मुगलों मनसबदारी प्रथा से प्रभावित होकर मारवाड़ के राजाओं ने भी अपने जागीरदारों को पद और प्रतिष्ठा के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया। इससे जागीरदारों की आय ओर उनके पद और प्रतिष्ठा का निर्धारण हो गया। मारवाड़ के जागीरदार कई श्रेणियों में विभाजित थे-यथा (1) राजवी, (2) सरदार (3) मुत्सद्दी और (4) गिनायत54 ।
राजा के छोटे भाई व निकट के सम्बन्धी, जिन्हें अपना निर्वाह के लिए जागीर दी जाती थी, राजवी कहलाते थे। इन्हे तीन पीढ़ी तक रेख, चाकरी, हुक्मनामा आदि की रकम राज्य खजाने में जमा नहीं करवानी पड़ती थी। तीन पीढ़ी के बाद राजवी भी सामान्य जागीरदारों की श्रेणी में आ जाते थे।55
मारवाड़ के सरदारों को अनेक श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। इनमें सर्वोपरि सिरायत सरदार थे। ये वे ठिकाणेदार थे जिन्हें दरबार में बैठने का स्थान राज्य के पास सबसे आगे मिलता था। प्रारंभ में उनकी संया 8 थी जो कालान्तर में बढ़ कर 12 हो गई।56
ये 12 सिरायत सरदार थे -
ठिकाणा खॉप मिसल
1. पोकरण चांपावत दाईं
2. आडवा चाँपावत दाईं
3. आसोप कुम्पावत दाईं
4. रीयाँ मेड़तिया बाईं
5. रायपुर उदावत बाईं
6. रास उदावत बाईं
7. निमाज उदावत बाईं
8. खैरवा जोधा बाईं
9. अगेवा उदावत बाईं
10. कंटालिया कुम्पावत बाईं
11. अहलनियावास मेड़़तिया बाईं
12. भाद्राजून जोधा बाईं57
दरबार में उपरोक्त सरदार अपनी मिसल के अनुसार महाराज के दाईं और बाईं और बैठा करते थे। राव रणमल्ल के वंशज (चम्पावत व कुम्पावत) दाईं और राव जोधा के वंशज (जोधा, मेडतिया और उदावत) बाईं और बैठा करते थे।58 अनुसूचित में वर्णित प्रथम तीन सरदारों में से जो पहले आते है वे अपने आने के क्रम के अनुरूप आसन ग्रहण कर सकते थे। इनके बाद के पांच सरदारों में भी यही व्यवस्था लागू थी। अन्तिम चार ठाकुर अपने नियत आसन से पहले का आसन तभी ग्रहण कर सकते थे जबकि उनके वरिष्ठ सरदार दरबार में उपस्थित न हो। सरदारों के बैठने के क्रम को लेकर अनेक अवसरों पर विवाद उठ खड़े होते थे। सिरायत सरदारों के अतिरिक्त अन्य सरदारों की श्रेणियाँ उन्हें प्राप्त होने वाले ताजिम और कुरब के अनुसार निर्धारित होती थी। दरबार में इनके बैठने की व्यवस्था भी इसी से निर्धारित होती थी।59
गिनायत के ठिकाणे उन ठिकाणेदारों के थे जिन्हें जागीर पट्टा यातो राजघराने से शादी सम्बन्ध के कारण मिली थी या वे राठौड़ों का राज्य स्थापित होने के पहले से ही मारवाड़ के किसी क्षेत्र के स्वामी थे। राठौड़ों का राज्य स्थापित होने पर उन्होंने भी राठौडों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया था। ऐसे ठिकाणे भाटी, कच्छावा, हाडा, चौहान, सिसोदिया, तंवर, जाडेजा, झाला आदि राजपूतों के थे।60
मारवाड़ में मुत्सद्दी जागीरदर भी थे जिन्हें राज्य प्रशासन में कार्य करने के एवज में जागीर प्राप्त थी। उनकी जागीरे उनके सेवाकाल तक ही रहती थी। अपवाद स्वरूप कुछ मुत्सद्दियों को वंशानुगत जागीरे मिली थी।61