अध्याय - 7
समाज और धर्म
सामाजिक संरचना -
पोकरण मारवाड़ की रियासत की पश्चिमी सीमा पर जैसलमेर की सीमा से सटा हुआ मरूस्थलीय ठिकाणा था। पवित्र भूमि रामदेवरा के संत बाबा रामदेव की कर्मभूमि पोकरण में उनकी शिक्षाओं के अनुकूल सामाजिक सद्भाव की झलक दिखाई देती थी। विभिन्न धर्म सम्प्रदायों की उपस्थिति के बावजूद यहां कभी भी साम्प्रदायिक विरोध उत्पन्न नहीं हुआ। ठिकाणा पोकरण में हिन्दुओं का जनसंख्या अनुपात सर्वाधिक रहा है। हिन्दू समाज चार वर्णो में बंटा था। यह वर्ण आगे अनेक जातियों में विभक्त था। ब्राह्मणों का स्थान वर्णो में सर्वोच्च था किन्तु शक्ति और संसाधन राजपूतों के पास रहे। पुष्करणा ब्राह्मण स्वयं को पोकरण के स्थापनकर्ता मानते रहे है। श्रीमाली ब्राह्मणों का आगमन बाद में हुआ। साकलद्विपीय ब्राह्मण (भोजक) या सेवक ब्राह्मण काफी बाद में पाकिस्तानी क्षेत्र में आए थे तथा मुख्यतः मंदिरों में पूजा कर्म ही करते रहे है। व्यास, बिस्सा, जोशी, त्रिवेदी, पल्लीवाल, सेवक इत्यादि ब्राह्मण कुल पोकरण में रहते हैं। राजपूतों में राठौड़ो में चाम्पावत राठौड़, पोकरणा राठौड़, जयसिंघोत राठौड़, नरावत राठौड़, भाटियों में जसोड़, जैसा, रावलोत, केलण इत्यादि भाटी, तंवर, पंवार, देवड़ा (बिलिया) आदि राजपूतों कुलों का यहां निवास है। प्रारंभ में परमार, पंवार, प्रतिहार जैसे राजपूतों कुलों की विद्यमता के भी साक्ष्य मिले हैं किन्तु ये राजपूत कुल यहां से पलायन कर गए। किंवदन्ती है कि पोकरण रामदेवजी ने बसाया था जो स्वयं तंवर राजपूत थे। उनके वंशज आज भी रामदेवरा में पूजा-कर्म करते हैं। बीठलदासोत चांपावत राठौड़ों को पोकरण का पट्टा दिए जाने से पूर्व इस क्षेत्र में पोकरणा राठौड़ों का वर्चस्व रहा। कालान्तर में नरावत राठौड़ो ने छल से पोकरण क्षेत्र इनसे हस्तगत कर लिया। लगभग 90 वर्षों तक जैसलमेर के भाटी शासकों का पोकरण पर अधिकार रहा जिससे बडी संख्या में भाटी राजपूत यहां बस गए। पोकरणा राठौड़ और भाटी राजपूत इस क्षेत्र में लूटपाट के लिए कुख्यात रहे हैं।
पोकरण में वैश्य समुदाय आबादी में सदैव सर्वाधिक रहे। इससे पता चलता है कि पोकरण की बसावट से ही आर्थिक दृष्टि से यह शहर महत्वशील रहा है। वैश्य वर्ण में माहेश्वरियों की संख्या सर्वाधिक रही। भूतड़ा, राठी, चाण्डक इत्यादि माहेश्वरी कुलों की संख्या अधिक रही। यह माना जाता है कि माहेश्वरी जाति के लोग पूर्व में क्षत्रिय वर्ण से थे किन्तु वणिक कर्म अपनाए जाने के कारण वैश्य वर्ण में परिगणित हुए। बाद में खान-पान में इन्होंने निरामिष को अपना लिया। भूतड़ा माहेश्वरी समुदाय पोकरण में सबसे पहले आकर बसा हुआ माना जाता है। पोकरण के समीप खींवज माता का मंदिर, जो भूतड़ा माहेश्वरियों की कुलदेवी है पर स्थापना तिथि वि.सं. 1028 (971 ई.) अंकित है। इससे उपरोक्त तथ्य की पुष्टि की जा सकती है। भैरव राक्षस भूतड़ा कुल का माहेश्वरी माना जाता था। पोकरण ठिकाणे को इन वणिक वर्णों से पर्याप्त धन राशि करों के रूप में प्राप्त होती थी। जन्म-विवाह इत्यादि समारोह के अवसर पर इस समुदाय से चिरा के रूप में अच्छी खासी रकम प्राप्त होती थी।1 माहेश्वरियों द्वारा पूर्तकर्म करने के उद्देश्य से प्याऊ, तालाब, मंदिर इत्यादि बनवाए। ओसवाल वैश्य देश की आजादी के समय बड़ी संख्या में यहां से पलायन कर गए।
चतुर्थ वर्ण में माली, बुनकर, चाकर (रावणा राजपूत), दर्जी, जाट, सुनार, तेली, स्यामी (स्वामी), मोची, नाई, कुम्हार, धोबी इत्यादि आते थे। कुछ स्थानीय लोगों की यह मान्यता है कि पोकरण पोकर माली का स्थान था। पहले यहां माली और मोची रहा करते थे। एक दिन संयोग से एक राजपूत यहां पहुंचा। मालियों ने उसे अपनी सुरक्षा के लिए उसे रूकने को कहा तथा उसके लिए एक कोठरी बनवा दी। उस कोठरी के निकट एक रात्रि एक सिंह ने एक बकरी के बच्चे का भक्षण करना चाहा। बकरी ने जबरदस्त संघर्ष करते हुए सिंह के इस प्रयास को विफल कर दिया। तदुपरान्त घटना वाले स्थल को पवित्र भूमि समझ कर वहां एक पोल बनवा कर चारदीवारी बनवाई गई। पोकरण का पुराना मुख्य द्वार इसी स्थान पर निर्मित किया हुआ बताया जाता है।
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