Friday, 6 January 2017

अध्याय 1 शोध ग्रंथ सूची

शोध ग्रंथ सूची
1. मुंहता नैणसी-मारवाड़ परगना री विगत, भाग - 2
2. प. विश्वेश्वर नाथ रेऊ - प्रोविन्शियल गजीटीयर्स ऑफ राजपूताना, पृ. 204-205
3. पोकरण- तहसील रिकॉर्ड - 2001
4. पोकरण तहसील रिकॉर्ड - 2001
5. रेऊ प्रोविन्शियल गजीटीयर्स ऑफ राजपूताना पृ. 204-05
6़. मुंशी हरदयाल तवारीख राज जागीरदारां, पृ. 76, जोधपुर स्टेट प्रेस-1893
7. पी.आर.शाह राज मारवाड़, ड्यूरिंग ब्रिटिश पैरामाउण्टेसी, पृ - 161, फुटनोट, शारदा पब्लिशिंग हाऊस, जोधपुर
रेऊ - प्रोविन्शियल गजीटीयर्स ऑफ राजपूताना, पृ. 204-205
8.
9. राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर (रा.अ.अ.,बी.)
हकीकत रजिस्टरा नंबर 69, पृ.11, खास रुक्का परवाना बही नंबर 4-6
10. पूर्व मध्य काल में इसका लोकप्रिय नाम जागीर था।
11. डॉ. विक्रम सिंह भाटी : मध्यकालीन राजस्थान में ठिकाणा व्यवस्था, पृ. 11
12. डॉ. नारायण सिंह भाटी (संपादन), मुहता नैणसी री लिखी मारवाड रा परगना री विगत, भाग - 2, पृष्ठ 298
13. डॉ. हुकुमसिंह - राजस्थान के ठिकाणों व घरानो की पुरालेखीय सामग्री, पृष्ठ संख्या 28-29, राजस्थान शोध संस्था चौपासनी, 1995
14. डॉ. हुकुमसिंह (संपादन) - मज्झमिका - मेवाड, रावल राणाजी री बात, अंक 17, प्रताप शोध प्रतिष्ठान उदयपुर वर्ष 1993
15. डॉ. विक्रम सिंह भाटी : मध्यकालीन राजस्थान में ठिकाणा व्यवस्था, पृ. 13, 14, 15
16. मारवाड रा परगना री विगत, भाग द्वितीय, पृ. 290, पंवार पुरुखा की ठकुराई
17. राजस्थान राज्य अभिलेखागार, खास रुक्का परवाना बही नंबर 2,
आर.पी व्यास - रोल ऑफ नाविलिटी इन मारवाड, बीकानेर,    पृष्ठ - 8, (भूमिका), जैन ब्रदर्स, नई दिल्ली-1969
18. डॉ. प्रेम ऐंग्रिस - मारवाड का सामाजिक एवं आर्थिक जीवन, पृ. 45 ऊषा पब्लिसिंग हाऊस, जोधपुर, जयपुर - 1987
19. डॉ. विक्रमसिंह - मध्यकालीन राजस्थान में ठिकाणा व्यवस्था पृ 21 से 24
20. राजस्थान भारती, भाग-1 में डॉ. आर.पी. व्यास द्वारा प्रस्तुत लेख - उŸार मध्यकाल में सामन्तवाद पृ. 174 । रा.रा.अ.बी - हकीकत बही नंबर 18, पृ. 409, हकीकत बही नंबर 44, पृ. 418
21. वहीं. पृष्ठ 174
22. पी. आर. शाह : राज मारवाड ड्यूरिंग ब्रिटिश पौरामाउण्टेसी, पृ-1, शारदा पब्लिशिंग हाऊस, जोधपुर 1982
23. पण्डित विश्वेश्वर नाथ रेऊ - मारवड का इतिहास भाग - 1, पृष्ठ 78, महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश, जोधपुर-1999
24. डॉ. निर्मला एम उपाध्याय - दी एडमिस्ट्रशन ऑफ जोधपुर स्टेट (1800-1947 ई) पृ. 7 इण्टरनेशनल पब्लिशर्स, जोधपुर - 1973
25. वहीं. पृष्ठ 7
26. डॉ. आर.पी व्यास - रोल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़, पृ.8 जैन ब्रदर्स, नई दिल्ली 1969
जैम्स टॉड - जोधपुर राज्य का इतिहास - पृ. 221 में वर्णित है ‘‘महाराज’’ हम लोग अनेक सम्प्रदायों से है पर भिन्न भिन्न देहदारी होकर भी हमारा मस्तक एक ही है यदि कोई दूसरा मस्तक होता है तो उसको अपने अधीन में अर्पण करते - यूनिक ट्रेडर्स, 250, चौडा रास्ता, जोधपुर-1998
27. वहीं. पृष्ठ 8
28. डॉ आर. पी. व्यास - मारवाड में सामंती प्रथा, परम्परा पृ. 79
29. जेम्स टॉड - एनल्स एण्ड एण्टिक्विटीज ऑफ राजस्थान - भाग 1, पृ. - 127
30. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह - जोधपुर राज्य की ख्यात पृ - 70, भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् नई दिल्ली एवं पंचशील प्रकाशन, जयपुर -1988
31. वहीं. पृष्ठ 59
32. डॉ. आर.पी व्यास - रोल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़, पृ.9 मारवाड की ख्यात भाग-1, पृष्ठ 41-51
33. पी. आर. शाह : राज मारवाड ड्यूरिंग ब्रिटिश पौरामाउण्टेसी, पृ-4, शारदा पब्लिशिंग हाऊस, जोधपुर 1982
रेऊ : मारवाड का इतिहास भाग, द्वितीय - 1839, जुलाई 28 से ए.जी.जी. ने महाराजा मानसिंह के असन्तुष्ट सरदारों से अजमेर दरबार में पूछा कि यदि अंग्रेंज मारवाड पर चढाई करे तो सरदार किसका पक्ष लेंगे। तब ठाकुर ने स्पष्ट कहा कि युद्ध होने पर वे स्वामीधर्म को निबाहने के लिए महाराजा का साथ देंगे। पृ.-432
34. डॉ. निर्मला एम उपाध्याय - दी एडमिस्ट्रशन ऑफ जोधपुर स्टेट (1800-1947 ई) पृ. 154
प. वि. रेऊ, मारवाड का इतिहास-भाग-1, पृष्ठ 182
रा.रा.अ.बी. हकीकत बही नंबर 43, पृ 185, हकीकत बही नंबर 38, पृष्ठ 327
35. पी. आर. शाह : राज मारवाड ड्यूरिंग ब्रिटिश पौरामाउण्टेसी, पृ-4,
डॉ. आर.पी व्यास - रोल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़, पृ.11
36. इर्स्किन : राजपूताना गजीटीयर्स, भाग द्वितीय, अ, पृ-58
37. पण्डित वि. रेऊ : मारवाड का इतिहास - भाग द्वितीय पृष्ठ - 629
38. वहीं. भाग-1, पृ. 377
39. पोकरण के ठाकुर सवाई सिंह ने महाराज मानिंसं की जगह महाराजा भीमसिंह के पुत्र धोकलसिंह को जोधपुर की गद्दी दिलाने का प्रयास किया, पोकरण की तवारीख, पृष्ठ 86
40. जेम्स टॉड कृत जोधपुर राज्य का इतिहास, पृ-249, (अनु.वं.सं. बलदेव प्रसाद मिश्र व ज्वाला प्रसाद मिश्र व राय मुंशी देवी प्रसाद -यूनिक ट्रेडर्स, चौडा रास्ता, जयपुर)
41. रा.रा.डन.बी. खरीता बही नंबर 12, पृष्ठ 355, खरीता बही नंबर 14, पृ. 48
42. डॉ. निर्मला एन. उपाध्याय - दी एडमिनिस्ट्रेशन  ऑफ जोधपुर स्टेट पृ. 23
43. वही पृ. 24, रेऊ मारवाड का इतिहास भाग द्वितीय पृष्ठ 422
44. पं. वि.  रेऊ मारवाड का इतिहास भाग द्वितीय पृष्ठ 421
45. वही. पृष्ठ 420 जेम्स टॉड, जोधपुर राज्य का इतिहास, पृष्ठ 272
46. गौरी शंकर ओझा-जोधपुर राज्य का इतिहास भाग द्वितीय पृष्ठ 832 व्यास एण्ड सन्स, अजमेर - 1995
47. रा.रा. अ.बी. हकीकत खाता बही नंबर 12, पृ. 219 खरीता बही नंबर 12 पृष्ठ 346-347
48. रा.रा.अ.बी. हकीकत  बही नंबर 13, पृष्ठ-13 व 207
49. रेऊ : मारवाड का इतिहास भाग द्वितीय पृष्ठ 456
50. निर्मला एन उपाध्याय : पृष्ठ 179
51. रा.रा. अभिलेखागार बीकानेर, हकीकत खाता रजिस्टर नंबर 42, पृष्ठ 70
52. रा.रा.अ.बी.सनद बही नबर 54,  पृष्ठ 14, सनद बही नंबर 98, पृष्ठ 276
53. रा.रा.अ.बी., हकीकत बही नंबर 55, पृष्ठ 306
54. तवारीख जागीरदारा राज मारवाड-1893, पृष्ठ-2 गिनायत सरदारों के 280 ठिकाणै है और ये 29 कौम के राजपूत है जिनकी जागीर में 536 गांव रू. 68,34,561 की जमा है।
55. रा.रा.अ. बीकानेर-हथबही
56. तवारीख जागीरदारां राज मारवाड, पृ. 3, 5
57. तवारीख  जागीरदारा राज मारवाड पृ. 5 डॉ. महेन्द्र सिंह नागर
58. मारवाड़ के राजवंश की सांस्कृतिक परम्पराएं भाग - 1, पृष्ठ 166-168, महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश
59. वहीं. पृष्ठ 166-168, तवारीख जागीरदारों राज मारवाड- पृष्ठ 5
60. डॉ. निर्मला उपाध्याय - दी एड ऑफ जोधपुर स्टेट पृ. 160
61. रा.रा. अ.बी. - हकीकत बही नंबर 48, पृष्ठ - 166
62. पं. वि. रेऊ मारवाड का इतिहास, भाग द्वितीय पृष्ठ 632, तवारीख जागीरदारा राज. मारवाड, पृष्ठ - 4
63. रा.रा.अ. बीकानेर - हकीकत बही-40, पृष्ठ 52 एवं हकीकत बही नंबर 54, पृष्ठ 95
64. तवारीख जागीरदारां राज मारवाड़ - पृ. 4, व.वि.रेऊ, मारवाड का इतिहास, भाग 2 पृष्ठ 632
65. राजस्थान राज्य अभिलेखागार जोधपुर-हकीकत बही नंबर 29 पृष्ठ 5, हकीकत बही नंबर - 43, पृष्ठ 160-161
66. तवारीख जागीरदारां राज मारवाड-1893, पृष्ठ 4
67. सियारत हाथ के कुरब, और दोवडी ताजीम 12 सरदारों को ओर हाथ का कुरब 74 को, बाहं पसाव का कुरब 74 को, और सिर्फ ताजीम 13 जागीरदारों को इनायत थी। तवारीख जागीरदारा राज. मारवाड पृष्ठ 4-5
डॉ. विक्रमसिंह : मध्यकालीन राजस्थान में ठिकाणा व्यवस्था, पृष्ठ 122
68. रा.रा.अ.बी. हकीकत बही नंबर 41, पृष्ठ 386, हकीकत बही नंबर 42 पृष्ठ 153, हकीकत खाता बही नंबर 3, पृष्ठ-1 हकीकत बहीं नबर 59, पृष्ठ 24
69 प.वि.रेऊ भाग 2 पृष्ठ 633
70. डॉ. प्रेम एंग्रिस : मारवाड का सामाजिक और आर्थिक जीवन, पृष्ठ 51
71. रा.रा.अ.बी. खास रूक्का परवाना बही नंबर 22, पृष्ठ 18-100 म्हे तो सरदारों री सलाह सिवाय एक कदम न दिवो न फेर देसो
72. पोकरण री तवारीख पृष्ठ - 54
73. डॉ. आर. पी. व्यासय, रोल ऑफ नॉबीलिटी, पृष्ठ 176-78, तवारीख जागीरदारा राज मारवाड, पृष्ठ -5
74. रा.रा. अ.बी. खास रूक्का परवाना बही नंबर 4, पृष्ठ-16, नंबर 8 पृष्ठ 44
75. रा.रा..अ.बी.-हकीकत बही  नंबर 44, पृष्ठ 324
76. रा.रा.अ.बी. हकीकत बही नंबर 40, पृष्ठ 47, हकीकत  खाता बही नंबर 3, पृष्ठ 1
77. रा.राअ.बी.-हकीकत बही नंबर 59, पृष्ठ 24
78. रा.रा.अ. जोधपुर खांपवर बेतलबी रो खातो क्र-2476, पृष्ठ 21 बही ऑफ खास रूक्का परवाना, खास रूक्का क्र.2575, पृष्ठ संख्या अंकित नहीं है। (सं. 1892)
79. रा.रा.अ. जोधपुर कैफियत रूक्का बही (सं 1941) क्र 250-251, पृष्ठ संख्या अंकित नहीं है।
80. रा.रा.अ. बीकानेर-हकीकत बही नंबर 56-57
81. डॉ. विक्रमसिंह भाटी : मध्यकालीन राज में ठिकाना, पृष्ठ 161
82. डॉ. आर.पी व्यास - रोल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़, पृ.170
83. रा.रा.अ.बी. बीकानेर हकीकत बही नंबर 49, पृष्ठ 142,
84 रा.रा.अ. जोधपुर दी जाल एण्ड प्रिंसिपल आफ सक्सेशन द जागीर लैण्डस इन मारवाड क्रमांक - 534, पृष्ठ 1,2
85. वाल्टर गजेटियर ऑफ मारवाड, पृष्ठ 85
डॉ. आर.पी. व्यास मारवाड में सामंत प्रथा-एक अध्ययन परम्परा भाग् 49-50, पृष्ठ-82
86. रामकरण आसोपा मारवाड का मूल इतिहास-पृ. 260, रामश्याम प्रेस, जोधपुर 1965
87. डॉ. महेन्द्र सिंह नगर - मारवाड के राजवंश की सांस्कृतिक परम्पराएं  भाग प्रथम पृष्ठ 174
88. डॉ विक्रम सिंह  भाटी-मध्यकालीन राज. में ठिकाणा व्य. पृष्ठ 258
89. वहीं पृष्ठ 162, रा.रा.अ. जोधपुर सनद बही क्र. 2483, पृष्ठ 21-22
90. डॉ. आर.पी व्यास - रोल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़, पृ.193
91. वहीं पृष्ठ 190-191
92. डॉ. आर.पी व्यास - रोल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़, पृ.179
9़3. डॉ. आर.पी व्यास - उŸार मध्यकाल में सामंतवाद, राज. भारती भाग् प्रथम पृष्ठ 181
94. महेन्द्र सिंह नगर-मारवाड राजवंश की सांस्कृतिक परम्पराएं, भाग द्वितीय पृष्ठ - 458
9़5. डॉ. आर.पी व्यास - रोल ऑफ नॉबीलिटी इन मारवाड़, पृ.185
रा.राअ.बी.-हकीकत बही नंबर 44, पृष्ठ 33,
हकीकत बही 40, पृष्ठ 41,
डॉ. महेन्द्र सिंह नगर-मारवाड राजवंश की सांस्कृतिक परम्पराएं, भाग द्वितीय पृष्ठ - 458
96. रा.राअ.बी.-हकीकत बही नंबर 39, पृष्ठ 69
97. रा.राअ.बी.-हकीकत बही नंबर 43, पृष्ठ 185-186
98. रा.राअ.बी.-हकीकत बही नंबर 49, पृष्ठ 10
99. रा.राअ.बी.-हकीकत बही रजिस्टर नंबर 67, पृष्ठ 423
100. रा.राअ.बी.-हकीकत बही नंबर 62, पृष्ठ 388
101. रा.राअ.बी.-हकीकत बही नंबर 56, पृष्ठ 119
102. पं.वि.एन.रेऊ, मारवाड का इतिहास भाग द्वितीय- पृष्ठ - 627-28
103. रा.राअ.बी.-सनद बही नंबर 59, पृष्ठ 19
104. रा.राअ.बी.-हकीकत बही नंबर 42, पृष्ठ 248
105. मुंशी हरदयाल - तवारीख. ए. जागीरदारान राज. मारवाड पृष्ठ 7
106. डॉ. निर्मला उपाध्याय - पृष्ठ 173
107. पा.वि.एन.रेऊ, मारवाड का इतिहास भाग द्वितीय पृष्ठ 629
108. डॉ. आर. पी. व्यास रोल ऑफ नोबीलिटी इन मारवाड पृष्ठ 186
109. वही पृष्ठ 179-180 रा.रा.अ.बी. हकीकत बही, नंबर 39, पृष्ठ 553
110. रा.रा.अ.बी. : हकीकत बही 48. पृष्ठ 166
111. डॉ. निर्मला एन उपाध्याय, पृष्ठ 173
112. रा.रा.अ.बी. हकीकत बही नंबर 43. पृष्ठ 223
113. डॉ. प्रेम  ऐग्रिस : मारवाड का सामाजिक व आर्थिक जीवन पृष्ठ 147
114. डॉ विक्रम सिंह भाटी- मध्यकालीन राजस्थान में ठिकाणा व्यवस्था, पृष्ठ 164
115. पी.आर.शाह - राज. मारवाड ड्यूरिंग ब्रिटिश मैरामाउण्टेसी पृष्ठ-61
116. डॉ. विक्रम सिंह भाटी-मध्यकालीन राजस्थान में ठिकाणा व्यवस्था पृष्ठ - 55 से 63
116(अ). 1884 ई में सियारत शब्द मिसल के स्थान पर प्रयोग में लाया जाने लगा। कुल 12 थें।
117. (अ) (ब) बगडी व खींवसर ठाकुर के महाराज तख्तसिंह से विवाद होने पर इन्हें 12 सिरायतों में स्थान नहीं दिया। 1884 ई. में सियारत शब्द मिसल के स्थान पर प्रयोग में लाया जाने लगा। महाराज जसवंत सिंह द्वितीय के समय जब नई सूची बनाई जा रही थी तब बगडी ठाकुर के बार-बार बुलाने पर वह नही आया तो उसका नाम सूची से हटा दिया गया- डॉ. महेन्द्र सिंह नागर, मारवाड राजवंश की परम्पराएं - पृष्ठ 167.

मारवाड ठिकाणों में प्रचलित लाग-बाग

मारवाड ठिकाणों में प्रचलित लाग-बाग
मारवाड़ राज्य मे जनता से वसूले जाने वाले लाग-बाग करों की पुरानी परम्परा रही है। ‘लाग’ सामान्य जनता की सामाजिक व आर्थिक गतिविधियों पर लगाया जाने वाला कर था तथा ‘बाग’ राज्य की खालसा भूमि या ठिकाणेदार की भूमि पर करवाई जाने वाली बेगारी थी। बेगारी वास्तव में कृषकों से मुफ्त में कृषि करवाने को कहा जाता है।113 ठिकाणेदार सामान्यतः कृषकों को इस सेवा के बाद घुघरी या कुछ अनाज दे सकता था। ठिकाणेदारों को राज्य की ओर से मिले लाग-बाग सम्बन्धी अधिकारों से प्राप्त एक निश्चित रकम राज्य के खजाने में जमा करवा दी जाती थी। उक्त धन राशि ठिकाणेदार अपनी जागीर के गांव-वालों से वसूल किया करता था। राज्य के खजाने में रकम जमा करने के साथ ही ठिकाणेदार को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु भी धन की आवश्यकता पड़ती थी। यह धन भी अपनी प्रजा से लिया जाता था। ठिकाणों में लाग सम्बन्धी राशि विभिन्न ठिकाणों में अलग-अलग हुआ करती थी।114
मारवाड़ में प्रचलित प्रमुख लाग-बाग है।115 (1) सेरीना (2)  नावा, (3) सूत कताई (4) कूॅताधार, (5) चबीना, (6) दांती ज्वार, (7) हल का खार खार (8) हलवा (9) घर बाब  (10) घासभारी (11) फरमाइश (12) चारोला, (13) जाजम खर्च (14)  मुजरा (15) जमा बन्दी (16) राम राम (17) हवलदार का वेतन, (18) परोती (19) लावजमा (20) थाली (21) खीरा लाग (22) नाता (23) पापड़खाई (24) छापा (25) खान पत्थर (26) माल सेरीना इत्यादि ।
मारवाड के प्रमुख ठिकाणे - 116
क्र.सं. ठिकाणा परगना रेख खांप विशेष
1. पोकरण फलौदी 92,735 चांपावत सर्वाधिक 100 गांव सियारत सरदार
2. आडवा सोजत 16,000 चांपावत डाबी मिसल (सिरायत) 116अ
3. आसोप जोधपुर 31,000 कूंपावत डाबी मिसल (सिरायत)
4. रियॉ मेड़ता 36,103 मेडतियां जीवणी डाबी मिसल (सिरायत)
5. रायपुर जैतारण 39,475 उदावत जीवणी डाबी मिसल (सिरायत)
6. रास जैतारण 39,750 उदावत जीवणी डाबी मिसल (सिरायत)
7. निभाज जैतारण 35,100 उदावत जीवणी डाबी मिसल (सिरायत)
8. खैरवा पाली 27,750 जोधा जीवणी डाबी मिसल (सिरायत)
9. अगेवा उदावत जीवणी डाबी मिसल (सिरायत)
10 कंटालिया सोजत 14,300 कूंपावत डाबी मिसल (सिरायत)
11. अहलनियावास मेड़ता 13,600 मेडतिया जीवणी डाबी मिसल (सिरायत)
12. भाद्रापूण जालोर 31,850 जोधा जीवणी डाबी मिसल (सिरायत)
13. बगडी(117अ ) सोजत 15,000 जैतावत डावी मिसल
14. कनाना पचपदरा 12,000 करणोत डाबी मिसल
15. खींवसर (117ब) नागौर 16,350 करमसोत डाबी मिसल
16. आहोर जालौर 28,750 चांपावत डाबी मिसल
17. खेजडला बिलाडा 20,100 उरजनोट भाटी डाबी मिसल
18. चंडावल सोजत 20,000 कूंपावत डाबी मिसल
19. कुचामन सांभर 42,750 मेडतिया
20. चाणोद बली 51,000 मेडतिया
21. जावला परबतसर 38,000 मेडतिया
22. जावला परबतसर 38,000 मेडतिया
23. बलून्दा जैतारण 19,375 चांदावत
24. मींडा सांभर 34,803 मेडतियां






ठिकाणेदारों द्वारा दिए जाने वाले कर एवं सेवाएं

ठिकाणेदारों द्वारा दिए जाने वाले कर एवं सेवाएं -
1. रेख - शासन समय-समय पर अपने भाई-बन्धुओं, पुत्रों और सरदारों को जागीर पट्टे दिया करते थे। प्रारंभ में उनसे चाकरी (सेवा) के अतिरिक्त कोई कर नहीं लिया जाता था। मुगल पद्धति से प्रभावित होकर सर्वप्रथम महाराज शूरसिंह के समय से ठिकाणेदों के पट्टो में अनेक गांवों की रेख दर्ज की जाने लगी। किन्तु मुगल शक्ति के पतन के बाद मराइों के बढते उपद्रवों से निपटने के लिए महाराजा विजयसिंह को नई आर्थिक व्यवस्था करने के लिए मजबूर होना पड़ा। सन् 1755 ई. मे उसने ठिकाणेदारों पर शाही जजिये ओर मारवाड से बाहर के युद्धों में भाग लेने की सेवा के बदले में एक हजार की आमदानी पर तीन सौ रूपए के हिसाब से मतालबा नामक कर लगाया। यह दर आवश्यकतानुसार घटती बढ़ती रही जोकि 150 रु से 300 रु के बीच रही।102 महाराजा मानसिंह के लिए तो एक कहावत प्रचलित हो गई कि ‘‘मान लगाई महीपति रेखां ऊपर रेख’’।103 अधिक रेख लगाने से राजा और सामन्तों के बीच तनाव उत्पन्न हो गया । 1839 ई. में पोलिटिकल एजेण्ट के कहने पर उसकी दर प्रतिवर्ष प्रति हजार की जागीर पर  80 रूप रेख लेना निश्चित किया गया। 1913 ई. में सर प्रताप ने धार्मिक जागीरों से रेख लेने का आदेश दिया।104
2. चाकरी -युद्ध में महाराजा का साथ देने के लिए ठिकाणेदारों द्वारा दी जाने वाली सैनिक सहायता ‘चाकरी’ कहलाती है। ठिकाणे की देख के आधार पर चाकरी (सेवा) करनी होती थी। एक हजार की आय पर एक घुड़सवार साढे सात सौ की आय पर एक शतुर (ऊँट) सवार, पांच सौ की आय पर एक पैदल सैनिक तथा 250 रूपए की आय पर एक पैदल सैनिक 6 माह के लिए भेजा जाता था किन्तु जब ठिकाणेदारों ने अक्षम व अकुशल सैनिक और घटिया उपकरणों के साथ सैनिक व घुड़सवार भेजना प्रारंभ कर दिया, तब महाराजा ने 1894 ई. से नकद भुगतान लेने की योजना प्रारंभ की और आधुनिक ढंग से रसाला स्थापित की गई।106
3. पेशकशी या हुकुमनामा - यह नए उत्त् राधिकारी ठिकाणेदारों के द्वारा दिया जाने वाला उत्त् राधिकारी शुल्क हैं। ठाकुर की मृत्यु होने पर शासक द्वारा उसके ठिकाणे को जब्त कर लिया जाता था तथा पेशकशी की एक बडी रकम वसूल करके नए उत्त् राधिकारी के नाम का पट्टा प्रदान कर दिया जाता था। सर्वप्रथम यह प्रथा मोटा राजा उदयसिंह ने मुगल पद्धति से प्रभावित होकर की। महाराजा सूरसिंह (1595ई. -1619ई.)  ने यह रकम पट्टा के रेख के बराबर निर्धारित की। महाराजा अजीतसिंह के समय इसका नाम हुकुमनामा पड़ गया तथा इसके साथ ठिकाणेदारों से ‘‘तगीरात’’ नामक एक नया कर वसूल किया जाने लगा।107 महाराज विजयसिंह (1751 ई.-1793 ई.) के शासनकाल में मराठो के निरंतर आक्रमण के कारण राज्य की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई। महाराजा ने हुकुमनामा गकी रकम जागीर की आय से दुगुनी तक वसूल की और इसके साथ भुत्सद्यी खर्च के रूप में अतिरिक्त धनराशि भी एकत्रित की। महाराज मानिंसह के समय में तो हुकुमनामा की रकम की दर में और अधिक वृद्धि की गई। इस प्रकार हुकुमनामा की रकम जो स्वेच्छाचारित पूर्वक वसूली जा सकती थी उससे सामन्तों के मन में राजा के प्रति रोष उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था।108
4. अन्य अदायगियाँ-राज्याभिषेक के अवसर पर शासक को 25 रू. नजराना, शासक एवं युवराज की प्रथम शादी के समय भेंट 100 रूपए, राजकुमारी के विवाह पर ‘‘न्योत’’ के रूप में 40 रूपए प्रति हजार की रेख पर दिया जाता था। अलग-अलग शासकों के काल में इन दरों में हेर-फेर भी कर दिया जाता था।109 भोमिया राजपूतों को कुछ सेवा करने के लिए भूमि दी जाती थी जिस पर कभी-कभी भूमि-बाव वसूला जाता था।110
5. ठिकाणेदारों के अन्य कत्त् र्व्य-सामन्तों को इन करों की अदायगी के अलावा कुछ अन्य कत्त् र्व्यों को भी निभाना पड़ता था। इसमें  मुख्य कत्त् र्व्य ठिकाणेदारों की दरबार में उपस्थिति थी। उनको प्रतिवर्ष एक निश्चित अवधि के लिए दरबार में रहना पड़ता था और इस काल में राजा की पूर्व आज्ञा के बिना वे राजधानी को नहीं छोड सकते थे।111 साथ ही कुछ विशिष्ट त्यौहारों जैसे कि अक्षय-तृतीया, दशहरा आदिपर भी उन्हें दरबार में उपस्थित रहना पड़ता था। रनिवास की देखभाल का कार्य भी किसी भी ठिकाणेदार को राजा की राजधानी से गैर हाजिरी की स्थिति में संभालना पड़ता था। साथ ही रनिवास की महिलाओं की यात्रा आदि पर उनकी सुरक्षा का कार्य और यात्रा व्यवस्था आदि का कार्य किसी भी ठिकाणेदार को निभाना पड़ता था।112 ठिकाणेदारों को नया किला बनवाना के लिए शासकों से पूर्व अनुमति लेनी भी आवश्यक होती थी और यहां तक कि उनको अपने पुत्र-पुत्रियों का विवाह करने से पहले शासक का सूचना भेजनी पड़ती थी।


ठिकाणेदारों के विशेषाधिकार

ठिकाणेदारों के विशेषाधिकार-
राजस्थान के ठिकाणेदार स्वयं को कुलीय राज्यों का संरक्षक मानते हुए महत्वपूर्ण युद्धकालीन और शान्तिकालीन सेवाएं प्रदान किया करते थे। वे शासकों को महत्वपूर्ण ओर सामान्य विषयों पर अपनी इच्छा से अथवा शासक द्वारा उनकी राय पूछे जाने पर सलाह दिया करते थे।71 सलाह को माने जाने अथवा नहीं माने जाने को ठिकाणेदार अपनी प्रतिष्ठा  से जोड़ते थे। महत्वपूर्ण मुद्दो पर सलाह नहीं माने जाने पर ठिकाणेदार नाराज हो जाया करते थे एवं अपने ठिकाणों पर जा बैठते थे। महाराजा विजयसिंह के शासनकाल में राज्य का प्रधान पोकरण के ठाकुर देवीसिंह अपनी निरन्तर उपेक्षा किए जाने पर अपने ठिकाणे जा बैठा।72 उसे काफी मुश्किल से मनाया जा सका। ऐसी स्थिति में शासक ठिकाणेदारों के महत्व को जताने के लिए उन्हें उनके पद और हैसियत के अनुसार सम्मान  देने के लिए अनेक रस्मतों का पालन करता था।
मारवाड़ राज्य में डाबी एवं जीवणी मिसल वाले ठिकाणेदारों और दूसरे महत्वपपूर्ण ठिकाणेदारों को राजदरबार में बुलाने के लिए विशेष रूक्का महाराजा की तरफ से भेजा जाता था। राजदरबार में महाराज उनका सम्मन उनके पद के अनुसार करता था। खास रूक्के सिरायत सरदारों को विवाह समारोह में भाग लेने, विशेष दरबारों में सम्मिलित होने तथा विपिŸा के समय राज्य की रक्षा हेतु बुलाने के लिए भेजाजाता था। खास  रूक्का नहीं भेजने पर ताजीमी सरदार दरबार नहीं आते थे।73 लौटते समय उन्हें महाराजा से स्वीकृति प्राप्त करनी पडती थी। इसके लिए वे किले में महाराजा के समक्ष उपस्थित होते थे, जहां उन्हें सीख सिरोपाव प्राप्त होता था। सिरायत या ताजीमी सरदारों को लिखे जाने वाले पत्र महाराजा के निजी सचिव द्वारा तैयार किए जाते थे। इस पर महाराजा के हस्ताक्षर होते थे तथा निजी मुद्रिका से सील किया जाता था। निम्न दर्जे के सरदारों को भेजे गए खास रूक्के पर राज्य के मंत्री अपने पास रखी राज्य की सील लगाता था।74
छह प्रमुख पर्वो पर यथा-आखा तीज, दशहरा, दिवाली, होली, रक्षाबन्धन तथा शासक के जन्म दिवस पर एक भव्य दरबार आयोजित होता था।75 सरदार अपनी वसीयता के अनुसार एक साथ बैठकर भोजन करते थे। तत्पश्चात् महाराज की नजर निछरावल की जाती थी।76 ठिकाणेदार के पुत्र होने अथवा विवाह समारोह के अवसर पर महाराज स्वंय ठाकुर के निवास स्थान पर जाता था तथा बधाई देने के अलावा हाथी, घोडा या पालकी का सिरोपाव (सम्मान सूचक वस्त्र) दिया जाता था। ठाकुर के परिवार की स्त्रियों को भी इस प्रकार के सम्मान सूचक वस्त्र प्रदान किए जाते थे।76 ठाकुरों और उनकी स्त्रियों को ही इस प्रकार सम्मान होने पर स्वर्ण-आभूषण पहनने का अधिकार  था, न कि सभी को।77
अनेक ठिकाणेदारों को बेतलबी सनद दिए जाते थे जिसके अन्तर्गत कुछ गांवों की आय को इनाम स्वरूप शासक को दिया जाता था। नए उŸाराधिकारी ठिकाणेदार को इन सनदों का नवीनीकरण करवाना आवश्यक था78। कैफीयत विशेषाधिकार के अन्तर्गत ताजीमी सरदारों को न्यायालयों में लगाई जाने वाली दस्तास्तो पर टिकट लगाने की छूट थी।79 ताजीमी सरदारों को राज्य के सामान्य न्यायालय में उपस्थिति से छूट थी और शासक की पूर्व अनुमति के अभाव में उन पर अभियोग नहीं लगाया जा सकता था। इन्हें न्यायालयों में गवाह के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता था केवल किसी समिति के समक्ष ही उनसे पूछताछ की जा सकती थी। प्रथम श्रेणी ताजीमी सरदार पर यदि कोई अभियोग चलाया जा रहा हो तो भी उसे न्यायालय में कुर्सी दी जाती थी।80 बागावास ठिकाण के मजिस्ट्रेट पद पर स्वयं ठाकुर रहा करता था और मारपीट के मामले में चौरी, डकैती के मामले स्वयं अपनी सूझबूझ से निपटाया करता था। कुछ ठिकाणेदारों जैसे कि धाणेराव ठाकुर को रियासत की ओर से दीवानी मामलो में 1000 रूपए तक के मुकदमे सुनने तथा फौजदारी मामलो में 6 माह की कैद और 300 रूप्ए तक का जुर्माना करने का अधिकार प्राप्त था।81 किन्तु सरदार किसी को भी मृत्युदण्ड देने का अधिकार नहीं रखते थे।82
ताजीमी ठिकाणेदार अपने ठिकाणे के एक प्रकार से शासक थे किन्तु सार्वभौम नहीं थे। उनका अपने क्षेत्र की जमीनों पर अधिकार नहीं था। यूरोपीय सामंतीय व्यवस्था के विपरीत यहां कृषक स्वतंत्र थे। ठाकुरों को अपने ठिकाणे के प्रशासन से सम्बन्धित पूर्ण अधिकार और स्वतंत्रता प्राप्त थी तथा राज्य का हस्तक्षेप काफी कम था। वह अपने क्षेत्र में लगान व कर वसूली तथा न्याय से सम्बन्धित प्रशासन करता था। दरबार में वह वर्ष के कुछ निश्चित दिनों तक और विशेष मौको पर ही रहता था।83 प्राकृतिक संतान नहीं होने पर गोद लेने तथा उŸाराधिकारी की स्वीकृति शासक से प्राप्त होनी अति आवश्यक थी। वर्ष 1895 ई. में पोकरण के ठाकुर की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई जिसने उŸाराधिकारी से सम्बन्धित नियम निश्चित किए।84 पोकरण के ठाकुर, बगडी के ठाकुर तथा मुन्दियाड के बारहठ चरणों को वंशानुगत विशेषाधिकार प्राप्त थे। महाराजा मानसिंह के राज्यकाल तक पोकरण के ठाकुर को वंशानुगत प्रधानगी प्राप्त थी, ठाकुर को हाथी के हौदे पर पीछे की जगह पर बैठने और महाराज के मोरछल (चंवर) करने का विशेषााकार था। उसे मजल और दुनाड़ा गांव का राजस्व प्रधानजी पद संभालने के उपलक्ष में दिया जाता था। दरबार के समय नजर निछरावल सर्वप्रथम करने का विशेषाधिकार भी पोकरण ठाकुर को ही प्राप्त था।85 बगड़ी के ठाकुर को नए महाराजा के गद्दी पर बैठन के समय अपने अंगूठे के रक्त से टीका करने और खड़ग-बन्दी विशेषाधिकार महाराजा के सूजा के समय से प्रापत थी। मुन्दियाड़ का बारहठ (चारण) इस अवसर पर राठौड़ो की वंशावली कहकर सुनाता था। इस अवसर पर उसे हाथी सिशेपाव दिया जाता था।86 ठिकाणेदारों को राज्य की ओर से अपने ठिकाने की सील का अधिकार प्राप्त था। पोकरण, आसोप, आऊवा, रायपुर, भाड़ाजून, निभाज, रास, आलनियावास, खैखा के ठाकुरों को सील अथवा थेबा रखने का अधिकार था।87 कुचामन और बुडसू ठाकुरों को सिक्के ढालने का विशेषाधिकार प्राप्त था।88  कुछ प्रथम श्रेणी ठिकाणेदारों को शराब की भट्टियाँ निकालने का भी विशेष अधिकार प्रापत था। इसके अलावा अफीम की खेती करने का भी राज्य की ओर से अधिकार मिला करता था। ठिकाणा बागावास को अफीम का रियायती लाइसेंस राज्य की ओर से मिला हुआ था।89
महाराजा द्वारा ठिकाणेदारों को उनके मूल जागीर पट्टे के अतिरिक्त भी गांव दिए जाते थे जिन्हें ‘बघारा’ कहा जाता था। बघारा पट्टा महाराजा की इच्छा रहने तक ठिकाणेदार के पास रहता था। महाराज द्वारा प्रसनन होने पर ठिकाणे के कामदारों को भी जागीर पट्टे वंशानुगत आधार पर दिए जाते थे तथा इन से हुकुमनामा, रेख, चाकरी भी नहीं ली जाती थी।90 भोमिचारा नामक ठिकाणेदारों फौजबल था खिचड़ी-लाग अथवा हुकुमत-लाग जली जाती थी जो मूल्य में काफी छोटी होती थी। इनमें न कोई उŸाराधिकारी को पट्टा जारी किया जाता था।9़1
ठिकाणेदारों को उनकी श्रेणी व पद के अनुसार लावजमा प्रदान किया जाता था। लावजमा के अन्तर्गत नक्कारा, निशान, चंवर-चंवरी, सोने-चांदी की छड़ी इत्यादि आते थे।92
सिरायत के ठाकुरों की मृत्यु पर उनके सम्मान में राजकीय शोक रखा जाता था। जोधपुर के किले पर एक समय नौबल व शहनाई बजाना बंद रखा जाता था।93 शोक कितने दिन रखा जाना था यह पूर्णतया महाराजा पर निर्भर करता था। जब दिवंगत यात्रा पर जाता तब महाराजा उसके निवास स्थान या हवेली पर उसे सांत्वना देने जाता था। नया उŸाराधिकारी ठाकुर सफेद पगड़ी पहन कर महाराज का स्वागत करता था तथा उसे दो घोड़े भेंट करता था।94 जिसे महाराज सामान्यतया लौटा देते थे। तत्पश्चात् महाराजा ठाकुर को एक ‘एक रंगा का पेचा’ भेजा करता था जिसमें स्वर्ण जरी युक्त पॉच स्वर्ण मोलिया या मोहुर पेटर्न बना होता था। ये रंगीन पगड़ी ठाकुर के गांव में भी भेजी जा सकती थी।95
राज्य की ओर से ठिकाणेदारों को दिए गए विशेषाधिकारों का वे दुरुपयोग करके सामान्य जन की व्यक्ति स्वतंत्रता का हनन या अन्याय न करने लगे, इस ओर भी ध्यान दिया गया।96 जिन ठाकुरों ने अपने विशेषाधिकारों का हनन करके अन्यायापूर्ण कार्य किए उनके खिलाफ सख्त कार्यवाही की गई। 1915 ई. में कुरडी के ठाकुर द्वारा एक ब्राह्मण की पिटाई करने पर पीडित महाराज के समक्ष फरियाद की। महाराज ने ठाकुर से स्पष्टीकरण मांगा किन्तु उसने कोई जवाब नहीं दिया। मामले की सुनवाई हुई । शिकायत सही पाई गई। ठाकुर को दो वर्ष कैद की सजा हुई तथा जांगीर पांच वर्ष के लिए राज्य प्रबंध के सुपुर्द कर दिया गया तथा प्रार्थी को एक हजार रूपए देने का आदेश दिया।97 दुगोली ठाकुर द्वारा लुटेरों की सहायता करने की शिकायत सही पाए जाने पर उसे छः माह कैद और 500 रूपए जुर्माना लगाया गया।98 इसी प्रकार भीकमकोर पर तलवार से हमला कर उसे घायल कर दिया। 30 जुलाई, 1945 को ठाकुर के सभी विशेषाधिकार और ताजीम छीन ली गई तथा ठिकाणे को कोर्ट ऑफ वार्डस के सुपुर्द कर उस पर एक साधारण अपराधी के समान अभियोग चलाया गया।99 बागावास ठाकुर द्वारा पशुओं के लिए नियत तालाब सम्बन्धी अधिकार  का हनन किया तो उसका यह अधिकार छीन लिया गया।100 मिठडी ठाकुर द्वारा जाली सिक्के बनाने और मुद्रा धोखाधड़ी करने पर उसके ताजीम और कुरब छीन लिए गए101 तथा उसके कुछ गांव खालसा कर दिए गए101 । अपने इस निर्णय में महाराज ने कानून के शासन को लागू किया।
ठिकाणेदारों के कत्त र्व्य -
राज्य की विभिन्न प्रशसनिक सैनिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शासक ठिकाणेदारों से विभिन्न प्रकार के करों की वसूली करता था। करों की वसूली से जहां एक ओर शासक की सार्वभौमिकता स्थापित होती थी। वहीं दूसरी ओर ठिकाणों पर अंकुश लगाने में भी करारोपण सहायक था।


मारवाड़ नरेशों द्वारा दी जाने वाली ताजीम, कुरब, ओर सिरोपाव

मारवाड़ नरेशों द्वारा  दी जाने वाली ताजीम, कुरब, ओर सिरोपाव
सरदारों द्वारा विशिष्ट राजकीय सेवा करने पर शासक उन्हें सम्मानस्वरूप ताजीम, कुरब या सिरोपाव प्रदान करते थे। ताजीम दो प्रकार की थी। इकेवडी ताजीमी सरदार का अभिवादन ग्रहण शासक खड़े होकर उसके आने पर करता था जबकि दोहरी ताजीभी सरदारों के आने तथा जाने-दोनो अवसरो पर महाराज खड़े होकर अभिवादन ग्रहण करता था।62 सिरायत सरदारों को दोहरी ताजम प्राप्त थी। महाराज ताजीमी सरदारों से नजर और निछरावल खडे होकर प्राप्त करता था तथा अन्य सरदारो से बैठे-बैठे स्वीकार करता था।63
कुरब और बांह-पसाव भी दरबार अभिवादन की एक रीति थी। कुरब का सम्मान प्राप्त ठिकाणेदार महाराज के समक्ष उपस्थित होने पर अपनी तलवार उसके पैरो के पास रखकर घुटने या अचकन के पल्लू को छूता था, तब महाराज उसके कंधों पर हाथ लगाकर अपने हाथ को अपनी छाती तक ले जाता था। इसके हाथ का कुरब कहा जाता था।64 बाह-पसाव सम्मान में महाराज सरदार का केवल कंधा छूता था।65 किसी सरदार द्वारा अति-विशिष्ट राजकीय सेवा करने पर ही हाथ का कुरब दिया जाताथा। महाराज विजयसिंह के शासन काल में चण्डावल ठाकुर ने महाराजा से निवेदन किया कि  उसे हाथ का कुरब इनायत किया जाए। इसके बदले में तह महाराज को 40-50 हजार रूपए नजर करने को तैयार था। किन्तु महाराजा ने प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और कहलवाया कि ‘‘ कुरब रि साटै मिलता है, दाम साटै नहीं’’ अर्थात् सिर देने पर कुरब मिलता है न कि दाम देने से। सिर का कुरब प्राप्त ठिकाणेदार दरबारके समय अन्य सरहारो से ऊपर बैठते थे। राह कुरब मारवाड के विशिष्ट ठिकाणेदारों को ही प्राप्त था जैसे कि पोकरण आऊवा, आसोप, रियां, रियापुर, रास, निमाज, खैरवा इत्यादि।67
ठिकाणेदारों के दरबार या किसी शाही विवाह के पश्चात् विदा लेने पर एक सम्मानसूचक वस्त्र दिया जाता था जिसे सिरोपाव कहा जाता था। ये सिरोपाव हाथी, घोड़ा, पालकी या सादा होता था। इसके लिए नकद भ त्ते दिए जाते थे। उदाहरण के लिए हाथी सिरोपाव हेतु 780/- रूपए दिए जाते थे68 किन्तु विवाह के मौके पर 849/- रूपए दिए जाते थे। सादा सिरोपाव और जवाहर मोतीकडा सिरोपाव सरदारों को उनकी श्रेणी के अनुसार दिए जाते थे। उस समय मारवाड़ में प्रत्येक व्यक्ति को सोना पैर में पहनने का अधिकार नहीं था। जिस व्यक्ति को राज्य की तरफ से यह अधिकार होता था वही इसका उपयोग कर सकता था, अन्य नहीं। इसके अतिरिक्त कंण्ठी, दुपट्टा सिरोपावन, कड़ा-मोती, दुशाला सिरोपाव भी दिया जाता था।69 महाराजा की सेवा में आए हुए सरदारों को दिए गए इनामों का विवरण (जाति के अनुसार) कौमी दस्तूर कहलाता था। उस समय सरदारों द्वारा महाराजा को भेंट व उपहार की पद्धति का सामान्य प्रचलन था।70



मारवाड़ में जागीरदारों की श्रेणियाँ

मारवाड़ में जागीरदारों की श्रेणियाँ
मुगलों मनसबदारी प्रथा से प्रभावित होकर मारवाड़ के राजाओं ने भी अपने जागीरदारों को पद और प्रतिष्ठा के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया। इससे जागीरदारों की आय ओर उनके पद और प्रतिष्ठा का निर्धारण हो गया। मारवाड़ के जागीरदार कई श्रेणियों में विभाजित थे-यथा (1) राजवी, (2) सरदार  (3)  मुत्सद्दी और (4)  गिनायत54 ।
राजा के छोटे भाई व निकट के सम्बन्धी, जिन्हें अपना निर्वाह के लिए जागीर दी जाती थी, राजवी कहलाते थे। इन्हे तीन पीढ़ी तक रेख, चाकरी, हुक्मनामा आदि की रकम राज्य खजाने में जमा नहीं करवानी पड़ती थी। तीन पीढ़ी के बाद राजवी भी सामान्य जागीरदारों की श्रेणी में आ जाते थे।55
मारवाड़ के सरदारों को अनेक श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। इनमें सर्वोपरि सिरायत सरदार थे। ये वे ठिकाणेदार थे जिन्हें दरबार में बैठने का स्थान राज्य के पास सबसे आगे मिलता था। प्रारंभ में उनकी संया 8 थी जो कालान्तर में बढ़ कर 12 हो गई।56

ये 12 सिरायत सरदार थे -
ठिकाणा खॉप    मिसल
1. पोकरण चांपावत दाईं
2. आडवा चाँपावत दाईं
3. आसोप कुम्पावत दाईं
4. रीयाँ मेड़तिया बाईं
5. रायपुर उदावत बाईं
6. रास उदावत बाईं
7. निमाज उदावत बाईं
8. खैरवा जोधा बाईं
9. अगेवा उदावत बाईं
10. कंटालिया कुम्पावत बाईं
11. अहलनियावास मेड़़तिया बाईं
12. भाद्राजून जोधा बाईं57
दरबार में उपरोक्त सरदार अपनी मिसल के अनुसार महाराज के दाईं और बाईं और बैठा करते थे। राव रणमल्ल के वंशज (चम्पावत व कुम्पावत) दाईं और राव जोधा के वंशज (जोधा, मेडतिया और उदावत) बाईं और बैठा करते थे।58 अनुसूचित में वर्णित प्रथम तीन सरदारों में से जो पहले आते है वे अपने आने के क्रम के अनुरूप आसन ग्रहण कर सकते थे। इनके बाद के पांच सरदारों में भी यही व्यवस्था लागू थी। अन्तिम चार ठाकुर अपने नियत आसन से पहले का आसन तभी ग्रहण कर सकते थे जबकि उनके वरिष्ठ सरदार दरबार में उपस्थित न हो। सरदारों के बैठने के क्रम को लेकर अनेक अवसरों पर विवाद उठ खड़े होते थे। सिरायत सरदारों के अतिरिक्त अन्य सरदारों की श्रेणियाँ उन्हें प्राप्त होने वाले ताजिम और कुरब के अनुसार निर्धारित होती थी।  दरबार में इनके बैठने की व्यवस्था भी इसी से निर्धारित होती थी।59
गिनायत के ठिकाणे उन ठिकाणेदारों के थे जिन्हें जागीर पट्टा यातो राजघराने से शादी सम्बन्ध के कारण मिली थी या वे राठौड़ों का राज्य स्थापित होने के पहले से ही मारवाड़ के किसी क्षेत्र के स्वामी थे। राठौड़ों का राज्य स्थापित होने पर उन्होंने भी राठौडों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया था। ऐसे ठिकाणे भाटी, कच्छावा, हाडा, चौहान, सिसोदिया, तंवर, जाडेजा, झाला आदि राजपूतों के थे।60
मारवाड़ में मुत्सद्दी जागीरदर भी थे जिन्हें राज्य प्रशासन में कार्य करने के एवज में जागीर प्राप्त थी। उनकी जागीरे उनके सेवाकाल तक ही रहती थी। अपवाद स्वरूप कुछ मुत्सद्दियों को वंशानुगत जागीरे मिली थी।61



ब्रिटिश काल में शासक और ठिकाणेदार के परस्पर सम्बन्ध

ब्रिटिश काल  में शासक और ठिकाणेदार
के परस्पर सम्बन्ध
मराठा सरदारों और पिण्डारी लुटेरे अमीर खां के बढ़ते हस्तक्षेपों, लूट-पाट और आर्थिक मांगों के समक्ष विवश होकर जोधपुर, जयपुर और अन्य राजपूत रियासतों ने अंग्रेजों से संरक्षण की मांग की। गर्वनर जनरल लार्ड हेस्टिंगस के शासन-काल में पिण्डारियों की शक्ति ब्रिटिश सेना ने कुचल दी (1871 ई.)42 ब्रिटिश सरकार ने अमीर खां से हुए समझौते के फलस्वरूप अमीर खां ने अपने सैनिक सभी राजस्थान राज्यों से और किलों से हटा लिए। 1817 ई. के आंग्ल-मराठा युद्ध में मराठों की हार के पश्चात् सिन्धिया ने राजस्थान के राज्यों पर से एक अपना अधिकार त्याग दिया।43 तत्पश्चात्  एक-एक करके सभी राजपूतों राज्यों ने 1818 ई. की संधि द्वा रा ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार कर लिया। इस संधि द्वारा बाहरी रूप से राजपूत राज्य सुरक्षित हो गए तथा आन्तरिक प्रबंध में शासकों को पूर्ण स्वतंत्रता दी गई।44 इस संधि के सरदारों पर पड़ने वाले प्रभाव शीघ्र दृष्टिगोचर होने लगे।राजा को अपने ठिकाणेदारों की अब पहले जैसी आवश्यकता नहीं रही क्योंकि उसका राज्य अब बाहरी आक्रमण से सुरक्षित था। प्रशासन की ओर महाराज मानसिंह द्वारा निरन्तर उपेक्षा दर्शाए जाने पर दरबार में अनेक गुट बन गए। ठिकाणेदारों व मुतसदियों के षडयंत्र के फलस्वरूप शासन सŸा महाराज मानसिंह के हाथों से निकलकर युवराज छŸारसिंह के पास आ गई। युवराज छŸारसिंह की आकस्मिक मृत्यु (मार्च 1818)45 के पश्चात् 1820 ई. में महाराज मानसिंह ने इस स्थिति के लिए जिम्मेदार पोकरण गुट के विरूद्ध गंभीर कार्यवाही करते हुए या तो उन्हें मरवा डाला अथवा उनकी सम्पिŸा जब्त कर ली। इसी क्रम में आसोप, चण्डावल, रोहट, खेजड़ला और निाज के ठिकाणे व सम्पिŸा जब्त कर ली गई।46
अपने ठिकाणों से बेदखल किए गए। अपरोक्त सरदारों ने अन्य राज्यों में आश्रय लिया। इन ठिकाणेदारों ने ब्रिटिश मध्यस्थता के अनेक प्रयास किए। ब्रिटिश सरकार चूंकि आंतरिक प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं करने हेतु संधिबद्ध थी। अतः वे मध्यस्थता के अधिक इच्छुक  भी नहीं थे। उनके बार-बार आग्रह करने पर पश्चिमी राजपूताना के पॉलिटिकल एजेंट एफ. विल्डर ने उन्हें महाराजा के पास जाने को कहा। पॉलिटिकल एजेण्ट के कहने में आकर वे जोधपुर पहुंचे किन्तु महाराजा मानसिंह के आदेश पर उन्हें कैद कर लिया गया। शीघ्र ही एफ.विल्डर के हस्तक्षेप के बाद वे छूट गए। 1824 ई. में महाराज ने पॉलिटिकल एजेन्ट की मध्यस्थता करने पर सरदारों के ठिकाणे लौटाने का वचन दिया।47 ऐसा ही वचन 1839 ई. में भी दिया पर लागू नहीं किया। सरकार ने भी महाराजा को स्पष्टतः कह दिया कि सरदारों को न्यायपूर्ण विद्रोह पर उनका कोई दायित्व नहीं होगा।48 इसी तरह 1868 ई में ए.जी.जी ने महाराज तरलसिंह को 1857 ई. के विद्रोह में शामिल सरदारों की जमीने लौटाने का निवेदन किया। जिस महाराजा ने नहीं माना।49 महाराजा जसवन्त सिंह द्वितीय के समय सर प्रताप ने ठिकाणेदारों के असंतोष को दूर करने के लिए एक समिति ‘‘कोर्ट ऑफ सरदार’’ गठित की। यह समिति ठिकाणेदारोंके परस्पर झगड़ो की देखभाल करती थी। इसके साथ ही ठिकाणेदारों के सिविल और आपराधिक अधिकारों को परिभाषित एवं वर्गीकृत किया गया। इसके बादसरदार राज्य के पक्के समर्थक बन गए।50
मारवाड़ राज्य पर अंग्रेजी संरक्षण का एक सुप्रभाव यह पड़ा कि अब व्यक्ति के शासन के स्थान पर कानून के शासन की अवधारणा को अमल में लाया जाने लगा।51 राज्य सरकार अब यह सुनिश्चित करती थी कि ठाकुर अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करके सामान्य जनता से अन्याय या उनके व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप न करें।52 अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने वाले ठिकाणेदारों को दण्ड-स्वरूप जुर्माना, कैद, अधिकार कम करना, ताजिम, कुरब इत्यादि छीन लिए जाते थे।53 स्पष्टतः ब्रिटिश शासन के दौरान ठिकाणेदारों की स्थिति का स्पष्ट अवमूल्यन हुआ।