Wednesday 18 December 2013

CHAPTER 6



अध्याय - 6
पोकरण ठिकाणे की प्रशासनिक एवं आर्थिक व्यवस्था
पोकरण, जोधपुर राज्य का एक बड़ा ठिकाणा था। मालानी के 1031 गांवों के पश्चात् पोकरण पट्टे के गांवों की संख्या सर्वाधिक 1002 थी। पोकरण ठिकाणा प्रशासनिक दृष्टि से जोधपुर परगने के अधीन था। इसके अधीन पोकरण के गांवों के अतिरिक्त साकड़ा3, जालोर4, सिवाणा5 और नागोर6 के गांव भी सम्मिलित रहे हैं। इस ठिकणांे के मूल गांवों की संख्या 1728 ई. में ठा. महासिंह के समय मात्र 727 थी, जो क्रमशः बढ़ते रहे। उसे प्रधानगी के दायित्व के निर्वाह हेतु मजल ओर दुनाडा नामक दो बड़े गांव दिए गए8। इस प्रकार कुल 74 गांव महासिंह के पास थे।9 ठा. देवीसिंह के समय यह संख्या बढ़कर 82 गांव हो गई। ठा. देवीसिंह की राजकीय सेवकों द्वारा हत्या करने पर उसके पुत्र सबलसिंह ने विद्रोह किया। सबलसिंह की आकस्मिक मृत्यु के बाद वृद्धि किए गए गांव वापस ले लिए गए। 1767 ई. में ठा. सवाईसिंह के समय (मजल, दुनाडा रहित)10 पट्टे के कुल गांवों की संख्या 72 थी। 1808 ई. में ठा. सवाईसिंह की मृत्यु के बाद उसके पुत्र सालम सिंह को 84 गांव (मजल, दुनाडा सहित) का पट्टा हुआ।11 1823 ई. में ठा. सालमसिंह के स्वर्गवास के समय उसके कोई पुत्र नहीं होने के कारण पोकरण का पट्टा जब्त हुआ और पोकरण को प्रबंध के लिए सरदारमल सिंघवी के सुपुर्द किया गया। 1825 ई. को उसके गोद आए पुत्र बभूतसिंह के नाम पोकरण का पट्टा बहाल हुआ जिसमें मजल दुनाडा सहित 94 गांव थे।12 1840 ई. में सिवाणा के गांव करमावास, बीनावास पट्टे में तो नहीं लिखे गए किन्तु उनकी पैदाइश उसे देने के आदेश दिए गए।13 कुछ और भी गांव उसे प्रदान किए गए। ठा. मंगलसिंह के समय कुल 100 गांव थे।14
पोकरण के 100 गांव जो गढ़ जोधपुर के अधीन थे, एक क्षेत्र. विशेष में नहीं होकर बिखरे हुए थे। ठा. चैनसिंह अवध के ताल्लुकदार भी थे।15 इतने बडे़ क्षेत्र में प्रशासनिक सुव्यवस्था के लिए कर्मचारियों की एक फौज नियुक्त थी। पोकरण के ठाकुरों के पास जोधपुर राज्य की प्रधानगी होने के कारण वे ठिकाणा की ओर कम ही ध्यान दे पाते थे।16 उन्हें  ठिकाणे में रहने का मौका कम हीं मिल पाता था। पोकरण के ठिकाणेदारों की जोधपुर के महाराजाओं से नाराजगी की अवस्था में ये ठिकाणेदार लंबे समय तक अपने ठिकाणों में रहे। ठा. देवीसिंह महाराजा विजयसिंह से नाराजगी के चलते कुछ वर्ष पोकरण रहा, ठा. सवाईसिंह पहले अपनी बाल्यवस्था के कारण और बाद में महाराजा मानसिंह से उŸाराधिकार के मुद्दे पर मनमुटाव के कारण पोकरण रहा, ठा. सालमसिंह ने एक लंबे समय तक दरबार की गतिविधियों के प्रति उपेक्षा भाव रखा और पोकरण में ही रहा। ठा. बभूतसिंह भी राजदरबार की गुटबाजी के कारण महाराजा तख्तसिंह के शासनकाल में अधिकांशतः अपने ठिकाणें में ही रहा। उसने अपनी प्रशासनिक प्रतिभा का इस्तेमाल अपने ठिकाणे में किया और राजस्व प्राप्तियों को बढाया। उसके प्रशासन की प्रशंसा अंग्रेज पोलिटिकल एजेण्ट कर्नल कीटिंग और स्वयं महाराजा तख्तसिंह ने भी जैसलमेर विवाह हेतु जाते समय पोकरण पड़ाव के समय की।17 किन्तु उसके अधिक समय तक जोधपुर से बाहर रहने के कारण प्रधानपद की शक्ति और अधिकारों का क्षय हो गया। इस पद के कार्य अब किलेदार और दीवान में बंट गए।18 ठा. बभूतसिंह के उŸाराधिकारियों को प्रधानगी का सिरोपाव देने के विवरण हमें नहीं मिलते है। अब इन्हंे किसी कौंसिल का सदस्य या मंत्री बनाया जाने लगा।19 किन्तु दरबार में आसन ग्रहण करने और महाराजा को नजर करने सम्बन्धी प्राथमिकता उन्हें पूर्व के समान मिलती रही।
पोकरण की प्रशासनिक संरचना
ठिकाणेदार - पोकरण खास और पट्टे के गांवों के प्रशासन में पोकरण में ठिकाणेदारों का सर्वोच्च सोपान था। वे अपने ठिकाणे में एक अर्द्ध-स्वतंत्र शासक की तरह कार्य करते थे। ठिकाणे की प्रशासनिक व्यवस्था वास्तव में राज्य प्रशसन व्यवस्था का ही लघु रूप था।20 उसकी अपने ठिकाणे में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना करने की जिम्मेदारी थी। इस उद्देश्य की प्राप्ति करने के लिए उसे अधीनस्थ कर्मचारियों की नियुक्ति का अधिकार था। उसके अधीन पोकरण जमीयत की फौज थी।21 उसे पुलिस और प्रथम दर्जे के न्यायिक अधिकार प्राप्त थे।22 ठिकाणे के आर्थिक प्रशासन भी उसे के जिम्मे था तथा राजदरबार को समय-समय पर रेख-चाकरी, हुकुमनामा एवम् अन्यकरों का भुगतान करने की जिम्मेदारी थी। पोकरण के ठिकाणेदार मारवाड़़ राज्य के प्रधान थे। इस कारण उनके पास राज्य के सभी पदाधिकारियों से सम्बन्धित विवरण रहता था, जैसे कि सरदारों को दिए जाने वाले पट्टे के गावों का विवरण, रेख की मात्रा, कुल प्राप्तियाँ, हुकुमनामा इत्यादि। उसकी अनुशंसा पर महाराज उŸाराधिकार प्राप्त सरदार को हुकुमनामे में रियायत प्रदान करता था। इस सेवा के प्रतिफल में उसे प्रति पट्टेदार प्रतिवर्ष एक रूपया मिलता था।23 अपने ठिकाणे के प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए वह आवश्यकता के अनुसार प्रधान, कामदार, फौजदार, मुसाहिब, वकील, दरोगा, कोठारी, तहसीलदार आदि कर्मचारियों की नियुक्ति करता था।
प्रधान - पोकरण जैसे बड़े ठिकाणे में प्रधान की नियुक्ति की जाती थी। उनके कार्य मुख्यः सामान्य प्रशासन सम्बन्धी थे। बीकानेर री ख्यात में पोकरण के प्रधान भायल जीवराज का विवरण मिलता है जिसने पोकरण जमीयत की सेना और बीकानेर की सेना के संयुक्त अभियान द्वारा 1807 ई. में फलोदी पर बीकानेर का अधिकार करवा दिया।24

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CHAPTER 7


अध्याय - 7
 समाज और धर्म
सामाजिक संरचना - 
पोकरण मारवाड़ की रियासत की पश्चिमी  सीमा पर जैसलमेर की सीमा से सटा हुआ मरूस्थलीय ठिकाणा था। पवित्र भूमि रामदेवरा के संत बाबा रामदेव की कर्मभूमि पोकरण में उनकी शिक्षाओं के अनुकूल सामाजिक सद्भाव की झलक दिखाई देती थी। विभिन्न धर्म सम्प्रदायों की उपस्थिति के बावजूद यहां कभी भी साम्प्रदायिक विरोध उत्पन्न नहीं हुआ। ठिकाणा पोकरण में हिन्दुओं का जनसंख्या अनुपात सर्वाधिक रहा है। हिन्दू समाज चार वर्णो में बंटा था। यह वर्ण आगे अनेक जातियों में विभक्त था। ब्राह्मणों का स्थान वर्णो में सर्वोच्च था किन्तु शक्ति और संसाधन राजपूतों के पास रहे। पुष्करणा ब्राह्मण स्वयं को पोकरण के स्थापनकर्ता मानते रहे है। श्रीमाली ब्राह्मणों का आगमन बाद में हुआ। साकलद्विपीय ब्राह्मण (भोजक) या सेवक ब्राह्मण काफी बाद में पाकिस्तानी क्षेत्र में आए थे तथा मुख्यतः मंदिरों में पूजा कर्म ही करते रहे है। व्यास, बिस्सा, जोशी, त्रिवेदी, पल्लीवाल, सेवक इत्यादि ब्राह्मण कुल पोकरण में रहते हैं। राजपूतों में राठौड़ो में चाम्पावत राठौड़, पोकरणा राठौड़, जयसिंघोत राठौड़, नरावत राठौड़, भाटियों में जसोड़, जैसा, रावलोत, केलण इत्यादि भाटी, तंवर, पंवार, देवड़ा (बिलिया) आदि राजपूतों कुलों का यहां निवास है। प्रारंभ में परमार, पंवार, प्रतिहार जैसे राजपूतों कुलों की विद्यमता के भी साक्ष्य मिले हैं किन्तु ये राजपूत कुल यहां से पलायन कर गए। किंवदन्ती है कि पोकरण रामदेवजी ने बसाया था जो स्वयं तंवर राजपूत थे। उनके वंशज आज भी रामदेवरा में पूजा-कर्म करते हैं। बीठलदासोत चांपावत राठौड़ों को पोकरण का पट्टा दिए जाने से पूर्व इस क्षेत्र में पोकरणा राठौड़ों का वर्चस्व रहा। कालान्तर में नरावत राठौड़ो ने छल से पोकरण क्षेत्र इनसे हस्तगत कर लिया। लगभग 90 वर्षों तक जैसलमेर के भाटी शासकों का पोकरण पर अधिकार रहा जिससे बडी संख्या में भाटी राजपूत यहां बस गए। पोकरणा राठौड़ और भाटी राजपूत इस क्षेत्र में लूटपाट के लिए कुख्यात रहे हैं।
पोकरण में वैश्य समुदाय आबादी में सदैव  सर्वाधिक रहे। इससे पता चलता है कि पोकरण की  बसावट से ही आर्थिक दृष्टि से यह शहर महत्वशील रहा है। वैश्य वर्ण में माहेश्वरियों की संख्या सर्वाधिक रही। भूतड़ा, राठी, चाण्डक इत्यादि माहेश्वरी कुलों की संख्या अधिक रही। यह माना जाता है कि माहेश्वरी जाति के लोग पूर्व में क्षत्रिय वर्ण से थे किन्तु वणिक कर्म अपनाए जाने के कारण वैश्य वर्ण में परिगणित हुए। बाद में खान-पान में इन्होंने निरामिष को अपना लिया। भूतड़ा माहेश्वरी समुदाय पोकरण में सबसे पहले आकर बसा हुआ माना जाता है। पोकरण के समीप खींवज माता का मंदिर, जो भूतड़ा माहेश्वरियों की कुलदेवी है पर स्थापना तिथि वि.सं. 1028 (971 ई.) अंकित है। इससे उपरोक्त तथ्य की पुष्टि की जा सकती है। भैरव राक्षस भूतड़ा कुल का माहेश्वरी माना जाता था। पोकरण ठिकाणे को इन वणिक वर्णों से पर्याप्त धन राशि करों के रूप में प्राप्त होती थी। जन्म-विवाह इत्यादि समारोह के अवसर पर इस समुदाय से चिरा के रूप में अच्छी खासी रकम प्राप्त होती थी।1 माहेश्वरियों द्वारा पूर्तकर्म करने के उद्देश्य से प्याऊ, तालाब, मंदिर इत्यादि बनवाए। ओसवाल वैश्य देश की आजादी के समय बड़ी संख्या में यहां से पलायन कर गए।
चतुर्थ वर्ण में माली, बुनकर, चाकर (रावणा राजपूत), दर्जी, जाट, सुनार, तेली, स्यामी (स्वामी), मोची, नाई, कुम्हार, धोबी इत्यादि आते थे। कुछ स्थानीय लोगों की यह मान्यता है कि पोकरण पोकर माली का स्थान था। पहले यहां माली और मोची रहा करते थे। एक दिन संयोग से एक राजपूत यहां पहुंचा। मालियों ने उसे अपनी सुरक्षा के लिए उसे रूकने को कहा तथा उसके लिए एक कोठरी बनवा दी। उस कोठरी के निकट एक रात्रि एक सिंह ने एक बकरी के बच्चे का भक्षण करना चाहा। बकरी ने जबरदस्त संघर्ष करते हुए सिंह के इस प्रयास को विफल कर दिया। तदुपरान्त घटना वाले स्थल को पवित्र भूमि समझ कर वहां एक पोल बनवा कर चारदीवारी बनवाई गई। पोकरण का पुराना मुख्य द्वार इसी स्थान पर निर्मित किया हुआ बताया जाता है। 

CHAPTER 8



अध्याय - 8


पोकरण शासको का सांस्कृतिक क्षेत्र में योगदान
पोकरण का किला
पोकरण का किला पश्चिमी राजस्थान के प्राचीनतम किलों में से एक है। जोधपुर और जैसलमेर राज्य की सीमा पर अवस्थित होने के कारण यह सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था। इसी वजह से यह दुर्ग दोनांे राज्यों के मध्य संघर्ष का बड़ा कारण बना। लगभग 90 वर्षों को छोड़कर यह किला जोधपुर राज्य के अधीन रहा। अल्पकाल के लिए यह राव मालदेव के समय सुल्तान शेरशाह सूरी के समय दिल्ली सल्तनत के अधीन रहा जिसने राव मालदेव का पीछा करते हुए पोकरण पर अधिकार किया और अपना एक थाना यहां स्थापित किया। कुछ समय के लिए यहाँ मुगलवंशी औरंगजेब का भी अधिकार रहा।
पोकरण के किले का निर्माण किसने और कब करवाया, इससे जुडे़ अनेक मिथक प्रचलित हंै। किन्तु इस बात को लेकर सर्वसम्मति है कि पोकरण किला का जो वर्तमान स्वरूप है, वह इसकी स्थापना के समय ऐसा नहीं रहा होगा। पोकरण किले का वर्तमान स्वरूप एक क्रमिक प्रक्रिया रही होगी। पोकरण किले का इतिहास का पता लगाने से पूर्व हमें पोकरण कस्बे या शहर का इतिहास खंगालना होगा।
पोकरण की विशिष्ट भौगोलिक परिस्थिति यथा निम्न भूमि, जल की उपलब्धता, यहां की मिट्टी की भिन्न प्रकृति, मरू बालूका मिट्टी से भिन्न ललाई लिए हुए है। मिट्टी के टीबों की अनुपस्थिति चारों और चट्टानी क्षेत्र से निर्मित छोटा अपवाह तंत्र इत्यादि लक्षणों के कारण यहां निश्चित ही प्राचीन बसावट रही होगी। प्राचीन काल और मध्यकाल में दूसरे स्थानों की अपेक्षा यहां जल की उपलब्धता अवश्य ही काफी अच्छी थी। जोधपुर के राव सूजा के पुत्र नरा जिसे फलौदी प्राप्त थी, पोकरण की जल उपलब्धता की वजह से ही यहां अधिकार करने हेतु प्रेरित हुआ।1 स्पष्ट है कि आबादी बसावट के लिए यहां की परिस्थितियाँ   अनुकूल थी।
श्री विजयेन्द्र कुमार माथुर ने पोकरण को महाभारतकालीन पुष्कराराण्य नगर माना जहां उत्सवसंकेत गण रहा करते थे। इस मान्यता की स्वीकृति से पोकरण का इतिहास ईसा से कई शताब्दी पूर्व चला जाता है। उस काल में भी लोग प्रशासनिक केन्द्र के रूप मंे दुर्ग या गढि़या बनाया करते थे। अतः पोकरण में किला महाभारत काल में ही बन गया होगा। श्री विजयेन्द्र कुमार माथुर ने श्री हरप्रसाद शास्त्री को उद्घृत किया जिनके अनुसार महरौली (दिल्ली) के प्रसिद्ध लौह स्तम्भ का चन्द्र वर्मा और समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति का चन्द्र वर्मा एवं मंदसौर अभिलेख (404-05 ई.) का चन्द्रवर्मा यहीं का शासक था।2 जब शासक था तो उसका प्रशासनिक केन्द्र दुर्ग भी अवश्य ही रहा होगा। पोकरण से प्राप्त 1013 ई. के अभिलेख से इस क्षेत्र में पहले गुहिलों और फिर परमारों के वर्चस्व की ओर इशारा करते हैं।3 इसके बाद लगभग तीन शताब्दी से भी अधिक समय तक यहां परमारों का राज रहा। निश्चित रूप से परमारों के समय यहां कोई गढ़ या छोटी गढ़ी  रही होगी। उस काल में परमारों द्वारा पश्चिमी राजस्थान में दुर्ग श्रृंखला बनाए जाने के निश्चित प्रमाण मिलते हैं। कालान्तर में पंवार पुरूरवा ने नानग छाबडा को गोद लिया जिससे पोकरण में छाबड़ा वंश का शासन प्रारंभ हुआ।
मुहता नैणसी जनश्रुति के आधार पर भैरव राक्षस द्वारा छाबड़ा वंशी शासक महिध्वल को पकड़ कर मार डालने का वर्णन करता है। यह घटना तेरहवीं शताब्दी के प्रारंभ की रही होगी। इस घटना के बाद पोकरण भैरव राक्षस के भय से उजड़ गया। कालान्तर में तेरहवीं शताब्दी के चैथे पांचवे दशक में तंवर अजमाल जी ने राव मल्लिनाथ जी से पोकरण बसाने की स्वीकृति ली। उन्होंने पंवारों (परमार) के दुर्ग में आश्रय लेकर पोकरण पुनः बसाने की स्वीकृति ली। पंवारों (परमार) के दुर्ग में आश्रय लेकर पोकरण पुनः बसाने के प्रयास प्रारंभ किये। इसी दौरान अपनी किशोरावस्था में (लोककथाओं के अनुसार) अजमाल तंवर के पुत्र रामदेव ने भैरव राक्षस को पराजित कर सिन्ध भगा दिया। संभवतः अजमाल जी, वीरमदेव जी तथा रामदेवजी द्वारा दुर्ग का पुनर्निमाण करवाया गया। कुछ समय पश्चात् तंवरों ने अपने वंश की एक कन्या राव मल्लिनाथ के पौत्र हमीर जगपालोत (पोकरणा राठौड़ों के आदि पुरुष) से ब्याही। विवाह के पश्चात् रामदेव जी ने कन्या से कुछ मांगने के लिए कहा। हमीर जगपालोत के कहे अनुसार उसने गढ़ के कंगूरे मांग लिए। रामदेवजी ने उदारता पूर्वक इसे स्वीकार कर लिया जिससे पोकरण गढ़ पर राव हम्मीर का अधिकार हो गया। कालान्तर में जोधपुर के शासक राव सूजा के पुत्र नरा ने छल से पोकरण दुर्ग पर अधिकार कर लिया। उसने पोकरण से कुछ दूर पहाड़ी पर किला बनाकर सातलमेर बसाया। पोकरण गढ़ पर अपना अधिकार रखा किन्तु आबादी को सातलमेर स्थानान्तरित कर दिया। 1503 ई. के लगभग पोकरणा राठौड़ों से हुए युद्ध में नरा वीरगति को प्राप्त हुआ जिससे पोकरण-सातलमेर दुर्गों पर पोकरणा राठौड़ों का अधिकार हो गया। यह अधिकार अल्पकालिक स्थापित हुआ। क्योंकि जोधपुर के राव सूजा ने उन्हें परास्त कर खदेड़ दिया। कालान्तर में 1550 ई. में राव मालदेव ने पोकरण सातलमेर दुर्गों पर अधिकार कर लिया। उसने सातलमेर के दुर्ग को नष्ट कर दिया तथा पोकरण के पुराने गढ़ का पुनर्निर्माण करके उसे सुदृढ़ स्वरूप दिया।4 सातलमेर गढ़ के पत्थरों को मेड़ता भिजवाकर मालकोट बनवाया।5 कुछ वर्षों बाद जब मारवाड़ पर मुगल प्रभुत्व स्थापित  हो गया तब राव चन्द्रसेन ने एक लाख फदिये में पोकरण दुर्ग और उससे लगे क्षेत्र जैसलमेर के भाटियों को गिरवी रूप में दे दिए। अनन्तर 100 वर्षों के बाद महाराजा जसवंतसिंह के समय मुहता नैणसी के नेतृत्व में आई एक सेना ने पोकरण पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार पोकरण दुर्ग पर प्रभुत्व बदलता रहा और अन्ततः स्थायी रूप से आजादी तक जोधपुर राज्य के स्वामित्व में रहा। महाराज अजीतसिंह के समय जब मारवाड़ पर मुगल प्रभुत्व स्थापित हुआ था, पोकरण में एक थाना स्थापित किया गया। महाराजा अभयसिंह के समय पोकरण के नरावत राठौड़ों के विद्रोह करने पर बीठलदासोत चांपावत महासिंह को यह दुर्ग और इससे लगे 72 गांव पट्टे में दिए गए। ठा. सवाईसिंह के समय दुर्ग का कुछ हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया, तब महाराज विजयसिंह ने राजकीय खजाने से इस दुर्ग का पुनर्निर्माण करवाया। 19 वीं शताब्दी में ठा. मंगलसिंह ने दुर्ग के अन्दर की एक पुरानी इमारत को गिरवाकर आधुनिक स्थापत्य विशेषताओं का समन्वय करके मंगल निवास बनवाया।

REFERENCES LIST

संदर्भ गं्रथ सूची

ठिकाणा पोकरण संग्रह, पोकरण किला -
1. ठिकाणा पोकरण का इतिहास, क्रम संख्या अंकित नहीं है।
2. प्रधानगी बही संख्या 1901 से 1931 भादों तक।
3. प्रधानगी बही (सं. 1859 से 1906), क्रम संख्या अंकित नहीं है।
4. रामदेवजी रे मेले री बही, क्रम संख्या अंकित नहीं है।
5. कोठार बही (सं. 1992), क्र.सं.1

6. रोकड़ बही (सं. 1872 से 74), क्र. सं. 2
7. चेरा (चेहरा) बही (सं 1907से 09), क्र.सं.3
8. सूड री बही (सं.-1896-97), क्र.स. 4
9. कपड़े री बही (सं.1874), क्र.स. 5
10. गहणा कपड़ा री बही (सं.1871), क्र.स. 6
11. वीरमदेव रे मतेला बही (सं.1880 से 1883), क्र.स. 7
12. साथ रे रसोडा रो चैपनियां (सं.1983), क्र.स. 8
13. तोशाखाना री बही (सं. 1864), क्र.स. 9
14. तोशाखाना बही (सं. 1889), क्र.स. 11
15. अमल री बही (सं.-1892 सं 1895), क्र.स. 10
16. मांसवारा री बही (सं.-1985), क्र.स. 12
17. रोजनावा री बहीं (सं.1981), क्र.स. 13
18. सूड री बही (सं.-1895-1996), क्र.स. 15
19. अनरे कोठार से जमा खर्च री बही (सं. 1953), क्र.स. 16
20. खाताबही (सं. 1923), क्र.सं. 17
21. दाण बही (सं.-1953, 1954), क्र.स. 20
22. स्टाम्प पाना जमा खर्च री बही (सं.1932), क्र.सं. 21
23. भंवर जी जनमियाँ जिण री बही (सं.-1967), क्र.स. 22
24. माली नरसींगा सूरज आवे तीको री बही (सं.1992), क्र.सं. 23
25. पोकरण कचेडी तालके स्टाम्पों रे बिक्री रो चैपनियाँ, (सं.1929), क्र.सं. 24
26. चेरां री बही (सैनिक) (सं.1924, 1941), क्र.स. 29, 30
27. महाजन चेरा बही (सं. 1909), क्र.स. 31
28. चेरा की कबूलायत री बही (सं. 1936), क्र.स. 32
29. जोधपुर री बही (सं.1845), क्र.सं.24, क्षतिग्रस्त
30. जमा बन्दी री बही (सं. 1889), क्र.स. 35
31. पेट्रोल स्टाॅक खाता, क्र.सं. 36
32. जूणी बहियों का खात (सं. 1960), क्र.स. 38
33. जमाबन्दी (सं.-1927-28) क्र.स. 44
34. खास पोकरण री जमाबन्दी (सं. 1991), क्र.स. 45
35. कासा साड़ी वगैरा री बही (सं.-1932, 1928), क्र.स. 46, 48
36. चिरा री बही (सं.-1889, 1923, 1928 से 1935), क्र.स. 49, 50,51 क्रमशः
37. नैतो री बही (सं.-1967), क्र.स. 52
38. वैक्सीनेटर री बही (सं. 1961, 1972), क्र.स. 53, 54
39. जन्म उत्सव री बही (सं.1945), क्र.स. 55
40. साण्डियाँ (टोले) री बही (सं. 1945 से 1966), क्र.स. 56
41. टोले व हाजरी री बही (सं. 1960से 1983), क्र.स. 57
42. नेता, चिरा री बही (सं. 1949से 1954), क्र.स. 58
43. कबुलायत री बही (सं. 1957), क्र.स. 59
44. घेणा री बही (सं. 1972), क्र.स. 60
45. कून्ता री बही (सं.1971, 1972), क्र.स. 61
46. गांव रे दांण री बही (सं.-1903-13, 1926), क्र.स. 62, 63, क्रमशः
47. सेड़ा री बही (सं. 1907), क्र.सं. 64
48. हथौड़े री बही (सं.-1952), क्र.स. 65
49. गांवो रे थाणा तालके री बही (सं. 1871 से 1891), क्र.सं. 66
50. दांण री बही (सं.1861), क्र.सं. 67
51. थाणा तारलके री बही (सं. 1929), क्र.स.69
52. उनालू साख री बही (सं. 1973), क्र.स. 71
53. सावा बही (सं. 2003), क्र.स. 80
54. रकम री खसरा बही (सं. 1985), क्र.स. 81
55. थाणा खारा (सं.2003), क्र.स. 84
56. मेल बही (सं. 1992), क्र.स. 103
57. मुकाता बही (सं. 1980 से 85), क्र.स. 114
58. धड़ा री बही (सं. 1981), क्र.स. 115
59. श्री रावले मांध्यला नांवा री बही (सं. 1873 से 1875), क्र.स. 122
60. चंवरी लाग मुआवरी री बही (सं.1953), क्र.स. 122
61. मुकाता सावा री बही (सं. 1954), क्र.स. 143
62. लेख री बही (सं. 1885), क्र.स. 150
63. बावडियों रे मुकाते वगैरहा (सं.1966 से 1975), क्र.स. 151
64. बही मामलात पोते बही (सं. 1986), क्र.सं.156 क्षतिग्रस्त
65. नुघ री बही (सं. 1902-15), क्र.स. 159
66. भवानी सिंह रे ब्याव रो जमा खर्च (सं. 1985), क्र.स. 334
67. धान भराई री बही  (सं.-1994), क्र.स. 471
68. कमठा री बही (सं. 1943), क्र.स. 483
69. थोणा बही (सं. 1985 से 1992), क्र.स. 493
70. खासा कोठार री बही (सं. 1996), क्र.स. 496
71. फुटकर खरीद री बही (सं. 1998), क्र.स. 497
72. मुतफरकात री बही (सं. 2003), क्र.स. 500
73. चराई तालके री बही (सं.-1997), क्र.स. 502
74. हथोड़ा लाग री बही (सं. 2001), क्र.स. 503
75. दसरावा री लागत (सं. 1980), क्र.स. 504
76. फैरेस्त री बही (सं. 1936), क्र.स. 505
77. रसोडों व कठोर रही बही (सं. 1950), क्र.स. 508
78. जमाबन्दी व आमदनी खाता (सं. 1896 से 1941), क्र.स. 562, क्षतिग्रस्त
79. खरीद री बही (सं. 1990 से 1993), क्र.स. 574
80. थाणा रे मेल री बही (सं. 2003), क्र.स. 654
81. रामदेवरा रे मजार री बही (सं. 1924), क्र.स. 654
82. तबेले तालके री बही (सं. 2007), क्र.स. 1301, क्षतिग्रस्त
83. ब्याव तालके री बही (सं. 1989), क्र.सं. 1301, क्षतिग्रस्त
84. अदालत री बही-पोकरण ठिकाणा (सं. 1955), क्र.सं. 1373
85. कपड़ा री बही (सं.-1867 से 1871), क्र.स. 1443
86. श्री रामदेव रे मेला री बही (सं.-1923), क्र.स. 1487
87. बाइसा रे विवाह री बही (सं.-1988), क्र.स. 1503
88. किशोर कंवर से ब्याव री बहीं (सं.-1993), क्र.स. 1502
89. ब्याह में कंेवर साब रे माल खरीद री बही (सं. 1985), क्र.स. 1504
90. ब्याह री बही (सं. 1988), क्र.स. 1505
91. कुतर मशीन तालके री बही (सं. 1942), क्र.स. 1507
92. आटे री चक्की तालके, क्र.सं. 1518
93. निजराणे रो चैपनियाँ (सं. 1952), क्र.सं. 1523
94. बही भांटां री (सं. 1949), क्र.स. 1528
95. देवल बणायो जिण रो चैपनियों (सं. 1985), क्र.स. 1531
96. देवल तालके जमा खर्च रो चैपनियो (सं. 1985-1988), क्र.स. 1532
97. बाजार रो चैपनियों (सं.-1970, 71), क्र.स. 1535, 36
98. रतन खां गुजरिया जिण री बही (सं. 1988), क्र.सं. 1534
99. बारेह दिनों में खर्च री बही (सं.-1933 से 1938), क्र.स. 1538
100. ठाकुरों व ठकुरानियों ने बारे में दिनों के खर्चों री बही (सं.-1934 से 1937, 1941 ), क्र.स. 1540, 1541
101. सकर खर्च तालके री बहीं, क्र.सं. 1547
102. कपड़ा रौ चैपनियों (सं. 1877से 1879) क्र.सं. 1548
103. रामदेव री कोटडी में तिबारी बनाई, तिण रो चैपनियों (सं. 1990), क्र.सं. 1549
104. ब्याह री बही (सं. 1985), क्र.सं. 1551
105. इण्डियन इयर बुक एण्ड डूज हू 1945 (रिप्रिन्ट)
राजस्थान  अभिलेखागार जोधपुर (हुजुरी दफ्तर रिकाॅर्ड)
1. सनद बही, (सं. 1943 री मिति बदी 2) क्र.सं. 2483 
2. हकीकत बही, (सं. 1914) क्र.सं. 2637 
3. चाम्पावतों का पट्टा बही (सं. 1808 से 1867), क्र.सं. 67
4. ओहदा बही (सं. 1860 से 1905), क्र.सं. 61
5. घोड़ा नजर री बही (सं. 1952), क्र.सं. 58
6. बही आॅफ क्लानवाइज जागीर इस्टेट्स (सं. 1808 से 1848), क्र.सं. 2573
7. बही आॅफ खास रूक्का परवाना, खास रूक्का, क्र.सं. 2575
8. खांपवार बेतलबी रो खातो, क्र.सं. 2476
9. हुकुमनामा न्योत नजराना री बही, क्र.सं. 2567
10. रूक्का बही, क्र.सं. 2623, 2624
11. रेख रूकां री बही, क्र.सं. 2640, 2686
12. परगनावार में खांपवार जागीरां रो खातो, क्र. 2686
13. कैफियत रूक्का बही (सं. 1941), क्र.सं. 250, 251
लाइब्रेरी बुकस
1. विलेज रिंकस्ट्रक्शन बाय ठाकुर मंगल सिंह (1918-19), क्र.सं. 42
2. दी लाज एण्ड प्रिसिपलस आॅफ सक्सेशनस टू जागीर लैण्डस् इन मारवाड़ क्र.सं. 1534
राजस्थान राज्य अभिलेखागार,  बीकानेर (दस्तरी रिकाॅर्ड)
1. हकीकत रजिस्टर नंबर 69, 67, 62
2. खास रूक्का परवाना बही, नंबर 2, 4, 22
3. हकीकत बही नंबर 9, 18, 44, 38, 43, 12, 13, 55, 42, 44, 56, 39, 48, 40, 54, 41, 59, 49
4. खरीता बही नंबर 12, 14
5. हकीकत खाता रजिस्टर, नंबर 42
6. सनद बही, नंबर 54, 98, 59
7. हथबही, नंबर 5
8. हकीकत खाता बही, नंबर 3
9. चांपावतों की ख्यात, फाइल नंबर 27/101
राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर
1. ठाकुर देवीसिंह री झमाल, गं्रथांक-15654 (5) पत्र संत्र 85 से 102
2. महकमां तवारीख री मिसलां, क्र.सं. 126, ग्रंथ 15662
3. राव चन्द्रसेन री ख्यात, गं्र. सं. 1632
4. महाराज रामसिंह री ख्यात (भण्डारी फौजचन्द जी री तवारीख री नकल), गं्रथांक - 15656 (3)
5. महाराजा भीमसिंह री ख्यात गं्रथांक 15645
अखबार - राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली 
1. फाॅरेन पाॅलिटिकल   जनवरी 29, 1807 नंबर 32
2. फाॅरेन पाॅलिटिकल सितम्बर 01, 1807 नंबर 6 अ
3. फाॅरेन पाॅलिटिकल सितम्बर 08, 1807 नंबर 6 अ
4. फाॅरेन पाॅलिटिकल जुलाई, 29 , 1828 नंबर 24
5. फाॅरेन पाॅलिटिकल सितम्बर 9, 1818 नंबर 13-14
6. फाॅरेन पाॅलिटिकल दिसम्बर 08 1821 नंबर 42-43
7. फाॅरेन पाॅलिटिकल मार्च 31,  1821 नंबर 13-14
8. फाॅरेन पाॅलिटिकल अगस्त 26, 1820 नंबर 29-30
9. फाॅरेन पाॅलिटिकल सितम्बर 23, 1820 नंबर 6-8
10. फाॅरेन पाॅलिटिकल जुलाई 4, 1824 नंबर 7
11. फाॅरेन पाॅलिटिकल फरवरी 25, 1825 नंबर 8 ओर 9
12. फाॅरेन पाॅलिटिकल मइ 5, 1825, नंबर 10
13. फाॅरेन पाॅलिटिकल : सितम्बर 28, 1827 नंबर 10
14. फाॅरेन पाॅलिटिकल अक्टूबर 12, 1827 नंबर 11
15. फाॅरेन पाॅलिटिकल जुलाई 29, 1838, नंबर 15
16. फाॅरेन पाॅलिटिकल अगस्त 8, 1828 नंबर 24से 26
17. फाॅरेन पाॅलिटिकल मार्च 6, 1834 नंबर 16 से18
18. फाॅरेन पाॅलिटिकल अप्रेल 24, 1834 नंबर 27 से 28
19. फाॅरेन पाॅलिटिकल फरवरी 19, 1834 नंबर 33 से 35
20. फाॅरेन पाॅलिटिकल नवम्बर 18, 1845 नंबर 186
21. दी गारजीयन अगस्त 27, 1931
22. पाॅलिटिकल कन्सलटेशन फरवरी 5, 1807 नंबर 127
23. पाॅलिटिकल कन्सलटेशन फरवरी 12, 1807 नंबर 96
24. पाॅलिटिकल कन्सलटेशन फरवरी 26, 1807 नंबर 26, 28,29
25. पाॅलिटिकल कन्सलटेशन मई 7, 1807, नंबर 22
26. पाॅलिटिकल कन्सलटेशन सितम्बर 01, 1807 नंबर 6 अ 14 अ
27. पाॅलिटिकल कन्सलटेशन सितम्बर 08, 1807 नंबर 13 अ
28. सिक्रेट कन्सलटेशन जनवरी 19, 1807 नंबर 3
प्रकाशित गं्रथ - 
हिन्दी गं्रथ
1. बदरी शर्मा, दासपों का इतिहास, सेणा सदन, चांदपोल द्वार जोधपुर-1954
2. बदरी प्रसाद साकरिया, मुहता नैणसी री ख्यात, भाग प्रथम, साकरिया द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर 1967
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4. बलदेव प्रसाद मिश्र, जवाला प्रसाद मिश्र एवम् रायमुशी देवी प्रसाद (अनुवाद एवम् सम्पादन) जेम्स टाॅड कृत जोधपुर का इतिहास, यूनिक ट्रेडर्स, जयपुर 1998, रायमुंशी देवी प्रसाद
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7. जी. आर. परिहार, मराठा- मारवाड़ सम्बन्ध, हिन्दी साहित्य मंदिर, जोधपुर 1967
8. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, प्रथम, द्वितीय  खण्ड व्यास एण्ड सन्स, अजमेर, वि.सं. 1998
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10. जगदीश सिंह गहलोत, मारवाड का इतिहास, महाराज मानसिंह पुस्तक प्रकाश, जोधपुर-1992
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35. नारायणसिंह भाटी (सम्पादक) जैसलमेर री ख्यात, राजस्थानी शोध संस्थान, जोधपुर, 1981 
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21. एस. के. शर्मा, मारवाड  एण्ड इट्स पोलिटिकल एडमिनिटस्ट्रेशन दीप एण्ड दीप पब्लिकेशन प्रा. लि. थ्.139ए राजोरी गार्डन, नई दिल्ली, 2000
22. उदयराज माथुर, सेन्सस आॅफ मारवाड़ स्टेट 1891, गर्वमेण्ट आॅफ इण्डिया, 1891
23. विश्वेवर नाथ रेऊ, ग्लोरीज आॅफ मारवाड एण्ड दी ग्लोरियस राठौड़, आर्कियालोजीकल डिपार्टमेन्ट, जोधपुर, 1943।
पत्र-पत्रिकाएं -
1. परम्परा, राजस्थान शोध संस्थान, चैपासनी जोधपुर।
2. शोध पत्रिका, साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, जयपुर।
3. स्मारिका, शक्ति स्थल पोकरण
4. विश्वम्भरा, हिन्दी विश्व भारती अनुसंधान परिषद् बीकानेर 
5. मज्झमिका,  प्रताप शोध प्रतिष्ठान उदयपुर । 
6. राजस्थान हिस्ट्री कांग्रेस 
7. अखिल भारतीय हिस्ट्री कांग्रेस 
8. वरदा, बिसाऊ, बीकानेर 
9. राजस्थान भारती

Friday 22 November 2013

RESEARCH SUMMARY: HISTORY OF POKARAN AND CHAMPAWAT RATHORS


                           





शोध संक्षेपण
पोकरण का राजनीतिक और सास्कृतिक इतिहास
पश्चिमी राजस्थान के विस्तृत मरुभूमि की गोद में अवस्थित पोकरण अपनी विशिष्ट भौगोलिक विशेषताओं, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और सांस्कृतिक गतिविधियों के कारण सदियों से चर्चित रहा है। यह 26055‘ उŸार और 71055‘ पूर्व तथा जोधपुर से 80 कि.मी. दूर स्थित है। शीतोष्ण शुष्क किन्तु निम्न भूमि होने के कारण यहांँ पीने के जल की उपलब्धता सम्पूर्ण पश्चिमी मरूभूमि की अपेक्षा कुछ अच्छी है।
प्रारम्भिक इतिहास -
किंवदन्तियों के अनुसार पुष्करणा ब्राह्मण के आदि पुरुष पोकर ऋषि की कर्मस्थली होने के कारण यह स्थान पोकरण कहलाया। रियासती काल में पोकरण जैसलमेर और मारवाड़ राज्यों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण विवाद का बिन्दु बना। कालान्तर  में 1728 ई. में यह मारवाड़ राज्य के प्रधान की पट्टाशुदा जागीर होने से चर्चित रहा।
लगभग 100 गांवों का यह पोकरण पट्टा प्रशासनिक शब्दावली में ‘ठिकाणा’ नाम से जाना जाता था। ठिकाणा एक शासक द्वारा सामान्यतया अपने भाई बन्धुओं को दिया गया वह अहस्तान्तरणीय पैतृक भू-क्षेत्र या जागीर पट्टे का वह मुख्य गांव था जिसमें ठिकाणों को प्राप्त करने वाला सरदार अपने परिवार सहित कोट, कोटडियों या हवेली में निवास करता था। जागीर पट्टे के सभी गांवों का शासन प्रबंध एवं संचालन इसी प्रशासनिक केन्द्र से किया जाता था तथा इससे राज्य का सीधा सम्बन्ध होता था। चारणों और ब्राह्मणों को दिए गए गांव (डोली एवं सांसण) सामान्यतया इस श्रेणी में नहीं आते थे।
ठिकाणे के स्वामी ठाकुर, धणी, जागीरदार, सामन्त या ठिकाणेदार इत्यादि नामों से जाने जाते थे। ठिकाणे के संचालन को ’ठकुराई’ कहा गया। मारवाड़ ये ठाकुर युद्ध और प्रशासन में महाराजा के परम् सहयोगी हुआ करते थे। उनमें ये भावना निहित थी कि वे अपनी पैतृक सम्पŸिा की सामूहिक रूप से रक्षा करने हेतु ऐसा कर रहे है। अपनी इस विशेष स्थिति के कारण ठिकाणेदारों को अनेक विशेषाधिकार और विशिष्ट सम्मान प्राप्त थे। इसके बावजूद ठिकाणेदारों और महाराजा के परस्पर सम्बन्ध काफी उतार-चढ़ाव युक्त रहे।
पोकरण का संदर्भ ऐतिहासिक ‘‘महाभारत’’ में पुष्करण या पुष्करारण के नाम से मिलते है जहां उत्सवसंकेत गणों को नकुल ने दिग्विजय यात्रा में हराया था। लगभग इसी नाम से एक स्थल का विवरण समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में भी मिलता है, किन्तु यह विवादास्पद है। 17 वीं शताब्दी में 1013 ई. में दो शिलालेखों से इस क्षेत्र में गुहिल और परमार शासकों की गतिविधियों के संकेत प्राप्त होते है। मुहता नैणसी री ख्यात उपरोेक्त कला में भाटी, झाला और वराह पंवारों (परमार) की राजनीतिक गतिविधियों का विवरण देता है। मुहता नैणसी लगभग 14वीं शताब्दी में पोकरण में पोकरण पुरूरवा, नानग छाबड़ा, महिध्वल तथा भैरव राक्षस द्वारा महिध्वल को पकड़ कर पोकरण को सूना करने का विवरण देता है।
15 वीं शताब्दी में रावल मल्लिनाथ पोकरण और उसके आस-पास के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। कालान्तर में अजमालजी तंवर और उसके पुत्र रामदेवजी ने रावल मल्लिनाथ की आज्ञा से पोकरण पुनः बसाया। राव मल्लिनाथ के पौत्र हम्मीर-जगपालोत की रामदेवजी की भतीजी और वीरमदेव की पुत्री से विवाह के उपलक्ष्य में पोकरण दहेज में दिया गया। रामदेवजी पोकरण से कुछ दूर रूणिचा या रामदेवरा में जा बसे। पोकरण में हम्मीर के वंशज पोकरणा राठौड़ कहलाए। पोकरणा राठौड़ों और जैसलमेर के भाटियों में पोकरण के अधिकार को लेकर निरंतर संघर्ष चलता रहा। इसी बीच मण्डोर के शासक राव सातल के पुत्र नरा (नरसिंह) ने मौका देखकर पोकरण पर अधिकार कर लिया। उसने पोकरण के समीप सातलमेर में नया किला बनवाया। पोकरण के राठौड़ों ने तब राव खींवा के नेतृत्व में संगठन बनाकर आक्रमण कर दिया। इस संघर्ष मंे राव नरा वीरगति को प्राप्त हुआ। तदुपरान्त राव सूजा ने पुत्र की हत्या का प्रतिशोध लेने हेतु फौज भेजकर पोकरणा राठौड़ों को वहां से खदेड़ दिया।
16 वीं शताब्दी के प्रारंभ में राव खींवा के पुत्र लूंका ने महेवा के स्वकुलीय राठौड़ों की सहायता से पोकरण पर आक्रमण किया। पोकरण सातलमेर के शासक राव गोविन्द ने उसे आधा राज्य देकर समझौता कर लिया। 1550 ई. में राव मालदेव ने सेना भेजकर राव गोविन्द के पुत्र जैतमाल को पराजित कर कैद कर लिया और पोकरण-सातलमेर को अपने प्रत्यक्ष नियंत्रण में ले लिया। उसने सातलमेर का गढ़ नष्ट करके पोकरण के किले का पुनर्निर्माण करवाया और पुलिस चैकी की स्थापना की। उसके उŸाराधिकारी राव चन्द्रसेन की बादशाह अकबर की सेना से हार हुई। राव चन्द्रसेन ने मण्डोर का दुर्ग त्याग कर पीपलण के पहाड़ों में शरण ली। इस दौरान जैसलमेर महारावल हरराज ने पोकरण पर अधिकार करने का प्रयास किया। असफल रहने पर उसने एक लाख फदियों में पोकरण गिरवी रखने की पेशकश की। राव चन्द्रेसन ने इसकी स्वीकृति दे दी क्योंकि उसे धन की आवश्यकता थी।
तदनन्तर 74 वर्षों तक पोकरण पर जैसलमेर के भाटियों का अधिकार रहा। महाराजा जसवन्तसिंह ने बादशाह शाहजहां की आज्ञा से सेना भेजकर पोकरण पर पुनः अधिकार कर लिया। सात वर्ष पश्चात् महारावल सबलसिंह ने पोकरण पर अधिकार कर लिया। महाराजा जसवंतसिंह प्रथम ने मुहता नैणसी के नेतृत्व में एक सेना भेजकर पोकरण पुनः हस्तगत कर लिया तथा उसने आगे बढ़कर आसणीकोट तक लूटमार की। बीकानेर महाराज कर्णसिंह की मध्यस्थता में दोनो पक्षों में संधि सम्पन्न हुई। महाराजा जसवंतसिंह प्रथम की मृत्यु के बाद महारावल अमरसिंह ने पोकरण पर अधिकार करने के प्रयास पुनः प्रारंभ किए। वह औरंगजेब से पोकरण-सातलमेर और फलौदी का पट्टा लिखवाने में असफल रहा। इसी दौरान जोधपुर दुर्ग पर शाही आक्रमण के समय कुंवर राजसिंह के मारे जाने से उसकी पोकरण-फलौदी के प्रति रूचि समाप्त हो गई। उसने मारवाड़ के राठौड़ों से कटुता दूर करने के लिए अपनी पुत्री का विवाह महाराजा अजीतसिंह से कर दिया।

जोधपुर रियासत द्वारा चम्पावतों को पोकरण का पट्टा दिए जाने के पश्चात् से ठाकुर भवानीसिंह तक का इतिहास-