शोध संक्षेपण
पोकरण का राजनीतिक और सास्कृतिक इतिहास
पश्चिमी राजस्थान के विस्तृत मरुभूमि की गोद में अवस्थित पोकरण अपनी विशिष्ट भौगोलिक विशेषताओं, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और सांस्कृतिक गतिविधियों के कारण सदियों से चर्चित रहा है। यह 26055‘ उŸार और 71055‘ पूर्व तथा जोधपुर से 80 कि.मी. दूर स्थित है। शीतोष्ण शुष्क किन्तु निम्न भूमि होने के कारण यहांँ पीने के जल की उपलब्धता सम्पूर्ण पश्चिमी मरूभूमि की अपेक्षा कुछ अच्छी है।
प्रारम्भिक इतिहास -
किंवदन्तियों के अनुसार पुष्करणा ब्राह्मण के आदि पुरुष पोकर ऋषि की कर्मस्थली होने के कारण यह स्थान पोकरण कहलाया। रियासती काल में पोकरण जैसलमेर और मारवाड़ राज्यों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण विवाद का बिन्दु बना। कालान्तर में 1728 ई. में यह मारवाड़ राज्य के प्रधान की पट्टाशुदा जागीर होने से चर्चित रहा।
लगभग 100 गांवों का यह पोकरण पट्टा प्रशासनिक शब्दावली में ‘ठिकाणा’ नाम से जाना जाता था। ठिकाणा एक शासक द्वारा सामान्यतया अपने भाई बन्धुओं को दिया गया वह अहस्तान्तरणीय पैतृक भू-क्षेत्र या जागीर पट्टे का वह मुख्य गांव था जिसमें ठिकाणों को प्राप्त करने वाला सरदार अपने परिवार सहित कोट, कोटडियों या हवेली में निवास करता था। जागीर पट्टे के सभी गांवों का शासन प्रबंध एवं संचालन इसी प्रशासनिक केन्द्र से किया जाता था तथा इससे राज्य का सीधा सम्बन्ध होता था। चारणों और ब्राह्मणों को दिए गए गांव (डोली एवं सांसण) सामान्यतया इस श्रेणी में नहीं आते थे।
ठिकाणे के स्वामी ठाकुर, धणी, जागीरदार, सामन्त या ठिकाणेदार इत्यादि नामों से जाने जाते थे। ठिकाणे के संचालन को ’ठकुराई’ कहा गया। मारवाड़ ये ठाकुर युद्ध और प्रशासन में महाराजा के परम् सहयोगी हुआ करते थे। उनमें ये भावना निहित थी कि वे अपनी पैतृक सम्पŸिा की सामूहिक रूप से रक्षा करने हेतु ऐसा कर रहे है। अपनी इस विशेष स्थिति के कारण ठिकाणेदारों को अनेक विशेषाधिकार और विशिष्ट सम्मान प्राप्त थे। इसके बावजूद ठिकाणेदारों और महाराजा के परस्पर सम्बन्ध काफी उतार-चढ़ाव युक्त रहे।
पोकरण का संदर्भ ऐतिहासिक ‘‘महाभारत’’ में पुष्करण या पुष्करारण के नाम से मिलते है जहां उत्सवसंकेत गणों को नकुल ने दिग्विजय यात्रा में हराया था। लगभग इसी नाम से एक स्थल का विवरण समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में भी मिलता है, किन्तु यह विवादास्पद है। 17 वीं शताब्दी में 1013 ई. में दो शिलालेखों से इस क्षेत्र में गुहिल और परमार शासकों की गतिविधियों के संकेत प्राप्त होते है। मुहता नैणसी री ख्यात उपरोेक्त कला में भाटी, झाला और वराह पंवारों (परमार) की राजनीतिक गतिविधियों का विवरण देता है। मुहता नैणसी लगभग 14वीं शताब्दी में पोकरण में पोकरण पुरूरवा, नानग छाबड़ा, महिध्वल तथा भैरव राक्षस द्वारा महिध्वल को पकड़ कर पोकरण को सूना करने का विवरण देता है।
15 वीं शताब्दी में रावल मल्लिनाथ पोकरण और उसके आस-पास के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। कालान्तर में अजमालजी तंवर और उसके पुत्र रामदेवजी ने रावल मल्लिनाथ की आज्ञा से पोकरण पुनः बसाया। राव मल्लिनाथ के पौत्र हम्मीर-जगपालोत की रामदेवजी की भतीजी और वीरमदेव की पुत्री से विवाह के उपलक्ष्य में पोकरण दहेज में दिया गया। रामदेवजी पोकरण से कुछ दूर रूणिचा या रामदेवरा में जा बसे। पोकरण में हम्मीर के वंशज पोकरणा राठौड़ कहलाए। पोकरणा राठौड़ों और जैसलमेर के भाटियों में पोकरण के अधिकार को लेकर निरंतर संघर्ष चलता रहा। इसी बीच मण्डोर के शासक राव सातल के पुत्र नरा (नरसिंह) ने मौका देखकर पोकरण पर अधिकार कर लिया। उसने पोकरण के समीप सातलमेर में नया किला बनवाया। पोकरण के राठौड़ों ने तब राव खींवा के नेतृत्व में संगठन बनाकर आक्रमण कर दिया। इस संघर्ष मंे राव नरा वीरगति को प्राप्त हुआ। तदुपरान्त राव सूजा ने पुत्र की हत्या का प्रतिशोध लेने हेतु फौज भेजकर पोकरणा राठौड़ों को वहां से खदेड़ दिया।
16 वीं शताब्दी के प्रारंभ में राव खींवा के पुत्र लूंका ने महेवा के स्वकुलीय राठौड़ों की सहायता से पोकरण पर आक्रमण किया। पोकरण सातलमेर के शासक राव गोविन्द ने उसे आधा राज्य देकर समझौता कर लिया। 1550 ई. में राव मालदेव ने सेना भेजकर राव गोविन्द के पुत्र जैतमाल को पराजित कर कैद कर लिया और पोकरण-सातलमेर को अपने प्रत्यक्ष नियंत्रण में ले लिया। उसने सातलमेर का गढ़ नष्ट करके पोकरण के किले का पुनर्निर्माण करवाया और पुलिस चैकी की स्थापना की। उसके उŸाराधिकारी राव चन्द्रसेन की बादशाह अकबर की सेना से हार हुई। राव चन्द्रसेन ने मण्डोर का दुर्ग त्याग कर पीपलण के पहाड़ों में शरण ली। इस दौरान जैसलमेर महारावल हरराज ने पोकरण पर अधिकार करने का प्रयास किया। असफल रहने पर उसने एक लाख फदियों में पोकरण गिरवी रखने की पेशकश की। राव चन्द्रेसन ने इसकी स्वीकृति दे दी क्योंकि उसे धन की आवश्यकता थी।
तदनन्तर 74 वर्षों तक पोकरण पर जैसलमेर के भाटियों का अधिकार रहा। महाराजा जसवन्तसिंह ने बादशाह शाहजहां की आज्ञा से सेना भेजकर पोकरण पर पुनः अधिकार कर लिया। सात वर्ष पश्चात् महारावल सबलसिंह ने पोकरण पर अधिकार कर लिया। महाराजा जसवंतसिंह प्रथम ने मुहता नैणसी के नेतृत्व में एक सेना भेजकर पोकरण पुनः हस्तगत कर लिया तथा उसने आगे बढ़कर आसणीकोट तक लूटमार की। बीकानेर महाराज कर्णसिंह की मध्यस्थता में दोनो पक्षों में संधि सम्पन्न हुई। महाराजा जसवंतसिंह प्रथम की मृत्यु के बाद महारावल अमरसिंह ने पोकरण पर अधिकार करने के प्रयास पुनः प्रारंभ किए। वह औरंगजेब से पोकरण-सातलमेर और फलौदी का पट्टा लिखवाने में असफल रहा। इसी दौरान जोधपुर दुर्ग पर शाही आक्रमण के समय कुंवर राजसिंह के मारे जाने से उसकी पोकरण-फलौदी के प्रति रूचि समाप्त हो गई। उसने मारवाड़ के राठौड़ों से कटुता दूर करने के लिए अपनी पुत्री का विवाह महाराजा अजीतसिंह से कर दिया।
जोधपुर रियासत द्वारा चम्पावतों को पोकरण का पट्टा दिए जाने के पश्चात् से ठाकुर भवानीसिंह तक का इतिहास-
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