Saturday, 7 January 2017

अध्याय - 2 -6

महारावल मनोहरदास के कोई पुत्र नहीं था। ई. सन् 1650 (वि.सं.1706)88 में उसकी मृत्यु के बाद रामचन्द्र और सबलसिंह में उŸाराधिकारी संघर्ष प्रारंभ हुआ। रामचन्द्र ने रनिवास का समर्थन प्राप्त कर जैसलमेर की बागड़ोर संभाली। उसे महत्वपूर्ण सामंतों का समर्थन प्राप्त नहीं था। इसलिए सामन्त उसे गद्दी से हटाना चाहते  थे। उस समय सबलसिंह बादशाह शाहजहाॅ के विशेष कृपापात्र रूपसिंह भारमलोत (किशनगढ़ के राजा) की सेवा में लगा हुआ था।
इधर जोधपुर में महाराजा गजसिंह की मृत्योपरान्त महाराज जसवंतसिंह को राज्य की टीका हुआ। पूर्व के सामान सातलमेर (पोकरण) को परगना 6,00,000 छः लाख दाम अर्थात् 14,000 रूपए जसवंतसिंह को मिला91। महारावल मनोहरदास की मृत्यु का समाचार मिलने के समय महाराज जसवंत सिंह रणथम्भोर के गोड़ो के यहां विवाह करने गया हुआ था। उसकी रानी मनभावती ने शाहजहाॅ से निवेदन किया कि ‘‘पोकरण जागीर में दर्ज है जिस पर अभी तक अमल नहीं हो सकता है। इतने दिन हमारे समबन्धी महारावल मनोहरदास का वहां अधिकार था, इस कारण हमने कुछ नहीं कहा। अब रामचन्द्र गद्दी पर बैठा जिससे हमारा कोई लगाव नहीं है। अगर आपकी स्वीकृति मिल जाए तो हम पोकरण पर अधिकार कर लें।’’92
रानी मनभावती93 के पुत्र के उŸार में बादशाह शाहजहाँ ने कहा ‘‘आप चाहो तो जैसलमेर आपको दे दें। आपको अपने पोकरण पर अधिकार करने से कौन रोकता है। कुछ समय पश्चात् महाराजा जसवंतसिंह ने बादशाह से अर्ज किया - ‘‘जैसलमेर भाटियों का मूल वतन है इसलिए हमे इससे कोई वास्ता नहीं है। पोकरण की जागीर जोधपुर के राठौड़ो की रही है और आपके दफ्तर में भी इसका अंकन बराबर किया जाता रहा है परन्तु इसका उपयोग जैसलमेर के भाटी करते आए है। अगर आप पोकरण का फरमान कर दें तो भाटियों के विरूद्ध सेना भेजने की कार्यवाही की जाय। तब बादशाह ने इसके लिए स्वीकृति प्रदान कर दीं।94
महाराजा जसवंतसिंह ने पोकरण हस्तगत करने के लिए अप्रेल (सं. 1706, वैशाख सुदी 6) 1650 ई. को जोधपुर के लिए प्रस्थान किया। इसके कुछ समय पूर्व ही उसकी भटियाणी रानी जसरूप दे (महारावल मनोहरदास की पुत्री) बुधवार अप्रेल 10, 1650 ई. (वि.सं. वैशाख वदि 4-5) की रात्रि में मृत्यु हुई थी। श्रावण माह में सार्टूल और बिहारीदास शाही फरमान लेकर जैसलमेर के लिए रवाना हुए। उन्होंने वहां पहुंचकर रावल रामचन्द्र को फरमान दिखाया। सभी भाटियों ने मिलकर इसपर विचार-विमर्श किया और चार दिन बाद उन्होंने कहा कि गढ़ मांगने से नहीं मिलता है। दस भाटियों के बलिदन देने के बाद ही पोकरण उन्हें पोकरण मिलेगा। सार्दुल और बिहारीदास जोधपुर लौट आए और महाराजा को इसकी जानकारी दी।95
इस प्रकार जब शाही फरमान जारी करने के बाद भी भाटी पोकरण देने को राजी नहीं हुए तब महाराजा ने एक विशाल सेना पोकरण के भाटियों के विरूद्ध भेजने का निश्चय किया। फौज के तीन हिस्से किए गए तथा इसे राठौड़ गोपालदास (रींया सुन्दरदास मेड़तिया का पुत्र) चम्पावल विट्ठलदास (पाली गोपालदास चंपावत का पुत्र) और अग्रीम सेना राठौड़ नाहर खां (आसयोप राजसिंह कूम्पावत का पुत्र) व नैणसी ने किया। इस प्रकार सब मिलाकर दो हजार अश्वरोही और चार हजार पैदल सेना थी।96 इन तीनों टुकडियों को एक-एक कर क्रमश5 1650 ई. की (सितम्बर) आसोज वदि 2, 3 और 7 को रवाना किया गया। पहली टुकडी ने आसोज सुदी 7 को पोकरण के खारा गांव में पहंुचकर डेरा डाला।97
इस बीच राजा रूपसिंह (किशनगढ़) ने सबलसिंह की बादशाह शाहजहाॅ से भेट करवाई। राजा रूपसिंह ने रावल मनोहरदास के उŸाराधिकारी के रूप में सबलसिंह को प्रस्तुत किया और बादशाह के चरण स्पर्श करवाए। बादशाह ने तब सबलसिंह को जैसलमेर का टीका देकर विदा किया।98 तत्पश्चात् सबलसिंह ने महाराजा जसवंत सिंह से भेंट कर मदद की याचना की। महाराज जसवंत सिंह ने सबलसिंह के लिए सेना और खर्चे इत्यादि की व्यवस्था कर उसे जैसलमेर दिलाने का आश्वासन देते हुए कहा कि वह फलौदी पहुंचे वहां जोधपुर की सेना उसकी मदद करेगी। तब सबलसिंह ने भी राजा जसवंतसिंह को फलोदी का प्रान्त मय पोकरण किले के लौटा देने का वाद कर लिया।99
सबलसिंह कुछ दिन फलौदी रहा। उसने 700-800 योद्धाओं के साथ फलोदी के ग्राम कुण्डल के भोजासर तालाब पर शिविर लगाया। इधर भाटियों की एक सेना जिसमें अधिकांशतः केल्हण भाटी थे, पोकरण की सेना के साथ सबलसिंह का मुकाबला करने जवण री तलाई सेखासर में डारे डाले बैठी थी। दोनो पक्षों में युद्ध हुआ जिसमें सबलसिंह विजयी रहा।100
इस विजय के बाद भी सबलसिंह ने तत्काल जैसलमेर पर आक्रमण करना अच्छा नहीं समझा। अपना पक्ष और मजबूत करने के लिए उसने पोकरण पर चढ़ाई करने वाली जोधपुर की सेना के साथ सम्मिलित होने का निश्चय किा और खरा गांव का डेरा जहाॅ महाराजा की सेना रूकी हुई थी वहीं 500-600 योद्धाओं के साथ जा मिला। पोकरण क्षेत्र में सबलसिंह ने लूटमार की। उसे सूचना मिली कि पोकरण के गढ़ में डेढ़ हजार मनुष्य थे। जोधपुर की सेना के नजदीक आने पर अनेक व्यक्ति गढ़ से चुपचाप रात्रि में निकल गए और केवल 350 व्यक्ति ही रह गए।101 जोधपुर की सेना जिसमें 1500 सवार और 2500 पैदल थे।102 पोकरण से आधा कोस की दूरी पर डूगरसर तालाब पर जोधपुर  की सेनाओं ने पड़ाव किया और आसोद सुद 15 (29 सितम्बर, 1650 ई.) को पोकरण गढ़ पर घेरा डाला । इस दिन प्रमुख सरदारों की देखरेख में तोपो से गढ़ पर आक्रमण किया गया। शहर पर अधिकार करके गढ़ के द्वारा के समक्ष मोर्चा लगाया गया। गढ़ में मौजूद भाटियों की सेना गोलियों और तीरों से शत्रुओं पर हमला किया किन्तु जोधपुर की सेना ने मोर्चा इस प्रकार से लगा रखा था जिससे इनका कोई सैनिक हताहत नहीं हुआ। इस प्रकार तीन दिन तक दोनो पक्षों में आक्रमण-प्रत्याक्रमा का दौर चलता रहा। गढ़ में मौजूद भाटियों ने सबलसिंह को कहलवाया कि ‘‘हमारी बाहं पकड़ कर बाहर निकाले जाने पर ही हम बाहर जाएंगे।’’ तब सबलसिंह ने जोधपुर की सेना के सरदारों-राठौड़ गोपालदास, बीठलदास और नाहरखान से निवेदन किया कि ‘‘ऐसे तो कोई भाटी गढ़ से बाहर नहीं आएगा। आप लोग मुझे दोन दिन का समय दो। किन्तु सबलसिंह भाटियों से गढ समर्पित करवाने में असफल रहा।103
5 अक्टूबर, 1650 ईं को (काती वद 6) को जोधपुर की सेना के 100 आदमी गढ में जा घुसे। इसकी सूचना मिलते ही अनेक व्यक्ति गढ़ छोड कर भाग खड़े हुए। केवल 15 या 16 व्यक्ति ही अब गढ़ में रह गए थे। गोपालदास, बिठलदास एवं नाहरखान गढ के अधिकांश व्यक्तियों के पलायन की जानकारी मिली तो उन्होंने सबलसिंह को कहलाया कि या तो प्रतापसिंह (पोकरण गढ़ में भाटियों का प्रमुख सरदार) को बाहर निकालों नहीं तो हमारे हाथों वह मारा जएगा।’’ सबलसिंह और मारवाड की सेना के तीनो सरदार प्रतापसिंह के वृद्ध होने के विषय में जानते थे इसी वजह से वह प्रतापसिंह को सकुशल बच निकलने का एक और मोका देना चाहते थे। तब सबलसिंह ने कहलाया कि प्रातः वह उसये गढ़ से बाहर निकाल देगा। किन्तु मारवाड़ के सेनानायक इससे सन्तुष्ट नहीं हुए क्योंकि वे रात में ही गढ पर पूर्ण अधिकार कर लेने के लिए तत्पर थे। रात्रि में ही बिठलदास ले कार्यवाही प्रारंभ कर दी। भाटी प्रतापसिंह को अततः अपने साथियों के साथ बाहर आना पड़ा। देहरा पोल के समीप हुए युद्ध में भाटी प्रतापसिंह अपने अनेक वयोवृद्ध साथियों के साथ लड़ते हुए काम आया।104 इस युद्ध में मारे जाने वाले प्रमुख भाटी -  
1. भाटी प्रतापसिंह रावलोत - 75 वर्ष
2. भाटी का वेणीदास - 60 वर्ष
3. भाटी एका गोकलदास - 50 वर्ष
4. भाटी रूपसी - 65 वर्ष
5. भाटी सादो - 60 वर्ष
6. राठौड़ सादूल - 50 वर्ष
7. भाटी लालो - 38 वर्ष
8. भाटी जसो - 40 वर्ष
9. गौड़ रामो - 64 वर्ष
10. चैहान लखो - 60 वर्ष
11. तुरक जैमल कच्छवाह - 80 वर्ष
12. राठौड़ कुसलचन्द समेचा - 70 वर्ष105
पोकरण गढ़ में मौजूद भाटियों का इस तरह मुट्ठी भर लोगों के साथ लड़ना हमारी राय में नितांत बेवकुफी और मूर्खता वाला कदम था।  यह कदम आम्मदाह के सदृश था। संभवतः भाटी प्रतापसिंह पोकरण को लेकर काफी जज्बाती हो गया थां अधिकांश राजपूत सरदारों और अन्य व्यक्तियों के गढ़ से पयलन करने के बाद भी 15-16 व्यक्तियों के सहयोग से उसने पोकरण गढ़ नहीं छोड़ने की जिद पकड़ ली। जोधपुर की सेना के सेनापतियों और रावल सबलसिंह ने उसे पोकरण गढ़ से बाहर निकलने के अनेक मौके भी दिए। वह लडकर काम आने का आमादा था जबकि हकीकत में इसका कोई ओचितय नहीं था। युद्ध जीतने के लिए लड़े जाते है न कि जबरदस्ती अपना जीवन झोकने के लिए। यदि उसकी इच्छा युद्ध करने ही की थी, तो भी उसे पोकरणगढ़ से पलायन करके जैसलमेर की सेना के सहयोग से मारवाड़ की सेना से युद्ध करता । निश्चित रूप से भाटी प्रतापसिंह वीर था किन्तु उसने अपने इस गुण का पूर्ण सुदपयोग नहीं किया।
जोधपुर की सेना की ओर से राठौड़ राजसिंह मारा गया और 10 व्यक्ति घायल हुए।106 पोकरण पर जोधपुर की सेनाओं के अधिकार करने के पश्चातृ अगले दिन वहां महाराज जसवंतसिंह का राज्याधिकार स्थापित हो गई। इसके पश्चातृ जोधपुर की सेना के साथ रामचन्द्र के विरूद्ध जैसलमेर पर आक्रामण करने के लिए रवाना हुआ। जैसे ही इस बात की सूचना रावल रामचन्द्र को मिली उसयने सबलसिंह को कहलवाया कि उसे अपना माल लेकर गढ में से निकलने दें । वह देरावर चला जाएगा। सबलसिंह ने उसकी स्वीकृति दे दी तथा जैसलमेर जाकर राज्य की बागड़ोर संभाली।
जैसलमेर की ख्यात तथा तवारीख जैसलमेर में रावल सबलसिंह के राज्य प्राप्ति का भिन्न विवरण मिलता है। इनके अनुसार सबलसिंह मुगल बादशाह का वह शाही फरमान लेकर जैसलमेर पहुंचा जिसमें उसे जैसलमेर का टीका दिए जाने का उल्लेख था। संभवतः जैसलमेर वालों ने उसे पकड़ना चाहा होगा। किन्तु वह बचकर किशनगढ़ पुनः लौटने में सफल रहा। जैसलमेर के भाटी सरदार इस घटना के कुछ समय पश्चात् सबलसिंह को लेने किशनगढ़ गए। लौटते हुए मार्ग  पर मारवाड़ की सेना ने उनका रास्ता रोक लिया। तब सबलसिंह ने यह झूठ कहा कि हम जैसलमेर हस्तगत करने नहीं बल्कि स्वांगिया देवी की यात्रा करने जा रहे है। जब जोधपुर के सरदारों ने उनकी तलाशी ली। तलाशी में उन्हें बादशाह का फरमान मिला। तब सबलसिंह ने यह स्वीकार कर लिया कि वे जैसलमेर पर  अधिकार करने जा रहे है। मारवाड के सरदारों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार करना पड़ा। जैसलमेर की ख्यात ओर तवारीख पोकरण के यह उपर्युक्त विवरण नितान्त काल्पनिक है क्योंकि मुंहता नैणसी जो इस सम्पूर्ण अभियान में काफी सक्रिय था अपनी ख्यात और मारवाड़ परगना रा विगत में इस घटना का कहीं भी वर्णन नहीं करता है।
अब सबलसिंह चूंकि पोकरा के इस हाथ से निकल जाने से प्रसन्न नहीं थी और अपने जीवन की इस घटना को एक कलंक मानता था। इसी वजह से उसने अथवा उसके उŸाराधिकारियों ने इस प्रकार की मिथ्या घटना लिखवाई।




अध्याय - 2 -7

पोकरण को प्राप्त करने के लिए उपर्युक्त युद्ध में महाराजा जसवंत सिंह की राजनीतिक कुशलता भी दृष्टिगोचर होती है। इस अभियान में जसवंतसिंह ने मुगल सम्राट शाहजहां की आज्ञा की अनुपालना भी कर दी और सबलसिंह की सहायता करके फलोदी और पोकरण के परगने जोधपुर राज्य में मिलाकर अपना प्रयोजन भी सिद्ध कर लिया तथा सबलसिंह को जैसलमेर का राज्य भी मिल गया।109
नवंबर 1650 (कार्तिक सुदी 12) को महाराजा ने मुहता नैणसी को सिरोपाव देकर एवं पोकरण का हाकिम नियुक्त कर पोकरण भेजा।110 सरदारों ने पोकरण छोड़ने से पूर्व सिंघवी प्रतापमल को वहां का प्रबंध सौपा था। मुंहता नैणसीने उसे पूर्व निर्देशानुसार जोधपुर भेज दिया। नैणसी ने पोकरण में एक थाना स्थापित किया। राठौड़ को गढ़ की चाबियाँ सौंपी गई।111 ई.सन् 1655 (वि.सं. 1711) के पोकरण गढ़ से प्राप्त से एक अभिलेख के अनुसार महाराजा जसवंतसिंह ने पोकरण निर्माण करवाया।
जैसलमेर का महारावल सबलसिंह जिसने पूर्व में मारवाड़ की सेना को पोकरण दिलाने में सहयोग दिया था। अब पुनः पोकरण पर अधिकार करना चाहता था। इसके लिए वह उचित अवसर की प्रतीक्षा में था।
ई.सनृ 1657 (वि.सं. 1714) में मुगल बादशाह ने अपनी एक रूग्ण अवस्था जानकर अपने ज्येष्ठ पुत्र द्वारा शिकाह को अपना उŸाराधिकारी घोषित किया। शाहजहां के शेष पुत्रों ने उसे स्वीकार नहीं किया। फलस्वरूप दिल्ली साम्राज्य की राजगद्दी को लेकर उतराधिकार संघर्ष प्रारंभ हो गयां इस युद्ध में महाराज जसवंत ने दारा शिकोह का पक्ष लिया। इस युद्ध में औरंगजेब की विजय हुई। चूंकि महाराज जसवंतसिंह इस युद्ध में औरंगजेब के खिलाफ लड़ा था। इसलिए महारावल सबलसिंह को पोकरण का अधिकार करने का उचित समय लगा। उसने अपने पुत्र कुंवर अमरसिंह को 15 मार्च 1659 ई. (वि.सं. 1716 चैत्र सुदि 3) को 3000 सैनिकों के साथ पोकरण भेजा। कुं. अमरसिंह ने पोकरण के गढ़ को घेर लिया। कुं. अमरसिंह के साथ भाटी रामसिंह और सीहड़ रघुनाथ भी थे। भाटियों की सेना ने पोकरण से आधा कोस दूर मेहरलाई के समीप पड़ाव किया। गोलियों और तीर चलाते हुए वे गढ़ के समीप पहुंचे और उस पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात् भाटियों ने गढ पर आण फेरी (राज्याधिकार स्थापित होने की दुहाई फेरना) ।113
उस समय पोकरण के गढ़ में निम्नलिखित पदाधिकारी थे-114
1. रा. जगमाल मनोहरदासोत
2. रा. चन्द्रसेन सबलसिंहोत
3. रा. माधोदास जसंवतोत
4. रा. सार्दूल सूजावत मण्डलो
5. रा. रघुनाथ लक्ष्मीदासोत
6. भाटी वीठलदास सीहो
7. भाटी जोगीदास
8. भीवराज उघस रो
9. 4 मांगलिया इत्यादि
पोकरण पर जैसलमेर के भाटियों के अधिकार होने की सूचना महाराजा जसवंतसिंह को सिरोही के गांव ऊड में मिली। खबर पहुंचने के समय मिर्जा राजा जयंसिंह जसवंतसिंह के साथ मौजूद था। जसवंतसिंह ने यह घटनाक्रम अजमेर के सूबेदार बहादुर खां के बताया और उससे निवेदन किया कि वह एक शाही मनसबदार जैसलमेर भेजकर पोकरण को खाली करवाए। जयसिंह इससे सहमत था किन्तु नवाब को यह विचार पसन्द नहीं आया। जयसिंह ने चैधरी रतनसी के हाथ एक पत्र  रावलसबलसिंह के पास भिजवाया तथा कहलवाया कि बादशाह की ओर से यह जागीर में महाराजा जसवन्त सिंह को दी गई है। किन्तु सवाईसिंह ने इस ओर ध्यान नहीं दिया।
तत्पश्चात् महाराजा जसवंतसिंह ने अप्रेल, 1659 निम्नलिखित राठौड सरदारों के साथ मुहता नैणसी को पोकरण भेजा और स्वयं विवाह करने सिरोही चला गया।116
1. मुहता नैणसी
2. रा. राजसिंह सूरजमलोत
3. रा. सबलसिंह प्रागदासोत
4. रा. गोपीनाथ माघवदासोत
5. रा. हरीदास ठाकुर सिंहोत
6. रा. प्रतापसिंह गोपीनाथोत
7. रा. गराधर दास मोहणदासोत
8. भाटी भील प्राणदासोत
9. सोहड़ तेजसिंह माधोसिंहोत
10. रा.  श्याम साहिबखानोत
मुहता नैणसी की प्रार्थना पर राठौड़ लखधीर और राठौड़ भीव को सेना का नेतृत्व सौपा गया। इस बीच मुहता नैणसी एक बार जोधपुर आया तथा खजाने से 20,000 की रकम और आवश्यक सोजा सामान एकत्रित कर पुनः पोकरण लौट गया। पोकरण पहुंचने से पूर्व ही उसे यह सूचना मिल गई कि भाटी फलोदी पर आक्रमा करने का विचार बन रहे है। मार्ग में ही उसे बीकानेर नरेश कर्णसिंह का पत्र मिला जिसमें 500 सवार, 500 ऊँट, 500 पदातियों इत्यादि से मदद करने की पेशकश की गई थी किन्तु नैणसी ने उŸार भिजवाया कि फिलहाल उसे इसकी आवश्सयकता नहीं है। जरूरत पड़ने पर सहायता मांग ली जाएगी।
जोधपुर की सेना ने पोकरण के समीप डेरा डाला (वैशाख सुदी 8) । भाटियों ने जोधपुर की सेनाओं का जमावडा देखकर पोकरण गढ़ खाली कर दिया और मुख्य द्वार को पत्थरों से चुनवा दिया।118 जोधपुर हुकुमत की बही के अनुसार मिर्जा राजा जयसिंह ने चैधरी रतनसी और कछवाहा फतेहसिंह कोएक पत्र देकर भेजा। इस पत्र में जयसिंह के परामर्शानुसार भाटियों ने पोकरण शहर को खाली कर दिया।119
भाटियों के  सैन्य दबाव को देखकर नैणसी ने महाराज से निवेदन कर सेवाएं मंगवाई । जोधपुर की सेना की नवीन कुमुक आते ही जैसलमेर की सेना, जिसका नेतृत्व कुंवर अमरसिंह कर रहा था ने और पीछे हटने का निश्चय किया। यद्यपि महारावल सबलसिंह स्वयं भी सहायता करने को पहुंचा था।120 तथापि वह मारवाड से युद्ध व्यापक पैमान पर छेड़ने का साहस नहीं कर सका और जैसलमेर लौट गया। इसके पश्चात् महाराजा की सेना ने जैसलमेर राज्य में घुसकर आसणी कोट तक लूटमार की। जैसलमेर के भाटियों ने संधि का एक प्रस्ताव भेजा जिसे नैणसी ने ठुकरा दिया। उसने जैसलमेर में लूटमार को जारी रखा और पोकरण लौटते हुए भी लूटमार जारी रखा।121
जोधपुर हुकुमत बही के अनुसार नैणसी ने आसणीकोट में लूटमार करने के पश्चात् जैसलमेर के गढ़ को घरने का निश्चय किया। वस्तुतः जैसलमेर वाले यह सोच रहे थे कि मारवाड़ी सेना लूटपाट कर लौट जाएगी। अब उन्होंने सुरक्षात्मक रूख अपनाते हुए जैसलमेर के किले के द्वार को चुनवा दिया।122 तत्पश्चात् राठौड़ सरदारों के विरोध के कारण गढ़ पर आक्रमण टालना पड़ां जून 1659 ई (वि.सं. 1716 ज्येष्ठ वदी 13) को मारवाड की सेना पोकरण लौट आई। मुहता नैणसी ने यहां की सुरक्षा व्यवस्था को और सुदृढ किया। राठौड सबलसिंह पोकरण् के थाने में पहले से ही पदस्थापित था। इस माह मुहता नैणसी अपने सरदारों सहित जोधपुर लौट आया।
मूहता नैणसी को पोकरण से जोधपुर गए हुए मुश्किल से दस दिन ही हुए थे कि महारावल सबलसिंह ने भाटी रामसिंह के नेतृत्व में दो हजार सैनिक पोकरण पर अधिकार करने भेज दिए। राठौड़ सबलसिंह ने भाटियों पर जबरदस्त प्रत्याक्रमण किया। नगर में मण्डी में दोनो पक्षों में युद्ध हुआ जिसमें 10 भाटी और जोधपुर सेन के 2 योद्धा मारे गए। पोकरण पर अधिकार करने की असफलता से कुपित होकर भाटियों ने पोकरण के आस-पास के गांवों में आग लगा दी। तत्पश्चात् वे डूंगरसर होते हुए फलौदी के राणीसर जलाशय पर जाकर रूके।
मुंहता नैणसी ने जोधपुर में सैना और साजो सामान एकत्रित कर फलोदी की ओर प्रस्थान किया। नैणसी के फलोदी होने से पूर्व ही भाटियों की सेना फलोदी से पलायन कर चुकी थी। नैणसी में फलोदी की ओर से जैसलमेर के भाटियों के गांव में लूटमार का अभियान चलाया। इस दौरान बीकानेर के राजा कर्णसिंह की बारात जैसलमेर जाते हुए कीरड़े गांव में रूकी। कर्णसिंह ने दोनो पक्षों को बुलवाकर समझाया, किन्तु स्थिति जस की तस रही। इधर रावल सबलसिंह ने 20 दिन तक बारात को रोकर उसकी अच्छी खातिर की। लौटते हुए मार्ग में रूणेचा (रामदेवरा) रूका। कर्णसिंह ने मुंहता नैणसी को भेंट करने के लिए पुनः बुलवाया। जुलाई माह (भाद्रपद वदि 8) को उसने दोनो पक्षों से लडाई समाप्त करने के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करवाए। एक भोज का भी आयोजन किया गया जिसमें राठौड़ बिहारीदास और राजसिंह को भाटी रामसिंह और रघुनाथ के साथ एक थाली में बैठाकर भोजन करवाया गया। इस प्रकार महाराज कर्णसिंह की मध्यस्थ भूमिका के सकारात्मक परिणाम निकले। दोनो पक्षों ने फिर कभी  एक-दूसरे के क्षेत्राधिकार को लांघने का प्रयास नहीं किया।125
परगना पोकरण जो बादशाह के दरबार में सातलमेर नाम से दर्ज था। महाराजा जसवंतसिंह को 8,00,000 दान में जागीर के रूप में प्रदान किया गया था। 1658 ई (वि.सं. 1715 के फाल्गुन वदि 13) को यह परगना महाराजा जसवंतसिंह ने पोकरण पुलिस चैकी प्रमुख सबलसिंह प्रयागदसोत और उसके पुत्र चन्द्रसेन राठौड़ 41,000 की रेख पर 1664 ई. (सं.  1721 की मिंगसर सुदी 7)  को मुहणेत नैणसी और नरसिंहदास ने इसे दुरुस्त कर निम्नलिखित निश्चित की -
गांव रुपए आसागी /गांव निम्नलिखित है
40 27060
10,000 कसबै दांण सुधो 1
400 चाचा बांभण 1
200 भींवो भोजो 1
400 घुहड़सर 1
500 ऊधरास 1
800 बांभणु
1000 छायण
100 थाट
70 गाजण कालर री सरेह 1
200 वलहीयो 1
200 दूधीसयो 1
150 भोजी री सरेह
250 ढंढ री सरेह
900 बड़ली
1500 पदपदरो 1
400 माहव 1
1050 झालरीयोे 2
500 जसवंत पुरा 1
1000 मंढलो 1
250 राहडरो गांव 1
150 जैसंघ रो गांव 1
80 गोमटीया मोहर कालर
150 राहयो 1
100 नेहड सी सरेह 1
50 सोढ़ा री सरेह 1
250 गलरां री सरेह
1000 बांणीयां बांभण
800 काला बांभण 1
1500 लोहवो
700 ढंढ 1
1000 खारो 1
500 चांदसमो 1
150 केलावो
100 एका
100 खालत सरवणी री सरहे
400 वरडांणो 1
100 खेतपालियां री सरहे
30 5100 पोकरणा राठौड़ जगमाल के भाई बन्धुअें के
15 1700 सांसण चारण पंडित ब्राह्मणों के
85    33,850
 0     7,000 रामदेव जी दो मेले
85    40,860
इस प्रकार रेख में कुछ गांव 85 थे जिनकी रेख 40,860 रूपए थी।126




अध्याय - 2 -8

महाराजा जसवंतसिंह की मृत्यु (1678 ई) के समय पोकरण का पट्टा सबलसिंह के पुत्र चन्द्रसेन के नाम 40,000 कीरेख में दर्ज थी।127 राठौड़ चन्द्रसेन राव सूजा का पुत्र नरा का वंशज था और राठौड़ो की नरावत शाखा के रूप में माने जाते थे।
महाराजा जसवंतसिंह की मृत्यु के पश्चात् शाही रकम बकाया होने की आड में जोधपुर को खालसा घोषित कर दिया। औरंगजेब ने मारवाड़ के वास्तविक उŸाराधिकारी अजीसिंह की वैधता पर भी प्रश्न-चिन्ह लगा दिए। उसने नागौर के शासक इन्द्रसिंह को जोधपुर का टिका दे दिया। फलस्वरूप जोधपुर के सरदारों ने राठौड़ दुर्गादास के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया।
जैसलमेर के तत्कालीन महारावचल अमरसिंह ने इन परिस्थितियों का लाभ उठाकरन पोकरण पर अधिकार करने के प्रयास नए सिरे से प्रारंभ किए। उसने अपने भाई महारावल अमरसिंह को औरंगजेब के शाही दरबार में भेजा। राठौड़ो के विद्रोह से नाराज औरंगजेब ने पोकरण और फलौदी का पट्टा जैसलमेर के नाम कर दिया। इसी दौरान जोधपुर दुर्ग पर शाही सेना के आक्रमण के समय राजसिंह मार गया। तत्पश्चात् महारावल अमरसिंह की पोकरण-फलौदी को अधिकृत करने में रूचि समाप्त हो गई।128
पोकरण को लेकर जैसलमेर और जोधपुर राज्यों में पुनः कटुता उत्पन्न हो गई थी। इस कटुता को दूर करने के लिए महारावल अमरसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह महाराजा अजीतसिंह के साथ किया किन्तु औरंगजेब के विरूद्ध कोई मदद नहीं की।129
अपने ग्रंथ राजस्थानी ऐतिहासिक गं्रथों का सर्वेक्षण भाग-3 में लेखक डाॅ. नारायणसिंह भाटी ने लिखा है कि 1722 ई. (संवत. 1779 आषाढ वदी 10) को महारावल तेजसिंह की हत्या कर दी गई। पोकरध के ठा. राठौड़ अमरसिंह की पुत्री महारावल तेजसिंह को ब्याही गई थी। महारावल के वध किए जानाद अमरसिंह ने जैसलमेर पहुंचकर लूटमार की। फिर महारावल तेजसिंह के पुत्र प्रतापसिंह को लवारकी गांव दिलाया। डाॅ. नारायणसिंह ने पोकरण ठिकाणे में मौजूद चम्पावतों की ख्याल का हवाला दिया है किन्तु उपर्युक्त ख्यात में इसका वर्णन नहीं मिलता है अन्य समकालीन स्त्रोत भी इस विषय में मौन है। संभवतः यह कोई पोकरणा राठौड़ ठाकुर रहा होगा।130
1707 ई. 1708 ई. (वि.सं. 1764 तथा 1765)  में महाराजा अजीतसिंह के ओहदा अधिकारियों की सूची में चम्पावत महासिंह को पोकरण दिऐ जाने का जिक्र है किन्तु कुछ समय बाद चन्द्रसेन की पोकरण जागीर बहाल कर दी गई क्योंकि वह बादशाह के यहां राजकीय सेवा में था तथा बादशाह ने उसके सम्बन्ध अच्छे थे। महाराज की सेवा में लगे सरदारों की वह अपने यहां ठहरने की व्यवस्था भी करता था।131
इस प्रकार पश्चिमी राजस्थान के एक प्राचीन नगर पोकरण को अधिकृत करने के लिए एक लंबी प्रतिदन्द्विता व संघर्ष चला। पोकरण की विशिष्ट भौगौलिक स्थिति, जलीय उपलब्धता एवं सामरिक स्थिति के कारण जैसलमेर इस क्षेत्र पर अधिकार करने का आकांक्षी रहा। लगभग 90 वर्षों तक जैसलमेर का पोकरण पर अधिकार भी रहा किन्तु सैन्य एवं अन्य संसाधनों की सबलता के कारण मारवाड़़ राज्य इस संघर्ष में अन्ततः विजयी रहा।




संदर्भ -अध्याय - 2

संदर्भ -
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राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर - 1969
2. वही, भाग 2, पृ.  290
3. विजयेन्द्र कुमार माथुर, ऐतिहासिक स्थानावली, पृ. 570
राजस्थान हिन्दी गं्रथ अकादमी, जयपुर - 1990, इसमें पोकरण को पोकरण कहा गया है। महाभारत का श्लोक-समा. 32, 8-9  ‘‘पुनश्च परिव्रत्याथ पुष्करारण्य वासिनः गुणानुत्स वसंकेतान् व्यजयत् पुरूषर्षभ।’’ इस स्थान पर पुष्करारण्य का उल्लेख माध्यमिका व चिŸाौड़ के पश्चात् होने से इसकी स्थिति मारवाड़ में सिद्ध हो पाती है।
4. गोविन्दलाल श्रीमाली, राजस्थान के अभिलेख, भाग-1, पृ. 59, 60, महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश, जोधपुर 2000य शोध पत्रिका, वर्ष, 22 अंक 2,       पृ. 67 से 69
5. सुमेर लाइब्रेरी सरदार म्यूजियम रिपोर्ट, 1931, पृ. 8, आइ. ए. 40, पृ. 176, गोविन्दलाल श्रीमाली, पूर्वोक्त, भाग 1, पृ 59
6. गोविन्दलाल श्रीमाली, पूर्वोक्त, पृ. 59,60 भाग प्रथम .के अनुसार, 1024, 25 ई. में महमूद गजनवी मुल्तान लोद्रवा मार्ग से सोमनाथ गया था। उसके 10-12 वर्ष पूर्व उसके या गजनवी के किसी अन्य शासक के सिपाहियों य सिंध के मुस्लिम शासक से यह युद्ध हुआ होगा।
7. डाॅ. हुकुमसिंह भाटी, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, जैसलमेर भाग 1, पृ. 43, इतिहास अनुसंधान संस्थान, चैपासनी जोधपुर - 2003
8. मुहता नैणसी री ख्यात, (सं. बदरी प्रसाद साकरिया) भाग 2. पृ. 18, 19य राजस्थान प्राच्य प्रतिष्ठान जोधपुर-1962य  जैसलमेर री ख्यात (सं. डाॅ. नारायण सिंह भाटी) पृ. 37, राजस्थानी शोध संस्थान जोधपुर, 1981
9. डाॅ. मांगीलाल व्यास, जैसलमेर राज्य का इतिहास, पृ. 22, देवनागर प्रकाशन, चैडा रास्ता, जयपुर - 1984
10. डाॅ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, जैसलमेर, भाग प्रथम, पृ. 42
11. जैसलमेर री ख्यात, (सं.डाॅ नारायणसिंह भाटी) पृ. 38, मुहता नैणसी री ख्यात, (सं. डाॅ. बदरी प्रसाद साकरिया), भाग द्वितीय, पृ. 19, 20य मांगीलाल व्यास, जैसलमेर राज्य का इतिहास पृ. 22,23
12. मुहता नैणसी री ख्यात (स. डाॅ. बदरी प्रसाद साकरिया),, भाग द्वितीय, पृ. 25, 26
13. वही, पृ. 25य डाॅ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, भाग प्रथम,    पृ. 49
14. मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत वात पोकरण परगना री (सं. डाॅ नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 290
15. गोविन्दलाल श्रीमाली, पूर्वोक्त, पृ. 59, 60
16. डाॅ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, जैसलमेर पृ. 67
17. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, (सं. डाॅ. नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 290
18. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, (सं. डाॅ. नारायण सिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 290
19. डाॅ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, जैसलमेर, भाग द्वितीय, पृ. 115
20. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, (सं डाॅ. नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 291
21. निदेशालय सूचना एवं जनसम्पर्क राजस्थान, जयपुर द्वारा प्रकाशित पेम्फलेट ‘‘सामजिक सद्भाव के प्रणेता, बाबा रामदेव’’
22. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, (सं. डाॅ. नारायणसिंह भाटी) , भाग द्वितीय, पृ. 292य जोधपुर राज्य री ख्यात (सं. रघुवीरसिंह, मनोहरसिंह) पृ. 71, भारतीय इतिहास अनु. परिषद्, नई दिल्ली एवं पंचशील प्रकाशन, जयपुर-1988
23. वि.ना. रेऊ, मारवाड़ राज्य का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 108, महाराज मानसिंह पुस्तक, प्रकाश जोधपुर - 1999
24. वि. ना. रेऊ, मारवाड़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 86
25. वही, पृ. 104
26. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहरसिंह) पृ. 71
27. मुहता नैणसी री ख्यात, (सं. बदरी प्रसाद सांकरिया) भाग प्रथम,            पृ. 103    से 114
28. गौ.ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 267, व्यास एण्ड सन्स, अजमेर, वि.सं. 1998
29. वि.ना. रेऊ, मारवाड़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 105, पाद् टिप्पणी
30. वही, भाग प्रथम पृ. 106, पाद् टिप्पणी
31. कर्नल टाॅड, ऐनाल्स एण्ड ऐंटिक्विटीज आॅफ राजस्थान, भाग 2, पृ. 952 में नरा को सूजा का पौत्र और वीरमदेव का पुत्र लिखा है जो त्रुटिपूर्ण है ।
32. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीरसिंह, मनोहर सिंह), पृ. 71य गौ.ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 264
33. वि.ना. रेऊ, मारवाड़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 105, पाद् टिप्पणी
34. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, (सं. डाॅ. नारायणसिंह भाटी)  भाग द्वितीय, पृ. 292 में वर्णित है कि पोकरणों ने नीलवै और थटोहण में काफी उत्पात मचाया तथा पोकरण शहर की सीमा तक अधिकार कर लियाय जोधपुर राज्य री ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. 71
35. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, (सं. डाॅ. नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 292 के अनुसार नानणयाई तालाब के समीप यह युद्ध हुआ। जो पोकरण से पांच कोस की दूरी पर था।
36. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. 71
37. मारवाड़ परगना री विगत, (सं. डाॅ. नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 293
38. वही, पृ. 293
39. वही, पृ. 292
40. जोधपुर राज्य की ख्यात, (सं. रघुवीरसिंह, मनोहरसिंह) पृ. 71
41. मुंहता नैणसी री ख्यात, (सं. बदरी प्रसाद सांकरिया), भाग द्वितीय, पृ. 25, 26
42. मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत, (सं. डाॅ. नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 292
43. महकमां तवारीख री मिलसां, क्र.सं. 126, ग्र. 15662 राजस्थान प्राच्य संस्थान, जोधपुर
44. वि. ना. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 108
45. मुहता नैणसी री ख्यात, (सं. बदरी प्रसाद सांकरिया), भाग द्वितीय, पृ. 104
46. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, भाग द्वितीय, पृ. 292
47. जोधपुर राज्य की ख्यात, (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह), पृ. 71
48. मुहता नैणसी री ख्यात, (सं. सांकरिया), भाग द्वितीय, पृ. 114
49. गौ.ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 267
50. वि.ना. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग प्रथम पृ. 108
51. मंुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत (सं. डाॅ. नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 292, 293
52. मुहता नैणसी री ख्यात (सं. बदरी प्रसाद सांकरिया), भाग द्वितीय, पृ. 113
53. वि.ना. रेऊ, मारवाड़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ 108
54. मुंहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत (सं. डाॅ. नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 292, 293, रेऊ ने इसे 1498 ई. (वि.सं. 1555) माना है जो उचित प्रतीत नहीं होती है
55. वही, पृ. 293
56. मुहता नैणसी री ख्यात (सं. बदरी प्रसाद सांकरिया), भाग द्वितीय, पृ. 113य गौ. ही. ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 311
57. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, भाग द्वितीय, पृ. 293, 294य डाॅ. मांगीलाल व्यास ‘मयंक’ जैसलमेर राज्य का इतिहास पृ. 91, 92य डाॅ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, जैसलमेर, भाग प्रथम, पृ. 154य डाॅ. नन्दकिशोर शर्मा, युग युगीन वल्लप्रदेश, जैसलमेर का इतिहास, पृ. 161, सीमान्त प्रकाशन जैसलमेर 1993
58. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीरसिंह, मनोहरसिंह), पृ. 89 वि.ना. रेऊ, मारवाड़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 133
59. प. वि.ना.. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 113, 60.    डाॅ. मांगीलाल व्यास ‘मयंक’, जैसलमेर राज्य का इतिहास, पृ. 92
61. मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत, भाग द्वितीय, पृ. 294य   डाॅ. नन्दकिशोर शर्मा, युग युगीन वल्लप्रदेश जैसलमेर का इतिहास,  पृ. 161य वि.ना. रेऊ, मारवाड़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 113,  में 1000 ऊँट पकडे जाने का लिखा है।
62. डाॅ. मांगीलाल व्यास, ‘मयंक’, जैसलमेर राज्य का इतिहास, पृ. 149,  150
63. डाॅ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 154
64. महकमां तवारीख जोधपुर री मिलसां रो ब्योरो, क्र.सं. 543, ग्र. 15662 में वर्णित है कि ‘‘मालदेव ने नरवतों से पोकरण छीनी तथा सातलमेर के अवशेषों से कोट करवाया’’। डाॅ. मांगीलाल व्यास मयंक, जोधपुर राज्य का इतिहास, पृ. 149
65. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. 107
66. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत (डाॅ. नारायण सिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 294
67. वही, भाग द्वितीय, पृ. 295
68. डाॅ. मांगीलाल व्यास ‘मयंक’, जैसलमेर राज्य का इतिहास, पृ. 99
69. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, (डाॅ. नारायण सिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 295य नन्दकिशोर शर्मा, युग युगीन वल्लप्रदेश जैसलमेर का इतिहास, पृ. 164
70. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत (डाॅ. नारायण सिंह भाटी), भाग द्वितीय, पृ. 296
71. डाॅ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, पृ. 167य डाॅ. मांगीलाल व्यास ‘मयंक’, जैसलमेर राज्य का इतिहास, पृ. 100
72. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत (डाॅ. नारायण सिंह भाटी), भाग द्वितीय, पृ. 295
73. राव चन्द्रसेन की ख्यात, भाग तृतीय, पृ. 408, ग्र, सं. 1632, प्राच्य संस्थान जोधपुर ने 8000 सैनिक अंकित हैय जोधपुर राज्य की ख्यात, (सं. डाॅ. नारायण सिंह भाटी) पृ. 109 में 7000 सैनिक अंकित है जबकि मारवाड़़ परगना री विगत भाग द्वितीय पृ. 295 में मात्र 600-700 योद्धा अंकित है; राव चन्द्रसेन की ख्यात में वर्णित संख्या अधिक उचित प्रतीत होती है।
74. राव चन्द्रसेन की ख्यात, भाग तृतीय, पृ. 408, ग्रं. सं. 1632
75. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह), पृ. 109
76. मंुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत (डाॅ. नारायण सिंह भाटी),  भाग द्वितीय, पृ. 295य राव चन्द्रसेन री ख्यात, पृ. संख्या 408,  जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह), पृ. 109
77. डाॅ. मांगीलाल व्यास ‘मयंक’, जैसलमेर राज्य का इतिहास, पृ. 100
78. तवारीख जैसलमेर (सं. मेहता नथमल), पृ. 54 पर वर्णित है कि पोकरण गढ़ 10 हजार सोनइयों के बदले गिरवी रखा गया। प. वि.ना.रेऊ. मारवाड़ का इतिहास, भाग प्रथम, 218 में एक लाख फदिये 12,500 रूपए के बराबर बताए गए है।
79. राव चन्द्रसेन की ख्यात, भाग तृतीय, पृ.  408-409 मंुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत, (डाॅ. नारायण सिंह भाटी)  भाग द्वितीय, पृ. 296
80. राव चन्द्रसेन की ख्यात, भाग तृतीय, पृ. 410 में मात्र 30,000 फदिये दिए जाने का उल्लेख है, जोधपुर राज्य ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. 109 रात्रि के  तीन बजे पोकरण गढ़ सुपुर्द किया गया।
81. मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत, (डाॅ. नारायण सिंह भाटी)   भाग द्वितीय, पृ. 247
82. जोधपुर राज्य की ख्यात, (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. 132, मारवाड़ परगना री विगत में नैणसी ने इसे सूरजसिंह लिखा है, भाग द्वितीय, पृ. 297-298
83. मुहता नैणसी री ख्यात, (सं. बदरी प्रसाद साकरिया) भाग द्वितीय, पृ. 99, 100
84. डाॅ. मांगीलाल व्यास ‘मयंक’, जैसलमेर राज्य का इतिहास पृ. 106, इन्होंने कोढ़णा के स्थान पर कोटड़ा लिखा है जो त्रुटिपूर्ण कोटड़ा में कोटड़िया राठौड़ है जबकि कोढ़णा में ऊहड राठौड़ हैं।
85. डाॅ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, भाग 1, पृ. 177
86. मुहता नैणसी सी ख्यात, भाग द्वितीय, पृ. 101, जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. सं. 153
87. मुहता नैणसी सी ख्यात (सं. बदरी प्रसाद साकरिया), भाग द्वितीय, पृ. 104
88. मुहता नैणसी,  मारवाड़ परगना री विगत, भाग द्वितीय, पृ. 298, सं. 1706 मिंगसर वद बताया गया है। जबकि वि.ना. रेऊ ने सं. 1706 कार्तिक मास, मारवाड़़ का इतिहास, भाग-प्रथम (पृ. 217) एवं जोधपुर राज्य की ख्यात, पृ.-212, में सं. 1707 रा काती सुद 15 मंगलवार, अक्टूबर 29, 1650 ई. वर्णित है। नैणसी द्वारा बताई गई तारीख अधिक उचित प्रतीत होती है
89. डाॅ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, भाग 1, पृ. 104
90. मुहता नैणसी री ख्यात (सं. बदरी प्रसाद साकरिया) भाग 3, पृ. 217 के अनुसार सबल सिंह की बहन का विवाह किशनगढ़ हुआ था तथा राजा रूपसिंह उसका भांजा था।
91. मंुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत (डाॅ. नारायण सिंह भाटी), भाग द्वितीय, पृ. 298 में 6 लाख दाम वर्णित है जबकि जोधपुर राज्य की ख्यात (सं.रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. 204 पद्टिप्पणी में रूपए 14000 तथा पृ. 206 में 8 लाख वर्णित है। महाराज सूरसिंह के समय 5,60,000 दाम एवं 14000 रूपए वर्णित है। अतः महाराजा जसवंत सिंह के समय यह 8 लाख की जगह 6 लाख दाम होने चाहिए।
92. मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत, (डाॅ. नारायण सिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 298
93. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. 268 में महाराजा जसवंतसिंह की रानियों की सूची में मनभावती का वर्णन नहीं है। अवश्य ही यह महारावल मनोहरदास की पुत्री भटियाणी जसरूपदे थी। मिगसर वद 2 में पिता की मृत्यु के बाद उसने शाहजहां को पत्र लिखा। 10 अप्रैल 1650 ई. में रानी की भी मृत्यु के बाद उसका इच्छा पूर्ण करने के लिए महाराजा ने शीघ्र ही पोकरण अभियान करने का मन बनाया ।
94. मंुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत (डाॅ. नारायणसिंह भाटी) भाग द्वितीय, पृ. 298
95. वही, पृ. 298, 299य मांगीलाल व्यास ‘मयंक’, जैसलमेर राज्य का इतिहास, पृ. 112,
96. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. 212
97. डाॅ. हुकुमसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, भाग प्रथम पृ. 196
98. युगपुरुष महाराज जसवंतसिंह प्रथम (सं. डाॅ. नारायणसिंह भाटी), पृ. 8, राजस्थानी शोध संस्थान, चैपासनी, जोधपुर
99. प.वि.ना. रेऊ, मारवाड़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 217
100. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत,भाग द्वितीय, पृ. 30य मुहता नैैणसी री ख्यात, भाग 1, पृ. 105
101. वही,पृ. 300य डाॅ. मांगीलाल व्यास, जैसलमेर राज्य का इतिहास,  पृ. 115
102. जोधपुर राज्य री ख्यात (सं. रघुवीरसिंह, मनोहरसिंह) पृ. 212, मुहता नैणसी री ख्यात भाग 2, पृ. 115
103. मुहता नैणसी, मारवाड़ परगना री विगत, भाग द्वितीय, पृ. 300, मुहता नैणसी री ख्यात भाग 2, पृ. 300 से 303य नन्दकिशोर शर्मा,  युग युगीन वल्लप्रदेश जैसलमेर का इतिहास, पृ. 177
104. वही, भाग द्वितीय, पृ. 303, 304
105. वही, भाग द्वितीय-पृ. 304
106. वही, भाग 2, पृ. 305य जोधपुर राज्य री ख्यात (सं. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह) पृ. 213,
107. मुहता नैणसी री ख्यात, भाग 2, पृ. 308य युगपुरुष महाराज जसवंतसिंह प्रथम, पृ. 9
108. जैसलमेर री ख्यात, (सं. डाॅ. नारायण सिंह भाटी), पृ. 59य तवारीख जैसलमेर, (सं.नथमल मेहता), पृ. 58, 59
109. युगपुरुष महाराज जसवंतसिंह प्रथम (सं. डाॅ. नारायणसिंह भाटी) पृ. 9
110. वही, पृ.  24
111. मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत, भाग द्वितीय, पृ. 306
112. वि.ना. रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 220
113. जोधपुर हुकुमत री बही, मारवाड़ अण्डर जसवन्तसिंह, (सं. डाॅ. नारायणसिंह भाटी) पृ. 34, 253 मीनाक्षी प्रकाशन, मेरठ, 1976
114. मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत भाग प्रथम, पृ. 137, 138
115. जोधपुर हुकुमत री बही (सं. डाॅ. नारायणसिंह भाटी), पृ. 40
116. मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत भाग प्रथम, पृ. 138य जोधपुर राज्य री ख्यात, (सं. रघुवीरसिंह, मनोहरसिंह), पृ. 260 के अनुसार रावल सबलसिंह ने पोकरण के 18 गांव विजित किए। वि.ना.रेऊ, मारवाड़़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 231 में वर्णित है कि मारवाड़ की सेना के पहुंचने तक पोकरण पर भाटियों ने अधिकार कर लिया।
117. जोधपुर हुकुमत री बही (सं. डाॅ. नारायणसिंह भाटी), पृ. 40 से 42
118. डाॅ. हुकुसिंह, भाटी वंश का गौरवमय इतिहास, भाग प्रथम पृ. 206
119. जोधपुर हुकुमत री बही, (सं. डाॅ. नारायणसिंह भाटी), पृ. 42
120. वि.ना.रेऊ. मारवाड़़़़ का इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 231
121. मारवाड़़ परगना री विगत (सं. डाॅ. नारायणसिंह भाटी), भाग प्रथम, पृ. 140 से 142
122. जोधपुर हुकुमत री बही (सं. डाॅ. नारायणसिंह भाटी), पृ. 43
123. वही, पृ. 44
124. वही, पृ. 48य मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत (सं. डाॅ. नारायणसिंह भाटी), भाग प्रथम, पृ.  143, 144
125. जोधपुर हुकुमत री बही (सं. डाॅ. नारायणसिंह भाटी),  पृ. 49, 50, 255य मुहता नैणसी, मारवाड़़़ परगना री विगत (सं. डाॅ. नारायण सिंह भाटी), भाग प्रथम, पृ. 143, 144य. वि.ना. रेऊ मारवाड़़ का इतिहास,  भाग प्रथम पृ. 231
126. मुहता नैणसी, मारवाड़़ परगना री विगत (सं. डाॅ. नारायणसिंह भाटी), भाग द्वितीय, पृ. 356, 357
127. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीरसिंह, मनोहर सिंह),  पृ. 297
128. तवारीख जैसलमेर (सं नथमल मेहता), पृ. 62य डाॅ. हुकुमसिंह भाटी वंश का गोरवपूर्ण इतिहास, भाग प्रथम, पृ. 212
129. वही, पृ. 221, जोधपुर राज्य की ख्यात, (सं. रघुवीरसिंह, मनोहरसिंह),  पृ. 429
130. डाॅ. नारायणसिंह भाटी, राजस्थानी ऐतिहासिक गं्रथों का सर्वेक्षण भाग तृतीय, पृ. 180, 181
131. जोधपुर राज्य की ख्यात (सं. रघुवीरसिंह, मनोहरसिंह), पृ. 401 व 405


Friday, 6 January 2017

अध्याय 1 शोध ग्रंथ सूची

शोध ग्रंथ सूची
1. मुंहता नैणसी-मारवाड़ परगना री विगत, भाग - 2
2. प. विश्वेश्वर नाथ रेऊ - प्रोविन्शियल गजीटीयर्स ऑफ राजपूताना, पृ. 204-205
3. पोकरण- तहसील रिकॉर्ड - 2001
4. पोकरण तहसील रिकॉर्ड - 2001
5. रेऊ प्रोविन्शियल गजीटीयर्स ऑफ राजपूताना पृ. 204-05
6़. मुंशी हरदयाल तवारीख राज जागीरदारां, पृ. 76, जोधपुर स्टेट प्रेस-1893
7. पी.आर.शाह राज मारवाड़, ड्यूरिंग ब्रिटिश पैरामाउण्टेसी, पृ - 161, फुटनोट, शारदा पब्लिशिंग हाऊस, जोधपुर
रेऊ - प्रोविन्शियल गजीटीयर्स ऑफ राजपूताना, पृ. 204-205
8.
9. राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर (रा.अ.अ.,बी.)
हकीकत रजिस्टरा नंबर 69, पृ.11, खास रुक्का परवाना बही नंबर 4-6
10. पूर्व मध्य काल में इसका लोकप्रिय नाम जागीर था।
11. डॉ. विक्रम सिंह भाटी : मध्यकालीन राजस्थान में ठिकाणा व्यवस्था, पृ. 11
12. डॉ. नारायण सिंह भाटी (संपादन), मुहता नैणसी री लिखी मारवाड रा परगना री विगत, भाग - 2, पृष्ठ 298
13. डॉ. हुकुमसिंह - राजस्थान के ठिकाणों व घरानो की पुरालेखीय सामग्री, पृष्ठ संख्या 28-29, राजस्थान शोध संस्था चौपासनी, 1995
14. डॉ. हुकुमसिंह (संपादन) - मज्झमिका - मेवाड, रावल राणाजी री बात, अंक 17, प्रताप शोध प्रतिष्ठान उदयपुर वर्ष 1993
15. डॉ. विक्रम सिंह भाटी : मध्यकालीन राजस्थान में ठिकाणा व्यवस्था, पृ. 13, 14, 15
16. मारवाड रा परगना री विगत, भाग द्वितीय, पृ. 290, पंवार पुरुखा की ठकुराई
17. राजस्थान राज्य अभिलेखागार, खास रुक्का परवाना बही नंबर 2,
आर.पी व्यास - रोल ऑफ नाविलिटी इन मारवाड, बीकानेर,    पृष्ठ - 8, (भूमिका), जैन ब्रदर्स, नई दिल्ली-1969
18. डॉ. प्रेम ऐंग्रिस - मारवाड का सामाजिक एवं आर्थिक जीवन, पृ. 45 ऊषा पब्लिसिंग हाऊस, जोधपुर, जयपुर - 1987
19. डॉ. विक्रमसिंह - मध्यकालीन राजस्थान में ठिकाणा व्यवस्था पृ 21 से 24
20. राजस्थान भारती, भाग-1 में डॉ. आर.पी. व्यास द्वारा प्रस्तुत लेख - उŸार मध्यकाल में सामन्तवाद पृ. 174 । रा.रा.अ.बी - हकीकत बही नंबर 18, पृ. 409, हकीकत बही नंबर 44, पृ. 418
21. वहीं. पृष्ठ 174
22. पी. आर. शाह : राज मारवाड ड्यूरिंग ब्रिटिश पौरामाउण्टेसी, पृ-1, शारदा पब्लिशिंग हाऊस, जोधपुर 1982
23. पण्डित विश्वेश्वर नाथ रेऊ - मारवड का इतिहास भाग - 1, पृष्ठ 78, महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश, जोधपुर-1999
24. डॉ. निर्मला एम उपाध्याय - दी एडमिस्ट्रशन ऑफ जोधपुर स्टेट (1800-1947 ई) पृ. 7 इण्टरनेशनल पब्लिशर्स, जोधपुर - 1973
25. वहीं. पृष्ठ 7
26. डॉ. आर.पी व्यास - रोल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़, पृ.8 जैन ब्रदर्स, नई दिल्ली 1969
जैम्स टॉड - जोधपुर राज्य का इतिहास - पृ. 221 में वर्णित है ‘‘महाराज’’ हम लोग अनेक सम्प्रदायों से है पर भिन्न भिन्न देहदारी होकर भी हमारा मस्तक एक ही है यदि कोई दूसरा मस्तक होता है तो उसको अपने अधीन में अर्पण करते - यूनिक ट्रेडर्स, 250, चौडा रास्ता, जोधपुर-1998
27. वहीं. पृष्ठ 8
28. डॉ आर. पी. व्यास - मारवाड में सामंती प्रथा, परम्परा पृ. 79
29. जेम्स टॉड - एनल्स एण्ड एण्टिक्विटीज ऑफ राजस्थान - भाग 1, पृ. - 127
30. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह - जोधपुर राज्य की ख्यात पृ - 70, भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् नई दिल्ली एवं पंचशील प्रकाशन, जयपुर -1988
31. वहीं. पृष्ठ 59
32. डॉ. आर.पी व्यास - रोल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़, पृ.9 मारवाड की ख्यात भाग-1, पृष्ठ 41-51
33. पी. आर. शाह : राज मारवाड ड्यूरिंग ब्रिटिश पौरामाउण्टेसी, पृ-4, शारदा पब्लिशिंग हाऊस, जोधपुर 1982
रेऊ : मारवाड का इतिहास भाग, द्वितीय - 1839, जुलाई 28 से ए.जी.जी. ने महाराजा मानसिंह के असन्तुष्ट सरदारों से अजमेर दरबार में पूछा कि यदि अंग्रेंज मारवाड पर चढाई करे तो सरदार किसका पक्ष लेंगे। तब ठाकुर ने स्पष्ट कहा कि युद्ध होने पर वे स्वामीधर्म को निबाहने के लिए महाराजा का साथ देंगे। पृ.-432
34. डॉ. निर्मला एम उपाध्याय - दी एडमिस्ट्रशन ऑफ जोधपुर स्टेट (1800-1947 ई) पृ. 154
प. वि. रेऊ, मारवाड का इतिहास-भाग-1, पृष्ठ 182
रा.रा.अ.बी. हकीकत बही नंबर 43, पृ 185, हकीकत बही नंबर 38, पृष्ठ 327
35. पी. आर. शाह : राज मारवाड ड्यूरिंग ब्रिटिश पौरामाउण्टेसी, पृ-4,
डॉ. आर.पी व्यास - रोल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़, पृ.11
36. इर्स्किन : राजपूताना गजीटीयर्स, भाग द्वितीय, अ, पृ-58
37. पण्डित वि. रेऊ : मारवाड का इतिहास - भाग द्वितीय पृष्ठ - 629
38. वहीं. भाग-1, पृ. 377
39. पोकरण के ठाकुर सवाई सिंह ने महाराज मानिंसं की जगह महाराजा भीमसिंह के पुत्र धोकलसिंह को जोधपुर की गद्दी दिलाने का प्रयास किया, पोकरण की तवारीख, पृष्ठ 86
40. जेम्स टॉड कृत जोधपुर राज्य का इतिहास, पृ-249, (अनु.वं.सं. बलदेव प्रसाद मिश्र व ज्वाला प्रसाद मिश्र व राय मुंशी देवी प्रसाद -यूनिक ट्रेडर्स, चौडा रास्ता, जयपुर)
41. रा.रा.डन.बी. खरीता बही नंबर 12, पृष्ठ 355, खरीता बही नंबर 14, पृ. 48
42. डॉ. निर्मला एन. उपाध्याय - दी एडमिनिस्ट्रेशन  ऑफ जोधपुर स्टेट पृ. 23
43. वही पृ. 24, रेऊ मारवाड का इतिहास भाग द्वितीय पृष्ठ 422
44. पं. वि.  रेऊ मारवाड का इतिहास भाग द्वितीय पृष्ठ 421
45. वही. पृष्ठ 420 जेम्स टॉड, जोधपुर राज्य का इतिहास, पृष्ठ 272
46. गौरी शंकर ओझा-जोधपुर राज्य का इतिहास भाग द्वितीय पृष्ठ 832 व्यास एण्ड सन्स, अजमेर - 1995
47. रा.रा. अ.बी. हकीकत खाता बही नंबर 12, पृ. 219 खरीता बही नंबर 12 पृष्ठ 346-347
48. रा.रा.अ.बी. हकीकत  बही नंबर 13, पृष्ठ-13 व 207
49. रेऊ : मारवाड का इतिहास भाग द्वितीय पृष्ठ 456
50. निर्मला एन उपाध्याय : पृष्ठ 179
51. रा.रा. अभिलेखागार बीकानेर, हकीकत खाता रजिस्टर नंबर 42, पृष्ठ 70
52. रा.रा.अ.बी.सनद बही नबर 54,  पृष्ठ 14, सनद बही नंबर 98, पृष्ठ 276
53. रा.रा.अ.बी., हकीकत बही नंबर 55, पृष्ठ 306
54. तवारीख जागीरदारा राज मारवाड-1893, पृष्ठ-2 गिनायत सरदारों के 280 ठिकाणै है और ये 29 कौम के राजपूत है जिनकी जागीर में 536 गांव रू. 68,34,561 की जमा है।
55. रा.रा.अ. बीकानेर-हथबही
56. तवारीख जागीरदारां राज मारवाड, पृ. 3, 5
57. तवारीख  जागीरदारा राज मारवाड पृ. 5 डॉ. महेन्द्र सिंह नागर
58. मारवाड़ के राजवंश की सांस्कृतिक परम्पराएं भाग - 1, पृष्ठ 166-168, महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश
59. वहीं. पृष्ठ 166-168, तवारीख जागीरदारों राज मारवाड- पृष्ठ 5
60. डॉ. निर्मला उपाध्याय - दी एड ऑफ जोधपुर स्टेट पृ. 160
61. रा.रा. अ.बी. - हकीकत बही नंबर 48, पृष्ठ - 166
62. पं. वि. रेऊ मारवाड का इतिहास, भाग द्वितीय पृष्ठ 632, तवारीख जागीरदारा राज. मारवाड, पृष्ठ - 4
63. रा.रा.अ. बीकानेर - हकीकत बही-40, पृष्ठ 52 एवं हकीकत बही नंबर 54, पृष्ठ 95
64. तवारीख जागीरदारां राज मारवाड़ - पृ. 4, व.वि.रेऊ, मारवाड का इतिहास, भाग 2 पृष्ठ 632
65. राजस्थान राज्य अभिलेखागार जोधपुर-हकीकत बही नंबर 29 पृष्ठ 5, हकीकत बही नंबर - 43, पृष्ठ 160-161
66. तवारीख जागीरदारां राज मारवाड-1893, पृष्ठ 4
67. सियारत हाथ के कुरब, और दोवडी ताजीम 12 सरदारों को ओर हाथ का कुरब 74 को, बाहं पसाव का कुरब 74 को, और सिर्फ ताजीम 13 जागीरदारों को इनायत थी। तवारीख जागीरदारा राज. मारवाड पृष्ठ 4-5
डॉ. विक्रमसिंह : मध्यकालीन राजस्थान में ठिकाणा व्यवस्था, पृष्ठ 122
68. रा.रा.अ.बी. हकीकत बही नंबर 41, पृष्ठ 386, हकीकत बही नंबर 42 पृष्ठ 153, हकीकत खाता बही नंबर 3, पृष्ठ-1 हकीकत बहीं नबर 59, पृष्ठ 24
69 प.वि.रेऊ भाग 2 पृष्ठ 633
70. डॉ. प्रेम एंग्रिस : मारवाड का सामाजिक और आर्थिक जीवन, पृष्ठ 51
71. रा.रा.अ.बी. खास रूक्का परवाना बही नंबर 22, पृष्ठ 18-100 म्हे तो सरदारों री सलाह सिवाय एक कदम न दिवो न फेर देसो
72. पोकरण री तवारीख पृष्ठ - 54
73. डॉ. आर. पी. व्यासय, रोल ऑफ नॉबीलिटी, पृष्ठ 176-78, तवारीख जागीरदारा राज मारवाड, पृष्ठ -5
74. रा.रा. अ.बी. खास रूक्का परवाना बही नंबर 4, पृष्ठ-16, नंबर 8 पृष्ठ 44
75. रा.रा..अ.बी.-हकीकत बही  नंबर 44, पृष्ठ 324
76. रा.रा.अ.बी. हकीकत बही नंबर 40, पृष्ठ 47, हकीकत  खाता बही नंबर 3, पृष्ठ 1
77. रा.राअ.बी.-हकीकत बही नंबर 59, पृष्ठ 24
78. रा.रा.अ. जोधपुर खांपवर बेतलबी रो खातो क्र-2476, पृष्ठ 21 बही ऑफ खास रूक्का परवाना, खास रूक्का क्र.2575, पृष्ठ संख्या अंकित नहीं है। (सं. 1892)
79. रा.रा.अ. जोधपुर कैफियत रूक्का बही (सं 1941) क्र 250-251, पृष्ठ संख्या अंकित नहीं है।
80. रा.रा.अ. बीकानेर-हकीकत बही नंबर 56-57
81. डॉ. विक्रमसिंह भाटी : मध्यकालीन राज में ठिकाना, पृष्ठ 161
82. डॉ. आर.पी व्यास - रोल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़, पृ.170
83. रा.रा.अ.बी. बीकानेर हकीकत बही नंबर 49, पृष्ठ 142,
84 रा.रा.अ. जोधपुर दी जाल एण्ड प्रिंसिपल आफ सक्सेशन द जागीर लैण्डस इन मारवाड क्रमांक - 534, पृष्ठ 1,2
85. वाल्टर गजेटियर ऑफ मारवाड, पृष्ठ 85
डॉ. आर.पी. व्यास मारवाड में सामंत प्रथा-एक अध्ययन परम्परा भाग् 49-50, पृष्ठ-82
86. रामकरण आसोपा मारवाड का मूल इतिहास-पृ. 260, रामश्याम प्रेस, जोधपुर 1965
87. डॉ. महेन्द्र सिंह नगर - मारवाड के राजवंश की सांस्कृतिक परम्पराएं  भाग प्रथम पृष्ठ 174
88. डॉ विक्रम सिंह  भाटी-मध्यकालीन राज. में ठिकाणा व्य. पृष्ठ 258
89. वहीं पृष्ठ 162, रा.रा.अ. जोधपुर सनद बही क्र. 2483, पृष्ठ 21-22
90. डॉ. आर.पी व्यास - रोल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़, पृ.193
91. वहीं पृष्ठ 190-191
92. डॉ. आर.पी व्यास - रोल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़, पृ.179
9़3. डॉ. आर.पी व्यास - उŸार मध्यकाल में सामंतवाद, राज. भारती भाग् प्रथम पृष्ठ 181
94. महेन्द्र सिंह नगर-मारवाड राजवंश की सांस्कृतिक परम्पराएं, भाग द्वितीय पृष्ठ - 458
9़5. डॉ. आर.पी व्यास - रोल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़, पृ.185
रा.राअ.बी.-हकीकत बही नंबर 44, पृष्ठ 33,
हकीकत बही 40, पृष्ठ 41,
डॉ. महेन्द्र सिंह नगर-मारवाड राजवंश की सांस्कृतिक परम्पराएं, भाग द्वितीय पृष्ठ - 458
96. रा.राअ.बी.-हकीकत बही नंबर 39, पृष्ठ 69
97. रा.राअ.बी.-हकीकत बही नंबर 43, पृष्ठ 185-186
98. रा.राअ.बी.-हकीकत बही नंबर 49, पृष्ठ 10
99. रा.राअ.बी.-हकीकत बही रजिस्टर नंबर 67, पृष्ठ 423
100. रा.राअ.बी.-हकीकत बही नंबर 62, पृष्ठ 388
101. रा.राअ.बी.-हकीकत बही नंबर 56, पृष्ठ 119
102. पं.वि.एन.रेऊ, मारवाड का इतिहास भाग द्वितीय- पृष्ठ - 627-28
103. रा.राअ.बी.-सनद बही नंबर 59, पृष्ठ 19
104. रा.राअ.बी.-हकीकत बही नंबर 42, पृष्ठ 248
105. मुंशी हरदयाल - तवारीख. ए. जागीरदारान राज. मारवाड पृष्ठ 7
106. डॉ. निर्मला उपाध्याय - पृष्ठ 173
107. पा.वि.एन.रेऊ, मारवाड का इतिहास भाग द्वितीय पृष्ठ 629
108. डॉ. आर. पी. व्यास रोल ऑफ नोबीलिटी इन मारवाड पृष्ठ 186
109. वही पृष्ठ 179-180 रा.रा.अ.बी. हकीकत बही, नंबर 39, पृष्ठ 553
110. रा.रा.अ.बी. : हकीकत बही 48. पृष्ठ 166
111. डॉ. निर्मला एन उपाध्याय, पृष्ठ 173
112. रा.रा.अ.बी. हकीकत बही नंबर 43. पृष्ठ 223
113. डॉ. प्रेम  ऐग्रिस : मारवाड का सामाजिक व आर्थिक जीवन पृष्ठ 147
114. डॉ विक्रम सिंह भाटी- मध्यकालीन राजस्थान में ठिकाणा व्यवस्था, पृष्ठ 164
115. पी.आर.शाह - राज. मारवाड ड्यूरिंग ब्रिटिश मैरामाउण्टेसी पृष्ठ-61
116. डॉ. विक्रम सिंह भाटी-मध्यकालीन राजस्थान में ठिकाणा व्यवस्था पृष्ठ - 55 से 63
116(अ). 1884 ई में सियारत शब्द मिसल के स्थान पर प्रयोग में लाया जाने लगा। कुल 12 थें।
117. (अ) (ब) बगडी व खींवसर ठाकुर के महाराज तख्तसिंह से विवाद होने पर इन्हें 12 सिरायतों में स्थान नहीं दिया। 1884 ई. में सियारत शब्द मिसल के स्थान पर प्रयोग में लाया जाने लगा। महाराज जसवंत सिंह द्वितीय के समय जब नई सूची बनाई जा रही थी तब बगडी ठाकुर के बार-बार बुलाने पर वह नही आया तो उसका नाम सूची से हटा दिया गया- डॉ. महेन्द्र सिंह नागर, मारवाड राजवंश की परम्पराएं - पृष्ठ 167.

मारवाड ठिकाणों में प्रचलित लाग-बाग

मारवाड ठिकाणों में प्रचलित लाग-बाग
मारवाड़ राज्य मे जनता से वसूले जाने वाले लाग-बाग करों की पुरानी परम्परा रही है। ‘लाग’ सामान्य जनता की सामाजिक व आर्थिक गतिविधियों पर लगाया जाने वाला कर था तथा ‘बाग’ राज्य की खालसा भूमि या ठिकाणेदार की भूमि पर करवाई जाने वाली बेगारी थी। बेगारी वास्तव में कृषकों से मुफ्त में कृषि करवाने को कहा जाता है।113 ठिकाणेदार सामान्यतः कृषकों को इस सेवा के बाद घुघरी या कुछ अनाज दे सकता था। ठिकाणेदारों को राज्य की ओर से मिले लाग-बाग सम्बन्धी अधिकारों से प्राप्त एक निश्चित रकम राज्य के खजाने में जमा करवा दी जाती थी। उक्त धन राशि ठिकाणेदार अपनी जागीर के गांव-वालों से वसूल किया करता था। राज्य के खजाने में रकम जमा करने के साथ ही ठिकाणेदार को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु भी धन की आवश्यकता पड़ती थी। यह धन भी अपनी प्रजा से लिया जाता था। ठिकाणों में लाग सम्बन्धी राशि विभिन्न ठिकाणों में अलग-अलग हुआ करती थी।114
मारवाड़ में प्रचलित प्रमुख लाग-बाग है।115 (1) सेरीना (2)  नावा, (3) सूत कताई (4) कूॅताधार, (5) चबीना, (6) दांती ज्वार, (7) हल का खार खार (8) हलवा (9) घर बाब  (10) घासभारी (11) फरमाइश (12) चारोला, (13) जाजम खर्च (14)  मुजरा (15) जमा बन्दी (16) राम राम (17) हवलदार का वेतन, (18) परोती (19) लावजमा (20) थाली (21) खीरा लाग (22) नाता (23) पापड़खाई (24) छापा (25) खान पत्थर (26) माल सेरीना इत्यादि ।
मारवाड के प्रमुख ठिकाणे - 116
क्र.सं. ठिकाणा परगना रेख खांप विशेष
1. पोकरण फलौदी 92,735 चांपावत सर्वाधिक 100 गांव सियारत सरदार
2. आडवा सोजत 16,000 चांपावत डाबी मिसल (सिरायत) 116अ
3. आसोप जोधपुर 31,000 कूंपावत डाबी मिसल (सिरायत)
4. रियॉ मेड़ता 36,103 मेडतियां जीवणी डाबी मिसल (सिरायत)
5. रायपुर जैतारण 39,475 उदावत जीवणी डाबी मिसल (सिरायत)
6. रास जैतारण 39,750 उदावत जीवणी डाबी मिसल (सिरायत)
7. निभाज जैतारण 35,100 उदावत जीवणी डाबी मिसल (सिरायत)
8. खैरवा पाली 27,750 जोधा जीवणी डाबी मिसल (सिरायत)
9. अगेवा उदावत जीवणी डाबी मिसल (सिरायत)
10 कंटालिया सोजत 14,300 कूंपावत डाबी मिसल (सिरायत)
11. अहलनियावास मेड़ता 13,600 मेडतिया जीवणी डाबी मिसल (सिरायत)
12. भाद्रापूण जालोर 31,850 जोधा जीवणी डाबी मिसल (सिरायत)
13. बगडी(117अ ) सोजत 15,000 जैतावत डावी मिसल
14. कनाना पचपदरा 12,000 करणोत डाबी मिसल
15. खींवसर (117ब) नागौर 16,350 करमसोत डाबी मिसल
16. आहोर जालौर 28,750 चांपावत डाबी मिसल
17. खेजडला बिलाडा 20,100 उरजनोट भाटी डाबी मिसल
18. चंडावल सोजत 20,000 कूंपावत डाबी मिसल
19. कुचामन सांभर 42,750 मेडतिया
20. चाणोद बली 51,000 मेडतिया
21. जावला परबतसर 38,000 मेडतिया
22. जावला परबतसर 38,000 मेडतिया
23. बलून्दा जैतारण 19,375 चांदावत
24. मींडा सांभर 34,803 मेडतियां






ठिकाणेदारों द्वारा दिए जाने वाले कर एवं सेवाएं

ठिकाणेदारों द्वारा दिए जाने वाले कर एवं सेवाएं -
1. रेख - शासन समय-समय पर अपने भाई-बन्धुओं, पुत्रों और सरदारों को जागीर पट्टे दिया करते थे। प्रारंभ में उनसे चाकरी (सेवा) के अतिरिक्त कोई कर नहीं लिया जाता था। मुगल पद्धति से प्रभावित होकर सर्वप्रथम महाराज शूरसिंह के समय से ठिकाणेदों के पट्टो में अनेक गांवों की रेख दर्ज की जाने लगी। किन्तु मुगल शक्ति के पतन के बाद मराइों के बढते उपद्रवों से निपटने के लिए महाराजा विजयसिंह को नई आर्थिक व्यवस्था करने के लिए मजबूर होना पड़ा। सन् 1755 ई. मे उसने ठिकाणेदारों पर शाही जजिये ओर मारवाड से बाहर के युद्धों में भाग लेने की सेवा के बदले में एक हजार की आमदानी पर तीन सौ रूपए के हिसाब से मतालबा नामक कर लगाया। यह दर आवश्यकतानुसार घटती बढ़ती रही जोकि 150 रु से 300 रु के बीच रही।102 महाराजा मानसिंह के लिए तो एक कहावत प्रचलित हो गई कि ‘‘मान लगाई महीपति रेखां ऊपर रेख’’।103 अधिक रेख लगाने से राजा और सामन्तों के बीच तनाव उत्पन्न हो गया । 1839 ई. में पोलिटिकल एजेण्ट के कहने पर उसकी दर प्रतिवर्ष प्रति हजार की जागीर पर  80 रूप रेख लेना निश्चित किया गया। 1913 ई. में सर प्रताप ने धार्मिक जागीरों से रेख लेने का आदेश दिया।104
2. चाकरी -युद्ध में महाराजा का साथ देने के लिए ठिकाणेदारों द्वारा दी जाने वाली सैनिक सहायता ‘चाकरी’ कहलाती है। ठिकाणे की देख के आधार पर चाकरी (सेवा) करनी होती थी। एक हजार की आय पर एक घुड़सवार साढे सात सौ की आय पर एक शतुर (ऊँट) सवार, पांच सौ की आय पर एक पैदल सैनिक तथा 250 रूपए की आय पर एक पैदल सैनिक 6 माह के लिए भेजा जाता था किन्तु जब ठिकाणेदारों ने अक्षम व अकुशल सैनिक और घटिया उपकरणों के साथ सैनिक व घुड़सवार भेजना प्रारंभ कर दिया, तब महाराजा ने 1894 ई. से नकद भुगतान लेने की योजना प्रारंभ की और आधुनिक ढंग से रसाला स्थापित की गई।106
3. पेशकशी या हुकुमनामा - यह नए उत्त् राधिकारी ठिकाणेदारों के द्वारा दिया जाने वाला उत्त् राधिकारी शुल्क हैं। ठाकुर की मृत्यु होने पर शासक द्वारा उसके ठिकाणे को जब्त कर लिया जाता था तथा पेशकशी की एक बडी रकम वसूल करके नए उत्त् राधिकारी के नाम का पट्टा प्रदान कर दिया जाता था। सर्वप्रथम यह प्रथा मोटा राजा उदयसिंह ने मुगल पद्धति से प्रभावित होकर की। महाराजा सूरसिंह (1595ई. -1619ई.)  ने यह रकम पट्टा के रेख के बराबर निर्धारित की। महाराजा अजीतसिंह के समय इसका नाम हुकुमनामा पड़ गया तथा इसके साथ ठिकाणेदारों से ‘‘तगीरात’’ नामक एक नया कर वसूल किया जाने लगा।107 महाराज विजयसिंह (1751 ई.-1793 ई.) के शासनकाल में मराठो के निरंतर आक्रमण के कारण राज्य की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई। महाराजा ने हुकुमनामा गकी रकम जागीर की आय से दुगुनी तक वसूल की और इसके साथ भुत्सद्यी खर्च के रूप में अतिरिक्त धनराशि भी एकत्रित की। महाराज मानिंसह के समय में तो हुकुमनामा की रकम की दर में और अधिक वृद्धि की गई। इस प्रकार हुकुमनामा की रकम जो स्वेच्छाचारित पूर्वक वसूली जा सकती थी उससे सामन्तों के मन में राजा के प्रति रोष उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था।108
4. अन्य अदायगियाँ-राज्याभिषेक के अवसर पर शासक को 25 रू. नजराना, शासक एवं युवराज की प्रथम शादी के समय भेंट 100 रूपए, राजकुमारी के विवाह पर ‘‘न्योत’’ के रूप में 40 रूपए प्रति हजार की रेख पर दिया जाता था। अलग-अलग शासकों के काल में इन दरों में हेर-फेर भी कर दिया जाता था।109 भोमिया राजपूतों को कुछ सेवा करने के लिए भूमि दी जाती थी जिस पर कभी-कभी भूमि-बाव वसूला जाता था।110
5. ठिकाणेदारों के अन्य कत्त् र्व्य-सामन्तों को इन करों की अदायगी के अलावा कुछ अन्य कत्त् र्व्यों को भी निभाना पड़ता था। इसमें  मुख्य कत्त् र्व्य ठिकाणेदारों की दरबार में उपस्थिति थी। उनको प्रतिवर्ष एक निश्चित अवधि के लिए दरबार में रहना पड़ता था और इस काल में राजा की पूर्व आज्ञा के बिना वे राजधानी को नहीं छोड सकते थे।111 साथ ही कुछ विशिष्ट त्यौहारों जैसे कि अक्षय-तृतीया, दशहरा आदिपर भी उन्हें दरबार में उपस्थित रहना पड़ता था। रनिवास की देखभाल का कार्य भी किसी भी ठिकाणेदार को राजा की राजधानी से गैर हाजिरी की स्थिति में संभालना पड़ता था। साथ ही रनिवास की महिलाओं की यात्रा आदि पर उनकी सुरक्षा का कार्य और यात्रा व्यवस्था आदि का कार्य किसी भी ठिकाणेदार को निभाना पड़ता था।112 ठिकाणेदारों को नया किला बनवाना के लिए शासकों से पूर्व अनुमति लेनी भी आवश्यक होती थी और यहां तक कि उनको अपने पुत्र-पुत्रियों का विवाह करने से पहले शासक का सूचना भेजनी पड़ती थी।