अध्याय - 3
चाम्पावतों का आगमन और सबलसिंह चाम्पावत तक राजनीतिक इतिहास
राव जोधा राठौड़ सŸाा का वास्तविक संस्थापक तथा राठौड़ साम्राज्य को एक निश्चित स्वरूप प्रदान करने वाला व्यक्ति था। जोधा के शासन में ही मारवाड़ मे सामंत प्रथा की दृढ रूप से स्थापना हुई। उसने अपने सम्बन्धियो की सहायता से ही विशाल साम्राज्य निर्मित किया था। आवागमन के सीमित साधनों के कारण इतने विस्तृत साम्राज्य पर एक केन्द्र से शासन करना संभव न था। कठिन परिस्थितियों में सहायता करने वालों को भी पुरस्कृत करना आवश्यक था। अतः जोधा ने अपने साम्राज्य के विभिन्न क्षे़़़़़़़त्रो मे शासन करने हेतु अपने भाइयो व पुत्रो की नियुक्ति की । इस क्रम में राव चाम्पा को कापरड़ा और बनाड़ दिया गया।राव रणमल के 26 पुत्रों में अखैराज सबसे बड़ा था किन्तु चाम्पा का अपने भाईयों में कौन सा क्रम था, इसे लेकर विद्वानों में मतभेद है। श्ठिकाणा पोहकरण के इतिहासश् में राव चाम्पा को राव रणमल की क्रम में दूसरी सन्तान बताया गया है और वह राव जोधा से बड़ा बताया गया है।1 पं॰ विश्वेश्वर प्रसाद रेऊ राव चाम्पा को क्रम में चतुर्थ अर्थात अखैराज, जोधा और काँधल के पश्चात् मानते हैं।2 इतिहासकार यथा रामकर्ण आसोपा, जगदीशसिंह गहलोत, भगवतसिंह, मोहनसिंह कानोता राव चाम्पा को क्रम में तीसरा और राव जोधा से बड़ा मानते हैं। इतिहासकारों की उपरोक्त धारणा अधिक उपयुक्त प्रतीत होती है।
चाम्पावतों का इतिहास - राव चाम्पा
राव चाम्पा का जन्म 1412 ई. को हुआ था, तथा राव जोधा इससे छोटा था, जिसका जन्म 1415 ई. का है।3 राव रणमल ने जब अखैराज, काँधल और चाम्पा से राव जोधा को राज्याधिकार देने की मंशा प्रकट की तो पिता की आज्ञा एवं इच्छा समझ कर इन्होने इसे स्वीकार किया4 और राव जोधा के मण्डोर राज्य को प्राप्त करने में पूर्ण सहयोग दिया। किशोर अवस्था में राव चाम्पा ने पिता की आज्ञा से एक ऊंटों का एक काफिला लूटा, जिससे बड़ी मात्रा में गुड़ के कापे बरामद हुए। इसे अच्छा शकुन जानकर उसने वही,ं एक गांव बसाया, जिसका नाम कापरड़ा रखा। 1428 ई. को राव रणमल ने इस गांव का पट्टा राव चाम्पा को दे दिया।5 1433 ई. में मेवाड़ के महाराणा मोकल की हत्या होने पर राव चाम्पा अपने पिता के साथ मेवाड़ गया। उसने पूर्व में राव रणमल्ल के साथ युद्ध करके चाचा और मेरा को मारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।6 तत्पश्चात् अग्रज अखैराज के साथ राव चाम्पा को मण्डोर के दुर्ग की व्यवस्था करने हेतु भेज दिया गया।7 1438 ई. (वि.सं. 1495) में राव रणमल की मेवाड़ में हत्या हो जाने पर राव जोधा 700 सवारों के साथ वहां से बच कर भाग निकला।8 किन्तु उसके मण्डोर पहुंचने से पूर्व ही मेवाड़ की सेना वहां आ पहुंची। मण्डोर किले के व्यवस्थापक अखैराज और चाम्पा ने समझा की ‘रावजी’ को पहुंचाने के लिए मेवाड़ी सैनिक आये हैं। बदरी शर्मा के अनुसार राव चाम्पा ने रावजी की सलामी में तोपें दागनी शुरू कर दी।9 यह विवरण हास्यास्पद है क्योंकि भारत में तोपों का प्रचलन 1525 ई. में बाबर के आगमन के बाद प्रारंभ हुआ था। मेवाड़ की सेना द्वारा मण्डोर के किले पर घेरा डालने पर चाम्पा और अखैराज ने अपने मुट्ठी भर सैनिकों की मदद से मेवाड़ी सेना से तीन दिन तक लोहा लिया। किले के बाहर हुई एक लड़ाई में राव चाम्पा घायल हुआ, किन्तु वह अखैराज के साथ वहां से बच निकले और राव जोधा के पास जांगलू के गांव काहूनी पहुँचने में सफल हुए।10
1453 ई. में राव जोधा ने अपने भाइयों अखैराज, चाम्पा और कांधल के सहयोग से तलवार के बल पर मारवाड़़ का राज्य पुनः अधिकृत कर लिया।11 1455 ई. में राव जोधा ने बड़ी सेना लेकर मेवाड़ पर चढ़ाई की। राव चाम्पा इस अभियान का सेनानायक था। राव चाम्पा की अध्यक्षता में पहले गोड़वाड प्रान्त लूटा गया तत्पश्चात् चिŸाौड़ पर बोलकर चिŸाौड़ के दरवाजे जलाए गए और पिछोला झील में घोडों को पानी पिलाया गया।12
1455 ई. में राणा कुम्भा ने एक बड़ी सेना के साथ मारवाड़़ की ओर कूच किया। इधर राव जोधा ने भी मुकाबले की पूरी तैयारी कर ली थी। राव जोधा के पास सैनिक अधिक थे जिससे घोड़े व ऊँट कम पड़ गए। तब राव चाम्पा के परामर्श से गाडे़ मंगवाए गए और राठौड़़ वीरों को उसमें बैठा कर रवाना किया गया। महाराणा कुम्भा को स्थिति भांपते में समय नहीं लगा कि सैनिक गाड़ों में बैठकर मरने मारने आए हैं, भागने के लिए नहीं, क्योंकि राठौड़़ सैनिक के पास रणभूमि से भाग निकलने के साधन नहीं थे।13 तब कुम्भा ने सन्धि का पैगाम भिजवाया। राव जोधा ने भी चाम्पा और कांधल आदि से सलाह करके संधि कर लेना उचित समझ कर चाम्पा और कांधल को महाराणा के पास भेजा। राव चाम्पा ने संधि वार्ता द्वारा सोजत तक के क्षेत्र को मारवाड़़ के राज्य में बनाए रखने में सफलता प्राप्त की।
जोधपुर का किला बनवाए जाने के समय चिड़ियानाथ जी को राजकर्मचारियों द्वारा तंग किए जाने पर वे अपनी धूणी चादर में बांध कर अन्यत्र पालासनी की ओर रवाना हो गए। राव जोधा ने चाम्पा को उन्हें मनाने के लिए भेजा। चिड़ियानाथ जी ने लौटना स्वीकार नहीं करके वही,ं पालासनी धूणी रमा ली।14 1459 ई. में गोड़वाड के सिंधल और सोनिगरा चैहान राजपूतों ने कापरड़ा में एकत्रित होकर गायंे घेरकर ले गए। सूचना मिलने पर राव चाम्पा 500 सैनिकों के साथ पहुँचा और गायंे छुड़ाने में सफल रहा। 1465 ई. में पाटण (गुजरात) के सुल्तान ने गुजरात से दिल्ली जाते हुए पाली में डेरा डाला। गोडवाड़ के सिंधलों और सोनिगरों ने सुल्तान को भड़काया कि ‘‘ चाम्पा के पास बहुत धन है। हम अपनी पुरानी हार का बदला लेना चाहते है।ं आप हमारी मदद करें। जो भी धन मिले वह आप ले लेंगें’’। लोभ में पड़कर सुल्तान ने आक्रमण करने की नियत से कापरड़ा की ओर प्रस्थान किया। राव चाम्पा 300 सवारों के साथ पूनासर की पहाड़ी के समीप पहुंचा। चाम्पा से वीरतापूर्वक युद्ध लड़कर सुल्तान और उसके सहयोगियों को खदेड़ दिया किन्तु स्वयं भी घायल हो गया। 1479 ई. में महाराणा रायसिंह की सहायता से सिंधलों ने राव चाम्पा पर चढ़ाई की। मिणियारी के समीप हुए इस युद्ध में राव चाम्पा वीरगति को प्राप्त हुआ। राव चाम्पा के 5 पुत्र हुए 15 (1) भैरूदास (2) सगत सिंह (3) पंचायण (4) भींवराज (5) जैमल
राव भैरूदास - चाम्पावत भैरूदास का जन्म 1434 ई. को हुआ ओर 1479 ई. को वह कापरड़ा का राज्याधिकारी हुआ। 1486 ई. को कच्छवाहा शासक राजा चन्द्रसेन ने सांभर पर आक्रमण किया। युद्ध में राव जोधा के साथ भैरुदास ने वीरतापूर्वक युद्ध करके आक्रमणकारियों को परास्त किया। छापर द्रोणपुर में भैरुदास के सेनापतित्व में भेजी गई सेना ने सांरग खां को परास्त कर मार डाला। 1491 ई. में अजमेर का सूबेदार मल्लू खां मेड़ता को लूटकर पीपाड़ तक बढ़ गया। उसने तीज पर्व पर गौरी पूजन के लिए गई स्त्रियों का अपहरण कर लिया। राव सातल ने भैरूदास के साथ उनका कोसाणा तक पीछा किया। यहां हुए भीषण युद्ध में मल्लूखां प्राण बचाकर भाग निकला तथा उसका सेनापति घुडले खां मारा गया। राव सातल घायल होकर वीरगति को प्राप्त हुआ। भैरुदास स्वयं सख्त रूप से घायल हो गया।16 1498 ई. में राव सूजा के पुुत्र नरा की पोकरणा लूंका के हाथों मृत्यु होने के प्रतिशोध में भैरुदास के नेतृत्व में सेना बाड़मेर और पोकरण भेजी गई, जिसने पोकरणा राठौड़़ लूंका की गतिविधियों पर अंकुश लगाया।17 1504 ई. में मेर भोपत के विरुद्ध भैरूदास को भेजा गया। भैरूदास ने उसे खदेड़कर गायंे छुड़वा ली। जैतारण के सींधल जो मेवाड़ महाराणा के प्रति निष्ठा रखते थे, द्वारा विद्रोह करने पर भैरूदास और राव उदा को भेजा गया। उन्होंने सीधलों को पराजित कर खदेड़ दिया।18
राव सूजा के स्वर्गवास होने पर वीरम को गद्दी बिठाने के लिए पंचायण, भैरुदास आदि सरदार एकत्रित हुए। राव वीरम की माता ने उनकी परवाह नहीं की। किन्तु गांगा की माता ने उनका सत्कार किया, जिससे सरदारों ने वीरम को राज्य से वंचित करके गांगाजी को गद्दी पर बैठाया। तभी से कहा जाने लगा ‘‘रिडमलां थापिया तिके राजा’’। जब राव वीरम राव गांगा के राज्य में उपद्रव करने लगा, तब चाम्पावत भैरुदास को सेना सहित भेजा गया। इसी युद्ध में वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए भैरुदास रणाशयी हुआ।19
राव जेसा राव भैरुदास की मृत्युपर्यन्त उनका चतुर्थ पुत्र राव जेसा कापरड़ा की गद्दी पर बैठा। उसका जन्म 1466 ई. को हुआ और 1520 ई. को वह कापरड़ा की गद्दी पर बैठा। एक महात्मा के यह कहने पर कि यदि भैरुदास का वंश कापरड़ा रहा तो उसका वैभव नहीं बढ़ेगा, के कारण राव जेसा ने निर्जन वन में रणसी गांव बसाया।20 राव गांगा ने महाराणा सांगा और गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह के संघर्ष में राणा सांगा की मदद के लिए सेना सहित राव जेसा को भेजा। राणा सांगा के बाबर से संघर्ष के समय राव जेसा 3000 मारवाड़ी सैनिकों सहित खानवा के युद्ध में मौजूद था।21 1529 ई. में राव गांगा और राव सेखा के मध्य विवाद चरम सीमा पर पहुंच गया। राव जेसा ने दोनों में सुलह करने का प्रयास किया। राव गांगा को उसने सुलह करने के लिए मना लिया किन्तु राव सेखा ने इन प्रयासों की उपेक्षा की। उसने नागौर के दौलतखां की सहायता से जोधपुर पर आक्रमण कर दिया। गांगाणी के निकट हुए युद्ध में राव जेसा ने अन्य सरदारों की सहायता से भीषण युद्ध किया। दौलतखां युद्ध भूमि छोड़कर भाग खडा हुआ और राव सेखा युद्ध में मारा गया। 1534 ई. में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने चिŸाौड़ पर आक्रमण किया। उस समय राणा विक्रमादित्य ने राव मालदेव से सहायता मांगी। राव ने जेसा को 80,000 की सेना के साथ भेजा गया। इसकी सूचना मिलने पर सुल्तान बिना लड़े ही गुजरात लौट गया।22
1538 ई. में राव वीरमदेव (मेड़ता का स्वामी) और राव मालदेव में मनमुटाव अत्यधिक बढ़ जाने पर राव मालदेव ने जेसा को मेड़ता पर भेजा। वीरम ने संघर्ष किया पर असफल रहा। वहां से वह सहायता प्राप्ति के उद्देश्य से दिल्ली के सुल्तान शेरशाह के पास जा पहुंचा। सम्पूर्ण उŸारी भारत पर आधिपत्य स्थापना का इसे अच्छा मौका जानकार शेरशाह राव वीरमदेव के साथ मारवाड़़ पर 1534 ई. में चढ़ आया। गिरि-सामेल के युद्ध में कपटपूर्ण तरीके अपनाकर शेरशाह ने मालदेव को अपने सेनानायकों के प्रति सशंकित कर दिया। राव मालदेव के रणभूमि से पलायन करने पर शेरशाह ने सम्पूर्ण मारवाड़़ पर अधिकार कर लिया। राव मालदेव ने सिवाणा में पीपलाद की पहाड़ियों में शरण ली।23 इस अवसर पर राव जेसा ने उन्हें ढूंढने आए, शेरशाह के एक सेनापति जलाल खां को मारकर उसका घोड़ा पकड लिया। 1545 ई. में राव मालदेव ने जेसा को सेना सहित भेजकर सोजत पर अधिकार कर लिया।24 1545 ई. में शेरशाह की आकस्मिक मृत्यु के बाद राव मालदेव ने जोधपुर पर धावा बोलकर मुसलमान सूबेदार को निकाल बाहर किया। इस अभियान में जेसा भी साथ ही था।25
1547 ई. में (वि.सं. 1604) में पोकरण स्वामी जैतमाल के कुशासन से त्रस्त महाजनों ने राव मालदेव से सहायता की अपील की। राव मालदेव ने पोकरण की ओर कूच किया। जैसलमेर वालों ने मारवाड़़ की सेना के घोडे़ चुरा लिए। राव मालदेव ने इनके पीछे जेसा को भेजा। राव जेसा ने न केवल घोडे़ छुड़ाए बल्कि आगे जैसलमेर में लूटपाट भी की।26 राव मालदेव की सेना के आक्रमण की आशंका से जैसलमेर महारावल ने संधि कर ली।27 1553 ई. में राव मालदेव ने जेसा को मेड़ता की ओर वीरमदेव के पुत्र जयमल के विरुद्ध भेजा। एक घनघोर युद्ध के पश्चात् राव जेसा विजयी रहा, किन्तु उसका भाई रायसिंह वीरगति को प्राप्त हुआ। जयमल ने बादशाह अकबर की सहायता से और मुगल सेनापति शरफुद्दीन के सक्रिय सहयोग से मेड़ता पर आक्रमण किया। राव जेसा को सेना सहित मेड़ता भेजा गया। मेड़ता के समीप हुए घमासान युद्ध में राव जेसा वीरगति को प्राप्त हुआ।27
राव जेसा के विषय में एक रोचक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि 1537 ई. के लगभग रात्रि में राव जेसा अकेला रणसी गांव आ रहा था। रणसी गांव के समीप एक नाडी पर वह अपने घोड़े को पानी पिलाने रूका। तभी भूत ने जेसा को कुश्ती के लिए ललकारा। राव जेसा ने इसे स्वीकार किया और थोड़ी ही देर में भूत को जमीन पर दे पटका। पराजित भूत अपने हाथ पांव बांधकर राव जेसा के सामने खड़ा हो गया। राव जेसा ने उसे एक बावड़ी और महल बनाने की शर्त पर छोड़ दिया। भूत ने भी प्रत्युŸार में शर्त रखी कि महल बनने तक वह किसी को इस बारे में नहीं बताए। इधर राव जैसा की पत्नी रात भर कोलाहल का कारण पूछती रही और जेसा उसे टालते रहा। प्रातः अंधेरा छटने से पूर्व उसकी पत्नी ने पुनः कारण बताने का अनुग्रह किया। राव जी ने सोचा कि अब तक भूत निर्माण कार्य कर चुका होगा। उसने रात वाली घटना ठकुराणी को बताई। उस क्षण भूत ऊपरी कोने के निर्माण में लगा था। उसने कार्य रोक दिया। यह महल और बावड़ी आज भी रणसी में मौजूद है।28 भूत द्वारा छोड़ गए कार्य को पूर्ण करने का कई बार प्रयास किया गया, पर हर बार असफलता मिली। रणसी के महल का अधूरा कोना आज भी मौजूद है।
राव माण्डण - राव जेसा के बारह पुत्र में ज्येष्ठ पुत्र राव माण्डण (जन्म 1486 ई.) 1561 ई. में रणसी का पदाधिकारी हुआ। राव चन्द्रसेन ने राव माण्डण को अपने अग्रज उदयसिंह के विरुद्ध फलौदी हस्तगत करने हेतु भेजा। लोहावट के युद्ध में राव माण्डण को सफलता मिली।29 इधर राव उदयसिंह जो मुगल की शाही नौकरी में था ने बादशाह अकबर के सहयोग से जोधपुर और फिर फलौदी पर अधिकार कर लिया। इधर राव चन्द्रसेन की निष्क्रियता को देखकर राव माण्डण उदयसिंह के पक्ष में चला गया। उसने एक शर्त उदयसिंह के समक्षी रखी कि वह राव चन्द्रसेन के समक्ष कभी हथियार नहीं उठाएगा। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र गोपालदास को राव उदयसिंह की सेवा में रखा और स्वयं फलौदी का प्रबंध देखने के लिए रूक गया।30 1584 ई. में बादशाह अकबर की आज्ञा से गुजरात जाते हुए महाराजा उदयसिंह सिरोही में ठहरा। इस दौरान सिरोही के राव सुरताण के आकस्मिक आक्रमण में राव माण्डण बुरी तरह घायल हो गया। इन्हीं घावों से उसकी मृत्यु हो गई।31
राव गोपालदास - राव माण्डण के तीन पुत्रों में ज्येष्ठ गोपालदास (जन्म 1533 ई.) 1587 ई. में रणसी की गद्दी पर बैठा।32 1584 ई. में बादशाह अकबर द्वारा गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर तृतीय के विरूद्ध भेजी गई सेना में वह भी राव माण्डण के साथ था। मार्ग में सिरोही में पिता की मृत्यु के बावजूद वह विचलित नहीं हुआ और मारवाड़़ की सेना के साथ अहमदाबाद की ओर रवाना हुआ। साबरमती नदी के तट पर शिकार के समय विद्रोही जाडेजा जगा से उसका संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में जगा जाडेजा मारा गया। महाराजा उदयसिंह ने प्रसन्न होकर उसे आउवा का पट्टा दिया।33 राजपीपला नामक स्थान पर शाही सेना का सुल्तान मुजफ्फर की सेना से युद्ध हुआ जिसमें बादशाह अकबर की विजय हुई । पुनः गोपादास के वीरतापूर्ण कृत्य से प्रसन्न होकर महाराजा उदयसिंह ने गोपालदास को पाली का अतिरिक्त पट्टा और प्रधानगी का पद दिया।
ख्यातों के अनुसार गोपालदास ने 1585 ई. में राणा प्रताप द्वारा जैसलमेर यात्रा से लौटते समय भेंट की। यही नहीं उसने आमेट युद्ध में राणाप्रताप को सहयोग भी दिया। इसकी एवज में महाराणा ने गोपालदास को पट्टा देने की इच्छा जाहिर की, किन्तु गोपालदास ने इसे अस्वीकार कर दिया और मारवाड़़ लौटा आया।34 इस बात की पुष्टि अन्य गं्रथों से नहीं हो पायी है। 1585 ई. में महाराजा उदयसिंह ने चारणों के कुछ गांव जब्त कर लिए। चारणों ने आत्महत्या के उद्देश्य से आउवा की ओर प्रयाण किया उन्होंने गोपालदास से उनके गांव बहाल करवाने हेतु सिफारिश करने का निवेदन किया। मोटाराजा उदयसिंह ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। कुछ क्षुब्ध चारणों ने आउवा में आत्महत्या की ओर मारवाड़़ छोड़कर जाने लगे। गोपालदास भी अपना पट्टा छोडकर महाराजा प्रतापसिंह के पास चला गया।
महाराजा सूरसिंह ने 1595 ई. में गद्दी पर बैठा। उसने गोपालदास को बुलवाया और चारणों के गांव लौटा दिए। 1596 ई. में गोपालदास महाराजा सूरसिंह के साथ गुजरात अभियान पर गया। मार्ग में सिरोही के शासक राव सुरताण पर महाराजा ने आक्रमण कर दिया। गोपालदास की मध्यस्थता से दोनों पक्षों में संधि हुई। 1597 ई. में गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह और उसके पुत्र बहादुरखां से हुए युद्ध में उसने हरावल में रह कर युद्ध किया। अहमदनगर के उपद्रव को शांत करने के लिए अब्दुर्रहीम खानखाना व महाराजा सूरसिंह के साथ गोपालदास भी गया। शाही सेना ने मलिक अम्बर को परास्त कर दिया। इस युद्ध में गोपालदास घायल हुआ।35 1604 ई. में बादशाह जहांगीर ने महाराणा सूरसिंह को गुजरात का सूबेदार बना कर भेजा गया। इसी दौरान 1605 ई. में विद्रोहियों से हुए माण्डवे के युद्ध में गोपालदास वीरगति को प्राप्त हुआ। इस युद्ध में उसका पुत्र राधोदास भी युद्ध में काम आया। गोपालदास के आठ पुत्र हुए, इनमें 7 पुत्र युद्ध में काम आए और 8 वां दलपत घर में मरा। उनकेे विषय में प्रसिद्ध है कि ‘‘गोपालदास के गुरु शिवनाथजी महाराज थे, इनके दर्शन करने आठों भाई गए और सात पुत्रों ने प्रार्थना की हम तलवार की मौत मरें। 8 वें पुत्र दलपत ने व्यंग्य किया कि ‘स्वामीजी के पास भला कौन सी तलवार है ?’ यह सुनकर स्वामीजी ने कहा कि ‘तू खाट सेक कर मरेगा, अन्य सभी तलवार की मौत से मरेंगे।’ कहा जाता है कि इसके बाद दलपत द्वारा की गई सात लड़ाइयों मे ंवह अकेला ही शत्रुओं के बीच कूद पड़ता किन्तु हर बार घायल होकर रह जाता।36
राव बीठलदास - गोपालदास के आठ पुत्रों में बीठलदास ज्येष्ठ था। उसका जन्म 1603 ई. में हुआ। 1605 ई. में वह रणसी का पदाधिकारी हुआ। बादशाह जहांगीर के आदेश से 1605 ई. में महाराज सूरसिंह के दक्षिण अभियान में वह भी साथ में गया। 1615 ई. में मुगलों के उदयपुर अभियान में महाराजा सूरसिंह का दक्षिण से बुलाया गया। महाराज सूरसिंह ने बीठलदास को महाराणा के पास भेजकर संधि करवा दी। 1622 ई. में महाराजा सूरसिंह ने बीठलदास को महाराणा के पास भेजकर संधि करवा दी।37 1622 ई. में महाराजा गजसिंह के साथ वह मलिक अम्बर के विरुद्ध अहमदनगर गया और हरावल में रह कर युद्ध किया। खुर्रम (शाहजहाँ का मूल नाम) द्वारा बागी होकर महाराजा गजसिंह पर आक्रमण करने के समय भी बीठलदास ने हरावल में रह कर युद्ध किया। 1630 ई. में शाही सेना के बीजापुर अभियान में भी वह महाराज गजसिंह के साथ शामिल था।38 1632 ई. में महाराजा जसवन्तसिंह के सिंहासनारूढ़ होने के समय बीठलदास को सिरोपाव दिया गया तथा रणसी और पाली के पट्टों में गांवों की संख्या बढ़ा दी गई।39 सिवाना विद्रोह दमन और पोकरण पर महाराजा जसवंतसिंह का अधिकार करवाने में उसकी रणकुशलता की प्रशंसा हुई।40 1657 ई. में मुगल राजवंश के उŸाराधिकार युद्ध में महाराजा जसवंतसिंह ने औरंगजेब के विपक्ष में लड़ाई की। धरमत के युद्ध में बीठलदास वीरगति को प्राप्त हुआ।41
राव जोगीदास - राव बीठलदास के 12 पुत्रों में ज्येष्ठ पृथ्वीराज रणसी का पदाधिकारी हुआ। पृथ्वीराज के अनुज जोगीदास को महाराज जसवंतसिंह ने अपनी सेना में बुलवाया। कालांतर में औरंगजेब ने महाराजा जसवन्तसिंह को माफ करके उन्हें सातहजारी मनसब के साथ गुजरात सूबेदार बनाकर भेज दिया। जोगीदास महाराजा के साथ गया। गुजरात में उसने कोली दूदा के उपद्रव को शांत करने में सक्रिय भूमिका निभाई। महाराष्ट्र में शिवाजी के विरूद्ध हुए युद्ध में भी उसने हिस्सा लिया। 1673 ई. में महाराजा जसवंतसिंह को जमरूद सूबेदारी प्राप्त होने पर वह भी महाराजा के साथ अफगानिस्तान गया। महाराजा और जोगीदास आदि अन्य सरदारों के परिश्रम से पठानों पर अंकुश लगाया जा सका।42
1678 ई. में महाराजा जसवंतसिंह की जमरूद में मृत्यु हांे गई। उनकी दो रानियों ने कुछ माह बाद दो पुत्रों को जन्म दिया, अजीतसिंह और दलथम्भन। दलथम्भन की कुछ दिनों बाद मृत्यु हो गई। औरंगजेब ने अजीतसिंह को महाराजा जसवंतसिंह का फर्जी पुत्र घोषित करवा कर नागौर के इन्द्रसिंह को पट्टा प्रदान दिया और महाराजा जसवंतसिंह और उसके पुत्र अजीतसिंह को पकड़ने के लिए 20,000 की सेना भेजी। राठौड़़ वीरों ने बड़ी चतुराई से अजीतसिंह को खींची मुकन्ददास के साथ सिरोही के ग्राम कालिन्द्री पहुंचा दिया। जोगीदास और अन्य सरदारों ने घिर जाने पर रानियों को धारास्नान करवाकर यमुना में बहा दिया और मुगलों से घनघोर युद्ध किया। 1679 ई. के युद्ध में ठाकुर जोगीदास बहादुरी से लड़कर काम आया।43
ठाकुर सावंतसिंह - ठाकुर जागीदास के दो पुत्रों सावंतसिंह और भगवान दास हुए। सावंतसिंह 1679 ई. में भीनमाल का पदाधिकारी हुआ। वीर दुर्गादास के नेतृत्व में सरदारों ने मारवाड़ में जबरदस्त आतंक फैलाया। सेनानायक अजबसिंह बीठलदासोत के युद्ध में काम आ जाने पर ठाकुर सावंत सिंह को सेनानायक बनाया गया। सावंतसिंह ने भीनमाल पर आक्रमण कर जालौर के स्वामी बिहारी पठान को निकाल बाहर किया। तत्पश्चात् उसने मुगलों द्वारा अधिकृत किलों और सैन्य चैकियों पर दबाव बनाना प्रारंभ किया। चांपावत सावंतसिंह के सेनापतित्व में यह आक्रमण प्रत्याक्रमण का दौर 1683 ई. तक चलता रहा। 1683 ई. ठाकुर सावंतसिंह मुगल अधिकारी बहलोल खां से संघर्ष करता हुआ काम आया।44 ठाकुर सावंतसिंह का हठुसिंह नामक एक पुत्र था। 1693 ई. में वह मुगलों से संघर्ष करता हुआ अत्यधिक घायल हो गया तथा अल्पकाल में ही काल कलवित हो गया। तब सावंतसिंह का छोटा भाई भगवानसिंह सावंतसिंह के गोद बैठा और सावंतसिंह के बाहुबल से विजित भीनमाल, मजल और कोरां आदि गांवों का अधिपति हुआ।45
ठाकुर भगवानदास - भगवानदास ने अपने तीव्र अभियानों से मुगल विरोध को पुनः मुखरित किया। उसने अजमेर में मुगल अधिकारियों, नूरअली, पुरदिल खां मेवाती पर आक्रमण कर उन्हें मार डाला और मुहम्मद अली को परास्त किया। काणाणा, गांगाणी, नांदिया, पलासणी इत्यादि थाणों पर आक्रमण कर लूट लिया, पाली व फलौदी से दण्ड लिया। जालौर पर आक्रमण किया किन्तु शासक फतैहखां बिना लडे़ ही भाग गया। उसने मुकुन्ददास खींची से भेंट करके महाराजा अजीतसिंह को अज्ञातवास से प्रकट करने का निवेदन किया। वीर दुर्गादास से स्वीकृति मिलने पर मुकुन्ददास खींची ने महाराजा अजीतसिंह को प्रकट कर दिया। इससे राठौड़़ वीरों में नव उत्साह का संचार हुआ। महाराजा अजीतसिंह को सिवाणा दुर्ग में सुरक्षित रखा गया किन्तु मुगलों के बढ़ते दबाव के कारण अजीतसिंह को पीपलाद की पहाड़ी में जाना पड़ा। भगवानदास सफलतापूर्वक सिवाणा का प्रबंध करता रहा और अजीतसिंह की सहायतार्थ धन भेजता रहा।46
1691 ई. में पुत्र अमरसिंह से विवाद उत्पन्न होने पर महाराणा जयसिंह ने महाराजा अजीतसिंह से सहायता भिजवाने को कहा। इस मौके पर महाराजा ने अपने चार सरदारों दुर्गादास, भगवानदास, दुर्जणसाल (जोधा), अखैसिंह (उदावत) को सेना सहित भेजा। इन सरदारों के सक्रिय प्रयासों से पिता पुत्र में संधि सम्पन्न हुई।47 इसी बीच औरंगजेब और उसके अधिकारियों ने अनेक छल कपट और फूट डालने के प्रयास किए, जिन्हें भगवानदास ने दुर्गादास से परस्पर सलाह कर विफल कर दिया।48
1706 ई. में औरंगजेब की मृत्यु होने पर दुर्गादास, भगवानदास एवम् अन्य सरदारों ने सेना एकत्रित कर दिल्ली की ओर कूच किया। फौजदार जाफर कुली खां भाग छूटा।49 1708 ई. में बादशाह बहादुरशाह की फौज राजपूतों के उपद्रवों को कुचलने के लिए भेजी गई। जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह ने मारवाड़़ की सेना के साथ मिलकर मुगल सेना पर भीषण प्रहार किया। इस युद्ध में ठाकुर भगवानदास हरावल में था। बादशाही सेना पराजित होकर भाग खड़़ी हुई। बाद में दोनों पक्षों में हुई संधि में भगवानदास की सक्रिय भूमिका रही।50 इस बीच कृत्रिम दलथम्भन के विद्रोह को कुचलने के लिए महाराजा अजीतसिंह ने भगवानदास कोे सोजत भेजा। दो दिन के भीषण युद्ध के बाद कृत्रिम दलथम्भन भाग खडा हुआ।51 1708 ई. में महाराज अजीतसिंह ने नागौर के शासक इन्द्रसिंह पर अपनी एक फौज भेजी। इस सेना में अग्रणी भगवानदास था। गोलाबारी के प्रारंभ होते ही उसने एक दूत भेजकर अपराध क्षमादान और संधि की याचना की। भगवानदास की मध्यस्थता से काफी कठिनाईपूर्वक अजीतसिंह को मनाया जा सका। 1709 ई. में भगवानदास को प्रधानमंत्री पद ओर घोड़ा सिरोपाव देकर दासपा आदि 30 गांवों के पट्टे देकर जागीर में अभिवृद्धि की गई।
दिसंबर 1713 ई. में बादशाह फरूर्खसियर ने सैय्यद हुसैनअली खां को सेना देकर मारवाड़़ पर भेजा, क्योंकि अजीतसिंह ने दक्खन की सूबेदारी अस्वीकृत कर दी थी। महाराजा अजीतसिंह ने जोधपुर नगर और किले की सुरक्षा का प्रबंध भोपालसिंह जागीदासोत (चाम्पावत) के सुपुर्द किया और मुगलों से युद्ध करने चल पड़ा। हुसैनअली खां जो स्वयं युद्ध का पक्षधर नहीं था, ने एक प्रतिनिधि भेजकर संधि का प्रस्ताव किया। महाराजा अजीतसिंह ने प्रधान भगवानदास और अन्य सरदारों को संधि हेतु प्राधिकृत किया। भगवानदास ने संधि के वार्तालाप के लिए कुछ सरदारों को भेजा, किन्तु हुसैनकुलीखां ने इन्हें कैद कर लिया। तब भगवानदास और जोधा हरनाथ सिंह ने मुगलों पर धावा बोला। घमासान युद्ध में हरनाथसिंह मारा गया और भगवानदास घायल हो गया।52 एक सैनिक वहां से बच निकला। उसने महाराजा के रैण डेरे पर आकर भगवानदास के पुत्रों महासिंह और प्रतापसिंह को यह घटना बताई और भगवानदास के भी मारे जाने की गलत सूचना दी। महाराजा ने इसके शोक में तीन वक्त की नौबत बंद कर दी और उसके पुत्रों ने औध्र्वदैहिक क्रिया कर डाली। अगले दिन भगवानदास ने महाराजा के डेरे पर पहुँचकर सबको आश्चर्यचकित कर दिया। अजीत सिंह ने अपना डेरा आसोप किया और भगवानदास को जोधपुर के किले का प्रबंध सुपुर्द किया। कुछ दिनों में दोनों पक्षों में सुलह हो गई।
1714 ई. में महाराजा अजीतसिंह को गुजरात को सूबा इनायत हुआ। जोधपुर राज्य के प्रबन्ध का जिम्मा भगवानदास को पुनः सौंपा गया। किन्तु अगले ही वर्ष 70 वर्ष की आयु की अवस्था में उसका देहान्त हो गया। ठा. भगवानदास के विषय में कहा जाता है कि उसका सामान्य से काफी ऊंचा कद था। भीनमाल के वाराहजी के मंदिर में वाराहजी का छत्र जमीन पर खडे़ रहकर बांध देता था जबकि वहां का पुजारी तीन सीढ़ी चढ़कर वाराह जी के माथे पर तिलक लगाता था।53 ठा. भगवानदास को अग्रलिखित कुरब हासिल थे54
1. प्रधान का पद 2. दोहरी ताजीम
3. ठाकरां लेख 4. मिसल में सिरे बैठना
5. सवारी में घोड़ा आगे रखना 6. सरब ओपमा
7. डेरा सिरे पर करना 8. खासा ठामना
9. बांह पसाव 10. हाथ का कुरब
11. बगल गीरी 12. पहले बतलाना
ठाकुर महासिंह - ठा.भगवानदास के चार पुत्रों में महासिंह (जन्म 1687 ई.द्ध ज्येष्ठ था। ठा. भगवानदास ने 1713 ई. में अपनी जागीर के दो भाग किए। महासिंह को मीजल दिया, जिसमें भीनमाल भी शामिल था। प्रताप सिंह को दासपों प्रदान किया। कालांतर में महाराजा अभयसिंह ने महासिंह को मीजल भीनमाल की एवज में पोकरण प्रदान किया।
पोकरण के चाम्पावत जागीरदार
पोकरण ठिकाणा सर्वप्रथम महाराजा अजीतसिंह के द्वारा भीनमाल के ठिकाणेदार एवं राज्य के प्रधान भगवानदास चाम्पावत के पुत्र महासिंह को 1708 ई. में प्रदान किया गया। किन्तु कुछ समय पश्चात् ही पोकरण पुनः चन्द्रसेन नरावत को प्रदान किया गया।55 भगवानदास की मृत्यु (1715 ई.) के पश्चात् उसके पुत्र महासिंह को भीनमाल की जागीर मिली।56
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