Wednesday, 18 December 2013

CHAPTER 4



अध्याय - 4
सवाईसिंह की उपलब्धियाँ
सवाईसिंह का जन्म 1755 ई. (वि.सं. 1812 की भाद्रपद वदि 12) को हुआ और 1760 ई. (वि.सं. 1817 की भाद्रपद वदि 5) को वह पोकरण की गद्दी पर बैठा। उस समय उसकी आयु मात्र 5 वर्ष की थी।1 उसकी माता सूरजकँवर भटियाणी डागड़ी के नाहरखोत की पुत्री थी।2 ठिकाणे के फौजदार सूरजमल ने वहाँ अच्छा एवं सुदृढ़ प्रबन्ध किया हुआ था। सन् 1765 ई. (वि.सं. 1823) में कुछ सिंधी सिपाहियों ने पोकरण की सीमा में घुस कर रामदेवरा को लूटा और कई मनुष्यों और मवेशियों को पकड़ लिया। तत्पश्चात् उन्होने पोकरण की ओर रुख किया, किन्तु पोकरण का सुदृढ़ प्रबन्ध देखकर वे लौट गए।3 सन् 1766 ई. में वैष्णव धर्म स्वीकार करने के बाद महाराजा विजयसिंह की मनोवृŸिा में बदलाव आया। उसने पोकरण, नींबाज, रास के ठाकुरों के साथ सद्व्यवहार करने का विचार किया।4 एक खास रुक्का भिजवाकर ठा. सवाईसिंह को बुलवाया गया। उस समय उसकी आयु मात्र 11 वर्ष की थी। वह अपने घोड़ों और सुभटों के साथ दरबार में उपस्थित हुआ। इस अवसर पर सवाईसिंह के नाम से पोकरण का पट्टा बहाल कर दिया गया। प्रधानगी के दो गाँव मजल और दुनाड़ा जो ठा. देवीसिंह के समय जब्त किए गए थे, बहाल नहीं किए गए।5
मोहनसिंह ने कुछ अलग विवरण दिया है। सबलसिंह के मारे जाने के लगभग 9 माह बाद सवाईसिंह की माता उसे लेकर जोधपुर आई। महाराजा विजयसिंह का रोजाना सुबह गंगश्यामजी के मंदिर में दर्शन हेतु जाना होता था। भटियाणी वहाँ पहुँची। जब महाराजा दर्शन कर बाहर आए, उस समय भटियाणी ने अपने पुत्र सवाईसिंह को पोकरण की चाबियाँ देकर भेजा और कहलवाया कि ’’पोकरण के सबलसिंह के पुत्र चाबियाँ सहित आपकी सेवा में हाजिर है। चाबियाँ आप रख लें और इस बालक को मर्जी आवें तो छोड़े या मारें।’’ महाराजा विजयसिंह ने चाबियाँ वापस भिजवाई और कहलवाया कि पोकरण का समस्त प्रबन्ध राज्य की ओर से कर दिया जाएगा।6 किन्तु मूल स्त्रोत इस घटना का वर्णन नहीं करते हैं। 1774 ई. में महाराजा विजयसिंह के निकटस्थ व्यक्तियों ने आउवा के ठा. जैतसिंह को जोधपुर के किलें में बुलाकर जोधपुर किले में धोखे से मरवा दिया। इस घटना की जानकारी मिलने पर सवाईसिंह ने ठा. जैतसिंह का दाह संस्कार करवाया। ज्ञातव्य है कि ठा. देवीसिंह की षड़यंत्रपूर्ण हत्या के बाद इन्हीं ठा. जैतसिंह ने ठा. देवीसिंह का दाह संस्कार करवाया था। सन् 1775 ई. में महाराजा विजयसिंह के सुपुत्र जालिमसिंह के रुष्ट होकर उदयपुर चले जाने पर उसे मनाकर लाने के लिए ठा. सवाईसिंह, आसोप के महेशदास कूम्पावत और सिंघवी फतैहचन्द को भेजा गया। ये तीनों जालिमसिंह को मनाकर मेड़ता ले आए जहाँ विजयसिंह का पड़ाव था। 7
ठाकुर सवाईसिंह द्वारा टालपुरा मुसलमानो के विरूद्ध शौर्य प्रदर्शन:-
1780 ई. में मारवाड़़ की सीमा पर टालपुरा बालोच मुसलमानों का उपद्रव प्रारम्भ हुआ। इसकी सूचना मिलने पर महाराज ने मांडणोत हरनाथसिंह, पातावत मोहकमसिंह, बारहठ जोगीदास और सेवग थानू8 को प्रतिनिधि बनाकर चैबारी (चैवाबाद) भेजा। जब समझौता होने की आशा नहीं रही तब पहले तीन पुरूषों ने मिलकर टालपुरियों के सरदार बीजड़ को मार डाला। इस पर उसके अनुचरों ने उन तीनों को भी मार डाला। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि यह कार्य नवाब मियाँ अब्दुन्नबी की प्रार्थना पर ही किया गया था। इसी वजह से उसने इस कार्य की एवज में उमरकोट का अधिकार जोधपुर नरेश को सौंप दिया।9 इधर बींजड़ के पुत्रों को नवाब की मिली भगत का अंदेशा हो गया। वे नवाब के खिलाफ हो गए। अतः उसे सिंध छोड़कर कलात जाना पड़ा। कलात के अमीर के सहयोग से उसने 20,000 की सेना तैयार की और 20,000 सैनिक महाराजा विजयसिंह ने दिए। इस सेना में सिंघवी शिवचन्द, बनेचन्द्र, लोढ़ा सहसमल और ठा. सवाईसिंह प्रमुख व्यक्ति थे।10 चैबारी (चैवाबाद) के मोर्चे पर दोनों सेनां मिली। यहाँ पर मारवाड़़ के सरदारों ने नवाब के सरदार ताजखाँ को तुरन्त विद्रोहियों पर आक्रमण करने के लिए कहा, पर उसने यह कहकर मना कर दिया कि विरोधियों की आधी सेना के कल पहुँचने पर हम अगले दिन उन पर आक्रमण कर आर पार की लड़ाई लड़ेंगे। इस पर मारवाड़़ के सरदारों को ताजखाँ पर शक हुआ कि वह विरोधियों से निश्चित रूप से मिला हुआ है। अतः घिर जाने के भय से पुनः मारवाड़़ की ओर कूच करने का विचार करने लगे। उस रात चैवाबाद के बुर्ज पर पोकरण के आदमियों के पहरे की बारी थी। इसलिए पोकरण ठाकुर सवाईसिंह के 72 आदमी पहरे पर गए हुए थे। जब सेना ने रवाना होने का निश्चय किया। तो पोकरण ठाकुर ने अपने आदमियों को बुलाने भेजा। उन्होने यह कहते हुए मना कर दिया कि ’’आप सब को भागना था तो हमको पहरे पर क्यों भेजा ? हम तो पहरा पूरा करके ही आएंगे।“ मारवाड़़ की सेनाओं के चले जाने पर टालपुरा सेनानायक ने बुर्ज को घेर कर राजपूत सैनिकों से समर्पण कर लौट जाने के लिए कहा। पर उन्हांेने ऐसा नहींे करके 21 दिन युद्ध किया। बुर्ज में रखा सामान राशन, पानी खत्म होने जाने पर ऊँटों को मारकर और कालीमिर्च खाकर लड़ते रहै। गोला बारूद खत्म होने पर वे केसरिया बाना करके अपने तलवारों को लेकर दुश्मन की फौज पर झपट पड़े और सभी मारे गए। कुछ अन्य स्त्रोतों के अनुसार 72 में से 71 सैनिक मारे गए। यह लड़ाई 14 फरवरी, 1781 ई. को  हुई थी।11
चैबारी के इस उपरोक्त युद्ध में जोधपुर की सेना भाग गई थी। मुसाहिब शिवचन्द ने जोधपुर आकर ठा. सवाईसिंह के विषय में उलटी बात कही कि सवाईसिंह सिंधियों से मिल गया और लड़ाई में सक्रिय हिस्सेदारी नहीं की जिससे यह हार हुई। यह सुनकर महाराजा विजयसिंह ने बिना जाँच किए ठा. सवाईसिंह से नाराज हो गया और आज्ञापत्र लिख भेजा कि तुम वही,ं रहना। ठा. सवाईसिंह को आज्ञानुसार वही,ं रहना पड़ा। फिर सिंधियों से संधि प्रस्ताव होने पर सिंधियों के प्रतिष्ठित पुरुष जोधपुर आये और उनके साथ वार्तालाप हुआ। इस प्रतिनिधिमण्डल के एक व्यक्ति ने महाराजा विजयसिंह से कहा कि पोकरण के ठा. सवाईसिंह ने हमें बहुत हानि पहुँचाई और उसके भी बहुत से आदमी मारे गए। अगर अन्य सरदार भी इसी प्रकार के वीर होते तो ना मालूम हमारी क्या दशा होती। यदि सवाईसिंह नहीं होता तो हम अवश्य ही साँचोर का परगना ले लेते । तब महाराजा विजयसिंह ने अपने विश्वासपात्र व्यक्तियों को, जो उस युद्ध में शामिल थे, शपथ देकर पूछा तो उन्होनें सही बात कह दी।11 विजयसिंह को अपनी गलती का अहसास हुआ। ठा. सवाईसिंह को ससम्मान जोधपुर बुलाया गया। ठा. सवाईसिंह को 1781 ई. में शाही दरबार में प्रधानगी का सिरोपाव हुआ। इस कार्य के लिए वेतन स्वरूप (बधारे में) मजल और दुनाड़ा नामक गाँव दिए और पालकी मोतियों की कण्ठी, सिरपेच, तलवार और कटार आदि इनायत की।12

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