अध्याय 3 ठा. देवीसिंह 2
तदुपरान्त विजयसिंह ने पट्टा बही मंगवाकर देवीसिंह को सौंप दी और कहा ‘‘मेरे घर में सब कुछ करने वाले अब तुम ही हो, जिसे चाहो जागीर दो, किन्तु सभी का सम्मान रहै। अगर तुम लोग मुझसे नाराज हो तो मैं पुनः नागौर चला जाऊँगा। मेरे तीन पुत्रों में से तुम जिसे चाहो गद्दी पर बैठा दो। लेकिन झगड़ा मत रखना। तब ठा. देवीसिंह ने उत्तर दिया ‘‘जोधपुर आपके भाग्य में है, इसलिए आपकी ही रहेगा और हम आपके चाकर ही रहेंगे ।’’ विजयसिंह ने सरदारों से पुनः कहा कि दो गाँवों को छोड़कर आप लोग पट्टा बही में कुछ भी संशोधन कर लो । इस पर ठा. केसरीसिंह ने उन गाँवों के नाम पूछे तो महाराज ने नाडसर और कोसाणा नाम बताए । तब केसरीसिंह ने कहा कि ’’कोसाणा तो चाम्पावतों की जागीर है।आप किसी और को नहीं दे सकते । तब देवीसिंह ने केसरीसिंह को समझाया कि हमें महाराज से इतनी खींचकर बात नहीं करनी चाहिए । दो गाँव ही तो कह रहे हंै, शेष गाँव तो बाकी हंै। इस प्रकार सभी सरदारों को संतुष्ट करके महाराजा अगले दिन उन्हें जोधपुर ले आए तथा उन्हें अपनी अपनी हवेलियों में डेरा करवाकर स्वयं ने गढ़ में प्रवेश किया।157
महाराजा और सरदारों के मध्य बाहरी रूप से भले ही सब कुछ ठीक प्रतीत हो रहा था किन्तु मन के विकार अभी भी दूर नहीं हुए थे । जिन परिस्थितियों और शर्तों पर दोनों पक्षों में समझौता हुआ था, वह महाराजा विजयसिंह के लिए कतई रूचिकर नहीं हो सकता था। उपरोक्त घटना के कुछ समय बाद पुनः दोनों पक्षो में फिर मनोमालिन्य उभर गया। महाराजा के गुरू बाबा आत्माराम, जिसमें वह परम श्रद्धा रखता था, से राजकीय मुद्दों पर विजयसिंह सलाह लेता रहता था। सरदारों ने महाराजा से इस विषय पर आपत्ति की कि ’’साधु सन्यासी का किले में कया काम’’ ?158 सरदारों के इस कथन से विजयसिंह मन से खिन्न रहने लगा। बाबा आत्माराम ने महाराज के मुख की अप्रसन्नता और उदासीनता को भांपकर इसका कारण पूछा। विजयसिंह ने पूरी बात बाबा आत्माराम को कह दी। तब बाबा आत्माराम ने कहा कि ’’आप किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करें। हम आपका दुःख अपने साथ ले जाएगें। तत्पश्चात् बाबा आत्माराम ने यौगिक क्रिया से समाधि लेकर देह त्याग दी। इसकी जानकारी मिलने पर विजयसिंह को बेहद संताप हुआ’’।159
टाॅड महोदय इस सम्बन्ध में एक भिन्न विवरण देता है। उसके अनुसार महाराजा वजयसिंह के गुरू आत्माराम को संघातिक पीड़ा उपस्थित हो गई। विजयसिंह जग्गू धायभाई के साथ आत्माराम जी से मुलाकात करने गया। गुरू ने मृत्यु के समय विजयसिंह को अभय देकर कहा ’’महाराज! क्ुछ चिन्ता न कीजिए, मेरे प्राण त्यागने के साथ आपके सम्पूर्ण शत्रुओं का जीवन नष्ट हो जाएगा।’’ गुरू के प्राण त्यागते ही जग्गू धायभाई ने इसकी व्याख्या कर दी और ष्षड्यन्त्र प्रारम्भ हो गया। विजयसिंह ने अपने गुरू के प्रति शोक प्रदर्शित करने के लिए तथा भक्ति जताने के निमित्त सरदारों में यह प्रचारित करवा दिया कि किले में गुरूदेव की प्रेतक्रिया होगी । सरदार भी एक एक कर बाबा आत्माराम के दर्शन करने के लिए आने लगे।160
इधर जग्गु धायभाई को यह समय अपने अपमान का बदला लेने का उचित लगा । उसने महाराजा से सरदारों को पकड़कर कैद करने की स्वीकृति ले ली।161 विचार से वह सरदारों पास गया और सरदारों से कहा कि ’’आप महाराजा के पास चलें और महाराज को धैर्य प्रदान करें।’’ सरदार भी जग्गू की बातों में आ गए और महाराजा के पास जाना स्वीकृत कर लिया। एक अन्य स्त्रोत के अनुसार गोवर्धन खींची ने सरदारों को कहलवाया था कि महाराजा बड़े उदास हैं। अतः आप गढ़ पर मृतात्मा को मिट्टी देने को आएं और महाराजा को सांत्वना देवें । तब ठाकुर देवीसिंह, ठा. केसरीसिंह, ठा. छत्रसिंह (आसोप) और ठा. दौलतसिंह (नीम्बाज) गढ़ पर अपने सैनिकों सहित गए ।162
जग्गू धायभाई ने सरदारों से बड़ी विनम्रता के साथ कहा कि महाराजा की इस दशा में उनके पास अधिक भीड़ का होना उचित नहीं रहेगा, इसलिए आप सरदार अकेले ही महाराजा के पास जांए और अपने आदमियों को यहीं (मुख्य द्वार के बाहर) ठहरा दें। सरदारों ंको षड़यन्त्र का कतई अंदेशा नहीं हुआ। अतः वे इसके लिए तैयार हो गए। इसके पश्चात् रानियों के मृतात्मा की देह के आखिरी दर्शन करने के बहाने से लोहापोल के फाटक के द्वार भी बन्द कर दिया गय163। ठा. दौलतसिंह तब इमरती पोल की खिड़की से घुस गया, परन्तु आगे लोहापोल बन्द होने के कारण वही,ं बैठ गया। महाराजा सूरजपोल तक मृत आत्माराम की बैकुण्ठी के साथ आया। वहाँ से सरदारों ने उसको सांत्वना देकर पीछे लौटा दिया। तब वे सरदार श्रृंगार चैकी पर जा खड़े हुए। सरदारों को इस प्रकार एकांत में खड़ा देखकर जग्गू धायभाई ने महाराजा से सरदारों को कैद करने की अनुमति मांगी। गोवर्धन खींची ने इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया। महाराजा विजयसिंह ने स्वीकृति दे दी और सावधानीपूर्वक कार्य करने को कहा।164
जग्गू धायभाई ने ड्योढ़िदार गोविन्ददास के मार्फत सरदारों को महाराज के पास जाने और धीरज बधाने के संदेश कहलवाया । सरदारों के मन में लोहापोल बन्द होने से कुछ शक पैदा हुआ था, परन्तु महाराज के वचनों पर विश्वास होने से वे आगे बढ़े । ठाकुर देवीसिंह एवं ड्योढ़िदार गोविन्ददास को पकड़ लिया गया।165 ठा. देवीसिंह ने इस अवसर पर जबरदस्त संघर्ष किया।166
एक अन्य स्त्रोत के अनुसार कैद किए गए ठाकुर भोजनशाला के नीचे की कोठरियों में रखे गए। नींबाज ठाकुर इस घटनाक्रम से बेखबर इमरतीपोल और लोहपाल के बीच में एक चट्टान पर बैठा था कि भावसिंह नामक एक सरदार ने उसे पकड़ लिया किन्तु संघर्ष में दौलतसिंह घायल हो गया। उसे कैद करके उपचार दिया गया। तदुपरान्त रघुनाथसिंह और जवानसिंह, विजयसिंह के पास गए। उन्हें घबराया देखकर महाराजा ने कहा कि ‘‘क्यों डरते हो? तुम्हें भरोसा न हो तो हमारी तलवार लो और अपने पास रखो’’ कहकर उन्हें अपनी तलवार दी।167
कैद किए गए सरदारों के हाथों पाँॅवों में बेड़ियाँ और तौखीर लगाई गई। ठा. देवीसिंह के हाथ और पाँव मोटे होने के कारण कड़ियाँ नहीं आई। अतः मोटी कड़ियाँ बनवाकर लगाई गई 168। अगले दिन विजयसिंह की आज्ञानुसार सरदारों के लिए भोजन की थाल मंगाई गई। केसरीसिंह और छत्रसिंह भोजन करने लगे। ठा. देवीसिंह ने हाथ धोने के लिए जल मंगाया। सेवक ने जल ठाकुर को पकड़ा दिया। ठाकुर ने उसी समय जल हाथ में लेकर कहा कि ’’महाराजा बख्तसिंह की सेवा हमने इमरतिया नाडा से शुरू की थी और इस महाराजा की भी नौकरी आज तक की, जिसका यह फल मिला है। अब महाराजा जब हमें बाहर निकालेंगें तभी हम अन्नजल लेगें अथवा दूसरे जन्म में इनका सेवन करेगें । यह कहकर जल छोड़ दिया और भोजन नहीं किया। 169
े इसी दौरान जग्गू धायभाई ठा. देवीसिंह की कोठरी में गया और उसे ताना दिया कि ’’ठाकुर! तुम कहते थे कि जोधपुर का राज्य मेरी कटार की पड़दली में है। अब वह पड़तली कहाँ है? उसके उत्तर में देवीसिंह ने कहा कि पड़तली मेरे पुत्र सबलसिंह की बगल में पोकरण में हैं, जिसका तुम्हें पता चल जाएगा। तुमने मुझे धोखे से पकड़ा अन्यथा मैं तुम्हें अच्छा सबक सिखाता। अब मेरे पीछे मेरे पुत्र तुम लोगों को चैन से राज नहीं करने देंगे।170
कर्नल टाॅड के अनुसार देवीसिंह महाराज अजीतसिंह का पुत्र था इस कारण उस राजरक्तधारी को गोली अथवा तलवार से मारने में किसी को भी साहस नहीं हुआ। अन्त में एक बड़े पात्र में विष मिला हुआ अफीम का पानी उनके पास भेज दिया गया और उन्हें यह आज्ञा मिली कि तुमको यह पानी पीकर प्राण त्यागने होंगें। परन्तु देवीसिंह मिट्टी का पात्र देखकर क्रोधित हो गया। उसने स्वर्णपात्र में अफीम लाने के लिए कहा। माॅग स्वीकार नहीं किए जाने पर उसने क्रोध में आकर अफीम का पात्र दूर फेंक दिया और पत्थर की दीवार पर अपने सिर को दे पटका। मस्तक फट जाने से उसके प्राण निकल गए171। इस विवरण में कर्नल टाॅड ने देवीसिंह को महाराज अजीतसिंह का पुत्र बताया है, जो कि गलत है।
’’ठिकाणा पोहकरण का इतिहास’’ के अनुसार अन्नजल त्यागने के पाँचवे दिन रात्रि में रामदेवजी ने उसे दर्शन देकर कहा कि चलो हम तुमको बाहर निकालें, तब देवीसिंह ने उनसे पूछा कि मेरी उम्र अब कितनी है? रामदेवजी ने कहा कि तीन दिन अवशिष्ट है। इस पर देवीसिंह ने कहा कि ’’महाराज मुझे अब बड़े घर में ही उपरत होने दीजिए। तत्पश्चात् 1760 ई. (वि.सं. 1816 की फागुन सुदी अष्टमी) को ठाकुर देवीसिंह का स्वर्गवास हुआ172। उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि ठा. देवीसिंह कुल 8 दिन कैद में रहा। किन्तु ’’महाराज विजयसिंह की ख्यात में स्पष्ट वर्णित है कि ठा. देवीसिंह 6 दिन तक कैद में जीवित रहा और सन्निपात बुखार से उसकी मृत्यु हुई 173। ठा. देवीसिंह की मृत्यु की तिथि को भी लेकर मनभिन्नता है।रेऊ ने स्वामी आत्माराम की मृत्यु की तिथि 2 फरवरी, 1760 ई. (वि.सं. 1816 फाल्गुन बदी 1 मानी है)174 इसमें 6 दिन जोड़ने से ठा. देवीसिंह की मृत्यु तिथि 8 फरवरी 1760 ई. ठहरती है। यह तिथि हमें अधिक तर्कसंगत प्रतीत होती है।
ठा. देवीसिंह की मृत्यु के समय उसकी अवस्था मात्र 39 वर्ष की थी। मृत्यु के समय उसके हाथ और पैर की बेड़ियँा स्वतः ही कट गई थी। यह मान्यता है कि रामदेवजी ने कोठरी में प्रकट होकर स्वयं ही ये बेड़ियाँ काटी थीं। बेड़ियों को अलग देखकर वहाँ तैनात पहरेदार ने उसकी सूचना दरोगा को दी। दरोगा अपने साथ बीस आदमी लेकर गया। किवाड़ खोलने पर उसे ठा. देवीसिंह की मृत्यु का पता चला175। महाराज विजयसिंह की आज्ञा प्राप्त कर आउवा ठाकुर जेतसिंह ने रावटी नाडी के पास ठा. देवीसिंह के शव का दाह संस्कार किया ।176
ठा. देवीसिंह के पकड़े जाने के समय उसके सैनिक इमरती पोल के बाहर थे। स्वामी के बन्दी बनाए जाने के सूचना मिलते ही सैनिक अपनी हवेली में आए। ठा. देवीसिंह की ख्वास जस्सू को साथ लेकर वे सोजती दरवाजे आए। दरवाजे का ताला तोड़कर वे निकल गए। ठा. देवीसिंह का छोटा कुँवर श्यामसिंह ख्वास को लेकर पहले पाली और फिर गुंदोज गया। वहाँ उन्हें देवीसिंह के स्वर्गवास होने की खबर मिली, तब ख्वास जस्सू वही,ं सती हुई।
ठा. देवीसिंह के साथ कैद किए गए अन्य सरदारों में ठा. दौलतसिंह को बाद में छोड़ दिया गया। ठा. छत्रसिंह का एक माह कैद रहकर स्वर्गवास हुआ। ठा. केसरीसिंह का तीन वर्ष कैद के बाद वही,ं मृत्यु को प्राप्त हुआ।177ठाकुर देवी सिंह की संतति चार पुत्र और 3 पत्नियाँ थी। ठा. देवीसिंह ने महाराजा अभयसिंह, रामसिंह, बखतसिंह, और विजयसिंह की चार पुश्तों तक सेवा की। महाराजा अभयसिंह ने 1747 ई. में पोकरण का पट्टा इनायत किया और प्रधानगी का सिरोपाव दिया। महाराजा रामसिंह ने 1749 ई. में भोजपुरा के डेरे पर प्रधानगी पद, हाथी और सिरोपाव दिया। 1751 ई. में महाराजा बख्तसिंह ने प्रधानगी इनायत की जो महाराजा विजयसिंह के शासनकाल में उसकी मृत्यु तक रहा। महाराजा विजयसिंह ने ठा. देवीसिंह को 1752 ई. (वि.सं. 1809) में हाथ का कुरब, दरबार की सवारी में घोड़ा अगाड़ी रखने का कुरब और दरबार होने पर सामने की पंक्ति में बैंठने का कुरब इनायत किया।
प्रधान जैसे महत्त्वपूर्ण पद पर वह पिता की मृत्यु के बाद सम्पूर्ण जीवनकाल रहा, फिर भी शासकों के उपेक्षित व्यवहार से वह असंतुष्ट रहा। महाराजा रामसिंह की बचकानी हरकतंे और दुर्बल चरित्र होने पर भी उसने सरदारों के असंतोष को कम करने का प्रयास किया, परन्तु अन्ततः असफल रहा। महाराजा रामसिंह द्वारा सार्वजनिक रूप से अपमानित किए जाने पर उसने मारवाड़़ के हित में बख्तसिंह के पक्ष में जाने का निर्णय किया।बख्तसिंह को जोधपुर गढ़ पर अधिकार दिलवाने में उसकी भूमिका निर्णायक रही । महाराजा बख्तसिंह के अल्पशासन के बाद महाराजा विजयसिंह के शासनकाल में भी उसे उपेक्षा के कड़वे घूँट पीने पड़े । प्रधान के परम्परागत अधिकारों की पुनःस्र्थापना करने के लिए उसने संघर्ष किया।अपने अस्थिर मस्तिष्क और दुर्बल चरित्र के कारण वह अपने इर्द गिर्द के अवसरवादी और सत्ता लोलुप सरदारों के प्रभाव में आकर ऐसे निर्णय ले बैठता था जो भविष्य में गलत साबित हो जाते थे । एक प्रधान का अपने परामर्श की उपेक्षा किए जाने से नाराज हो जाना स्वाभाविक ही था। इस प्रवृति से राज्य के सामन्तो और राज्य के मध्य संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हुई । यदि विजयसिंह एक समझदार शासक की तरह अपने प्रधान सामन्तों से सामंजस्य बनाकर चलता तो उसका न तो सामन्तों से संघर्ष होता और न ही ठा. देवीसिंह जैसे योग्य व्यक्ति की हत्या करने की उसको आवश्यकता पड़ती । वस्तुतः ठा. देवीसिंह राजनीतिक सत्ता की दुर्बलता का शिकार हुआ था।
महाराजा और सरदारों के मध्य बाहरी रूप से भले ही सब कुछ ठीक प्रतीत हो रहा था किन्तु मन के विकार अभी भी दूर नहीं हुए थे । जिन परिस्थितियों और शर्तों पर दोनों पक्षों में समझौता हुआ था, वह महाराजा विजयसिंह के लिए कतई रूचिकर नहीं हो सकता था। उपरोक्त घटना के कुछ समय बाद पुनः दोनों पक्षो में फिर मनोमालिन्य उभर गया। महाराजा के गुरू बाबा आत्माराम, जिसमें वह परम श्रद्धा रखता था, से राजकीय मुद्दों पर विजयसिंह सलाह लेता रहता था। सरदारों ने महाराजा से इस विषय पर आपत्ति की कि ’’साधु सन्यासी का किले में कया काम’’ ?158 सरदारों के इस कथन से विजयसिंह मन से खिन्न रहने लगा। बाबा आत्माराम ने महाराज के मुख की अप्रसन्नता और उदासीनता को भांपकर इसका कारण पूछा। विजयसिंह ने पूरी बात बाबा आत्माराम को कह दी। तब बाबा आत्माराम ने कहा कि ’’आप किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करें। हम आपका दुःख अपने साथ ले जाएगें। तत्पश्चात् बाबा आत्माराम ने यौगिक क्रिया से समाधि लेकर देह त्याग दी। इसकी जानकारी मिलने पर विजयसिंह को बेहद संताप हुआ’’।159
टाॅड महोदय इस सम्बन्ध में एक भिन्न विवरण देता है। उसके अनुसार महाराजा वजयसिंह के गुरू आत्माराम को संघातिक पीड़ा उपस्थित हो गई। विजयसिंह जग्गू धायभाई के साथ आत्माराम जी से मुलाकात करने गया। गुरू ने मृत्यु के समय विजयसिंह को अभय देकर कहा ’’महाराज! क्ुछ चिन्ता न कीजिए, मेरे प्राण त्यागने के साथ आपके सम्पूर्ण शत्रुओं का जीवन नष्ट हो जाएगा।’’ गुरू के प्राण त्यागते ही जग्गू धायभाई ने इसकी व्याख्या कर दी और ष्षड्यन्त्र प्रारम्भ हो गया। विजयसिंह ने अपने गुरू के प्रति शोक प्रदर्शित करने के लिए तथा भक्ति जताने के निमित्त सरदारों में यह प्रचारित करवा दिया कि किले में गुरूदेव की प्रेतक्रिया होगी । सरदार भी एक एक कर बाबा आत्माराम के दर्शन करने के लिए आने लगे।160
इधर जग्गु धायभाई को यह समय अपने अपमान का बदला लेने का उचित लगा । उसने महाराजा से सरदारों को पकड़कर कैद करने की स्वीकृति ले ली।161 विचार से वह सरदारों पास गया और सरदारों से कहा कि ’’आप महाराजा के पास चलें और महाराज को धैर्य प्रदान करें।’’ सरदार भी जग्गू की बातों में आ गए और महाराजा के पास जाना स्वीकृत कर लिया। एक अन्य स्त्रोत के अनुसार गोवर्धन खींची ने सरदारों को कहलवाया था कि महाराजा बड़े उदास हैं। अतः आप गढ़ पर मृतात्मा को मिट्टी देने को आएं और महाराजा को सांत्वना देवें । तब ठाकुर देवीसिंह, ठा. केसरीसिंह, ठा. छत्रसिंह (आसोप) और ठा. दौलतसिंह (नीम्बाज) गढ़ पर अपने सैनिकों सहित गए ।162
जग्गू धायभाई ने सरदारों से बड़ी विनम्रता के साथ कहा कि महाराजा की इस दशा में उनके पास अधिक भीड़ का होना उचित नहीं रहेगा, इसलिए आप सरदार अकेले ही महाराजा के पास जांए और अपने आदमियों को यहीं (मुख्य द्वार के बाहर) ठहरा दें। सरदारों ंको षड़यन्त्र का कतई अंदेशा नहीं हुआ। अतः वे इसके लिए तैयार हो गए। इसके पश्चात् रानियों के मृतात्मा की देह के आखिरी दर्शन करने के बहाने से लोहापोल के फाटक के द्वार भी बन्द कर दिया गय163। ठा. दौलतसिंह तब इमरती पोल की खिड़की से घुस गया, परन्तु आगे लोहापोल बन्द होने के कारण वही,ं बैठ गया। महाराजा सूरजपोल तक मृत आत्माराम की बैकुण्ठी के साथ आया। वहाँ से सरदारों ने उसको सांत्वना देकर पीछे लौटा दिया। तब वे सरदार श्रृंगार चैकी पर जा खड़े हुए। सरदारों को इस प्रकार एकांत में खड़ा देखकर जग्गू धायभाई ने महाराजा से सरदारों को कैद करने की अनुमति मांगी। गोवर्धन खींची ने इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया। महाराजा विजयसिंह ने स्वीकृति दे दी और सावधानीपूर्वक कार्य करने को कहा।164
जग्गू धायभाई ने ड्योढ़िदार गोविन्ददास के मार्फत सरदारों को महाराज के पास जाने और धीरज बधाने के संदेश कहलवाया । सरदारों के मन में लोहापोल बन्द होने से कुछ शक पैदा हुआ था, परन्तु महाराज के वचनों पर विश्वास होने से वे आगे बढ़े । ठाकुर देवीसिंह एवं ड्योढ़िदार गोविन्ददास को पकड़ लिया गया।165 ठा. देवीसिंह ने इस अवसर पर जबरदस्त संघर्ष किया।166
एक अन्य स्त्रोत के अनुसार कैद किए गए ठाकुर भोजनशाला के नीचे की कोठरियों में रखे गए। नींबाज ठाकुर इस घटनाक्रम से बेखबर इमरतीपोल और लोहपाल के बीच में एक चट्टान पर बैठा था कि भावसिंह नामक एक सरदार ने उसे पकड़ लिया किन्तु संघर्ष में दौलतसिंह घायल हो गया। उसे कैद करके उपचार दिया गया। तदुपरान्त रघुनाथसिंह और जवानसिंह, विजयसिंह के पास गए। उन्हें घबराया देखकर महाराजा ने कहा कि ‘‘क्यों डरते हो? तुम्हें भरोसा न हो तो हमारी तलवार लो और अपने पास रखो’’ कहकर उन्हें अपनी तलवार दी।167
कैद किए गए सरदारों के हाथों पाँॅवों में बेड़ियाँ और तौखीर लगाई गई। ठा. देवीसिंह के हाथ और पाँव मोटे होने के कारण कड़ियाँ नहीं आई। अतः मोटी कड़ियाँ बनवाकर लगाई गई 168। अगले दिन विजयसिंह की आज्ञानुसार सरदारों के लिए भोजन की थाल मंगाई गई। केसरीसिंह और छत्रसिंह भोजन करने लगे। ठा. देवीसिंह ने हाथ धोने के लिए जल मंगाया। सेवक ने जल ठाकुर को पकड़ा दिया। ठाकुर ने उसी समय जल हाथ में लेकर कहा कि ’’महाराजा बख्तसिंह की सेवा हमने इमरतिया नाडा से शुरू की थी और इस महाराजा की भी नौकरी आज तक की, जिसका यह फल मिला है। अब महाराजा जब हमें बाहर निकालेंगें तभी हम अन्नजल लेगें अथवा दूसरे जन्म में इनका सेवन करेगें । यह कहकर जल छोड़ दिया और भोजन नहीं किया। 169
े इसी दौरान जग्गू धायभाई ठा. देवीसिंह की कोठरी में गया और उसे ताना दिया कि ’’ठाकुर! तुम कहते थे कि जोधपुर का राज्य मेरी कटार की पड़दली में है। अब वह पड़तली कहाँ है? उसके उत्तर में देवीसिंह ने कहा कि पड़तली मेरे पुत्र सबलसिंह की बगल में पोकरण में हैं, जिसका तुम्हें पता चल जाएगा। तुमने मुझे धोखे से पकड़ा अन्यथा मैं तुम्हें अच्छा सबक सिखाता। अब मेरे पीछे मेरे पुत्र तुम लोगों को चैन से राज नहीं करने देंगे।170
कर्नल टाॅड के अनुसार देवीसिंह महाराज अजीतसिंह का पुत्र था इस कारण उस राजरक्तधारी को गोली अथवा तलवार से मारने में किसी को भी साहस नहीं हुआ। अन्त में एक बड़े पात्र में विष मिला हुआ अफीम का पानी उनके पास भेज दिया गया और उन्हें यह आज्ञा मिली कि तुमको यह पानी पीकर प्राण त्यागने होंगें। परन्तु देवीसिंह मिट्टी का पात्र देखकर क्रोधित हो गया। उसने स्वर्णपात्र में अफीम लाने के लिए कहा। माॅग स्वीकार नहीं किए जाने पर उसने क्रोध में आकर अफीम का पात्र दूर फेंक दिया और पत्थर की दीवार पर अपने सिर को दे पटका। मस्तक फट जाने से उसके प्राण निकल गए171। इस विवरण में कर्नल टाॅड ने देवीसिंह को महाराज अजीतसिंह का पुत्र बताया है, जो कि गलत है।
’’ठिकाणा पोहकरण का इतिहास’’ के अनुसार अन्नजल त्यागने के पाँचवे दिन रात्रि में रामदेवजी ने उसे दर्शन देकर कहा कि चलो हम तुमको बाहर निकालें, तब देवीसिंह ने उनसे पूछा कि मेरी उम्र अब कितनी है? रामदेवजी ने कहा कि तीन दिन अवशिष्ट है। इस पर देवीसिंह ने कहा कि ’’महाराज मुझे अब बड़े घर में ही उपरत होने दीजिए। तत्पश्चात् 1760 ई. (वि.सं. 1816 की फागुन सुदी अष्टमी) को ठाकुर देवीसिंह का स्वर्गवास हुआ172। उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि ठा. देवीसिंह कुल 8 दिन कैद में रहा। किन्तु ’’महाराज विजयसिंह की ख्यात में स्पष्ट वर्णित है कि ठा. देवीसिंह 6 दिन तक कैद में जीवित रहा और सन्निपात बुखार से उसकी मृत्यु हुई 173। ठा. देवीसिंह की मृत्यु की तिथि को भी लेकर मनभिन्नता है।रेऊ ने स्वामी आत्माराम की मृत्यु की तिथि 2 फरवरी, 1760 ई. (वि.सं. 1816 फाल्गुन बदी 1 मानी है)174 इसमें 6 दिन जोड़ने से ठा. देवीसिंह की मृत्यु तिथि 8 फरवरी 1760 ई. ठहरती है। यह तिथि हमें अधिक तर्कसंगत प्रतीत होती है।
ठा. देवीसिंह की मृत्यु के समय उसकी अवस्था मात्र 39 वर्ष की थी। मृत्यु के समय उसके हाथ और पैर की बेड़ियँा स्वतः ही कट गई थी। यह मान्यता है कि रामदेवजी ने कोठरी में प्रकट होकर स्वयं ही ये बेड़ियाँ काटी थीं। बेड़ियों को अलग देखकर वहाँ तैनात पहरेदार ने उसकी सूचना दरोगा को दी। दरोगा अपने साथ बीस आदमी लेकर गया। किवाड़ खोलने पर उसे ठा. देवीसिंह की मृत्यु का पता चला175। महाराज विजयसिंह की आज्ञा प्राप्त कर आउवा ठाकुर जेतसिंह ने रावटी नाडी के पास ठा. देवीसिंह के शव का दाह संस्कार किया ।176
ठा. देवीसिंह के पकड़े जाने के समय उसके सैनिक इमरती पोल के बाहर थे। स्वामी के बन्दी बनाए जाने के सूचना मिलते ही सैनिक अपनी हवेली में आए। ठा. देवीसिंह की ख्वास जस्सू को साथ लेकर वे सोजती दरवाजे आए। दरवाजे का ताला तोड़कर वे निकल गए। ठा. देवीसिंह का छोटा कुँवर श्यामसिंह ख्वास को लेकर पहले पाली और फिर गुंदोज गया। वहाँ उन्हें देवीसिंह के स्वर्गवास होने की खबर मिली, तब ख्वास जस्सू वही,ं सती हुई।
ठा. देवीसिंह के साथ कैद किए गए अन्य सरदारों में ठा. दौलतसिंह को बाद में छोड़ दिया गया। ठा. छत्रसिंह का एक माह कैद रहकर स्वर्गवास हुआ। ठा. केसरीसिंह का तीन वर्ष कैद के बाद वही,ं मृत्यु को प्राप्त हुआ।177ठाकुर देवी सिंह की संतति चार पुत्र और 3 पत्नियाँ थी। ठा. देवीसिंह ने महाराजा अभयसिंह, रामसिंह, बखतसिंह, और विजयसिंह की चार पुश्तों तक सेवा की। महाराजा अभयसिंह ने 1747 ई. में पोकरण का पट्टा इनायत किया और प्रधानगी का सिरोपाव दिया। महाराजा रामसिंह ने 1749 ई. में भोजपुरा के डेरे पर प्रधानगी पद, हाथी और सिरोपाव दिया। 1751 ई. में महाराजा बख्तसिंह ने प्रधानगी इनायत की जो महाराजा विजयसिंह के शासनकाल में उसकी मृत्यु तक रहा। महाराजा विजयसिंह ने ठा. देवीसिंह को 1752 ई. (वि.सं. 1809) में हाथ का कुरब, दरबार की सवारी में घोड़ा अगाड़ी रखने का कुरब और दरबार होने पर सामने की पंक्ति में बैंठने का कुरब इनायत किया।
प्रधान जैसे महत्त्वपूर्ण पद पर वह पिता की मृत्यु के बाद सम्पूर्ण जीवनकाल रहा, फिर भी शासकों के उपेक्षित व्यवहार से वह असंतुष्ट रहा। महाराजा रामसिंह की बचकानी हरकतंे और दुर्बल चरित्र होने पर भी उसने सरदारों के असंतोष को कम करने का प्रयास किया, परन्तु अन्ततः असफल रहा। महाराजा रामसिंह द्वारा सार्वजनिक रूप से अपमानित किए जाने पर उसने मारवाड़़ के हित में बख्तसिंह के पक्ष में जाने का निर्णय किया।बख्तसिंह को जोधपुर गढ़ पर अधिकार दिलवाने में उसकी भूमिका निर्णायक रही । महाराजा बख्तसिंह के अल्पशासन के बाद महाराजा विजयसिंह के शासनकाल में भी उसे उपेक्षा के कड़वे घूँट पीने पड़े । प्रधान के परम्परागत अधिकारों की पुनःस्र्थापना करने के लिए उसने संघर्ष किया।अपने अस्थिर मस्तिष्क और दुर्बल चरित्र के कारण वह अपने इर्द गिर्द के अवसरवादी और सत्ता लोलुप सरदारों के प्रभाव में आकर ऐसे निर्णय ले बैठता था जो भविष्य में गलत साबित हो जाते थे । एक प्रधान का अपने परामर्श की उपेक्षा किए जाने से नाराज हो जाना स्वाभाविक ही था। इस प्रवृति से राज्य के सामन्तो और राज्य के मध्य संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हुई । यदि विजयसिंह एक समझदार शासक की तरह अपने प्रधान सामन्तों से सामंजस्य बनाकर चलता तो उसका न तो सामन्तों से संघर्ष होता और न ही ठा. देवीसिंह जैसे योग्य व्यक्ति की हत्या करने की उसको आवश्यकता पड़ती । वस्तुतः ठा. देवीसिंह राजनीतिक सत्ता की दुर्बलता का शिकार हुआ था।
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