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Saturday, 7 January 2017

अध्याय - 2- 5

अध्याय - 2- 5



बादशाह अकबर ने राव चन्द्रसेन की शक्ति को तोड़ने के लिए महारावत हराराज के पुत्र कंवर सुल्तानसिंह को शाही सेवा की एवज में फलौदी परगना जागीर में दे दिया। भौगोलिक स्थिति के अनुसार पोकरण जैसलमेर और फलोदी के मध्य है। मारवाड़ में उस समय अराजकता व्याप्त थी। अतः पोकरण विजित करने का यह अवसर भाटियों को अनूकल लगा। इसी दौरान महारावल हरराज का पुत्र कुंवर भाखरसी बादशाह अकबर का कृपापात्र बनकर पोकरण को अपनी जागिर में लिखवाने में सफल रहा। उन दिनों राव चन्द्रसेन के हाथों से सिवाणा छूअ गया।71 वह अब मेवाड़ के मुराड़ा ग्राम में रह गया था।72 इस अवसर का लाभ उठाने के लिए भाटियों ने फिर से पोकरण जीतने के प्रयास प्रारंभ किए।
ई.सन् 1575 अक्टूबर वि.सं. 1632 की कार्तिक माह में जैसलमेर महारावल हरराज 8000 सैनिकों सहित पोकरण पहुंचा और पोकरण घेर लिया।73 इस घटना को विभिन्न स्त्रोत अलग-अलग ढंग से वर्णित करते है । राव चन्द्रसेन की ख्यात में वर्णित है कि रावल हरराज स्वयं 8000 आदमियों को लेकर आक्रमण करने पोकरण पहुंचा और घेरा डाला।74 जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार महारावल हरराज 7000 आदमियों के साथ पोकरण आक्रमण करने के निमिŸा आया।75 आक्रमण के वर्ष और माह उपरोक्त दोनो गं्रथों में एक समान है।
मूंहता नैणसी ने भाटियों के आक्रमण का एकदम भिन्न विवरण दिया है। मूंहता नैणसी ने लिखा है कि राव चन्द्रसेन जो मेवाड़ के मुराड़ा ग्राम मंें रह रहा था को पोकरण से दूर जानकर ई.सन् 1576 (वि.सं.1633) के सावन माह में महारावल हरराज ने अपने पुत्र भाखरसी को करीब 600-700 योद्धाओं के साथ फलौदी से पोकरण भेजा। उसने पोकरण गढ़ का घेरा डाला।76 गढ़ में उपस्थित 40 व्यक्तियों ने भाखरसी के प्रयास को विफल कर दिया। गढ़ में रसद और युद्ध सामग्री भी पर्याप्त थी। भाखरसी दो माह तक यहां घेरा डाले रहा। थक हारकर भाखरसी ने महारावल हरराज को अधिक सेना और युद्ध सामग्री भेजने का निवेदन किया। महारावल हरराज दो हजार अश्वाारोहियों को लेकर पोकरण की ओर रवाना हुआ और राजकुमार भींव को कुछ पदातियों के साथ रवाना किया। महारावल हरराज की फौज में भाटी खेतसिंह मुख्तियार था तथा पोकरण का मुख्तियार पंचोली अणदा मुख्तियार था। राव चद्रसेन री ख्यात - पृत्र 408, जोधपुर राज्य री ख्यात 109। जैसे ही यह सेना पोकरण गढ का घेराव करने के लिए निकट पहुंची। दुर्ग की दीवार के रूथ्रों से गोलियों की बोछार होने लगी। तत्पश्चात् भाटियों की सेना ने शहर से एक कोस दूर नरासर तालाब में डेरा डाला। इस स्थान से सेना ने कई बार दुर्ग पर आक्रमण किया पर असफल  रहे। चार माह तक गढ़ का घेराव और लडाई चलती रही, पर कोई परिणाम नहीं निकला। इन परिस्थितियों में भाटियों ने अपने प्रधान के मार्फत भण्डारी माना के समक्ष प्रस्ताव रखा - ‘‘राव चन्द्रसेन के हाथ से मारवाड़ निकल चुका है। पोकरण पर तुर्कों (मुगलों)  का अधिकार हो इससे तो अच्छा है कि पेाकरण हमारे रहन रख दिया जाए वेसे भी हम राठौड़ो के सगे सम्बन्धी है। जब जोधपुर पर राव चन्द्रसेन का अधिकार हो जाए, उस समय हमारी रकम लौटाने पर हम  आपको पुनः पोकरण लौटा देंगे। राव चन्द्रसेन की स्वीकृति मिलने पर एक लाख फदियेमें पोकरण को भाटियों के रहन रखना निश्चित हुआ।78
राव चन्द्रसेन ने भाटियों को पोकरण क्यों सौप दिया, यह विचारणीय विषय। राव चन्द्रसेन संभवतः अपनी जमीनी हकीकत को समझता था। तत्कालीन समय उसके लिए अत्यन्त संकट पूर्ण था। बादशाह अकबर ओर मोटा राजा उदयसिंह जो उसका अग्रज था कि फौजें उसके पीछे लगी थी। पोकरण से उसका समपर्क टूट चुका था क्योंकि सिवाणा उसके हाथ से छूट चुका। केवल विŸाीय  प्रलोभनों में पड़कर वह पोकरण नहीं छोड सकता था। जैसलमेर के महारावल का पुत्र भाखरसी मुगल मनसबदर के रूप में पेाकरण प्राप्त कर चुका था और वह किसी भी प्रकार से पोकरण प्राप्त करके ही रहेगा। यह बात दूरदर्शी चन्द्रसेन जानता था। भाटियों द्वारा पोकरण पर अधिकार करने में असफल रहने पर शाही मुगल फौजो की भी सहायता ली जा सकती थी। अतः देर सवेर पोकरण का हाथ से निकल जाना निश्चित था। राव चन्द्रसेन को अपनी उस समय की संकटपूर्ण परिस्थिति से निपटने के लिए धन की आवश्यकता थी। उसने अवश्य ही यह सोचा होगा कि भूमि तो जानी ही है ऐसी स्थिति में धन केा ठुकराना उचित नहीं होगा। यदि जोधपुर पर कभी अधिकार हो गया तो भाअियों के पास पोकरण रहना संभव नहीं है।
इन सभी स्थितियों पर विचार करके चन्द्रसेन ने मांगलिया भोज को पोकरण भेजकर कहलवाया कि पोकरण कोट हरराज को सौप दो। इस प्रकार रविवार  29 जनवरी 1576 ई को पोकरण भाटियों को दे दिया गया। भाटियों ने मांगलिया भोज को 37,000 फदिए उसी समय दे दिए जिसमें से उसने 5000 स्वयं ने रखे तथा 20,000 फादिये राावजी के राजपूतों को कोट में बांट दिए। बाकी के 12000 फदिए मांगलिया भोज लेकर राव चन्द्रसेन के पास गया।
मूंहता नैणसी ने अपने ग्रंथ ‘मारवाड़ परगना री विगत’ में कुछ विवरण दिया है। नैणसी के अनुसार राव चन्द्रसेन80 पोकरण सौपने को राजी होने के पश्चात्  भाटियों ने 20,000 फदिए तो उसी समय चुका दिए और शेष राशि जैसलमेर जाने पर चुकाने का वादा किया। सं. 1633 (1576 ई.) फाल्गुन बदि 14 को कुंवर भींव को गढ़ सौप दिया गया। तत्पश्चात् भण्डारी माना और मांगलिया भोज जैसलमेर गए। उन्हें कई दिन इन्तजार करवाया गया। थक हारकर वह बिना रकम लिए ही लौट गए।81 इस प्रकार महारावल हरराज और राव चन्द्रसेन के मध्य 1 लाख फदिये में संधि का उल्लेख अनेक विद्वान करते है कि कितनी रकम का लेन-देन हुआ। निश्चित ही यह तय की गई से कम था। अतः भाटियों ने वादखिलाफी की थी। इस घटना के पश्चात् राव चन्द्रसेन न तो मारवाड़ पर अधिकार कर सका और न ही पोकरण को रहन से छुड़ा सका।
ई. सन् 1581 (वि.सं. 1638 के ज्येष्ठ माह)   में बादशाह अकबर ने मोटा राजा उदयसिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर उसे जोधपुर का राज्य दिया तथा उसके मनसब में सातलमेर को भी सम्मिलित किया। लेकिन इस पर अमल नहीं किया जा सका । ई.सन् 1594 (वि.सं. 1651 आषाढ़ सुदी 16) को मोटा राजा उदयसिंह की मृत्यु के पश्चात् राजा सूरजसिंह का टीका हुआ। पोकरण  परगने का राजस्व चूंकि 5,60,000 दाम अथवा  14,000 रूपए था, अतः राव सूरजसिंह ने कुंवर गजसिंह को पोकरण पर अधिकार करने हेतु फौज सहित भेजा किन्त अभियान असफल रहा और पोकरण   पर जैसलमेर के भाटियों का अधिकार बना रहा।
जैसलमेर गढ़ के किलेदार गोपालदास ऊहड़ (राठौड़)  के पुत्रों अर्जुन, भूपत तथा माण्डव ने पोकरण क्षेत्र के कुछ गांवों को लूटा और वहां से मवेशी लेकर भाग गए। इस पर जैसलमेर राज्य द्वारा नियुक्त थानेदर  भाटी कल्ला जयमलोत, भाटी पन्न सुरतानोत और भाटी नन्दो रायचन्दोत ने इन लुटेरों का पीछा किया और वलसीसर गांव के समीप उन्हें जा पकड़ा।83 लुटेरों ने रात भर भाटियों को कहानी सुनाने में व्यस्त रखा। लुटेरा के कुछ साथी वहां से बचकर कोढ़णा ग्राम पहुंचने में कामयाब रहे। रातों-रात उहड़ो की सेना वलसीसर जा पहुंची। प्रातःकाल दोनों पक्षों में युद्ध हुआ जिसमें दोनो पक्षों के काफी लोग मारे गए।84 मरने वालों में पोकरण की सैन्य टुकडी के भाटी कल्ला एवं नेता जयमलोत, शिवा अजाओत, भाटी नान्दो रायचन्दोत, केल्हण, पेथड़, मोकल एवं मेघा आदि योद्धा काम आए और केल्हण तथा भाटी प्रतापसिंह सुरतानोत घायल हुए। गोपालदास के पुत्र वहां से अपने गांव भाग गएं महारावल भीम ने इसकी शिकायत जोधपुर दरबार पहुंचाई । प्रत्युŸार में जोधपुर के प्रधानभाटी गोविन्ददास ने सूचना भेजी कि गोपालदास मेरी आज्ञा नहीं मानता है। अतः वे स्वतः ही उससे निपटे।85
तत्पश्चात् भीम ने अपने अनुज कल्याणमल की अध्यक्षता में एक सेना को ढणा ग्राम भेजी। आक्रमण् होने की सूचना पोकर गोपाल रात्रि में ही तुरंत जोधपुर से रवाना हुआं उस समय गंगाहै ग्राम में भाटियों की सेना रूकी हुई थी। प्रातःकाल वह वहां पहुंचा और भाटी सेना का मुकाबला कर काम काम आयां उसके साथ 35 राठौड़ और चैहान योद्धा मारे गए।86
15 ऊहड - कमरसी, कंवरसी, महेस, गोयंद आदि
7 चैहान - शंकर, सिंघावत, वीसा आदि
6 देवड़ा - गोपा, गोयंद आदि
2 रांदा
2 ईंदा (पड़िहार)
2 ब्राह्मण
1 मांगलिया (गहलोत)
इस युद्ध के पश्चात् उहड राठौड़ो ने जैसलमर के भाटियों के विरूद्ध युद्ध करने का कभी साहस नहीं किया।
महारावल मनोहरदास के शासनकाल में पोकरणा पोकरणा राठौड़ो का उपद्रव शनैः-शनै बढ़ने लगा। इन्होंने महेवा प्रदेश में रहते हुए जैसलमेर राज्य में लूटमार आरंभ कर दी। पोकरणा राठौड़ो ने पोकरण के निकट स्थित कालमुधा गांव में लूटमार की और पोकरण का इलाका हस्तगत करने का प्रयास किय। अतः महारावल मनोहरदास को इनके विरूद्ध सामरिक कार्यवाही करनी पड़ी तथा स्वयं ने इन पर ससैन्य चढ़ाई की। जैसलमेर से 40 कोस की दूरी पर जैसल मेर और महेवा की सीमा पर पोकरणों को जा पकड़ा । यही फलसूण्ड से 6 कोस तथा  कुसमला से ढाई कोस के अन्तर पर लड़ाई हुई । पोकरणों के 140 योद्धा काम आये तथा वे भाग खड़े हुए।
युद्ध के पश्चात् पोकरणा  पोकरणों राठौड़ो के गण्यमान सरदार महारावल मनोहरदास की सेवा में उपस्थित हुए और उन्होंने अपने कृत्य पर क्षमा मांगी । तब जाकर इनको पोकरण क्षेत्र मे रहने की अनुमति मिली।87 ऊहडो के समान पोकरणों ने भी इसके पश्चात् कभी भी जैसलमेर के भाटियों से सशस्त्र विद्रोह करने का प्रयास नहीं किया।


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