सालमसिंह से भवानीसिंह तक का राजनीतिक इतिहास
30 मार्च, 1808 ई. को ठा. सवाईसिंह की मृत्यु के बाद 14 अप्रैल, 1808 ई. को सालमसिंह पोकरण का पट्टाधिकारी हुआ। उसका जन्म 1773 ई. (वि.स. 1830 की भाद्रपद बदी सप्तमी) को हुआ था। उस समय उसकी आयु 35 वर्ष थी।
सालमसिंह का विद्रोह-
अपने पिता सवाईसिंह की महाराजा मानसिंह के सहयोगी अमीरखां द्वारा षड्यंत्र पूर्वक हत्या किए जाने से सालमसिंह अत्यन्त व्यथित था। इधर गृह कलह से शांति मिलने के पश्चात मानसिंह ने फलौदी को विजित करने के लिए एक सेना भेजी। फलौदी के बीकानेरी हाकिम ने सहायता के लिए बीकानेर और पोकरण दोनों जगह कासीद भेजे। बीकानेर और पोकरण की सम्मिलित सेनाओं ने जोधपुर की सेना को पराजित करके खदेड़ दिया। दोेनों ही पक्षों के अनेक आदमी मारे गए और कई घायल हो गए।1 तब सिंघवी इन्द्रराज ने एक कड़ा पत्र लिखकर ठा. सालमसिंह को पोकरण लौट जाने की हिदायत दी । सालमसिंह ने भी जोधपुर की सेनाओं से अनावश्यक उलझने में हानि जानकर अपनी विरोधी मानोवृति त्याग दी। उसने जोधपुर सेना की वे तोपें और सामान जो पीछे छूट गए थे और जिन्हंे बीकानेर की सेना लूट लेना चाहती थी, को एकत्रित करवा कर सुरक्षित रखवा दिया। बीकानेर के दीवान अमरचन्द को फलौदी का सुदृढ प्रबन्ध करता देख सालमसिंह ने उसे समझा बुझाकर फलौदी जोधुपर को सुपुर्द कर देने के लिए राजी करने के प्रयास प्रारम्भ किए। बीकानेर महाराजा सूरतसिंह को इस बात का आभास था कि गृह कलह से मुक्ति मिलने के बाद मानसिंह का अगला निशाना बीकानेर राज्य ही होगा। निःसंदेह जोधपुर राज्य के संसाधन बीकानेर राज्य से कहीं अधिक थे। फलौदी जोधपुर को सुपुर्द कर देने से भावी संघर्ष टलने की भी संभवना थी। अतः उसने बीकानेर के दीवान अमरचन्द और सालमसिंह की बात स्वीकार कर ली। ठा. सलामसिंह ने अपने कामदार हरियाढाणा के बुद्धसिंह को महामंदिर आयस देवनाथ के पास भेजा और कहलवाया कि बीकानेर राज्य फलौदी सुपुर्द कर देना चाहता है। अतः किसी व्यक्ति का सुपुर्दगी लेने के लिए भेजा जाय। आयस देवनाथ ने यह संदेश महाराजा तक पहुँचा दिए। महाराजा मानसिंह ने प्रसन्न होकर बुद्धसिंह को बुलाया। तत्पश्चात सिंघवी जसवंतराज को कुछ सेना देकर बुद्धसिंह के साथ भेजा। इनके फलौदी पहुँचने से पूर्व ही बीकानेर की सेना वहाँं से पलायन कर चुकी थी। इस अवसर पर वहाँं मौजूद सालमसिंह ने जोधपुर सेना की छूटी हुई तोपों आदि जो सामान इकटठा करवाकर रखा था, जसवंतराज के सुपुर्द किया। इस प्रकार फलौदी पर महाराजा मानसिंह का दृढ अधिकार करवा कर सालमसिंह पोकरण लौट गया।2
आयस देवनाथ ने प्रसन्न होकर महाराजा मानसिंह से सालमसिंह को क्षमा दिलवाई। पूर्व के समान मजल और दुनाड़ा उसे फिर से दिलवा दिये। ठा. सालमसिंह ने भी पहले की तरह नियमानुसार रेख और बाब नामक कर राज्य को देते रहने और चाकरी में घोडे़ रखने का वचन दिया। तत्पश्चात् महाराजा ने उसके भाई बन्धुओं की जब्त की हुई जागीरें भी उन्हंे लौटा दी गई।3
महाराजा मानसिंह ने अक्टूबर 1808 ई. में बीकानेर4 और जून 1809 ई. में जयपुर के विरूद्ध सेना भेजकर उन्हंे संधि करने को और बाध्य किया और धौंकलसिंह का साथ नहीं देने का वचन दिया।5 जुलाई 1810 ई. महाराजा मानसिंह के निर्देशानुसार अमीर खां को मेवाड़ भेजा। अमीर खां ने वहाँं पहुँचकर लूटपाट करनी प्रारम्भ कर दी। महाराणा भीमसिंह के कर्मचारियों ने लूटपाट का कारण पूूछा। अमीर खां ने उन्हंे मानसिंह से कृष्णाकुमारी का विवाह करने को कहा । महाराणा ने इससे संबंधित एक खरीता मानसिंह को भेजा। पर मानसिंह ने यह कहकर विवाह करने से इंकार कर दिया कि भीमसिंह से मंगनी की हुई कन्या से वह विवाह नहीं कर सकता। उदयपुर पर आसन्न विपदा के समाधान के लिए महाराणा भीमसिंह ने अपने प्रधान सलूम्बर के राव के द्वारा राजकुमारी कृष्णाकुमारी को जुलाई 21, 1810 ई. को जहर दिलवा दिया। इस विष के प्रभाव से कृष्णकुमारी की मौत हो गई।6
कुछ अन्य स्त्रोतों में भिन्न विवरण मिलता है इनके अनुसार महाराणा भीमसिंह ने राजकुमारी कृष्णकुमारी की हत्या के चार प्रयास किए सर्वप्रथम महाराजकुमार ने दौलतसिंह को हत्या करने के लिए कहा किन्तु उसने इस जघन्य कृत्य को करने से मना कर दिया। फिर महाराणा अरीसिंह की पासवान के पुत्र जवानदास को भेजा गया। वह राजमहल में कटार लेकर प्रविष्ट भी हुआ पर मार नहीं सका। तत्पश्चात उसे तीन बार विष दिया गया पर यह घातक सिद्ध नहीं हुआ। अंत में उसे अत्यधिक मात्रा में विष दिया गया जिससे उसकी मृत्यु हो गई।7
1812 ई. मे सिराई जाति के लोगों ने जालौर प्रान्त में काफी उत्पात मचाया। राज्य की घोडि़यों और गोल गांव (जालौर) से नाथों के कई ऊँट जबरदस्ती पकड़ कर ले गया। ठा. सलिमसिंह के नाम एक खास रूक्का भिजवाकर सिराईयों के विरूद्ध गई राजकीय सेना को सहयोग देने को कहा गया। सालमसिंह ने अपने अनुज हिम्मतसिंह को चुने हुए राजपूत सैनिकों के साथ राजकीय सेना में शामिल होने के लिए भेजा। राजकीय कार्यवाही के फलस्वरूप सिराइयों ने आत्मसमर्पण कर दिया और लूटा हुआ माल वापस लौटा दिया।8 इस सेवा के उपलक्ष में हिम्मतसिंह को सादड़ी इनायत हुई।
ठा. सालमसिंह इस दौरान जोधपुर की राजनीति के प्रति उपेक्षा भाव रखते हुए पोकरण में ही रहा। इधर जोधपुर में महाराजा मानसिंह पूर्णतः नाथ भक्ति में मग्न था। सता की बागड़ोर आयस देवनाथ और इन्द्रराज के हाथ में थी। इनके इस प्रभुत्व से मूहता अखैचन्द और मूहणोत ज्ञानमल ईष्र्या करते थें जिससे सम्पूर्ण राज्य में गुटबाजी और षड्यंत्र फैल गया। अमीर खां अपने आर्थिक स्वार्थ से प्रेरित होकर कभी एक तो कभी दूसरे गुट से मिल जाता था। अनेक बड़े सरदार आयस देवनाथ से नाराज हो गए। मूहता अखैचन्द, आउवा, आसोप के सरदारों, मानसिंह की चावड़ी रानी और युवराज छतरसिंह ने अमीर खां को धन देकर आयस देवनाथ और इन्द्रराज की हत्या का षडयंत्र किया। अमीर खां की आर्थिक मांग को इन्होंने टालने का प्रयास किया था जिससे अमीरखां इनसे पहले से ही नाराज था।9 10 अक्टूबर, 1815 ई. को उसने अपने लगभग 25 सैनिकों को इन्द्रराज व आयस देवनाथ के पास भेजा। उन्होंने खर्च का तकाजा किया। असंतुष्ट होने पर बंदूक की गोलियों से उनकी हत्या कर दी।10 व्यास सूरतनाथ और सरदारों ने महाराजा मानसिंह को शहर लूट लिए जाने का भय दिखाकर उन्हे सकुशल बाहर निकलने में सहायता दी।11 व्यास चतुर्भुज ने मानसिंह को एक कैदी की भांति नजरबंद कर लिया।12 अखैराज और सरदारों ने अमीरखां को लगभग 10 लाख देकर विदा किया।13 अब मारवाड़़ के प्रशासन पर अखैचन्द और उसके पक्ष के सरदारों का अधिकार स्थापित हो गया।14
सालमसिंह की प्रधान पद पर नियुक्ति-
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