अध्याय - 1 पोकरण: एक परिचय
पोकरण का शब्दार्थ -
पुष्करणा ब्राह्मणों के पूर्वक पोकर (पोहरक) ऋषि द्वारा बसाए जाने के कारण इस स्थान का नाम पोकरण पड़ा।1 आज भी यहां बड़ी संख्या में पुष्करणा ब्राह्मण निवास करते हैं। स्थानीय लोगों की मान्यता है कि इस क्षेत्र में 18 पोखर (पहाडि़याँ) और एक रण (नमक की झील) थी इसलिए यह क्षेत्र पोकरण कहलाया।
भौगोलिक स्थिति -
पोकरण शहर 26.55‘ उŸार और 71.55‘ पूर्व में स्थिति है। यह जोधपुर शहर के 85 मील (180 किमी.) उŸार-पूर्व की ओर स्थित है। पोकरण शहर निम्न भूमि की ओर स्थित है तथा उŸा दक्षिण और पश्चिम की ओर पर्वतों से घिरा है। जलीय संसाधन अच्छी मात्रा में है।2 पोकरण का भौगोलिक क्षेत्रफल 9,61,354 (9517.08 वर्ग कि.मी) है।3
सीमा -
पोकरण वर्तमान में जैसलमेर जिले का भाग है तथा तहसील मुख्यालय है। आजादी से पूर्व यह जोधपुर रियासत का एक महŸवपूर्ण भाग रहा । पोकरण और उसके आस-पास का क्षेत्र थेरडा नाम से भी जाना जाता है।
जलवायु -
पोकरण की जलवायु विषम है। शीतकाल में अधिक शीत और उष्ण काल में अधिक उष्ण है। रेतीली मिट्टी के कारण गर्मियों में रात्रि ठण्डी होती है जबकि दिन काफी गरम होते है। गमियों के दिनों में पूरे इलाके में लू चला करती है। आंधियाँ सामान्य बात है। रेत और गर्म हवा के लघु चक्रवात (र्भभूल्या) गर्मियों के दिनों की सामान्य विशेषता है।
पोकरण में वर्षा शेष भारत या राजस्थान के तुलना में काफी कम है। औसत वार्षिक वर्षा 218 मि.मी. है जबकि इस वर्ष 2005 में वर्षा मात्र 142 मि.मी रही ।4
जनसंख्या -
ठा. मंगलसिंह के समय में पोकरण खास की कुल जनसंख्या 7314 थी, पुरुष 3618 एवं औरते 3696 थी। कुल आबाद घर 1633 थे। पोकरण की जनसंख्या 1901 ई. में मात्र 7,125 थी।5
कृषि-
पोकरण शुष्क क्षेत्र में आता है। निम्नभूमि में अवस्थित होने के कारण पीने के पानी की तो पर्याप्त उपलब्धता है किन्तु कृषि कार्य की दृष्टि से जल अपर्याप्त है। कृषि कार्य के लिए कृषक मानसून की वर्षा या मावट (महावट) पर निर्भर थे। सामान्यतया खरीफ की फसल की उपजाई जाती थी। पोकरण के ठाकुरों को लगभग 100 गांवों का जागीर पट्टा प्राप्त था किन्तु अकाल जल की कम उपलब्धता, खारा पानी तथा भूमि की कम उत्पादकता के कारण उन्हें भूमि पट्टे अन्य स्थानों पर भी ईनायत किए गए जैसे कि सिवाणा, जालौर इत्यादि।6
अस्पताल एवं स्वास्थ्य केन्द्र -
आजादी से पूर्व पोकरण में एक डिस्पेंसरी हुआ करती थी। इस डिस्पेंसरी का व्यय एवं रख-रखाव पोकरण के ठाकुर के जिम्मे था। 7 पोकरण में एक पोस्ट आफिस भी था।
ठिकाणे का अर्थ और इतिहास
राजस्थान के राजपूत शासको ने प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण की नीति को अपनाते हुए एक विशिष्ट सामन्तवादी पद्धति को अपनाया। राजपूत शासकों ने अपने राज्य के अधिकांश हिस्सो को अपने ही स्वगोत्रीय वंशज भाई-बन्धुओं में बांट दिया। ये लोग विभिन्न तरीकों से राजकार्य चलाने में शासन को अपना महत्वपूर्ण सहयोग दिया करते थे।9 शासको द्वारा अपने भाई-बन्धुओं और कृपापात्रां को दिए गए भाई-बन्धुओं और कृपापात्रों को दिए गए भू-क्षेत्रों जो कुछ गांवों का समूह होता था, को ही ‘ठिकाणा’10 कहा गया है।
पुराने ऐतिहासिक स्त्रोतों में ठिकाणा शब्द प्रयुक्त नहीे किया गया है। ठिकाणा शब्द के स्थान पर हमें दूसरे शब्द प्राप्त होते हैं जैसे कि गांव, राजधान, बसी, उतन व वतन, कदीम इत्यादि। इन शब्दों के अर्थ में भी अन्तर है। कुछ बहियो और ख्यातों यथा महाराणा राजसिंह की पट्टा-बही, जोधपुर हुकुमत री बही, मुदियाड़ री ख्यात, जोधपुर राज्य की ख्यात इत्यादि में जागीर के लिए ‘गांव’ शब्द का प्रयोग किया गया है। कालान्तर में महाराणा भीमसिंह कालीन जागीरदारों के गांव पट्टा हकीकत में जागीर के मुख्य गांव के लिए राजधान शब्द प्रयुक्त हुआ है। वहीं नैणसी की ख्यात में और बांकीदास री ख्यात में ‘बसी’ शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका तात्पर्य है ‘परिवार सहित बसना’। ‘कदीम’ शब्द का उल्लेख किसी जाति विशेष के एक क्षेत्र पर परम्परागत था पैतृक अधिकार के संदर्भ में किया है11 जैसे कि ‘जैसलमेर भाटियों का कदीम वतन है’।12 फारसी शब्द ‘वतन’ के राजस्थान स्वरूप ‘उतन’ का भी प्रयाग कुछ गं्रथों में हुआ है। यह शब्द भी स्थायी पैतृक अधिकार का बोध कराता है। मुगलकालीन स्त्रोतो में ‘वतन’ शब्द का काफी प्रयोग हुआ है।13
‘ठिकाणा’ शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख 17वीं शताब्दी के उŸारार्द्ध में लिखित उदयपुर के ऐतिहासिक ग्रंथ ‘‘रावल राणाजी की बात’’ में हुआ है।14 दयालदास कृत देशदर्पण तथा बांकीदास की ख्यात में कालान्तर में इस शब्द का प्रयोग हुआ है। धीरे-धीरे यह शब्द आम प्रचलन में आ गया ‘‘ठिकाणा’’ शब्द राजस्थान, बसी, कदीम, वतन या उतन से अधिक विस्तृत है तथा अर्थ में उपरोक्त शब्दों से भिन्नता भी रखता है। ठिकाणा एक शासन द्वारा सामान्यतया अपने भाई-बन्धुओं को दिया गया, वह अहस्तान्तरणीय पैतृक भू-क्षेत्र या जागीर पट्टे का वह मुख्य गांव था। जिसमें ठिकाणे को प्राप्त करने वाला सरदार अपने परिवार सहित कोट, कोटडि़यों या हवेली में निवास करता था। जागीर पट्टे के सभी गांवों का शासन प्रबंध एवं संचालन इसी प्रशासनिक केन्द्र से किया जाता था तथा इससे राज्य का सीधा संबंध होता था। चारणों और ब्राह्मणों को दिए गए गांव (डोली व सांसण) सामान्यतया इस श्रेणी में नहीं आते थे।15
ठिकाणे के स्वामी ठाकुर, धणी, जागीरदार, सामन्त या ठिकाणेदार इत्यादि नामों से भी जाने जाते हैं। ठिकाणे के संचालन को ठकुराई कहा जाता है। प्राचीन ऐतिहासिक गं्रथों में इस शब्द का प्रयोग किया गया है।16
ठिकाणा व्यवस्था का विकास
राजस्थान में ठिकाणा पद्धति का उदय कब और किस प्रकार हुआ। इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है। संभवतः राजपूत राज्यों की उत्पŸिा के साथ ही यह पद्धति स्थापित हो गई थी। यह पद्धति का संबंध सैनिक व्यवस्था और संगठन के साथ था। राज्य के महत्वपूर्ण और विश्वसनीय पद स्वकुलीय सरदारों को दिए जाते थे। युद्ध के अवसर पर सरदार अपने राज्य की सहायता करते थे। उनमें यह भावना निहित थी कि वे अपनी पैतृक सम्पŸिा की सामूहिक रूप से रक्षा करने हेतु ऐसा कर रहे है।17 इन सरदारों के जीवन-यापन के लिए उन्हें भू-क्षेत्र दिए जाते थे। महाराजा अभयसिंह के शासन काल में मारवाड़ में जागीर शब्द का प्रचलन नहीं था। अतः जागीर को सनद के रूप में प्रदान किया जाता था। इसे गांव देना या पट्टा देना कहते थे। कालान्तर में इसके लिए ‘जागीर-पट्टे’ शब्द का प्रचलन सामान्य हो गया। जब ये पट्टे पैतृक स्थिति प्राप्त कर लेते तो जागीर पट्टे का क्षेत्र ठिकाणे की श्रेणी में आ जाता था।
यदि किसी अन्य वंश में पूर्व शासक के अधिकांश क्षेत्र पर अधिकार कर लिया हो तो पूर्व शासक के पास बचा क्षेत्र ठिकाणे के रूप में विकसित हो जाता था जैसे कि जालोरा में सेणा ठिकाणा। शासकों द्वारा अपने पुत्रों को दिए गए पट्टे के गांव भी ठिकाणे की श्रेणी में आ जाते थे। इसी तरह भाई-बंट के आधार पर विभाजित भू-भाग भी ठिकाणे का स्तर प्राप्त कर लेते थे जैसे कि नगर व गुड़ा ठिकाणे इसके अतिरिक्त शासक भी अपने सरदारों द्वारा दी गई विशिष्ट सेवाओं के प्रतिफल में कुछ गांव ठिकाणे के रूप् में दे देता था। शासक द्वारा नाराज हो जाने पर या गंभीर अपराध करने ठिकाणा जब्त भी कर लिया जाता था। ठिकाणे पुनः आवंटित करने से पूर्व पेशकसी वसूली की जाती थी। ठिकाणेदारों को अपने क्षेत्र से सम्बन्धित प्रशासनिक-आर्थिक एवं न्यायिक अधिकार दिए जाते थे।19
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