Friday 6 January 2017

मारवाड में शासक और ठिकाणेदार के परस्पर सम्बन्ध

मारवाड में शासक और ठिकाणेदार के परस्पर सम्बन्ध
मारवाड़ पर अपना आधिपत्य स्थापित करने वाले राठौड़ शव सीहा (लगभग 1212) के वंशज थे। राव सीहा के इन विभिन्न वंशजों ने मारवाड़ के विभिन्न क्षेत्रों पर अपना अधिकार स्थापित किया।22 मण्डोर पर अधिकार करन वाले राव चूण्डा को इन वंशजों ने सहयोग दिया तथा राठौड शाखा का प्रमुख स्वीकार कर लिया।23 परन्तु इन विभिन्न राठौड़ क्षेत्राधिपतियों की स्वतंत्रता पहले के समान रही। मण्डोर के राठौड़ अपने अधिकृत क्षेत्रों पर पृथक प्रशासन चलाते रहे। राव रणमल्ल की हत्या (1938 ई.) के बाद मारवाड़ पर मेवाड़ का अधिकार स्थापित हो गया।24 राव रणमल्ल के तृतीय पुत्र राव जोधा और उसके भाई-बन्धुओं के 15 वर्षो के अथक प्रयासों के फलस्वरूप मारवाड़ स्वतंत्र हुआ (1453 ई.)।  राव जोधा ने विजित क्षेत्रों के प्रशासन के निमित्त विजित क्षेत्र अपने भाईयों व पुत्रों में बांट दिए जो कालान्तर में ये ठिकाणों के रूप में विकसित हुए। कुछ क्षेत्र तो राव मणमल्ल ने अपने पुत्रों को दिए थे जैसे कि अपने द्वितीय पुत्र चाम्पा को कापरड दिया। राव जोधा ने यह प्रदेश राव चाम्पा के पास पूर्ववत रखा।25
इस प्रकार स्वकुलीय और स्वगोपीय भाई बन्धुओं के सहयेग लेने से ही मारवाड में सामन्त व्यवस्था का उद्भव हुआ। राज्य के वल शासन की सम्प ति ही नहीं मानी जाती थी अपितु कुलीय सामन्तों की समाहिक धरोहर माना जाता था। राज्य की स्थापना के साथ ही सामन्तों का अस्तित्व प्रारंभ हो गया था। राजा इन सामन्तों के सहयोग से ही राज्य की स्थापना व इसकी सीमा के विस्तार करने में सक्षम हुआ था। अतः वे सभी अपने को इसका भागीदार समझते थे। उनकी दृष्टि में राजा कुल का प्रधान था। वे अपने को उसके अधीन नहीं बल्कि उसका सहयोगी समझते थे। उनका राजा के साथ सम्बन्ध बन्धुत्व व रक्त, स्वामी और सेवक का नहीं। शासक ओर सामन्त के मध्य भाई-बन्धु के सम्बन्ध के कारण शासक की स्थिति बराबर वालों में प्रथम के समान थी। सामन्त घरेलू और राजनीतिक सभी मामलों में सामाजिक समानता का दावा करते थे।26 ज्ञातव्य है कि ठिकाणा व्यवस्था का उद्भव इसी सामन्त व्यवस्था से हुआ। जब किसी क्षेत्र विशेष से सम्बन्धित अधिकार किसी सामन्त और उसके वंशज को पैतृक आधार पर पीढ़ी दर पीढ़ी प्राप्त हो जाते तो वह ठिकाणा कहलाने लगता था। ठिकाणे का स्वामी ठिकाणेदार कहलाया जाता था। कुलीय भावना के कारण ही राजा अपने ठिकाणेदारों को ‘‘भाईजी’’ और ‘‘काकाजी’’ जैसे आदरसूचक शब्दों से संबोधित करते थे। इसी प्रकार सामन्त राजा को ‘‘बापजी’’ कहकर संबोधित करते थे और ऐसा करने में गर्व अनुभव करते थे क्योंकि राजा उनके वंश का मुखिया था और उनके कुल का प्रतिनिधित्व करता था।27 मारवाड़ में स्वकुलीय ठिकाणेदारों के अतिरिक्त अन्य समकक्ष राजपूत सामन्त भी होते थे। उनका राजा के साथ स्वामी और सेवक का सम्बन्ध होता था। ऐसे सामन्तों का अस्तित्व व सम्मान राजा की कृपा पर निर्भर करता था। ऐसी स्थिति में इन सामन्तों का राजा के प्रति वफादार रहना स्वाभाविक था।29
मारवाड़ में ठिकाणेदार प्रारंभ से ही काफी शक्तिशाली रहे। राज्य के महत्वपूर्ण कार्यो, व्यवस्था और प्रबंध में उनकी साझेदारी रहती थी। इन ठिकाणेदारों की इच्छा के विपरीत शासक के लिए सामान्यतः कोई भी महत्त्वपूर्ण निर्णय लेना संभव नहीं था। उत्त् राधिकारी के मामले में भी सामन्तों का दखल रहता था। मारवाड़ के सामन्त तो इतने शक्तिशाली थे कि उन्होंने शासको के निर्णयों का भी एकजुट होकर कई अवसरों का विरोध किया। राव सूजा ने अपने पुत्रों वीरम को अपना उत्त् राधिकारी मनोनीत किया था परन्तु सामन्तों ने वीरम को सिंहासन के योग्य नहीं समझा तथा वीरम के स्थान पर उसके भाई गांगा को गद्दी प्रदान कर दी।30 इसी प्रकार सामन्तों ने राव जोधा के पश्चात् उसके ज्येष्ठ पुत्र जोगा को गद्दी न देकर सातल को सिंहासर पर आरूढ़ किया।31 इस सम्बन्ध में मारवाड़ में एक कहावत प्रचलित थी-‘‘रिड़मला थापिया जिके राजा‘‘32 अर्थात् राव रणमल के पुत्रों ओर वंशजों की सहमती से ही मारवाड़ के राजसिंहासन पर कोई आसीन हो सकेगा।
मारवाड़ में रव गांगा के काल में  सामन्तों की शक्ति बहुत अधिक बढ़ गई। वे सामान्यतः स्वतंत्र शासक की तरह व्यवहार करने लगे। राव मालर्दव ने इनकी शक्ति को तोड़ने का प्रयास किया परन्तु उसे इस कार्य में पूर्ण सफलता नहं मिली।33 लेकिन मारवाड़ में सामन्तों के शक्तिशाली होने पर भी उनमें स्वामीभक्ति की भावना प्रबल थी इसलिए मारवाड़ में शक्ति व्यवस्था सामान्यतः बनी रही। ऐसे बहुत कम अवसर आये जब सामन्तों ने विपत्ति के समय अपने स्वामी का साथ नहीं दिया हो।



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