Wednesday, 18 December 2013

CHAPTER 2




अध्याय - 2
पोकरण का आरंभिक इतिहास

पोकरण (पोहकरण) कब और किसके द्वारा बताया गया, इस बारे में कोई स्पष्ट साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। जनश्रुति है कि पोकरण पुष्करणा ब्राह्मणों के पूवजों पोकर (पोहकर)  ऋषि का बसाया हुआ है। एक कथा प्रचलित है कि जब श्री लक्ष्मीजी ओर श्री ठाकुर का विवाह सिद्धपुर में हुआ तब 45,000 श्रीमाली ओर 5000  पुष्करणा ब्राह्मण वहां एकत्रित हुए। विष्णु ने पहले श्रीमाली ब्राह्मणों की पूजा की इससे पुष्करणा ब्राह्मण वहां से नाराज होकर चले गए उन्होंने कहा कि आपने हमारा अपमान किया है विष्णु ने उनहें मनाने की बहुत कोशिश की जब वे नहीं माने तब विष्णु ओ लक्ष्मी जी ने उन्हें श्राप दिया -
वेद हीन हो
क्रिया भ्रष्ट हो।
निरजल देश बसो।
मान ही हो ।1
इसके पश्चात् पोकर ऋषि इस क्षेत्र में आकर बसे। उस समय यहां पानी उपलब्ध नहीं था। अतः उन्होंने वरूण की उपासना की। वरूण ने उन्हें प्रसनन होकर वर दिया कि एक कोस धरती में दस हाथ गहराई में पानी मिलेगा। आज भी आस-पास के अन्य क्षेत्र के अपेक्षा यहां अधिक जल मौजूद है।
पोकर ऋषि श्रीमाली ब्राह्मणों से अप्रसन्न था। उसने राक्षसी विद्या का प्रयोग कर श्रीमाली ब्राह्मणें के गर्भ में अवस्थित गर्भजात शिशुओं को मारना शुरू कर दिया इससे उनका वंश बढ़ना रूक गया। सभी श्रीमाली इकट्ठे होकर लक्ष्मी ओर विष्णु के पास पहुँचे और उन्हें अपनी चिन्ता बताई। अन्र्तयामी विष्णु ने उनकी शंका को उचित बताया। लक्ष्मी जी ने उनसे श्रीमालिसयों की सहायता करने का निवेदन किया। विष्णु श्रीमालियों को लेकर पोकरण आए। उन्होंने पुष्करणों को काफी प्रयत्न करके एकत्रित किया क्योंकि पुष्करणा विष्णु और उनके श्राप से नाराज थे। पुष्करणा ब्राह्मणों द्वारा विष्णु से श्राप से मुक्त करने और वर देने का निवेदन किया। विष्णु ने तब वर दिया -
वेद मत पढ़ो, वेद के अंग पुराणों को पढ़ो ।
राजकीय सम्मान हो।
तुम्हारी थोड़ी लक्ष्मी अधिक दिखेगी।
श्रीमाली लाखेश्वरी तुम्हारे आगे हाथ पसारेगी।
इस तरह विष्णु ने दोनों पक्षों में सुलह करवाई ।2
‘‘महाभारत’’  में भी पोकरण से सम्बन्धित संदर्भ प्राप्त हुए है। इसमें पोकरण के लिए पुष्करण या पुष्करारण्य नाम प्रयुक्त हुआ है; यहां के उत्सवसंकेत गणों को नकुल में दिग्विजय यात्रास के प्रसंग में हराया था।3 इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि पोकरण पश्चिमी राजस्थान के अत्यन्त प्राचीन नगरों में से एक है; इसके एक सहस्त्राबदी का पोकरण काइतिहास पूर्णतया अंधकारमय है।
सन् 1013 ई (वि.सं. 1070) का एक गुहिल स्तम्भ लेख हमें पोकरण के बालकनाथ मंदिर  से प्राप्त हुआ है।4 अवश्य ही यह पोकरण के आस-पास के क्षेत्र का कोई गुहिल शासक या अधीनस्थ शासक रहा होगा जिसने संभवतः म्लेच्छ महमूद गजनवी या अन्य मुस्लिम शासक के सैनिको द्वारा गायों के पकड लेने पर युद्ध किया और मृत्यु को प्राप्त हुआ।5 यह भी संभव है कि परमारों से हुए युद्ध में वह मारा गया हो क्योंकि इसी काल (17 जून 1013 ई.) का एक परमारकालीन अभिलेख6 भी पोकरण से ही प्राप्त हुआ है जिसमें परमार धनपाल ने अपने पिता की स्मृति में गोवर्द्धन स्तंभ का निर्माण करवाया था। धिन्धिक भी गुहिक शासक के समान गायों की रक्षा करते हुए मारा गया था। यह भी संभव है कि गुहिक शासक परमार धिन्धिक की मदद के लिए आया हो और दोनो ही वीरगति को प्राप्त हुए हो। इस विषय में न तो अभिलेख ओर न ही कोई अन्य समकालीन स्त्रोत कोई जानकारी दे पाए है। किन्तु यह अवश्यक कहा जा सकता है कि इस काल में पोकरण क्षेत्र में परमार अथवा पंवार काफी सक्रिय थे। वर्तमान जैसलमेर के माड क्षेत्र भाटी विजयराव चूडाला के पुत्र देवराज के बाल्काल की घटना से इस पर प्रकाश पडता है।
भाटी विजयराव जिसका काला 1000 ई (1057 वि.सं.)7 के लगभग का है ने अपने पुत्र देवराज का पाणिग्रहण बीठोडे़ (संभवतः भटिण्डा) के वराह शाखा के पंवारों से किया। देवराज की अवस्था उस समय पांच वर्ष थी। कन्या का नाम हूरड़ था। विवाह की दावत के समय वराहों तथा झालों ने पूर्व नियोजित षडयंत्र के अनुसार भाटियों की बारात पर अचानक आक्रमण कर दिया। आक्रमण करने की वजह यह थी कि विजयराव चूड़ाला की बढती शक्ति से वराह पंवार आतंकित थे तथा अपनी सम्प्रभुता के लिए खतरा मानते थे। इस आक्रमण में विजयराव अपने 750 साथियों के साथ मारा गया। घाटा डाही की स्वामीभक्ति के कारण बालक देवराज के प्राण बच गए।8 एक रैबारी नेग अपनी दु्रतगति ऊंटनी पर बैठाकर पोकरण लाने में सफल रहा। संभवतः धाय डाही ने रेबारी नेग को देवराज सौपकर पोकरण पहुंचाने का निर्देश दिया था।
इतिहासविद मांगीलाल व्यास से वीठाड़े कागे भटिण्डा होने का अनुमान लगाया है।9 इसके विपरीत डाॅ. हुकुमसिंह भाटी ने इसे देरावर मना है।10 वास्तव में देरावत अधिक युक्तिासंगत प्रतीत होता है क्योंकि विजयराव चूड़राला का बडी बारात लेकर भटिण्डा जाना ओर देवराज का वहां से ऊंटनी से बचकर सकुशल पहुंच जाना अविश्वसनीय लगता है। वीठोड़ा देरावर या उसके आस-पास का ही कोई क्षेत्र रहा होगा।



CHAPTER 4



अध्याय - 4
सवाईसिंह की उपलब्धियाँ
सवाईसिंह का जन्म 1755 ई. (वि.सं. 1812 की भाद्रपद वदि 12) को हुआ और 1760 ई. (वि.सं. 1817 की भाद्रपद वदि 5) को वह पोकरण की गद्दी पर बैठा। उस समय उसकी आयु मात्र 5 वर्ष की थी।1 उसकी माता सूरजकँवर भटियाणी डागड़ी के नाहरखोत की पुत्री थी।2 ठिकाणे के फौजदार सूरजमल ने वहाँ अच्छा एवं सुदृढ़ प्रबन्ध किया हुआ था। सन् 1765 ई. (वि.सं. 1823) में कुछ सिंधी सिपाहियों ने पोकरण की सीमा में घुस कर रामदेवरा को लूटा और कई मनुष्यों और मवेशियों को पकड़ लिया। तत्पश्चात् उन्होने पोकरण की ओर रुख किया, किन्तु पोकरण का सुदृढ़ प्रबन्ध देखकर वे लौट गए।3 सन् 1766 ई. में वैष्णव धर्म स्वीकार करने के बाद महाराजा विजयसिंह की मनोवृŸिा में बदलाव आया। उसने पोकरण, नींबाज, रास के ठाकुरों के साथ सद्व्यवहार करने का विचार किया।4 एक खास रुक्का भिजवाकर ठा. सवाईसिंह को बुलवाया गया। उस समय उसकी आयु मात्र 11 वर्ष की थी। वह अपने घोड़ों और सुभटों के साथ दरबार में उपस्थित हुआ। इस अवसर पर सवाईसिंह के नाम से पोकरण का पट्टा बहाल कर दिया गया। प्रधानगी के दो गाँव मजल और दुनाड़ा जो ठा. देवीसिंह के समय जब्त किए गए थे, बहाल नहीं किए गए।5
मोहनसिंह ने कुछ अलग विवरण दिया है। सबलसिंह के मारे जाने के लगभग 9 माह बाद सवाईसिंह की माता उसे लेकर जोधपुर आई। महाराजा विजयसिंह का रोजाना सुबह गंगश्यामजी के मंदिर में दर्शन हेतु जाना होता था। भटियाणी वहाँ पहुँची। जब महाराजा दर्शन कर बाहर आए, उस समय भटियाणी ने अपने पुत्र सवाईसिंह को पोकरण की चाबियाँ देकर भेजा और कहलवाया कि ’’पोकरण के सबलसिंह के पुत्र चाबियाँ सहित आपकी सेवा में हाजिर है। चाबियाँ आप रख लें और इस बालक को मर्जी आवें तो छोड़े या मारें।’’ महाराजा विजयसिंह ने चाबियाँ वापस भिजवाई और कहलवाया कि पोकरण का समस्त प्रबन्ध राज्य की ओर से कर दिया जाएगा।6 किन्तु मूल स्त्रोत इस घटना का वर्णन नहीं करते हैं। 1774 ई. में महाराजा विजयसिंह के निकटस्थ व्यक्तियों ने आउवा के ठा. जैतसिंह को जोधपुर के किलें में बुलाकर जोधपुर किले में धोखे से मरवा दिया। इस घटना की जानकारी मिलने पर सवाईसिंह ने ठा. जैतसिंह का दाह संस्कार करवाया। ज्ञातव्य है कि ठा. देवीसिंह की षड़यंत्रपूर्ण हत्या के बाद इन्हीं ठा. जैतसिंह ने ठा. देवीसिंह का दाह संस्कार करवाया था। सन् 1775 ई. में महाराजा विजयसिंह के सुपुत्र जालिमसिंह के रुष्ट होकर उदयपुर चले जाने पर उसे मनाकर लाने के लिए ठा. सवाईसिंह, आसोप के महेशदास कूम्पावत और सिंघवी फतैहचन्द को भेजा गया। ये तीनों जालिमसिंह को मनाकर मेड़ता ले आए जहाँ विजयसिंह का पड़ाव था। 7
ठाकुर सवाईसिंह द्वारा टालपुरा मुसलमानो के विरूद्ध शौर्य प्रदर्शन:-
1780 ई. में मारवाड़़ की सीमा पर टालपुरा बालोच मुसलमानों का उपद्रव प्रारम्भ हुआ। इसकी सूचना मिलने पर महाराज ने मांडणोत हरनाथसिंह, पातावत मोहकमसिंह, बारहठ जोगीदास और सेवग थानू8 को प्रतिनिधि बनाकर चैबारी (चैवाबाद) भेजा। जब समझौता होने की आशा नहीं रही तब पहले तीन पुरूषों ने मिलकर टालपुरियों के सरदार बीजड़ को मार डाला। इस पर उसके अनुचरों ने उन तीनों को भी मार डाला। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि यह कार्य नवाब मियाँ अब्दुन्नबी की प्रार्थना पर ही किया गया था। इसी वजह से उसने इस कार्य की एवज में उमरकोट का अधिकार जोधपुर नरेश को सौंप दिया।9 इधर बींजड़ के पुत्रों को नवाब की मिली भगत का अंदेशा हो गया। वे नवाब के खिलाफ हो गए। अतः उसे सिंध छोड़कर कलात जाना पड़ा। कलात के अमीर के सहयोग से उसने 20,000 की सेना तैयार की और 20,000 सैनिक महाराजा विजयसिंह ने दिए। इस सेना में सिंघवी शिवचन्द, बनेचन्द्र, लोढ़ा सहसमल और ठा. सवाईसिंह प्रमुख व्यक्ति थे।10 चैबारी (चैवाबाद) के मोर्चे पर दोनों सेनां मिली। यहाँ पर मारवाड़़ के सरदारों ने नवाब के सरदार ताजखाँ को तुरन्त विद्रोहियों पर आक्रमण करने के लिए कहा, पर उसने यह कहकर मना कर दिया कि विरोधियों की आधी सेना के कल पहुँचने पर हम अगले दिन उन पर आक्रमण कर आर पार की लड़ाई लड़ेंगे। इस पर मारवाड़़ के सरदारों को ताजखाँ पर शक हुआ कि वह विरोधियों से निश्चित रूप से मिला हुआ है। अतः घिर जाने के भय से पुनः मारवाड़़ की ओर कूच करने का विचार करने लगे। उस रात चैवाबाद के बुर्ज पर पोकरण के आदमियों के पहरे की बारी थी। इसलिए पोकरण ठाकुर सवाईसिंह के 72 आदमी पहरे पर गए हुए थे। जब सेना ने रवाना होने का निश्चय किया। तो पोकरण ठाकुर ने अपने आदमियों को बुलाने भेजा। उन्होने यह कहते हुए मना कर दिया कि ’’आप सब को भागना था तो हमको पहरे पर क्यों भेजा ? हम तो पहरा पूरा करके ही आएंगे।“ मारवाड़़ की सेनाओं के चले जाने पर टालपुरा सेनानायक ने बुर्ज को घेर कर राजपूत सैनिकों से समर्पण कर लौट जाने के लिए कहा। पर उन्हांेने ऐसा नहींे करके 21 दिन युद्ध किया। बुर्ज में रखा सामान राशन, पानी खत्म होने जाने पर ऊँटों को मारकर और कालीमिर्च खाकर लड़ते रहै। गोला बारूद खत्म होने पर वे केसरिया बाना करके अपने तलवारों को लेकर दुश्मन की फौज पर झपट पड़े और सभी मारे गए। कुछ अन्य स्त्रोतों के अनुसार 72 में से 71 सैनिक मारे गए। यह लड़ाई 14 फरवरी, 1781 ई. को  हुई थी।11
चैबारी के इस उपरोक्त युद्ध में जोधपुर की सेना भाग गई थी। मुसाहिब शिवचन्द ने जोधपुर आकर ठा. सवाईसिंह के विषय में उलटी बात कही कि सवाईसिंह सिंधियों से मिल गया और लड़ाई में सक्रिय हिस्सेदारी नहीं की जिससे यह हार हुई। यह सुनकर महाराजा विजयसिंह ने बिना जाँच किए ठा. सवाईसिंह से नाराज हो गया और आज्ञापत्र लिख भेजा कि तुम वही,ं रहना। ठा. सवाईसिंह को आज्ञानुसार वही,ं रहना पड़ा। फिर सिंधियों से संधि प्रस्ताव होने पर सिंधियों के प्रतिष्ठित पुरुष जोधपुर आये और उनके साथ वार्तालाप हुआ। इस प्रतिनिधिमण्डल के एक व्यक्ति ने महाराजा विजयसिंह से कहा कि पोकरण के ठा. सवाईसिंह ने हमें बहुत हानि पहुँचाई और उसके भी बहुत से आदमी मारे गए। अगर अन्य सरदार भी इसी प्रकार के वीर होते तो ना मालूम हमारी क्या दशा होती। यदि सवाईसिंह नहीं होता तो हम अवश्य ही साँचोर का परगना ले लेते । तब महाराजा विजयसिंह ने अपने विश्वासपात्र व्यक्तियों को, जो उस युद्ध में शामिल थे, शपथ देकर पूछा तो उन्होनें सही बात कह दी।11 विजयसिंह को अपनी गलती का अहसास हुआ। ठा. सवाईसिंह को ससम्मान जोधपुर बुलाया गया। ठा. सवाईसिंह को 1781 ई. में शाही दरबार में प्रधानगी का सिरोपाव हुआ। इस कार्य के लिए वेतन स्वरूप (बधारे में) मजल और दुनाड़ा नामक गाँव दिए और पालकी मोतियों की कण्ठी, सिरपेच, तलवार और कटार आदि इनायत की।12

CHAPTER 5


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अध्याय - 5
सालमसिंह से भवानीसिंह तक का राजनीतिक इतिहास

30 मार्च, 1808 ई. को ठा. सवाईसिंह की मृत्यु के बाद 14 अप्रैल, 1808 ई. को सालमसिंह पोकरण का पट्टाधिकारी हुआ। उसका जन्म 1773 ई. (वि.स. 1830 की भाद्रपद बदी सप्तमी) को हुआ था। उस समय उसकी आयु 35 वर्ष थी।
सालमसिंह का विद्रोह-
अपने पिता सवाईसिंह की महाराजा मानसिंह के सहयोगी अमीरखां द्वारा षड्यंत्र पूर्वक हत्या किए जाने से सालमसिंह अत्यन्त व्यथित था। इधर गृह कलह से शांति मिलने के पश्चात मानसिंह ने फलौदी को विजित करने के लिए एक सेना भेजी। फलौदी के बीकानेरी हाकिम ने सहायता के लिए बीकानेर और पोकरण दोनों जगह कासीद भेजे। बीकानेर और पोकरण की सम्मिलित सेनाओं ने जोधपुर की सेना को पराजित करके खदेड़ दिया। दोेनों ही पक्षों के अनेक आदमी मारे गए और कई घायल हो गए।1 तब सिंघवी इन्द्रराज ने एक कड़ा पत्र लिखकर ठा. सालमसिंह को पोकरण लौट जाने की हिदायत दी । सालमसिंह ने भी जोधपुर की सेनाओं से अनावश्यक उलझने में हानि जानकर अपनी विरोधी मानोवृति त्याग दी। उसने जोधपुर सेना की वे तोपें और सामान जो पीछे छूट गए थे और जिन्हंे बीकानेर  की सेना लूट लेना चाहती थी, को एकत्रित करवा कर सुरक्षित रखवा दिया। बीकानेर के दीवान अमरचन्द को फलौदी का सुदृढ प्रबन्ध करता देख सालमसिंह ने उसे समझा बुझाकर फलौदी जोधुपर को सुपुर्द कर देने के लिए राजी करने के प्रयास प्रारम्भ किए। बीकानेर महाराजा सूरतसिंह को इस बात का आभास था कि गृह कलह से मुक्ति मिलने के बाद मानसिंह का अगला निशाना बीकानेर राज्य ही होगा। निःसंदेह जोधपुर राज्य के संसाधन बीकानेर राज्य से कहीं अधिक थे। फलौदी जोधपुर को सुपुर्द कर देने से भावी संघर्ष टलने की भी संभवना थी। अतः उसने बीकानेर के दीवान अमरचन्द और सालमसिंह की बात स्वीकार कर ली। ठा. सलामसिंह ने अपने कामदार हरियाढाणा के बुद्धसिंह को महामंदिर आयस देवनाथ के पास भेजा और कहलवाया कि बीकानेर राज्य फलौदी सुपुर्द कर देना चाहता है। अतः किसी व्यक्ति का सुपुर्दगी लेने के लिए भेजा जाय। आयस देवनाथ ने यह संदेश महाराजा तक पहुँचा दिए। महाराजा मानसिंह ने प्रसन्न होकर बुद्धसिंह को बुलाया। तत्पश्चात सिंघवी जसवंतराज को कुछ सेना देकर बुद्धसिंह के साथ भेजा। इनके फलौदी पहुँचने से पूर्व ही बीकानेर की सेना वहाँं से पलायन कर चुकी थी। इस अवसर पर वहाँं मौजूद सालमसिंह ने जोधपुर सेना की छूटी हुई तोपों आदि जो सामान इकटठा करवाकर रखा था, जसवंतराज के सुपुर्द किया।  इस प्रकार फलौदी पर महाराजा मानसिंह का दृढ अधिकार करवा कर सालमसिंह पोकरण लौट गया।2
आयस देवनाथ ने प्रसन्न होकर महाराजा मानसिंह से सालमसिंह को क्षमा दिलवाई। पूर्व के समान मजल और दुनाड़ा उसे फिर से दिलवा दिये। ठा. सालमसिंह ने भी पहले की तरह नियमानुसार रेख और बाब नामक कर राज्य को देते रहने और चाकरी में घोडे़ रखने का वचन दिया। तत्पश्चात् महाराजा ने उसके भाई बन्धुओं की जब्त की हुई जागीरें भी उन्हंे लौटा दी गई।3
महाराजा मानसिंह ने अक्टूबर 1808 ई. में बीकानेर4 और जून 1809 ई. में जयपुर के विरूद्ध सेना भेजकर उन्हंे संधि करने को और बाध्य किया और धौंकलसिंह का साथ नहीं देने का वचन दिया।5 जुलाई 1810 ई. महाराजा मानसिंह के निर्देशानुसार अमीर खां को मेवाड़ भेजा। अमीर खां ने वहाँं पहुँचकर लूटपाट करनी प्रारम्भ कर दी। महाराणा भीमसिंह के कर्मचारियों ने लूटपाट का कारण पूूछा। अमीर खां ने उन्हंे मानसिंह से कृष्णाकुमारी का विवाह करने को कहा । महाराणा ने इससे संबंधित एक खरीता मानसिंह को भेजा। पर मानसिंह ने यह कहकर विवाह करने से इंकार कर दिया कि भीमसिंह से मंगनी की हुई कन्या से वह विवाह नहीं कर सकता। उदयपुर पर आसन्न विपदा के समाधान के लिए महाराणा भीमसिंह ने अपने प्रधान सलूम्बर के राव के द्वारा राजकुमारी कृष्णाकुमारी को जुलाई 21, 1810 ई. को जहर दिलवा दिया। इस विष के प्रभाव से कृष्णकुमारी की मौत हो गई।6
कुछ अन्य स्त्रोतों में भिन्न विवरण मिलता है इनके अनुसार महाराणा भीमसिंह ने राजकुमारी कृष्णकुमारी की हत्या के चार प्रयास किए सर्वप्रथम महाराजकुमार ने दौलतसिंह को हत्या करने के लिए कहा किन्तु उसने इस जघन्य कृत्य को करने से मना कर दिया। फिर महाराणा अरीसिंह की पासवान के पुत्र जवानदास को भेजा गया। वह राजमहल में कटार लेकर प्रविष्ट भी हुआ पर मार नहीं सका। तत्पश्चात उसे तीन बार विष दिया गया पर यह घातक सिद्ध नहीं हुआ। अंत में उसे अत्यधिक मात्रा में विष दिया गया जिससे उसकी मृत्यु हो गई।7
1812 ई. मे सिराई जाति के लोगों ने जालौर प्रान्त में काफी उत्पात मचाया। राज्य की घोडि़यों और गोल गांव (जालौर) से नाथों के कई ऊँट जबरदस्ती पकड़ कर ले गया। ठा. सलिमसिंह के नाम एक खास रूक्का भिजवाकर सिराईयों के विरूद्ध गई राजकीय सेना को सहयोग देने को कहा गया। सालमसिंह ने अपने अनुज हिम्मतसिंह को चुने हुए राजपूत सैनिकों के साथ राजकीय सेना में शामिल होने के लिए भेजा। राजकीय कार्यवाही के फलस्वरूप सिराइयों ने आत्मसमर्पण कर दिया और लूटा  हुआ माल वापस लौटा दिया।8 इस सेवा के उपलक्ष में हिम्मतसिंह को सादड़ी इनायत हुई।
ठा. सालमसिंह इस दौरान जोधपुर की राजनीति के प्रति उपेक्षा भाव रखते हुए पोकरण में ही रहा। इधर जोधपुर में महाराजा मानसिंह पूर्णतः नाथ भक्ति में मग्न था। सता की बागड़ोर आयस देवनाथ और इन्द्रराज के हाथ में थी। इनके इस प्रभुत्व से मूहता अखैचन्द और मूहणोत ज्ञानमल ईष्र्या करते थें जिससे सम्पूर्ण राज्य में गुटबाजी और षड्यंत्र फैल गया। अमीर खां अपने आर्थिक स्वार्थ से प्रेरित होकर कभी एक तो कभी दूसरे गुट से मिल जाता था। अनेक बड़े सरदार आयस देवनाथ से नाराज हो गए। मूहता अखैचन्द, आउवा, आसोप के सरदारों, मानसिंह की चावड़ी रानी और युवराज छतरसिंह ने अमीर खां को धन देकर आयस देवनाथ और इन्द्रराज की हत्या का षडयंत्र किया। अमीर खां की आर्थिक मांग को इन्होंने टालने का प्रयास किया था जिससे अमीरखां इनसे पहले से ही नाराज था।9 10 अक्टूबर, 1815 ई. को उसने अपने लगभग 25 सैनिकों को इन्द्रराज व आयस देवनाथ के पास भेजा। उन्होंने खर्च का तकाजा किया। असंतुष्ट होने पर बंदूक की गोलियों से उनकी हत्या कर दी।10 व्यास सूरतनाथ और सरदारों ने महाराजा मानसिंह को शहर लूट लिए जाने का भय दिखाकर उन्हे सकुशल बाहर निकलने में सहायता दी।11 व्यास चतुर्भुज ने मानसिंह को एक कैदी की भांति नजरबंद कर लिया।12 अखैराज और सरदारों ने अमीरखां को लगभग 10 लाख देकर विदा किया।13 अब मारवाड़़ के प्रशासन पर अखैचन्द और उसके पक्ष के सरदारों का अधिकार स्थापित हो गया।14 
सालमसिंह की प्रधान पद पर नियुक्ति-

CHAPTER 6



अध्याय - 6
पोकरण ठिकाणे की प्रशासनिक एवं आर्थिक व्यवस्था
पोकरण, जोधपुर राज्य का एक बड़ा ठिकाणा था। मालानी के 1031 गांवों के पश्चात् पोकरण पट्टे के गांवों की संख्या सर्वाधिक 1002 थी। पोकरण ठिकाणा प्रशासनिक दृष्टि से जोधपुर परगने के अधीन था। इसके अधीन पोकरण के गांवों के अतिरिक्त साकड़ा3, जालोर4, सिवाणा5 और नागोर6 के गांव भी सम्मिलित रहे हैं। इस ठिकणांे के मूल गांवों की संख्या 1728 ई. में ठा. महासिंह के समय मात्र 727 थी, जो क्रमशः बढ़ते रहे। उसे प्रधानगी के दायित्व के निर्वाह हेतु मजल ओर दुनाडा नामक दो बड़े गांव दिए गए8। इस प्रकार कुल 74 गांव महासिंह के पास थे।9 ठा. देवीसिंह के समय यह संख्या बढ़कर 82 गांव हो गई। ठा. देवीसिंह की राजकीय सेवकों द्वारा हत्या करने पर उसके पुत्र सबलसिंह ने विद्रोह किया। सबलसिंह की आकस्मिक मृत्यु के बाद वृद्धि किए गए गांव वापस ले लिए गए। 1767 ई. में ठा. सवाईसिंह के समय (मजल, दुनाडा रहित)10 पट्टे के कुल गांवों की संख्या 72 थी। 1808 ई. में ठा. सवाईसिंह की मृत्यु के बाद उसके पुत्र सालम सिंह को 84 गांव (मजल, दुनाडा सहित) का पट्टा हुआ।11 1823 ई. में ठा. सालमसिंह के स्वर्गवास के समय उसके कोई पुत्र नहीं होने के कारण पोकरण का पट्टा जब्त हुआ और पोकरण को प्रबंध के लिए सरदारमल सिंघवी के सुपुर्द किया गया। 1825 ई. को उसके गोद आए पुत्र बभूतसिंह के नाम पोकरण का पट्टा बहाल हुआ जिसमें मजल दुनाडा सहित 94 गांव थे।12 1840 ई. में सिवाणा के गांव करमावास, बीनावास पट्टे में तो नहीं लिखे गए किन्तु उनकी पैदाइश उसे देने के आदेश दिए गए।13 कुछ और भी गांव उसे प्रदान किए गए। ठा. मंगलसिंह के समय कुल 100 गांव थे।14
पोकरण के 100 गांव जो गढ़ जोधपुर के अधीन थे, एक क्षेत्र. विशेष में नहीं होकर बिखरे हुए थे। ठा. चैनसिंह अवध के ताल्लुकदार भी थे।15 इतने बडे़ क्षेत्र में प्रशासनिक सुव्यवस्था के लिए कर्मचारियों की एक फौज नियुक्त थी। पोकरण के ठाकुरों के पास जोधपुर राज्य की प्रधानगी होने के कारण वे ठिकाणा की ओर कम ही ध्यान दे पाते थे।16 उन्हें  ठिकाणे में रहने का मौका कम हीं मिल पाता था। पोकरण के ठिकाणेदारों की जोधपुर के महाराजाओं से नाराजगी की अवस्था में ये ठिकाणेदार लंबे समय तक अपने ठिकाणों में रहे। ठा. देवीसिंह महाराजा विजयसिंह से नाराजगी के चलते कुछ वर्ष पोकरण रहा, ठा. सवाईसिंह पहले अपनी बाल्यवस्था के कारण और बाद में महाराजा मानसिंह से उŸाराधिकार के मुद्दे पर मनमुटाव के कारण पोकरण रहा, ठा. सालमसिंह ने एक लंबे समय तक दरबार की गतिविधियों के प्रति उपेक्षा भाव रखा और पोकरण में ही रहा। ठा. बभूतसिंह भी राजदरबार की गुटबाजी के कारण महाराजा तख्तसिंह के शासनकाल में अधिकांशतः अपने ठिकाणें में ही रहा। उसने अपनी प्रशासनिक प्रतिभा का इस्तेमाल अपने ठिकाणे में किया और राजस्व प्राप्तियों को बढाया। उसके प्रशासन की प्रशंसा अंग्रेज पोलिटिकल एजेण्ट कर्नल कीटिंग और स्वयं महाराजा तख्तसिंह ने भी जैसलमेर विवाह हेतु जाते समय पोकरण पड़ाव के समय की।17 किन्तु उसके अधिक समय तक जोधपुर से बाहर रहने के कारण प्रधानपद की शक्ति और अधिकारों का क्षय हो गया। इस पद के कार्य अब किलेदार और दीवान में बंट गए।18 ठा. बभूतसिंह के उŸाराधिकारियों को प्रधानगी का सिरोपाव देने के विवरण हमें नहीं मिलते है। अब इन्हंे किसी कौंसिल का सदस्य या मंत्री बनाया जाने लगा।19 किन्तु दरबार में आसन ग्रहण करने और महाराजा को नजर करने सम्बन्धी प्राथमिकता उन्हें पूर्व के समान मिलती रही।
पोकरण की प्रशासनिक संरचना
ठिकाणेदार - पोकरण खास और पट्टे के गांवों के प्रशासन में पोकरण में ठिकाणेदारों का सर्वोच्च सोपान था। वे अपने ठिकाणे में एक अर्द्ध-स्वतंत्र शासक की तरह कार्य करते थे। ठिकाणे की प्रशासनिक व्यवस्था वास्तव में राज्य प्रशसन व्यवस्था का ही लघु रूप था।20 उसकी अपने ठिकाणे में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना करने की जिम्मेदारी थी। इस उद्देश्य की प्राप्ति करने के लिए उसे अधीनस्थ कर्मचारियों की नियुक्ति का अधिकार था। उसके अधीन पोकरण जमीयत की फौज थी।21 उसे पुलिस और प्रथम दर्जे के न्यायिक अधिकार प्राप्त थे।22 ठिकाणे के आर्थिक प्रशासन भी उसे के जिम्मे था तथा राजदरबार को समय-समय पर रेख-चाकरी, हुकुमनामा एवम् अन्यकरों का भुगतान करने की जिम्मेदारी थी। पोकरण के ठिकाणेदार मारवाड़़ राज्य के प्रधान थे। इस कारण उनके पास राज्य के सभी पदाधिकारियों से सम्बन्धित विवरण रहता था, जैसे कि सरदारों को दिए जाने वाले पट्टे के गावों का विवरण, रेख की मात्रा, कुल प्राप्तियाँ, हुकुमनामा इत्यादि। उसकी अनुशंसा पर महाराज उŸाराधिकार प्राप्त सरदार को हुकुमनामे में रियायत प्रदान करता था। इस सेवा के प्रतिफल में उसे प्रति पट्टेदार प्रतिवर्ष एक रूपया मिलता था।23 अपने ठिकाणे के प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए वह आवश्यकता के अनुसार प्रधान, कामदार, फौजदार, मुसाहिब, वकील, दरोगा, कोठारी, तहसीलदार आदि कर्मचारियों की नियुक्ति करता था।
प्रधान - पोकरण जैसे बड़े ठिकाणे में प्रधान की नियुक्ति की जाती थी। उनके कार्य मुख्यः सामान्य प्रशासन सम्बन्धी थे। बीकानेर री ख्यात में पोकरण के प्रधान भायल जीवराज का विवरण मिलता है जिसने पोकरण जमीयत की सेना और बीकानेर की सेना के संयुक्त अभियान द्वारा 1807 ई. में फलोदी पर बीकानेर का अधिकार करवा दिया।24

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CHAPTER 7


अध्याय - 7
 समाज और धर्म
सामाजिक संरचना - 
पोकरण मारवाड़ की रियासत की पश्चिमी  सीमा पर जैसलमेर की सीमा से सटा हुआ मरूस्थलीय ठिकाणा था। पवित्र भूमि रामदेवरा के संत बाबा रामदेव की कर्मभूमि पोकरण में उनकी शिक्षाओं के अनुकूल सामाजिक सद्भाव की झलक दिखाई देती थी। विभिन्न धर्म सम्प्रदायों की उपस्थिति के बावजूद यहां कभी भी साम्प्रदायिक विरोध उत्पन्न नहीं हुआ। ठिकाणा पोकरण में हिन्दुओं का जनसंख्या अनुपात सर्वाधिक रहा है। हिन्दू समाज चार वर्णो में बंटा था। यह वर्ण आगे अनेक जातियों में विभक्त था। ब्राह्मणों का स्थान वर्णो में सर्वोच्च था किन्तु शक्ति और संसाधन राजपूतों के पास रहे। पुष्करणा ब्राह्मण स्वयं को पोकरण के स्थापनकर्ता मानते रहे है। श्रीमाली ब्राह्मणों का आगमन बाद में हुआ। साकलद्विपीय ब्राह्मण (भोजक) या सेवक ब्राह्मण काफी बाद में पाकिस्तानी क्षेत्र में आए थे तथा मुख्यतः मंदिरों में पूजा कर्म ही करते रहे है। व्यास, बिस्सा, जोशी, त्रिवेदी, पल्लीवाल, सेवक इत्यादि ब्राह्मण कुल पोकरण में रहते हैं। राजपूतों में राठौड़ो में चाम्पावत राठौड़, पोकरणा राठौड़, जयसिंघोत राठौड़, नरावत राठौड़, भाटियों में जसोड़, जैसा, रावलोत, केलण इत्यादि भाटी, तंवर, पंवार, देवड़ा (बिलिया) आदि राजपूतों कुलों का यहां निवास है। प्रारंभ में परमार, पंवार, प्रतिहार जैसे राजपूतों कुलों की विद्यमता के भी साक्ष्य मिले हैं किन्तु ये राजपूत कुल यहां से पलायन कर गए। किंवदन्ती है कि पोकरण रामदेवजी ने बसाया था जो स्वयं तंवर राजपूत थे। उनके वंशज आज भी रामदेवरा में पूजा-कर्म करते हैं। बीठलदासोत चांपावत राठौड़ों को पोकरण का पट्टा दिए जाने से पूर्व इस क्षेत्र में पोकरणा राठौड़ों का वर्चस्व रहा। कालान्तर में नरावत राठौड़ो ने छल से पोकरण क्षेत्र इनसे हस्तगत कर लिया। लगभग 90 वर्षों तक जैसलमेर के भाटी शासकों का पोकरण पर अधिकार रहा जिससे बडी संख्या में भाटी राजपूत यहां बस गए। पोकरणा राठौड़ और भाटी राजपूत इस क्षेत्र में लूटपाट के लिए कुख्यात रहे हैं।
पोकरण में वैश्य समुदाय आबादी में सदैव  सर्वाधिक रहे। इससे पता चलता है कि पोकरण की  बसावट से ही आर्थिक दृष्टि से यह शहर महत्वशील रहा है। वैश्य वर्ण में माहेश्वरियों की संख्या सर्वाधिक रही। भूतड़ा, राठी, चाण्डक इत्यादि माहेश्वरी कुलों की संख्या अधिक रही। यह माना जाता है कि माहेश्वरी जाति के लोग पूर्व में क्षत्रिय वर्ण से थे किन्तु वणिक कर्म अपनाए जाने के कारण वैश्य वर्ण में परिगणित हुए। बाद में खान-पान में इन्होंने निरामिष को अपना लिया। भूतड़ा माहेश्वरी समुदाय पोकरण में सबसे पहले आकर बसा हुआ माना जाता है। पोकरण के समीप खींवज माता का मंदिर, जो भूतड़ा माहेश्वरियों की कुलदेवी है पर स्थापना तिथि वि.सं. 1028 (971 ई.) अंकित है। इससे उपरोक्त तथ्य की पुष्टि की जा सकती है। भैरव राक्षस भूतड़ा कुल का माहेश्वरी माना जाता था। पोकरण ठिकाणे को इन वणिक वर्णों से पर्याप्त धन राशि करों के रूप में प्राप्त होती थी। जन्म-विवाह इत्यादि समारोह के अवसर पर इस समुदाय से चिरा के रूप में अच्छी खासी रकम प्राप्त होती थी।1 माहेश्वरियों द्वारा पूर्तकर्म करने के उद्देश्य से प्याऊ, तालाब, मंदिर इत्यादि बनवाए। ओसवाल वैश्य देश की आजादी के समय बड़ी संख्या में यहां से पलायन कर गए।
चतुर्थ वर्ण में माली, बुनकर, चाकर (रावणा राजपूत), दर्जी, जाट, सुनार, तेली, स्यामी (स्वामी), मोची, नाई, कुम्हार, धोबी इत्यादि आते थे। कुछ स्थानीय लोगों की यह मान्यता है कि पोकरण पोकर माली का स्थान था। पहले यहां माली और मोची रहा करते थे। एक दिन संयोग से एक राजपूत यहां पहुंचा। मालियों ने उसे अपनी सुरक्षा के लिए उसे रूकने को कहा तथा उसके लिए एक कोठरी बनवा दी। उस कोठरी के निकट एक रात्रि एक सिंह ने एक बकरी के बच्चे का भक्षण करना चाहा। बकरी ने जबरदस्त संघर्ष करते हुए सिंह के इस प्रयास को विफल कर दिया। तदुपरान्त घटना वाले स्थल को पवित्र भूमि समझ कर वहां एक पोल बनवा कर चारदीवारी बनवाई गई। पोकरण का पुराना मुख्य द्वार इसी स्थान पर निर्मित किया हुआ बताया जाता है। 

CHAPTER 8



अध्याय - 8


पोकरण शासको का सांस्कृतिक क्षेत्र में योगदान
पोकरण का किला
पोकरण का किला पश्चिमी राजस्थान के प्राचीनतम किलों में से एक है। जोधपुर और जैसलमेर राज्य की सीमा पर अवस्थित होने के कारण यह सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था। इसी वजह से यह दुर्ग दोनांे राज्यों के मध्य संघर्ष का बड़ा कारण बना। लगभग 90 वर्षों को छोड़कर यह किला जोधपुर राज्य के अधीन रहा। अल्पकाल के लिए यह राव मालदेव के समय सुल्तान शेरशाह सूरी के समय दिल्ली सल्तनत के अधीन रहा जिसने राव मालदेव का पीछा करते हुए पोकरण पर अधिकार किया और अपना एक थाना यहां स्थापित किया। कुछ समय के लिए यहाँ मुगलवंशी औरंगजेब का भी अधिकार रहा।
पोकरण के किले का निर्माण किसने और कब करवाया, इससे जुडे़ अनेक मिथक प्रचलित हंै। किन्तु इस बात को लेकर सर्वसम्मति है कि पोकरण किला का जो वर्तमान स्वरूप है, वह इसकी स्थापना के समय ऐसा नहीं रहा होगा। पोकरण किले का वर्तमान स्वरूप एक क्रमिक प्रक्रिया रही होगी। पोकरण किले का इतिहास का पता लगाने से पूर्व हमें पोकरण कस्बे या शहर का इतिहास खंगालना होगा।
पोकरण की विशिष्ट भौगोलिक परिस्थिति यथा निम्न भूमि, जल की उपलब्धता, यहां की मिट्टी की भिन्न प्रकृति, मरू बालूका मिट्टी से भिन्न ललाई लिए हुए है। मिट्टी के टीबों की अनुपस्थिति चारों और चट्टानी क्षेत्र से निर्मित छोटा अपवाह तंत्र इत्यादि लक्षणों के कारण यहां निश्चित ही प्राचीन बसावट रही होगी। प्राचीन काल और मध्यकाल में दूसरे स्थानों की अपेक्षा यहां जल की उपलब्धता अवश्य ही काफी अच्छी थी। जोधपुर के राव सूजा के पुत्र नरा जिसे फलौदी प्राप्त थी, पोकरण की जल उपलब्धता की वजह से ही यहां अधिकार करने हेतु प्रेरित हुआ।1 स्पष्ट है कि आबादी बसावट के लिए यहां की परिस्थितियाँ   अनुकूल थी।
श्री विजयेन्द्र कुमार माथुर ने पोकरण को महाभारतकालीन पुष्कराराण्य नगर माना जहां उत्सवसंकेत गण रहा करते थे। इस मान्यता की स्वीकृति से पोकरण का इतिहास ईसा से कई शताब्दी पूर्व चला जाता है। उस काल में भी लोग प्रशासनिक केन्द्र के रूप मंे दुर्ग या गढि़या बनाया करते थे। अतः पोकरण में किला महाभारत काल में ही बन गया होगा। श्री विजयेन्द्र कुमार माथुर ने श्री हरप्रसाद शास्त्री को उद्घृत किया जिनके अनुसार महरौली (दिल्ली) के प्रसिद्ध लौह स्तम्भ का चन्द्र वर्मा और समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति का चन्द्र वर्मा एवं मंदसौर अभिलेख (404-05 ई.) का चन्द्रवर्मा यहीं का शासक था।2 जब शासक था तो उसका प्रशासनिक केन्द्र दुर्ग भी अवश्य ही रहा होगा। पोकरण से प्राप्त 1013 ई. के अभिलेख से इस क्षेत्र में पहले गुहिलों और फिर परमारों के वर्चस्व की ओर इशारा करते हैं।3 इसके बाद लगभग तीन शताब्दी से भी अधिक समय तक यहां परमारों का राज रहा। निश्चित रूप से परमारों के समय यहां कोई गढ़ या छोटी गढ़ी  रही होगी। उस काल में परमारों द्वारा पश्चिमी राजस्थान में दुर्ग श्रृंखला बनाए जाने के निश्चित प्रमाण मिलते हैं। कालान्तर में पंवार पुरूरवा ने नानग छाबडा को गोद लिया जिससे पोकरण में छाबड़ा वंश का शासन प्रारंभ हुआ।
मुहता नैणसी जनश्रुति के आधार पर भैरव राक्षस द्वारा छाबड़ा वंशी शासक महिध्वल को पकड़ कर मार डालने का वर्णन करता है। यह घटना तेरहवीं शताब्दी के प्रारंभ की रही होगी। इस घटना के बाद पोकरण भैरव राक्षस के भय से उजड़ गया। कालान्तर में तेरहवीं शताब्दी के चैथे पांचवे दशक में तंवर अजमाल जी ने राव मल्लिनाथ जी से पोकरण बसाने की स्वीकृति ली। उन्होंने पंवारों (परमार) के दुर्ग में आश्रय लेकर पोकरण पुनः बसाने की स्वीकृति ली। पंवारों (परमार) के दुर्ग में आश्रय लेकर पोकरण पुनः बसाने के प्रयास प्रारंभ किये। इसी दौरान अपनी किशोरावस्था में (लोककथाओं के अनुसार) अजमाल तंवर के पुत्र रामदेव ने भैरव राक्षस को पराजित कर सिन्ध भगा दिया। संभवतः अजमाल जी, वीरमदेव जी तथा रामदेवजी द्वारा दुर्ग का पुनर्निमाण करवाया गया। कुछ समय पश्चात् तंवरों ने अपने वंश की एक कन्या राव मल्लिनाथ के पौत्र हमीर जगपालोत (पोकरणा राठौड़ों के आदि पुरुष) से ब्याही। विवाह के पश्चात् रामदेव जी ने कन्या से कुछ मांगने के लिए कहा। हमीर जगपालोत के कहे अनुसार उसने गढ़ के कंगूरे मांग लिए। रामदेवजी ने उदारता पूर्वक इसे स्वीकार कर लिया जिससे पोकरण गढ़ पर राव हम्मीर का अधिकार हो गया। कालान्तर में जोधपुर के शासक राव सूजा के पुत्र नरा ने छल से पोकरण दुर्ग पर अधिकार कर लिया। उसने पोकरण से कुछ दूर पहाड़ी पर किला बनाकर सातलमेर बसाया। पोकरण गढ़ पर अपना अधिकार रखा किन्तु आबादी को सातलमेर स्थानान्तरित कर दिया। 1503 ई. के लगभग पोकरणा राठौड़ों से हुए युद्ध में नरा वीरगति को प्राप्त हुआ जिससे पोकरण-सातलमेर दुर्गों पर पोकरणा राठौड़ों का अधिकार हो गया। यह अधिकार अल्पकालिक स्थापित हुआ। क्योंकि जोधपुर के राव सूजा ने उन्हें परास्त कर खदेड़ दिया। कालान्तर में 1550 ई. में राव मालदेव ने पोकरण सातलमेर दुर्गों पर अधिकार कर लिया। उसने सातलमेर के दुर्ग को नष्ट कर दिया तथा पोकरण के पुराने गढ़ का पुनर्निर्माण करके उसे सुदृढ़ स्वरूप दिया।4 सातलमेर गढ़ के पत्थरों को मेड़ता भिजवाकर मालकोट बनवाया।5 कुछ वर्षों बाद जब मारवाड़ पर मुगल प्रभुत्व स्थापित  हो गया तब राव चन्द्रसेन ने एक लाख फदिये में पोकरण दुर्ग और उससे लगे क्षेत्र जैसलमेर के भाटियों को गिरवी रूप में दे दिए। अनन्तर 100 वर्षों के बाद महाराजा जसवंतसिंह के समय मुहता नैणसी के नेतृत्व में आई एक सेना ने पोकरण पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार पोकरण दुर्ग पर प्रभुत्व बदलता रहा और अन्ततः स्थायी रूप से आजादी तक जोधपुर राज्य के स्वामित्व में रहा। महाराज अजीतसिंह के समय जब मारवाड़ पर मुगल प्रभुत्व स्थापित हुआ था, पोकरण में एक थाना स्थापित किया गया। महाराजा अभयसिंह के समय पोकरण के नरावत राठौड़ों के विद्रोह करने पर बीठलदासोत चांपावत महासिंह को यह दुर्ग और इससे लगे 72 गांव पट्टे में दिए गए। ठा. सवाईसिंह के समय दुर्ग का कुछ हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया, तब महाराज विजयसिंह ने राजकीय खजाने से इस दुर्ग का पुनर्निर्माण करवाया। 19 वीं शताब्दी में ठा. मंगलसिंह ने दुर्ग के अन्दर की एक पुरानी इमारत को गिरवाकर आधुनिक स्थापत्य विशेषताओं का समन्वय करके मंगल निवास बनवाया।

REFERENCES LIST

संदर्भ गं्रथ सूची

ठिकाणा पोकरण संग्रह, पोकरण किला -
1. ठिकाणा पोकरण का इतिहास, क्रम संख्या अंकित नहीं है।
2. प्रधानगी बही संख्या 1901 से 1931 भादों तक।
3. प्रधानगी बही (सं. 1859 से 1906), क्रम संख्या अंकित नहीं है।
4. रामदेवजी रे मेले री बही, क्रम संख्या अंकित नहीं है।
5. कोठार बही (सं. 1992), क्र.सं.1

6. रोकड़ बही (सं. 1872 से 74), क्र. सं. 2
7. चेरा (चेहरा) बही (सं 1907से 09), क्र.सं.3
8. सूड री बही (सं.-1896-97), क्र.स. 4
9. कपड़े री बही (सं.1874), क्र.स. 5
10. गहणा कपड़ा री बही (सं.1871), क्र.स. 6
11. वीरमदेव रे मतेला बही (सं.1880 से 1883), क्र.स. 7
12. साथ रे रसोडा रो चैपनियां (सं.1983), क्र.स. 8
13. तोशाखाना री बही (सं. 1864), क्र.स. 9
14. तोशाखाना बही (सं. 1889), क्र.स. 11
15. अमल री बही (सं.-1892 सं 1895), क्र.स. 10
16. मांसवारा री बही (सं.-1985), क्र.स. 12
17. रोजनावा री बहीं (सं.1981), क्र.स. 13
18. सूड री बही (सं.-1895-1996), क्र.स. 15
19. अनरे कोठार से जमा खर्च री बही (सं. 1953), क्र.स. 16
20. खाताबही (सं. 1923), क्र.सं. 17
21. दाण बही (सं.-1953, 1954), क्र.स. 20
22. स्टाम्प पाना जमा खर्च री बही (सं.1932), क्र.सं. 21
23. भंवर जी जनमियाँ जिण री बही (सं.-1967), क्र.स. 22
24. माली नरसींगा सूरज आवे तीको री बही (सं.1992), क्र.सं. 23
25. पोकरण कचेडी तालके स्टाम्पों रे बिक्री रो चैपनियाँ, (सं.1929), क्र.सं. 24
26. चेरां री बही (सैनिक) (सं.1924, 1941), क्र.स. 29, 30
27. महाजन चेरा बही (सं. 1909), क्र.स. 31
28. चेरा की कबूलायत री बही (सं. 1936), क्र.स. 32
29. जोधपुर री बही (सं.1845), क्र.सं.24, क्षतिग्रस्त
30. जमा बन्दी री बही (सं. 1889), क्र.स. 35
31. पेट्रोल स्टाॅक खाता, क्र.सं. 36
32. जूणी बहियों का खात (सं. 1960), क्र.स. 38
33. जमाबन्दी (सं.-1927-28) क्र.स. 44
34. खास पोकरण री जमाबन्दी (सं. 1991), क्र.स. 45
35. कासा साड़ी वगैरा री बही (सं.-1932, 1928), क्र.स. 46, 48
36. चिरा री बही (सं.-1889, 1923, 1928 से 1935), क्र.स. 49, 50,51 क्रमशः
37. नैतो री बही (सं.-1967), क्र.स. 52
38. वैक्सीनेटर री बही (सं. 1961, 1972), क्र.स. 53, 54
39. जन्म उत्सव री बही (सं.1945), क्र.स. 55
40. साण्डियाँ (टोले) री बही (सं. 1945 से 1966), क्र.स. 56
41. टोले व हाजरी री बही (सं. 1960से 1983), क्र.स. 57
42. नेता, चिरा री बही (सं. 1949से 1954), क्र.स. 58
43. कबुलायत री बही (सं. 1957), क्र.स. 59
44. घेणा री बही (सं. 1972), क्र.स. 60
45. कून्ता री बही (सं.1971, 1972), क्र.स. 61
46. गांव रे दांण री बही (सं.-1903-13, 1926), क्र.स. 62, 63, क्रमशः
47. सेड़ा री बही (सं. 1907), क्र.सं. 64
48. हथौड़े री बही (सं.-1952), क्र.स. 65
49. गांवो रे थाणा तालके री बही (सं. 1871 से 1891), क्र.सं. 66
50. दांण री बही (सं.1861), क्र.सं. 67
51. थाणा तारलके री बही (सं. 1929), क्र.स.69
52. उनालू साख री बही (सं. 1973), क्र.स. 71
53. सावा बही (सं. 2003), क्र.स. 80
54. रकम री खसरा बही (सं. 1985), क्र.स. 81
55. थाणा खारा (सं.2003), क्र.स. 84
56. मेल बही (सं. 1992), क्र.स. 103
57. मुकाता बही (सं. 1980 से 85), क्र.स. 114
58. धड़ा री बही (सं. 1981), क्र.स. 115
59. श्री रावले मांध्यला नांवा री बही (सं. 1873 से 1875), क्र.स. 122
60. चंवरी लाग मुआवरी री बही (सं.1953), क्र.स. 122
61. मुकाता सावा री बही (सं. 1954), क्र.स. 143
62. लेख री बही (सं. 1885), क्र.स. 150
63. बावडियों रे मुकाते वगैरहा (सं.1966 से 1975), क्र.स. 151
64. बही मामलात पोते बही (सं. 1986), क्र.सं.156 क्षतिग्रस्त
65. नुघ री बही (सं. 1902-15), क्र.स. 159
66. भवानी सिंह रे ब्याव रो जमा खर्च (सं. 1985), क्र.स. 334
67. धान भराई री बही  (सं.-1994), क्र.स. 471
68. कमठा री बही (सं. 1943), क्र.स. 483
69. थोणा बही (सं. 1985 से 1992), क्र.स. 493
70. खासा कोठार री बही (सं. 1996), क्र.स. 496
71. फुटकर खरीद री बही (सं. 1998), क्र.स. 497
72. मुतफरकात री बही (सं. 2003), क्र.स. 500
73. चराई तालके री बही (सं.-1997), क्र.स. 502
74. हथोड़ा लाग री बही (सं. 2001), क्र.स. 503
75. दसरावा री लागत (सं. 1980), क्र.स. 504
76. फैरेस्त री बही (सं. 1936), क्र.स. 505
77. रसोडों व कठोर रही बही (सं. 1950), क्र.स. 508
78. जमाबन्दी व आमदनी खाता (सं. 1896 से 1941), क्र.स. 562, क्षतिग्रस्त
79. खरीद री बही (सं. 1990 से 1993), क्र.स. 574
80. थाणा रे मेल री बही (सं. 2003), क्र.स. 654
81. रामदेवरा रे मजार री बही (सं. 1924), क्र.स. 654
82. तबेले तालके री बही (सं. 2007), क्र.स. 1301, क्षतिग्रस्त
83. ब्याव तालके री बही (सं. 1989), क्र.सं. 1301, क्षतिग्रस्त
84. अदालत री बही-पोकरण ठिकाणा (सं. 1955), क्र.सं. 1373
85. कपड़ा री बही (सं.-1867 से 1871), क्र.स. 1443
86. श्री रामदेव रे मेला री बही (सं.-1923), क्र.स. 1487
87. बाइसा रे विवाह री बही (सं.-1988), क्र.स. 1503
88. किशोर कंवर से ब्याव री बहीं (सं.-1993), क्र.स. 1502
89. ब्याह में कंेवर साब रे माल खरीद री बही (सं. 1985), क्र.स. 1504
90. ब्याह री बही (सं. 1988), क्र.स. 1505
91. कुतर मशीन तालके री बही (सं. 1942), क्र.स. 1507
92. आटे री चक्की तालके, क्र.सं. 1518
93. निजराणे रो चैपनियाँ (सं. 1952), क्र.सं. 1523
94. बही भांटां री (सं. 1949), क्र.स. 1528
95. देवल बणायो जिण रो चैपनियों (सं. 1985), क्र.स. 1531
96. देवल तालके जमा खर्च रो चैपनियो (सं. 1985-1988), क्र.स. 1532
97. बाजार रो चैपनियों (सं.-1970, 71), क्र.स. 1535, 36
98. रतन खां गुजरिया जिण री बही (सं. 1988), क्र.सं. 1534
99. बारेह दिनों में खर्च री बही (सं.-1933 से 1938), क्र.स. 1538
100. ठाकुरों व ठकुरानियों ने बारे में दिनों के खर्चों री बही (सं.-1934 से 1937, 1941 ), क्र.स. 1540, 1541
101. सकर खर्च तालके री बहीं, क्र.सं. 1547
102. कपड़ा रौ चैपनियों (सं. 1877से 1879) क्र.सं. 1548
103. रामदेव री कोटडी में तिबारी बनाई, तिण रो चैपनियों (सं. 1990), क्र.सं. 1549
104. ब्याह री बही (सं. 1985), क्र.सं. 1551
105. इण्डियन इयर बुक एण्ड डूज हू 1945 (रिप्रिन्ट)
राजस्थान  अभिलेखागार जोधपुर (हुजुरी दफ्तर रिकाॅर्ड)
1. सनद बही, (सं. 1943 री मिति बदी 2) क्र.सं. 2483 
2. हकीकत बही, (सं. 1914) क्र.सं. 2637 
3. चाम्पावतों का पट्टा बही (सं. 1808 से 1867), क्र.सं. 67
4. ओहदा बही (सं. 1860 से 1905), क्र.सं. 61
5. घोड़ा नजर री बही (सं. 1952), क्र.सं. 58
6. बही आॅफ क्लानवाइज जागीर इस्टेट्स (सं. 1808 से 1848), क्र.सं. 2573
7. बही आॅफ खास रूक्का परवाना, खास रूक्का, क्र.सं. 2575
8. खांपवार बेतलबी रो खातो, क्र.सं. 2476
9. हुकुमनामा न्योत नजराना री बही, क्र.सं. 2567
10. रूक्का बही, क्र.सं. 2623, 2624
11. रेख रूकां री बही, क्र.सं. 2640, 2686
12. परगनावार में खांपवार जागीरां रो खातो, क्र. 2686
13. कैफियत रूक्का बही (सं. 1941), क्र.सं. 250, 251
लाइब्रेरी बुकस
1. विलेज रिंकस्ट्रक्शन बाय ठाकुर मंगल सिंह (1918-19), क्र.सं. 42
2. दी लाज एण्ड प्रिसिपलस आॅफ सक्सेशनस टू जागीर लैण्डस् इन मारवाड़ क्र.सं. 1534
राजस्थान राज्य अभिलेखागार,  बीकानेर (दस्तरी रिकाॅर्ड)
1. हकीकत रजिस्टर नंबर 69, 67, 62
2. खास रूक्का परवाना बही, नंबर 2, 4, 22
3. हकीकत बही नंबर 9, 18, 44, 38, 43, 12, 13, 55, 42, 44, 56, 39, 48, 40, 54, 41, 59, 49
4. खरीता बही नंबर 12, 14
5. हकीकत खाता रजिस्टर, नंबर 42
6. सनद बही, नंबर 54, 98, 59
7. हथबही, नंबर 5
8. हकीकत खाता बही, नंबर 3
9. चांपावतों की ख्यात, फाइल नंबर 27/101
राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर
1. ठाकुर देवीसिंह री झमाल, गं्रथांक-15654 (5) पत्र संत्र 85 से 102
2. महकमां तवारीख री मिसलां, क्र.सं. 126, ग्रंथ 15662
3. राव चन्द्रसेन री ख्यात, गं्र. सं. 1632
4. महाराज रामसिंह री ख्यात (भण्डारी फौजचन्द जी री तवारीख री नकल), गं्रथांक - 15656 (3)
5. महाराजा भीमसिंह री ख्यात गं्रथांक 15645
अखबार - राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली 
1. फाॅरेन पाॅलिटिकल   जनवरी 29, 1807 नंबर 32
2. फाॅरेन पाॅलिटिकल सितम्बर 01, 1807 नंबर 6 अ
3. फाॅरेन पाॅलिटिकल सितम्बर 08, 1807 नंबर 6 अ
4. फाॅरेन पाॅलिटिकल जुलाई, 29 , 1828 नंबर 24
5. फाॅरेन पाॅलिटिकल सितम्बर 9, 1818 नंबर 13-14
6. फाॅरेन पाॅलिटिकल दिसम्बर 08 1821 नंबर 42-43
7. फाॅरेन पाॅलिटिकल मार्च 31,  1821 नंबर 13-14
8. फाॅरेन पाॅलिटिकल अगस्त 26, 1820 नंबर 29-30
9. फाॅरेन पाॅलिटिकल सितम्बर 23, 1820 नंबर 6-8
10. फाॅरेन पाॅलिटिकल जुलाई 4, 1824 नंबर 7
11. फाॅरेन पाॅलिटिकल फरवरी 25, 1825 नंबर 8 ओर 9
12. फाॅरेन पाॅलिटिकल मइ 5, 1825, नंबर 10
13. फाॅरेन पाॅलिटिकल : सितम्बर 28, 1827 नंबर 10
14. फाॅरेन पाॅलिटिकल अक्टूबर 12, 1827 नंबर 11
15. फाॅरेन पाॅलिटिकल जुलाई 29, 1838, नंबर 15
16. फाॅरेन पाॅलिटिकल अगस्त 8, 1828 नंबर 24से 26
17. फाॅरेन पाॅलिटिकल मार्च 6, 1834 नंबर 16 से18
18. फाॅरेन पाॅलिटिकल अप्रेल 24, 1834 नंबर 27 से 28
19. फाॅरेन पाॅलिटिकल फरवरी 19, 1834 नंबर 33 से 35
20. फाॅरेन पाॅलिटिकल नवम्बर 18, 1845 नंबर 186
21. दी गारजीयन अगस्त 27, 1931
22. पाॅलिटिकल कन्सलटेशन फरवरी 5, 1807 नंबर 127
23. पाॅलिटिकल कन्सलटेशन फरवरी 12, 1807 नंबर 96
24. पाॅलिटिकल कन्सलटेशन फरवरी 26, 1807 नंबर 26, 28,29
25. पाॅलिटिकल कन्सलटेशन मई 7, 1807, नंबर 22
26. पाॅलिटिकल कन्सलटेशन सितम्बर 01, 1807 नंबर 6 अ 14 अ
27. पाॅलिटिकल कन्सलटेशन सितम्बर 08, 1807 नंबर 13 अ
28. सिक्रेट कन्सलटेशन जनवरी 19, 1807 नंबर 3
प्रकाशित गं्रथ - 
हिन्दी गं्रथ
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2. बदरी प्रसाद साकरिया, मुहता नैणसी री ख्यात, भाग प्रथम, साकरिया द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर 1967
3. बलदेव प्रसाद मिश्र, जवाला प्रसाद मिश्र एवम् रायमुंशी देवी प्रसाद  (अनुवाद एवम् सम्पादन) जेम्स टाॅड कृत जोधपुर का इतिहास,  यूनिक ट्रेडर्स, जयपुर 1998
4. बलदेव प्रसाद मिश्र, जवाला प्रसाद मिश्र एवम् रायमुशी देवी प्रसाद (अनुवाद एवम् सम्पादन) जेम्स टाॅड कृत जोधपुर का इतिहास, यूनिक ट्रेडर्स, जयपुर 1998, रायमुंशी देवी प्रसाद
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8. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, प्रथम, द्वितीय  खण्ड व्यास एण्ड सन्स, अजमेर, वि.सं. 1998
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21. एस. के. शर्मा, मारवाड  एण्ड इट्स पोलिटिकल एडमिनिटस्ट्रेशन दीप एण्ड दीप पब्लिकेशन प्रा. लि. थ्.139ए राजोरी गार्डन, नई दिल्ली, 2000
22. उदयराज माथुर, सेन्सस आॅफ मारवाड़ स्टेट 1891, गर्वमेण्ट आॅफ इण्डिया, 1891
23. विश्वेवर नाथ रेऊ, ग्लोरीज आॅफ मारवाड एण्ड दी ग्लोरियस राठौड़, आर्कियालोजीकल डिपार्टमेन्ट, जोधपुर, 1943।
पत्र-पत्रिकाएं -
1. परम्परा, राजस्थान शोध संस्थान, चैपासनी जोधपुर।
2. शोध पत्रिका, साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, जयपुर।
3. स्मारिका, शक्ति स्थल पोकरण
4. विश्वम्भरा, हिन्दी विश्व भारती अनुसंधान परिषद् बीकानेर 
5. मज्झमिका,  प्रताप शोध प्रतिष्ठान उदयपुर । 
6. राजस्थान हिस्ट्री कांग्रेस 
7. अखिल भारतीय हिस्ट्री कांग्रेस 
8. वरदा, बिसाऊ, बीकानेर 
9. राजस्थान भारती