Wednesday 25 December 2013

Thursday 19 December 2013

CHAPTER 3




अध्याय - 3
चाम्पावतों का आगमन और सबलसिंह चाम्पावत तक राजनीतिक इतिहास
    राव जोधा राठौड़ सŸाा का वास्तविक संस्थापक तथा राठौड़ साम्राज्य को एक निश्चित स्वरूप प्रदान करने वाला व्यक्ति था। जोधा के शासन में ही मारवाड़ मे सामंत प्रथा की दृढ रूप से स्थापना हुई। उसने अपने सम्बन्धियो की सहायता से ही विशाल साम्राज्य निर्मित किया था। आवागमन के सीमित साधनों के कारण इतने विस्तृत साम्राज्य पर एक केन्द्र से शासन करना संभव न था। कठिन परिस्थितियों में सहायता करने वालों को भी पुरस्कृत करना आवश्यक था। अतः जोधा ने अपने साम्राज्य के विभिन्न क्षे़त्रो मे शासन करने हेतु अपने भाइयो व पुत्रो की नियुक्ति की । इस क्रम में राव चाम्पा को कापरड़ा और बनाड़ दिया गया।
राव रणमल के 26 पुत्रों में अखैराज सबसे बड़ा था किन्तु चाम्पा का अपने भाईयों में कौन सा क्रम था, इसे लेकर विद्वानों में मतभेद है। श्ठिकाणा पोहकरण के इतिहासश् में राव चाम्पा को राव रणमल की क्रम में दूसरी सन्तान बताया गया है और वह राव जोधा से बड़ा बताया गया है।1 पं॰ विश्वेश्वर प्रसाद रेऊ राव चाम्पा को क्रम में चतुर्थ अर्थात अखैराज, जोधा और काँधल के पश्चात् मानते हैं।2 इतिहासकार यथा रामकर्ण आसोपा, जगदीशसिंह गहलोत, भगवतसिंह, मोहनसिंह कानोता राव चाम्पा को क्रम में तीसरा और राव जोधा से बड़ा मानते हैं। इतिहासकारों की उपरोक्त धारणा अधिक उपयुक्त प्रतीत होती है।
चाम्पावतों का इतिहास - राव चाम्पा 
राव चाम्पा का जन्म 1412 ई. को हुआ था, तथा राव जोधा इससे छोटा था, जिसका जन्म 1415 ई. का है।3 राव रणमल ने जब अखैराज, काँधल और चाम्पा से राव जोधा को राज्याधिकार देने की मंशा प्रकट की तो पिता की आज्ञा एवं इच्छा समझ कर इन्होने इसे स्वीकार किया4 और राव जोधा के मण्डोर राज्य को प्राप्त करने में पूर्ण सहयोग दिया। किशोर अवस्था में राव चाम्पा ने पिता की आज्ञा से एक ऊंटों का एक काफिला लूटा, जिससे बड़ी मात्रा में गुड़ के कापे बरामद हुए। इसे अच्छा शकुन जानकर उसने वही,ं एक गांव बसाया, जिसका नाम कापरड़ा रखा। 1428 ई. को राव रणमल ने इस गांव का पट्टा राव चाम्पा को दे दिया।5 1433 ई. में मेवाड़ के महाराणा मोकल की हत्या होने पर राव चाम्पा अपने पिता के साथ मेवाड़ गया। उसने पूर्व में राव रणमल्ल के साथ युद्ध करके चाचा और मेरा को मारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।6 तत्पश्चात् अग्रज अखैराज के साथ राव चाम्पा को मण्डोर के दुर्ग की व्यवस्था करने हेतु भेज दिया गया।7 1438 ई. (वि.सं. 1495) में राव रणमल की मेवाड़ में हत्या हो जाने पर राव जोधा 700 सवारों के साथ वहां से बच कर भाग निकला।8 किन्तु उसके मण्डोर पहुंचने से पूर्व ही मेवाड़ की सेना वहां आ पहुंची। मण्डोर किले के व्यवस्थापक अखैराज और चाम्पा ने समझा की ‘रावजी’ को पहुंचाने के लिए मेवाड़ी सैनिक आये हैं। बदरी शर्मा के अनुसार राव चाम्पा ने रावजी की सलामी में तोपें दागनी शुरू कर दी।9 यह विवरण हास्यास्पद है क्योंकि भारत में तोपों का प्रचलन 1525 ई. में बाबर के आगमन के बाद प्रारंभ हुआ था। मेवाड़ की सेना द्वारा मण्डोर के किले पर घेरा डालने पर चाम्पा और अखैराज ने अपने मुट्ठी भर सैनिकों की मदद से मेवाड़ी सेना से तीन दिन तक लोहा लिया। किले के बाहर हुई एक लड़ाई में राव चाम्पा घायल हुआ, किन्तु वह अखैराज के साथ वहां से बच निकले और राव जोधा के पास जांगलू के गांव काहूनी पहुँचने में सफल हुए।10
1453 ई. में राव जोधा ने अपने भाइयों अखैराज, चाम्पा और कांधल के सहयोग से तलवार के बल पर मारवाड़़ का राज्य पुनः अधिकृत कर लिया।11 1455 ई. में राव जोधा ने बड़ी सेना लेकर मेवाड़ पर चढ़ाई की। राव चाम्पा इस अभियान का सेनानायक था। राव चाम्पा की अध्यक्षता में पहले गोड़वाड प्रान्त लूटा गया तत्पश्चात् चिŸाौड़ पर बोलकर चिŸाौड़ के दरवाजे जलाए गए और पिछोला झील में घोडों को पानी पिलाया गया।12
1455 ई. में राणा कुम्भा ने एक बड़ी सेना के साथ मारवाड़़ की ओर कूच किया। इधर राव जोधा ने भी मुकाबले की पूरी तैयारी कर ली थी। राव जोधा के पास सैनिक अधिक थे जिससे घोड़े व ऊँट कम पड़ गए। तब राव चाम्पा के परामर्श से गाडे़ मंगवाए गए और राठौड़़ वीरों को उसमें बैठा कर रवाना किया गया। महाराणा कुम्भा को स्थिति भांपते में समय नहीं लगा कि सैनिक गाड़ों में बैठकर मरने मारने आए हैं, भागने के लिए  नहीं, क्योंकि राठौड़़ सैनिक के पास रणभूमि से भाग निकलने के साधन नहीं थे।13 तब कुम्भा ने सन्धि का पैगाम भिजवाया। राव जोधा ने भी चाम्पा और कांधल आदि से सलाह करके संधि कर लेना उचित समझ कर चाम्पा और कांधल को महाराणा के पास भेजा। राव चाम्पा ने संधि वार्ता द्वारा सोजत तक के क्षेत्र को मारवाड़़ के राज्य में बनाए रखने में सफलता प्राप्त की।
जोधपुर का किला बनवाए जाने के समय चिडि़यानाथ जी को राजकर्मचारियों द्वारा तंग किए जाने पर वे अपनी धूणी चादर में बांध कर अन्यत्र पालासनी की ओर रवाना हो गए। राव जोधा ने चाम्पा को उन्हें मनाने के लिए भेजा। चिडि़यानाथ जी ने लौटना स्वीकार नहीं करके वही,ं पालासनी धूणी रमा ली।14 1459 ई. में गोड़वाड के सिंधल और सोनिगरा चैहान राजपूतों ने कापरड़ा में एकत्रित होकर गायंे घेरकर ले गए। सूचना मिलने पर राव चाम्पा 500 सैनिकों के साथ पहुँचा और गायंे छुड़ाने में सफल रहा। 1465 ई. में पाटण (गुजरात) के सुल्तान ने गुजरात से दिल्ली जाते हुए पाली में डेरा डाला। गोडवाड़ के सिंधलों और सोनिगरों ने सुल्तान को भड़काया कि ‘‘ चाम्पा के पास बहुत धन है। हम अपनी पुरानी हार का बदला लेना चाहते है।ं आप हमारी मदद करें। जो भी धन मिले वह आप ले लेंगें’’। लोभ में पड़कर सुल्तान ने आक्रमण करने की नियत से कापरड़ा की ओर प्रस्थान किया। राव चाम्पा 300 सवारों के साथ पूनासर की पहाड़ी के समीप पहुंचा। चाम्पा से वीरतापूर्वक युद्ध लड़कर सुल्तान और उसके सहयोगियों को खदेड़ दिया किन्तु स्वयं भी घायल हो गया।  1479 ई. में महाराणा रायसिंह की सहायता से सिंधलों ने राव चाम्पा पर चढ़ाई की। मिणियारी के समीप हुए इस युद्ध में राव चाम्पा वीरगति को प्राप्त हुआ। राव चाम्पा के 5 पुत्र हुए 15  (1) भैरूदास (2) सगत सिंह (3) पंचायण  (4) भींवराज  (5) जैमल
राव भैरूदास -   चाम्पावत भैरूदास का जन्म 1434 ई. को हुआ ओर 1479 ई. को वह कापरड़ा का राज्याधिकारी हुआ। 1486 ई. को कच्छवाहा शासक राजा चन्द्रसेन ने सांभर पर आक्रमण किया। युद्ध में राव जोधा के साथ भैरुदास ने वीरतापूर्वक युद्ध करके आक्रमणकारियों को परास्त किया। छापर द्रोणपुर में भैरुदास के सेनापतित्व में भेजी गई सेना ने सांरग खां को परास्त कर मार डाला। 1491 ई. में अजमेर का सूबेदार मल्लू खां मेड़ता को लूटकर पीपाड़ तक बढ़ गया। उसने तीज पर्व पर गौरी पूजन के लिए गई स्त्रियों का अपहरण कर लिया। राव सातल ने भैरूदास के साथ उनका कोसाणा तक पीछा किया। यहां हुए भीषण युद्ध में मल्लूखां प्राण बचाकर भाग निकला तथा उसका सेनापति घुडले खां मारा गया। राव सातल घायल होकर वीरगति को प्राप्त हुआ। भैरुदास स्वयं सख्त रूप से घायल हो गया।16 1498 ई. में राव सूजा के पुुत्र नरा की पोकरणा लूंका के हाथों मृत्यु होने के प्रतिशोध में भैरुदास के नेतृत्व में सेना बाड़मेर और पोकरण भेजी गई, जिसने पोकरणा राठौड़़ लूंका की गतिविधियों पर अंकुश लगाया।17 1504 ई. में मेर भोपत के विरुद्ध भैरूदास को भेजा गया। भैरूदास ने उसे खदेड़कर गायंे छुड़वा ली। जैतारण के सींधल जो मेवाड़ महाराणा के प्रति निष्ठा रखते थे, द्वारा विद्रोह करने पर भैरूदास और राव उदा को भेजा गया। उन्होंने सीधलों को पराजित कर खदेड़ दिया।18
राव सूजा के स्वर्गवास होने पर वीरम को गद्दी बिठाने के लिए पंचायण, भैरुदास आदि सरदार एकत्रित हुए। राव वीरम की माता ने उनकी परवाह नहीं की। किन्तु गांगा की माता ने उनका सत्कार किया, जिससे सरदारों ने वीरम को राज्य से वंचित करके गांगाजी को गद्दी पर बैठाया। तभी से कहा जाने लगा ‘‘रिडमलां थापिया तिके राजा’’। जब राव वीरम राव गांगा के राज्य में उपद्रव करने लगा, तब चाम्पावत भैरुदास को सेना सहित भेजा गया। इसी युद्ध में वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए भैरुदास रणाशयी हुआ।19
राव जेसा राव भैरुदास की मृत्युपर्यन्त उनका चतुर्थ पुत्र राव जेसा कापरड़ा की गद्दी पर बैठा। उसका जन्म 1466 ई. को हुआ और 1520 ई. को वह कापरड़ा की गद्दी पर बैठा। एक महात्मा के यह कहने पर कि यदि भैरुदास का वंश कापरड़ा रहा तो उसका वैभव नहीं बढ़ेगा, के कारण राव जेसा ने निर्जन वन में रणसी गांव बसाया।20 राव गांगा ने महाराणा सांगा और गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह के संघर्ष में राणा सांगा की मदद के लिए सेना सहित राव  जेसा को भेजा। राणा सांगा के बाबर से संघर्ष के समय राव जेसा 3000 मारवाड़ी सैनिकों सहित खानवा के युद्ध में मौजूद था।21 1529 ई. में राव गांगा और राव सेखा के मध्य विवाद चरम सीमा पर पहुंच गया। राव जेसा ने दोनों में सुलह करने का प्रयास किया। राव गांगा को उसने सुलह करने के लिए मना लिया किन्तु राव सेखा ने इन प्रयासों की उपेक्षा की। उसने नागौर के दौलतखां की सहायता से जोधपुर पर आक्रमण कर दिया। गांगाणी के निकट हुए युद्ध में राव जेसा ने अन्य सरदारों की सहायता से भीषण युद्ध किया। दौलतखां युद्ध भूमि छोड़कर भाग खडा हुआ और राव सेखा युद्ध में मारा गया। 1534 ई. में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने चिŸाौड़ पर आक्रमण किया। उस समय राणा विक्रमादित्य ने राव मालदेव से सहायता मांगी। राव ने जेसा को 80,000 की सेना के साथ भेजा गया। इसकी सूचना मिलने पर सुल्तान बिना लड़े ही गुजरात लौट गया।22
1538 ई. में राव वीरमदेव (मेड़ता का स्वामी) और राव मालदेव में मनमुटाव अत्यधिक बढ़ जाने पर राव मालदेव ने जेसा को मेड़ता पर भेजा। वीरम ने संघर्ष किया पर असफल रहा। वहां से वह सहायता प्राप्ति के उद्देश्य से दिल्ली के सुल्तान शेरशाह के पास जा पहुंचा। सम्पूर्ण उŸारी भारत पर आधिपत्य स्थापना का इसे अच्छा मौका जानकार शेरशाह राव वीरमदेव के साथ मारवाड़़ पर 1534 ई. में चढ़ आया। गिरि-सामेल के युद्ध में कपटपूर्ण तरीके अपनाकर शेरशाह ने मालदेव को अपने सेनानायकों के प्रति सशंकित कर दिया। राव मालदेव के रणभूमि से पलायन करने पर शेरशाह ने सम्पूर्ण मारवाड़़ पर अधिकार कर लिया। राव मालदेव ने सिवाणा में पीपलाद की पहाडि़यों में शरण ली।23 इस अवसर पर राव जेसा ने उन्हें ढूंढने आए, शेरशाह के एक सेनापति जलाल खां को मारकर उसका घोड़ा पकड लिया। 1545 ई. में राव मालदेव ने जेसा को सेना सहित भेजकर सोजत पर अधिकार कर लिया।24 1545 ई. में शेरशाह की आकस्मिक मृत्यु के बाद राव मालदेव ने जोधपुर पर धावा बोलकर मुसलमान सूबेदार को निकाल बाहर किया। इस अभियान में जेसा भी साथ ही था।25
1547 ई. में (वि.सं. 1604) में पोकरण स्वामी जैतमाल के कुशासन से त्रस्त महाजनों ने राव मालदेव से सहायता की अपील की। राव मालदेव ने पोकरण की ओर कूच किया। जैसलमेर वालों ने मारवाड़़ की सेना के घोडे़ चुरा लिए। राव मालदेव ने इनके पीछे जेसा को भेजा। राव जेसा ने न केवल घोडे़ छुड़ाए बल्कि आगे जैसलमेर में लूटपाट भी की।26  राव मालदेव की सेना  के आक्रमण की आशंका से जैसलमेर महारावल ने संधि कर ली।27 1553 ई. में राव मालदेव ने जेसा को मेड़ता की ओर वीरमदेव के पुत्र जयमल के विरुद्ध भेजा। एक घनघोर युद्ध के पश्चात् राव जेसा विजयी रहा, किन्तु उसका भाई रायसिंह वीरगति को प्राप्त हुआ। जयमल ने बादशाह अकबर की सहायता से और मुगल सेनापति शरफुद्दीन के सक्रिय सहयोग से मेड़ता पर आक्रमण किया। राव जेसा को सेना सहित मेड़ता भेजा गया। मेड़ता के समीप हुए घमासान युद्ध में राव जेसा वीरगति को प्राप्त हुआ।27
राव जेसा के विषय में एक रोचक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि 1537 ई. के लगभग रात्रि में राव जेसा अकेला रणसी गांव आ रहा था। रणसी गांव के समीप एक नाडी पर वह अपने घोड़े को पानी पिलाने रूका। तभी भूत ने जेसा को कुश्ती के लिए ललकारा। राव जेसा ने इसे स्वीकार किया और थोड़ी ही देर में भूत को जमीन पर दे पटका। पराजित भूत अपने हाथ पांव बांधकर राव जेसा के सामने खड़ा हो गया। राव जेसा ने उसे एक बावड़ी और महल बनाने की शर्त पर छोड़ दिया। भूत ने भी प्रत्युŸार में शर्त रखी कि महल बनने तक वह किसी को इस बारे में नहीं बताए। इधर राव जैसा की पत्नी रात भर कोलाहल का कारण पूछती रही और जेसा उसे टालते रहा। प्रातः अंधेरा छटने से पूर्व उसकी पत्नी ने पुनः कारण बताने का अनुग्रह किया। राव जी ने सोचा कि अब तक भूत निर्माण कार्य कर चुका होगा। उसने रात वाली घटना ठकुराणी को बताई। उस क्षण भूत ऊपरी कोने के निर्माण में लगा था। उसने कार्य रोक दिया। यह महल और बावड़ी आज भी रणसी में मौजूद है।28 भूत द्वारा छोड़ गए कार्य को पूर्ण करने का कई बार प्रयास किया गया, पर हर बार असफलता मिली। रणसी के महल का अधूरा कोना आज भी मौजूद है।

Wednesday 18 December 2013

PREFACE



प्राक्कथन
इस शोध प्रबन्ध का उद्देश्य पोकरण के राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास के विविध पक्षों पर प्रकाश डालना हैं, 1724 ई. में महाराजा अजीतसिंह की मृत्यु और महाराजा अभयसिंह के सिंहासनोहण के समय उत्पन्न राजनीतिक परिस्थितियों में ठा. चाम्पावत महासिंह का राजनीतिक जीवन प्रारंभ हुआ। इसी क्रम में उसकी सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराजा अभयसिंह ने 1729 ई. में उसे 72 गाँव युक्त पोकरण का पट्टा इनायत किया। ऐतिहासिक दृष्टि से ठा. महासिंह जैसे शक्तिशाली सरदार को पोकरण इनायत किए जाने से पोकरण को लेकर मारवाड़ राज्य और जैसलमेर राज्य के मध्य संघर्ष का पटाक्षेप हुआ। मुहता नैणसी महाराजा जसवंतसिंह के शासनकाल तक पोकरण के विविध पक्षों पर प्रकाश डालता है, किन्तु इसके पश्चात् किसी भी इतिहासकार ने पोकरण पर वस्तुनिष्ठ अध्ययन नहीं किया। पोकरण के ठाकुरों तथा उनके मारवाड़ के महाराजाओं से सम्बन्धों के विषय में हमें बिखरी हुई जानकारियाँ मिलती हैं जिनमें अनेक विसंगतियाँ है। महाराजाओं ओर पोकरण के ठाकुरों ने अपने संरक्षित चारणों और भाट-कवियों इत्यादि से जो साहित्य रचना करवाई है, वह कई स्थानों पर अतिश्योक्तिपूर्ण है तथा घटनाओं को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया। इससे ऐतिहासिक अध्ययन में एक भटकाव उत्पन्न हुआ। इन ऐतिहासिक विसंगतियों का निवारण करना, पोकरण के इतिहास से सम्बन्धित प्राथमिक और द्वितीयक स्त्रोतों में सामंजस्य स्थापित करना, पोकरण के सामन्त सरदारों की निष्ठा, राजनीतिक कार्यवाहियों, व्यवहारों और व्यक्तित्व के विषय में उत्पन्न भ्रान्तियों का निवारण करके पोकरण के ठाकुरों की सही तस्वीर प्रस्तुत करना, पोकरण के भौगोलिक, सामरिक, ऐतिहासिक, आर्थिक एवम् सांस्कृतिक पक्षों का व्यापक और सर्वांगीण विश्लेषण करना इस शोध का उद्देश्य है।
इस शोध प्रबन्ध के अन्तर्गत आठ अध्याय लिखे गये है। प्रथम अध्याय में पोकरण की भौगोलिक स्थिति और स्थानीय भूगोल पर प्रकाश डाला गया है। आजादी से पूर्व पोकरण मारवाड़ की ठिकाणा व्यवस्था के अन्तर्गत प्रशासित था। इस अध्याय में ठिकाणे का अर्थ, मारवाड़ में ठिकाणा व्यवस्था की आवश्यकता और महत्व के विषय में प्रकाश डाला गया है।
दूसरे अध्याय में महाराजा जसवंतसिंह के शासनकाल तक का पोकरण का इतिहास बताया गया है। इसमें पोकरण की उत्पŸिा से जुड़ी किंवदन्तियाँ, तंवर अजमालजी और बाबा रामदेव द्वारा पोकरण पुनः बसाने, पोकरणा राठौड़ ठाकुरों तक का इतिहास, फलोदी के सामन्त नरा सूजावत की पोकरण प्राप्ति की इच्छा एवम् विवाद, मारवाड़ अधिपति राव सूजा, तदन्तर राव मालदेव और महाराजा जसवंतसिंह द्वारा पोकरण में सैनिक हस्तक्षेप के विषय में जानकारी दी गई है।
तीसरे अध्याय में पोकरण के चाम्पावत राठौड़ कुला के इतिहास का संक्षिप्त वर्णन किया गया है, साथ ही उन कारणों पर प्रकाश डालता गया है जिनके कारण चाम्पावत महासिंह को मारवाड़ की पश्चिमी सीमा पर एक बड़ा पट्टा-रेख और प्रधानगी इनायत की गई। ठा. देवीसिंह द्वारा मारवाड़ राज्य को दी गई सेवाएं और मारवाड़ राज्य के महाराजाओं यथा अभयसिंह, रामसिंह, बख्तसिंह और विजयसिंह से उसके सम्बन्धों का क्रमिक विवरण तथा ठा. देवीसिंह की हत्या का प्रतिशोध लेने को उद्यत उसके पुत्र ठा. सबलसिंह द्वारा किए गए असफल विद्रोह की जानकारी दी गई है।
चैथे अध्याय में मारवाड़ कि इतिहास के सर्वाधिक चर्चित सामन्त ठा. सवाईसिंह के व्यक्तित्व, कृतित्व और मारवाड़ के महाराजाओं यथा विजयसिंह, भीमसिंह और मानसिंह से क्रमिक सम्बन्धों पर प्रकाश डाला गया है। ’मारवाड़ का राज्य मेरी कटार की पड़दली में है’ का उद्घोष करने वाले ठा. सवाईसिंह ने महाराजा भीमसिंह के पुत्र धौंकलसिंह को मारवाड़ का राज्य दिलाने के लिए जयपुर, बीकानेर, और शाहपुरा की सेना की सहायता से मारवाड़ पर आक्रमण करवाया और मेहरानगढ़ की घेराबन्दी की किन्तु अमीरखां पिण्डारी की कुटिलता के कारण वह न केवल असफल रहा अपितु उसे अपने जीवन से भी हाथ धो बैठना पड़ा। ठा. सवाईसिंह को मारवाड़ के इतिहासकारों ने उनके कार्याें को सही मूल्यांकन नहीं किया किन्तु तस्वीर का एक उजला पक्ष भी है जिसे प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के द्वारा उजागर करने का प्रयास किया गया है।
पांचवंे अध्याय में ठा. सालमसिंह से 1947 ई. तक का पोकरण का इतिहास वर्णित हैं। ठा. सालमसिंह ने अपने पिता ठा. सवाईसिंह की हत्या करवाएं जाने के प्रतिशोधस्वरूप फलोदी में मारवाड़ राज्य की सेना के विरुद्ध बीकानेर राज्य को प्रारंभिक सहयोग दिया किन्तु अपनी कमजोर स्थिति को भांपकर शीघ्र ही समझौता कर लिया। सिंघवी इन्द्रराज की मृत्युपर्यन्त उसने मुहता अखैचन्द के सहयोग से पोकरण गुट का निर्माण कर वर्चस्व की स्थिति प्राप्त की। महाराजा मानसिंह ने अंग्रेजों के संरक्षण में अवसाद की स्थिति से उबरकर पोकरण गुण को छिन्न-भिन्न कर दिया। उसका उŸाराधिकारी ठा. बभूतसिंह अधिकांशतः पोकरण में ही रहा किन्तु समय-समय पर दरबारी गुट और असन्तुष्ट गुट में संतुलन स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसके उŸाराधिकारियों ठा. मंगलसिंह, ठा. चैनसिंह और ठा. भवानीसिंह को प्रधानगी सिरोपाव इनायत नहीं हुआ। उन्हें मंत्री पद से ही सन्तुष्ट रहना पड़ा। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध पोकरण ठाकुरों की इस हृासमान स्थिति पर प्रकाश डालता है।
छठें अध्याय में पोकरण की प्रशासनिक व्यवस्था ओर अर्थव्यवस्था का वर्णन किया गया हैं। मूलतः पोकरण पट्टे में 72 गांव थे जो वृद्धि होते-होते लगभग 100 गांवों तक पहुंच गए। पोकरण चैनसिंह को अवध में ताललुकदारी भी प्राप्त थी। इतने बड़े क्षेत्र के प्रशासन के लिए विविध पदाधिकारी नियुक्त थे यथा प्रधान, किलेदार, कामदार, फौजदार, वकील, दरोगा, कोठारी इत्यादि की नियुक्ति की जाती थी। पोकरण ठाकुरों को पुलिस और प्रथम दर्जे के न्यायिक अधिकार प्राप्त थे।
1728 ई. में पोकरण पट्टा इनायत किऐ जाने के समय पट्टा-रेख कागजों में 72 गांवों से 66083 रूपए थी जो ठा. मंगलसिंह के समय कुल पट्टा गांवों 110 पर 1,17,092 रूपए हो गई। भू-राजस्व के अतिरिक्त हथोड़ा लाग, चराई कर, अदालती स्टाम्प, कबुलायत, चिरा, सावा, दाण, मुकाता, सूड़, मुतफरकात, कूंता, पशुकर, राहदारी इत्यादि ठिकाणे की आय के स्त्रोत थे। रेख, बाब, हुकुमनामा तथा प्रशासनिक खर्चे ठिकाणे की व्यय की मदें थी।
सातवें अध्याय में पोकरण की सामाजिक संरचना, जनसंख्या, खान-पान, रहन-सहन, पहनावा, उपबोली की विशिष्टता, विवाह, रीति-रिवाज जैसे पक्षों का वर्णन किया गया है। पोकरण का जीवन धर्म प्रधान रहा हैं। यहां छोटे-बडे़ असंख्य मंदिर हैं। लोगों की आस्था पंचदेवों यथा गणेश, विष्णु, शिव, सूर्य ओर शक्ति में होने के बावजूद विशेष श्रद्धा बाबा रामदेव के प्रति रही हैं। संत बालीनाथ, मौनपुरी महाराज, संत गरीबदास, संत देवगर बाबा के प्रति भी पोकरणवासियों में अनन्य आस्था रही है। विशेष पर्वों को छोड़कर पोकरण के ठाकुर अपने निजी मंदिर में ही पूजा अर्चना किया करते थे। पोकरण में सिखों का एक गुरुद्वारा और एक पुरानी मस्जिद भी हैं। 1917 ई. में यहां एक मदरसा स्थापित किया गया। प्रस्तुत अध्ययन पोकरण में सर्वधर्म सम्भाव की जानकारी देता है।
आठवें अध्याय में पोकरण के शासको द्वारा सांस्कृतिक क्षेत्र में दिए योगदान के विषय में प्रकाश डाला गया है। पोकरण के शासकों ने पोकरण के लाल किले में अनेक निर्माण कार्य करवाए। ठा. मंगलसिंह ने किले के प्राचीन भाग को गिराकर आधुनिक स्थापत्य विशेषताओं युक्त मंगल निवास बनवाया। पोकरण के धनाढ्य सेठों द्वारा निर्मित हवेलियाँ, हवेली स्थापत्य में विशिष्ट स्थान रखती है। पोकरण के दिवंगत ठाकुरों ओर ठकुरानियों की स्मृति में बनवाई गई छतरियाँ स्थापत्य की दृष्टि में उत्कृष्ट हैं। लोक कलाओं में रम्मत, मिट्टी की कलाकृतियाँ आज भी प्रसिद्ध है।  पोकरण की चित्रकला  शैली की एक पाण्डुलिपि संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यूयार्क में स्पेन्सर संग्रह में मौजूद है। कुछ चित्र पोकरण के किले में अवलोकन हेतु  रखे गए है।
पोकरण के ठाकुरों की शूरवीरता, स्वाभिमान, कटारी, कूटनीति पर चारण-भाट कवियों ने अनेक दोहे-डिंगल, काव्य, झमाल, गीत, मरसिये इत्यादि लिखे गए हैं। इस शोध में इनके कुछ उदाहरणों को स्थान दिया गया है।

आभार
मैं सर्वप्रथम डाॅ. आर.पी. व्यास, पूर्व आचार्य एवम् अध्यक्ष इतिहास विभाग का आभार प्रकट करना चाहता हूँ जिनके आशीर्वाद, मार्गदर्शन और पोकरण के विषय-सन्दर्भों के ज्ञान ने मुझे शोध-प्रबन्ध पूर्ण करने में अमूल्य सहायता दी है।
मैं अपने गुरु एवम् शोध निर्देशक डाॅ. श्याम प्रसाद व्यास का हार्दिक आभार प्रकट करता हूं, जिनके कुशल निर्देशन एवम् बहुमूल्य प्रेरणा से यह  शोध-प्रबन्ध पूर्ण हुआ। उन्होंने समय-समय पर मुझे उपयोगी और आवश्यक सुझाव देकर मेरा मार्गदर्शन किया। मैं उनका आभार शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता हूँ। किसी भी शिष्य की भांति मैं उनका गुरु ऋण नहीं चुका सकता हूँ। उनके आशीर्वाद से ही मैं अपनी योग्यता सिद्ध कर सका हूँ।
मैं पोकरण ठाकुर साहब श्रीमान् नगेन्द्रसिंह जी पोकरण, ठकुराणी सा और कुँवर साहब परम विजय सिंह पोकरण का अत्यधिक आभारी हूँ। उन्होंने पोकरण से जुड़े मूल स्त्रोत और बहियाَँ मुझे पढ़ने और तस्वीरें लेने के लिए दी। इनके पूर्ण सहयोग और प्रोत्साहन से ही मेरा यह शोध प्रबन्ध सफलतापूर्वक पूरा हो सका है। मैं अपने पोकरणस्थ मित्र राधाकिशन खत्री और राजेन्द्र व्यास तथा अपने शिष्य विकास राठी का आभारी हूं जिन्होंने पोकरण के सामाजिक और सांस्कृतिक पक्षों से जुड़़ी सामग्रियाँ एकत्रित करने में मेरी सहायता की ।
मैं डाॅ. हुकुमसिंह भाटी, निदेशक, राजस्थानी शोध संस्थान, चैपासनी और उनके पुत्र डाॅ. विक्रमसिंह भाटी का आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने सामग्री एकत्रीकरण और मूल स्त्रोतों को पढ़ने में मुझे उपयोगी सहायता प्रदान की। मैं डाॅ. महेन्द्रसिंह नगर, निदेशक, महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश और अनुसंधान केन्द्र का आभारी हूँ जिन्होंने मेरा उत्साहवर्द्धन करने के साथ-साथ मुझे लाइब्रेरी से पुस्तकें उपलब्ध कराई।
मैं रा. रा. प्रा. वि., जोधपुर में कार्यरत डाॅ. कमल किशोर एवं (श्रीमती) वसुमती शर्मा का आभारी हूँ जिन्होंने मेेरे शोध प्रबन्ध में व्यक्तिगत रूचि ली और मूल स्त्रोतों को तत्परता से उपलब्ध कराने में सहायता दी। मैं रा. रा. अ., जोधपुर में कार्यरत श्री नारायणसिंह भाटी और रा. रा. अ., बीकानेर में कार्यरत श्री पूनमचंद जी जोईया का भी आभारी हूँ जिन्होंने मूल शोध सामग्री उपलब्ध कराने में विशेष सहायता दी।
मैं अपने मित्रों शक्तिसिंह राठौड, डाॅ. महेन्द्रसिंह तंवर और        डाॅ. गुमानसिंह राठौड़ का आभारी हूं जिन्होंने मुझे समय-समय पर सहयोग दिया और प्रोत्साहन दिया।
मैं अपनी स्नेहमयी माँ श्रीमती सज्जन कंवर और पिता श्रीमान् देवीसिंह शेखावत का ऋणी  हूँ जिनके आशीर्वाद से ही एक शोध-प्रबन्ध पूर्ण हुआ है। साथ ही मैं अपनी पत्नी श्रीमती कविता शेखावत को निरंतर सहयोग एवं उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद देता हूँ। उनकी प्रेरणा और त्याग के बिना यह काम असंभव था। मैं अपनी पुत्रियों पूर्वी और तन्वी को साधुवाद देता हूँ जिन्हें मेरी व्यस्तता के कारण एकाकीपन सहना पड़ा।
मैं विकास कम्प्यूटर्स एण्ड फोटो काॅपीयर्स, के खुशाल अरोड़ा का हृदय से धन्यवाद देता हूं जिन्होंने अल्प समय में इस शोध प्रबन्ध को तैयार किया है। अन्त में, मैं अपने उन सभी सहयोगियों, मित्रों एवम् रिश्तेदारों को धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मेरी सहायता की है।


अशोक कुमार सिंह शेखावत

अनुक्रमाणिका
विवरण पृष्ठ संख्या
प्राक्कथन ;पद्ध . ;पअद्ध
आभार ;अद्ध . ;अपद्ध
अध्याय - 1 पोकरण ठिकाणा - भौगोलिक परिचय एवं ठिकाणा व्यवस्था 1 . 20
अध्याय - 2 पोकरण का आरम्भिक राजनीतिक इतिहास 21 . 47
अध्याय - 3 चाम्पावतों का आगमन और सबलसिंह तक का राजनीतिक इतिहास 48 . 82
अध्याय - 4 सवाईसिंह की उपलब्धियाँ 83 . 119
अध्याय - 5 सालमसिंह से भवानीसिंह का राजनीतिक इतिहास 120 . 149
अध्याय - 6 पोकरण ठिकाणें की प्रशासनिक और आर्थिक व्यवस्था 150 . 175
अध्याय - 7 समाज और धर्म 176 . 194
अध्याय - 8 पोकरण शासकों का सांस्कृतिक क्षेत्र में योगदान 195 . 211
संदर्भ गं्रथ सूची 212 . 221

CHAPTER 1: HISTORY OF POKARAN





 अध्याय - 1  पोकरण: एक परिचय 

 पोकरण का शब्दार्थ -
पुष्करणा ब्राह्मणों के पूर्वक पोकर (पोहरक) ऋषि द्वारा बसाए जाने के कारण इस स्थान का नाम पोकरण पड़ा।1 आज भी यहां बड़ी संख्या में पुष्करणा ब्राह्मण निवास करते हैं। स्थानीय लोगों की मान्यता है कि इस क्षेत्र में 18 पोखर (पहाडि़याँ) और एक रण (नमक की झील) थी इसलिए यह क्षेत्र पोकरण कहलाया।
भौगोलिक स्थिति -
 पोकरण शहर 26.55‘ उŸार और 71.55‘ पूर्व में स्थिति है। यह जोधपुर शहर के 85 मील (180 किमी.) उŸार-पूर्व की ओर स्थित है। पोकरण शहर निम्न भूमि की ओर स्थित है तथा उŸा दक्षिण और पश्चिम की ओर पर्वतों से घिरा है। जलीय संसाधन अच्छी मात्रा में है।2 पोकरण का भौगोलिक क्षेत्रफल 9,61,354 (9517.08 वर्ग कि.मी) है।3
 सीमा -
 पोकरण वर्तमान में जैसलमेर जिले का भाग है तथा तहसील मुख्यालय है। आजादी से पूर्व यह जोधपुर रियासत का एक महŸवपूर्ण भाग रहा । पोकरण और उसके आस-पास का क्षेत्र थेरडा नाम से भी जाना जाता है।                               
जलवायु -
 पोकरण की जलवायु विषम है। शीतकाल में अधिक शीत और उष्ण काल में अधिक उष्ण है। रेतीली मिट्टी के कारण गर्मियों में रात्रि ठण्डी होती है जबकि दिन काफी गरम होते है। गमियों के दिनों में पूरे इलाके में लू चला करती है। आंधियाँ सामान्य बात है। रेत और गर्म हवा के लघु चक्रवात (र्भभूल्या) गर्मियों के दिनों की सामान्य विशेषता है।
 पोकरण में वर्षा शेष भारत या राजस्थान के तुलना में काफी कम है। औसत वार्षिक वर्षा 218 मि.मी. है जबकि इस वर्ष 2005 में वर्षा मात्र 142 मि.मी रही ।4
जनसंख्या -
 ठा. मंगलसिंह के समय में पोकरण खास की कुल जनसंख्या 7314 थी, पुरुष 3618 एवं औरते 3696 थी। कुल आबाद घर 1633 थे। पोकरण की जनसंख्या 1901 ई. में मात्र 7,125 थी।5

 कृषि-
 पोकरण शुष्क क्षेत्र में आता है। निम्नभूमि में अवस्थित होने के कारण पीने के पानी की तो पर्याप्त उपलब्धता है किन्तु कृषि कार्य की दृष्टि से जल अपर्याप्त है। कृषि कार्य के लिए कृषक मानसून की वर्षा या मावट (महावट) पर निर्भर थे। सामान्यतया खरीफ की फसल की उपजाई जाती थी। पोकरण के ठाकुरों को लगभग 100 गांवों का जागीर पट्टा प्राप्त था किन्तु अकाल जल की कम उपलब्धता, खारा पानी तथा भूमि की कम उत्पादकता के कारण उन्हें भूमि पट्टे अन्य स्थानों पर भी ईनायत किए गए जैसे कि सिवाणा, जालौर इत्यादि।6
 अस्पताल एवं स्वास्थ्य केन्द्र -
 आजादी से पूर्व पोकरण में एक डिस्पेंसरी हुआ करती थी। इस डिस्पेंसरी का व्यय एवं रख-रखाव पोकरण के ठाकुर के जिम्मे था। 7 पोकरण में एक पोस्ट आफिस भी था।

ठिकाणे का अर्थ और इतिहास
 राजस्थान के राजपूत शासको ने प्रशासनिक विकेन्द्रीकरण की नीति को अपनाते हुए एक विशिष्ट सामन्तवादी पद्धति को अपनाया। राजपूत शासकों ने अपने राज्य के अधिकांश हिस्सो को अपने ही स्वगोत्रीय वंशज भाई-बन्धुओं में बांट दिया। ये लोग विभिन्न तरीकों से राजकार्य चलाने में शासन को अपना महत्वपूर्ण सहयोग दिया करते थे।9 शासको द्वारा अपने भाई-बन्धुओं और कृपापात्रां को दिए गए भाई-बन्धुओं और कृपापात्रों को दिए गए भू-क्षेत्रों जो कुछ गांवों का समूह होता था, को ही ‘ठिकाणा’10 कहा गया है। 
 पुराने ऐतिहासिक स्त्रोतों में ठिकाणा शब्द प्रयुक्त नहीे किया गया है। ठिकाणा शब्द के स्थान पर हमें दूसरे शब्द प्राप्त होते हैं जैसे कि गांव, राजधान, बसी, उतन व वतन, कदीम इत्यादि। इन शब्दों के अर्थ में भी अन्तर है। कुछ बहियो और ख्यातों यथा महाराणा राजसिंह की पट्टा-बही, जोधपुर हुकुमत री बही, मुदियाड़ री ख्यात, जोधपुर राज्य की ख्यात इत्यादि में जागीर के लिए ‘गांव’ शब्द का प्रयोग किया गया है। कालान्तर में महाराणा भीमसिंह कालीन जागीरदारों के गांव पट्टा हकीकत में जागीर के मुख्य गांव के लिए राजधान शब्द प्रयुक्त हुआ है। वहीं नैणसी की ख्यात में और बांकीदास री ख्यात में ‘बसी’ शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका तात्पर्य है ‘परिवार सहित बसना’। ‘कदीम’ शब्द का उल्लेख किसी जाति विशेष के एक क्षेत्र पर परम्परागत था पैतृक अधिकार के संदर्भ में किया है11 जैसे कि ‘जैसलमेर भाटियों का कदीम वतन है’।12 फारसी शब्द ‘वतन’ के राजस्थान स्वरूप ‘उतन’ का भी प्रयाग कुछ गं्रथों में हुआ है। यह शब्द भी स्थायी पैतृक अधिकार का बोध कराता है। मुगलकालीन स्त्रोतो में ‘वतन’ शब्द का काफी प्रयोग हुआ है।13
 ‘ठिकाणा’ शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख 17वीं शताब्दी के उŸारार्द्ध में लिखित उदयपुर के ऐतिहासिक ग्रंथ ‘‘रावल राणाजी की बात’’ में हुआ है।14 दयालदास कृत देशदर्पण तथा बांकीदास की ख्यात में कालान्तर में इस शब्द का प्रयोग हुआ है। धीरे-धीरे यह शब्द आम प्रचलन में आ गया ‘‘ठिकाणा’’ शब्द राजस्थान, बसी, कदीम, वतन या उतन से अधिक विस्तृत है तथा अर्थ में उपरोक्त शब्दों से भिन्नता भी रखता है। ठिकाणा एक शासन द्वारा सामान्यतया अपने भाई-बन्धुओं को दिया गया, वह अहस्तान्तरणीय पैतृक भू-क्षेत्र या जागीर पट्टे का वह मुख्य गांव था। जिसमें ठिकाणे को प्राप्त करने वाला सरदार अपने परिवार सहित कोट, कोटडि़यों या हवेली में निवास करता था। जागीर पट्टे के सभी गांवों का शासन प्रबंध एवं संचालन इसी प्रशासनिक केन्द्र से किया जाता था तथा इससे राज्य का सीधा संबंध होता था। चारणों और ब्राह्मणों को दिए गए गांव (डोली व सांसण) सामान्यतया इस श्रेणी में नहीं आते थे।15
 ठिकाणे के स्वामी ठाकुर, धणी, जागीरदार, सामन्त या ठिकाणेदार इत्यादि नामों से भी जाने जाते हैं। ठिकाणे के संचालन को ठकुराई कहा जाता है। प्राचीन ऐतिहासिक गं्रथों में इस शब्द का प्रयोग किया गया है।16
ठिकाणा व्यवस्था का विकास
 राजस्थान में ठिकाणा पद्धति का उदय कब और किस प्रकार हुआ। इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है। संभवतः राजपूत राज्यों की उत्पŸिा के साथ ही यह पद्धति स्थापित हो गई थी। यह पद्धति का संबंध सैनिक व्यवस्था और संगठन के साथ था। राज्य के महत्वपूर्ण और विश्वसनीय पद स्वकुलीय सरदारों को दिए जाते थे। युद्ध के अवसर पर सरदार अपने राज्य की सहायता करते थे। उनमें यह भावना निहित थी कि वे अपनी पैतृक सम्पŸिा की सामूहिक रूप से रक्षा करने हेतु ऐसा कर रहे है।17 इन सरदारों के जीवन-यापन के लिए उन्हें भू-क्षेत्र दिए जाते थे। महाराजा अभयसिंह के शासन काल में मारवाड़ में जागीर शब्द का प्रचलन नहीं था। अतः जागीर को सनद के रूप में प्रदान किया जाता था। इसे गांव देना या पट्टा देना कहते थे। कालान्तर में इसके लिए ‘जागीर-पट्टे’ शब्द का प्रचलन सामान्य हो गया। जब ये पट्टे पैतृक स्थिति प्राप्त कर लेते तो जागीर पट्टे का क्षेत्र ठिकाणे की श्रेणी में आ जाता था। 
 यदि किसी अन्य वंश में पूर्व शासक के अधिकांश क्षेत्र पर अधिकार कर लिया हो तो पूर्व शासक के पास बचा क्षेत्र ठिकाणे के रूप में विकसित हो जाता था जैसे कि जालोरा में सेणा ठिकाणा। शासकों द्वारा अपने पुत्रों को दिए गए पट्टे के गांव भी ठिकाणे की श्रेणी में आ जाते थे। इसी तरह भाई-बंट के आधार पर विभाजित भू-भाग भी ठिकाणे का स्तर प्राप्त कर लेते थे जैसे कि नगर व गुड़ा ठिकाणे इसके अतिरिक्त शासक भी अपने सरदारों द्वारा दी गई विशिष्ट सेवाओं के प्रतिफल में कुछ गांव ठिकाणे के रूप् में दे देता था। शासक द्वारा नाराज हो जाने पर या गंभीर अपराध करने ठिकाणा जब्त भी कर लिया जाता था। ठिकाणे पुनः आवंटित करने से पूर्व पेशकसी वसूली की जाती थी। ठिकाणेदारों को अपने क्षेत्र से सम्बन्धित प्रशासनिक-आर्थिक एवं न्यायिक अधिकार दिए जाते थे।19

CHAPTER 2




अध्याय - 2
पोकरण का आरंभिक इतिहास

पोकरण (पोहकरण) कब और किसके द्वारा बताया गया, इस बारे में कोई स्पष्ट साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। जनश्रुति है कि पोकरण पुष्करणा ब्राह्मणों के पूवजों पोकर (पोहकर)  ऋषि का बसाया हुआ है। एक कथा प्रचलित है कि जब श्री लक्ष्मीजी ओर श्री ठाकुर का विवाह सिद्धपुर में हुआ तब 45,000 श्रीमाली ओर 5000  पुष्करणा ब्राह्मण वहां एकत्रित हुए। विष्णु ने पहले श्रीमाली ब्राह्मणों की पूजा की इससे पुष्करणा ब्राह्मण वहां से नाराज होकर चले गए उन्होंने कहा कि आपने हमारा अपमान किया है विष्णु ने उनहें मनाने की बहुत कोशिश की जब वे नहीं माने तब विष्णु ओ लक्ष्मी जी ने उन्हें श्राप दिया -
वेद हीन हो
क्रिया भ्रष्ट हो।
निरजल देश बसो।
मान ही हो ।1
इसके पश्चात् पोकर ऋषि इस क्षेत्र में आकर बसे। उस समय यहां पानी उपलब्ध नहीं था। अतः उन्होंने वरूण की उपासना की। वरूण ने उन्हें प्रसनन होकर वर दिया कि एक कोस धरती में दस हाथ गहराई में पानी मिलेगा। आज भी आस-पास के अन्य क्षेत्र के अपेक्षा यहां अधिक जल मौजूद है।
पोकर ऋषि श्रीमाली ब्राह्मणों से अप्रसन्न था। उसने राक्षसी विद्या का प्रयोग कर श्रीमाली ब्राह्मणें के गर्भ में अवस्थित गर्भजात शिशुओं को मारना शुरू कर दिया इससे उनका वंश बढ़ना रूक गया। सभी श्रीमाली इकट्ठे होकर लक्ष्मी ओर विष्णु के पास पहुँचे और उन्हें अपनी चिन्ता बताई। अन्र्तयामी विष्णु ने उनकी शंका को उचित बताया। लक्ष्मी जी ने उनसे श्रीमालिसयों की सहायता करने का निवेदन किया। विष्णु श्रीमालियों को लेकर पोकरण आए। उन्होंने पुष्करणों को काफी प्रयत्न करके एकत्रित किया क्योंकि पुष्करणा विष्णु और उनके श्राप से नाराज थे। पुष्करणा ब्राह्मणों द्वारा विष्णु से श्राप से मुक्त करने और वर देने का निवेदन किया। विष्णु ने तब वर दिया -
वेद मत पढ़ो, वेद के अंग पुराणों को पढ़ो ।
राजकीय सम्मान हो।
तुम्हारी थोड़ी लक्ष्मी अधिक दिखेगी।
श्रीमाली लाखेश्वरी तुम्हारे आगे हाथ पसारेगी।
इस तरह विष्णु ने दोनों पक्षों में सुलह करवाई ।2
‘‘महाभारत’’  में भी पोकरण से सम्बन्धित संदर्भ प्राप्त हुए है। इसमें पोकरण के लिए पुष्करण या पुष्करारण्य नाम प्रयुक्त हुआ है; यहां के उत्सवसंकेत गणों को नकुल में दिग्विजय यात्रास के प्रसंग में हराया था।3 इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि पोकरण पश्चिमी राजस्थान के अत्यन्त प्राचीन नगरों में से एक है; इसके एक सहस्त्राबदी का पोकरण काइतिहास पूर्णतया अंधकारमय है।
सन् 1013 ई (वि.सं. 1070) का एक गुहिल स्तम्भ लेख हमें पोकरण के बालकनाथ मंदिर  से प्राप्त हुआ है।4 अवश्य ही यह पोकरण के आस-पास के क्षेत्र का कोई गुहिल शासक या अधीनस्थ शासक रहा होगा जिसने संभवतः म्लेच्छ महमूद गजनवी या अन्य मुस्लिम शासक के सैनिको द्वारा गायों के पकड लेने पर युद्ध किया और मृत्यु को प्राप्त हुआ।5 यह भी संभव है कि परमारों से हुए युद्ध में वह मारा गया हो क्योंकि इसी काल (17 जून 1013 ई.) का एक परमारकालीन अभिलेख6 भी पोकरण से ही प्राप्त हुआ है जिसमें परमार धनपाल ने अपने पिता की स्मृति में गोवर्द्धन स्तंभ का निर्माण करवाया था। धिन्धिक भी गुहिक शासक के समान गायों की रक्षा करते हुए मारा गया था। यह भी संभव है कि गुहिक शासक परमार धिन्धिक की मदद के लिए आया हो और दोनो ही वीरगति को प्राप्त हुए हो। इस विषय में न तो अभिलेख ओर न ही कोई अन्य समकालीन स्त्रोत कोई जानकारी दे पाए है। किन्तु यह अवश्यक कहा जा सकता है कि इस काल में पोकरण क्षेत्र में परमार अथवा पंवार काफी सक्रिय थे। वर्तमान जैसलमेर के माड क्षेत्र भाटी विजयराव चूडाला के पुत्र देवराज के बाल्काल की घटना से इस पर प्रकाश पडता है।
भाटी विजयराव जिसका काला 1000 ई (1057 वि.सं.)7 के लगभग का है ने अपने पुत्र देवराज का पाणिग्रहण बीठोडे़ (संभवतः भटिण्डा) के वराह शाखा के पंवारों से किया। देवराज की अवस्था उस समय पांच वर्ष थी। कन्या का नाम हूरड़ था। विवाह की दावत के समय वराहों तथा झालों ने पूर्व नियोजित षडयंत्र के अनुसार भाटियों की बारात पर अचानक आक्रमण कर दिया। आक्रमण करने की वजह यह थी कि विजयराव चूड़ाला की बढती शक्ति से वराह पंवार आतंकित थे तथा अपनी सम्प्रभुता के लिए खतरा मानते थे। इस आक्रमण में विजयराव अपने 750 साथियों के साथ मारा गया। घाटा डाही की स्वामीभक्ति के कारण बालक देवराज के प्राण बच गए।8 एक रैबारी नेग अपनी दु्रतगति ऊंटनी पर बैठाकर पोकरण लाने में सफल रहा। संभवतः धाय डाही ने रेबारी नेग को देवराज सौपकर पोकरण पहुंचाने का निर्देश दिया था।
इतिहासविद मांगीलाल व्यास से वीठाड़े कागे भटिण्डा होने का अनुमान लगाया है।9 इसके विपरीत डाॅ. हुकुमसिंह भाटी ने इसे देरावर मना है।10 वास्तव में देरावत अधिक युक्तिासंगत प्रतीत होता है क्योंकि विजयराव चूड़राला का बडी बारात लेकर भटिण्डा जाना ओर देवराज का वहां से ऊंटनी से बचकर सकुशल पहुंच जाना अविश्वसनीय लगता है। वीठोड़ा देरावर या उसके आस-पास का ही कोई क्षेत्र रहा होगा।



CHAPTER 4



अध्याय - 4
सवाईसिंह की उपलब्धियाँ
सवाईसिंह का जन्म 1755 ई. (वि.सं. 1812 की भाद्रपद वदि 12) को हुआ और 1760 ई. (वि.सं. 1817 की भाद्रपद वदि 5) को वह पोकरण की गद्दी पर बैठा। उस समय उसकी आयु मात्र 5 वर्ष की थी।1 उसकी माता सूरजकँवर भटियाणी डागड़ी के नाहरखोत की पुत्री थी।2 ठिकाणे के फौजदार सूरजमल ने वहाँ अच्छा एवं सुदृढ़ प्रबन्ध किया हुआ था। सन् 1765 ई. (वि.सं. 1823) में कुछ सिंधी सिपाहियों ने पोकरण की सीमा में घुस कर रामदेवरा को लूटा और कई मनुष्यों और मवेशियों को पकड़ लिया। तत्पश्चात् उन्होने पोकरण की ओर रुख किया, किन्तु पोकरण का सुदृढ़ प्रबन्ध देखकर वे लौट गए।3 सन् 1766 ई. में वैष्णव धर्म स्वीकार करने के बाद महाराजा विजयसिंह की मनोवृŸिा में बदलाव आया। उसने पोकरण, नींबाज, रास के ठाकुरों के साथ सद्व्यवहार करने का विचार किया।4 एक खास रुक्का भिजवाकर ठा. सवाईसिंह को बुलवाया गया। उस समय उसकी आयु मात्र 11 वर्ष की थी। वह अपने घोड़ों और सुभटों के साथ दरबार में उपस्थित हुआ। इस अवसर पर सवाईसिंह के नाम से पोकरण का पट्टा बहाल कर दिया गया। प्रधानगी के दो गाँव मजल और दुनाड़ा जो ठा. देवीसिंह के समय जब्त किए गए थे, बहाल नहीं किए गए।5
मोहनसिंह ने कुछ अलग विवरण दिया है। सबलसिंह के मारे जाने के लगभग 9 माह बाद सवाईसिंह की माता उसे लेकर जोधपुर आई। महाराजा विजयसिंह का रोजाना सुबह गंगश्यामजी के मंदिर में दर्शन हेतु जाना होता था। भटियाणी वहाँ पहुँची। जब महाराजा दर्शन कर बाहर आए, उस समय भटियाणी ने अपने पुत्र सवाईसिंह को पोकरण की चाबियाँ देकर भेजा और कहलवाया कि ’’पोकरण के सबलसिंह के पुत्र चाबियाँ सहित आपकी सेवा में हाजिर है। चाबियाँ आप रख लें और इस बालक को मर्जी आवें तो छोड़े या मारें।’’ महाराजा विजयसिंह ने चाबियाँ वापस भिजवाई और कहलवाया कि पोकरण का समस्त प्रबन्ध राज्य की ओर से कर दिया जाएगा।6 किन्तु मूल स्त्रोत इस घटना का वर्णन नहीं करते हैं। 1774 ई. में महाराजा विजयसिंह के निकटस्थ व्यक्तियों ने आउवा के ठा. जैतसिंह को जोधपुर के किलें में बुलाकर जोधपुर किले में धोखे से मरवा दिया। इस घटना की जानकारी मिलने पर सवाईसिंह ने ठा. जैतसिंह का दाह संस्कार करवाया। ज्ञातव्य है कि ठा. देवीसिंह की षड़यंत्रपूर्ण हत्या के बाद इन्हीं ठा. जैतसिंह ने ठा. देवीसिंह का दाह संस्कार करवाया था। सन् 1775 ई. में महाराजा विजयसिंह के सुपुत्र जालिमसिंह के रुष्ट होकर उदयपुर चले जाने पर उसे मनाकर लाने के लिए ठा. सवाईसिंह, आसोप के महेशदास कूम्पावत और सिंघवी फतैहचन्द को भेजा गया। ये तीनों जालिमसिंह को मनाकर मेड़ता ले आए जहाँ विजयसिंह का पड़ाव था। 7
ठाकुर सवाईसिंह द्वारा टालपुरा मुसलमानो के विरूद्ध शौर्य प्रदर्शन:-
1780 ई. में मारवाड़़ की सीमा पर टालपुरा बालोच मुसलमानों का उपद्रव प्रारम्भ हुआ। इसकी सूचना मिलने पर महाराज ने मांडणोत हरनाथसिंह, पातावत मोहकमसिंह, बारहठ जोगीदास और सेवग थानू8 को प्रतिनिधि बनाकर चैबारी (चैवाबाद) भेजा। जब समझौता होने की आशा नहीं रही तब पहले तीन पुरूषों ने मिलकर टालपुरियों के सरदार बीजड़ को मार डाला। इस पर उसके अनुचरों ने उन तीनों को भी मार डाला। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि यह कार्य नवाब मियाँ अब्दुन्नबी की प्रार्थना पर ही किया गया था। इसी वजह से उसने इस कार्य की एवज में उमरकोट का अधिकार जोधपुर नरेश को सौंप दिया।9 इधर बींजड़ के पुत्रों को नवाब की मिली भगत का अंदेशा हो गया। वे नवाब के खिलाफ हो गए। अतः उसे सिंध छोड़कर कलात जाना पड़ा। कलात के अमीर के सहयोग से उसने 20,000 की सेना तैयार की और 20,000 सैनिक महाराजा विजयसिंह ने दिए। इस सेना में सिंघवी शिवचन्द, बनेचन्द्र, लोढ़ा सहसमल और ठा. सवाईसिंह प्रमुख व्यक्ति थे।10 चैबारी (चैवाबाद) के मोर्चे पर दोनों सेनां मिली। यहाँ पर मारवाड़़ के सरदारों ने नवाब के सरदार ताजखाँ को तुरन्त विद्रोहियों पर आक्रमण करने के लिए कहा, पर उसने यह कहकर मना कर दिया कि विरोधियों की आधी सेना के कल पहुँचने पर हम अगले दिन उन पर आक्रमण कर आर पार की लड़ाई लड़ेंगे। इस पर मारवाड़़ के सरदारों को ताजखाँ पर शक हुआ कि वह विरोधियों से निश्चित रूप से मिला हुआ है। अतः घिर जाने के भय से पुनः मारवाड़़ की ओर कूच करने का विचार करने लगे। उस रात चैवाबाद के बुर्ज पर पोकरण के आदमियों के पहरे की बारी थी। इसलिए पोकरण ठाकुर सवाईसिंह के 72 आदमी पहरे पर गए हुए थे। जब सेना ने रवाना होने का निश्चय किया। तो पोकरण ठाकुर ने अपने आदमियों को बुलाने भेजा। उन्होने यह कहते हुए मना कर दिया कि ’’आप सब को भागना था तो हमको पहरे पर क्यों भेजा ? हम तो पहरा पूरा करके ही आएंगे।“ मारवाड़़ की सेनाओं के चले जाने पर टालपुरा सेनानायक ने बुर्ज को घेर कर राजपूत सैनिकों से समर्पण कर लौट जाने के लिए कहा। पर उन्हांेने ऐसा नहींे करके 21 दिन युद्ध किया। बुर्ज में रखा सामान राशन, पानी खत्म होने जाने पर ऊँटों को मारकर और कालीमिर्च खाकर लड़ते रहै। गोला बारूद खत्म होने पर वे केसरिया बाना करके अपने तलवारों को लेकर दुश्मन की फौज पर झपट पड़े और सभी मारे गए। कुछ अन्य स्त्रोतों के अनुसार 72 में से 71 सैनिक मारे गए। यह लड़ाई 14 फरवरी, 1781 ई. को  हुई थी।11
चैबारी के इस उपरोक्त युद्ध में जोधपुर की सेना भाग गई थी। मुसाहिब शिवचन्द ने जोधपुर आकर ठा. सवाईसिंह के विषय में उलटी बात कही कि सवाईसिंह सिंधियों से मिल गया और लड़ाई में सक्रिय हिस्सेदारी नहीं की जिससे यह हार हुई। यह सुनकर महाराजा विजयसिंह ने बिना जाँच किए ठा. सवाईसिंह से नाराज हो गया और आज्ञापत्र लिख भेजा कि तुम वही,ं रहना। ठा. सवाईसिंह को आज्ञानुसार वही,ं रहना पड़ा। फिर सिंधियों से संधि प्रस्ताव होने पर सिंधियों के प्रतिष्ठित पुरुष जोधपुर आये और उनके साथ वार्तालाप हुआ। इस प्रतिनिधिमण्डल के एक व्यक्ति ने महाराजा विजयसिंह से कहा कि पोकरण के ठा. सवाईसिंह ने हमें बहुत हानि पहुँचाई और उसके भी बहुत से आदमी मारे गए। अगर अन्य सरदार भी इसी प्रकार के वीर होते तो ना मालूम हमारी क्या दशा होती। यदि सवाईसिंह नहीं होता तो हम अवश्य ही साँचोर का परगना ले लेते । तब महाराजा विजयसिंह ने अपने विश्वासपात्र व्यक्तियों को, जो उस युद्ध में शामिल थे, शपथ देकर पूछा तो उन्होनें सही बात कह दी।11 विजयसिंह को अपनी गलती का अहसास हुआ। ठा. सवाईसिंह को ससम्मान जोधपुर बुलाया गया। ठा. सवाईसिंह को 1781 ई. में शाही दरबार में प्रधानगी का सिरोपाव हुआ। इस कार्य के लिए वेतन स्वरूप (बधारे में) मजल और दुनाड़ा नामक गाँव दिए और पालकी मोतियों की कण्ठी, सिरपेच, तलवार और कटार आदि इनायत की।12

CHAPTER 5


MY ANDROID APPS                                 MY WEBSITES
1.BESTCAREERS                                                                  1.HOT CAREERS IN INDIA
 2SMSKING                                                                          2.COOL INDIAN SMS
         3. AHAJODHPUR                                                                   3.INCREDIBLE JODHPUR
                                                                                                        4.HISTORY OF POKARAN BLOG
                                                                                                          5. INCREDIBLE JODHPUR BLOG
                                                                                                      6. PHYSICS FOR CLASSXI- XII
                                                                                                              7.HOT PROPERTIES IN JODHPUR

अध्याय - 5
सालमसिंह से भवानीसिंह तक का राजनीतिक इतिहास

30 मार्च, 1808 ई. को ठा. सवाईसिंह की मृत्यु के बाद 14 अप्रैल, 1808 ई. को सालमसिंह पोकरण का पट्टाधिकारी हुआ। उसका जन्म 1773 ई. (वि.स. 1830 की भाद्रपद बदी सप्तमी) को हुआ था। उस समय उसकी आयु 35 वर्ष थी।
सालमसिंह का विद्रोह-
अपने पिता सवाईसिंह की महाराजा मानसिंह के सहयोगी अमीरखां द्वारा षड्यंत्र पूर्वक हत्या किए जाने से सालमसिंह अत्यन्त व्यथित था। इधर गृह कलह से शांति मिलने के पश्चात मानसिंह ने फलौदी को विजित करने के लिए एक सेना भेजी। फलौदी के बीकानेरी हाकिम ने सहायता के लिए बीकानेर और पोकरण दोनों जगह कासीद भेजे। बीकानेर और पोकरण की सम्मिलित सेनाओं ने जोधपुर की सेना को पराजित करके खदेड़ दिया। दोेनों ही पक्षों के अनेक आदमी मारे गए और कई घायल हो गए।1 तब सिंघवी इन्द्रराज ने एक कड़ा पत्र लिखकर ठा. सालमसिंह को पोकरण लौट जाने की हिदायत दी । सालमसिंह ने भी जोधपुर की सेनाओं से अनावश्यक उलझने में हानि जानकर अपनी विरोधी मानोवृति त्याग दी। उसने जोधपुर सेना की वे तोपें और सामान जो पीछे छूट गए थे और जिन्हंे बीकानेर  की सेना लूट लेना चाहती थी, को एकत्रित करवा कर सुरक्षित रखवा दिया। बीकानेर के दीवान अमरचन्द को फलौदी का सुदृढ प्रबन्ध करता देख सालमसिंह ने उसे समझा बुझाकर फलौदी जोधुपर को सुपुर्द कर देने के लिए राजी करने के प्रयास प्रारम्भ किए। बीकानेर महाराजा सूरतसिंह को इस बात का आभास था कि गृह कलह से मुक्ति मिलने के बाद मानसिंह का अगला निशाना बीकानेर राज्य ही होगा। निःसंदेह जोधपुर राज्य के संसाधन बीकानेर राज्य से कहीं अधिक थे। फलौदी जोधपुर को सुपुर्द कर देने से भावी संघर्ष टलने की भी संभवना थी। अतः उसने बीकानेर के दीवान अमरचन्द और सालमसिंह की बात स्वीकार कर ली। ठा. सलामसिंह ने अपने कामदार हरियाढाणा के बुद्धसिंह को महामंदिर आयस देवनाथ के पास भेजा और कहलवाया कि बीकानेर राज्य फलौदी सुपुर्द कर देना चाहता है। अतः किसी व्यक्ति का सुपुर्दगी लेने के लिए भेजा जाय। आयस देवनाथ ने यह संदेश महाराजा तक पहुँचा दिए। महाराजा मानसिंह ने प्रसन्न होकर बुद्धसिंह को बुलाया। तत्पश्चात सिंघवी जसवंतराज को कुछ सेना देकर बुद्धसिंह के साथ भेजा। इनके फलौदी पहुँचने से पूर्व ही बीकानेर की सेना वहाँं से पलायन कर चुकी थी। इस अवसर पर वहाँं मौजूद सालमसिंह ने जोधपुर सेना की छूटी हुई तोपों आदि जो सामान इकटठा करवाकर रखा था, जसवंतराज के सुपुर्द किया।  इस प्रकार फलौदी पर महाराजा मानसिंह का दृढ अधिकार करवा कर सालमसिंह पोकरण लौट गया।2
आयस देवनाथ ने प्रसन्न होकर महाराजा मानसिंह से सालमसिंह को क्षमा दिलवाई। पूर्व के समान मजल और दुनाड़ा उसे फिर से दिलवा दिये। ठा. सालमसिंह ने भी पहले की तरह नियमानुसार रेख और बाब नामक कर राज्य को देते रहने और चाकरी में घोडे़ रखने का वचन दिया। तत्पश्चात् महाराजा ने उसके भाई बन्धुओं की जब्त की हुई जागीरें भी उन्हंे लौटा दी गई।3
महाराजा मानसिंह ने अक्टूबर 1808 ई. में बीकानेर4 और जून 1809 ई. में जयपुर के विरूद्ध सेना भेजकर उन्हंे संधि करने को और बाध्य किया और धौंकलसिंह का साथ नहीं देने का वचन दिया।5 जुलाई 1810 ई. महाराजा मानसिंह के निर्देशानुसार अमीर खां को मेवाड़ भेजा। अमीर खां ने वहाँं पहुँचकर लूटपाट करनी प्रारम्भ कर दी। महाराणा भीमसिंह के कर्मचारियों ने लूटपाट का कारण पूूछा। अमीर खां ने उन्हंे मानसिंह से कृष्णाकुमारी का विवाह करने को कहा । महाराणा ने इससे संबंधित एक खरीता मानसिंह को भेजा। पर मानसिंह ने यह कहकर विवाह करने से इंकार कर दिया कि भीमसिंह से मंगनी की हुई कन्या से वह विवाह नहीं कर सकता। उदयपुर पर आसन्न विपदा के समाधान के लिए महाराणा भीमसिंह ने अपने प्रधान सलूम्बर के राव के द्वारा राजकुमारी कृष्णाकुमारी को जुलाई 21, 1810 ई. को जहर दिलवा दिया। इस विष के प्रभाव से कृष्णकुमारी की मौत हो गई।6
कुछ अन्य स्त्रोतों में भिन्न विवरण मिलता है इनके अनुसार महाराणा भीमसिंह ने राजकुमारी कृष्णकुमारी की हत्या के चार प्रयास किए सर्वप्रथम महाराजकुमार ने दौलतसिंह को हत्या करने के लिए कहा किन्तु उसने इस जघन्य कृत्य को करने से मना कर दिया। फिर महाराणा अरीसिंह की पासवान के पुत्र जवानदास को भेजा गया। वह राजमहल में कटार लेकर प्रविष्ट भी हुआ पर मार नहीं सका। तत्पश्चात उसे तीन बार विष दिया गया पर यह घातक सिद्ध नहीं हुआ। अंत में उसे अत्यधिक मात्रा में विष दिया गया जिससे उसकी मृत्यु हो गई।7
1812 ई. मे सिराई जाति के लोगों ने जालौर प्रान्त में काफी उत्पात मचाया। राज्य की घोडि़यों और गोल गांव (जालौर) से नाथों के कई ऊँट जबरदस्ती पकड़ कर ले गया। ठा. सलिमसिंह के नाम एक खास रूक्का भिजवाकर सिराईयों के विरूद्ध गई राजकीय सेना को सहयोग देने को कहा गया। सालमसिंह ने अपने अनुज हिम्मतसिंह को चुने हुए राजपूत सैनिकों के साथ राजकीय सेना में शामिल होने के लिए भेजा। राजकीय कार्यवाही के फलस्वरूप सिराइयों ने आत्मसमर्पण कर दिया और लूटा  हुआ माल वापस लौटा दिया।8 इस सेवा के उपलक्ष में हिम्मतसिंह को सादड़ी इनायत हुई।
ठा. सालमसिंह इस दौरान जोधपुर की राजनीति के प्रति उपेक्षा भाव रखते हुए पोकरण में ही रहा। इधर जोधपुर में महाराजा मानसिंह पूर्णतः नाथ भक्ति में मग्न था। सता की बागड़ोर आयस देवनाथ और इन्द्रराज के हाथ में थी। इनके इस प्रभुत्व से मूहता अखैचन्द और मूहणोत ज्ञानमल ईष्र्या करते थें जिससे सम्पूर्ण राज्य में गुटबाजी और षड्यंत्र फैल गया। अमीर खां अपने आर्थिक स्वार्थ से प्रेरित होकर कभी एक तो कभी दूसरे गुट से मिल जाता था। अनेक बड़े सरदार आयस देवनाथ से नाराज हो गए। मूहता अखैचन्द, आउवा, आसोप के सरदारों, मानसिंह की चावड़ी रानी और युवराज छतरसिंह ने अमीर खां को धन देकर आयस देवनाथ और इन्द्रराज की हत्या का षडयंत्र किया। अमीर खां की आर्थिक मांग को इन्होंने टालने का प्रयास किया था जिससे अमीरखां इनसे पहले से ही नाराज था।9 10 अक्टूबर, 1815 ई. को उसने अपने लगभग 25 सैनिकों को इन्द्रराज व आयस देवनाथ के पास भेजा। उन्होंने खर्च का तकाजा किया। असंतुष्ट होने पर बंदूक की गोलियों से उनकी हत्या कर दी।10 व्यास सूरतनाथ और सरदारों ने महाराजा मानसिंह को शहर लूट लिए जाने का भय दिखाकर उन्हे सकुशल बाहर निकलने में सहायता दी।11 व्यास चतुर्भुज ने मानसिंह को एक कैदी की भांति नजरबंद कर लिया।12 अखैराज और सरदारों ने अमीरखां को लगभग 10 लाख देकर विदा किया।13 अब मारवाड़़ के प्रशासन पर अखैचन्द और उसके पक्ष के सरदारों का अधिकार स्थापित हो गया।14 
सालमसिंह की प्रधान पद पर नियुक्ति-