Friday 6 January 2017

ठा. सबलसिंह का विद्रोह

ठा. सबलसिंह का विद्रोह

ठा. देवीसिंह का पुत्र सबलसिंह पिता के साथ किए गए इस असभ्य व्यवहार से बेहद आहत हुआ। पिता की द्वादश क्रिया करने के उपरान्त वह पोकरण की गद्दी पर बैठा। कुँवरपद में उसने जैसलमेर के गाँव अरजनीवाली के भाटी केशवदास रतनसिंह और ठरड़े के भाटी, मारवाड़़ के गाँवों में लूटपाट करते थे और पशुओं को पकड़ कर ले जाया करते थे। इसने कुँवरपदे में उनको सजा देकर सीधा बना दिया। जिससे उनका उपद्रव शान्त हुआ।179 आरम्भ में ठा. सबलसिंह विद्रोह करनें का अधिक इच्छुक नहीं था, किन्तु तब तक पाली में चांपावत, कूंपावत, उदावत, भाटी जैसे 10000 राजपूत इकट्ठे हो चुके थे । इन लोगों ने ठा. सबलसिंह को कहलवाया कि कार्यवाही अवश्य होनी चाहिए। आपका ठिकाणा तो सीमा पर है, परन्तु हमारे ठिकाणे राज्य के बीचों बीच हैं। अतः हमारी खैर नहीं। जो सरदार कैद में है वे अभी तक मुक्त नहीं किए गए हैं न ही अब तक महाराज की तरफ से कोई मनुष्य संधि के लिए आया हैं। जब तक जग्गू धायभाई की चलेगी तब तक संधि की आशा नहीं है। इसलिए शीघ्र आकर कुछ कार्यवाही करनी चाहिए। तब ठा. सबलसिंह अपने सुभटों को ले पोकरण से पाली पहुँचा और उपरोक्त सरदारों की सेना से जा मिला। यह सेना कैद किए हुए सरदारों को मुक्त कराने हेतु दबाव डालना चाहती थी। इस सेना के विरूद्ध जोधपुर से जग्गू धायभाई पाँच हजार सैनिकों के साथ रवाना हुआ। सबलसिंह जग्गू से दो दो हाथ करने का इच्छुक था किन्तु पाली ठा. जगतसिंह ने उसे युद्ध करने से रोका ।180
पाली से सभी असंतुष्ट सरदार और उनकी सेना बिलाड़ा पहुँची। इस दौरान जग्गू धायभाई मेड़ता में रामसिंह की गतिविधियों की जानकारी मिलने पर नींबाज होता हुआ मेड़ता गया। बिलाड़ा के आसपास के क्षेत्रों में असंतुष्टों की सेना ने लूटमार की। जैतियावास के मार्ग में जहाँ नमक की खाने हैं, वहाँ इस सेना ने डेरा किया। इस स्थान पर योजना बनाई गई कि दो सौ सवारों को भेजकर मवेशी पकड़ लेंगे, जब हाकिम छुड़वाने आएगा, उसे पकड़ कर बिलाड़ा शहर लूट लेंगे।
जब जग्गू धायभाई को मेड़ता में यह खबर मिली की चांपावत, कूंपावत आदि सरदारों की सेना बिलाड़ा में हैं, तो उसने रामकरण पंचोली को फौज देकर रवाना किया और प्रतापसिंह पहाड़सिंह एवं सुजानसिंह आदि सरदारों को उसके सहयोग हेतु भेजा।181 ठिकाणा पोहकरण का इतिहास में इसे विरदसिंह बताया गया है। वह भी युद्ध करते हुए मारा गया। ठाकुर पहाड़सिंह के चार लोहे के खोल लेंगे, परन्तु उसके सैनिक उसे उठा ले गए और प्राचीन महलों में जा घुसे। ठा. सबलसिंह भी घायल हुआ।
सरदारों ने योजनानुसार मवेशी पकड़ लिए । पंचोली रामकरण की सेना कुछ समय बाद ही वहाँ जा पहुँची। रामकरण ने सिंधी जेठमल और ख्ंिाची शिवदान को एक सौ की पैदल सेना के साथ भेजा। कुछ समय बाद पाँच सौ सवारों के साथ रामकरण भी वहाँ जा पहुँचा। घमासान युद्ध हुआ, जिसमें जेठमल हाकिम मारा गया और खींची शिवदान घायल हो गया। हरसौर का ठा. धीरजसिंह कूंपावत मारा गया। रामकरण, चण्डावल ठा. पृथ्वीसिंह,182 ठा. पहाड़सिंह घायल हो गए। शाही सेना युद्ध मैदान से भाग छूटी। असंतुष्ट सेना की विजय का एक महत्त्वपूर्ण कारण उनका सैन्य बल में अधिक होना था।183 चाम्पावत और उदावतों की सेना ने तदुपरांत श्यामसिंह देवीसिंहोत के नेतृत्व में भागती सेना का पीछा किया और सबको भगा दिया। एक हजार सवार की इस सेना ने तालाब के पास अपना डेरा किया। असंतुष्ट सरदार अब बिलाड़ा लूटने की योजना बनाने लगे। तभी उन्हें खबर मिली की पोकरण ठाकुर सबलसिंह को सेरिया (बाड़ों के बीच का रास्ता) में चलते हुए एक जख्मी, चाँदेलाव के मोहनसिंह कूँपावत के हाथ से चली गोली कनपटी।184 यह दुखद समाचार मिलने पर सरदारों का उत्साह शिथिल हो गया। अपनी योजना बदलकर उन्होने पीछे लौटने और सबलसिंह को किसी गाँव में रखने का विचार किया तथा अगले शहर लूटने का मन बनाया। फिर वे सबलसिंह के पास आए। ठा. सबलसिंह ने पूछा कि क्या शहर लूट लिया गया ? वहाँ उपस्थित एक सरदार ने घायल सबलसिंह को संतुष्ट करने के लिए असत्य कह दिया कि, बिलाड़ा लूट लिया गया है।185 तत्पश्चात् एक मांचा (लकड़ी का फ्रेम और मूंज की रस्सी का पलंग) मंगवाकर उस पर सुला दिया गया और सोजत को रवाना हुए। खारिया गाँव के निकट एक पालकी मिल गई।तब उसे पालकी में बैठाकर ले गए ।186
इधर बिलाड़ा में मौजूद राजकीय सैनिकों को अपने विरोधियों की गतिविधियों से आश्चर्य हुआ कि युद्ध में विजय पाए हुए ये लोग पीछे क्यों जाते हैं। उन्होंने तथ्यों का पता लगाने के लिए एक हरकारे को पाँच रूपये इनाम देकर भेजा और हरकारे के पीछे एक खबरनवीस को भेजा।187 सरदारों ने सोजत जाकर मंदिर के पास पालकी को ठहराया । ठा. सबलसिंह दो आदमियों के कंधो पर हाथ रखकर पालकी से उतरा और उसी रात्रि 1760 ई. (वि.स. 1817 की श्रावण सुदि पंचमी) को उसका स्वर्गवास हुआ।188 उस समय उसकी अवस्था मात्र 24 वर्ष थी। वही,ं पर उनका दाह संस्कार बाघेलाव तालाब पर किया गया जहाँ पर उसका स्मारक बना हुआ है।189 पं. विश्वेश्वर नाथ रेऊ के अनुसार ठा. सबलसिंह की मृत्यु खारिया गाँव में  हुई। यह सही नहीं है। हरकारों ने बिलाड़ा जाकर ठा. सबलसिंह के स्वर्गवास होने की खबर दी।190
अपने अग्रज ठा. सबलसिंह का अंतिम संस्कार करने के बाद श्यामसिंह ने अपने सहयोगियों के समक्ष मारवाड़़ छोड़कर कहीं और बस जाने की इच्छा प्रकट की। सरदारों ने उसे रूकने का आग्रह करते हुए कहा कि ’’सबलसिंह का पुत्र अभी छोटा है, इसलिए अभी मत जाओ।’’ तब श्यामसिंह ने कहा कि ’’सवाईसिंह के भाग्य में पोकरण है, तो उसे कौन छुड़ा सकता है ? परन्तु जहाँ नौकरी की कद्र नहीं और तुच्छ मनुष्यों की सलाह से इस प्रकार की हानि हो, वहाँ मैं नहीं रह सकता और तुम जितने उनके हो, उनके साथ रहना।’’ तदुपरांत वह अपना पट्टा
9000/  खाण्डप
1350/  रातड़ी
4500/  कर्मावास वास 2
14850/  कुल रेख
को छोड़कर पुष्कर चला गया। वहाँ ठाकुर सबलसिंह की औध्र्वदैहिक क्रिया करके महाराजा रामसिंह के पास सांभर गया।191 ठा. सबल सिंह की संतति चार पत्नियाँ और 2 पुत्र थे।192 अन्य स्त्रोतों के अनुसार ठा. सबलसिंह की आकस्मिक मृत्यु हो जाने पर अनुज श्यामसिंह जिसकी अवस्था उस समय मात्र 17 वर्ष थी, ने सोजत से 7000/- रूपये की उगाही की। तत्पश्चात् उसने रामसिंह को मेड़ता पर चढ़ाई करने के लिए संदेश भेजकर मारवाड़़ में उपद्रव किए तथा जोधपुर नगर के बाहर दरवाजों तक लूटमार की। उस समय श्यामसिंह के पास 3000, पाली के ठाकुर जगतिसिंह के पास 1000 सेना थी तथा पीलवा के ठा. लालसिंह भी उसके साथ था, किन्तु इनका मेड़ता अभियान विफल रहा। इधर असंतुष्टों की सेना राजकीय सेना द्वारा जालोर की ओर खदेड़ दी गई। अनेक असंतुष्ट जो इस दौरान महाराज के पक्ष में आ गए, इन्हें माफी दे दी गई। राजकीय सेना द्वारा पाली पर अधिकार और रायपुर भखरी, गूलर आदि की ओर असंतुष्ट सरदारों का दमन किया जिससे मारवाड़़ का उपद्रव बहुत कुछ शान्त हो गया। इधर अक्टूबर 1761 ई. में श्यामसिंह और अन्य सहयोगी सरदारों के प्रयासों से साम्भर पर रामसिंह का अधिकार स्थापित हो गया। रामसिंह को मारवाड़़ की गद्दी पर बैठाने के लिए इन्होंने 1765 ई ़ में महादजी सिन्धिया से साठ गाँठ की और उसे मारवाड़़ पर चढ़ा लाए। किन्तु महाराजा विजयसिंह ने महादजी को तीन लाख रूपये देकर संतुष्ट करके लौटा दिया।
1765 ई. में रामसिंह की सहायता के लिए श्यामसिंह खानूजी नामक मराठे को अपनी सहायता के लिए बुलाया किन्तु राजकीय सेना के साथ हुए युद्ध में उन्हें पराजित होकर सांभर की ओर भागना पड़ा।193 मराठे अजमेर की तरफ चले गए। बाद में श्यामसिंह रामसिंह के साथ सांभर से जयपुर आकर रहने लगा। इस समय तक श्याम रामसिंह की अयोग्यता को भली भाँति जान गया था।194 अतः वह अपने सहयोगियों पाली ठा. जगतसिंह और पीलवा ठा. लालसिंह के साथ भरतपुर नरेश रत्नसिंह के पास चला गया (1765 ई.)। रत्नसिंह ने श्यामसिंह को 50,000 रूपये की रेख वाला दादपुर जागीर का पट्टा प्रदान किया।इस समय श्यामसिंह की अवस्था मात्र 23 वर्ष थी।195
1773 ई. में महाराजा विजयसिंह की पासवान गुलाबराय तीर्थयात्रा पर निकली। भरतपुर नरेश के चाटुकारों ने उसे लूटने के लिए प्रेरित किया। राजा रतनसिंह ने इस कार्य हेतु एक फौज भेजने की आज्ञा दी। जब यह खबर ठा. श्यामसिंह को मिली तो वह तुरंत अपना 50,000 रूपये का पट्टा त्यागकर पासवान की रक्षार्थ अपनी जमीयत की सेना लेकर मथुरा पहुँच गया। इसकी सूचना जब रत्नसिंह को मिली तो वह सकते में आ गया। उसने अपना एक दूत भिजवाकर श्यामसिंह को कहलवाया कि मारवाड़़ वालों ने तुम्हारे साथ अत्यन्त बुरा सुलूक किया था, फिर भी तुम अपने किस लाभ के कारण पासवान की रक्षा करने पहुँचे हो? श्यामसिंह ने उत्तर में कहलवाया कि ’’यह पासवान नहीं है, हम राठौड़़ों की माता है।आप जीविका का लोभ देते हो, परन्तु यह तो फिर भी कहीं मिल जाएगी, इज्जत गई हुई फिर नहीं आएगी, हम जीते जी इज्जत गँवाना नहीं चाहते हैं। दरबार में मौजूद एक वृद्ध सलाहकार ने तब राजा रतनसिंह को सलाह दी कि ’’इन राठौड़़ों को आप जानते ही हैं । लड़ाई में हजारों सैनिक मरेंगे और पासवान जिन्दा आपके हाथ नहीं आएगी । अतः बिना वजह फितूर करना उचित नहीं रहेगा ।’’
तत्पश्चात् राजा रतनसिंह ने अपनी फौज वापस बुला ली। श्यामसिंह गुलाबराय को पुष्कर तक छोड़ने गया। वहाँ गुलाबराय से जाने की अनुमति माँगने पर उसने श्यामसिंह को जोधपुर चलने के लिए कहा तथा एक लाख रेख की जागीर पट्टा दिलवाने का आश्वासन दिया। परन्तु श्यामसिंह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। पुष्कर से श्यामसिंह जयपुर पहुँचा। जयपुर महाराजा को जब सम्पूर्ण घटनाक्रम की जानकारी मिली तो उसने श्यामसिंह को अपने पास बुलाया और गीजगढ़ का एक लाख की रेख का जागीर पट्टा दिया ।
इधर गुलाबराय ने जोधपुर लौटकर महाराजा विजयसिंह को पूरी घटना बताई। विजयसिंह श्यामसिंह से अत्यन्त प्रभावित हुआ। उसने अपना दूत भेजकर श्यामसिंह को बुलवाना चाहा, परन्तु श्यामसिंह ने यह कहते हुए इंकार कर दिया कि मैंने मारवाड़़ में नहीं आने की प्रतिज्ञा कर ली है, इसलिए क्षमा करें।’’
जब विजयसिंह ने श्यामसिंह के पुत्र इन्द्रसिंह को थाँवला का 30,000 रूपये की रेख का जागीर पट्टा और कुरब 1774 ई. में इनायत किया।एक अन्य स्त्रोत के अनुसार 84 गाँवों की थाँवला जागीर का पट्टा इन्द्रसिंह को दिया जिसकी रेख 48,100 रूपये मोहर थी। किन्तु यह सही नहीं है।मूल रूप में पट्टा 30,000 रूपये का ही था। 1793 ई. में महाराजा भीमसिंह ने 18,000 रूपये की रेख का अतिरिक्त पट्टा इन्द्रसिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर दिया था।


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