बागड़ोर संभाली। उसे महत्वपूर्ण सामंतों का समर्थन प्राप्त नहीं था। इसलिए सामन्त उसे गद्दी से हटाना चाहते  थे। उस समय सबलसिंह बादशाह शाहजहाॅ के विशेष कृपापात्र रूपसिंह भारमलोत (किशनगढ़ के राजा) की सेवा में लगा हुआ था।
इधर जोधपुर में महाराजा गजसिंह की मृत्योपरान्त महाराज जसवंतसिंह को राज्य की टीका हुआ। पूर्व के सामान सातलमेर (पोकरण) को परगना 6,00,000 छः लाख दाम अर्थात् 14,000 रूपए जसवंतसिंह को मिला91। महारावल मनोहरदास की मृत्यु का समाचार मिलने के समय महाराज जसवंत सिंह रणथम्भोर के गोड़ो के यहां विवाह करने गया हुआ था। उसकी रानी मनभावती ने शाहजहाॅ से निवेदन किया कि ‘‘पोकरण जागीर में दर्ज है जिस पर अभी तक अमल नहीं हो सकता है। इतने दिन हमारे समबन्धी महारावल मनोहरदास का वहां अधिकार था, इस कारण हमने कुछ नहीं कहा। अब रामचन्द्र गद्दी पर बैठा जिससे हमारा कोई लगाव नहीं है। अगर आपकी स्वीकृति मिल जाए तो हम पोकरण पर अधिकार कर लें।’’92
रानी मनभावती93 के पुत्र के उŸार में बादशाह शाहजहाँ ने कहा ‘‘आप चाहो तो जैसलमेर आपको दे दें। आपको अपने पोकरण पर अधिकार करने से कौन रोकता है। कुछ समय पश्चात् महाराजा जसवंतसिंह ने बादशाह से अर्ज किया - ‘‘जैसलमेर भाटियों का मूल वतन है इसलिए हमे इससे कोई वास्ता नहीं है। पोकरण की जागीर जोधपुर के राठौड़ो की रही है और आपके दफ्तर में भी इसका अंकन बराबर किया जाता रहा है परन्तु इसका उपयोग जैसलमेर के भाटी करते आए है। अगर आप पोकरण का फरमान कर दें तो भाटियों के विरूद्ध सेना भेजने की कार्यवाही की जाय। तब बादशाह ने इसके लिए स्वीकृति प्रदान कर दीं।94
महाराजा जसवंतसिंह ने पोकरण हस्तगत करने के लिए अप्रेल (सं. 1706, वैशाख सुदी 6) 1650 ई. को जोधपुर के लिए प्रस्थान किया। इसके कुछ समय पूर्व ही उसकी भटियाणी रानी जसरूप दे (महारावल मनोहरदास की पुत्री) बुधवार अप्रेल 10, 1650 ई. (वि.सं. वैशाख वदि 4-5) की रात्रि में मृत्यु हुई थी। श्रावण माह में सार्टूल और बिहारीदास शाही फरमान लेकर जैसलमेर के लिए रवाना हुए। उन्होंने वहां पहुंचकर रावल रामचन्द्र को फरमान दिखाया। सभी भाटियों ने मिलकर इसपर विचार-विमर्श किया और चार दिन बाद उन्होंने कहा कि गढ़ मांगने से नहीं मिलता है। दस भाटियों के बलिदन देने के बाद ही पोकरण उन्हें पोकरण मिलेगा। सार्दुल और बिहारीदास जोधपुर लौट आए और महाराजा को इसकी जानकारी दी।95
इस प्रकार जब शाही फरमान जारी करने के बाद भी भाटी पोकरण देने को राजी नहीं हुए तब महाराजा ने एक विशाल सेना पोकरण के भाटियों के विरूद्ध भेजने का निश्चय किया। फौज के तीन हिस्से किए गए तथा इसे राठौड़ गोपालदास (रींया सुन्दरदास मेड़तिया का पुत्र) चम्पावल विट्ठलदास (पाली गोपालदास चंपावत का पुत्र) और अग्रीम सेना राठौड़ नाहर खां (आसयोप राजसिंह कूम्पावत का पुत्र) व नैणसी ने किया। इस प्रकार सब मिलाकर दो हजार अश्वरोही और चार हजार पैदल सेना थी।96 इन तीनों टुकडियों को एक-एक कर क्रमश5 1650 ई. की (सितम्बर) आसोज वदि 2, 3 और 7 को रवाना किया गया। पहली टुकडी ने आसोज सुदी 7 को पोकरण के खारा गांव में पहंुचकर डेरा डाला।97
इस बीच राजा रूपसिंह (किशनगढ़) ने सबलसिंह की बादशाह शाहजहाॅ से भेट करवाई। राजा रूपसिंह ने रावल मनोहरदास के उŸाराधिकारी के रूप में सबलसिंह को प्रस्तुत किया और बादशाह के चरण स्पर्श करवाए। बादशाह ने तब सबलसिंह को जैसलमेर का टीका देकर विदा किया।98 तत्पश्चात् सबलसिंह ने महाराजा जसवंत सिंह से भेंट कर मदद की याचना की। महाराज जसवंत सिंह ने सबलसिंह के लिए सेना और खर्चे इत्यादि की व्यवस्था कर उसे जैसलमेर दिलाने का आश्वासन देते हुए कहा कि वह फलौदी पहुंचे वहां जोधपुर की सेना उसकी मदद करेगी। तब सबलसिंह ने भी राजा जसवंतसिंह को फलोदी का प्रान्त मय पोकरण किले के लौटा देने का वाद कर लिया।99
सबलसिंह कुछ दिन फलौदी रहा। उसने 700-800 योद्धाओं के साथ फलोदी के ग्राम कुण्डल के भोजासर तालाब पर शिविर लगाया। इधर भाटियों की एक सेना जिसमें अधिकांशतः केल्हण भाटी थे, पोकरण की सेना के साथ सबलसिंह का मुकाबला करने जवण री तलाई सेखासर में डारे डाले बैठी थी। दोनो पक्षों में युद्ध हुआ जिसमें सबलसिंह विजयी रहा।100
इस विजय के बाद भी सबलसिंह ने तत्काल जैसलमेर पर आक्रमण करना अच्छा नहीं समझा। अपना पक्ष और मजबूत करने के लिए उसने पोकरण पर चढ़ाई करने वाली जोधपुर की सेना के साथ सम्मिलित होने का निश्चय किा और खरा गांव का डेरा जहाॅ महाराजा की सेना रूकी हुई थी वहीं 500-600 योद्धाओं के साथ जा मिला। पोकरण क्षेत्र में सबलसिंह ने लूटमार की। उसे सूचना मिली कि पोकरण के गढ़ में डेढ़ हजार मनुष्य थे। जोधपुर की सेना के नजदीक आने पर अनेक व्यक्ति गढ़ से चुपचाप रात्रि में निकल गए और केवल 350 व्यक्ति ही रह गए।101 जोधपुर की सेना जिसमें 1500 सवार और 2500 पैदल थे।102 पोकरण से आधा कोस की दूरी पर डूगरसर तालाब पर जोधपुर  की सेनाओं ने पड़ाव किया और आसोद सुद 15 (29 सितम्बर, 1650 ई.) को पोकरण गढ़ पर घेरा डाला । इस दिन प्रमुख सरदारों की देखरेख में तोपो से गढ़ पर आक्रमण किया गया। शहर पर अधिकार करके गढ़ के द्वारा के समक्ष मोर्चा लगाया गया। गढ़ में मौजूद भाटियों की सेना गोलियों और तीरों से शत्रुओं पर हमला किया किन्तु जोधपुर की सेना ने मोर्चा इस प्रकार से लगा रखा था जिससे इनका कोई सैनिक हताहत नहीं हुआ। इस प्रकार तीन दिन तक दोनो पक्षों में आक्रमण-प्रत्याक्रमा का दौर चलता रहा। गढ़ में मौजूद भाटियों ने सबलसिंह को कहलवाया कि ‘‘हमारी बाहं पकड़ कर बाहर निकाले जाने पर ही हम बाहर जाएंगे।’’ तब सबलसिंह ने जोधपुर की सेना के सरदारों-राठौड़ गोपालदास, बीठलदास और नाहरखान से निवेदन किया कि ‘‘ऐसे तो कोई भाटी गढ़ से बाहर नहीं आएगा। आप लोग मुझे दोन दिन का समय दो। किन्तु सबलसिंह भाटियों से गढ समर्पित करवाने में असफल रहा।103
5 अक्टूबर, 1650 ईं को (काती वद 6) को जोधपुर की सेना के 100 आदमी गढ में जा घुसे। इसकी सूचना मिलते ही अनेक व्यक्ति गढ़ छोड कर भाग खड़े हुए। केवल 15 या 16 व्यक्ति ही अब गढ़ में रह गए थे। गोपालदास, बिठलदास एवं नाहरखान गढ के अधिकांश व्यक्तियों के पलायन की जानकारी मिली तो उन्होंने सबलसिंह को कहलाया कि या तो प्रतापसिंह (पोकरण गढ़ में भाटियों का प्रमुख सरदार) को बाहर निकालों नहीं तो हमारे हाथों वह मारा जएगा।’’ सबलसिंह और मारवाड की सेना के तीनो सरदार प्रतापसिंह के वृद्ध होने के विषय में जानते थे इसी वजह से वह प्रतापसिंह को सकुशल बच निकलने का एक और मोका देना चाहते थे। तब सबलसिंह ने कहलाया कि प्रातः वह उसये गढ़ से बाहर निकाल देगा। किन्तु मारवाड़ के सेनानायक इससे सन्तुष्ट नहीं हुए क्योंकि वे रात में ही गढ पर पूर्ण अधिकार कर लेने के लिए तत्पर थे। रात्रि में ही बिठलदास ले कार्यवाही प्रारंभ कर दी। भाटी प्रतापसिंह को अततः अपने साथियों के साथ बाहर आना पड़ा। देहरा पोल के समीप हुए युद्ध में भाटी प्रतापसिंह अपने अनेक वयोवृद्ध साथियों के साथ लड़ते हुए काम आया।104 इस युद्ध में मारे जाने वाले प्रमुख भाटी -  
1. भाटी प्रतापसिंह रावलोत - 75 वर्ष
2. भाटी का वेणीदास - 60 वर्ष
3. भाटी एका गोकलदास - 50 वर्ष
4. भाटी रूपसी - 65 वर्ष
5. भाटी सादो - 60 वर्ष
6. राठौड़ सादूल - 50 वर्ष
7. भाटी लालो - 38 वर्ष
8. भाटी जसो - 40 वर्ष
9. गौड़ रामो - 64 वर्ष
10. चैहान लखो - 60 वर्ष
11. तुरक जैमल कच्छवाह - 80 वर्ष
12. राठौड़ कुसलचन्द समेचा - 70 वर्ष105
पोकरण गढ़ में मौजूद भाटियों का इस तरह मुट्ठी भर लोगों के साथ लड़ना हमारी राय में नितांत बेवकुफी और मूर्खता वाला कदम था।  यह कदम आम्मदाह के सदृश था। संभवतः भाटी प्रतापसिंह पोकरण को लेकर काफी जज्बाती हो गया थां अधिकांश राजपूत सरदारों और अन्य व्यक्तियों के गढ़ से पयलन करने के बाद भी 15-16 व्यक्तियों के सहयोग से उसने पोकरण गढ़ नहीं छोड़ने की जिद पकड़ ली। जोधपुर की सेना के सेनापतियों और रावल सबलसिंह ने उसे पोकरण गढ़ से बाहर निकलने के अनेक मौके भी दिए। वह लडकर काम आने का आमादा था जबकि हकीकत में इसका कोई ओचितय नहीं था। युद्ध जीतने के लिए लड़े जाते है न कि जबरदस्ती अपना जीवन झोकने के लिए। यदि उसकी इच्छा युद्ध करने ही की थी, तो भी उसे पोकरणगढ़ से पलायन करके जैसलमेर की सेना के सहयोग से मारवाड़ की सेना से युद्ध करता । निश्चित रूप से भाटी प्रतापसिंह वीर था किन्तु उसने अपने इस गुण का पूर्ण सुदपयोग नहीं किया।
जोधपुर की सेना की ओर से राठौड़ राजसिंह मारा गया और 10 व्यक्ति घायल हुए।106 पोकरण पर जोधपुर की सेनाओं के अधिकार करने के पश्चातृ अगले दिन वहां महाराज जसवंतसिंह का राज्याधिकार स्थापित हो गई। इसके पश्चातृ जोधपुर की सेना के साथ रामचन्द्र के विरूद्ध जैसलमेर पर आक्रामण करने के लिए रवाना हुआ। जैसे ही इस बात की सूचना रावल रामचन्द्र को मिली उसयने सबलसिंह को कहलवाया कि उसे अपना माल लेकर गढ में से निकलने दें । वह देरावर चला जाएगा। सबलसिंह ने उसकी स्वीकृति दे दी तथा जैसलमेर जाकर राज्य की बागड़ोर संभाली।
जैसलमेर की ख्यात तथा तवारीख जैसलमेर में रावल सबलसिंह के राज्य प्राप्ति का भिन्न विवरण मिलता है। इनके अनुसार सबलसिंह मुगल बादशाह का वह शाही फरमान लेकर जैसलमेर पहुंचा जिसमें उसे जैसलमेर का टीका दिए जाने का उल्लेख था। संभवतः जैसलमेर वालों ने उसे पकड़ना चाहा होगा। किन्तु वह बचकर किशनगढ़ पुनः लौटने में सफल रहा। जैसलमेर के भाटी सरदार इस घटना के कुछ समय पश्चात् सबलसिंह को लेने किशनगढ़ गए। लौटते हुए मार्ग  पर मारवाड़ की सेना ने उनका रास्ता रोक लिया। तब सबलसिंह ने यह झूठ कहा कि हम जैसलमेर हस्तगत करने नहीं बल्कि स्वांगिया देवी की यात्रा करने जा रहे है। जब जोधपुर के सरदारों ने उनकी तलाशी ली। तलाशी में उन्हें बादशाह का फरमान मिला। तब सबलसिंह ने यह स्वीकार कर लिया कि वे जैसलमेर पर  अधिकार करने जा रहे है। मारवाड के सरदारों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार करना पड़ा। जैसलमेर की ख्यात ओर तवारीख पोकरण के यह उपर्युक्त विवरण नितान्त काल्पनिक है क्योंकि मुंहता नैणसी जो इस सम्पूर्ण अभियान में काफी सक्रिय था अपनी ख्यात और मारवाड़ परगना रा विगत में इस घटना का कहीं भी वर्णन नहीं करता है।
अब सबलसिंह चूंकि पोकरा के इस हाथ से निकल जाने से प्रसन्न नहीं थी और अपने जीवन की इस घटना को एक कलंक मानता था। इसी वजह से उसने अथवा उसके उŸाराधिकारियों ने इस प्रकार की मिथ्या घटना लिखवाई।