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Friday 6 January 2017

अध्याय - 3 महासिंह

महासिंह द्वारा युवराज अभयसिंह  के राज्याधिकार की सुरक्षा में भूमिका

        1780 ई. में महाराजा अजीतसिंह की हत्या उसी के पुत्र बख्तसिंह ने अपने अग्रज अभयसिंह के बहकावे में आकर कर दी।57 तत्पश्चात् राज्यधिकार के लिए राजकुमारों में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होने लगी क्योंकि बख्तसिंह, आनन्दसिंह, रायसिंह, और किशोर सिंह अपने अग्रज की जगह स्वयं राज्य प्राप्त करने के लिए लालायित थे। इसके विपरीत स्वामिभक्त सरदार अभयसिंह को चाहते थे। दाह संस्कार के समय चंूकि अभयसिंह दिल्ली में था इसलिए महासिंह ने बख्तसिंह से किले की रक्षा करने का समुचित प्रबन्ध किया।58 उसने अभयसिंह को दिल्ली पत्र भेजकर शीघ्र जोधपुर आने के लिए लिखा। पिता की मृत्यु का समाचार पाकर 1724 ई.  को वह औपचारिक रूप से जोधपुर की गद्दी पर बैठा। बादशाह मुहम्मदशाह ने उसका टीका किया।59 महाराजा अभयसिंह के जोधपुर पहुँचने तक 7-8 माह तक महासिंह जोधपुर का उचित प्रबन्ध करता रहा। मारवाड़़ के सरदार भण्डारी रघुनाथ और खींवसी से अत्यधिक नाराज थे। सरदारों का पक्का विश्वास था कि भण्डारी रघुनाथ और खींवसी महाराजा अजीतसिंह की हत्या में शामिल थे। सरदारों के दबाव में आकर महाराज ने इन्हंें कैद कर लिया। खींवसी से प्रधान पद छीनकर महासिंह को यह पद 1725 ई. में दिया गया।60
जोधपुर पर महाराजा अभयसिंह का अधिकार हो जाने पर उसके अनुज आनन्दसिंह रायसिंह और किशोरसिंह बिलाड़ा पहँुचे। वहाँ से सरकारी घोडे़ और कुछ सरदारों की सहायता पाकर इन्होंने सोजत पर अधिकार कर लिया। अभयसिंह ने प्रधान महासिंह और उसके अनुज दासपों के चाम्पावत प्रतापसिंह को विद्रोहियों के विरूद्ध भेजा। युद्ध में महाराज की सेनाएँ विजयी रहीं। तीनों भाईयांे को सोजत से निकाल दिया गया। अब वे मारवाड़़ मे लूटपाट करने लगे।61
पोकरण के नरावत राठौड़़ सरदारों के उत्पातों का दमन एवं चाम्पावत महासिंह को पोकरण ठिकाणा दिए जाने के कारण
 1728 ई. में किशोर सिंह ने अपने मामा जैसलमेर महारावल की सहायता से पोकरण और फलौदी में लूटपाट करना प्रारम्भ किया। इस पर राज्यधिराज बख्तसिंह सेना सहित नागौर से वहां गया। 1728 ई. में किशोर सिंह ने अपने मामा जैसलमेर महारावळ की सहायता से पोकरण और फलौदी में लूटपाट करना प्रारम्भ किया।62 इस पर राज्याधिराज बख्तसिंह सेना सहित नागौर से वहाँ गया।63 बख्तसिंह ने इस क्षेत्र को किशोरसिंह के उपद्रव से मुक्त किया,64 किन्तु जैसे ही बख्तसिंह लौटा किशोरसिंह ने जैसलमेर के भाटियों और पोकरण के नरावतों की सहायता से पुनः उपद्रव करना प्रारम्भ कर दिया। राजाज्ञा मिलने पर महासिंह और प्रतापसिंह ने जवाबी कार्यवाही करते हुए किशोरसिंह को वहाँं से खदेड़ दिया तथा जैसलमेर के गाँवों में लूटपाट करनी प्रारम्भ कर दी। दोनों भाइयों ने आगे बढकर जैसलमेर को जा घेरा और महारावल से अहदनामा करवाया कि वे फिर कभी किशोरसिंह की सहायता नहीं करेगें।65
महासिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर पोकरण का पट्टा उसे दिया गया। किन्तु यह पट्टा किस वर्ष दिया गया, इसे लेकर अलग अलग स्त्रोंतों में हमें भिन्न भिन्न विवरण मिलते है। ठा. मोहनसिंह कानोता ने यह नवम्बर दिसम्बर, 1729 ई. (वि.सं. 1786 मिगसर वदी 1) बताया है।66 जबकि अधिकांश स्त्रोत यथा मारवाड़़ रा ठिकाणां री विगत,67 तवारीख जागीरदारां राज मारवाड़़,68 पं. विश्वेश्वर नाथ रेऊ,69 ठिकाणा पोहकरण का इतिहास70 राठौड़़ां री ख्यात71 इत्यादि में यह फरवरी मार्च, 1729 ई. (वि.सं.1785 फागण सुद 6) वर्णित है। महासिंह को प्रदान किए गए पट्टे का विवरण72
56,443   पोकरण के गाँव 72 व रामदेवरा के मेले 2,
 9,640   तफै दुनाड़ा के गाँव
   4100 दुनाड़ा
   5540    मजल
66083 कुल गाँव 72
ठा. मोहनसिंह ने वर्णित किया है कि 100 गाँव सहित 1,08,802 रू. की जागीर दी गई जो सही नहीं है। महासिंह को पोकरण का पट्टा दिए जाने के बाद उसकी भीनमाल जागीर का पट्टा रद्द करके भीनमाल खालसा कर दिया गया73। महासिंह को पोकरण का पट्टा दिए जाने के कारण निम्नलिखित थे ।
1 चांपावत महासिंह किशोरसिंह के उपद्रव को सदा के लिए शान्त करके जैसलमेर रावल से प्रतिज्ञापत्र लिखवाने में सफल रहे कि भविष्य में किशोरसिंह की कोई मदद नहीं करेगें। महाराजा उससे प्रसन्न थे ।
2. पोकरण फलौदी की तरफ से जैसलमेर वाले सदा उपद्रव करते थे और लूटपाट किया करते थे। महासिंह को पोकरण का पट्टा दिए जाने से इस उपद्रव पर रोक लगती।
3. जैसलमेर रावल इन क्षेत्रों पर पूर्व में अधिकार प्राप्त करने में सफल रहे थे। वे पुनः उन क्षेत्रों पर अधिकार करने के लिए उचित मौके की तलाश में रहते थे। इसलिए महाराजा यह क्षेत्र एक शक्तिशाली सरदार को पट्टे के रूप में देना चाहता था, जिससे जैसलमेर इस ओर आक्रमण करने का दुःसाहस न करे तथा सीमा भी सुरक्षित रहे।
4. भीनमाल की तरफ देवल, देवड़ों का उपद्रव अधिक था, इसलिए वहाँ सरकारी थाना रखकर सरकारी सेना रखी जा सकती थी और महासिंह के भाई प्रतापसिंह जो दासपो का जागीरदार था, को हिदायत दी गई कि जब कभी काम पड़े तब वह सरकारी थानेदार को मदद देता रहे। भीनमाल को खालसा में ले लिया गया, इससे दोनों क्षेत्रों का प्रबन्ध अच्छा हो गया ।74
5. पूर्व में बताया गया है कि महाराजा अजीतसिंह ने पोकरण का पट्टा नरावत चन्द्रसेन के स्थान पर चाम्पावत महासिंह को दिया था।75 चन्द्रसेन जो बादशाह के यहाँ सेवारत था, की सेवाओं को ध्यान में रखते हुए चन्द्रसेन का पट्टा बहाल कर दिया गया। किन्तु जब नरावतों ने महाराज अभयसिंह के विरूद्ध आनन्दसिंह की सहायता की तब उनसे पोकरण का    पट्टा जब्त करना उचित था तथा महासिंह को यह पट्टा देना नैतिक रूप से सही था।सन् 1730 ई. में मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ने महाराजा अभयसिंह को गुजरात का सूबेदार नियुक्त किया क्योंकि पूर्व सूबेदार सरबुलन्द खाँ बागी हो गया था। महाराजा ने एक सेना एकत्र करके गुजरात की ओर प्रस्थान किया।76  मार्ग में उन्हें सूचना मिली कि रेवड़ा का देवड़ा लाखा जालौर प्रान्त में लूटपाट करता रहा है। उसका दमन करने के लिए चाम्पावत महासिंह आदि को 4000 सेनिकों की सेना  देकर रेवड़ा भेजा गया। एक भीषण लड़ाई के बाद देवड़ों को मार गिराया गया और रेवड़ा में महाराज का थाना स्थापित कर लिया गया। वहाँ से आगे बढ़कर अभय सिंह की सेना ने सिरोही को जा घेरा। तब सिरोही के राव उम्मेदसिंह ने अधीनता स्वीकार कर ली। सिरोही की सेना को साथ लेकर अभयसिंह गुजरात की ओर बढ़ा।77
  1730 ई. को साबरमती के तट पर मोजिर गाँव में जाकर डेरा डाला गया। यहाँ से मात्र दो मील की दूरी पर सरबुलन्द खाँ का डेरा था। महाराजा ने अपने पंचोली राजसिंह को भेजकर उसके कहलवाया कि अहमदाबाद की सूबेदारी का शाही परवाना उसको मिल चुका है। अतः अहमदाबाद का अधिकार दे दो । किन्तु सरबुलन्दखाँ इसके लिए तैयार नहीं हुआ।78 महाराज अभयसिंह ने अपने सरदारों में मंत्रणा करके युद्ध करने का निश्चय किया। प्रधान महासिंह ने महाराज से निवेदन किया कि नवाब ने ईटों से किले को चुनवा दिए हंै।79 अतः उन्हें भी मोर्चे लगाना आवश्यक है अभयसिंह ने सुझाव स्वीकार करके पाँच मोर्चे लगाने का आदेश दिया। महासिंह प्रथम मोर्चे में था। घमासान युद्ध के बाद अहमदाबाद पर अधिकार कर लिया गया।80 इस युद्ध में महासिंह को 11 घाव लगे । युद्ध में महासिंह के योगदान से प्रसन्न होकर महाराज ने उसको हाथी सिरोपाव एवं मोतियों की कण्ठी, सिरपेच, दुपट्टा व रूपये इनायत किए।81
सन् 1736 ई. में जयपुर नरेश सवाई जयसिंह के उकसाने के कारण मराठों ने  मल्हारराव होल्कर के नेतृत्व में गुजरात की ओर से आकर जालोर और बिलाड़ा में उपद्रव किया और फिर मेड़ता चले गए। महाराजा अभयसिंह ने चाम्पावत महासिंह व अन्य सरदारों को भेजा। इन्होंने मालकोट मेड़ता में युद्ध की तैयारी की। दोनों ओर से मोर्चे लगाए गए।  युद्ध प्रारम्भ होने के कुछ ही समय बाद तोपों की मार से घबराकर मराठों ने युद्ध बन्द कर दिया।82 सन् 1740 ई. में महाराजा अभयसिंह ने बीकानेर पर आक्र्रमण किया। महासिंह इस आक्रमण में महाराज के साथ था। अभयसिंह ने उसे जोधपुर लौट कर राजकुमारी सौभाग्य कँवर का विवाह उदयपुर महाराजकुमार प्रताप सिंह के साथ करने के निमित्त जरूरी इन्तजाम करने भेजा। विवाह बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हुआ।83
बीकानेर महाराजा जोरावरसिंह ने अभयसिंह के विरूद्ध जयपुर महाराजा सवाई जयसिंह से सहायता की याचना की। सवाई जयसिंह ने बीस हजार सैनिकों सहित जोधपुर पर चढ़ाई कर दी। महांिसंह जो उस समय जोधपुर में ही मौजूद था ने उसकी सूचना तुरन्त बीकानेर में अभयसिंह के पास पहँुचाई । अभयसिंह सवाई जयसिंह का दामाद था, फिर भी सवाई जयसिंह ने उस पर आक्रमण किया क्योंकि अभयसिंह का बीकानेर पर अधिकार कर लेने से वह काफी शक्तिशाली हो जाता । इससे क्षेत्र का शक्ति संतुलन बिगड़ता जो कि जयपुर राज्य के लिए खतरनाक था। जोधपुर पर आमेर की सेना के घेरा डालने की सूचना मिलते ही अभयसिंह बीकानर के किले का घेरा उठाकर जोधपुर की रक्षार्थ लौट आया।84 भण्डारी रघुनाथ की मध्यस्थता में दोनों पक्षों में वार्ता प्रारम्भ हुई। सवाई जयसिंह फौज खर्च लेकर जयपुर लौट गया। लौटते हुए जयसिंह ने अजमेर पर अधिकार कर लिया।85 इसी बीच राजाधिराज बख्तसिंह ने मौका देखकर मेड़ता पर अधिकार कर लिया, किन्तु दोनों भाईयों में जल्द ही सुलह हो गई।86
उपरोक्त घटना का ‘‘ठिकाणा पोहकरण का इतिहास’’ में भिन्न विवरण मिलता है। इसके अनुसार महाराजा अभयसिंह और राजाधिराज बख्तसिंह के मध्य बीकानेर की चढ़ाई करने के मुद्दे पर परस्पर मनमुटाव हो गया। नाराज बख्तसिंह सेना लेकर मेड़ता पर अधिकार करने के लिए रवाना हुआ। सूचना मिलने पर महासिंह तुरन्त एक सेना लेकर मेड़ता रवाना हुआ। राजाधिराज से संघर्ष हुआ, जिसमें महासिंह के अनेक आदमी मारे गए। चूंकि राजाधिराज के पक्ष में जयपुर महाराजा सवाई जयसिंह भी हो गया था, इसलिए महासिंह ने इस विकट परिस्थिति का हवाला पत्र द्वारा लिखकर बीकानेर भेजा और शीघ्र जोधपुर आने के लिए कहा। राठौड़़ सेना शीघ्र ही जोधपुर लौट आई। इस सेना ने सूरसागर में डेरा किया। उधर जयपुर महाराजा की सेना सहित राजाधिराज ने मण्डोर में डेरा किया। शत्रु सेना लगभग 60,000 थी। राजाधिराज बख्तसिंह बड़ा चतुर और नीतिनिपुण था। वह जानता था कि दोनों भाइयों के परस्पर संघर्ष में दोनों कमजोर हो जाएंगें तथा लाभ केवल सवाई जयसिंह को ही मिलेगा। वैसे भी बीकानेर का घेरा उठा लेेने से उसका प्रयोजन तो सिद्ध हो ही गया था। अतः बख्तसिंह ने संधि का प्रस्ताव किया, जिसे अभयसिंह ने स्वीकार कर लिया। तब राजाधिराज महाराज के पास सूरसागर गया और महाराजा से मिला। अभयसिंह ने बख्तसिंह को कहा कि तुमने ऐसा क्यों किया। तब राजाधिराज ने महाराजा से कहा कि आपने मुझे मारवाड़़ का आधा राज्य देने की प्रतिज्ञा की थी। मैं मेड़ता लेने गया, वह भी आपसे नहीं दिया गया और आपने मुकाबले में सेना देकर महासिंह को भेज दिया। इस प्रकार कई प्रकार की परस्पर उलाहनें हुई। अन्त में जयपुर वालों को कुछ फौज खर्च देकर संधि हो गई तथा युद्ध होना स्थगित रह गया। राजाधिराज वापिस नागौर लौट गया।87
उपरोक्त घटनाक्रम हमें उचित प्रतीत होता है। दोनों विवरणों की तुलना करने पर हमें बोध होता है कि पहले विवरण में सवाई जयसिंह ने स्वयं आक्रमण किया तथा बख्तसिंह ने परिस्थितियों का लाभ उठाकर मेड़ता पर अधिकार करने का प्रयास किया। दूसरे विवरण के अनुसार बख्तसिंह ने मेड़ता पर अधिकार करने का प्रयास किया और जयसिंह को समर्थन प्राप्त करने में भी सफल रहा। दोनों की सेनाएं सम्मिलित रूप से जोधपुर तक पहुँच गई। संभवतः जयसिंह युद्ध करना चाहता था, किन्तु बख्तसिंह द्वारा अभयसिंह से संधि कर लेने के बाद उसे अकेला युद्ध करना अवश्य ही उचित नहीं लगा होगा और वह फौजी खर्च लेकर लौट अवश्य गया, किन्तु अजमेर पर अधिकार करने से नहीं चूका। जोधपुर से इस तरह लौट जाना उसके लिए अप्रतिष्ठाजनक था। अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए उसके अजमेर पर अधिकार किया। इस घटना का परिणाम चाहे जो भी रहा हो किन्तु इससे दोनों भाइयों अभयसिंह और बख्तसिंह के मध्य मनमुटाव समाप्त हो गया। 1743 ई. में सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद महाराजा अभयसिंह ने चाम्पावत महासिंह और उसके भतीजे दौलतसिंह को अजमेर पर अधिकार करने के लिए भेजा। कड़े संघर्ष के बाद मारवाड़़ की सेना का अजमेर पर अधिकार स्थापित हो गया।88 दोनो चाचा भतीजा युद्ध में घायल हुए और इनके 20 मनुष्य मारे गए तथा कई जख्मी हुए। सन् 1744 ई. में ठा.महासिंह का पोकरण में निधन हो गया। ठा.महासिंह की 6 पत्नियाँ, एक पुत्री और एक पुत्र था।

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अध्याय 3 ठा. देवीसिंह की गद्दीनशीनीं

ठा. देवीसिंह की गद्दीनशीनीं

ठा. महासिंह की मृत्यु पर हार्दिक शोक और संवेदना प्रकट करने महाराज स्वयं देवीसिंह के डेरे पर पहँुचा और स्वर्गीय महासिंह के एकमात्र पुत्र देवीसिंह को पिता के उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकार किया गया।
ठा. देवीसिंह का जन्म 1721 ई. (वि.स. 1778 की आश्विन सुदि 14) को हुआ। ‘‘ठिकाणा पोहकरण का इतिहास’’ के अनुसार शुक्ल चतुर्दशी को जिसका जन्म होता है वह पुरूष महाप्रतापी और भाग्यशाली होता है।मारवाड़़ देश की कहावत है ‘‘चाँदणी चैदस रो जायो बड़ो प्रतापीक हुवै ।’’ देवीसिंह पिता की विद्यमता में उनके साथ रहकर तेरह वर्ष की अवस्था में जोधपुर नरेश अभयसिंह की सेवा में संलग्न हो गया था।
1734 ई. में महाराजा अभयसिंह ने देवलिया राज्य पर अपनी सेना भेजी जिसमें महासिंह सेनाध्यक्ष था। देवीसिंह ने इस युद्ध में जो वीरता दिखाई उससे प्रभावित होकर महाराजा अभयसिंह देवीसिंह को सैन्य अभियानों में अपने साथ रखने लगा । 1740 ई. में गंगवाना के युद्ध में वह बख्तसिंह के साथ था तथा युद्ध में घायल भी हुआ। उसके 23 सैनिक मारे गए। पिता की मृत्यु के समय वह महाराजा अभयसिंह के साथ अजमेर में था। देवीसिंह को पिता की प्रधानगी का पद दिया गया। ठा. देवीसिंह को अपने पिता महासिंह का उत्तराधिकार दिए जाने के पश्चात् निम्नलिखित पट्टा इनायत किया गया।90
66083 महासिंह के समय के गाँव
10050 वृद्धि किए हुए गाँव
4000 खराटियों
400  जैसलमेर रो वास
1000 सोनेई
1300 कमारो वाड़ो
700  टांटियारो वाड़ो
1000  उत्तेसर
1250 ठाकरवास
            400  चरवड़ा रा वास 2
76,133   गाँव 82

कर्नल टाॅड ने ठाकुर देवीसिंह के विषय में एक बड़ी अनोखी बात कही। उसके अनुसार पोकरण, जो असीम साहसी चाम्पावत सम्प्रदाय की मुख्य भूमि था, के सामन्त महासिंह ने पुत्रहीन अवस्था में मरने से पूर्व महाराजा अजीतसिंह के दूसरे पुत्र देवीसिंह को गोद लेने के लिए अपनी स्त्री से कह गए थे। देवीसिंह गोद चले भी गए किन्तु राजपुत्र होने से उसे  अधिकार प्राप्ति की तृष्णा थी, किन्तु यह वृत्तान्त कतई उचित नहीं है, क्योंकि पोकरण के ठाकुरों के पुत्रहीन होने पर अपने निकटस्थ दासपों के चाम्पावतों में से किसी को गोद लेने की परम्परा थी। कोई राजा अपने किसी सामन्त को अपना पुत्र गोद दे यह भी अव्यावहारिक है।91
इन्हीं दिनों बीकानेर में उत्तराधिकार समस्या उत्पन्न हो गई। बीकानेर महाराज जोरावरसिंह के 1746 ई. में निःसन्तान स्वर्गवास हो गया।92 सरदारों ने जोरावतसिंह के काका आनन्दसिंह के बड़े पुत्र अमरसिंह के स्थान पर छोटे पुत्र गजसिंह को गद्दी  पर बैठा दिया। इससे नाराज होकर अमरसिंह ने अपने अनुज गजसिंह के विरूद्ध जोधपुर राज्य से मदद की गुहार लगाई। अभयसिंह ने चाँपावत अमरसिंह रणसी गाँव और भण्डारी रतनचन्द को सेना सहित बीकानेर भेजा, किन्तु ये दोनों सरदार मारे गए और जोधपुर की सेना पराजित होकर लौट आई।93 1747 ई. में अमरसिंह की सहायता के लिए ठाकुर देवीसिंह की अध्यक्षता में सेना भेजी। गजसिंह भी दलबल सहित मुकाबले में आ पहुँचा। युद्ध कई दिनों तक चलता रहा। इसी दौरान मराठों की सेना ने मारवाड़़ पर धावा बोलकर लूटमार मचानी प्रारम्भ कर दी। इस पर ठा. देवीसिंह को तुरन्त बीेकानेर अभियान को बीच में ही त्यागकर अजमेर की ओर प्रयाण किया। सम्भवतः मारवाड़़ का सैनिक दबाव देखकर मराठे अपने आप वहाँ से चले गए।94
एक बार बख्तसिंह ने नागौर में अपने बड़े भाई अभयसिंह को प्रीतिभोज पर आमंत्रित किया। अभयसिंह वहाँ चला तो गया पर उसे भय सताने लगा कि कहीं बख्तसिंह पिता के समान उनकी भी हत्या न कर दे। तब देवीसिंह और करणीदान को सुरक्षा का भार सौंपा गया। जब शराब के नशे में चूर महाराजा पलंग पर लेटे हुआ था, तब ये दोनों इनका पहरा देते रहै। बख्तसिंह कोई न कोई बहाना बनाकर आता रहता, किन्तु उन्होंने उसकी दाल नहीं गलने दी  बख्तसिंह को निराश होना पड़ा।95
19 जून 1749 ई. को महाराजा अभयसिंह का देहान्त अजमेर में हुआ। उसके एकमात्र पुत्र और उत्तराधिकारी रामसिंह के विषय में महाराज ने पूर्व में सरदारों से प्रतिज्ञा करवाई थी कि वे हर हाल में बेसमझ रामसिंह के प्रति पूर्ण वफादार रहेगें। 13 जुलाई को रामसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा।96 प्रतिज्ञाबद्ध होने के कारण सरदारों ने रामसिंह की छिछोरी हरकतों की प्रारम्भ में उपेक्षा की, किन्तु रामसिंह में छोटापन अत्यधिक था। जनवरी-फरवरीए 1750 ई. मे गाँव भोजपुरा के मुकाम पर ठा. देवीसिंह को प्रधानजी का सिरोपाव, कड़ा मोती, पालखी वगैरह, लवाजमा इनायत हुआ।97
नागौर से राजाधिराज बख्तसिंह ने धायजी व धायभाई हरनाथ एवं पुरोहित विजयराज को टीके राज्याभिषेक पर सम्मानपूर्वक भेंट के हाथी, घोड़े देकर जोधपुर भेजा। अल्पबुद्धि महाराजा रामसिंह ने इस हाथी से मल्हारराव द्वारा भेंट किये गए हाथी से युद्ध करवाया । मल्हारराव द्वारा भेंट किए गए हाथी के जीतने पर उसे तोप से उड़ाने का हुकुम दिया। पर सरदारों के आपत्ति करने पर ठा. देवीसिंह को यह हाथी इनायत किया गया।98 वृद्ध धाय को देखकर रामसिंह क्रोधित हो गया। वह दरबार में कह उठा कि बख्तसिंह ने क्या मुझे बालक समझा है। उसने एक दूत बख्तसिंह के पास भेजकर उसे जालौर लौटा देने को कहा। इस घटना से राजाधिराज बख्तसिंह रामसिंह से नाराज हो गया।99
इधर दरबारी सामन्त भी एक एक कर उससे नाराज हो गए थे। रामसिंह ने एक नक्कारची अमीचन्द (अमिया) को दीवान बना दिया। वह सरदारों की नकले करवाता था। आउवा ठा. कुशालसिंह के सामने बन्दर छुड़वा दिया, जिसने ठाकुर का जामा फाड़ दिया और मूछों के पास नख लगाए। ऐसी हरकतों से ठाकुर नाराज होकर रवाना हुए उस समय रामसिंह ने उक्त नक्कारची को कहा ‘‘तू आवाज दे कि आहवे की भेड़ जाती है।’’ ढ़ोली ने वैसा ही किया। आग बबूला होकर ठाकुर वहाँ से चला गया।100 इस अवसर पर पोकरण ठाकुर ने कड़े शब्दों में रामसिंह से छोटे लोगों की सलाह और संगत में नहीं रहने के लिए कहा ।101 रामसिंह ने रीयंा ठाकुर शेरसिंह को अपना एक नौकर (बिजिया) देने को कहा तो वह भी नाराज होकर चला गया। रामसिंह ने नक्कारची अमीये, चाकर चांदा, चूड़ीगर सरपदीन, घसीयारे खूमी को कड़ा मोती व सिरोपाव दिए। अमिया को पाल गाँव का पट्टा दिया गया। राजपूत सरदार इन निम्न कोटि के सेवकों को इतना बड़ा सम्मान देने से अप्रसन्न थे।102 नाराज सरदार ठा. देवीसिंह के पास आए और स्पष्ट कहा कि यहाँ अब निर्वाह करना कठिन है। ठा. देवीसिंह ने उन्हें प्रतिज्ञा याद दिलाई और सरदारों को बाहर डेरा करने का सुझाव दिया। सरदार इसके लिए राजी हो गए तथा अपने डेरे बाहर कर दिए।103
महाराजा रामसिंह ने बजाय इन सरदारों को मनाने के अपने कृत्यों से उन्हें और नाराज कर दिया। रामसिंह के इशारे पर घोड़े की पूँछ के बाल काट दिए गए तथा तम्बुओं के डोरे काट दिए गए। सरदारों के लिए यह सब असहनीय था। ये सभी सरदार बख्तसिंह के पास नागौर चले गए जिसका रामसिंह के साथ पहले से ही कटु मनोमालिन्य चल रहा था। जब राजाधिराज बख्तसिंह को सरदारों के नागौर आने के समाचार मिले तब राजाधिराज तुरन्त घोड़े पर सवार होकर नागौर से सरदारों का स्वागत करने के लिए इमरतिया नाड़ा तक सामने आया और सरदारों को पूर्ण सत्कार किया तथा कहा कि ’आज जोधपुर का राज्य मेरे घर में है।104
इसके कुछ समय पश्चात् जब महाराज अपने ससुर और जयपुर नरेश ईश्वरीसिंह से मिलने हँसपुर कोटड़ी गए, वहाँ राज्य के प्रधान देवीसिंह का घोर अपमान किया गया। रीति के अनुसार प्रधान होने के नाते जयपुर महाराज से पहले मुलाकात करने का अधिकार ठा. देवीसिंह को था, किन्तु जैसे ही वह मिलने को आगे बढ़ा, उसको महाराजा ने धक्का देकर पीछे हटा लिया और खींवकरण105 को आगे किया। इसके बाद अक्षय तृतीया के भोज के अवसर पर ठा. देवीसिंह को पुनः अपमानित किया गया, जब उसे परोसे गए थाल को हटाकर खीवंकरण के आगे रख दिया गया। ठा. देवीसिंह बिना भोजन किए कुछ अन्य सरदारों के साथ अपने डेरे चला गया। वह महाराजा रामसिंह का साथ छोड़कर रास और नींबाज की ओर आया।106
शीघ्र ही देवीसिंह की नाराजगी का समाचार नागौर पहुँच गया। राजाधिराज बख्तसिंह ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की, पर कुशालसिंह ने देवीसिंह के मार्फत चाम्पावत राठौड़़ों का सहयोग प्राप्त करने का सुझाव दिया। राजाधिराज ने कशालसिंह को स्पष्ट कहा कि ‘‘देवीसिंह मोटा सरदार है, मैं उसे बिना प्रधानगी के अपने घर में स्थान नहीं दे पाऊँगा।’’ कुशालसिंह ने तुरन्त अपनी प्रधानगी, जिसे  बख्तसिंह ने मारवाड़़ की गद्दी  मिलने पर वायदा किया था, देवीसिंह को सौंपने को तैयार हो गया।106 तत्पश्चात् ठा. देवीसिंह को अपने पक्ष में लाने के प्रयास प्रारम्भ हो गए।ठा. देवीसिंह को प्रधान पद देने की पेशकश हुई।108 काफी मान मनवार के बाद वह बख्तसिंह के पक्ष में आ गया।109 बख्तसिंह की प्रार्थना पर बीकानेर नरेश गजसिंह 18000  सैनिकों सहित सहायता के लिए पहुँचा। किशनगढ़ का राजा बहादुरसिंह भी अपनी सेना के साथ बख्तसिंह की मदद के लिए आ पहुँचा। बख्तसिंह की गुप्त कार्यवाहियों की सूचना मिलने पर रामसिंह अपने पक्ष के सरदारों को लेकर बख्तसिंह को दण्ड देने को रवाना हुआ। इस अवसर पर सरदारों ने संधि करवाने का बहुत प्रयास किया पर असफल रहे। दिल्ली से बख्शी सलावतजंग बख्तसिंह की मदद को आया। ईश्वरसिंह और मराठे रामसिंह की मदद करने आए। सलावतजंग गर्मी व जल की कमी के कारण संधि करके लौट गया।110
दोनों पक्षों में 8 नवम्बर, 1750 ई. में सालावास में युद्ध हुआ। युद्ध में बख्तसिंह विजयी रहा। मारवाड़़ के सरदारों और बीकानेर तथा किशनगढ़ नरेशों के निरन्तर प्रयासों से जोधपुर शहर पर बख्तसिंह का अधिकार हो गया। जोधपुर गढ़ का किलेदार सुजाणसिंह जो ठा. देवीसिंह का ससुर भी था, को देवीसिंह ने कई प्रकार से समझाया। उसका सम्मान, पदवी यथावत रखने का वचन दिया। काफी समझाने पर सुजानसिंह ने रामसिंह की माता नरूकीजी के समक्ष कहा कि ‘‘जोधपुर के सभी सरदार रामसिंह के खिलाफ है तथा सरदारों ने किला घेर रखा है।अतः आप कहें तो किला या तो बख्तसिंह को दे अथवा अजीतसिंह के पुत्र रतनसिंह को सौंप दें। तब नरूकी जी ने कहा कि ‘‘बख्तसिंह और उसका पति दोनों अजीतसिंह की चैहान रानी से सहोदर है। इस प्रकार बख्तसिंह उसका देवर है। बख्तसिंह को राज सौंपने से राज जाएगा नहीं। इस प्रकार आठ दिनों के निरंतर प्रयासों के फलस्वरूप सुजाणसिंह ने नरूकीजी को किला खोलने को तैयार कर लिया। 21 जून, 1751 ई. बख्तसिंह ने हाथी पर बैठकर किले में प्रवेश किया। उस समय ठा. देवीसिंह उसके पीछे हाथी पर ख्वासी में चँवर लेकर बैठा।111
अगले दिन बख्तसिंह ने दरबार किया। इस अवसर पर बख्तसिंह ने बहुत से सरदारों को नई जागीरें दी और कई सरदारों की पुरानी जागीरों में वृद्धि भी की।112 ठा. देवीसिंह को इस अवसर पर प्रधान पद और सिरोपाव दिया गया।113 देवीसिंह को बधारा (ईनाम) पट्टा देने का प्रस्ताव किया गया, किन्तु उसने यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि ‘‘उसके पास तो काफी है, जिनके पास कम है, उन्हें दी जाए।114 इस अवसर पर बख्तसिंह ने अपनी तलवार बाँधने की आज्ञा दी। सरदारों को यह बात अखरी। आसोप कुँवर  दलजी ने जब इस पर ऐतराज किया तो बख्तसिंह नाराज हो गए। इस पर आसोप ठाकुर कनीराम जी ने बख्तसिंह की तलवार बाँध दी। तत्पश्चात् सरदारों ने नजर निछरावल की।115 तलवार बँधाई इस बात का सूचक थी कि राजगद्दी पर स्वयं बख्तसिंह बैठने की मंशा रखते हैं। इसके पूर्व बख्तसिंह ने अपने सरदारों से स्पष्ट कहा था कि वह स्वयं नागौर चला जाएगा और राज्याभिषेक राजकुमार विजयसिंह का होगा, 116 किन्तु बाद में बख्तसिंह ने अपने नाम से टीके का मुहुर्त निकलवाया। यह बात कुछ सरदारों, विशेषकर आसोप कुँवर दलजी (दलपतसिंह) को कतई अच्छी नहीं लगी।117 एक दिन जब महाराज राजकीय भण्डारों का निरीक्षण कर रहे थे तथा दलजी ने सरदारों को सुझाव दिया कि ’क्यों न कोठार (भण्डार गृह) का द्वार बाहर से बन्द कर दें।118 वहाँ उपस्थित सरदारों में ठा. देवीसिंह ने उसे समझाया कि ‘‘पिता या पुत्र कोई भंी गद्दी  पर बैठे, इससे कोई  फर्क नहीं पड़ता  अपने तो राज्य आने वाला नहीं है। यदि ताला लगा देंगें तो ‘‘धणीखांणा’’ कहलाएंगें। तत्पश्चात् ठा. देवीसिंह ने सिंघवी फतैहचंद को अन्दर भेजकर बख्तसिंह को बाहर बुलवा लिया और दलजी को यह कह कर समझा दिया कि अभी बख्तसिंह का प्रताप बहुत ज्यादा है। इन्होंने अपने बलबूते पर जोधपुर लिया है। इन्हें अपनी इच्छा से कुछ भी करने का पूर्ण अधिकार है। अतः समय और परिस्थिति इस तरह की बात करने की दृष्टि से उचित नहीं है। दूसरे दिन जब दलजी के पिता कनीराम जी दरबार में आया तो बख्तसिंह ने उन्हें पूछा कि ‘‘धणीखांणा’’ की क्या सजा दी जाए। किन्तु आयु ज्यादा होने के कारण कनीरामजी कम सुनता था। इसलिए बख्तसिंह की कही हुई बात वह समझ नहीं सका। ठा. देवीसिंह ने कनीराम जी को पूरी बात समझाई।119 पुत्र को राजकीय कोप से बचाने के लिए  उसने अपने पुत्र को बीकानेर भेज दिया।120
21 सितम्बर, 1752 ई. को जयपुर के मालपुरा के निकट सींधली ग्राम में जयपुर महाराजा माधोसिंह की पत्नी और किशनगढ महाराजा की पुत्री द्वारा पहनाई गई तीव्र विषयुक्त पुष्पमाला के प्रभाव से महाराजा बख्तसिंह काफी बीमार हो गया।121 राजवैद्य ने भी जवाब दे दिया। अपने पिता अजीतसिंह की हत्या करने के कारण चारण कवियों ने बख्तसिंह की काफी आलोचना की थंी। इसलिए बख्तसिंह ने उनसे अप्रसन्न होकर उनके अनेक गाँव जब्त कर लिए थे। जब महाराजा मरणशय्या पर सो रहा था, उस समय ठाकुर देवीसिंह ने महाराजा से कहकर चारणों की आजीविका के गाँव बहाल करवा दिए। परन्तु उस समय कोई चारण उपस्थित नहीं होने के कारण ठा. देवीसिंह ने जल स्वयं अपने हाथ में ग्रहण कर लिया। क्षत्रिय संकल्प लेता है, देता नहीं, तो भी चारण जाति के हित के लिए यह असम्भव कार्य देवीसिंह ने किया। कुछ समय पश्चात् ही बख्तसिंह मात्र 13 माह के शासन के पश्चात्  इस नश्वर लोक को छोड़ गया।122
महाराजा बख्तसिंह की मृत्यु के समय राजकुमार विजयसिंह मारोठ में था। ठा. देवीसिंह समस्त सरदारों को लेकर मारोठ पहुँचा और महाराज की मृत्यु के समचार बताए। विजयसिंह को वही,ं गद्दी  पर बिठाकर राजतिलक का विधान किया। तदनन्तर विजयसिंह वहाँ से समस्त सरदारों के साथ मेड़ता नगर आया। ठा. देवीसिंह ने वहाँ पर महाराज से विदा मांगी, क्योंकि उसको गाँव भिटोरा में जाकर स्वयं विवाह करना था। उसने सोनगरा सरदारसिंह देवकरणोत की कन्या का पाणिग्रहण किया। विवाह पश्चात् वह महाराज के पास सीधे मेड़ता और तत्पश्चात् दोनों जोधपुर रवाना हुए।123 जोधपुर गढ़ की सिणगार चैकी पर जनवरी, 1753 ई. को औपचारिक रूप से विजय सिंह का राजतिलक हुआ।124
महाराजा बख्तसिंह की मृत्यु के पश्चात् रामसिंह एक बार पुनः सक्रिय हो गया। जोधपुर पर पुनः अधिकार करने के लिए, उसने मराठे जयप्पा सिंघिया से गठबन्धन किया और मारवाड़़ पर चढ़ाई कर दी। बीकानेर नरेश गजसिंह और किशनगढ़ नरेश बहादुरसिंह, अपनी अपनी सेनाएं लेकर विजयसिंह की मदद को वहाँ आ गए ।
14 सिंतम्बर,1754 ई. को मेड़ता के निकट गंगारडे में दोनों पक्षों में हुए प्रथम युद्ध में महाराजा विजयसिंह की विजय हुई। मराठों को 7 कोस पीछे हटना पड़ा।125 विजय से उत्साहित कुछ सरदारों ने अगले ही दिन पुनः आक्रमण करने का सुझाव दिया। ठा. देवीसिंह ने अगले दिन युद्ध मुलतवी करने का सुझाव दिया क्योंकि अगले दिन महाराज बख्तसिंह का श्राद्ध था,126 किन्तु रास के केशरीसिंह ने जोश में कहा कि युद्ध में काम आएगें, उनका और महाराज बख्तसिंह का श्राद्ध शामिल ही होगा ।
शकुन भी एक ऐसी वस्तु है, जो भविष्य की सूचना कर ही देती है।127 तोपों का जखीरा आगे बढ़ ही रहा था कि एक बड़ी तोप को खींचने वाले एक बैल के चोट आ गई और वह नीचे गिर पड़ा। उस समय पड़िहार जैसा जो शकुन ज्ञान में प्रवीण था, कहा कि आज के दिन युद्ध नहीं किया जाए, शकुन मना करते है। केसरीसिंह ने फिर उत्साह से इस शकुन की उपेक्षा करते हुए कहा कि शत्रुओं कंे सींग उखाड़ फैकेगें विजय निश्चित ही हमारी ही होगी। बीकानेर महाराजा गजसिंह के साथ चलने वाले शकुनवेत्ता ने भी युद्ध नहीं करने की सलाह दी। तब महाराजा गजसिंह ने मुहता बख्तावरमल को भेजकर युद्ध एक दिन टालने का आग्रह किया, परन्तु इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। सेना ने अभी रणभूमि की ओर प्रयाण किया ही था कि उन्हें अपने ऊपर हजारों चीलें मण्डराती दिखी। तब शकुनज्ञों ने फिर कहा कि महाराजा से अर्ज करों की आज युद्ध नहीं किया जाए। युद्ध करने से हानि होगी। तब किशनगढ़ नरेश बहादुरसिंह, पाली ठाकुर प्रेमसिंह, कूंपावत छत्रसिंह व भाटी दौलतसिंह सभी ने मिलकर चाम्पावत देवीसिंह से कहा कि शकुनज्ञ युद्ध करने से मना करते हैं, इसलिए आप महाराज से युद्ध नहीं करने की प्रार्थना करें । ठा. देवीसिंह ने इन सरदारों की प्रार्थना पहँुचा दी। उसने सुझाव दिया कि यदि मराठों की सेना आ जाती है तो युद्ध कर लेगें, अन्यथा युद्ध कल करेंगें । महाराज भी एक बार तो इस विचार से सहमत हो गया, किन्तु केसरीसिंह ने बीच में पड़कर कहा कि ‘‘चीलें शक्ति का स्वरूप है तथा अपनी मदद ही करने आई है। ये सरदार लोग जानते हैं कि यदि युद्ध हुआ तो मरना पड़ेगा। इसी कारण से ये लोग ऐसी बातें कर रहे हैं। खाविंद घोड़े को आगे बढ़ाओं, आज हम मराठों को पराजित कर लूट लेंगें।’’128 केसरीसिंह के इस प्रकार के कड़वे वचन सुनकर ठा. देवीसिंह क्षोभ और गुस्से से वहाँ से लौट गया। उसे अपनी इस प्रकार की उपेक्षा की कतई उम्मीद नहीं थंी। सेना को आगे बढ़ने का आदेश हुआ।
जयप्पा सिंधिया ने राठौड़़ों की तोपों और बड़ी सेना देखकर उचित अवसर की प्रतिक्षा करना ठीक समझा। जल्द ही यह मौका भी उसे मिल गया। महाराज को बगैर सूचित किए चंदोल तोपखाने के गाड़ीवान बैलों को खोलकर समीप के एक तालाब में बैलों को जल पिलाने ले गए। फलस्वरूप तोपखाना मुख्य सेना से पीछे छूट गया।129 जयप्पा ने तुरन्त इस तोपखाने पर तीव्र आक्रमण किया। 130 इससे जोधपुर की सेना का व्यूह भंग हो गया। मराठों ने मारवाड़़ के तोपखाने पर अधिकार कर लिया।अब दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ। मराठों की तोपों की मार के आगें मारवाड़़ की सेना तीतर बीतर हो गई। बहुत से राठौड़़ सरदार वीरगति को प्राप्त हुए।131
महाराजा अपने बचे हुए सैनिकों और सरदारों के साथ मेड़ता लौट गया और रात्रि में वहाँ से नागौर चल पड़ा132। नागौर तक वह बैलगाड़ी में आया था, किन्तु नागौर पहुँचने पर देवीसिंह ने अर्ज किया कि नगर में हाथी पर बैठकर प्रवेश करें। पहले तो महाराज ने यह कहकर हाथी पर बैठने से मना कर दिया कि मैं कौन सी विजय करके आया हूँ जो हाथी पर बैठं, किन्तु फिर ज्यादा अनुरोध किए जाने पर हाथी पर बैठकर नागौर में प्रवेश किया। ठा.देवीसिंह हाथी पर महाराज की ख्वासी में बैठा ।133
इधर जयप्पा महाराज विजयसिंह का पीछा करते हुए नागौर जा पहुँचा और नागौर का घेरा डाला। तब नागौर की सुरक्षा का भार ठा. देवीसिंह को दिया गया।134 यह मान्यता प्रचलित थी  कि ठा. देवीसिंह नागौर गढ़ के द्वार खुले रखता था और उसने प्रमुख दरवाजे के बाहर की तरफ स्वयं के डेरे लगा रखे थे। मराठों के इस 15 माह के घेरे के समय देवीसिंह और मराठों में अनेक छुट पुट युद्ध हुए जिसमें देवीसिंह के 18 घाव लगे135।
मराठों ने धीरे धीरे नागौर नगर का घेरा सख्त कर दिया जिससे वहाँ की रसद समाप्त होने लगी। किले में उपस्थित सरदारों ने तंग आकर जयप्पा को धोखे से मरवा दिया। 136 ठीक इसी समय राठौड़़ सेना ने भी आक्रमण कर मराठा सेना को भगा दिया।137 किन्तु दत्ताजी और जनकोजी सिन्धिया ने इस सेना को एकत्रित किया और पुनः नागौर पर घेरा डाला। रघुनाथराव  सेना सहित इनकी सहायता करने मारवाड़़ पहँुचा। जोधपुर और नागौर की सख्त नाकेबन्दी कर दी गई। विजयसिंह ने बीकानेर और जयपुर राज्य से सहायता प्राप्त करने की कोशिश की पर असफल रहा। इसी बीच मारवाड़़ में अकाल होने से संधि करना स्वीकार कर लिया।138 20 लाख रूपये और अजमेर प्रान्त मराठों को दिया गया तथा रामसिंह को मेड़ता, मारोठ, सोजत, जालोर आदि के परगने इस संधि के पश्चात् दिए गए। झगड़ा शान्त होने पर महाराज विजयसिंह जोधपुर लौट आया।139
1756 ई. में जिस समय रामसिंह जयपुर के स्वर्गवासी नरेश ईश्वरीसिंह की कन्या से विवाह करने जयपुर गया, उस समय महाराजा विजयसिंह और अन्य सरदारों ने रामसिंह के अधिकृत प्रदेशों पर आक्रमण करने का विचार चलाया। ठा. देवीसिंह ने इसका विरोध किया। इसका विचार था कि मराठों और उनके बीच हुई संधि को कम से कम एक वर्ष तक पालन करने का वचन दिया जा चुका है और इस अवधि के समाप्त होने में अभी 5 माह बाकी है, इसलिए अभी रामसिंह के प्रान्तों पर आक्रमण नहीं किया जाय,140 परन्तु अन्य सरदारों विषेशकर जग्गु धायभाई ने इस परामर्श का विरोध किया। विजयसिंह स्वयं भी रामसिंह के प्रान्तों पर आक्रमण करने के लिए उतावला था। अतः शीघ्र ही सेना भेजकर रामसिंह के प्रान्तों पर अधिकार कर लिया गया।141
इधर अपनी उपेक्षा से नाराज होकर ठा. देवीसिंह अपनी जागीर पोकरण चला गया।142 प्रधान होने के कारण ठा. देवीसिंह यह अपेक्षा करता था कि महत्वपूर्ण मामलों में उसकी राय को महत्त्व दिया जाए। गंगारडे के युद्ध के समय विजयसिंह ने रास ठा. केसरीसिंह के सुझावों को अधिक महत्त्व दिया गया। देवीसिंह इस वजह से पहले से ही नाराज था। इस बार पुनः रामसिंह पर आक्रमण किए जाने जैसे महत्वपूर्ण मामलें में उपेक्षा किए जाने से वह नाराज था। महाराज विजयसिंह से उसके मनमुटाव बढ़ने का एक अन्य कारण यह भी था कि महाराज दिन प्रतिदिन के प्रशासनिक कार्य स्वामी आत्माराम और जग्गू धायभाई के परामर्श से करते थे, जबकि ठा. देवीसिंह राज्य का प्रधान था।143
अपने क्षेत्र छिन जाने पर रामसिंह ने पुनः मराठों से सहायता मांगी। शीघ्र ही जयप्पा का भाई महादाजी मराठा सेना के साथ मारवाड़़ आ पहुँचा। युद्ध में विजयसिंह पराजित हुआ। मराठों को डेढ़ लाख क्षतिपूर्ति देनी पड़ी तथा रामसिंह के परगने लौटाने पड़े।144 1758 ई.  में महाराज ने अपने प्रधान देवीसिंह को अप्रसन्न रखना उचित नहीं समझकर  ड्योढ़ीदार गोविन्ददास को पोकरण बुलाने के लिए भेजा। ठा. देवीसिंह का क्रोध अभी तक शान्त नहीं हुआ था। उसने आने से इंकार कर दिया और कहा कि ‘‘महाराजा को केसरीसिंह (रास) अधिक प्रिय है, हमारी क्या आवश्यकता है?’’ जोधपुर लौटकर प्रतिष्ठित पुरूषों ने सारी बात विजयसिंह को बता दी और निवेदन किया कि इस कार्य के निमित्त ठा. केसरीसिंह को भेजा जाना चाहिए।145 विजयसिंह ने एक खास रूक्का भिजवाकर केसरीसिंह को बुलवाया और उसे पोकरण जाकर किसी भी प्रकार से ठा. देवीसिंह को मनाकर लाने के लिए कहा। महाराजा की आज्ञा से ठा. केसरीसिंह पोकरण गया। ठा.देवीसिंह ने उसकी अच्छी मेहमाननवाजी की। दूसरे दिन ठा. देवीसिंह के आदमियों ने केसरीसिंह के कर्मचारियों को कहा कि भोजन सामग्री तथा घोड़े के भोजन के लिए अपने आदमियों को भेजो। कर्मचारियों ने ठा. केसरीसिंह के समक्ष यह निवेदन कर दिया। केसरीसिंह ने ठा. देवीसिंह के आदमियों को बुलवाकर कहा कि ‘‘तू जाकर ठाकुर से कह दे कि मैं यहाँ मेहमाननवाजी करवाने नहीं बल्कि ठाकुर को जोधपुर ले जाने के लिए आया हूँ।’’ उन्होंने ठा. देवीसिंह के पास जाकर ज्यों का त्यों कर दिया। केसरीसिंह के जोश भरे वचन सुनकर देवीसिंह पुनः क्रुद्ध हो गया। उसने केसरीसिंह को कहलवा दिया कि ’’तुम मुझे भय दिखला कर ले जाना चाहते हो, मैं नहीं जाऊँगा। तुम वापस जोधपुर लौट जाओ।’’ ठा.केसरीसिंह ने जोधपुर लौटकर महाराजा को कह दिया कि ठा.देवीसिंह उससे द्वेष रखता है, तथापि आपकी आज्ञा की अवहेलना करके उसने अच्छा नहीं किया। महाराजा विजयसिंह ने भी पुनः देवीसिंह को बुलवाना उचित नहीं समझा।146
उन्हीं दिनों नींबाज ठा. कल्याणसिंह का स्वर्गवास हो गया तथा रास ठाकुर केसरीसिंह ने महाराज की बिना अनुमति लिए अपने पुत्र दौलतसिंह को उसके गोद बिठा दिया। विजयसिंह को यह बात बुरी लगी किन्तु समय को देखकर उसे चुप रह जाना पड़ा। फिर भी अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करने के लिए उसने नींबाज की जागीर का एक गाँव पीपाड़ देने से इन्कार कर दिया। इससे केसरीसिंह नाराज हो गया। तत्पश्चात् बहुत से सरदारों ने नींबाज में इकट्ठा होकर रामसिंह से पत्र व्यवहार द्वारा षड्यन्त्र करना प्रारम्भ कर दिया ।147
अपने अधिकांश सरदारों के एक एक कर नाराज और असंतुष्ट होने से महाराजा विजयसिंह चिन्तित था। उसने सिंघवी फतैचन्द को भेजकर सभी सरदारों को जोधपुर आने को कहा। परन्तु ये लोग नगर के बाहर बख्तसागर तालाब के पास डेरे डालकर ठहर गए। अब तक पोकरण का ठा. देवीसिंह भी बख्तसागर पहुँच चुका था। महाराजा विजयसिंह ने अपने विश्वस्त सेवक जग्गू धायभाई को उन्हें समझाकर नगर में ले जाने के लिए भेजा जिससे सभी सरदार अपनी अपनी हवेलियों में डेरा कर लें।148
महाराजा का संदेश देने के लिए जग्गू धायभाई पालकी में बैठकर तथा 300 सेवकों के लवाजमे के साथ सरदारों के पास पहुँचा।149 उसकी इस शान शौकत को देखकर सरदार नाराज हुए।  उन्होंने प्रतिक्रिया की कि  ’क्या वह इस तरह जुलूस बनाकर हमें अपना वैभव दिखाता हुआ हम पर रौब डालना चाहता है ?’ इतने में पाली ठाकुर जगतसिंह व्यंग्यात्मक लहजे में बोल उठा ‘‘देखों बापड़ों बदरी रो बेटो जुलूस करने आवें है।’’ हलकारों ने तुरन्त ये वचन  तुरन्त धायभाई के कानों तक पहुँचा दिए। यह सुनकर जग्गू धायभाई को क्रोध तो बहुत आया पर उसने संयम रखना उचित समझा। वह सरदारों को प्रणाम कर उनके सामने बैठ गया। सरदारों ने अफीम की मनुहार की किन्तु उसने नहीं ली और कहा कि ‘‘अमल तो महाराज रो चाही ने।’’ इतना कहकर वह पाँंॅव पटकते हुए वहाँ से चला गया और सीधा महाराजा के पास आया। सामान्य शिष्टाचार करके उसने महाराज से  कहा कि ‘‘सरदार बहुत गर्वान्वित हो रहे हैं। आपको उनकी आवश्यकता हो तो आप स्वयं जाकर बुला सकते हैं। अन्य किसी के बुलाए तो वे नहीं आएगें।’’150
जग्गू की बातें सुनकर विजयसिंह अत्यधिक व्यथित  हुआ। तब तक सरदार अपने डेरे उठाकर बनाड़ गाँव चले गए। विजयसिंह ने सिंघवीफतैचन्द, जोधा रघुनाथंिसंह, चांपावत सूरतसिंह इत्यादि को असंतुष्ट सरदारों के पास भेजा। कुछ कहासुनी के बाद महाराजा की ओर से आए सरदारों को असंतुष्टों ने कहा, ‘‘पहले तो रामसिंह को हटाकर बख्तसिंह को गद्दी पर वापस बैठाने में 6 माह लगे थे। किन्तु अब रामसिंह को वापस बैठाने में केवल 6 दिन लगेगें।151 तब जोधा रघुनाथसिंह ने सरदारों से कहा कि ‘‘जोधपुर तो विजयसिंह के भाग्य में लिखा है, उसे कौन पलट सकता है।’’ इस पर ठा. देवीसिंह ने कहा कि ‘‘जोधपुर का राज्य मेरी कटार की पड़ढ़ली में हैं। मैं बनाऊँगा, वही, जोधपुर का राजा होगा।’’152 इस बातों से और अधिक मनमुटाव हो गया। सिंघवी फतैचन्द और सरदार पुनः जोधपुर आ गए तथा महाराज को असंतुष्ट सरदारों के विद्रोही तेवरों के विषय में जानकारी दी ।153
मामला अधिक बिगड़ता देख महाराजा विजयसिंह ने स्वयं सरदारों के समक्ष जाने का निश्चय किया। तभी सूचना आई कि सरदार बख्तसागर तालाब से रवाना होकर जोधपुर से 4 कोस दूर बनाड़ गाँव चले गए। विजयसिंह ने सोचा कि इस समय सरदार क्रोध के आवेश में आए हुए हैं। कहीं वे वापस अपने अपने ठिकाणों में न चले जाए, इसलिए उसने सरदारों के पास बनाड़ गाँव जाना निश्चित किया और बनाड़ पहुँचा। इतने में सरदार बनाड़ से रवाना होकर बीसलपुर गाँव चले गए, जो जोधपुर से 9 कोस की दूरी पर है। विजयसिंह को अब उन्हें मनाने बीसलपुर जाना पड़ा।154 महाराजा विजयसिंह को अपनी ओर आता देखकर सरदार स्वागतार्थ आगवानी करने डेढ़ कोस आगे आए। सम्भवतः सरदारों के महाराज के स्वयं मनाने आने की जानकारी नहीं थी। बीसलपुर गाँव की पाल पर बिछायत हुई, जिस पर विजयसिंह को बिठाया गया। महाराजा के डेरे शायबान बैलगाड़ियों पर लदे हुए होने के कारण पीछे रह गए थे और वहाँ खुले में ठण्ड आ रही थंी। महाराजा ने दो तीन बार डेरे शायबान नहीं पहुँचने के कारण के विषय में पूछा। तब ठा. देवीसिंह ने उसे अपने डेरे में जाकर विश्राम करने का निवेदन किया। विजयसिंह ने उसकी स्वीकृति दे दी। एक पालकी मंगाई गई। ठा. देवीसिंह ने पालकी को अपना कंधा दिया और अपने डेरे पर उचित आसन पर विराजमान करके पगचापनी की।155 इससे स्पष्ट होता है कि नाराजगी होने के बाद भी ठा. देवीसिंह की स्वामिभक्ति समाप्त नहीं हुई थी। महाराजा विजयसिंह के स्वयं आ जाने से यह बची हुई नाराजगी भी जाती रही।
तदनन्तर महाराजा विजयसिंह ने सभी सरदारों को बुलवाया। टाॅड महोदय के अनुसार महाराजा ने इस अवसर पर उपस्थित सभी सरदारों से प्रश्न किया ‘‘सामन्तों ने किस कारण से हमें छोड़ दिया है ?’’ इस पर ठा. देवीसिंह ने उत्तर दिया कि ‘‘महाराज हम लोग अनेक सम्प्रदायों से हैं पर भिन्न भिन्न देहधारी होकर भी हमारा मस्तक एक ही है, यदि हमारा कोई दूसरा मस्तक होता तो उसको आपके अधीन में अर्पण करते।’’ प्रसन्न होकर महाराजा विजयसिंह ने पूछा कि ’’किस प्रकार की व्यवस्था करने से सरदार पूर्व की भाँति राज्य की सेवा करने को राजी होंगे ?’’ विजयसिंह के इस प्रश्न पर सामन्तों ने उसी समय तीन प्रस्ताव प्रस्तुत किये
1. धायभाई के अधीन में जो वेतनभागी सेवा है, उसके अस्त्र छीन लिए जाएं, तथा उसे सदा के लिए विदा देनी होगी ।
2. पट्टा बही हमारे हाथ में देनी होगी।ं
3. किले के बदले नगर से राजकार्य किए जाएगें ।
सरदारों को एकजुट देखकर विजयसिंह ने इन तीनों प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया। जग्गू धायभाई के अधीन की वेतनभोगी सेना निरन्तर शक्तिशाली होती जा रही थी। इस सेना का उपयोग असन्तुष्ट सरदारों का दमन करने के लिए भी किया गया था। अतः सरदार इस सेना को समाप्त करवाना चाहते थे । मारवाड़़ में ठिकाणा प्रणाली के अधीन जिस प्रकार की सैनिक प्रशासनिक संरचना गठित की गई थी उसमें सेना केवल सरदारों की ही हो सकती थी। इस परम्परागत ढाँॅचे मेे वेतनभोगी सेना की बढ़ती शक्ति, सरदारों के परम्परागत अधिकारों पर प्रश्नचिन्ह लगाता था और उनके अस्तित्व के लिए एक खतरे के समान था। इसलिए विजयसिंह ने सरदारों की इस माँॅग को स्वीकार कर लिया, किन्तु सरदारों के दूसरे प्रस्ताव से उसे अवश्य खेद हुआ। भू-वृत्तिका या पट्टा देना अथवा भूस्वामी के ऊपर अधिकार राजा की प्रधान शक्ति है, सामन्तों ने इसी शक्ति पर प्रहार किया था। परन्तु नाराज सामन्तों को सन्तुष्ट करने के लिए उसने इसकी भी सम्मति दे दी।156
‘‘ठिकाणा पोहकरण का इतिहास’’ के अनुसार महाराजा विजयसिंह ने ठा. देवीसिंह के डेरे पर विश्राम करके समस्त सरदारों को बुलवाया और उनसे कहा कि ‘‘तुम लोग नाराज क्यों हो रहे हो? इस तरह नाराज होकर जाने में दोतरफा भला नहीं है। देश बर्बाद हो जाएगा। प्रजा दुःखी हो जाएगी और तुम भी सुख नहीं पा सकते। इसलिए हमारा कहना है कि जोधपुर चलो और अपनी अपनी हवेलियों में डेरा करो। फिर जो कुछ तुम्हें कहना है, कह सकते हो। हम तुम्हें अप्रसन्न नहीं करेगे। हम राजा है, परन्तु किसके पीछे ? हमारी भुजा तो तुम हो, तुम्हारे ही बल पर हम शत्रुओं का नाश कर सकते हैं।’’ महाराज के मधुर वचनों से सरदारों की नाराजगी जाती रही।


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अध्याय 3 ठा. देवीसिंह 2

अध्याय 3 ठा. देवीसिंह 2


तदुपरान्त विजयसिंह ने पट्टा बही मंगवाकर देवीसिंह को सौंप दी और कहा   ‘‘मेरे घर में सब कुछ करने वाले अब तुम ही हो, जिसे चाहो जागीर दो, किन्तु सभी का सम्मान रहै। अगर तुम लोग मुझसे नाराज हो तो मैं पुनः नागौर चला जाऊँगा। मेरे तीन पुत्रों में से तुम जिसे चाहो गद्दी पर बैठा दो। लेकिन झगड़ा मत रखना। तब ठा. देवीसिंह ने उत्तर दिया  ‘‘जोधपुर आपके भाग्य में है, इसलिए आपकी ही रहेगा और हम आपके चाकर ही रहेंगे ।’’ विजयसिंह ने सरदारों से पुनः कहा कि दो गाँवों को छोड़कर आप लोग पट्टा बही में कुछ भी संशोधन कर लो । इस पर ठा. केसरीसिंह ने उन गाँवों के नाम पूछे तो महाराज ने नाडसर और कोसाणा नाम बताए । तब केसरीसिंह ने कहा कि ’’कोसाणा तो चाम्पावतों की जागीर है।आप किसी और को नहीं दे सकते । तब देवीसिंह ने केसरीसिंह को समझाया कि हमें महाराज से इतनी खींचकर बात नहीं करनी चाहिए । दो गाँव ही तो कह रहे हंै, शेष गाँव तो बाकी हंै। इस प्रकार सभी सरदारों को संतुष्ट करके महाराजा अगले दिन उन्हें जोधपुर ले आए तथा उन्हें अपनी अपनी हवेलियों में डेरा करवाकर स्वयं ने गढ़ में प्रवेश किया।157
महाराजा और सरदारों के मध्य बाहरी रूप से भले ही सब कुछ ठीक प्रतीत हो रहा था किन्तु मन के विकार अभी भी दूर नहीं हुए थे । जिन परिस्थितियों और शर्तों पर दोनों पक्षों में समझौता हुआ था, वह महाराजा विजयसिंह के लिए कतई रूचिकर नहीं हो सकता था। उपरोक्त घटना के कुछ समय बाद पुनः दोनों पक्षो में फिर मनोमालिन्य उभर गया। महाराजा के गुरू बाबा आत्माराम, जिसमें वह परम श्रद्धा रखता था, से राजकीय मुद्दों पर विजयसिंह सलाह लेता रहता था। सरदारों ने महाराजा से इस विषय पर आपत्ति की कि ’’साधु सन्यासी का किले में  कया काम’’ ?158 सरदारों के इस कथन से विजयसिंह मन से खिन्न रहने    लगा। बाबा आत्माराम ने महाराज के मुख की अप्रसन्नता और उदासीनता को भांपकर इसका कारण पूछा। विजयसिंह ने पूरी बात बाबा आत्माराम को कह दी। तब बाबा आत्माराम ने कहा कि ’’आप किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करें। हम आपका दुःख अपने साथ ले जाएगें। तत्पश्चात् बाबा आत्माराम ने यौगिक क्रिया से समाधि लेकर देह त्याग दी। इसकी जानकारी मिलने पर विजयसिंह को बेहद संताप हुआ’’।159
टाॅड महोदय इस सम्बन्ध में एक भिन्न विवरण देता है। उसके अनुसार महाराजा वजयसिंह के गुरू आत्माराम को संघातिक पीड़ा उपस्थित हो गई। विजयसिंह जग्गू धायभाई के साथ आत्माराम जी से मुलाकात करने गया। गुरू ने मृत्यु के समय विजयसिंह को अभय देकर कहा ’’महाराज! क्ुछ चिन्ता न कीजिए, मेरे प्राण त्यागने के साथ आपके सम्पूर्ण शत्रुओं का जीवन नष्ट हो जाएगा।’’ गुरू के प्राण त्यागते ही जग्गू धायभाई ने इसकी व्याख्या कर दी और ष्षड्यन्त्र प्रारम्भ हो गया। विजयसिंह ने अपने गुरू के प्रति शोक प्रदर्शित करने के लिए तथा भक्ति जताने के निमित्त सरदारों में यह प्रचारित करवा दिया कि किले में गुरूदेव की प्रेतक्रिया होगी । सरदार भी एक एक कर बाबा आत्माराम के दर्शन करने के लिए आने लगे।160
इधर जग्गु धायभाई को यह समय अपने अपमान का बदला लेने का उचित लगा । उसने महाराजा से सरदारों को पकड़कर कैद करने की स्वीकृति ले ली।161 विचार से वह सरदारों पास गया और सरदारों से कहा कि ’’आप महाराजा के पास चलें और महाराज को धैर्य प्रदान करें।’’ सरदार भी जग्गू की बातों में आ गए और महाराजा के पास जाना स्वीकृत कर लिया। एक अन्य स्त्रोत के अनुसार गोवर्धन खींची ने सरदारों को कहलवाया था कि महाराजा बड़े उदास हैं। अतः आप गढ़ पर मृतात्मा को मिट्टी देने को आएं और महाराजा को सांत्वना देवें । तब ठाकुर देवीसिंह, ठा. केसरीसिंह, ठा. छत्रसिंह (आसोप) और ठा. दौलतसिंह (नीम्बाज) गढ़ पर अपने सैनिकों सहित गए ।162
जग्गू धायभाई ने सरदारों से बड़ी विनम्रता के साथ कहा कि महाराजा की इस दशा में उनके पास अधिक भीड़ का होना उचित नहीं रहेगा, इसलिए आप सरदार अकेले ही महाराजा के पास जांए और अपने आदमियों को यहीं (मुख्य द्वार के बाहर) ठहरा दें। सरदारों ंको षड़यन्त्र का कतई अंदेशा नहीं हुआ। अतः वे इसके लिए तैयार हो गए। इसके पश्चात् रानियों के मृतात्मा की देह के आखिरी दर्शन करने के बहाने से लोहापोल के फाटक के द्वार भी बन्द कर दिया गय163। ठा. दौलतसिंह तब इमरती पोल की खिड़की से घुस गया, परन्तु आगे लोहापोल बन्द होने के कारण वही,ं बैठ गया। महाराजा सूरजपोल तक मृत आत्माराम की बैकुण्ठी के साथ आया। वहाँ से सरदारों ने उसको सांत्वना देकर पीछे लौटा दिया। तब वे सरदार श्रृंगार चैकी पर जा खड़े हुए। सरदारों को इस प्रकार एकांत में खड़ा देखकर जग्गू धायभाई ने महाराजा से सरदारों को कैद करने की अनुमति मांगी। गोवर्धन खींची ने इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया। महाराजा विजयसिंह ने स्वीकृति दे दी और सावधानीपूर्वक कार्य करने को कहा।164
जग्गू धायभाई ने ड्योढ़िदार गोविन्ददास के मार्फत सरदारों को महाराज के पास जाने और धीरज बधाने के संदेश कहलवाया । सरदारों के मन में लोहापोल बन्द होने से कुछ शक पैदा हुआ था, परन्तु महाराज के वचनों पर विश्वास होने से वे आगे बढ़े । ठाकुर देवीसिंह एवं ड्योढ़िदार गोविन्ददास को पकड़ लिया गया।165 ठा. देवीसिंह ने इस अवसर पर जबरदस्त संघर्ष किया।166
एक अन्य स्त्रोत के अनुसार कैद किए गए ठाकुर भोजनशाला के नीचे की कोठरियों में रखे गए। नींबाज ठाकुर इस घटनाक्रम से बेखबर इमरतीपोल और लोहपाल के बीच में एक चट्टान पर बैठा था कि भावसिंह नामक एक सरदार ने उसे पकड़ लिया किन्तु संघर्ष में दौलतसिंह घायल हो गया। उसे कैद करके उपचार दिया गया। तदुपरान्त रघुनाथसिंह और जवानसिंह, विजयसिंह के पास गए। उन्हें घबराया देखकर महाराजा ने कहा कि ‘‘क्यों डरते हो? तुम्हें भरोसा न हो तो हमारी तलवार लो और अपने पास रखो’’ कहकर उन्हें अपनी तलवार दी।167
कैद किए गए सरदारों के हाथों पाँॅवों में बेड़ियाँ और तौखीर लगाई गई। ठा. देवीसिंह के हाथ और पाँव मोटे होने के कारण कड़ियाँ नहीं आई। अतः मोटी कड़ियाँ बनवाकर लगाई गई 168। अगले दिन विजयसिंह की आज्ञानुसार सरदारों के लिए भोजन की थाल मंगाई गई। केसरीसिंह और छत्रसिंह भोजन करने लगे। ठा. देवीसिंह ने हाथ धोने के लिए जल मंगाया। सेवक ने जल ठाकुर को पकड़ा दिया। ठाकुर ने उसी समय जल हाथ में लेकर कहा कि ’’महाराजा बख्तसिंह की सेवा हमने इमरतिया नाडा से शुरू की थी और इस महाराजा की भी नौकरी आज तक की, जिसका यह फल मिला है। अब महाराजा जब हमें बाहर निकालेंगें तभी हम अन्नजल लेगें अथवा दूसरे जन्म में इनका सेवन करेगें । यह कहकर जल छोड़ दिया और भोजन नहीं किया। 169
इसी दौरान जग्गू धायभाई ठा. देवीसिंह की कोठरी में गया और उसे ताना दिया कि ’’ठाकुर! तुम कहते थे कि जोधपुर का राज्य मेरी कटार की पड़दली में है। अब वह पड़तली कहाँ है? उसके उत्तर में देवीसिंह ने कहा कि पड़तली मेरे पुत्र सबलसिंह की बगल में पोकरण में हैं, जिसका तुम्हें पता चल जाएगा। तुमने मुझे धोखे से पकड़ा अन्यथा मैं तुम्हें अच्छा सबक सिखाता। अब मेरे पीछे मेरे पुत्र तुम लोगों को चैन से राज नहीं करने देंगे।170
कर्नल टाॅड के अनुसार देवीसिंह महाराज अजीतसिंह का पुत्र था इस कारण उस राजरक्तधारी को गोली अथवा तलवार से मारने में किसी को भी साहस नहीं हुआ। अन्त में एक बड़े पात्र में विष मिला हुआ अफीम का पानी उनके पास भेज दिया गया और उन्हें यह आज्ञा मिली कि तुमको यह पानी पीकर प्राण त्यागने होंगें। परन्तु देवीसिंह मिट्टी का पात्र देखकर क्रोधित हो गया। उसने स्वर्णपात्र में अफीम लाने के लिए कहा। माॅग स्वीकार नहीं किए जाने पर उसने क्रोध में आकर अफीम का पात्र दूर फेंक दिया और पत्थर की दीवार पर अपने सिर को दे पटका। मस्तक फट जाने से उसके प्राण निकल गए171। इस विवरण में कर्नल टाॅड ने देवीसिंह को महाराज अजीतसिंह का पुत्र बताया है, जो कि गलत है।
’’ठिकाणा पोहकरण का इतिहास’’ के अनुसार अन्नजल त्यागने के पाँचवे दिन रात्रि में रामदेवजी ने उसे दर्शन देकर कहा कि चलो हम तुमको बाहर निकालें, तब देवीसिंह ने उनसे पूछा कि मेरी उम्र अब कितनी है? रामदेवजी ने कहा कि तीन दिन अवशिष्ट है। इस पर देवीसिंह ने कहा कि ’’महाराज मुझे अब बड़े घर में ही उपरत होने दीजिए। तत्पश्चात् 1760 ई. (वि.सं. 1816 की फागुन सुदी अष्टमी) को ठाकुर देवीसिंह का स्वर्गवास हुआ172। उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि ठा. देवीसिंह कुल 8 दिन कैद में रहा। किन्तु ’’महाराज विजयसिंह की ख्यात में स्पष्ट वर्णित है कि ठा. देवीसिंह 6 दिन तक कैद में जीवित रहा और सन्निपात बुखार से उसकी मृत्यु हुई 173। ठा. देवीसिंह की मृत्यु की तिथि को भी लेकर मनभिन्नता है।रेऊ ने स्वामी आत्माराम की मृत्यु की तिथि 2 फरवरी, 1760 ई. (वि.सं. 1816 फाल्गुन बदी 1 मानी है)174 इसमें 6 दिन जोड़ने से ठा. देवीसिंह की मृत्यु तिथि 8 फरवरी 1760 ई. ठहरती है। यह तिथि हमें अधिक तर्कसंगत प्रतीत होती है।
ठा. देवीसिंह की मृत्यु के समय उसकी अवस्था मात्र 39 वर्ष की थी। मृत्यु के समय उसके हाथ और पैर की बेड़ियँा स्वतः ही कट गई थी। यह मान्यता है कि रामदेवजी ने कोठरी में प्रकट होकर स्वयं ही ये बेड़ियाँ काटी थीं। बेड़ियों को अलग देखकर वहाँ तैनात पहरेदार ने उसकी सूचना दरोगा को दी। दरोगा अपने साथ बीस आदमी लेकर गया। किवाड़ खोलने पर उसे ठा. देवीसिंह की मृत्यु का पता चला175। महाराज विजयसिंह की आज्ञा प्राप्त कर आउवा ठाकुर जेतसिंह ने रावटी नाडी के पास ठा. देवीसिंह के शव का दाह संस्कार किया ।176
ठा. देवीसिंह के पकड़े जाने के समय उसके सैनिक इमरती पोल के बाहर थे। स्वामी के बन्दी बनाए जाने के सूचना मिलते ही सैनिक अपनी हवेली में आए। ठा. देवीसिंह की ख्वास जस्सू को साथ लेकर वे सोजती दरवाजे आए। दरवाजे का ताला तोड़कर वे निकल गए। ठा. देवीसिंह का छोटा कुँवर श्यामसिंह ख्वास को लेकर पहले पाली और फिर गुंदोज गया। वहाँ उन्हें देवीसिंह के स्वर्गवास होने की खबर मिली, तब ख्वास जस्सू वही,ं सती हुई।
ठा. देवीसिंह के साथ कैद किए गए अन्य सरदारों में ठा. दौलतसिंह को बाद में छोड़ दिया गया। ठा. छत्रसिंह का एक माह कैद रहकर स्वर्गवास हुआ। ठा. केसरीसिंह का तीन वर्ष कैद के बाद वही,ं मृत्यु को प्राप्त हुआ।177ठाकुर देवी सिंह की संतति चार पुत्र और 3 पत्नियाँ थी। ठा. देवीसिंह ने महाराजा अभयसिंह, रामसिंह, बखतसिंह, और विजयसिंह की चार पुश्तों तक सेवा की। महाराजा अभयसिंह ने 1747 ई. में पोकरण का पट्टा इनायत किया और प्रधानगी का सिरोपाव दिया। महाराजा रामसिंह ने 1749 ई. में भोजपुरा के डेरे पर प्रधानगी पद, हाथी और सिरोपाव दिया। 1751 ई. में महाराजा बख्तसिंह ने प्रधानगी इनायत की जो महाराजा विजयसिंह के शासनकाल में उसकी मृत्यु तक रहा। महाराजा विजयसिंह ने ठा. देवीसिंह को 1752 ई. (वि.सं. 1809) में हाथ का कुरब, दरबार की सवारी में घोड़ा अगाड़ी रखने का कुरब और दरबार होने पर सामने की पंक्ति में बैंठने का कुरब इनायत किया।
प्रधान जैसे महत्त्वपूर्ण पद पर वह पिता की मृत्यु के बाद सम्पूर्ण जीवनकाल रहा, फिर भी शासकों के उपेक्षित व्यवहार से वह असंतुष्ट रहा। महाराजा रामसिंह की बचकानी हरकतंे और दुर्बल चरित्र होने पर भी उसने सरदारों के असंतोष को कम करने का प्रयास किया, परन्तु अन्ततः असफल रहा। महाराजा रामसिंह द्वारा सार्वजनिक रूप से अपमानित किए जाने पर उसने मारवाड़़ के हित में बख्तसिंह के पक्ष में जाने का निर्णय किया।बख्तसिंह को जोधपुर गढ़ पर अधिकार दिलवाने में उसकी भूमिका निर्णायक रही । महाराजा बख्तसिंह के अल्पशासन के बाद महाराजा विजयसिंह के शासनकाल में भी उसे उपेक्षा के कड़वे घूँट पीने पड़े । प्रधान के परम्परागत अधिकारों की पुनःस्र्थापना करने के लिए उसने संघर्ष किया।अपने अस्थिर मस्तिष्क और दुर्बल चरित्र के कारण वह अपने इर्द गिर्द के अवसरवादी और सत्ता लोलुप सरदारों के प्रभाव में आकर ऐसे निर्णय ले बैठता था जो भविष्य में गलत साबित हो जाते थे । एक प्रधान का अपने परामर्श की उपेक्षा किए जाने से नाराज हो जाना स्वाभाविक ही था। इस प्रवृति से राज्य के सामन्तो और राज्य के मध्य संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हुई । यदि विजयसिंह एक समझदार शासक की तरह अपने प्रधान सामन्तों से सामंजस्य बनाकर चलता तो उसका न तो सामन्तों से संघर्ष होता और न ही ठा. देवीसिंह जैसे योग्य व्यक्ति की हत्या करने की उसको आवश्यकता पड़ती । वस्तुतः ठा. देवीसिंह राजनीतिक सत्ता की दुर्बलता का शिकार हुआ था।


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ठा. सबलसिंह का विद्रोह

ठा. सबलसिंह का विद्रोह

ठा. देवीसिंह का पुत्र सबलसिंह पिता के साथ किए गए इस असभ्य व्यवहार से बेहद आहत हुआ। पिता की द्वादश क्रिया करने के उपरान्त वह पोकरण की गद्दी पर बैठा। कुँवरपद में उसने जैसलमेर के गाँव अरजनीवाली के भाटी केशवदास रतनसिंह और ठरड़े के भाटी, मारवाड़़ के गाँवों में लूटपाट करते थे और पशुओं को पकड़ कर ले जाया करते थे। इसने कुँवरपदे में उनको सजा देकर सीधा बना दिया। जिससे उनका उपद्रव शान्त हुआ।179 आरम्भ में ठा. सबलसिंह विद्रोह करनें का अधिक इच्छुक नहीं था, किन्तु तब तक पाली में चांपावत, कूंपावत, उदावत, भाटी जैसे 10000 राजपूत इकट्ठे हो चुके थे । इन लोगों ने ठा. सबलसिंह को कहलवाया कि कार्यवाही अवश्य होनी चाहिए। आपका ठिकाणा तो सीमा पर है, परन्तु हमारे ठिकाणे राज्य के बीचों बीच हैं। अतः हमारी खैर नहीं। जो सरदार कैद में है वे अभी तक मुक्त नहीं किए गए हैं न ही अब तक महाराज की तरफ से कोई मनुष्य संधि के लिए आया हैं। जब तक जग्गू धायभाई की चलेगी तब तक संधि की आशा नहीं है। इसलिए शीघ्र आकर कुछ कार्यवाही करनी चाहिए। तब ठा. सबलसिंह अपने सुभटों को ले पोकरण से पाली पहुँचा और उपरोक्त सरदारों की सेना से जा मिला। यह सेना कैद किए हुए सरदारों को मुक्त कराने हेतु दबाव डालना चाहती थी। इस सेना के विरूद्ध जोधपुर से जग्गू धायभाई पाँच हजार सैनिकों के साथ रवाना हुआ। सबलसिंह जग्गू से दो दो हाथ करने का इच्छुक था किन्तु पाली ठा. जगतसिंह ने उसे युद्ध करने से रोका ।180
पाली से सभी असंतुष्ट सरदार और उनकी सेना बिलाड़ा पहुँची। इस दौरान जग्गू धायभाई मेड़ता में रामसिंह की गतिविधियों की जानकारी मिलने पर नींबाज होता हुआ मेड़ता गया। बिलाड़ा के आसपास के क्षेत्रों में असंतुष्टों की सेना ने लूटमार की। जैतियावास के मार्ग में जहाँ नमक की खाने हैं, वहाँ इस सेना ने डेरा किया। इस स्थान पर योजना बनाई गई कि दो सौ सवारों को भेजकर मवेशी पकड़ लेंगे, जब हाकिम छुड़वाने आएगा, उसे पकड़ कर बिलाड़ा शहर लूट लेंगे।
जब जग्गू धायभाई को मेड़ता में यह खबर मिली की चांपावत, कूंपावत आदि सरदारों की सेना बिलाड़ा में हैं, तो उसने रामकरण पंचोली को फौज देकर रवाना किया और प्रतापसिंह पहाड़सिंह एवं सुजानसिंह आदि सरदारों को उसके सहयोग हेतु भेजा।181 ठिकाणा पोहकरण का इतिहास में इसे विरदसिंह बताया गया है। वह भी युद्ध करते हुए मारा गया। ठाकुर पहाड़सिंह के चार लोहे के खोल लेंगे, परन्तु उसके सैनिक उसे उठा ले गए और प्राचीन महलों में जा घुसे। ठा. सबलसिंह भी घायल हुआ।
सरदारों ने योजनानुसार मवेशी पकड़ लिए । पंचोली रामकरण की सेना कुछ समय बाद ही वहाँ जा पहुँची। रामकरण ने सिंधी जेठमल और ख्ंिाची शिवदान को एक सौ की पैदल सेना के साथ भेजा। कुछ समय बाद पाँच सौ सवारों के साथ रामकरण भी वहाँ जा पहुँचा। घमासान युद्ध हुआ, जिसमें जेठमल हाकिम मारा गया और खींची शिवदान घायल हो गया। हरसौर का ठा. धीरजसिंह कूंपावत मारा गया। रामकरण, चण्डावल ठा. पृथ्वीसिंह,182 ठा. पहाड़सिंह घायल हो गए। शाही सेना युद्ध मैदान से भाग छूटी। असंतुष्ट सेना की विजय का एक महत्त्वपूर्ण कारण उनका सैन्य बल में अधिक होना था।183 चाम्पावत और उदावतों की सेना ने तदुपरांत श्यामसिंह देवीसिंहोत के नेतृत्व में भागती सेना का पीछा किया और सबको भगा दिया। एक हजार सवार की इस सेना ने तालाब के पास अपना डेरा किया। असंतुष्ट सरदार अब बिलाड़ा लूटने की योजना बनाने लगे। तभी उन्हें खबर मिली की पोकरण ठाकुर सबलसिंह को सेरिया (बाड़ों के बीच का रास्ता) में चलते हुए एक जख्मी, चाँदेलाव के मोहनसिंह कूँपावत के हाथ से चली गोली कनपटी।184 यह दुखद समाचार मिलने पर सरदारों का उत्साह शिथिल हो गया। अपनी योजना बदलकर उन्होने पीछे लौटने और सबलसिंह को किसी गाँव में रखने का विचार किया तथा अगले शहर लूटने का मन बनाया। फिर वे सबलसिंह के पास आए। ठा. सबलसिंह ने पूछा कि क्या शहर लूट लिया गया ? वहाँ उपस्थित एक सरदार ने घायल सबलसिंह को संतुष्ट करने के लिए असत्य कह दिया कि, बिलाड़ा लूट लिया गया है।185 तत्पश्चात् एक मांचा (लकड़ी का फ्रेम और मूंज की रस्सी का पलंग) मंगवाकर उस पर सुला दिया गया और सोजत को रवाना हुए। खारिया गाँव के निकट एक पालकी मिल गई।तब उसे पालकी में बैठाकर ले गए ।186
इधर बिलाड़ा में मौजूद राजकीय सैनिकों को अपने विरोधियों की गतिविधियों से आश्चर्य हुआ कि युद्ध में विजय पाए हुए ये लोग पीछे क्यों जाते हैं। उन्होंने तथ्यों का पता लगाने के लिए एक हरकारे को पाँच रूपये इनाम देकर भेजा और हरकारे के पीछे एक खबरनवीस को भेजा।187 सरदारों ने सोजत जाकर मंदिर के पास पालकी को ठहराया । ठा. सबलसिंह दो आदमियों के कंधो पर हाथ रखकर पालकी से उतरा और उसी रात्रि 1760 ई. (वि.स. 1817 की श्रावण सुदि पंचमी) को उसका स्वर्गवास हुआ।188 उस समय उसकी अवस्था मात्र 24 वर्ष थी। वही,ं पर उनका दाह संस्कार बाघेलाव तालाब पर किया गया जहाँ पर उसका स्मारक बना हुआ है।189 पं. विश्वेश्वर नाथ रेऊ के अनुसार ठा. सबलसिंह की मृत्यु खारिया गाँव में  हुई। यह सही नहीं है। हरकारों ने बिलाड़ा जाकर ठा. सबलसिंह के स्वर्गवास होने की खबर दी।190
अपने अग्रज ठा. सबलसिंह का अंतिम संस्कार करने के बाद श्यामसिंह ने अपने सहयोगियों के समक्ष मारवाड़़ छोड़कर कहीं और बस जाने की इच्छा प्रकट की। सरदारों ने उसे रूकने का आग्रह करते हुए कहा कि ’’सबलसिंह का पुत्र अभी छोटा है, इसलिए अभी मत जाओ।’’ तब श्यामसिंह ने कहा कि ’’सवाईसिंह के भाग्य में पोकरण है, तो उसे कौन छुड़ा सकता है ? परन्तु जहाँ नौकरी की कद्र नहीं और तुच्छ मनुष्यों की सलाह से इस प्रकार की हानि हो, वहाँ मैं नहीं रह सकता और तुम जितने उनके हो, उनके साथ रहना।’’ तदुपरांत वह अपना पट्टा
9000/  खाण्डप
1350/  रातड़ी
4500/  कर्मावास वास 2
14850/  कुल रेख
को छोड़कर पुष्कर चला गया। वहाँ ठाकुर सबलसिंह की औध्र्वदैहिक क्रिया करके महाराजा रामसिंह के पास सांभर गया।191 ठा. सबल सिंह की संतति चार पत्नियाँ और 2 पुत्र थे।192 अन्य स्त्रोतों के अनुसार ठा. सबलसिंह की आकस्मिक मृत्यु हो जाने पर अनुज श्यामसिंह जिसकी अवस्था उस समय मात्र 17 वर्ष थी, ने सोजत से 7000/- रूपये की उगाही की। तत्पश्चात् उसने रामसिंह को मेड़ता पर चढ़ाई करने के लिए संदेश भेजकर मारवाड़़ में उपद्रव किए तथा जोधपुर नगर के बाहर दरवाजों तक लूटमार की। उस समय श्यामसिंह के पास 3000, पाली के ठाकुर जगतिसिंह के पास 1000 सेना थी तथा पीलवा के ठा. लालसिंह भी उसके साथ था, किन्तु इनका मेड़ता अभियान विफल रहा। इधर असंतुष्टों की सेना राजकीय सेना द्वारा जालोर की ओर खदेड़ दी गई। अनेक असंतुष्ट जो इस दौरान महाराज के पक्ष में आ गए, इन्हें माफी दे दी गई। राजकीय सेना द्वारा पाली पर अधिकार और रायपुर भखरी, गूलर आदि की ओर असंतुष्ट सरदारों का दमन किया जिससे मारवाड़़ का उपद्रव बहुत कुछ शान्त हो गया। इधर अक्टूबर 1761 ई. में श्यामसिंह और अन्य सहयोगी सरदारों के प्रयासों से साम्भर पर रामसिंह का अधिकार स्थापित हो गया। रामसिंह को मारवाड़़ की गद्दी पर बैठाने के लिए इन्होंने 1765 ई ़ में महादजी सिन्धिया से साठ गाँठ की और उसे मारवाड़़ पर चढ़ा लाए। किन्तु महाराजा विजयसिंह ने महादजी को तीन लाख रूपये देकर संतुष्ट करके लौटा दिया।
1765 ई. में रामसिंह की सहायता के लिए श्यामसिंह खानूजी नामक मराठे को अपनी सहायता के लिए बुलाया किन्तु राजकीय सेना के साथ हुए युद्ध में उन्हें पराजित होकर सांभर की ओर भागना पड़ा।193 मराठे अजमेर की तरफ चले गए। बाद में श्यामसिंह रामसिंह के साथ सांभर से जयपुर आकर रहने लगा। इस समय तक श्याम रामसिंह की अयोग्यता को भली भाँति जान गया था।194 अतः वह अपने सहयोगियों पाली ठा. जगतसिंह और पीलवा ठा. लालसिंह के साथ भरतपुर नरेश रत्नसिंह के पास चला गया (1765 ई.)। रत्नसिंह ने श्यामसिंह को 50,000 रूपये की रेख वाला दादपुर जागीर का पट्टा प्रदान किया।इस समय श्यामसिंह की अवस्था मात्र 23 वर्ष थी।195
1773 ई. में महाराजा विजयसिंह की पासवान गुलाबराय तीर्थयात्रा पर निकली। भरतपुर नरेश के चाटुकारों ने उसे लूटने के लिए प्रेरित किया। राजा रतनसिंह ने इस कार्य हेतु एक फौज भेजने की आज्ञा दी। जब यह खबर ठा. श्यामसिंह को मिली तो वह तुरंत अपना 50,000 रूपये का पट्टा त्यागकर पासवान की रक्षार्थ अपनी जमीयत की सेना लेकर मथुरा पहुँच गया। इसकी सूचना जब रत्नसिंह को मिली तो वह सकते में आ गया। उसने अपना एक दूत भिजवाकर श्यामसिंह को कहलवाया कि मारवाड़़ वालों ने तुम्हारे साथ अत्यन्त बुरा सुलूक किया था, फिर भी तुम अपने किस लाभ के कारण पासवान की रक्षा करने पहुँचे हो? श्यामसिंह ने उत्तर में कहलवाया कि ’’यह पासवान नहीं है, हम राठौड़़ों की माता है।आप जीविका का लोभ देते हो, परन्तु यह तो फिर भी कहीं मिल जाएगी, इज्जत गई हुई फिर नहीं आएगी, हम जीते जी इज्जत गँवाना नहीं चाहते हैं। दरबार में मौजूद एक वृद्ध सलाहकार ने तब राजा रतनसिंह को सलाह दी कि ’’इन राठौड़़ों को आप जानते ही हैं । लड़ाई में हजारों सैनिक मरेंगे और पासवान जिन्दा आपके हाथ नहीं आएगी । अतः बिना वजह फितूर करना उचित नहीं रहेगा ।’’
तत्पश्चात् राजा रतनसिंह ने अपनी फौज वापस बुला ली। श्यामसिंह गुलाबराय को पुष्कर तक छोड़ने गया। वहाँ गुलाबराय से जाने की अनुमति माँगने पर उसने श्यामसिंह को जोधपुर चलने के लिए कहा तथा एक लाख रेख की जागीर पट्टा दिलवाने का आश्वासन दिया। परन्तु श्यामसिंह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। पुष्कर से श्यामसिंह जयपुर पहुँचा। जयपुर महाराजा को जब सम्पूर्ण घटनाक्रम की जानकारी मिली तो उसने श्यामसिंह को अपने पास बुलाया और गीजगढ़ का एक लाख की रेख का जागीर पट्टा दिया ।
इधर गुलाबराय ने जोधपुर लौटकर महाराजा विजयसिंह को पूरी घटना बताई। विजयसिंह श्यामसिंह से अत्यन्त प्रभावित हुआ। उसने अपना दूत भेजकर श्यामसिंह को बुलवाना चाहा, परन्तु श्यामसिंह ने यह कहते हुए इंकार कर दिया कि मैंने मारवाड़़ में नहीं आने की प्रतिज्ञा कर ली है, इसलिए क्षमा करें।’’
जब विजयसिंह ने श्यामसिंह के पुत्र इन्द्रसिंह को थाँवला का 30,000 रूपये की रेख का जागीर पट्टा और कुरब 1774 ई. में इनायत किया।एक अन्य स्त्रोत के अनुसार 84 गाँवों की थाँवला जागीर का पट्टा इन्द्रसिंह को दिया जिसकी रेख 48,100 रूपये मोहर थी। किन्तु यह सही नहीं है।मूल रूप में पट्टा 30,000 रूपये का ही था। 1793 ई. में महाराजा भीमसिंह ने 18,000 रूपये की रेख का अतिरिक्त पट्टा इन्द्रसिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर दिया था।


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अध्याय - 3

चाम्पावतों का आगमन और सबलसिंह चाम्पावत तक राजनीतिक इतिहास

    राव जोधा राठौड़ सŸाा का वास्तविक संस्थापक तथा राठौड़ साम्राज्य को एक निश्चित स्वरूप प्रदान करने वाला व्यक्ति था। जोधा के शासन में ही मारवाड़ मे सामंत प्रथा की दृढ रूप से स्थापना हुई। उसने अपने सम्बन्धियो की सहायता से ही विशाल साम्राज्य निर्मित किया था। आवागमन के सीमित साधनों के कारण इतने विस्तृत साम्राज्य पर एक केन्द्र से शासन करना संभव न था। कठिन परिस्थितियों में सहायता करने वालों को भी पुरस्कृत करना आवश्यक था। अतः जोधा ने अपने साम्राज्य के विभिन्न क्षे़़़़़़़त्रो मे शासन करने हेतु अपने भाइयो व पुत्रो की नियुक्ति की । इस क्रम में राव चाम्पा को कापरड़ा और बनाड़ दिया गया।
राव रणमल के 26 पुत्रों में अखैराज सबसे बड़ा था किन्तु चाम्पा का अपने भाईयों में कौन सा क्रम था, इसे लेकर विद्वानों में मतभेद है। श्ठिकाणा पोहकरण के इतिहासश् में राव चाम्पा को राव रणमल की क्रम में दूसरी सन्तान बताया गया है और वह राव जोधा से बड़ा बताया गया है।1 पं॰ विश्वेश्वर प्रसाद रेऊ राव चाम्पा को क्रम में चतुर्थ अर्थात अखैराज, जोधा और काँधल के पश्चात् मानते हैं।2 इतिहासकार यथा रामकर्ण आसोपा, जगदीशसिंह गहलोत, भगवतसिंह, मोहनसिंह कानोता राव चाम्पा को क्रम में तीसरा और राव जोधा से बड़ा मानते हैं। इतिहासकारों की उपरोक्त धारणा अधिक उपयुक्त प्रतीत होती है।
चाम्पावतों का इतिहास - राव चाम्पा
राव चाम्पा का जन्म 1412 ई. को हुआ था, तथा राव जोधा इससे छोटा था, जिसका जन्म 1415 ई. का है।3 राव रणमल ने जब अखैराज, काँधल और चाम्पा से राव जोधा को राज्याधिकार देने की मंशा प्रकट की तो पिता की आज्ञा एवं इच्छा समझ कर इन्होने इसे स्वीकार किया4 और राव जोधा के मण्डोर राज्य को प्राप्त करने में पूर्ण सहयोग दिया। किशोर अवस्था में राव चाम्पा ने पिता की आज्ञा से एक ऊंटों का एक काफिला लूटा, जिससे बड़ी मात्रा में गुड़ के कापे बरामद हुए। इसे अच्छा शकुन जानकर उसने वही,ं एक गांव बसाया, जिसका नाम कापरड़ा रखा। 1428 ई. को राव रणमल ने इस गांव का पट्टा राव चाम्पा को दे दिया।5 1433 ई. में मेवाड़ के महाराणा मोकल की हत्या होने पर राव चाम्पा अपने पिता के साथ मेवाड़ गया। उसने पूर्व में राव रणमल्ल के साथ युद्ध करके चाचा और मेरा को मारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।6 तत्पश्चात् अग्रज अखैराज के साथ राव चाम्पा को मण्डोर के दुर्ग की व्यवस्था करने हेतु भेज दिया गया।7 1438 ई. (वि.सं. 1495) में राव रणमल की मेवाड़ में हत्या हो जाने पर राव जोधा 700 सवारों के साथ वहां से बच कर भाग निकला।8 किन्तु उसके मण्डोर पहुंचने से पूर्व ही मेवाड़ की सेना वहां आ पहुंची। मण्डोर किले के व्यवस्थापक अखैराज और चाम्पा ने समझा की ‘रावजी’ को पहुंचाने के लिए मेवाड़ी सैनिक आये हैं। बदरी शर्मा के अनुसार राव चाम्पा ने रावजी की सलामी में तोपें दागनी शुरू कर दी।9 यह विवरण हास्यास्पद है क्योंकि भारत में तोपों का प्रचलन 1525 ई. में बाबर के आगमन के बाद प्रारंभ हुआ था। मेवाड़ की सेना द्वारा मण्डोर के किले पर घेरा डालने पर चाम्पा और अखैराज ने अपने मुट्ठी भर सैनिकों की मदद से मेवाड़ी सेना से तीन दिन तक लोहा लिया। किले के बाहर हुई एक लड़ाई में राव चाम्पा घायल हुआ, किन्तु वह अखैराज के साथ वहां से बच निकले और राव जोधा के पास जांगलू के गांव काहूनी पहुँचने में सफल हुए।10
1453 ई. में राव जोधा ने अपने भाइयों अखैराज, चाम्पा और कांधल के सहयोग से तलवार के बल पर मारवाड़़ का राज्य पुनः अधिकृत कर लिया।11 1455 ई. में राव जोधा ने बड़ी सेना लेकर मेवाड़ पर चढ़ाई की। राव चाम्पा इस अभियान का सेनानायक था। राव चाम्पा की अध्यक्षता में पहले गोड़वाड प्रान्त लूटा गया तत्पश्चात् चिŸाौड़ पर बोलकर चिŸाौड़ के दरवाजे जलाए गए और पिछोला झील में घोडों को पानी पिलाया गया।12
1455 ई. में राणा कुम्भा ने एक बड़ी सेना के साथ मारवाड़़ की ओर कूच किया। इधर राव जोधा ने भी मुकाबले की पूरी तैयारी कर ली थी। राव जोधा के पास सैनिक अधिक थे जिससे घोड़े व ऊँट कम पड़ गए। तब राव चाम्पा के परामर्श से गाडे़ मंगवाए गए और राठौड़़ वीरों को उसमें बैठा कर रवाना किया गया। महाराणा कुम्भा को स्थिति भांपते में समय नहीं लगा कि सैनिक गाड़ों में बैठकर मरने मारने आए हैं, भागने के लिए  नहीं, क्योंकि राठौड़़ सैनिक के पास रणभूमि से भाग निकलने के साधन नहीं थे।13 तब कुम्भा ने सन्धि का पैगाम भिजवाया। राव जोधा ने भी चाम्पा और कांधल आदि से सलाह करके संधि कर लेना उचित समझ कर चाम्पा और कांधल को महाराणा के पास भेजा। राव चाम्पा ने संधि वार्ता द्वारा सोजत तक के क्षेत्र को मारवाड़़ के राज्य में बनाए रखने में सफलता प्राप्त की।
जोधपुर का किला बनवाए जाने के समय चिड़ियानाथ जी को राजकर्मचारियों द्वारा तंग किए जाने पर वे अपनी धूणी चादर में बांध कर अन्यत्र पालासनी की ओर रवाना हो गए। राव जोधा ने चाम्पा को उन्हें मनाने के लिए भेजा। चिड़ियानाथ जी ने लौटना स्वीकार नहीं करके वही,ं पालासनी धूणी रमा ली।14 1459 ई. में गोड़वाड के सिंधल और सोनिगरा चैहान राजपूतों ने कापरड़ा में एकत्रित होकर गायंे घेरकर ले गए। सूचना मिलने पर राव चाम्पा 500 सैनिकों के साथ पहुँचा और गायंे छुड़ाने में सफल रहा। 1465 ई. में पाटण (गुजरात) के सुल्तान ने गुजरात से दिल्ली जाते हुए पाली में डेरा डाला। गोडवाड़ के सिंधलों और सोनिगरों ने सुल्तान को भड़काया कि ‘‘ चाम्पा के पास बहुत धन है। हम अपनी पुरानी हार का बदला लेना चाहते है।ं आप हमारी मदद करें। जो भी धन मिले वह आप ले लेंगें’’। लोभ में पड़कर सुल्तान ने आक्रमण करने की नियत से कापरड़ा की ओर प्रस्थान किया। राव चाम्पा 300 सवारों के साथ पूनासर की पहाड़ी के समीप पहुंचा। चाम्पा से वीरतापूर्वक युद्ध लड़कर सुल्तान और उसके सहयोगियों को खदेड़ दिया किन्तु स्वयं भी घायल हो गया।  1479 ई. में महाराणा रायसिंह की सहायता से सिंधलों ने राव चाम्पा पर चढ़ाई की। मिणियारी के समीप हुए इस युद्ध में राव चाम्पा वीरगति को प्राप्त हुआ। राव चाम्पा के 5 पुत्र हुए 15  (1) भैरूदास (2) सगत सिंह (3) पंचायण  (4) भींवराज  (5) जैमल
राव भैरूदास -   चाम्पावत भैरूदास का जन्म 1434 ई. को हुआ ओर 1479 ई. को वह कापरड़ा का राज्याधिकारी हुआ। 1486 ई. को कच्छवाहा शासक राजा चन्द्रसेन ने सांभर पर आक्रमण किया। युद्ध में राव जोधा के साथ भैरुदास ने वीरतापूर्वक युद्ध करके आक्रमणकारियों को परास्त किया। छापर द्रोणपुर में भैरुदास के सेनापतित्व में भेजी गई सेना ने सांरग खां को परास्त कर मार डाला। 1491 ई. में अजमेर का सूबेदार मल्लू खां मेड़ता को लूटकर पीपाड़ तक बढ़ गया। उसने तीज पर्व पर गौरी पूजन के लिए गई स्त्रियों का अपहरण कर लिया। राव सातल ने भैरूदास के साथ उनका कोसाणा तक पीछा किया। यहां हुए भीषण युद्ध में मल्लूखां प्राण बचाकर भाग निकला तथा उसका सेनापति घुडले खां मारा गया। राव सातल घायल होकर वीरगति को प्राप्त हुआ। भैरुदास स्वयं सख्त रूप से घायल हो गया।16 1498 ई. में राव सूजा के पुुत्र नरा की पोकरणा लूंका के हाथों मृत्यु होने के प्रतिशोध में भैरुदास के नेतृत्व में सेना बाड़मेर और पोकरण भेजी गई, जिसने पोकरणा राठौड़़ लूंका की गतिविधियों पर अंकुश लगाया।17 1504 ई. में मेर भोपत के विरुद्ध भैरूदास को भेजा गया। भैरूदास ने उसे खदेड़कर गायंे छुड़वा ली। जैतारण के सींधल जो मेवाड़ महाराणा के प्रति निष्ठा रखते थे, द्वारा विद्रोह करने पर भैरूदास और राव उदा को भेजा गया। उन्होंने सीधलों को पराजित कर खदेड़ दिया।18
राव सूजा के स्वर्गवास होने पर वीरम को गद्दी बिठाने के लिए पंचायण, भैरुदास आदि सरदार एकत्रित हुए। राव वीरम की माता ने उनकी परवाह नहीं की। किन्तु गांगा की माता ने उनका सत्कार किया, जिससे सरदारों ने वीरम को राज्य से वंचित करके गांगाजी को गद्दी पर बैठाया। तभी से कहा जाने लगा ‘‘रिडमलां थापिया तिके राजा’’। जब राव वीरम राव गांगा के राज्य में उपद्रव करने लगा, तब चाम्पावत भैरुदास को सेना सहित भेजा गया। इसी युद्ध में वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए भैरुदास रणाशयी हुआ।19
राव जेसा राव भैरुदास की मृत्युपर्यन्त उनका चतुर्थ पुत्र राव जेसा कापरड़ा की गद्दी पर बैठा। उसका जन्म 1466 ई. को हुआ और 1520 ई. को वह कापरड़ा की गद्दी पर बैठा। एक महात्मा के यह कहने पर कि यदि भैरुदास का वंश कापरड़ा रहा तो उसका वैभव नहीं बढ़ेगा, के कारण राव जेसा ने निर्जन वन में रणसी गांव बसाया।20 राव गांगा ने महाराणा सांगा और गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह के संघर्ष में राणा सांगा की मदद के लिए सेना सहित राव  जेसा को भेजा। राणा सांगा के बाबर से संघर्ष के समय राव जेसा 3000 मारवाड़ी सैनिकों सहित खानवा के युद्ध में मौजूद था।21 1529 ई. में राव गांगा और राव सेखा के मध्य विवाद चरम सीमा पर पहुंच गया। राव जेसा ने दोनों में सुलह करने का प्रयास किया। राव गांगा को उसने सुलह करने के लिए मना लिया किन्तु राव सेखा ने इन प्रयासों की उपेक्षा की। उसने नागौर के दौलतखां की सहायता से जोधपुर पर आक्रमण कर दिया। गांगाणी के निकट हुए युद्ध में राव जेसा ने अन्य सरदारों की सहायता से भीषण युद्ध किया। दौलतखां युद्ध भूमि छोड़कर भाग खडा हुआ और राव सेखा युद्ध में मारा गया। 1534 ई. में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने चिŸाौड़ पर आक्रमण किया। उस समय राणा विक्रमादित्य ने राव मालदेव से सहायता मांगी। राव ने जेसा को 80,000 की सेना के साथ भेजा गया। इसकी सूचना मिलने पर सुल्तान बिना लड़े ही गुजरात लौट गया।22
1538 ई. में राव वीरमदेव (मेड़ता का स्वामी) और राव मालदेव में मनमुटाव अत्यधिक बढ़ जाने पर राव मालदेव ने जेसा को मेड़ता पर भेजा। वीरम ने संघर्ष किया पर असफल रहा। वहां से वह सहायता प्राप्ति के उद्देश्य से दिल्ली के सुल्तान शेरशाह के पास जा पहुंचा। सम्पूर्ण उŸारी भारत पर आधिपत्य स्थापना का इसे अच्छा मौका जानकार शेरशाह राव वीरमदेव के साथ मारवाड़़ पर 1534 ई. में चढ़ आया। गिरि-सामेल के युद्ध में कपटपूर्ण तरीके अपनाकर शेरशाह ने मालदेव को अपने सेनानायकों के प्रति सशंकित कर दिया। राव मालदेव के रणभूमि से पलायन करने पर शेरशाह ने सम्पूर्ण मारवाड़़ पर अधिकार कर लिया। राव मालदेव ने सिवाणा में पीपलाद की पहाड़ियों में शरण ली।23 इस अवसर पर राव जेसा ने उन्हें ढूंढने आए, शेरशाह के एक सेनापति जलाल खां को मारकर उसका घोड़ा पकड लिया। 1545 ई. में राव मालदेव ने जेसा को सेना सहित भेजकर सोजत पर अधिकार कर लिया।24 1545 ई. में शेरशाह की आकस्मिक मृत्यु के बाद राव मालदेव ने जोधपुर पर धावा बोलकर मुसलमान सूबेदार को निकाल बाहर किया। इस अभियान में जेसा भी साथ ही था।25
1547 ई. में (वि.सं. 1604) में पोकरण स्वामी जैतमाल के कुशासन से त्रस्त महाजनों ने राव मालदेव से सहायता की अपील की। राव मालदेव ने पोकरण की ओर कूच किया। जैसलमेर वालों ने मारवाड़़ की सेना के घोडे़ चुरा लिए। राव मालदेव ने इनके पीछे जेसा को भेजा। राव जेसा ने न केवल घोडे़ छुड़ाए बल्कि आगे जैसलमेर में लूटपाट भी की।26  राव मालदेव की सेना  के आक्रमण की आशंका से जैसलमेर महारावल ने संधि कर ली।27 1553 ई. में राव मालदेव ने जेसा को मेड़ता की ओर वीरमदेव के पुत्र जयमल के विरुद्ध भेजा। एक घनघोर युद्ध के पश्चात् राव जेसा विजयी रहा, किन्तु उसका भाई रायसिंह वीरगति को प्राप्त हुआ। जयमल ने बादशाह अकबर की सहायता से और मुगल सेनापति शरफुद्दीन के सक्रिय सहयोग से मेड़ता पर आक्रमण किया। राव जेसा को सेना सहित मेड़ता भेजा गया। मेड़ता के समीप हुए घमासान युद्ध में राव जेसा वीरगति को प्राप्त हुआ।27
राव जेसा के विषय में एक रोचक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि 1537 ई. के लगभग रात्रि में राव जेसा अकेला रणसी गांव आ रहा था। रणसी गांव के समीप एक नाडी पर वह अपने घोड़े को पानी पिलाने रूका। तभी भूत ने जेसा को कुश्ती के लिए ललकारा। राव जेसा ने इसे स्वीकार किया और थोड़ी ही देर में भूत को जमीन पर दे पटका। पराजित भूत अपने हाथ पांव बांधकर राव जेसा के सामने खड़ा हो गया। राव जेसा ने उसे एक बावड़ी और महल बनाने की शर्त पर छोड़ दिया। भूत ने भी प्रत्युŸार में शर्त रखी कि महल बनने तक वह किसी को इस बारे में नहीं बताए। इधर राव जैसा की पत्नी रात भर कोलाहल का कारण पूछती रही और जेसा उसे टालते रहा। प्रातः अंधेरा छटने से पूर्व उसकी पत्नी ने पुनः कारण बताने का अनुग्रह किया। राव जी ने सोचा कि अब तक भूत निर्माण कार्य कर चुका होगा। उसने रात वाली घटना ठकुराणी को बताई। उस क्षण भूत ऊपरी कोने के निर्माण में लगा था। उसने कार्य रोक दिया। यह महल और बावड़ी आज भी रणसी में मौजूद है।28 भूत द्वारा छोड़ गए कार्य को पूर्ण करने का कई बार प्रयास किया गया, पर हर बार असफलता मिली। रणसी के महल का अधूरा कोना आज भी मौजूद है।
राव माण्डण -  राव जेसा के बारह पुत्र में ज्येष्ठ पुत्र राव माण्डण (जन्म 1486 ई.) 1561 ई. में रणसी का पदाधिकारी हुआ। राव चन्द्रसेन ने राव माण्डण को अपने अग्रज उदयसिंह के विरुद्ध फलौदी हस्तगत करने हेतु भेजा। लोहावट के युद्ध में राव माण्डण को सफलता मिली।29 इधर राव उदयसिंह जो मुगल की शाही नौकरी में था ने बादशाह अकबर के सहयोग से जोधपुर और फिर फलौदी पर अधिकार कर लिया। इधर राव चन्द्रसेन की निष्क्रियता को देखकर राव माण्डण उदयसिंह के पक्ष में चला गया। उसने एक शर्त उदयसिंह के समक्षी रखी कि वह राव चन्द्रसेन के समक्ष कभी हथियार नहीं उठाएगा। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र गोपालदास को राव उदयसिंह की सेवा में रखा और स्वयं फलौदी का प्रबंध देखने के लिए रूक गया।30 1584 ई. में बादशाह अकबर की आज्ञा से गुजरात जाते हुए महाराजा उदयसिंह सिरोही में ठहरा। इस दौरान सिरोही के राव सुरताण  के आकस्मिक आक्रमण में राव माण्डण बुरी तरह घायल हो गया। इन्हीं घावों से उसकी मृत्यु हो गई।31
राव गोपालदास - राव माण्डण के तीन पुत्रों में ज्येष्ठ गोपालदास (जन्म 1533 ई.) 1587 ई. में रणसी की गद्दी पर बैठा।32 1584 ई. में बादशाह अकबर द्वारा गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर तृतीय के विरूद्ध भेजी गई सेना में वह भी राव माण्डण के साथ था। मार्ग में सिरोही में पिता की मृत्यु के बावजूद वह विचलित नहीं हुआ और मारवाड़़ की सेना के साथ अहमदाबाद की ओर रवाना हुआ। साबरमती नदी के तट पर शिकार के समय विद्रोही जाडेजा जगा से उसका संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में जगा जाडेजा मारा गया। महाराजा उदयसिंह ने प्रसन्न होकर उसे आउवा का पट्टा दिया।33 राजपीपला नामक स्थान पर शाही सेना का सुल्तान मुजफ्फर की सेना से युद्ध हुआ जिसमें बादशाह अकबर की विजय हुई । पुनः गोपादास के वीरतापूर्ण कृत्य से प्रसन्न होकर महाराजा उदयसिंह ने गोपालदास को पाली का अतिरिक्त पट्टा और प्रधानगी का पद दिया।
ख्यातों के अनुसार गोपालदास ने 1585 ई. में राणा प्रताप द्वारा जैसलमेर यात्रा से लौटते समय भेंट की। यही नहीं उसने आमेट युद्ध में राणाप्रताप को सहयोग भी दिया। इसकी एवज में महाराणा ने गोपालदास को पट्टा देने की इच्छा जाहिर की, किन्तु गोपालदास ने इसे अस्वीकार कर दिया और मारवाड़़ लौटा आया।34 इस बात की पुष्टि अन्य गं्रथों से नहीं हो पायी है। 1585 ई. में महाराजा उदयसिंह ने चारणों के कुछ गांव जब्त कर लिए। चारणों ने आत्महत्या के उद्देश्य से आउवा की ओर प्रयाण किया उन्होंने गोपालदास से उनके गांव बहाल करवाने हेतु सिफारिश करने का निवेदन किया। मोटाराजा उदयसिंह ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। कुछ क्षुब्ध चारणों ने आउवा में आत्महत्या की ओर मारवाड़़ छोड़कर जाने लगे। गोपालदास भी अपना पट्टा छोडकर महाराजा प्रतापसिंह के पास चला गया।
महाराजा सूरसिंह ने 1595 ई. में गद्दी पर बैठा। उसने गोपालदास को बुलवाया और चारणों के गांव लौटा दिए। 1596 ई. में गोपालदास  महाराजा सूरसिंह के साथ गुजरात अभियान पर गया। मार्ग में सिरोही के शासक राव सुरताण पर महाराजा ने आक्रमण कर दिया। गोपालदास की मध्यस्थता से दोनों पक्षों में संधि हुई। 1597 ई. में गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह और उसके पुत्र बहादुरखां से हुए युद्ध में उसने हरावल में रह कर युद्ध किया। अहमदनगर के उपद्रव को शांत करने के लिए अब्दुर्रहीम खानखाना व महाराजा सूरसिंह के साथ गोपालदास भी गया। शाही सेना ने मलिक अम्बर को परास्त कर दिया। इस युद्ध में गोपालदास घायल हुआ।35 1604 ई. में बादशाह जहांगीर ने महाराणा सूरसिंह को गुजरात का सूबेदार बना कर भेजा गया। इसी दौरान 1605 ई. में विद्रोहियों से हुए माण्डवे के युद्ध में गोपालदास वीरगति को प्राप्त हुआ। इस युद्ध में उसका पुत्र राधोदास भी युद्ध में काम आया। गोपालदास के आठ पुत्र हुए, इनमें 7 पुत्र युद्ध में काम आए और 8 वां दलपत घर में मरा। उनकेे विषय में प्रसिद्ध है कि ‘‘गोपालदास के गुरु शिवनाथजी महाराज थे, इनके दर्शन करने आठों भाई गए और सात पुत्रों ने प्रार्थना की हम तलवार की मौत मरें। 8 वें पुत्र दलपत ने व्यंग्य किया कि ‘स्वामीजी के पास भला कौन सी तलवार है ?’ यह सुनकर स्वामीजी ने कहा कि ‘तू खाट सेक कर मरेगा, अन्य सभी तलवार की मौत से मरेंगे।’ कहा जाता है कि इसके बाद दलपत द्वारा की गई सात लड़ाइयों मे ंवह अकेला ही शत्रुओं के बीच कूद पड़ता किन्तु हर बार घायल होकर रह जाता।36
राव बीठलदास - गोपालदास के आठ पुत्रों में बीठलदास ज्येष्ठ था। उसका जन्म 1603 ई. में हुआ। 1605 ई. में वह रणसी का पदाधिकारी हुआ। बादशाह जहांगीर के आदेश से 1605 ई. में महाराज सूरसिंह के दक्षिण अभियान में वह भी साथ में गया। 1615 ई. में मुगलों के उदयपुर अभियान में महाराजा सूरसिंह का दक्षिण से बुलाया गया। महाराज सूरसिंह ने बीठलदास को महाराणा के पास भेजकर संधि करवा दी। 1622 ई. में महाराजा सूरसिंह ने बीठलदास को महाराणा के पास भेजकर संधि करवा दी।37 1622 ई. में महाराजा गजसिंह के साथ वह मलिक अम्बर के विरुद्ध अहमदनगर गया और हरावल में रह कर युद्ध किया। खुर्रम (शाहजहाँ का मूल नाम) द्वारा बागी होकर महाराजा गजसिंह पर आक्रमण करने के समय भी बीठलदास ने हरावल में रह कर युद्ध किया। 1630 ई. में शाही सेना के बीजापुर अभियान में  भी वह महाराज गजसिंह के साथ शामिल था।38 1632 ई. में महाराजा जसवन्तसिंह के सिंहासनारूढ़ होने के समय बीठलदास को सिरोपाव दिया गया तथा रणसी और पाली के पट्टों में गांवों की संख्या बढ़ा दी गई।39 सिवाना विद्रोह दमन और पोकरण पर महाराजा जसवंतसिंह का अधिकार करवाने में उसकी रणकुशलता की प्रशंसा हुई।40 1657 ई. में मुगल राजवंश के उŸाराधिकार युद्ध में महाराजा जसवंतसिंह ने औरंगजेब के विपक्ष में लड़ाई की। धरमत के युद्ध में बीठलदास वीरगति को प्राप्त हुआ।41
राव जोगीदास - राव बीठलदास के 12 पुत्रों में ज्येष्ठ पृथ्वीराज रणसी का पदाधिकारी हुआ। पृथ्वीराज के अनुज जोगीदास को महाराज जसवंतसिंह ने अपनी सेना में बुलवाया। कालांतर में औरंगजेब ने महाराजा जसवन्तसिंह को माफ करके उन्हें सातहजारी मनसब के साथ गुजरात सूबेदार बनाकर भेज दिया। जोगीदास महाराजा के साथ गया। गुजरात में उसने कोली दूदा के उपद्रव को शांत करने में सक्रिय भूमिका निभाई। महाराष्ट्र में शिवाजी के विरूद्ध हुए युद्ध में भी उसने हिस्सा लिया। 1673 ई. में महाराजा जसवंतसिंह को जमरूद सूबेदारी प्राप्त होने पर वह भी महाराजा के साथ अफगानिस्तान गया। महाराजा और जोगीदास आदि अन्य सरदारों के परिश्रम से पठानों पर अंकुश लगाया जा सका।42
1678 ई. में महाराजा जसवंतसिंह की जमरूद में मृत्यु हांे गई। उनकी दो रानियों ने कुछ माह बाद दो पुत्रों को जन्म दिया, अजीतसिंह और दलथम्भन। दलथम्भन की कुछ दिनों बाद मृत्यु हो गई। औरंगजेब ने अजीतसिंह को महाराजा जसवंतसिंह का फर्जी पुत्र घोषित करवा कर नागौर के इन्द्रसिंह को पट्टा प्रदान दिया और महाराजा जसवंतसिंह और उसके पुत्र अजीतसिंह को पकड़ने के लिए 20,000 की सेना भेजी। राठौड़़ वीरों ने बड़ी चतुराई से अजीतसिंह को खींची मुकन्ददास के साथ सिरोही के ग्राम कालिन्द्री पहुंचा दिया। जोगीदास और अन्य सरदारों ने घिर जाने पर रानियों को धारास्नान करवाकर यमुना में बहा दिया और मुगलों से घनघोर युद्ध किया। 1679 ई.  के युद्ध में ठाकुर जोगीदास बहादुरी से लड़कर काम आया।43
ठाकुर सावंतसिंह - ठाकुर जागीदास के दो पुत्रों सावंतसिंह और भगवान दास हुए। सावंतसिंह 1679 ई. में भीनमाल का पदाधिकारी हुआ। वीर दुर्गादास के नेतृत्व में सरदारों ने मारवाड़ में जबरदस्त आतंक फैलाया। सेनानायक अजबसिंह बीठलदासोत के युद्ध में काम आ जाने पर  ठाकुर सावंत सिंह को सेनानायक बनाया गया। सावंतसिंह ने भीनमाल पर आक्रमण कर जालौर के स्वामी बिहारी पठान को निकाल बाहर किया। तत्पश्चात् उसने मुगलों द्वारा अधिकृत किलों और सैन्य चैकियों पर दबाव बनाना प्रारंभ किया। चांपावत सावंतसिंह के सेनापतित्व में यह आक्रमण  प्रत्याक्रमण का दौर 1683 ई. तक चलता रहा। 1683 ई. ठाकुर सावंतसिंह मुगल अधिकारी बहलोल खां से संघर्ष करता हुआ काम आया।44 ठाकुर सावंतसिंह का हठुसिंह नामक एक पुत्र था। 1693 ई. में वह मुगलों से संघर्ष करता हुआ अत्यधिक घायल हो गया तथा अल्पकाल में ही काल कलवित हो गया। तब सावंतसिंह का छोटा भाई भगवानसिंह सावंतसिंह के गोद बैठा और सावंतसिंह के बाहुबल से विजित भीनमाल, मजल और कोरां आदि गांवों का अधिपति हुआ।45
ठाकुर भगवानदास - भगवानदास ने अपने तीव्र अभियानों से मुगल विरोध को पुनः मुखरित किया। उसने अजमेर में मुगल अधिकारियों, नूरअली, पुरदिल खां मेवाती पर आक्रमण कर उन्हें मार डाला और मुहम्मद अली को परास्त किया। काणाणा, गांगाणी, नांदिया, पलासणी इत्यादि थाणों पर आक्रमण कर लूट लिया, पाली व फलौदी से दण्ड लिया। जालौर पर आक्रमण किया किन्तु शासक फतैहखां बिना लडे़ ही भाग गया। उसने मुकुन्ददास खींची से भेंट करके महाराजा अजीतसिंह को अज्ञातवास से प्रकट करने का निवेदन किया। वीर दुर्गादास से स्वीकृति मिलने पर मुकुन्ददास खींची ने महाराजा अजीतसिंह को प्रकट कर दिया। इससे राठौड़़ वीरों में नव उत्साह का संचार हुआ। महाराजा अजीतसिंह को सिवाणा दुर्ग में सुरक्षित रखा गया किन्तु मुगलों के बढ़ते दबाव के कारण अजीतसिंह को पीपलाद की पहाड़ी में जाना पड़ा। भगवानदास सफलतापूर्वक सिवाणा का प्रबंध करता रहा और अजीतसिंह की सहायतार्थ धन भेजता रहा।46
1691 ई. में पुत्र अमरसिंह से विवाद उत्पन्न होने पर महाराणा जयसिंह ने महाराजा अजीतसिंह से सहायता भिजवाने को कहा। इस मौके पर महाराजा ने अपने चार सरदारों दुर्गादास, भगवानदास, दुर्जणसाल (जोधा), अखैसिंह (उदावत) को सेना सहित भेजा। इन सरदारों के सक्रिय प्रयासों से पिता पुत्र में संधि सम्पन्न हुई।47 इसी बीच औरंगजेब और उसके अधिकारियों ने अनेक छल कपट और फूट डालने के प्रयास किए, जिन्हें भगवानदास ने दुर्गादास से परस्पर सलाह कर विफल कर दिया।48
1706 ई. में औरंगजेब की मृत्यु होने पर दुर्गादास, भगवानदास एवम् अन्य सरदारों ने सेना एकत्रित कर दिल्ली की ओर कूच किया। फौजदार जाफर कुली खां भाग छूटा।49 1708 ई. में बादशाह बहादुरशाह की फौज राजपूतों के उपद्रवों को कुचलने के लिए भेजी गई। जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह ने मारवाड़़ की सेना के साथ मिलकर मुगल सेना पर भीषण प्रहार किया। इस युद्ध में ठाकुर भगवानदास हरावल में था। बादशाही सेना पराजित होकर भाग खड़़ी हुई। बाद में दोनों पक्षों में हुई संधि में भगवानदास की सक्रिय भूमिका रही।50 इस बीच कृत्रिम दलथम्भन के विद्रोह को कुचलने के लिए महाराजा अजीतसिंह ने भगवानदास कोे सोजत भेजा। दो दिन के भीषण युद्ध के बाद कृत्रिम दलथम्भन भाग खडा हुआ।51 1708 ई. में महाराज अजीतसिंह ने नागौर के शासक इन्द्रसिंह पर अपनी एक फौज भेजी। इस सेना में अग्रणी भगवानदास था। गोलाबारी के प्रारंभ होते ही उसने एक दूत भेजकर अपराध क्षमादान और संधि की याचना की। भगवानदास की मध्यस्थता से काफी कठिनाईपूर्वक अजीतसिंह को मनाया जा सका। 1709 ई. में भगवानदास को प्रधानमंत्री पद ओर घोड़ा सिरोपाव देकर दासपा आदि 30 गांवों के पट्टे देकर जागीर में अभिवृद्धि की गई।
दिसंबर 1713 ई. में बादशाह फरूर्खसियर ने सैय्यद हुसैनअली खां को सेना देकर मारवाड़़ पर भेजा, क्योंकि अजीतसिंह ने दक्खन की सूबेदारी अस्वीकृत कर दी थी। महाराजा अजीतसिंह ने जोधपुर नगर और किले की सुरक्षा का प्रबंध भोपालसिंह जागीदासोत (चाम्पावत) के सुपुर्द किया और मुगलों से युद्ध करने चल पड़ा। हुसैनअली खां जो स्वयं युद्ध का पक्षधर नहीं था, ने एक प्रतिनिधि भेजकर संधि का प्रस्ताव किया। महाराजा अजीतसिंह ने प्रधान भगवानदास और अन्य सरदारों को संधि हेतु प्राधिकृत किया। भगवानदास ने संधि के वार्तालाप के लिए कुछ सरदारों को भेजा, किन्तु हुसैनकुलीखां ने इन्हें कैद कर लिया। तब भगवानदास और जोधा हरनाथ सिंह ने मुगलों पर धावा बोला। घमासान युद्ध में हरनाथसिंह मारा गया और भगवानदास घायल हो गया।52 एक सैनिक वहां से बच निकला। उसने महाराजा के रैण डेरे पर आकर भगवानदास के पुत्रों महासिंह और प्रतापसिंह को यह घटना बताई और भगवानदास के भी मारे जाने की गलत सूचना दी। महाराजा ने इसके शोक में तीन वक्त की नौबत बंद कर दी और उसके पुत्रों ने औध्र्वदैहिक क्रिया कर डाली। अगले दिन भगवानदास ने महाराजा के डेरे पर पहुँचकर सबको आश्चर्यचकित कर दिया। अजीत सिंह ने अपना डेरा आसोप किया और भगवानदास को जोधपुर के किले का प्रबंध सुपुर्द किया। कुछ दिनों में दोनों पक्षों में सुलह हो गई।
1714 ई. में महाराजा अजीतसिंह को गुजरात को सूबा इनायत हुआ। जोधपुर राज्य के प्रबन्ध का जिम्मा भगवानदास को पुनः सौंपा गया। किन्तु अगले ही वर्ष 70 वर्ष की आयु की अवस्था में उसका देहान्त हो गया। ठा. भगवानदास के विषय में कहा जाता है कि उसका सामान्य से काफी ऊंचा कद था। भीनमाल के वाराहजी के मंदिर में वाराहजी का छत्र जमीन पर खडे़ रहकर बांध देता था जबकि वहां का पुजारी तीन सीढ़ी चढ़कर वाराह जी के माथे पर तिलक लगाता था।53 ठा. भगवानदास को अग्रलिखित कुरब हासिल थे54
1. प्रधान का पद 2. दोहरी ताजीम
3. ठाकरां लेख 4. मिसल में सिरे बैठना
5. सवारी में घोड़ा आगे रखना 6. सरब ओपमा
7. डेरा सिरे पर करना 8. खासा ठामना
9. बांह पसाव 10. हाथ का कुरब
11. बगल गीरी 12. पहले बतलाना
ठाकुर महासिंह - ठा.भगवानदास के चार पुत्रों में महासिंह (जन्म 1687 ई.द्ध ज्येष्ठ था। ठा. भगवानदास ने 1713 ई. में अपनी जागीर के दो भाग किए। महासिंह को मीजल दिया, जिसमें भीनमाल भी शामिल था। प्रताप सिंह को दासपों प्रदान किया। कालांतर में महाराजा अभयसिंह ने महासिंह को मीजल भीनमाल की एवज में पोकरण प्रदान किया।
पोकरण के चाम्पावत जागीरदार
पोकरण ठिकाणा सर्वप्रथम महाराजा अजीतसिंह के द्वारा भीनमाल के ठिकाणेदार एवं राज्य के प्रधान भगवानदास चाम्पावत के पुत्र महासिंह को 1708 ई. में प्रदान किया गया। किन्तु कुछ समय पश्चात् ही पोकरण पुनः चन्द्रसेन नरावत को प्रदान किया गया।55 भगवानदास की मृत्यु (1715 ई.) के पश्चात् उसके पुत्र महासिंह को भीनमाल की जागीर मिली।56


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