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Saturday, 7 January 2017

अध्याय - 2 पोकरण का आरंभिक इतिहास 1

अध्याय - 2

पोकरण का आरंभिक इतिहास


पोकरण (पोहकरण) कब और किसके द्वारा बताया गया, इस बारे में कोई स्पष्ट साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। जनश्रुति है कि पोकरण पुष्करणा ब्राह्मणों के पूवजों पोकर (पोहकर)  ऋषि का बसाया हुआ है। एक कथा प्रचलित है कि जब श्री लक्ष्मीजी ओर श्री ठाकुर का विवाह सिद्धपुर में हुआ तब 45,000 श्रीमाली ओर 5000  पुष्करणा ब्राह्मण वहां एकत्रित हुए। विष्णु ने पहले श्रीमाली ब्राह्मणों की पूजा की इससे पुष्करणा ब्राह्मण वहां से नाराज होकर चले गए उन्होंने कहा कि आपने हमारा अपमान किया है विष्णु ने उनहें मनाने की बहुत कोशिश की जब वे नहीं माने तब विष्णु ओ लक्ष्मी जी ने उन्हें श्राप दिया -
वेद हीन हो
क्रिया भ्रष्ट हो।
निरजल देश बसो।
मान ही हो ।1
इसके पश्चात् पोकर ऋषि इस क्षेत्र में आकर बसे। उस समय यहां पानी उपलब्ध नहीं था। अतः उन्होंने वरूण की उपासना की। वरूण ने उन्हें प्रसनन होकर वर दिया कि एक कोस धरती में दस हाथ गहराई में पानी मिलेगा। आज भी आस-पास के अन्य क्षेत्र के अपेक्षा यहां अधिक जल मौजूद है।
पोकर ऋषि श्रीमाली ब्राह्मणों से अप्रसन्न था। उसने राक्षसी विद्या का प्रयोग कर श्रीमाली ब्राह्मणें के गर्भ में अवस्थित गर्भजात शिशुओं को मारना शुरू कर दिया इससे उनका वंश बढ़ना रूक गया। सभी श्रीमाली इकट्ठे होकर लक्ष्मी ओर विष्णु के पास पहुँचे और उन्हें अपनी चिन्ता बताई। अन्र्तयामी विष्णु ने उनकी शंका को उचित बताया। लक्ष्मी जी ने उनसे श्रीमालिसयों की सहायता करने का निवेदन किया। विष्णु श्रीमालियों को लेकर पोकरण आए। उन्होंने पुष्करणों को काफी प्रयत्न करके एकत्रित किया क्योंकि पुष्करणा विष्णु और उनके श्राप से नाराज थे। पुष्करणा ब्राह्मणों द्वारा विष्णु से श्राप से मुक्त करने और वर देने का निवेदन किया। विष्णु ने तब वर दिया -
वेद मत पढ़ो, वेद के अंग पुराणों को पढ़ो ।
राजकीय सम्मान हो।
तुम्हारी थोड़ी लक्ष्मी अधिक दिखेगी।
श्रीमाली लाखेश्वरी तुम्हारे आगे हाथ पसारेगी।
इस तरह विष्णु ने दोनों पक्षों में सुलह करवाई ।2
‘‘महाभारत’’  में भी पोकरण से सम्बन्धित संदर्भ प्राप्त हुए है। इसमें पोकरण के लिए पुष्करण या पुष्करारण्य नाम प्रयुक्त हुआ है; यहां के उत्सवसंकेत गणों को नकुल में दिग्विजय यात्रास के प्रसंग में हराया था।3 इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि पोकरण पश्चिमी राजस्थान के अत्यन्त प्राचीन नगरों में से एक है; इसके एक सहस्त्राबदी का पोकरण काइतिहास पूर्णतया अंधकारमय है।
सन् 1013 ई (वि.सं. 1070) का एक गुहिल स्तम्भ लेख हमें पोकरण के बालकनाथ मंदिर  से प्राप्त हुआ है।4 अवश्य ही यह पोकरण के आस-पास के क्षेत्र का कोई गुहिल शासक या अधीनस्थ शासक रहा होगा जिसने संभवतः म्लेच्छ महमूद गजनवी या अन्य मुस्लिम शासक के सैनिको द्वारा गायों के पकड लेने पर युद्ध किया और मृत्यु को प्राप्त हुआ।5 यह भी संभव है कि परमारों से हुए युद्ध में वह मारा गया हो क्योंकि इसी काल (17 जून 1013 ई.) का एक परमारकालीन अभिलेख6 भी पोकरण से ही प्राप्त हुआ है जिसमें परमार धनपाल ने अपने पिता की स्मृति में गोवर्द्धन स्तंभ का निर्माण करवाया था। धिन्धिक भी गुहिक शासक के समान गायों की रक्षा करते हुए मारा गया था। यह भी संभव है कि गुहिक शासक परमार धिन्धिक की मदद के लिए आया हो और दोनो ही वीरगति को प्राप्त हुए हो। इस विषय में न तो अभिलेख ओर न ही कोई अन्य समकालीन स्त्रोत कोई जानकारी दे पाए है। किन्तु यह अवश्यक कहा जा सकता है कि इस काल में पोकरण क्षेत्र में परमार अथवा पंवार काफी सक्रिय थे। वर्तमान जैसलमेर के माड क्षेत्र भाटी विजयराव चूडाला के पुत्र देवराज के बाल्काल की घटना से इस पर प्रकाश पडता है।
भाटी विजयराव जिसका काला 1000 ई (1057 वि.सं.)7 के लगभग का है ने अपने पुत्र देवराज का पाणिग्रहण बीठोडे़ (संभवतः भटिण्डा) के वराह शाखा के पंवारों से किया। देवराज की अवस्था उस समय पांच वर्ष थी। कन्या का नाम हूरड़ था। विवाह की दावत के समय वराहों तथा झालों ने पूर्व नियोजित षडयंत्र के अनुसार भाटियों की बारात पर अचानक आक्रमण कर दिया। आक्रमण करने की वजह यह थी कि विजयराव चूड़ाला की बढती शक्ति से वराह पंवार आतंकित थे तथा अपनी सम्प्रभुता के लिए खतरा मानते थे। इस आक्रमण में विजयराव अपने 750 साथियों के साथ मारा गया। घाटा डाही की स्वामीभक्ति के कारण बालक देवराज के प्राण बच गए।8 एक रैबारी नेग अपनी दु्रतगति ऊंटनी पर बैठाकर पोकरण लाने में सफल रहा। संभवतः धाय डाही ने रेबारी नेग को देवराज सौपकर पोकरण पहुंचाने का निर्देश दिया था।
इतिहासविद मांगीलाल व्यास से वीठाड़े कागे भटिण्डा होने का अनुमान लगाया है।9 इसके विपरीत डाॅ. हुकुमसिंह भाटी ने इसे देरावर मना है।10 वास्तव में देरावत अधिक युक्तिासंगत प्रतीत होता है क्योंकि विजयराव चूड़राला का बडी बारात लेकर भटिण्डा जाना ओर देवराज का वहां से ऊंटनी से बचकर सकुशल पहुंच जाना अविश्वसनीय लगता है। वीठोड़ा देरावर या उसके आस-पास का ही कोई क्षेत्र रहा होगा।
रेबारी नेगा देवराज को लेकर पोकरण पहुंचा। वहां अपने खेत में काम कर रहे एक ब्राह्मण देवायत पुरोहित को नेग ने सारी स्थिति स्पष्ट कर दी। ब्राह्मण से बालक की सुरक्षा का वचन लेकर उसने देवराज को सौप दिया। उधर वराहों ने बालक देवराज की खोजबनी करनी प्रारंभ करदी। जब वह अपने डेरे पर नहीं मिला तो पागिरयों की सहायता ली गई। पागियों को लेकर वराह ऊंटनी के पद-चिन्हों का पीछा करते हुए पोकरण जा पहुँचे। पोकरण में खोजबनी करते हुए वे देवायत पुरोहित के यहां पहुंचे। बालक देवराज के हुलिए से उन्हें उस पर शक हुआ। देवायत के लिए वराहों ने उसे देवराज के साथ भोजन करने को कहा। तब देवायत ने अपने पुत्र रतन के साथ देवराज को भोजन करवा दिा। सयंदेह दूर होने पर वराह सेनिकों का दल वहां से चला गया।11
इस प्रकार देवायत ब्राह्मण ने जातीय खानपान के नियम भंग कर देवराज के प्राण बचा लिए किन्तु ब्राह्मणों ने रतन को अतिच्यु कर दिया। मजबूर होकर उसे सोरठ जाना पड़ा।
सŸाा पुनः प्राप्त होने पर देवराज ने रतन की खोज करवाई। रतन के मिल जाने पर उसे अपना बारहठ बनाया और उसके सिर पर छत्र मंडा कर दिया चारण की पुत्री के साथ उसका विवाह कर दिया। उसके वंशज रतनू चारण के नाम से प्रसिद्ध हुए।12
भाटी देवराज जिसका काल 1020 ई. (1097 वि.सं.) के आसपास का है ने वराहो को पराजित  कर उनके क्षेत्रों पर अधिकार स्थापित कर लिया।13 पंवारों की पराजय के बाद भी इस क्षेत्र में उनका प्रभाव पूर्णतया समाप्त नहीं हुआ। उपरोक्त घटना के बाद भी पोकरण में पंवारों की ठकुराई के साहित्यिक प्रमाण मिले है।14 किन्तु उनकी स्थिति स्वतंत्र सम्प्रभु शासक की थी या अधीनस्थ सामंत की इस विषय में हमारे पास कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। भौगोलिक दृष्टि हम यदि सोचे तो पोकरण का जैसलमेर के निकट होना जल की पर्याप्त उपलब्धता, नमक की उपलब्धता, पंवारों से परम्परागत शत्रुता इत्यादि कारणों से यह क्षेत्र अवश्य ही उस क्षेत्र में शक्तिशाली भाटियों के अधीन रहा होगा तथा पंवारों की स्थिति अधीनस्थ सामंत या  ठाकुर की रही होगी। यह तथ्य गौर करने योग्य है कि रैबारी नेग बालक देवराज के प्राण बचाने के लिए पंवारों के अधीन क्षेत्र में कभी नहीं ले जाता। इससे यह प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र पर पंवारों का अधिकार नहीं था। यहां उस समय गुहिलों का  शासन रहा होगा जो मेवाड के गुहिलों की कोई शखा या अधीनस्थ सामन्त रहा होगा। पोकरण के बालनाथ मंदिर में सन् 1013 (वि.सं. 1070) का गुहिल स्तंभ लेख इस ओर संकेत करता है। पोकरण से ही सन् 1013 ई. (वि.सं. 1070, आषाढ़ सुदी 6 शनिवार) का एक परमार अभिलेख प्राप्त हुआ है15 जिसमें वर्णित है कि परमार शिष्य पुण्य का पुत्र धिन्धक के पुत्र परमार धनपाल ने अपने पिता की स्मृति में गोवर्द्धन स्तंभ का निर्माण करवाया था। दोनों ही एक प्रकार से युद्धों में गायों की रक्षा कतरे हुए मारे गए। इसी वर्ष के परमार अभिलेख से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पंवारों ने ही गुहिलों की गायें पकडी थी। गुहिल शासक की मृत्यु होने पर उन्होंने इस क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया।  गुहिलों को हराने वाला अवश्यक ही धिन्धिक रहा होगा। उसी वर्ष पंवारो के शत्रु भाटी अथवा किसी अन्य गुहिल शासक ने पंवारों के शत्रु भाटी अथवा किसी अन्य गुहिक शासक ने पंवारों की गायें पकड ली होगी और धिन्धिक युद्ध करता हुआ मारा गया होगा। गोविन्दलाल श्रीमाली ने अपने ग्रंथ राजस्थान के अभिलेख में गुहिल और परमार शासकों का गजनवी के सिपाहियों अथवा सिंध के मुस्लिम शासकों से गायो की रक्षा करते हुए युद्ध में मारे जाने की बात कही है। उपरोक्त शासकों का गाये पकड़ने का उद्देश्य स्पष्ट नहीं हो पाता है। उनके लिए गायें पकड कर अपने सुदूर देश ले जाने का विचार अविश्सनीय सा लगता है।  अतः अभिलेख में वर्णित शत्रुओं का मुस्लिम आक्रांत होने की धारणा की संभावना काफी कम है।
सन् 1013 ई के परमार अभिलेख के आधार पर इसी वर्ष से पोकरण पर पंवारों की सŸाा स्थापना मानी जा सकती है। सन् 1182 ई. (वि.सं.1239) के पोकरण के समीप ओलन गांव से प्राप्त शिलालगेख से यह ज्ञात होता है कि यह क्षेत्र भीमदेव चालुक्स के अधीन था। इसी वजह से महारावल जैसल अपनी सीमान्तों का विस्तार वहां तक नहीं कर पाया था।16
लगभग इसी समय पोकरण में  पंवार पुरूखा की ठकुराई थी।17 अवश्य ही यह चालुक्यों का अधीनस्थ सामंत रहा होगा। इसी वजह से जैसलमेर के भाटी इनके विरूद्ध कार्यवाही कर पोकरण पर अधिकार नहीं कर सके। पुरुखा ने पोकरण में लक्ष्मीनारायण जी का एक देवस्थान बनवाया। इन्हीं दिनों भैरव राक्षस का यहां आना हुआ। वह रोज एक आदमी का मांस खाने का आदी था। पुरुखा के कोई पुत्र नहीं था। अतः उसकी मृत्यु के बाद उसका दामाद नानग छाबडा गद्दी पर बैठा। प्रतापी ठाकुर नानग ने युद्ध में अनेक सोने की थालियाँ जाती थी। भैरव राक्षस रोज एक सोने की थाली ले जाता था। नानग ने इसबात को गुप्त रखा।
नानग की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मध्ध्विल गद्दी बैठा। रोज एक थाली कम हो जाने कापता लगने उसने थालियों पर सांकल लगवा दी इससे नाराज होकर भैरव राक्षस ने महिध्वल को पकड लिया। संभवतः भैरव राक्षस मारा गया। भैरव राक्षस के भय से पोकरणवासी नगर छोडकर चले गए।18
सन् 1375 ई (वि.स. 1432) के लगभग रावल मल्लिनाथ राठौड़ महेवा राज्य की सीमा विस्तार करने के उद्देश्य से पोकरण और उसके उसके आस-पास के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। इस क्षेत्र में राठौडों की सŸाा स्थापित हो जाने से जेसलमेर के भाटियों और मारवाड के राठौड़ों में झगडों का सूत्रपात हुआ।19
रावल मल्लिनाथ के शासनकाल में अजमाल तंवर उससे मिलने आया। उसने रावल से सूने पोकरण को पुनः बसाने की अनुमति मांगी। अजमाल तंवर के पुत्र रामदेव जी (1352ई.-1385 ई) ने भैरव को वश में करके सिंध जाने का आदेश दिया। भैरव का आतंक समाप्त हो जाने पर नगर पुनः आबाद हो गया। इधर रामदेव जी जब किसी काय्रवश तुंवरावाही (जयपुर राज्य) गए हुए थे पीछे से उनके अग्रज वीरभदेव जी अपनी पुत्री का विवाह राव मल्लिनाथ जी के पौत्र ओर जगपाल के पुत्र हम्मीर से कर दिया।20 एक जनश्रुति के अनुसार रिवाज के मुताबिक वीरमदेवजी ने अपनी .पुत्री से कुछ मांगने को कहा। तब पति के कहे अनुसार उसने गढ के कंगूने मांग लिए। पुत्री की इच्छा पूरी करते हुए उसने पोकरण छोड़ दिया। तुंवरावाटी से लौटकर आने पर रामदेवजी उस स्थान पर जा बसे जहां वर्तमान में रामदेवरा है। यही 33 साल की अवस्था में 1385 ई (सं. 1442 भादवा शुक्ल एकदशी) को राम सरोवर की पाल पर जीवित समाधि ले ली।21
राठौड़ हमीर के पश्चात् राव दुरजणसाल, तत्पश्चात् राव बजरंग ने पोकरण का शासन किया22 और फिर राव खींवा (क्षेमराज) नामक एक निर्बल ठाकुर पोकरण का स्वामी हुआ। पोकरण पर शासन करने के कारण हमीर के वंशज पोकरणा राठौड़ कहलाए।23 इन पोकरणा राठौड़ो ने राव जोधा को मण्डोर पर अधिकार करने में भी मदद की।24 जैसलमेर के महारावल देवीदस ने पोकरण के पौकरणा राठौड़ौं और भाटियों के बीच निरन्तर संघर्ष के कारण कुण्डल जो फलौदी के पास हैं, अपने दामाद राव सातल को दे दिया25। राव सातल के उŸाराधिकारी सूजा ने अपने पुत्र नरा (नरािसंह) को फलौदी का जागीर में दी। फलौदी में जल की कमी होने के कारण उनका मन वहां नहीं लगा। इसलिए उसनेराव सूजा से प्रार्थना कर पोकरण स्वयं के नाम लिखवा ली।26 मूंता नैणसी ने पोकरणा राठौड़ खींवा और नरा के मध्य हुए संघर्ष का रोचक विवरण प्रस्तुत किया है-27
राठौड़ खींवा  का पोकरण पर राजा था जो बालनाथ योगी का आसन था। वहीं बेंगटी में महराज के बेटे हरभू सांखला का राज था। उसने अपनी पुत्र का विवाह भाटी कलिकरण केहरात (जैसलमेर) से की। आशा से होने के कारण वह पीहर थी। कड़े नक्षत्र मे ंउसने एक पुत्री को जन्म दिया। माॅ-बाप और वंश पर भारी होने का विचार करकेे उसे त्याग दिया।

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